Sheikh Saadi Munshi Premchand (Novel) शेख़ सादी मुंशी प्रेमचंद (उपन्यास)

Hindi Kavita

हिंदी उपन्यास
Hindi Novel

Sheikh Saadi Munshi Premchand
शेख़ सादी मुंशी प्रेमचंद
अध्याय 1

शेख़ मुसलहुद्दीन (उपनाम सादी) का जन्म सन् 1172 ई. में शीराज़ नगर के पास एक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अब्दुल्लाह और दादा का नाम शरफुद्दीन था। 'शेख़' इस घराने की सम्मान सूचक पदवी थी। क्योंकि उनकी वृत्ति धार्मिक शिक्षा-दीक्षा देने की थी। लेकिन इनका ख़ानदान सैयद था। जिस प्रकार अन्य महान् पुरुषों के जन्म के सम्बन्ध में अनेक अलौकिक घटनाएं प्रसिध्द हैं उसी प्रकार सादी के जन्म के विषय में भी लोगों ने कल्पनायें की हैं। लेकिन उनके उल्लेख की जरूरत नहीं। सादी का जीवन हिंदी तथा संस्कृत के अनेक कवियों के जीवन की भांति ही अंधकारमय है। उनकी जीवनी के सम्बन्ध में हमें अनुमान का सहारा लेना पड़ता है यद्यपि उनका जीवन वृत्तमन्त फारसी ग्रन्थों में बहुत विस्तार के साथ है तथापि उसमें अनुमान की मात्रा इतनी अधिक है कि गोली से भी, जिसने सादी का चरित्र अंग्रेजी में लिखा है, दूध और पानी का निर्णय न कर सका। कवियों का जीवन-चरित्र हम प्राय: इसलिए पढ़ते हैं कि हम कवि के मनोभावों से परिचित हो जायँ और उसकी रचनाओं को भलीभांति समझने में सहायता मिले। नहीं तो हमको उन जीवन-चरित्रों से और कोई विशेष शिक्षा नहीं मिलती। किन्तु सादी का चरित्र आदि से अन्त तक शिक्षापूर्ण है। उससे हमको धौर्य, साहस और कठिनाइयों में सत्पथ पर टिके रहने की शिक्षा मिलती है।

शीराज़ इस समय फारस का प्रसिध्द स्थान है और उस जमाने में तो वह सारे एशिया की विद्या, गुण और कौशल की खान था। मिश्र, एराक, हब्श, चीन, खुरासान आदि देश देशान्तरों के गुणी लोग वहाँ आश्रय पाते थे। ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, धर्मशास्त्र आदि के बड़े-बड़े विद्यालय खुले हुए थे। एक समुन्नत राज्य में साधारण समाज की जैसी अच्छी दशा होनी चाहिए वैसी ही वहाँ थी। इसी से सादी को बाल्यावस्था ही से विद्वानों के सत्संग का सुअवसर प्राप्त हुआ। सादी के पिता अब्दुल्लाह का 'साद बिन जंग़ी' (उस समय ईरान का बादशाह) के दरबार में बड़ा मान था। नगर में भी यह परिवार अपनी विद्या और धार्मिक जीवन के कारण बड़ी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। सादी बचपन से ही अपने पिता के साथ महात्माओं और गुणियों से मिलने जाया करते थे। इसका प्रभाव उनके अनुकरणशील स्वभाव पर अवश्य ही पड़ा होगा। जब सादी पहली बार साद बिन जंगी के दरबार में गये तो बादशाह ने उन्हें विशेष स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखकर पूछा, “मियां लड़के, तुम्हारी उम्र क्या है?” सादी ने अत्यंत नम्रता से उत्त र दिया, “हुजूर के गौरवशील राज्यकाल से पूरे 12 साल छोटा हूं।” अल्पावस्था में इस चतुराई और बुध्दि की प्रखरता पर बादशाह मुग्ध हो गया। अब्दुल्लाह से कहा, बालक बड़ा होनहार है, इसके पालन-पोषण तथा शिक्षा का उत्तयम प्रबन्ध करना। सादी बड़े हाजिर जवाब थे, मौके की बात उन्हें ख़ूब सूझती थी। यह उसका पहला उदाहरण है।
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शेखसादी के पिता धार्मिक वृत्ति के मनुष्य थे। अत: उन्होने अपने पुत्र की शिक्षा में भी धर्म का समावेश अवश्य किया होगा। इस धार्मिक शिक्षा का प्रभाव सादी पर जीवन पर्यन्त रहा। उनके मन का झुकाव भी इसी ओर था। वह बचपन ही से रोजा, नमाज आदि के पाबन्द रहे। सादी के लिखने से प्रकट होता है कि उनके पिता का देहान्त उनके बाल्यकाल ही में हो गया था। संभव था कि ऐसी दुरवस्था में अनेक युवकों की भांति सादी भी दुर्व्यसनों में पड़ जाते लेकिन उनके पिता की धार्मिक शिक्षा ने उनकी रक्षा की।
यद्यपि शीराज़ में उस समय विद्वानों की कमी न थी और बड़े-बड़े विद्यालय स्थापित थे, किन्तु वहाँ के बादशाह साद बिन जंग़ी को लड़ाई करने की ऐसी धुन थी कि वह बहुधा अपनी सेना लेकर एराक पर आक्रमण करने चला जाया करता था और राजकाज की तरफ से बेपरवा हो जाता था। उसके पीछे देश में घोर उपद्रव मचते रहते थे और बलवान शत्रु देश में मारकाट मचा देते थे। ऐसी कई दुर्घटनायें देखकर सादी का जी शीराज़ से उचट गया। ऐसी उपद्रव की दशा में पढ़ाई क्या होती? इसलिए सादी ने युवावस्था में ही शीराज़ से बग़दाद को प्रस्थान किया।

अध्याय 2

बग़दाद उस समय तुर्क साम्राज्य की राजधानी था। मुसलमानों ने बसरा से यूनान तक विजय प्राप्त कर ली थी और सम्पूर्ण एशिया ही में नहीं, यूरोप में भी उनका-सा वैभवशाली और कोई राज्य नहीं था। राज्य विक्रमादित्य के समय में उज्जैन की और मौर्यवंश राज्य काल में पाटलिपुत्र की जो उन्नति थी वही इस समय बग़दाद की थी। बग़दाद के बादशाह खलीफा कहलाते थे। रौनक और आबादी में यह शहर शीराज़ से कहीं चढा बढा था। यहाँ के कई ख़लीफा बड़े विद्याप्रेमी थे। उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किये थे। दूर-दूर से विद्वान लोग पठन-पाठन के निमित्त आया करते थे। यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि बग़दाद का सा उन्नत नगर उस समय संसार में नहीं था। बड़े-बड़े आलिम, फाजि़ल, मौलवी, मुल्ला, विज्ञानवेत्‍त और दार्शनिकों ने जिनकी रचनायें आज भी गौरव की दृष्टि से देखी जाती हैं बग़दाद ही के विद्यालय में शिक्षा पायी। विशेषत: 'मद्रसए नज़मिया' वत्‍तमान आक्सफोर्ड या बर्लिन की यूनिवर्सिटियों से किसी तरह कम न था। सात-आठ, सहस्र छात्र उनमें शिक्षा पाते थे। उसके अध्‍यापकों और अधिष्ठाताओं में ऐसे-ऐसे लोग हो गये हैं जिनके नाम पर मुसलमानों को आज भी गर्व है। इस मद्रसे की बुनियाद एक ऐसे विद्या प्रेमी ने डाली थी जिसके शिक्षा प्रेम के सामने शायद कारनेगी भी लज्जित हो जायं। उसका नाम निज़ामुलमुल्कतूसी था। जलालुद्दीन सलजूकी के समय में वह राज्य का प्रधानमंत्री था। उसने बग़दाद के अतिरिक्त बसरा, नेशापुर, इसफ़ाहन आदि नगरों में भी विद्यालय स्थापित किये थे। राज्यकोष के अतिरिक्त अपने निज के असंख्य रुपये शिक्षोन्नति में व्यय किया करता था। 'नजामिया' मद्रसे की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। सादी ने इसी मद्रसे में प्रवेश किया। यह निश्चित नहीं है कि वह कितने दिनों बग़दाद में रहे। लेकिन उनके लेखों से मालूम होता है कि वहाँ फिक़ह (धर्मशास्त्र), हदीस आदि के अतिरिक्त उन्होंने विज्ञान, गणित, खगोल, भूगोल, इतिहास आदि विषयों का अच्छी तरह अध्‍ययन किया और 'अल्लामा' की सनद प्राप्त की। इतने गहन विषयों के पण्डित होने के लिए सादी से दस वर्ष से कम न लगे होंगे।

