Hindi Kavita
हिंदी कविता
रॉकलैण्ड डायरी–1 - वीरेन डंगवाल
Rockland Diary -1 - Viren Dangwal Part 4
बूढ़ी अरावली पर्वतमाला
धूसर-सफेद वृषभों का एक सहमा हुआ झुण्ड
छितराये कंटीले वन में भीतर उसके
कहीं छिपे हैं
वृष स्वरूप ही महाकाल
देखते ही बनती हैं
उनकी नाना छटाएं
खास कर कुतुब इंस्टीट्यूशनल एरिया में
और उसके भी परे
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के
मनमोहक परिसर में
जो कि देश का एक बड़ा भारी
हसीन सब्जबाग है
लता-गुल्म-मोर-शोर
क्रांति सजग-प्रेमी जन-हत्यारे
ऊपर से एक पर एक
गुजरते जाते हैं वायुयान
गर्जना करते
ह्वेल मछली सरीखे चिकने सफेद
उनके पेट
इतने करीब
और झपकती हुई उनकी बत्त्तियां
और बिल्कुल साफ-साफ दिखाई देतीं
उनके रूपहले इस्पाती डैनों पर
चित्रलिपि में जैसी लिखीं इबारतें
सुदूर देशों में बसे मनुष्यों की याद दिलातीं
देतीं धूप को एक
बिल्कुल नया रंग
कम से कम अस्पताल के पहले दिन तो
इस बढ़ी उम्र में भी
लौट आता है कुछ देर को
बचपन का वह कौतुक भरा उल्लास
इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय वायुपत्तन
और पालम हवाई अड्डे के सौजन्य से
जो यहां से काफी करीब
हमसे छीने हैं हमारे कितने ही मित्र-सखा
दिल्ली के इन हवाई अड्डों
विश्वविद्यालयों संस्थानों और
अस्पतालों ने
मगर फिर कभी
वह कथा फिर कभी
रॉकलैण्ड डायरी–2 - वीरेन डंगवाल
कुछ बुद्धिमान
देशप्रेमी प्रवासी भारतीयों के
अथक उद्यम दूरदृष्टि करूणा और कानूनी सिद्धहस्तता
का
साकार रूप है
रॉकलैण्ड
वसन्त के इन आशंकाग्रस्त
छटपटाते दिनों में
हमारा अस्थाई मुकाम
अस्पताल फिर यह याद दिलाता है
कि भाषा कहां-कहां तक जाती है आदमी के भीतर
'कैंसर' एक डरावना शब्द है
'ठीक हो जाएगा' एक तसल्लीबख्श वाक्य
डॉक्टर कभी कसाई नजर आता है
कभी फरिश्ता और कभी विज्ञापन सिनेमा में टूथपेस्ट बेचने
वाला
दंदान साज
खुद की बदहाली
कभी रोमांचक लगती है कभी डरावनी
एक खटका गड़ता है कांख में कांटे की तरह
तुम एक बच्चे की तरह साथ में आये मित्र की बांह पकड़ना
चाहते हो
रॉकलैण्ड डायरी–3 - वीरेन डंगवाल
इन भव्य आधुनिक अस्पतालों
के सदावसन्त जगमग कोनों गलियारों में
प्लास्टिक वनस्पतियां
वातानुकूलित हवा में लह-लह
और गेस्टापों से
चुस्त-कुशल कार्यकर्ता
इधर से उधर लपकते व्यस्त भाव
हरदम पोंछे जाते फर्श के कारण
सजीली स्वच्छता की
एक अजीब-सी दुर्गंध बसी रहती है माहौल में
और भय की
उन दिशा निर्देशक तख्तियों और आश्वस्तिपरक
पोस्टरों के कारण
और वे डॉक्टर
इतने वाकृनिपुण प्रचंड डिग्रीधारी
विनम्र
इतने मन्द-मन्द मुस्काते
गोया वे शोकेस के भीतर बैठे हों
उन्हीं के असर में,
काफी हद तक उसी प्रकार के हो जाते हैं
वे बावर्दी वार्डब्वॉय और सफाई कर्मचारी भी
हालांकि वे छिपा नहीं पाते मरीज को टटोलती
अपनी लालची निगाहें
डॉक्टरों की-सी सफलता से
न अपनी गरीबी
संगत का ही गुन होगा कि
गरीबों से उनकी चिढ़ भी वैसी ही है
जैसी डॉक्टरों की
शुक्र है रौकलैण्ड पर हल्की-सी ही पड़ती है
गरीबी की परछाई
रॉकलैण्ड डायरी–4 - वीरेन डंगवाल
'सिस्टर मुझे रूलाई आ रही है और पेशाब लग रही है'
'सिस्टर मिजोरम में अपना घर छोडकर तुम क्यों आ गई
दिल्ली के इस जंगल में इतने कम पैसों के लिए'
'केरल का रंग हरा है सिस्टर, कि नीला ? कि सलोना-उजला तुम्हारी तरह?'
'सिस्टर रात एक भालू है जिससे घायल मैं, कुश्ती करता हूं'
'सिस्टर फिर से कब बोल सकूंगा मैं?'
