बकरियों ने देखा जब बुरूँस वन वसन्‍त में - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 8

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बकरियों ने देखा जब बुरूँस वन वसन्‍त में - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 8

लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल
हरा बस किंचित कहीं ही जरा-जरा
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर-डांडे श्‍वेत-श्‍याम
ऐसा हाल!
अद्भुत
लाल!
बकरियों की निश्‍चल आंखों में
खुमार बन कर छा गया
आ गया
मौसम सुहाना आ गया
Viren-Dangwal

उठा लंगर खोल इंजन–1 - वीरेन डंगवाल

उठा लंगर, छोड़ बंदरगाह
नए होंगे देश, भाषा, लोग जीवन
नया भोजन, नई होगी आंख
पर यहीं होंगे सितारे
ये ही जलधि-जल
यह आकाश
ममता यही
पृथ्‍वी यही अपनी प्राणप्‍यारी
नएपन की मां हमारी धरा

हवाएं रास्‍ता बतलाएंगी
पता देगा अडिग ध्रुव चम-चम-चमचमाता
प्रेम अपना
दिशा देगा
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा
लिहाजा,
उठा लंगर, खोल इंजन छोड़ बंदरगाह

हैं अभी वे लोग जो ये बूझते हैं
विश्‍व के हित न्‍याय है अनमोल
वही शिवि की तरह खुद को जांचते
देते स्‍वयं को कबूतर के साथ ही में तोल

याद है क्‍या यह कहानी ?
सातवीं में यह पढ़ी थी
मगर फिर भी बस कहानी ही नहीं है
आदमी है आदमी है आदमी
आदमी कमबख्‍त का सानी नहीं है
फोड़ कर दीवार कारागार की इंसाफ की खातिर
तलहटी तक ढूंढता है स्‍वयं अपनी थाह

उठा लंगर खोल इंजन–2 - वीरेन डंगवाल

उठा लंगर छोड़ बंदरगाह
अभी मिलना नहीं है विश्रांति का अवसर
कभी मिलना नहीं है
बस खोजनी है राह
गरजते हैं मेघ कड़-कड़-धमक-धम-धम
गरजता है जल
चपल विक्षुब्‍ध छल
बरसता है जल
फटे दिल से फेंकता बादल लुआठे आग के
मेघ लीला!
वायु की उद्वेग लीला
रात के स्‍याही पुते पट पर
अब उठा लंगर

बात कहने का मेरा अन्‍दाज तुझको
लगेगा काफी पुराना और बेढब
जानता हूं
किंतु प्‍यारे
द्वंद्व यह प्राचीन
और ये भी है
कि जिसको बांचना इतना सुगम हो
उसी को बूझना
बेहद जटिल
हम नए हैं
पुनर्नव संकल्‍प अपने
नया अपना तेज
उपकरण अपने नए
उत्‍कट ओर अपनी चाह

सो धड़ाधड़ कर चला इंजन
उठा लंगर
छोड़ बंदरगाह.

मसला - वीरेन डंगवाल

बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्‍या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?

कातिल मजे में हैं
तो क्‍या हम मान लें कि कत्‍ल करना मजेदार काम है?

मसला मनुष्‍य का है
इसलिए हम तो हरगिज नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्‍य.

वापसी - वीरेन डंगवाल

भाई भाई की गरदन पर
छूरी फेर रहा है
दोस्‍त मुकदमे लिखा रहे हैं
एक-दूसरे पर
सौदा लेकर लौटती
स्‍त्री के गले से चेन तोड़
भागा जा रहा एक शोहदा
विधान भवन की तरफ

अपने बदलते हुए शरीर को लेकर
कैसा अभूतपूर्व भाव है
उस किशोरी की आंखों में

इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल देने वाली
मूसलाधार झड़ी लगी है अपने देस में
तर-ब-तर और ठिठुरता हुआ मैं
लौट रहा हूं
बाढ़ में बहती नदी बनी सड़क के रास्‍ते
लगभग सूनी बस से
अपने सूने घर की ओर
जहां एक तड़पता हुआ ज्‍वरग्रस्‍त स्‍वप्‍न
मेरी बेचैन प्रतीक्षा में है