काल की गति विचित्र है। जिस समय सादी ने बग़दाद से प्रस्थान किया उस समय उस नगर पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों ही की कृपा थी, लेकिन लगभग बीस वर्ष बाद उन्होंने उसी समृध्दशाली नगर को हलाकू खां के हाथों नष्ट-भ्रष्ट होते देखा और अन्तिम ख़लीफा जिसके दरबार में बड़े-बड़े राजा रईसों की भी मुश्किल से पहुंच होती थी, बड़े अपमान और क्रूरता से मारा गया।
सादी के हृदय पर इस घोर विप्लव का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने अपने लेखों में बारम्बार नीतिरक्षा, प्रजापालन तथा न्यायपरता का उपदेश दिया है। उनका विचार था और उसके यथार्थ होने में कोई सन्देह नहीं कि न्यायप्रिय, प्रजा वत्सल राजा को कोई शत्रु पराजित नहीं कर सकता। जब इन गुणों में कोई अंश कम हो जाता है तभी उसे बुरे दिन देखने पड़ते हैं। सादी ने दीनों पर दया, दुखियों से सहानुभूति, देशभाइयों से प्रेम आदि गुणों का बड़ा महत्व दर्शाया है। कोई आश्‍चर्य नहीं कि उनके उपदेशों में जो सजीवता दिख पड़ती है वह इन्हीं हृदय विचारक दृश्यों से उत्पन्न हुई हो।

अध्याय 3

भ्रमण
मुसलमान यात्रियों में इब्‍नबतुता (प्रख्‍यात यात्री एवं महत्‍वपूर्णग्रं‍थ ‘सफ़रनामा’ का लेखक) सबसे श्रेष्‍ठ जाता है। सादी के विषय में विद्वानों ने स्थिर किया है कि उनकी यात्रायें 'बतूता' से कुछ ही कम थीं। उस समय के सभ्य संसार में ऐसा कोई स्थान न था जहाँ सादी ने पदार्पण न किया हो। वह सदैव पैदल सफर किया करते थे। इससे विदित हो सकता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा अच्छा रहा होगा और वह कितने बड़े परिश्रमी थे। साधारण वस्त्रों के सिवा वह अपने साथ और कोई सामान न रखते थे। हाँ, रक्षा के लिए एक कुल्हाड़ा ले लिया करते थे। आजकल के यात्रियों की भांति पाकेट में नोटबुक दाबकर गाइड (पथदर्शक) के साथ प्रसिध्द स्थानों का देखना और घर पहुंच यात्रा का वृत्तांत छपवाकर अपनी विद्वता दर्शाना सादी का उद्देश्य न था। वह जहाँ जाते थे महीनों रहते थे। जन- समुदाय के रीति-रिवाज, रहन-सहन और आचार-व्यवहार को देखते थे, विद्वानों का सत्संग करते थे और जो विचित्र बातें देखते थे उन्हें अपने स्मरण-कोष में संग्रह करते जाते थे। उनकी गुलिस्तां और बोस्तां दोनों ही पुस्तकें इन्हीं अनुभवों के फल हैं। लेकिन उन्होंने विचित्र जीव जन्तुओं, कोरे प्राकृतिक दृश्यों अथवा उद्भुत वस्त्राभूषणों के गपोड़ों से अपनी किताबें नहीं भरीं। उनकी दृष्टि सदैव ऐसी बातों पर रहा करती थी जिनका कोई सदाचार सम्बन्धी परिणाम हो सकता हो, जिनसे मनोवेग और वृत्तियों का ज्ञान हो, जिनसे मनुष्य की सज्जनता या दुर्जनता का पता चलता हो, सदाचरण, पारस्परिक व्यवहार और नीति पालन उनके उपदेशों के विषय थे। वह ऐसी ही घटनाओं पर विचार करते थे, जिनसे इन उच्च उद्देश्यों की पूर्ति हो। यह आवश्यक नहीं था कि घटनाएं अद्भुत ही हों। नहीं, वह साधारण बातों से भी ऐसे सिध्दान्त निकाल लेते थे जो साधारण बुध्दि की पहुंच से बाहर होते थे। निम्नलिखित दो-चार उदाहरणों से उनकी यह सूक्ष्मदर्शिता स्पष्ट हो जायगी।

मुझे 'केश' नामी द्वीप में एक सौदागर से मिलने का संयोग हुआ। उसके पास सामान से लदे हुए एक सौ पचास ऊंट, और चालीस ख़िदमतगार थे। उसने मुझे अपना अतिथि बनाया। सारी रात अपनी राम कहानी सुनाता रहा कि मेरा इतना माल तुर्किस्तान में पड़ा है, इतना हिन्दुस्तान में, इतनी भूमि अमुक स्थान पर है, इतने मकान अमुक स्थान पर, कभी कहता, मुझे मिश्र जाने का शौक है लेकिन वहाँ की जलवायु हानिकारक है। जनाब शेख़ साहिब, मेरा विचार एक और यात्रा करने का है, अगर वह पूरी हो जाय तो फिर एकान्तवास करने लगूं। मैंने पूछा वह कौन-सी यात्रा है? तो आप बोले, पारस का गन्धाक चीन देश में ले जाना चाहता हूं, क्योंकि सुना है, वहाँ इसके अच्छे दाम खड़े होते हैं। चीन के प्याले रूम ले जाना चाहता हूं, वहाँ से रूमका। 'देबा' (एक प्रकार का बहुमूल्य रेशमी कपड़ा) लेकर हिन्दुस्तान में और हिन्दुस्तान का फौलाद 'हलब' में और हलब का आईना यमन में और यमन की चादरें लेकर पारस लौट जाऊंगा। फिर चुपके से एक दुकान कर लूंगा और सफर छोड़ दूंगा, आगे ईश्‍वर मालिक है। उसकी यह तृष्णा देखकर मैं उकता गया और बोलाआपने सुना होगा कि 'ग़ोर' का एक बहुत बड़ा सौदागर जब घोड़े से गिरकर मरने लगा तो उसने एक ठंडी सांस लेकर कहा, तृष्णावान मनुष्य की इन दो आंखों को सन्तोष ही भर सकता है या कब्र की मिट्टी।

