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ताराचंद बड़जात्या : सादगी एवं भारतीय जीवन मूल्यों के ध्वजवाहक
जितेन्द्र माथुर
आज पारिवारिक हिन्दी फ़िल्में बनाने वाले सूरज बड़जात्या के नाम से सभी सिनेमा-प्रेमी परिचित हैं। उनका राजश्री बैनर भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित फ़िल्में बनाने के लिए पहचाना जाता है । लेकिन राजश्री बैनर और उसकी गौरवशाली परंपरा के संस्थापक सूरज के पितामह स्वर्गीय ताराचंद बड़जात्या के नाम से वर्तमान पीढ़ी के बहुत कम लोग परिचित हैं । ताराचंद बड़जात्या को दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित चाहे न किया गया हो, भारतीय सिनेमा के इतिहास में उनका योगदान बलदेव राज चोपड़ा, बी. नागी रेड्डी और सत्यजित रे सरीखे फ़िल्म निर्माताओं से किसी भी तरह कम नहीं है । १९६२ से १९८६ तक के लगभग लगभग ढाई दशक लंबे काल में उनके द्वारा निर्मित हिन्दी फ़िल्में भारतीय सिनेमा के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय हैं । वह हिन्दी सिनेमा का एक युग था - सादगी और भारतीयता से ओतप्रोत युग जिसके प्रवर्तक और मार्गदर्शक ताराचंद जी थे ।
राजस्थान के कुचामन नामक छोटे शहर में १० मई, १९१४ को जन्मे ताराचंद बड़जात्या ने अपनी किशोरावस्था में बंबई के फ़िल्मी संसार में अपना करियर एक अवैतनिक प्रशिक्षु के रूप में आरंभ किया तथा अपनी नियोक्ता कंपनी मोती महल थिएटर्स के लिए वर्षों तक लगन से कार्य करके फ़िल्म-निर्माण की बारीकियों को समझा । १९४७ में उन्होंने अपने नियोक्ताओं के सहयोग और प्रेरणा से राजश्री पिक्चर्स के नाम से हिन्दी फ़िल्मों के वितरण की संस्था आरंभ की । जिस दिन भारत की स्वाधीनता का सूर्योदय हुआ, उसी दिन अर्थात १५ अगस्त, १९४७ को ताराचंद जी की राजश्री संस्था का भी उदय हुआ । एक दशक से अधिक समय तक फ़िल्म वितरण के क्षेत्र में पर्याप्त अनुभव ले लेने के उपरांत उन्होंने फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखने का निश्चय किया और राजश्री के बैनर तले अपनी पहली फ़िल्म प्रस्तुत की - ‘आरती' (१९६२) जिसमें प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं अशोक कुमार, प्रदीप कुमार एवं मीना कुमारी ने । इस पारिवारिक फ़िल्म को पर्याप्त सराहना और सफलता मिली । ताराचंद जी के नेतृत्व में राजश्री ने लंगड़े और अंधे बालकों की आदर्श मित्रता के विषय पर आधारित अपनी अगली ही फ़िल्म ‘दोस्ती' (१९६४) से सफलता की ऊंचाइयाँ छू लीं । ‘दोस्ती' ने न केवल भारी व्यावसायिक सफलता अर्जित की वरन कई पुरस्कार भी जीते । फिर तो भारतीय जीवन मूल्यों एवं आदर्शों पर आधारित कथाओं वाली सादगीयुक्त फ़िल्मों का क्रम ऐसा चला कि दो दशक तक नहीं थमा ।
ताराचंद जी केवल फ़िल्म निर्माता थे । वे न तो फ़िल्मों के लेखक थे और न ही निर्देशक । लेकिन राजश्री द्वारा बनाई गई अधिकांश फ़िल्मों पर उनके जीवन-दर्शन तथा सादगी एवं भारतीयता में उनके अटूट विश्वास की स्पष्ट छाप है । यहाँ तक कि राजश्री की फ़िल्मों की नामावली भी हिन्दी में ही दी जाती थी जबकि परंपरा फ़िल्मों की नामावली अंग्रेज़ी में देने की ही थी (और आज तक है) । राजश्री के प्रतीक चिह्न में वीणावादिनी माँ सरस्वती का होना भी भारतीय संस्कृति में उनकी आस्था को ही दर्शाता है । भारतीय पारिवारिक मूल्यों तथा भारत-भूमि एवं भारतीय संस्कृति में अंतर्निहित सनातन आदर्शों से किसी भी प्रकार का समझौता उन्हें स्वीकार्य नहीं था । उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंसा, कामुकता तथा धन के अभद्र प्रदर्शन जैसे स्थापित फ़ॉर्मूलों से दूर रहकर सादगी तथा उत्तम भारतीय परम्पराओं को प्रोत्साहित करना ही भारतीय दर्शकों के हृदय को विजय करने की कुंजी है । अपनी इस आस्था को उन्होंने जीवनपर्यंत बनाए रखा और भारतीय सिनेमा-प्रेमियों से उन्हें इसका अपेक्षित प्रतिसाद भी मिला । उनके द्वारा निर्मित छोटे बजट की फ़िल्मों में से अधिकतर ने अपनी लागत और लाभ वसूल किया जबकि कई फ़िल्मों ने अखिल भारतीय स्तर पर भारी व्यावसायिक सफलता भी अर्जित की ।
