Hindi Kavita
हिंदी कविता
मोबाइल पर उस लड़की की सुबह - वीरेन डंगवाल Part 5
सुबह-सवेरे
मुंह भी मैला
फिर भी बोले
चली जा रही
वह लड़की मोबाइल पर
रह-रह
चिहुंक-चिहुंक जाती है
कुछ नई-नई-सी विद्या पढ़ने को
दूर शहर से आकर रहने वाली
लड़कियों के लिए
एक घर में बने निजी छात्रावास की बालकनी है यह
नीचे सड़क पर
घर वापस लौट रहे भोर के बूढ़े अधेड़ सैलानी
परिंदे अपनी कारोबारी उड़ानों पर जा चुके
सत्र शुरू हो चुका
बादलों-भरी सुबह है ठण्डी-ठण्डी
ताजा चेहरों वाले बच्चे निकल चले स्कूलों को
उनकी गहमागहमी उनके रूदन-हास से
फिर से प्रमुदित-स्फूर्त हुए वे शहरी बन्दर और कुत्ते
छुट्टी भर थे जो अलसाये
मार कुदक्का लम्बी टांगों वाली
हरी-हरी घासाहारिन तक ने
उन ही का अभिनन्दन किया
इस सबसे बेखबर किंतु वह
उद्विग्न हाव-भाव बोले जाती है
कोई बात जरूरी होगी अथवा
मानवीकरण - वीरेन डंगवाल
चीं चीं चूं चूं चींख चिरौटे ने की मां की आफत
‘तीन दिनों से खिला रही है तू फूलों की लुगदी
उससे पहले लाई जो भंवरा कितना कड़वा था
आज मुझे लाकर देना तू पांच चींटियां लाल
वरना मैं खुद निकल पडूंगा तब तू बैठी रोना
जैसी तब रोई थी जब भैया को उठा ले गई थी चील
याद है बाद में उसकी खुशी भरी टिटकारी ?’
मां बोली, ‘जिद मत कर बेटा, यहां धरी हैं चीटी लाल ?
जाना पड़ता उन्हें ढूंढने खलिहानों के पास
या बूरे की आढ़त पर
इस गर्मी के मौसम में
मेरा बायां पंख दुख रहा काफी चार दिनों से
ज्यादा उड़ मैं न पाऊंगी
पंखुडियां तो मिल जाती हैं चड्ढा के बंगले में
बड़ा फूल-प्रेमी है, वैसे है पक्का बदमाश
तभी रात भर उसके घर हल्ला-गुल्ला रहता है
उसके लड़के ने गुलेल से उस दिन मुझको मारा
अब तो वो ले आया है छर्रे वाली बन्दूक
बच्चे मानुष के होते क्यों जाने इतने क्रूर
उन्हें देख कर ही मेरी तो हवा सण्ट होती है
इनसे तो अच्छे होते हैं बेटा बन्दर-भालू
जरा बहुत झपटा-झपटा ही तो करते हैं’
क्या करूँ - वीरेन डंगवाल
क्या करूं
कि रात न हो
टीवी का बटन दबाता जाऊं देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्य
कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूं
कि सोता रहूं
जैसे दिन-दिन भर सोता हूं
कि झगड़ूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूं
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊं
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो
साइकिल के बहाने कुछ स्मरण और एक पछतावा - वीरेन डंगवाल
तब जवान होते लड़के की तमन्ना होती थी
एक नई सायकिल और एक घड़ी
प्रत्यक्षतः लड़कियों का नम्बर इसके बाद आता था. अक्सर गंभीर लोग
साइकिल का हैण्डल थाम
लम्बे विचार-विमर्श करते थे
और दिलदार नौजवान
हाथ छोड़कर साइकिल चलाने
तथा ऐसे ही कुछ अन्य सृजनात्मक करतबों से
आमतौर पर समवयस्क समाज
और खासतौर पर मुंडेरों से झांकती कन्याओं के दिलों पर
अपनी अलग छापें छोड़ते अथवा छोड़ने की चेष्टा करते थे
दिल तब भी यहीं होता था कमबख्त
बायें पहलू में पंजर के नीचे
मगर उसके जोर-जोर से धड़कने की वजहें
तनिक और नादान होती थीं
अकस्मात् एक रात आता थ आषाढ़ युवा तड़तड़ाहट से भरा
चने या छर्रों जैसी बूंदों को पटपटाता
मच्छरदानियां खटपटाते-समेटते उनींदे लोग भागते भीतर
वर्षा के हर्ष और झींख से
एक साथ भरे हुए
बेघरों के लिए तब शहरों में भी
भारी दरख्तों के शरण्य ही थे
रेलवे स्टेशनों पर भी हालांकि गुंजाइश रहती थी
रात एक बजे भी रिक्शों पर बिस्तरबंद बक्से लादे
आने वाले रिश्तेदारों को कोई संकोच नहीं होता थ
हर दो-तीन मुहल्लों का अपना एक आत्मीय पागल होता था
वक्त-बेवक्त-कभी-कभार-जोर-जोर शोर करता मरने मारने को तैयार
कोई बुरा न मानता
इस श्वेत-श्याम पुलन्दे को खोलने का मंतव्य
अविकसित ज्ञान के उस रूमानमय दौर का
प्रगति विरोधी बखान करना नहीं
बल्कि हिन्दी एकवचन-बहुवचन के विलक्षण
सहअस्तित्व की उपरोक्त कुछ मिसालों के द्वारा
याद दिलाना है
तथा यह बताना
कि नटखटपन हमारी जाति का सर्वाधिक गुण अब भी है
पाण्डित्य और अनीति की खुरदुरी दोहरी नीभ से
सर्दियों तक चाटे जाने के बावजूद. इसी से यह बची हुई भी है.