आई सी यू की रात बड़ी मदमाती होती है
एक काल्पनिक घूंसा मार कर तोड़ना पड़ता है
एक मजबूत जालीदार काल्पनिक खिड़की को
ताजा हवा के लिए
एक धुंध होती है जो कहती है आओ हे-
आओ मेरे रश्मिरथी
और प्रेतात्माओं से बांहें डुलाते तैरते चले जाते हैं
सघन चिकित्सा के हेत
नौजवान ड्यूटी डॉक्टर नर्सें और वार्ड ब्वॉय
खिल-खिल-खिल
सबकी बोतलों-नाडियों में खोंस-खांस इंजेक्शन
फारिग होः
'505 नं. आज खाली है
वहीं खाएंगे खाना
मैं उतारता हूं ये रबड़ के दस्ताने
तुम भी तो उतार देना कुछ'
असहाय-असहाय
पीड़ा-भय-शंका की इस
निर्लज्ज रासायनिक धुंध में
सब लेटे पंक्तिबद्ध-पीड़ाबद्ध
लोहे के जंगलेदार पलंगों पर
मूक पशुओं की तरह कराहते असहाय
हर एक के तकिये के नीचे और गुर्दे को और
छोटी सफेद आलमारी को टोह रहा है जाने कौन
रात्रि के इस निस्तब्ध प्रहर में
वही गंधाता भालू झूका हुआ मुझ पर
मेरे पट्टी-बंधे चेहरे को अपनी गुदगुद गदेली
और नखदार पंजों से टटोलता
आंखें मूंदते ही भांय-भांय-शांय-शांय
धूल-भरा अंधड़ एक
अपने ही दिमाग के
भूरे लाल रेतीले चिपचिप बियाबान में
तलुए चिपक चिपक जाते हैं
आंखों से खून खून कान से मुख से खून
नाक और फेफड़े भरे हुए
उबकाई और किसी अनजानी गैस की गंध से
विभ्रम
विभ्रम
दुःस्वप्न
कई धारावाहिक कूट कथाओं की रीलें
अलग-बगल एक साथ चलतीं,
जनता, हां जनता को रौंद देने के लिए उतरीं
फौजी गाडियों की तरह
हृदय में घृणा और जोश भरे
साधु-सन्त-मठाधीश-पत्रकार दौलत के लिज-गिल-गिल
पिछलग्गू
ललकारते जाति को एक नए विप्लव के लिए
स्कूली बच्चों से भरी एक बस दुर्घटनाग्रस्त चिडियाघर के करीब
उसके होंठ बढ़े हुए मेरी तरफ आमंत्रण में
प्रेम ओर वासना से सनसनाते वे कुचाग्र
जिनसे फिर मरे हुए कबूतर की गर्दन की तरह
ढुलक जाना था जीवन
कौंधती है रह-रह कर बिजली
झपक में उजागर करती मस्तिष्क का रक रक्तसना
भूदृश्य जिस पर पहले कभी रोशनी नहीं पड़ी थी
चमकीली पटरियों के परस्पर
काटते जाल पर
एक अकेला इंजन निरूद्देश्य दौड़ता चला जाता
लगातार और लम्बी कराह के साथ सीटियां मारता
लम्बे वृंतों वाले फूलों के डिजायनर गुच्छे
एक साथ नतशिर नतग्रीव मानो शोकग्रस्त
एक पका तरबूज
फट कर अपने बीज और लाल मसूढ़े दिखाता है
किसी पलीत क्रांतिकारी के
गंदे खुशामदी दांतो की मानिंद
मुझे मालूम है
इतना ही मरम भांपता है वह
कि जब चाहे इस्तेमाल कर लेगा धर्मनिरेपक्षता का
ब्रह्मास्त्र की तरह
बाहर करील के जंगल में डरावनी आवाज में बोल रही है
कोयल
मुझे जागने दो जागने दो
निकलने दो बाहर इस तंद्रा से
जो भय-शंका-पीड़ा-आशा की नशीली धुंध है
उस स्फूर्त सचेत उजाले में जाने दो मुझे
जो उम्मीद है
भले ही वह फिलहाल तकलीफ जैसी हो
कोई भरपूर नदी बहती थी
अब मिट्टी के ढूहों पर अंकित हैं
उसकी क्षिप्र धाराओं के भित्तिचित्र
या तलहटी पर निष्प्राण शंख और घोंघे
भोली सुघड़ता से
लीप दिया है किसी ने गोबर-गुरू
आले सरीखे उस खोखल पर
कोई और धूर्त
वहां एक गेरूआ ध्वजा भी चढ़ा गया है
जो फर-फर-फर
हमें चुनौती-सी देता है
मेरे चहेरे पर
गोया मुहल्ले के नाई की गंदली फव्वारा बोतल से
एक सुहानी फुहार
मेरे गालों और पेड़ू में एक चीरती हुई पीड़ा
मेरी बंद आंखों में
छूटते स्फुल्लिंग
मेरे दिल में वही जिद कसी हुई
किसी नवजात की गुलाबी मुट्ठी की तरह
मेरी रातों में मेरे प्राणों में
वही-वही पुकारः
'हजार जुल्मों से सताये मेरे लोगों
तुम्हारी बद्दुआ हूं मैं
तनिक दूर तक झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा.....'
झासी-झीनी चादर बुनता
जाता-जाता भादों
चलो ओढ़ कर ये चादर
हम छत पर गाने गायें
सतहत्तर तक
दौड़ लगायें.
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