कोई थका-मांदा भूख का मारा बटोही एक धनवान के घर जा निकला। वहाँ उस समय आमोद-प्रमोद की बातें हो रही थीं। किन्तु उस बेचारे को उनमें जरा भी मजा न आता था। अन्त में गृहस्वामी ने कहा, जनाब, कुछ आप भी कहिये। मुसाफिर ने जवाब दिया, क्या कहूं मेरा भूख से बुरा हाल है। स्वामी ने लौंडी से कहा, खाना ला। दस्तरख्वान बिछाकर खाना रक्खा गया। लेकिन अभी सभी चीजें तैयार न थीं। स्वामी ने कहा, कृपा कर ज़रा ठहर जाइए अभी कोफता तैयार नहीं है। इस पर मुसाफिर ने यह शेर पढ़ा
कोफता दर सफ़र ये मागो मुबाश,
कोफता रा नाने-तिही कोफतास्त।
भावार्थ - मुझे कोफते की जरुरत नहीं है। भूखे आदमी की खाली रोटी ही कोफता है।
एक बार मैं मित्रों और बन्धुओं से उकताकर फिलस्तीन के जंगल में रहने लगा। उस समय मुसलमानों और ईसाइयों में लड़ाई हो रही थी। एक दिन ईसाइयों ने मुझे कैद कर लिया और खाई खोदने के काम पर लगा दिया। कुछ दिन बाद वहाँ हलब देश का एक धनाड्य मनुष्य आया, वह मुझे पहचानता था। उसे मुझ पर दया आयी। वह दस दीनार देकर मुझे कैद से छुड़ाकर अपने घर ले गया और कुछ दिन बाद अपनी लड़की से मेरा निकाह करा दिया। वह स्त्री कर्कशा थी। आदर-सत्कार तो दूर, एक दिन क्रुध्द होकर बोली, क्यों साहिब, तुम वही हो न जिसे मेरे पिता ने दस दीनार पर खरीदा था। मैंने कहा, जी हाँ, मैं वहीं लाभकारी वस्तु हूं जिसे आपके पिता ने दस दीनार पर ख़रीद कर आपके हाथ सौ दीनार पर बेच दिया। यह वही मसल हुई कि एक धर्मात्मा पुरुष किसी बकरी को भेड़िये के पंजे से छुड़ा लाया। लेकिन रात को उस बकरी को उसने खुद ही मार डाला।
मुझे एक बार कई फकीर साथ सफर करते हुए मिले। मैं अकेला था। उनसे कहा कि मुझे भी साथ लेते चलिये। उन्होंने स्वीकार न किया। मैंने कहा, यह रुखाई साधुओं को शोभा नहीं देती। तब उन्होंने जवाब दिया, नाराज़ होने की बात नहीं, कुछ दिन हुए एक मुसाफिर को इसी तरह साथ ले लिया था, एक दिन एक किले के नीचे हम लोग ठहरे। उस मुसाफिर ने आधी रात को हमारा लोटा उठाया कि लघुशंका करने जाता हूं। लेकिन खुद ग़ायब हो गया। यहाँ तक भी कुशल थी। लेकिन उसने किले में जाकर कुछ जवाहरात चुराये और खिसक गया। प्रात:काल किले वालों ने हमें पकड़ा। बहुत खोज के पीछे उस दुष्ट का पता मिला, तब हम लोग कैद से मुक्त हुए। इसलिए हम लोगों ने प्रण कर लिया है कि अनजान आदमी को अपने साथ न लेंगे।
दो खुरासानी फकीर साथ सफर कर रहे थे। उनमें एक बुङ्ढा दो दिन के बाद खाना खाता था। दूसरा जवान दिन में तीन बार भोजन पर हाथ फेरता था। संयोग से दोनों किसी शहर में जासूसी के भ्रम में पकड़े गये। उन्हें एक कोठरी में बंद करके दीवार चुनवा दी गयी। दो सप्ताह बाद मालूम हुआ कि दोनों निरपराध हैं। इसलिये बादशाह ने आज्ञा दी कि उन्हें छोड़ दिया जाय। कोठरी की दीवार तोड़ी गयी, जवान मरा मिला और बूढ़ा जीवित। इस पर लोग बड़ा कौतूहल करने लगे। इतने में एक बुध्दिमान पुरुष उधर से आ निकला। उसने कहा, इसमें आश्‍चर्य क्या है, इसके विपरीत होता तो आश्‍चर्य की बात थी।
एक साल हाजियों के काफिले में फूट पड़ गयी। मैं भी साथ ही यात्रा कर रहा था। हमने खूब लड़ाई की। एक ऊंटवान ने हमारी यह दशा देखकर अपने साथी से कहा, खेद की बात है कि शतरंज के प्यादे तो जब मैदान पार कर लेते हैं, तो वजी़र बन जाते हैं, मगर हाजी प्यादे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, पहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहो, तुम क्या हज करोगे जो यों एक-दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैं, जो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।
रूम में एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुनकर हम उनसे मिलने गये। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत किया, किन्तु खाना न खिलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद नहीं आयी। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरंभ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहा, महात्मन, अतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक ज़रूरत भोजन की है। भला ऐसी उपासना से कभी उपकार हो सकता है जब कई आदमी घर में भूख के मारे करवटें बदलते रहें।
एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहा, सादी डरता क्यों है, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्‍वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।
सादी ने भारत की यात्रा भी की थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह चार बार हिन्दुस्तान आये, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं। हाँ, उनका एक बार यहाँ आना निर्भ्रान्त है। वह गुजरात तक आये और शायद वहीं से लौट गये। सोमनाथ के विषय में उन्होंने एक घटना लिखी है जो शायद सादी के यात्रा वृत्‍तांत में सबसे अधिक कौतूहल जनक है।
जब मैं सोमनाथ पहुंचा तो देखा कि सहस्रों स्‍त्री-पुरुष मन्दिर के द्वार पर खड़े हैं। उनमें कितने ही मुरादें मांगने दूर-दूर से आये हैं। मुझे उनकी मूर्खता पर खेद हुआ। एक दिन मैंने कई आदमियों के सामने मूर्ति पूजा की निंदा की। इस पर मंदिर के बहुत से पुजारी जमा हो गये, और मुझे घेर लिया। मैं डरा कि कहीं यह लोग मुझे पीटने न लगें। मैं बोला, मैंने कोई बात अश्रध्दा से नहीं कहीं। मैं तो खुद इस मूर्ति पर मोहित हूं, लेकिन मैं अभी यहाँ के गुप्त रहस्यों को नहीं जानता इसलिए चाहता हूं कि इस तत्‍व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके उपासक बनूं। पुजारियों को मेरी यह बातें पसंद आयीं। उन्होंने कहा, आज रात को तू मंदिर में रह। तेरे सब भ्रम मिट जायेंगे। मैं रातभर वहाँ रहा। प्रात:काल जब नगरवासी वहाँ एकत्रित हुए तो उस मूर्ति ने अपने हाथ उठाये जैसे कोई प्रार्थना कर रहा हो। यह देखते ही सब लोग जय-जय पुकारने लगे। जब लोग चले गये तो पुजारी ने हंसकर मुझसे कहा, क्यों अब तो कोई शंका नहीं रही? मैं कृत्रिम भाव बनाकर रोने लगा और लज्जा प्रकट की। पुजारियों को मुझ पर विश्‍वास हो गया। मैं कुछ दिनों के लिए उनमें मिल गया। जब मंदिर वालों का मुझ पर विश्‍वास जम गया तो एक रात को अवसर पाकर मैंने मंदिर का द्वार बंद कर दिया और मूर्ति के सिंहासन के निकट जाकर ध्‍यान से देखने लगा। वहाँ मुझे एक परदा दिखाई पड़ा जिसके पीछे एक पुजारी बैठा था। उसके हाथ में एक डोर थी। मुझे मालूम हो गया कि जब यह उस डोर को खींचता है तो मूर्ति का हाथ उठ जाता है। इसी को लोग दैविक बात समझते हैं।

यद्यपि सादी मिथ्यावादी नहीं थे तथापि इस वृत्‍तांत में कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर नहीं कसी जा सकतीं। लेकिन इतना मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए कि सादी गुजरात आये और सोमनाथ में ठहरे थे।

अध्याय 4

शीराज़ में पुनरागमन
तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सादी को जन्‍म–भूमि का स्‍मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थे, वहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सादी ने देशत्याग किया था। लेकिन अब शीराज़ की वह दशा न थी। साद बिन जंग़ी की मृत्यु हो चुकी थी और उसका बेटा अताबक अबूबक राजगद्दी पर था। यह न्याय-प्रिय, राज्य-कार्य-कुशल राजा था। उसके सुशासन ने देश की बिगड़ी हुई अवस्था को बहुत कुछ सुधार दिया था। सादी संसार को देख चुके थे। अवस्था वह आ पहुंची थी जब मनुष्य को एकांतवास की इच्छा होने लगती है, सांसारिक झगड़ों से मन उदासीन हो जाता है। अतएव अनुमान कहता है कि पैंसठ या सत्‍तर वर्ष की अवस्था में सादी शीराज़ आये। यहाँ समाज और राजा दोनों ने ही उनका उचित आदर किया। लेकिन सादी अधिकतर एकांतवास ही में रहते थे। राज-दरबार में बहुत कम आते-जाते। समाज से भी किनारे रहते। इसका कदाचित्‍त एक कारण यह भी था कि अताबक अबूबक को मुल्लाओं और विद्वानों से कुछ चिढ़ थी। वह उन्हें पाखंडी और उपद्रवी समझता था। कितने ही सर्वमान्य विद्वानों को उसने देश से निकाल दिया था। इसके विपरीत वह मूर्ख फ़कीरों की बहुत सेवा और सत्कार करता; जितना ही अपढ़ फ़कीर होता उतना ही उसका मान अधिक करता था। सादी विद्वान भी थे, मुल्ला भी थे, यदि प्रजा से मिलते-जुलते तो उनका गौरव अवश्य बढ़ता और बादशाह को उनसे खटका हो जाता। इसके सिवा यदि वह राज-दरबार के उपासक बन जाते तो विद्वान लोग उन पर कटाक्ष करते। इसलिए सादी ने दोनों से मुंह मोड़ने में ही अपना कल्याण समझा और तटस्थ रहकर दोनों के कृपापात्र बने रहे। उन्होंने गुलिस्तां और बोस्तां की रचना शीराज़ ही में की, दोनों ग्रंथों में सादी ने मूर्ख साधु, फ़कीरों की खूब ख़बर ली है और राजा, बादशाहों को भी न्याय, धर्म और दया का उपदेश किया है। अंध-विश्‍वास पर सैकड़ों जगह धार्मिक चोटें की हैं। इनका तात्पर्य यही था कि अताबक अबूबक सचेत हो जाय और विद्वानों से द्रोह करना छोड़ दे। सादी को बादशाह की अपेक्षा युवराज से अधिक स्नेह था। इसका नाम फ़ख़रूददीन था। वह बग़दाद के ख़लीफ़ा के पास कुछ तुहफ़े भेंट लेकर मिलने गया था। लौटती बार मार्ग ही में उसे अपने पिता के मरने का समाचार मिला। युवराज बड़ा पितृभक्त था। यह ख़बर सुनते ही शोक से बीमार पड़ गया और रास्ते ही में परलोक सिधार गया। इन दोनों मृत्युओं से सादी को इतना शोक हुआ कि वह शीराज़ से फिर निकल खड़े हुए और बहुत दिनों तक देश-भ्रमण करते रहे। मालूम होता है कि कुछ काल के उपरांत वह फिर शीराज़ आ गये थे, क्योंकि उनका देहांत यहीं हुआ। उनकी कब्र अभी तक मौजूद है, लोग उसकी पूजा, दर्शन (जि़यारत) करने जाया करते हैं। लेकिन उनकी संतानों का कुछ हाल नहीं मिलता है। संभवत: सादी की मृत्यु 1288 ई. के लगभग हुई। उस समय उनकी अवस्था एक सौ सोलह वर्ष की थी। शायद ही किसी साहित्य सेवी ने इतनी बड़ी उम्र पायी हो।