ताराचंद जी ने कभी अपनी फ़िल्म निर्माण संस्था को बड़े बजट की भव्य फ़िल्में नहीं बनाने दीं जिनमें धन-वैभव का अभद्र प्रदर्शन हो । सादगी के जीवन-दर्शन में उनकी आस्था अटल थी जिससे वे कभी विचलित नहीं हुए । वैभव और विलास से रहित साधारण किन्तु सदाचार पर आधारित जीवन जीने की महान भारतीय परंपरा में उनकी अगाध श्रद्धा थी । उनके सक्रिय जीवन में राजश्री के लेखक भारतीय जनसामान्य के दिन-प्रतिदिन के जीवन से उभरने वाली साधारण व्यक्तियों की संवेदनशील कथाएं रचा करते थे । ऐसी बहुत-सी फ़िल्मों की पृष्ठभूमि एवं परिवेश ग्रामीण हुआ करते थे एवं उनमंी भारतीय ग्राम्य जीवन की सादगी, परम्पराओं एवं आदर्शों को इतनी सुंदरता के साथ चित्रित किया जाता था कि दर्शक उन कथाओं के निश्छल पात्रों के प्रेम में पड़ जाते थे, उन्हें हृदय में बसा लेते थे ।
राजश्री की फ़िल्मों का एक बहुत बड़ा गुण उत्कृष्ट संगीत रहा । इन फ़िल्मों के संगीतकारों ने पश्चिमी संगीत के प्रभाव को पूर्णतः दूर रखते हुए भारतीय मिट्टी से जुड़े और भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूल तत्वों से युक्त संगीत से ही गीतों हेतु धुनों की रचना की । रवीन्द्र जैन नामक अत्यंत प्रतिभाशाली किन्तु जन्मांध कलाकार को राजश्री ने ‘सौदागर' (१९७३) में संगीत देने का अवसर दिया जिसके उपरांत वे राजश्री की फ़िल्मों के नियमित संगीतकार बन गए । वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जो न केवल मधुर संगीत रचते थे वरन हृदयस्पर्शी गीत भी लिखते थे । चितचोर (१९७६) फ़िल्म के लिए अपने द्वारा लिखित एवं संगीतबद्ध गीतों को गाने के लिए उन्होंने हेमलता एवं येसुदास जैसी नवीन प्रतिभाओं को अवसर प्रदान किया और परिणाम यह निकला कि ‘चितचोर' के मधुर गीतों ने देश भर में धूम मचा दी ।
नवीन अभिनेताओं एवं अभिनेत्रियों को अवसर देने में भी राजश्री बैनर सदा ही अग्रणी रहा । संजय ख़ान (दोस्ती - १९६४), राखी (जीवन-मृत्यु - १९७०), सचिन एवं सारिका (गीत गाता चल - १९७५), ज़रीना वहाब (चितचोर - १९७६), अरुण गोविल (पहेली - १९७७), रामेश्वरी (दुलहन वही जो पिया मन भाए - १९७७), माधुरी दीक्षित (अबोध - १९८४), अनुपम खेर (सारांश - १९८४) आदि अनेक कलाकारों को उनके अभिनय जीवन की अलसभोर में राजश्री ने ही अवसर दिया और वे आगे चलकर सफल हुए । अपनी पदार्पण फ़िल्म ‘मृगया' (१९७६) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले मिथुन चक्रवर्ती को वास्तविक पहचान और भौतिक सफलता राजश्री की संगीतमय फ़िल्म ‘तराना (१९७९) से मिली । अरुण गोविल ने फ़िल्म ‘पहेली' (१९७७) में मिली एक सहायक भूमिका में अपने अभिनय से फ़िल्म का निर्माण करने वालों को ऐसा प्रभावित किया कि उन्हें राजश्री की फ़िल्म ‘साँच को आँच नहीं' (१९७९) में मधु कपूर नामक नवोदित नायिका के साथ मुख्य नायक की भूमिका दी गई । ‘साँच को आँच नहीं' मुंशी प्रेमचंद की अमर कथा - ‘पंच परमेश्वर' से प्रेरित थी । राजश्री की अगली ही फ़िल्म ‘सावन को आने दो' (१९७९) में अरुण गोविल पुनः नायक बनकर आए जिसकी देशव्यापी व्यावसायिक