यहां आशय हिन्दी जाति से है.
उस समय में एक विशिष्ट शहरी चलन था
जिसके तहत कुछ लोग साइकिल पर चलते वक्त
अपने पाजामे या पैंट के दाहिने पायचे पर
छल्ले जैसा खुले मुंह का एक चमकीला
क्लिप लगा लिया करते थे
ताकि पैरों के एक ही समय स्थिर और गतिशील वृत्ताकार वेग से
फड़फड़ाता हुआ पांयचा
साइकिल की चेन में न फंस जाय.
तब चेन पतलून में नहीं होती थी
और सब कुछ काफी कुछ सरल और निरापद था
सिवाय जीवन के
आज ही की तरह
खैर
साइकिल चालन के विशिष्ट सहयोगी उपकरण
इस चमकीले छल्ले अथवा क्लिप के साथ
अपना एक अलग अनिवार्य रूआब भी
जुड़ा हुआ थाः
कुछ-कुछ
बीते जमाने के कवि अज्ञेय की तरह
जिन्हें उनके नजदीकी साहित्यिक लोग आपस में
‘वात्स्यायन जी’ कहकर बुलाया करते थे
पांयचे पर लगे क्लिप वाले आदमी की साइकिल
साधारण साइकिलों की अपेक्षा साफ-सुथरी होती थी
क्लिप वाले को देखते ही समझ लेना होता था
कि यह एक जिम्मेदार शऊरमन्द और शरीफ शख्स है,
उसकी समाज में एक खास जगह भी है
जिसका उसकी आर्थिक हैसियत से कुछ लेना-देना नहीं
क्योंकि वह कुछ महत्वपूर्ण लोगों और जगहों के नजदीक
तक जा सकता है
अक्सर सरकारी दफ्तरों के बड़े बाबू
इंटर कॉलेजों की कनिष्ठ कक्षाओं के कुछ
विशिष्ट अध्यापक
और बड़े अफसरों के वरिष्ठ चपरासी ही
यह आभूषण धारण करते थे
महकमों के स्वातंत्र्योत्तर नौसिखिये
यों तो आपस में इन क्लिपधारियों की ठिठोली उड़ाते
मगर मन ही मन
वे उनसे दाब भी खाते थे
देश तब अपाहिज हुआ ही था
और उसके कटे हुए दाएं कंधे और बाएं हाथ के पंजे से दर्द की जो
हिलारें उठतीं
उनके उतराते हुए असंख्य शरणार्थी
शताब्दियों पुरानी जकड़न
और सुरक्षित बने रहने की संतुष्टि से भी बंधे
उत्तर भारत की करूणा
जुगुप्सा लोलुपता विस्मय हिकारत और ईर्ष्या द्वेष का भी
विषय बनते थे
जवाहर लाल सामान्यतः साधारणजन के खुदा और बादशाह थे
ज्यादातर राजे-रजवाड़े-जमींदार-उद्योगपति-सिविल सर्वेण्ट्स
और दूरदर्शी चापलूस भी
खद्दर पहन कर उनकी दो बैलों की जोड़ी के पीछे खड़े थे
जो सब जानते ही हैं तब उनके दल का चुनाव चिह्न था
कई बीमारियों का अता-पता भी न था
और दीवारों पर लिखी इबारतों के मुताबिक
बवासीर भगंदर नासूर और आज तक रहस्यमय बने कांच को
राष्ट्र-रोग की हैसियत प्राप्त थी
अब तो बीमारियां भी नई-नई आ गईं
विभाजन भी होते जाते हैं नित नए-नए
चारों दिशाओं से उमड़ रहीं
पीड़ा की जो विकल हिलोरें
एक तिहाई देश को उनका आभास अथवा परवाह ही नहीं
एकाध खब्ती शौकीन अथवा
प्रतीकों के प्रयोग में
कवियों से भी अधिक सिद्धहस्त
धूर्त राजनीतिक जमात को छोड़ दें
तो साइकिल बनी है
मजबूर किन्तु स्वाभिमानी आदमी की सवारी
या अंग्रेजी स्कूलों के छोटे दर्जों
अथवा देसी स्कूलों के बड़े दर्जों में पढ़ रहे
लड़के-लड़कियों की,
अच्छे घरों-विश्वविद्याल-कॉलेजों के छात्र तो
उसे छूना भी नहीं चाहेंगे
डण्डे या कैरियर पर बैठना तो दूर की बात है
हां, पोस्टमैन उस पर बैठकर आएगा मुस्कुराता
और अखबार वाला
अपनी सनातन जल्दबाजी में
या दुविधा
अपने भारी डिब्बों को पीछे कैरियर पर
समतोल साधे हुए
या शहर के सीमान्त से आने वाला ड्राइवर
जो साइकिल को हिफाजत से पिछवाड़े तालाबंद करके
साहब की कार की सफाई करता है सवेर-सवेरे
या फिर दिहाड़ी मजदूर
जिसके लिए देहाती रास्तों की गाढ़ी-सूखी कीचड़ से सने
पहियों वाली उसकी साइकिल
उसके औजारों जितनी ही अपरिहार्य है
या फिर एक आस को जिलाए रखने को
भटकते-भटकते बेदम हुए जाते वे हठीले भाई-बंद
जिन्हें थक कर बैठ जाना मंजूर नहीं
उन्हीं सब जैसे अन्यान्यतम लोगों के लिए
होनी थीं ये पंक्तियां
अगर हमने ऐसा होने दिया होता.
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