सादी के प्रेमियों में अलाउद्दीन नाम का एक बड़ा उदार व्यक्ति था। जिन दिनों युवराज फ़ख़रूद्दीन की मृत्यु के पीछे सादी बगदाद आए तो अलाउद्दीन वहाँ के सुल्तान अबाक़ ख़ांका वजीर था। एक दिन मार्ग में सादी से उसकी भेंट हो गयी। उसने बड़ा आदर-सत्कार किया। उस समय से अन्त तक वह बड़ी भक्ति से सादी की सेवा करता रहा। उसके दिये हुए धन से सादी अपने ब्याह के लिए थोड़ा-सा लेकर शेष दीनों को दान कर दिया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि अलाउद्दीन ने अपने एक गुलाम के हाथ सादी के पास पांच सौ दीनार भेजे। गुलाम जानता था कि शेख़साहब कभी किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहीं, अतएव उसने धूर्तता से एक सौ पचास दीनार निकाल लिये। सादी ने धन्यवाद में एक कविता लिखकर भेजी, उसमें तीन सौ पचास दीनारों का ही जिश्क्र था। अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ, गुलाम को दंड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सादी को दस हजार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से दो दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थे, रुपये कौन देता? इसके बाद अलाउद्दीन ने अपने एक परम विश्‍वस्त मनुष्य के हाथ सादी के पास पचास हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सादी ने एक धर्मशाला बनवा दी। मरते समय तक शेख़शादी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है।

अध्याय 5

चरित्र
सादी उन कवियों में हैं ... जिनके चरित्र का प्रतिबिंब उनके काव्‍य रूपी दर्पण में स्‍पष्‍ट दिखाई देता हैं।
हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उपदेशकों की भांति वह दूसरों को परमार्थ सिखाकर आप स्वार्थ पर जान न देते थे। दूसरों को न्याय, धर्म और कर्तव्‍य पालन की शिक्षा देकर आप विलासिता में लिप्त न रहते थे। उनकी वृत्ति स्वभावत: सात्विक थी। उनका मन कभी वासनाओं से विचलित नहीं हुआ। अन्य कवियों की भांति उन्होंने किसी राज-दरबार का आश्रय नहीं लिया। लोभ को कभी अपने पास नहीं आने दिया। यश और ऐश्‍वर्य दोनों ही सत्कर्म के फल हैं। यश दैविक है, ऐश्‍वर्य मानुषिक। सादी ने दैविक फल पर संतोष किया, मानुषिक के लिए हाथ नहीं फैलाया। धन की देवी जो बलिदान चाहती है वह देने की सामर्थ्य सादी में नहीं थी। वह अपनी आत्मा का अल्पांश भी उसे भेंट न कर सकते थे। यही उनकी निर्भीकता का अवलंब है। राजाओं को उपदेश देना सांप के बिल में उंगली डालने के समान है। यहाँ एक पांव अगर फूलों पर रहता है तो दूसरा कांटों में। विशेषकर सादी के समय में तो राजनीति का उपदेश और भी जोखिम का काम था। ईरान और बग़दाद दोनों ही देश में अरबों का पतन हो रहा था, तातारी बादशाह प्रजा को पैरों तले कुचले डालते थे। लेकिन सादी ने उस कठिन समय में भी अपनी टेक न छोड़ी। जब वह शीराज़ से दूसरी बार बग़दाद गये तो वहाँ हलाकू ख़ां मुग़ल का बेटा अबाक़ खां बादशाह था। हलाकू ख़ां के घोर अत्याचार चंगीज़ और तैमूर की पैशाचिक क्रूरताओं को भी लज्जित करते थे। अबाक़ खां यद्यपि ऐसा अत्याचारी न था तथापि उसके भय से प्रजा थर-थर कांपती थी। उसके दो प्रधान कर्मचारी सादी के भक्त थे। एक दिन सादी बाज़ार में घूम रहे थे कि बादशाह की सवारी धूमधाम से उनके सामने से निकली। उनके दोनों कर्मचारी उनके साथ थे। उन्होंने सादी को देखा तो घोड़ों से उतर पड़े और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह को अपने वज़ीरों की यह श्रध्दा देखकर बड़ा कौतूहल हुआ। उसने पूछा यह कौन आदमी है। वजी़रों ने सादी का नाम और गुण बताया। बादशाह के हृदय में भी सादी की परीक्षा करने का विचार पैदा हुआ। बोला, कुछ उपदेश मुझे भी कीजिये। संभवत: उसने सादी से अपनी प्रशंसा करानी चाही होगी। लेकिन सादी ने निर्भयता से यह उद्देश्यपूर्ण शेर पढ़े:

शहे कि पासे रऐयत निगाह मीदारद,
हलाल बाद ख़िराज़ कि मुज्‍दे चौपानीस्त।
बगर न राइये ख़ल्कस्‍त ज़हरमारश बाद;
कि हरचे मी ख़ुरद अज़ जजियए मुसलमानीस्त।

भावार्थ - बादशाह जो प्रजा-पालन का ध्‍यान रखता है। एक चरवाहे के समान है। यह प्रजा से जो कर लेता है वह उसकी मजदूरी है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो हराम का धन खाता है!

अबाक़ खां यह उपदेश सुनकर चकित हो गया। सादी की निर्भयता ने उसे भी सादी का भक्त बना दिया। उसने सादी को बड़े सम्मान के साथ विदा किया।
सादी में आत्मगौरव की मात्रा भी कम न थी। वह आन पर जान देने वाले मनुष्यों में थे। नीचता से उन्हें घृणा थी। एक बार इस्कन दरिया में बड़ा अकाल पड़ा। लोग इधर- उधर भागने लगे। वहाँ एक बडा संपत्तिशाली ख़ोजा था। वह ग़रीबों को खाना खिलाता और अम्यागतों की अच्छी सेवा-सम्मान करता। सादी भी वहीं थे। लोगों ने कहा, आप भी उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइए। इस पर सादी ने उत्‍तर दिया शेर कभी कुत्तों का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखों मर भले ही जाय।

