Hindi Kavita
हिंदी कविता
उधो, मोहि ब्रज - वीरेन डंगवाल -Viren Dangwal Part 10
गोड़ रहीं माई ओ मउसी ऊ देखौ
आपन-आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत।
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई ई आग।
वो जोशभरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की
वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल
वह कहवाघर!
जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी
दोसे महान
जीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर।
छंगू पनवाड़ी शानदार
अद्भुत उधार।
दोस्त निश्छल। विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल
सकल प्रेम
ज्ञान सकल।
अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार
वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
काफ़ी ऊपर तक
इन्हीं तनों से टिका देते थे हम
बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल।
सड़कें वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध
धीमे-धीमे से डग भरता हुआ अक्टूबर
गोया फ़िराक़।
कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाब
जिन पर तिरछी आ जाया करती थी बहार
वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वाली
वे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचार
सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूँ।
अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नये युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील
नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन!
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!
कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं।
कानपुर पर कविता -वीरेन डंगवाल
कानपुर –1 - वीरेन डंगवाल
प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं !
वह तुझे खुश और तबाह करेगा।
सातवीं मंज़िल की बालकनी से देखता हूँ
नीचे आम के धूल सने पोढ़े पेड़ पर
उतरा है गमकता हुआ वसन्त किंचित शर्माता ।
बड़े-बड़े बैंजली-
पीले-लाल-सफेद डहेलिया
फूलने लगे हैं छोटे-छोटे गमलों में भी ।
निर्जन दसवीं मंज़िल की मुंडेर पर
मधुमक्खियों ने चालू कर दिया है
अपना देसी कारखाना ।
सुबह होते ही उनके झुण्ड लग जाते हैं काम पर
कोमल धूप और हवा में अपना वह
समवेत मद्धिम संगीत बिखेरते
जिसे सुनने के लिए तेज़ कान ही नहीं
वसन्त से भरा प्रतीक्षारत हृदय भी चाहिए
आँसुओं से डब-डब हैं मेरी चश्मा मढ़ी आँखें
इस उम्र और इस सदी में ।
कानपुर–2 - वीरेन डंगवाल
पूरे शहर पर जैसे एक पतली-सी परत चढ़ी है धूल की
लालइमली इल्गिन म्योर ऐलेनकूपर-
ये उन मिलों के नाम हैं
जिनकी चिमनियों ने आहें भरना भी बंद कर दिया है
इनसे निकले कोयले के कणों को
कभी बुहारना पड़ता था
गर्मियों की रात में
छतों पर छिड़काव के बाद बिस्तरे बिछाने से पहले
इनकी मशीनों की धक-धक
इस शहर का अद्वितीय संगीत थी
बाहर से आया आदमी
उसे सुनकर हक्का-बक्का हो जाता था
फिर मकडियां आई
उन्होंने बुने सुघड़ जाले
पहले कुशल मजदूर नेताओं
और फिर चिमनियों की मुख-गुहाओं पर
फिर वे झूलीं
और फहराई
फूटे हुए एसबेस्टस के छप्परों
और छोड़ दी गई सूनी मशीनों पर
अपनी सफेद रेशमी पताका जैसी.
कानपुर–3 - वीरेन डंगवाल
फूलबाग में फूल नहीं
चमन गंज में चमन
मोतीझील में झीन नहीं
फजल गंज चुन्नी गंज कर्नल गंज में
कुछ गंजे होंगे जरूर
मगर लेबर दफ्तर और कचहरी में न्याय नहीं
कानपुर–4 - वीरेन डंगवाल
पूरी रात तैयारी के बाद अपनी धमन भट्टी दहकाते हैं
सूरज बाबू और चुटकी में पारा पहुंच जाता है अड़तालीस
लेकिन सूनी नहीं होगी थोक बाजारों
और औद्योगिक आस्थानों की गहमागहमी
कुछ लद रहा होगा
या उतर रहा होगा
या ले जाया जा रहा होगा
रिक्शों, ऑटों, पिकपों, ट्रकों
या फिर कंधों पर हीः
लोहा-लंगड़-अर्तन-बर्तन-जूता-चप्पल-पान-मसाला
दवा-रसायन-लैय्यापट्टी-कपड़ा-सत्तू-साबुन-सरिया
आदमी से ज्यादा बेकाम नहीं यहां कुछ
न कुछ उससे ज्यादा काम का
कानपुर–5 - वीरेन डंगवाल
ककड़ी जैसी बांहें तेरी झुलस झूर जाएंगी
पपड़ जाएंगे होंठ गदबदे प्यासे-प्यासे
फिर भी मन में रखा घड़ा ठण्डे-मीठे पानी का
इस भीषण निदाघ में तुझको आप्लावित रक्खेगा
अलबत्ता
लली, घाम में जइये, तौ छतरी लै जइये
कानपुर–6 - वीरेन डंगवाल
फिर एक राह गुजरी
फिर नई सड़क बेकनगंज ऊंचे फाटकवाला यतीमखाना
बाबा की बिरियानी
'न्यू डिलक्स' के गरीब परवर कबाब-रोटी विद रायता
रमजान की पवित्र रातें
रात भर चहल-पहल पीतल के बड़े-बड़े हण्डों वाले चायखानों में
और फिर ईदः
टोपियां
नए कपड़ों में टोलियां
नेताओं और अफसरों से गले मिलते लोगों की
सालाना तस्वीरें स्थानीय अखबारों में
लाल आंखों वाला एक जईफ मुसलमान,
जब वो मुझसे पूछता है तो शर्म आती हैः
'जनाब, हमारी गलती क्या है?