धन का घन - वीरेन डंगवाल

धन का घन
रहार बाज घन्‍न-घन्‍न
घन-घन-घन
घनन-घनन
फटे जा रहे पर्दे भ्रांतिग्रस्‍त कानों के
छुटे चले जाते हैं छक्‍के प्राणों के
काट रही सर्वव्‍याप्‍त अंधकार
लपटों की धुआंभरी हू-ब-हू
गोली की गोलों की सन-सन-सन-सनन-सनन

रात भरी भीषण अंधे कोलाहल कलरव से
बूटों की ठक-ठक से
भागती पदचापों से
चीखें कम उम्र लड़कियों की
चीत्‍कार
उत्‍फुल्लित युवा वर्ग हाय-हाय
धांय-धांय-ढम-ढम-ढम
टीवी की टनन-टनन
धन का घन !

वृक्ष के पत्र - वीरेन डंगवाल

चिट्ठियां लिक्‍खीं
हवा में डाल दीं
बे-पता थीं
उनका जो होता, हुआ

ग़लत हिज्‍जे - वीरेन डंगवाल

मन मलीन मन्‍द दिन कठीन
पिछे छुटे प्रविन
हिन हिन हिन आगे
सान से बोलता है
छः दुने तिन

क्‍या कीजे! - वीरेन डंगवाल

उत्‍कृष्‍ट उच्‍चारण परिनिष्ठित भाषा
मृदुल हास
बुद्धि तीक्ष्‍ण
चेहरा भी सुन्‍दर और मोहरा भी
धर्मनिरपेक्षता पर भी है पूरा विश्‍वास
अब आत्‍मा में ही नहीं है सुवास
तो क्‍या कीजे !

ब्रेष्‍ट के वतन में - वीरेन डंगवाल

‘भूख लगी है यार, क्‍या कुछ खिला सकते हो ?’
कुछ इस सादगी से पूछते थे वो
कि खुद पर शर्म आ जाती थी
और तब भी
जब वे जिद करते
कॉफी हाउस चल कर सॉंभर-बड़ा खा लेने की
पारिश्रमिक का कोई चेक भुन जाने के बाद !

हवा के झपाटे फड़फड़ाते हैं
अंतरिक्ष तक उड़ते विशाल-भारी-रंगीन पारदर्शी पर्दों की तरह
झांकते हैं बर्फीले शिखर
और वर्षा-स्‍नात घाटी में घुटनों तक धोती चढ़ाए
रोपनी करती स्त्रि‍यों के दृश्‍य-
एक दबी हुई रूलाई छूटती है उन्‍हें देखकर.

ब्रेष्‍ट झांकते हैं पहली बार
पलकें-सी झपकाते

मद्धिम रोशनी सूने मंच पर इकलौती कुर्सी
उनके मुंह में कभी सिगार कभी बीड़ी
चौड़ा माथा और कनपटियां चमकती हुई
चेहरा अभी-अभी दुबला अभी भरा हुआ
रोशनी माकूल नहीं थी

सिर्फ एक कमरा
एक बल्‍ब चालीस वाट
एक मेज एक कुर्सी
एक आदमी जिसके दिल में हजार तस्‍वीरें हजार खयालात
मगर विचार सिर्फ एक चाहत भरा
वही जो सिकुड़ी हुई आंखों की
सदा बसी कौंध
कभी भोली कभी क्रुद्ध
और एक मुस्‍कुराहट
छोटी-छोटी
सूखे हुए उन होंठों पर हरहमेश
और माथे की वे तीन लकीरें
जो गिरस्‍ती की चिंताओं की वेधशाला

वो पग‍डण्डियां थीं
जिनसे होकर बकरियां जाया करती हैं
अपने पुरातन चरागाहों को
मेमनों के साथ

और वे तीन फोल्डिंग खाटें
जो सुबह समेट ली जाएंगी

बच्‍चे तीनों अभी सोये हैं
मगर चिंताग्रस्‍त पत्‍नी ताक रही
आंचल की ओट के पीछे से चोरी से

किसी प्रवासी पक्षी की तरह
चुपचाप चला गया वह शख्‍स

अपना पूरा गीत गाए बगैर
और वहां पड़ोसी का कोई फोन नम्‍बर नहीं है

अधरौशन मंच पर दौड़ रहे थे
ठठ के ठठ अंधे छछून्‍दर
एक-दूसरे से टकराते
एक-दूसरे को ठेलते हुए
तृतीय विश्‍वयुद्ध
शुरू हो चुका था

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