सादी को धर्मध्‍वजीपन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फंदे में पड़ते देखकर जल जाते थे। उन्होंने काशी, मथुरा, वृन्दावन या प्रयाग के पाखंडी पंडों की पोपलीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी और भी तीव्र हो जाती। छत्रधारी हाथी पर बैठने वाले महंत, पालकियों में चंवर डुलाने वाले पुजारी, घंटों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पंडित और राजारईसों के दरबार में खिलौना बनने वाले महात्मा उनकी समालोचना को कितनी रोचक और हृदयग्राही बना देते? एक बार लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेलगाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेंट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेंटों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृध्द यात्री खड़े-खड़े थककर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग शक्ति ने प्रचंड रूप धारण किया, बुङ्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आया, स्टेशन-मास्टर के पास जाकर फरियाद की कि बाबा, यह बूढ़ा यात्री साधुओं को बैठने नहीं देता। मास्टर साहब ने साधुओं की डिगरी कर दी। भस्म और जटा की यह चमत्कारिक शक्ति देखकर सारे यात्री रोब में आ गये और फिर किसी को उनकी उस गाड़ी को अपवित्र करने का साहस नहीं हुआ। इसी तरह रीवां में लेखक की मुलाकात एक संन्यासी से हुई। वह स्वयं अपने गेरुवें बाने पर लज्जित थे। लेखक ने कहा, आप कोई और उद्यम क्यों नहीं करते? बोले, अब उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं और करू भी तो क्या। मेहनत-मजूरी होती नहीं, विद्या कुछ पढ़ी नहीं, यह जीवन तो इसी भांति कटेगा। हाँ, ईश्‍वर से प्रार्थना करता हूं कि दूसरे जन्म में मुझे सद्बुध्दि दे और इस पाखंड में न फंसावे। सादी ने ऐसी हज़ारों घटनायें देखी होंगी, और कोई आश्‍चर्य नहीं कि इन्हीं बातों से उनका दयालु हृदय भी पाखंडियों के प्रति ऐसा कठोर हो गया हो।

सादी मुसलमानी धर्मशास्त्र के पूर्ण पंडित थे। लेकिन दर्शन में उनकी गति बहुत कम थी। उनकी नीति शिक्षा स्वर्ग और नर्क, तथा भय पर ही अवलंबित है। उपयोगवाद तथा परमार्थवाद की उनके यहाँ कोई चर्चा नहीं है। सच तो यह है कि सर्वसाधारण में नीति का उपदेश करने के लिए इनकी आवश्यकता ही क्या थी। वह सदाचार जिसकी नींव दर्शन के सिध्दांतों पर होती है धार्मिक सदाचार से कितने ही विषयों में विरोध रखता है और यदि उसका पूरा-पूरा पालन किया जाय तो संभव है समाज में घोर विप्लव मच जाय।
सादी ने संतोष पर बड़ा जोर दिया है। यह उनकी सदाचार शिक्षा का एकमात्र मूलाधार है। वह स्वयं बड़े संतोषी मनुष्य थे। एक बार उनके पैरों में जूते नहीं थे, रास्ता चलने में कष्ट होता था। आर्थिक दशा भी ऐसी नहीं थी कि जूता मोल लेते। चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। इसी विकलता में कूफ़ा की मस्जिद में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिसके पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देखकर सादी की आंखें खुल गयीं। मस्जिद से चले आये और ईश्‍वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वंचित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दी में कुछ अनुपयुक्त-सी प्रतीत होती है। यह असंतोष का समय है। आजकल संतोष और उदासीनता में कोई अंतर नहीं समझा जाता। समाज की उन्नति असंतोष की ऋणि समझी जाती है। लेकिन सादी की संतोष शिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्‍वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम् कर्तव्‍य है।
यद्यपि सादी के भाषा लालित्य को हिंदी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। नि:संदेह वह समस्त साहित्य संसार के एक समुज्ज्वल रत्‍न हैं, और मनुष्य समाज के एक सच्चे पथ प्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वाले, और भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सादी का सुयश जीवित रहेगा, और उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे।

अध्याय 6

रचनाएँ और उनका महत्व
सादी के रचित ग्रंथों की संख्‍या पंद्रह से अधिक हैं । इनमें चार ग्रंथ केवल गज़लों के हैं । एक दो ग्रंथों मेंक़सीदे दर्ज हैं जो उन्होंने समय-समय पर बादशाहों या वज़ीरों की प्रशंसा में लिखे थे। इनमें एक अरबी भाषा में है। दो ग्रंथ भक्तिमार्ग पर हैं। उनकी समस्त रचना में मौलिकता और ओज विद्यमान है, कितने ही बड़े-बड़े कवियों ने उन्हें गज़लों का बादशाह माना है। लेकिन सादी की ख्याति और कीर्ति विशेषकर उनकी गुलिस्तां और बोस्तां पर निर्भर है। सादी ने सदाचार का उपदेश करने के लिए जन्म लिया था और उनके कसीदों और गज़लों में भी यही गुण प्रधान है। उन्होंने कसीदों में भाटपना नहीं किया है, झूठी तारीफों के पुल नहीं बांधे हैं। गज़लों में भी हिज्र और विशाल, जुल्‍फ़ और कमर के दुखड़े नहीं रोये हैं। कहीं भी सदाचार को नहीं छोड़ा। गुलिस्तां और बोस्तां का तो कहना ही क्या है? इनकी तो रचना ही उपदेश के निमित्त हुई थी। इन दोनों ग्रंथों को फ़ारसी साहित्य का सूर्य और चंद्र कहें तो अत्युक्ति न होगी। उपदेश का विषय बहुत शुष्क समझा जाता है, और उपदेशक सदा से अपनी कड़वी, और नीरस बातों के लिये बदनाम रहते आये हैं। नसीहत किसी को अच्छी नहीं लगती। इसीलिए विद्वानों ने इस कड़वी औषधि को भांति-भांति के मीठे शर्बतों के साथ पिलाने की चेष्टा की है। कोई चील-कौवे की कहानियाँ गढ़ता है, कोई कल्पित कथायें नमक-मिर्च लगाकर बखानता है। लेकिन सादी ने इस दुस्तर कार्य को ऐसी विलक्षण कुशलता और बुध्दिमत्‍त से पूरा किया है कि उनका उपदेश काव्य से भी अधिक सरस और सुबोध हो गया है। ऐसा चतुर उपदेशक कदाचित ही किसी दूसरे देश में उत्पन्न हुआ हो।

