तेरा हार - हरिवंशराय बच्चन Tera Haar - Harivansh Rai Bachchan

Hindi Kavita

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हिंदी कविता

तेरा हार हरिवंशराय बच्चन
Tera Haar Harivansh Rai Bachchan

दुख में - Harivansh Rai Bachchan

( १ )

"पड़ी दुखों की तुझ पर मार !

दुखों में सुख भरा जान तू,

रो रो कर मुख न कर म्लान तू,

हँस, हँस, हलका हो जाएगा तेरे दुख का भार ।

( २ )

निज बल पर जिनको अभिमान

संकट में साहस दिखलाते,

दुखों को हैं दूर हटाते

दुख पड़ने पर जो हँसते हैं वही वीर बलवान" ।

Harivansh-Rai-Bachchan
( ३ )

"मिले मुझे दुख लाखों बार,

पर, दुख में सुख सार समाया-

व्यंग, समझ मैं कभी न पाया ।

सुख में हंसूं, दुखों में रोऊँ-सीधा सा व्यवहार ।

( ४ )

कोमल से कोमल भी शूल

जब जब है तन मेरे गड़ता,

बच्चों सा मैं हूं रो पड़ता,

कांटों को मैं कभी न अब तक समझ सका हूँ फूल ।

( ५ )

एक नियम जीवन में पाल

रहा सदा से हूँ मैं अविचल,

कोई कहे बली या निर्बल,

उन्हें चुभा रहने देता हूँ, देता नहीं निकाल !"

दुखों का स्वागत - Harivansh Rai Bachchan

(१)

नदियाँ नीर भरें जलनिधि में

जो जल राशि अघाए ।

शुष्क, जल रहित मरुस्थली को

दिनकर और तपाए ।

( २ )

हृष्ट-पुष्ट नित स्वस्थ रहे, कृश

कौण रुग्न हो जाए,

लक्ष्मी के मन्दिर में स्वागत

धनी महाजन पाए ।

( ३ )

अंधकार अंधों को मिलता,

उसे नयन जो पाए

ज्योति मिले, यह नियम जगत का

सम समान को धाए ।

( ४ )

प्यार पास जाए प्यारों के,

सुख सुखियों पर छाए,

आशिष आशिष वानो पर, मुझ

दुखिया पर दुख आए !

आदर्श प्रेम - Harivansh Rai Bachchan

1

प्यार किसी को करना, लेकिन-

कह कर उसे बताना क्या ?

अपने को अर्पण करना पर-

औरों को अपनाना क्या ?

2

गुण का ग्राहक बनना, लेकिन-

गा कर उसे सुनाना क्या ?

मन के कल्पित भावों से

औरों को भ्रम में लाना क्या ?

3

ले लेना सुगंध सुमनों की,

तोड़ उन्हे मुरझाना क्या ?

प्रेम हार पहनाना लेकिन-

प्रेम पाश फैलाना क्या ?

4

त्याग-अंक में पलें प्रेम शिशु

उनमें स्वार्थ बताना क्या ?

दे कर हृदय हृदय पाने की

आशा व्यर्थ लगाना क्या ?

तुमसे - Harivansh Rai Bachchan

(१)

नहीं चाहता तुलसी दल बन

शीश तुम्हारे चढ़ पाऊं,

नहीं, हार की कलियां बन कर

गले तुम्हारे पड़ जाऊं ।

( २ )

नहीं भुजायों में रख तुमको

इन हाथों को करूं पवित्र,

नहीं, हृदय के अन्दर वन्दी

कर के रखूं चित्र ।

( ३ )

नहीं चाहता दिखलाने को

तव भक्तों का वेश धरूं,

नहीं, सखा बन सदा तुम्हारे

दाएँ बाएँ फिरा करूं ।

( ४ )

इच्छा केवल रजकण में मिल

तव मन्दिर के निकट पड़ूं,

आते जाते कभी तुम्हारे

श्री-चरणों से लिपट पड़ूं ।

मधुर स्मृति - Harivansh Rai Bachchan

(१)

याद मुझे है वह दिन पहले

जिस दिन तुझको प्यार किया,

तेरा स्वागत करने को जब

खोल हृदय का द्वार दिया ।

( २ )

मन मन्दिर में तुझे बिठा कर

तेरा जब सत्कार किया,

झुक झुक तेरे चरणों का जब

चुम्बन बारम्बार किया ।

( ३ )

स्नेहमयी वह दृष्टि प्रथम ही

थी जिसने तुझको देखा,

याद नहीं है मुझे, तुझे

देखा पहले या प्यार किया !

