Hindi Kavita
हिंदी कविता
भीमसेन जोशी - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 7
मैं चुटकी में भर के उठाता हूं पानी की एक ओर-छोर डोर नदी से
आहिस्ता
अपने सर के भी ऊपर तक
आलिंगन में भर लेता हूं मैं
सबसे नटखट समुद्री हवा को
अभी-अभी चूम ली हैं मैंने
पांच उसांसें रेगिस्तानों की
गुजिश्ता रातों की सत्रह करवटें
ये लो
यह उड़ चली 120 की रफ्तार से
इतनी प्राचीन मोटर कार
यह सब रियाज के दम पर सखी
पान की कला - वीरेन डंगवाल
भीगे लाल कपड़े पे
तहाके रखे पत्ते
झिल्ली झीने-मोटे-मोटे-पीले-हरे पत्ते
मघई-महोबा-या-बंगला-या-देसी
गोला-या-कपूरी-या-फिर मदरासी
जो पान नहीं खाय
वहू के समय आय
यह भारतीय उपमहाद्वीपता
थोड़ा सुपारी और देना भाई
तनिक चूना !
सर्दी में उबला आलू - वीरेन डंगवाल
किसी-किसी चौड़े पत्ते पर धूप
जैसे उबला नया-नया आलू
छील-काट कर रखा हुआ हो ताजा-ताजा
भाप उड़ाता
लिसड़ा लहसुन की ठण्डी चटनी से
सर्दी में
गरीबी सारे पत्ते झाड़ देती है
ऊपर से मोबाइल
जिसकी बजती हुई घण्टी
खामखा
महत्वपूर्ण होने का गुमान पैदा करे
उबले आलू के दिल में
सर्दी में उबला आलू - वीरेन डंगवाल
किसी-किसी चौड़े पत्ते पर धूप
जैसे उबला नया-नया आलू
छील-काट कर रखा हुआ हो ताजा-ताजा
भाप उड़ाता
लिसड़ा लहसुन की ठण्डी चटनी से
सर्दी में
गरीबी सारे पत्ते झाड़ देती है
ऊपर से मोबाइल
जिसकी बजती हुई घण्टी
खामखा
महत्वपूर्ण होने का गुमान पैदा करे
उबले आलू के दिल में
कुछ कद्दू चमकाए मैंने - वीरेन डंगवाल
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दीं तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफ़ोन की बग़ल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपड़ों से ख़ून के निशाँ धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवाँ-हुवाँ
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कुरैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदहारण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन दो मज्जा परेसानी क्या है "
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
जल की दुनिया में भी बहार आती है - वीरेन डंगवाल
जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है
जब आती हवा हांकती लेकर काले-काले जलद यूथ
प्राणों को हरा-भरा करती
बेताब बनाती बूढ़े-भारी पेड़ों तक को
धरती के जर्रे-जर्रे को
जीवन के निरूपमेय रस से भरती
अजब संगीत सुनाती है
यह शीतल राग हवा का, यह तो है खास हमारे पूरब का
यह राग पूरबी दुनिया का अनमोल राग
इसकी धुन जिंदा रखती है मेरे जन को
हैं जहां कहीं, अनवरत सताए जाते जो
जांगर करते
खटते पिटते
लड़ते-भिड़ते
गाने गाते
सन्तप्त हृदय-पीडित, प्रच्छन्न क्रोध से भरे
निस्सीम प्रेम से भरे, भरे विस्तीर्ण त्याग
मेरे जन जो यूं डूबे हैं गहरे पानी में
पर जिनके भीतर लपक रही खामोश आग
यह राग पूरबी की धुन उन सब की कथा सुनाती है
जल की दुनिया में भी बहार आती है
मछली की आंखों की पुतली भी हरी हुई जाती है.
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