सादी का सर्वोत्तमगुण वह वाक्य निपुणता है, जो स्वाभाविक होती है और उद्योग से प्राप्त नहीं हो सकती। वह जिस बात को लेते हैं उसे ऐसे उत्कृष्ट और भावपूर्ण शब्दों में वर्णन करते हैं, जो अन्य किसी के ध्‍यान में भी नहीं आ सकती। उनमें कटाक्ष करने की शक्ति के साथ-साथ ऐसी मार्मिकता होती है कि पढ़ने वाले मुग्ध हो जाते हैं। उदाहरण की भांति इस बात को कि पेट पापी है, इसके कारण मनुष्य को बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं, वह इस प्रकार वर्णन करते हैं
अगर जौरे शिकम न बूदे, हेच मुर्ग़ दर
दाम न उफतादे, बल्कि सैयाद खुद
दाम न निहारे।
भाव - यदि पेट की चिंता न होती तो कोई चिड़िया जाल में न फंसती, बल्कि कोई बहेलिया जाल ही न बिछाता।
इसी तरह इस बात को कि न्यायाधीश भी रिश्‍वत से वश में हो जाते हैं, वह यों बयान करते हैं
हमा कसरा दन्दां बतुर्शी कुन्द गरदद,
मगर काजियां रा बशीरीनी।
भाव - अन्य मनुष्यों के दांत खटाई से गट्ठल हो जाते हैं लेकिन न्यायकारियों के मिठाई से।
उनको यह लिखना था कि भीख मांगना जो एक निंद्य कर्म है उसका अपराध केवल फ़कीरों पर ही नहीं बल्कि अमीरों पर भी है, इसको वह इस तरह लिखते हैं
अगर शुमा रा इन्साफ़ बूदे व मारा कनावत,
रस्मे सवाल अज़ जहान बरख़ास्ते।
भाव - यदि तुममें न्याय होता और हममें संतोष, तो संसार में मांगने की प्रथा ही उठ जाती।
इनके प्रधान ग्रंथ गुलिस्तां और बोस्तां का दूसरा गुण उनकी सरलता है। यद्यपि इनमें एक वाक्य भी नीरस नहीं है, किन्तु भाषा ऐसी मधुर और सरल है कि उस पर आश्‍चर्य होता है। साधारण लेखक जब सजीली भाषा लिखने की चेष्टा करता है तो उसमें कृत्रिमता आ जाती है लेकिन सादी ने सादगी और सजावट का ऐसा मिश्रण कर दिया है कि आज तक किसी अन्य लेखक को उस शैली के अनुकरण करने का साहस न हुआ, और जिन्होंने साहस किया, उन्हें मुंह की खानी पड़ी। जिस समय गुलिस्तां की रचना हुई उस समय फ़ारसी भाषा अपनी बाल्यावस्था में थी। पद्य का तो प्रचार हो गया था लेकिन गद्य का प्रचार केवल बातचीत, हाट-बाज़ार में था। इसलिए सादी को अपना मार्ग आप बनाना था। वह फ़ारसी गद्य के जन्मदाता थे। यह उनकी अद्भुत प्रतिभा है कि आज छ: सौ वर्ष के उपरांत भी उनकी भाषा सर्वोत्‍तम समझी जाती है। उनके पीछे कितनी ही पुस्तकें गद्य में लिखी गयीं, लेकिन उनकी भाषा को पुरानी होने का कलंक लग गया। गुलिस्तां जिसकी रचना आदि में हुई थी आज भी फ़ारसी भाषा का शृंगार समझी जाती है। उसकी भाषा पर समय का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।
साहित्य संसार और कवि वर्ग में ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि एक ही विषय पर गद्य और पद्य के दो ग्रथों में गद्य रचना अधिक श्रेष्ठ हो। किन्तु सादी ने यही कर दिखाया है। गुलिस्तां और बोस्तां दोनों में नीति का विषय लिया गया है। लेकिन जो आदर और प्रचार गुलिस्तां का है वह बोस्तां का नहीं। बोस्तां के जोड़ की कई किताबें फ़ारसी भाषा में वर्तमान हैं। मसनवी (भक्ति के विषय में मौलाना जलालुद्दीन का महाकाव्य), सिकन्दरनामा (सिकन्दर बादशाह के चरित्र पर निज़ामी का काव्य) और शाहनामा (फिरदोसी का अपूर्व काव्य, ईरान देश के बादशाहों के विषय में, फ़ारसी का महाभारत) यह तीनों ग्रंथ उच्चकोटि के हैं और उनमें यद्यपि शब्द योजना, काव्यसौदर्य, अलंकार और वर्णन शक्ति बोस्तां से अधिक है तथापि उसकी सरलता, और उसकी गुप्त चुटकियॉं और युक्तियॉं उनमें नहीं है। लेकिन गुलिस्तां के जोड़ का कोई ग्रंथ फ़ारसी भाषा में है ही नहीं। उसका विषय नया नहीं है। उसके बाद से नीति पर फ़ारसी में सैकड़ों ही किताबें लिखी जा चुकी हैं। उसमें जो कुछ चमत्कार है वह सादी के भाषा लालित्य और वाक्य चातुरी का है। उसमें बहुत-सी कथायें और घटनायें स्वयं लेखक ने अनुभव की हैं, इसलिए उनमें ऐसी सजीवता और प्रभावोत्पादकता का संचार हो गया है जो केवल अनुभव से ही हो सकता है। सादी पहले एक बहुत साधारण कथा छेड़ते हैं लेकिन अंत में एक ऐसी चुटीली और मर्मभेदी बात कह देते हैं कि जिससे सारी कथा अलंकृत हो जाती है। यूरोप के समालोचकों ने सादी की तुलना 'होरेस' (यूनान का सर्वश्रेष्ठ कवि) से की है। अंग्रेज़ विद्वान ने उन्हें एशिया के शेक्सपियर की पदवी दी है इससे विदित होता है कि यूरोप में भी सादी का कितना आदर है। गुलिस्तां के लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, डच, अंग्रेजी, तुर्की आदि भाषाओं में एक नहीं कई अनुवाद हैं। भारतीय भाषाओं में उर्दू, गुजराती, बंगला में उसका अनुवाद हो चुका है। हिंदी भाषा में भी महाशय मेहरचन्द दास का किया हुआ गुलिस्तां का गद्य-पद्यमय अनुवाद 1888 में प्रकाशित हो चुका है। संसार में ऐसे थोड़े ही ग्रंथ हैं जिनका इतना आदर हुआ हो।