( ४ )

हर्षित हो कर क्यों न सराहूं

बार बार उस दिन के भाग,

जिस दिन तूने प्रेम हमारा

खुले हृदय स्वीकार किया !

दुखिया का प्यार - Harivansh Rai Bachchan

(१)

"प्रेम का यह अनुपम व्यवहार !

पास न मेरे हैं वे आते,

मुझे न अपने पास बुलाते,

दूर दूर से कहते हैं, करता हूँ तुझको प्यार !!"

( २ )

"आपदा के ऐसे आगार--

जहाँ किसी को छू हम देते,

घेर उसे दुख संकट लेते !

मिल कर तुझसे क्यों तुझ पर भी डालूं दुख का भार ?

( ३ )

विरह के दुख सौ नहीं, हजार

सहा करूं यदि जीवन भर मैं,

तुझे न दुखित बनाऊँ पर मैं,

'तू है सुखी'-यही तो मेरे जीवन का आधार ।

( ४ )

प्रेम का ही तोड़ूंगा तार-

( चाहे मृत्यु भले ही आए )

ज्ञात मुझे यदि यह हो जाए-

दुखी बना सकता है तुझको इस दुखिया का प्यार "।

कलियों से - Harivansh Rai Bachchan

1

अहे ! मैंने कलियों के साथ,

जब मेरा चंचल बचपन था,

महा निर्दयी मेरा मन था,

अत्याचार अनेक किए थे,

कलियों को दुख दीर्घ दिए थे,

तोड़ इन्हें बागों से लाता,

छेद-छेद कर हार बनाता !

क्रूर कार्य यह कैसे करता,

सोंच इन्हें हूँ आहें भरता।

कलियो ! तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ।

2

अहे ! वह मेरे प्रति उपकार !

कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,

गिरकर भूमि समाधि बनाती।

कौन जानता मेरा खिलना ?

कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?

कौन गोद में मुझको लेता ?

कौन प्रेम का परिचय देता ?

मुझे तोड़ की बड़ी भलाई,

काम किसी के तो कुछ आई,

बनी रही दे-चार घड़ी तो किसी गले का हार।

3

अहे ! वह क्षणिक प्रेम का जोश !

सरस-सुगंधित थी तू जब तक,

बनी स्नेह-भाजन थी तब तक।

जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई,

फेंक दी गई, दूर हटाई।

इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?

4

बदलता पल-पल पर संसार

हृदय विश्व के साथ बदलता,

प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?

इससे केवल यही सोचकर,

लेती हूँ सन्तोष हृदय भर—

मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !

विरह विषाद - Harivansh Rai Bachchan

( १ )

चंद्र ! आते हो मृदुल प्रभात-

भू का रवि जब अञ्चल धरता,

किरण, कुसुम, कलरव से भरता

उसे, बना लेते क्यों अपना मलिन, हीन द्युति गात ?

( २ )

निशा रानी का विरह विषाद ?

शोक प्रकट क्यों इतना करते ?

छिपते जाते आहें भरते ।

मिलन प्रणयिनी से तो निश्चित एक दिवस के बाद !

( ३ )

नहीं कुछ सुनते मेरी बात ?

देव ! दुख विरह क्षणिक तुम्हें जब,

इतना होता, बतलायो अब,

धरें धैर्य्य मानव हम क्यों तब,

हो वियोग जिनका मिलना फिर दूर ? निकट ? अज्ञात !

मूक प्रेम - Harivansh Rai Bachchan

( १ )

हमारी स्नेह मूर्ति ! कुछ बोल ।

भावना के पुष्पों के हार,

गूंथ सुकुमार स्नेह के तार,

चढ़ाए मैंने तेरे द्वार,

भाए तुझे, न भाए-कह दे कुछ तो मुँह को खोल ।

( २ )

शास्त्र के सिद्ध, सत्य, अनमोल

वचन बतलाते युग प्राचीन

भक्त जब होता भक्ति विलीन,

श्रवण कर उसके सविनय, दीन

वचन, मूक पाषाण मूर्तियां भी पड़ती थीं बोल !

( ३ )

आ गया हाय ! समय अब कौन ?

हैं सजीव जो मधुर बोलतीं,

बात बात में अमृत घोलतीं,

सहज हृदय के भाव खोलतीं,

वे भी क्या भावना भक्ति से हो जायेंगी मौन !

( ४ )

नयन में स्नेह भरा, मत मोड़

आँख, कर प्रकटित अपना भाव,

भयकर मुझसे अधिक दुराव ।

जानती अकथित प्रेम प्रभाव ?

प्रबल धार यह बाहर आती बाँध हृदय का तोड़ !

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