Hindi Kavita
हिंदी कविता
उलटबाँसी - वीरेन डंगवाल Viren Dangwal Part 12
जैसे ही बटन दबाता हूं
गंगा के पानी का बना रोशनी का एक जाल
छपाक् से मुझे ले लेता है
अपने पारदर्शी रस्सड़ गीले लपेटे में
क्या पता कि रात है
कि आसमान काला है
कि मूंगफली के बीज में जो कि
दरअसल जड़ भी है और फल भी
तेल कब पड़ना शुरू होता है
जिसमें छानी जाती हैं उम्दा सिकीं पूडियां
क्या पता कि वे सिर्फ गेंदे हैं रबड़ की
जो इस कदर नींदें हराम किए रहती है
उन लड़कों की
और वह भी फितुर फकत
सपनों में ठूंसू वे सारे छक्के चउए
और आखिर यह इलहाम भी कब जाकर हुआ
दिल के टसकते हुए फोड़े पर
कच्ची हल्दी
या पकी पुलटिस बंधवाने के बजाय
नश्तर लगवा लो
जिनकी
कोई कमी नहीं
सुप्रभात - वीरेन डंगवाल
पीठ ओट दे पूड़ी खालो
गाड़ी के डब्बे में
प्लास्टिक की पिद्दी प्याली में
एक घूंट मैली-सी चाय
देहाती स्टेशन की
जंग लगे लोहे वाले चपटे तीरों की सरहद के पार
सुनहरी परछांही को फैलते देखो
काई भरे गंदे डबरे पर
जो जगमग अलौकिक सी दीप्ति से
चूम रहा है ईश्वर
खुद अपने हाथों झुलसाये पृथ्वी के केश
और दग्ध होंठ
जिनमें इच्छाएं स्मृतियों की तरह हरी हैं
और वे कड़खड़ाती एडियां कतारबद्ध
और वे क्लाश्निकोव वगैरह चमचम
परेड मैदान की भूरी धूल में सुबह-सुबह
और वे नंगी दुर्बल सांवली पसलियां
भयग्रस्त थर-थर वक्ष के तले
वह भी चमकतीं हंसुओं की तरह
देखो बेआवाज सिसकियों से हिलती दिल की बूढ़ी पीठ
दिल की आंखों से उबलते आंसू
देखो फूलता-पचकता
दिल का घबराया जर्द चेहरा
सुप्रभात, अलबेले जीवन
चलो निकल आगे की ओर
दिल को लिये मीर की ठौर !
रूग्ण पिताजी - वीरेन डंगवाल
रात नहीं कटती ? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है
जख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं
पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊंगा
तीन दवाइयां, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने है
शव पिताजी - वीरेन डंगवाल
चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है
उस निष्प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्यों और किसने लगा दिये हैं
नथुनों पर रूई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है
बर्फ की सिल्ली से बहते पानी से लतपथ है दरी
फर्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूं या खड़ा हूं या सोच रहा हूं
या सोच नहीं रहा हूं
य र ल व श श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबांसी जीवन और शव की.
ख़त्म पिताजी - वीरेन डंगवाल
पिता आग थे कभी, धुआं थे कभी, कभी जल भी थे
कभी अंधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह कभी थे खाली शीशी एक दवा की
और कभी हंसते-हंसते बेदम हो पाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में
अभी आग हैं
अभी धुआं हैं
अभी खाक हैं
स्मृति-पिता - वीरेन डंगवाल
एक शून्य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ
फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की
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