अध्याय 7

गुलिस्तां
हम गुलिस्‍तां की कुछ कथाऍं देते हैं जिनसे पाठकों को भी सादी के लेखन कौशल का परिचय दे सकें।गुलिस्तां में आठ प्रकरण हैं। प्रत्येक प्रकरण में नीति और सदाचार के भिन्न-भिन्न सिध्दांतों का वर्णन किया गया है।
प्रथम प्रकरण में बादशाहों का आचार, व्यवहार, और राजनीति के उपदेश दिये गये हैं।
सादी ने राजाओं के लिए निम्नलिखित बातें बहुत आवश्यक और ध्‍यान देने योग्य बतलाई हैं
प्रजा पर कभी स्वयं अत्याचार न करे न अपने कर्मचारियों को करने दे।
किसी बात का अभिमान न करे और संसार के वैभव को नश्‍वर समझता रहे।
प्रजा के धन को अपने भोग-विलास में न उड़ाकर उन्हीं के आराम में खर्च करे।
गुलिस्तां की कथायें
मैं दमिशक में एक औलिया की कब्र पर बैठा हुआ था कि अरब देश का एक अत्याचारी बादशाह वहाँ पूजा करने आया। नमाज़ पढ़ने के पश्‍चात् वह मुझसे बोला कि मैं आजकल एक बलवान शत्रु के हाथों तंग आ गया हूं। आप मेरे लिए दुआ कीजिये। मैंने कहा कि शत्रु के पंजे से बचने के लिए सबसे अच्छा उपाय यह है कि अपनी दीन प्रजा पर दया कीजिये।
एक अत्याचारी बादशाह ने किसी साधु से पूछा कि मेरे लिए कौन-सी उपासना उत्‍तम है। उत्‍तर मिला कि तुम्हारे लिए दोपहर तक सोना सब उपासनाओं से उत्‍तम है। जिसमें उतनी देर तुम किसी को सता न सको।
एक दिन ख़लीफ़ा हारूं रशीद का एक शाहज़दा क्रोध से भरा हुआ अपने पिता के पास आकर बोला, मुझे अमुक सिपाही के लड़के ने गाली दी है। बादशाह ने मन्त्रिायों से पूछा क्या होना चाहिए। किसी ने कहा, उसे कैद कर दीजिये। कोई बोला, जान से मरवा डालिये। इस पर बादशाह ने शाहज़दे से कहा, बेटा, अच्छा तो यह है कि उसे क्षमा करो। यदि इतने उदार नहीं हो सकते हो तो उसे भी गाली दे लो।
एक साधु संसार से विरक्त होकर वन में रहने लगा। एक दिन राजा की सवारी उधर से निकली। साधु ने कुछ ध्‍यान न दिया। तब मंत्री ने जाकर उससे कहा, साधुजी, राजा तुम्हारे सामने से निकले और तुमने उनका कुछ सम्मान न किया। साधु ने कहा, भगवन, राजा से कहिए कि नमस्कार-प्रणाम की आशा उससे रक्खें जो उनसे कुछ चाहता हो। दूसरे राजा प्रजा की रक्षा के लिए है, न कि प्रजा राजा की बंदगी के लिए।
एक बार न्यायशील नौशेरवां जंगल में शिकार खेलने गया। वहाँ भोजन बनाने के लिए नमक की ज़रूरत हुई। नौकर को भेजा कि जाकर पास वाले गांव से नमक ले आ। लेकिन बिना दाम दिये मत लाना। नहीं गांव ही उजड़ जायगा। नौकर ने कहा, तनिक-सा नमक लेने से गांव कैसे उजड़ जायेगा? नौशेरवां ने उत्‍तर दिया अगर राजा प्रजा के बाग़ से एक सेब खा ले तो नौकर लोग उस वृक्ष की जड़ तक खोद खाते हैं।
एक बादशाह बीमार था। उसके जीवन की कोई आशा न थी। वैद्यों ने जवाब दे दिया था। इन्हीं दिनों एक सवार ने आकर उसे किसी किश्ले के जीतने का सुखसंवाद सुनाया। बादशाह ने लंबी सांस लेकर कहा, यह ख़बर मेरे लिए नहीं, मेरे उत्‍तराधिकारियों के लिए सुखदायक हो सकती है।
एक बादशाह किसी असाधय रोग से पीड़ित था। हकीमों ने बहुत कुछ यत्न किया, पर कोई असर न हुआ। अंत में उन्होंने बादशाह को मनुष्य का गुर्दा सेवन कराने का विचार किया। वह मनुष्य किस रूप-रंग का हो इसकी विवेचना भी कर दी। बहुत खोजने पर एक ज़मीनदार के पुत्र में यह सब गुण पाये गये। उसके माता-पिता रुपया लेकर लड़के का वध कराने पर राज़ी हो गये। काज़ी साहब ने भी व्यवस्था दे दी कि बादशाह की प्राणरक्षा के लिए यह हत्या न्याय विरुध्द नहीं है। अंत में जब जल्लाद उसे मारने खड़ा हुआ तो लड़का आकाश की ओर देखकर हंस पड़ा। बादशाह ने विस्मित होकर हंसी का कारण पूछा। लड़के ने कहा, मैं अपने भाग्य की विचित्रता पर हंसता हूं। माता-पिता के प्रेम, काज़ी के न्याय, और बादशाह के प्रजापालन, सबने मेरी रक्षा से हाथ खींच लिया, अब केवल ईश्‍वर ही मेरा सहायक है। बादशाह के हृदय में दया उत्पन्न हुई, बालक को गोद में ले लिया और बहुत-सा धन देकर विदा किया।
किसी बादशाह के पास एक परोपकारी मंत्री था। दैवयोग से एक बार बादशाह ने किसी बात पर नाराज़ होकर उसे जेलख़ाने भेज दिया। पर जेल में भी उसके कितने ही मित्र थे जो पहले की भांति ही उसका मान-सम्मान करते रहे। उधर एक दूसरे रईस को इस घटना की खबर मिली तो उसने मंत्री के नाम गुप्त रीति से पत्र लिखा कि जब वहाँ आपका इतना अनादर हो रहा है तो क्यों यह कष्ट झेल रहे हैं? यदि आप यहाँ चले आयें तो आपका यथोचित सम्मान किया जायगा और हम लोग इसे अपना धन्‍य भाग समझेंगे। मंत्री ने बहुत संक्षिप्त उत्‍तर लिख भेजा। इतने में किसी ने बादशाह से जाकर कहा, देखिये मंत्री जी इतने पर भी अपनी कुटिलता से बाज नहीं आते, अन्य देशीय रईसों से लिखा-पढ़ी कर रहे हैं। बादशाह ने गुप्तचर के पकड़े जाने का हुक्म दिया। पत्र देखा गया तो लिखा था, मैं इस आदर के लिए आपका बहुत अनुग्रहीत हूं, लेकिन जिस रियासत का वर्षों तक नमक खा चुका हूं उससे थोड़ी-सी ताड़ना के कारण विमुख नहीं हो सकता। आप मुझे क्षमा करें। बादशाह यह पत्र देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और मंत्री को कारागार से निकालकर फिर पुराने पद पर नियुक्त कर दिया और अपनी निर्दयता पर बहुत लज्जित हुआ।
एक पहलवान अपने एक शिष्य से विशेष प्रीति रखता था। उसने उसे एक पेंच के सिवाय अपने और सब पेंचों का अभ्यास करा दिया। इससे शिष्य को अहंकार हो गया। उसने बादशाह से जाकर कहा, मेरे गुरुजी अब केवल नाम के गुरु हैं। मल्लयुध्द में वह मेरा सामना नहीं कर सकते। बादशाह ने युवक का यह घमंड तोड़ने का निश्‍चय किया। एक दंगल कराने का हुक्म दिया जिसमें गुरु और शिष्य अपना-अपना पराक्रम दिखायें। सहस्रों मनुष्य एकत्र हुए। कुश्ती होने लगी। शिष्य ने गुरुजी के सब पेंच काट दिये, पर अन्तिम पेंच की काट न जानता था, परास्त हो गया। बादशाह ने गुरु को इनाम दिया और युवक को बहुत धिक्कारा कि इसी बल-बूते पर तू इतनी डींग मारता था। शिष्य ने कहा, दीन बंधु, गुरुजी ने यह पेंच मुझसे छिपा रखा था। गुरुजी ने कहा, हाँ, इसी दिन के लिए छिपाया था। क्योंकि चतुर मनुष्यों की कहावत है कि मित्र को इतना सबल न बना देना चाहिये कि वह शत्रु होकर हानि पहुंचा सके।
दूसरा प्रकरण : सादी ने पाखंडी साधुओं, मौलवियों और फ़कीरों को शिक्षा दी है, जिन्हें उस प्राचीन काल में भी इसकी कुछ कम आवश्यकता न थी। सादी को पंडितों, मौलवी-मुल्लाओं के साथ रहने के बहुत अवसर मिले थे। अतएव वह उनके रंग-ढंग को भली-भांति जानते थे। इन उपदेशों में बार-बार समझाया है कि मौलवियों को संतोष रखना चाहिए। उन्हें राजा रईसों की खुशामद करने की जरूरत नहीं। गेरुवे बाने की आड़ में स्वार्थ सिध्दि को वह अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखते थे। उनके कथनानुसार किसी बने हुए साधु से भोग-विलास में फंसा हुआ मनुष्य अच्छा है, क्योंकि वह किसी को धोखा तो देना नहीं चाहता।
मुझे याद है कि एक बार जब मैं बाल्यावस्था में सारी रात कुरान पढ़ता रहा तो कई आदमी मेरे पास खर्राटे ले रहे थे। मैंने अपने पूज्य पिता से कहा, इन सोने वालों को देखिये, नमाज़ पढ़ना तो दूर रहा कोई सिर भी नहीं उठाता। पिताजी ने उत्‍तर दिया, बेटा, तू भी सो जाता तो अच्छा था क्योंकि इस छिद्रान्वेषण से तो बच जाता।