कि हम यहां क्यों रहे?
हम वहां क्यों नहीं गए?'
इस पुराने सवाल का जवाब पूछती उसकी दाढ़ी
आधी सफेद आधी स्याह है.
शहर के सबसे गरीब लोग
इन्हीं पुरपेंच गलियों में रहते हैं
काबुक में कबूतरों की तरह दुमें सटाये
जिस्म की हरारत से तसल्ली लेते
सबसे भीषण-जांबाज युवा अपराधी भी यहां रहते हैं,
किश्तों पर ली गई सबसे ज्यादा तेज रफ्तार मोटर साइकिलें यहीं हैं
सबसे रईस लोग गोकि घर छोड़ गए हैं
मगर उनके अपने ठिकाने अब भी हैं यहीं.
कानपुर–7 - वीरेन डंगवाल
घण्टाघर
जैसे मणिकर्णिका है जिसे कभी नींद नहीं
थके कुए मनुष्यों की रसीली गंध पर
लार टपकाता
एक अदृश्य बाघ
बेहद चौकन्ना होकर टहलता भीड़ में
एहतियात से अपने पंजे टहकोरता
कि कहीं उसकी रोयेंदार देह का कोई स्पर्श
चिहुंका न दे
फुटपाथ पर ल्हास की तरह सोते
किसी इन्सान को
'नंगी जवानियां'
यही फिल्म लगी है
पास के 'मंजु श्री' सिनेमा में
घटी दर पर.
कानपुर–8 - वीरेन डंगवाल
गंगाजी गई सुकलागंज
घाट अपरंच भरे-भरे
भैरोंघाट में विराजे हैं भैरवनाथ लाल-काले
चिताओं और प्रतीक्षारत मुर्दों की सोहबत में,
परमट में कन्नौजिया महादेव भांग के ठेले और आलू की टिक्की,
सरसैयाघाट पर कभी विद्यार्थी जी भी आया करते थे
अब सिर्फ कुछ पुराने तख्त पड़े हैं रेत पर, हारे हुए गंगासेवकों के,
जाजमऊ के गंगा घाट पर नदी में सीझे हुए चमड़े की गंध और रस
माघ मास की सूखी हुई सुर सरिता के ऊपर समानान्तर
ठहरी-ठहरी सी बहती है
गन्धक सरीखे गाढ़े-पीले कोहरे की
एक और गंगा.
कानपुर–9 - वीरेन डंगवाल
दहकती हुई रासायनिक रोशनी में
बालू के विस्तार पर
सिर्फ रेंगता सा लगता है दूर से
एक सुर्ख ट्रैक्टर
सुनाई नहीं पड़ता
चींटियों सरीखे कई मजदूर
जो शायद ढो रहे हैं कुछ भारी असबाब
जैसे शताब्दियों से!
किरकिराती आंखों से देखता हूं
बनता हुआ गंगा बैराज
एक थकी हुई पराजित सेना के घोड़े
और देहाती पदातिक
उतरेंगे अभी
क्लांत नदी में रात के अंधेरे में बार-बार
बिठूर के टीलों भरे तट पर
किसी फिल्म में निरंतर दोहराये जाते
मूक दृश्य की तरह
इसी तट के पार
शुरू होते हैं
उद्योगपतियों के फार्म हाउस
और विलास गृह
कानपुर–10 - वीरेन डंगवाल
रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक
सुबह होने में अभी देर हैं माना काफी
पर न ये नींद रहे नींद फकत नींद कहीं
ये बने ख्वाब की तफसील अंधेरों की शिकस्त
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