सफलता ने उन्हें सितारा बना दिया । आगे चलकर वे रामानन्द सागर द्वारा दूरदर्शन हेतु निर्मित ‘रामायण' में राम की भूमिका निभाकर घर-घर में पहचाने जाने लगे । बाल कलाकारों - कोमल महुवाकर तथा अलंकार को ‘पायल की झंकार' (१९८०) में प्रमुख भूमिकाएं दी गईं । मैंने भारतीय नृत्यों तथा भारतीय जीवन मूल्यों के अद्भुत संगम वाली ऐसी कोई और फ़िल्म नहीं देखी जिसका एक-एक प्रसंग हृदय को उदात्त भावनाओं से भर देता हो । इसमें कोमल महुवाकर की नृत्य प्रतिभा दर्शकों के सम्मुख पूर्णतः निखरकर आई थी । अनुपम खेर नामक प्रतिभाशाली युवा अभिनेता को ‘सारांश' (१९८४) में एक वृद्ध व्यक्ति की चुनौतीपूर्ण भूमिका दी गई जिसकी सफलता के उपरांत अनुपम खेर तथा फ़िल्म के निर्देशक महेश भट्ट दोनों ही हिन्दी फ़िल्मों के संसार के सम्मानित नाम बन गए ।
नदिया के पार (१९८२) राजश्री की एक ऐसी प्रस्तुति है जिसके सभी गीत तथा अधिकांश संवाद भोजपुरी भाषा में हैं । लेकिन ग्रामीण पृष्ठभूमि में रची गई इस संगीतमय पारिवारिक फ़िल्म ने केवल हिन्दी पट्टी में ही नहीं वरन प्रादेशिक सीमाओं को तोड़ते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र में अद्भुत सफलता अर्जित की । सूरज बड़जात्या की अत्यंत सफल एवं बहुचर्चित फ़िल्म - हम आपके हैं कौन (१९९४) वस्तुतः इसी कथा का नगरीय संस्करण है ।
बाबुल (१९८६) की असफलता के उपरांत ताराचंद जी ने फ़िल्म निर्माण बंद कर दिया तथा अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे सक्रिय नहीं रहे । उनका देहावसान २१ सितंबर, १९९२ को हुआ । उनके पोते सूरज ने १९८९ में फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया' से राजश्री बैनर को पुनर्जीवित किया लेकिन उसने अपने पितामह द्वारा स्थापित सादगी की परंपरा को तोड़ते हुए बड़े बजट की विलासितापूर्ण फ़िल्में बनानी आरंभ कर दीं जिनके प्रमुख पात्र अत्यंत धनी होते हैं तथा उनके जीवन में वैभव तथा भौतिक सुख-सुविधाएं भरपूर होती हैं। सूरज की कतिपय फ़िल्मों में अंग-प्रदर्शन भी है जो ताराचंद जी के लिए पूर्णतः निषिद्ध था । इतना अवश्य है कि सूरज द्वारा निर्मित फ़िल्में भी भारतीय पारिवारिक मूल्यों को ही प्रतिष्ठित करती हैं ।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ‘सादा जीवन उच्च विचार' के आदर्श को अपने जीवन में अपनाया तथा दूसरों को भी उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया । ताराचंद जी के रूप में बापू को एक सच्चा अनुयायी मिला जिसने उनके इस आदर्श को हृदयंगम करके अपने द्वारा निर्मित फ़िल्मों में पूरी निष्ठा के साथ प्रस्तुत किया । ताराचंद जी के कार्यकाल में राजश्री द्वारा निर्मित फ़िल्मों के पात्र इसी पथ पर चलते दिखाए गए तथा अपने सम्पूर्ण जीवन में ताराचंद जी हिन्दी सिनेमा में सादगी तथा भारतीयता के ध्वजवाहक बने रहे । यदि आप धन-वैभव के अतिरेकपूर्ण प्रदर्शन वाली भव्य फ़िल्मों तथा डिज़ाइनर वस्त्रों में सुसज्जित उनके कृत्रिम पात्रों को देख-देखकर ऊब गए हों तो आरती, दोस्ती, तक़दीर, उपहार, गीत गाता चल, चितचोर, तपस्या, पहेली, दुलहन वही जो पिया मन भाए, अँखियों के झरोखों से, सुनयना, सावन को आने दो, मान-अभिमान, हमकदम, एक बार कहो, पायल की झंकार, नदिया के पार जैसी कोई फ़िल्म देखिए और भारतीय मिट्टी तथा जीवन की सादगी की सुगंध से अपने हृदय को सुवासित होने दीजिए ।
हिन्दी सिनेमा में सादगी, भारतीयता तथा जीवन के उच्च मूल्यों की परंपरा के इस पुरोधा को उसके १०८ वें जन्मदिवस पर मेरा शत-शत नमन ।
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