किसी देश में एक भिक्षुक ने बहुत-सा धन जमा कर रक्खा था। वहाँ के बादशाह ने उसे बुलाकर कहा, सुना है तुम्हारे पास बड़ी सम्पत्ति है। मुझे आजकल धन की बड़ी आवश्यकता है। यदि उसमें से कुछ दे दो तो कोष में रुपये आते ही मैं तुम्हें चुका दूंगा। फ़कीर ने कहा, जहाँपनाह, मुझ जैसे भिखारी का धन आपके काम का नहीं है क्योंकि मैंने मांग-मांगकर कौड़ी-कौड़ी बटोरी है। बादशाह ने कहा, इसकी कुछ चिंता नहीं, मैं यह रुपये काफिरों, अधार्मियों को ही दूंगा। जैसा धन है वैसा ही उपयोग होगा।
एक वृध्द पुरुष ने एक युवती कन्या से विवाह किया। जिस कमरे में उसके साथ रहता उसे फूलों से खूब सजाता। उसके साथ एकांत में बैठा हुआ उसकी सुंदरता का आनंद उठाया करता। रात भर जाग-जागकर मनोहर कहानियाँ कहा करता कि कदाचित उसके हृदय में कुछ प्रेम उत्पन्न हो जाय। एक दिन उससे बोला, तेरा नसीब अच्छा था कि तेरा विवाह मेरे जैसे बूढ़े से हुआ जिसने बहुत ज़माना देखा है, सुख-दु:ख का बहुत अनुभव कर चुका है। जो मित्र धर्म का पालन करना जानता है; जो मृदुभाषी, प्रसन्नचित्‍त और शीलवान है। तू किसी अभिमानी युवक के पाले पड़ी होती, जो रात-दिन सैर-सपाटे किया करता, अपने ही बनाव सिंगार में भूला रहता, नित्य नये प्रेम की खोज में रहता, तो तुझसे रोते भी न बनता। युवक लोग सुन्दर और रसिक होते हैं किन्तु प्रीतिपालन करना नहीं जानते। बूढ़े ने समझा कि इस भाषण ने कामिनी को मोहित कर लिया, लेकिन अकस्मात युवती ने एक गहरी सांस ली और बोली आपने बहुत ही अच्छी बातें कहीं, लेकिन उनमें से एक भी इतनी नहीं जंचती जितना मेरे दाई का यह वाक्य कि युवती को तीर का घाव उतना दुखदायी नहीं होता जितना वृध्द मनुष्य का सहवास।
मैं दयारे बक्र में एक वृध्द धनवान मनुष्य का अतिथि था। उसके एक रूपवान पुत्र था। एक दिन उसने कहा, इस लड़के के सिवा मेरे और कोई संतान नहीं हुई। यहाँ से पास ही एक पवित्र वृक्ष है, लोग वहाँ जाकर मन्नतें मानते हैं। कितने दिनों तक रात-रात भर मैंने उस वृक्ष के नीचे ईश्वर से विनती की, तब मुझे यह पुत्र प्राप्त हुआ। उधर लड़का धीरे-धीरे मित्रों से कह रहा था, यदि मुझे उस वृक्ष का पता होता तो जाकर ईश्‍वर से पिता की मृत्यु के लिए विनय करता।
मेरे मित्रों में एक युवक बड़ा प्रसन्नचित्‍त, हंसमुख और रसिक था। शोक उसके हृदय में घुसने भी न पाता था। बहुत दिनों के बाद जब भेंट हुई तो देखा कि उसके घर में स्‍त्री और बच्चे हैं। साथ ही न वह पहले की सी मनोरंजकता है न उत्साह। पूछा, क्या हाल है? बोला, जब बच्चों का बाप हो गया तो बच्चों का खिलाड़ीपन कहाँ से लाऊं? अवस्थानुकूल ही सब बातें शोभा देती हैं।
किसी बादशाह ने एक ईश्‍वर भक्त से पूछा कि कभी आप मुझे भी तो याद करते होंगे। भक्त ने कहा, हाँ, जब ईश्‍वर को भूल जाता हूं तो आप याद आ जाते हैं।
एक बादशाह ने किसी विपत्ति के अवसर पर निश्‍चय किया कि यदि यह विपत्ति टल जाय तो इतना धन साधु-संतों को दान कर दूंगा। जब उसकी कामना पूरी हो गयी तो उसने अपने नौकर को रुपयों की एक थैली साधुओं को बांटने के लिए दी। वह नौकर चतुर था। संध्‍या को वह थैली ज्यों की त्यों दर्बार में वापस लाया, बोला दीनबन्‍धु, मैंने बहुत खोज की किन्तु इन रुपयों का लेने वाला कोई न मिला। बादशाह ने कहा, तुम भी विचित्र आदमी हो, इसी शहर में चार सौ से अधिक साधु होंगे। नौकर ने विनय की, भगवन, जो संत हैं वह तो इस द्रव्य को छूते नहीं और जो मायासक्त हैं उन्हें मैंने दिया नहीं।
किसी महात्मा से पूछा गया कि दान ग्रहण करना आप उचित समझते हैं या अनुचित? उन्होंने उत्‍तर दिया, उससे किसी सुकार्य की पूर्ति हो तब तो उचित है और केवल संग्रह और व्यापार के निमित्‍त अत्यंत अनुचित है।
एक साधु किसी राजा का अतिथि हुआ था। जब भोजन का समय आया तो उसने बहुत अल्प भोजन किया। लेकिन जब नमाज़ का वक्श्त आया तो उसने खूब लंबी नमाज़ पढ़ी। जिसमें राजा के मन में श्रध्दा उत्पन्न हो। वहाँ से विदा होकर घर पर आये तो भूख के मारे बुरा हाल था। आते ही भोजन मांगा। पुत्र ने कहा, पिताजी क्या राजा ने भोजन नहीं दिया। बोले, भोजन तो दिया, किन्तु मैंने स्वयं जान बूझकर कुछ नहीं खाया जिसमें बादशाह को मेरे योगसाधना पर पूरा विश्‍वास हो जाय। बेटे ने कहा, तो भोजन करके नमाज़ भी फिर से पढ़िये। जिस तरह वहाँ का भोजन आपका पेट नहीं भर सका, वैसे ही वहाँ की नमाज़ भी सिध्द नहीं हुई।
तीसरा प्रकरण : संतोष की महिमा वर्णन की गयी है। सादी की नीति शिक्षा में संतोष का पद बहुत ऊंचा है। और यथार्थ भी यही है। संतोष सदाचार का मूलमंत्र है। संतोष रूपी नौका पर बैठकर हम इस भवसागर को निर्विघ्न पार कर सकते हैं।
मिश्र देश में एक धनवान मनुष्य के दो पुत्र थे। एक ने विद्या पढ़ी, दूसरे ने धन संचय किया। एक पंडित हुआ, और दूसरा मिश्र का प्रधान मंत्री कोषाध्‍यक्ष। इसने अपने विद्वान भ्राता से कहा, देखो मैं राजपद पर पहुंचा और तुम ज्यों के त्यों रह गये। उसने उत्‍तर दिया ईश्‍वर ने मुझ पर विशेष कृपा की है, क्योंकि मुझको विद्या दी जो देव दुर्लभ पदार्थ है और तुमको मिश्र की उस गद्दी का मंत्री बनाया जो फिरऊन (मिश्र का एक अभिमानी बादशाह जिसे मूसा नबी ने नील नदी में डुबा दिया) की थी।
ईरान के बादशाह बहमन के संबंध में कहा जाता है कि उसने अरब के एक हकीम से पूछा कि नित्य कितना भोजन करना चाहिए। हकीम ने उत्‍तर दिया, 29 तोले। बादशाह बोला, भला, इतने से क्या होगा। उत्‍तर मिला, इतने आहार से तुम जिन्दा रह सकते हो। इसके उपरान्त जो कुछ खाते हो वह बोझ है जो तुम व्यर्थ अपने ऊपर लादते हो।
एक मनुष्य पर किसी बनिये के कुछ रुपये चढ़ गये थे। वह उससे प्रतिदिन मांगा करता और कड़ी-कड़ी बातें कहता। बेचारा सुन-सुनकर दु:खी होता था, सहने के सिवा कोई दूसरा उपाय न था। एक चतुर ने यह कौतुक देखकर कहा इच्छाओं का टालना इतना कठिन नहीं है जितना बनियों का। कसाइयों के तकाजे सहने की अपेक्षा मांस की अभिलाषा में मर जाना कहीं अच्छा है।
एक फ़कीर को कोई काम आ पड़ा। लोगों ने कहा अमुक पुरुष बड़ा दयालु है। यदि उससे जाकर अपनी आवश्यकता कहो तो वह तुम्हें कदापि निराश न करेगा। फ़कीर पूछते-पूछते उस पुरुष के घर पहुंचा। देखा तो वह रोनी सूरत बनाये, क्रोध में भरा बैठा है। उल्टे पांव लौट आया। लोगों ने पूछा क्यों भाई क्या हुआ? बोले सूरत ही देखकर मन भर गया। यदि मांगना ही पड़े तो किसी प्रसन्नचित्‍त आदमी से मांगो, मनहूस आदमी से न मांगना ही अच्छा है।
लोगों ने हातिमताई (उदारता में अरब का हरिश्‍चन्द्र) से पूछा, क्या तुमने संसार में कोई अपने से अधिक योग्य मनुष्य देखा या सुना है? बोला, हाँ एक दिन मैंने लोगों की बड़ी भारी दावत की। संयोग से उस दिन किसी कार्यवश मुझे जंगल की तरफ जाना पड़ा। एक लकड़हारे को देखा बोझ लिये आ रहा है। उससे पूछा भाई हातिम के मेहमान क्यों नहीं बन जाते हैं? आज देश भर के आदमी उसके अतिथि हैं। बोला, जो अपनी मेहनत की रोटी खाता है वह हातिम के सामने हाथ क्‍यों फैलावें?
एक बार युवावस्था में मैंने अपनी माता से कुछ कठोर बातें कह दीं। माता दु:खी होकर एक कोने में जा बैठी और रोकर कहने लगी, बचपन भूल गया, इसीलिये अब मुंह से ऐसी बातें निकलती हैं।
एक बूढ़े से लोगों ने पूछा विवाह क्यों नहीं करते? वह बोला वृध्दा स्त्रियों से मैं विवाह नहीं करना चाहता। लोगों ने कहा, तो किसी युवती से कर लो। बोला, जब मैं बूढ़ा होकर बूढ़ी स्त्रियों से भागता हूं तो युवती होकर बूढ़े मनुष्य को कैसे चाहेंगी?
चौथा प्रकरण : बहुत छोटा है और उसमें मितभाषी होने का जो उपदेश किया गया है उसकी सभी बातों से आजकल के शिक्षित सहमत न होंगे, जिनका सिध्दान्त ही है कि अपनी राई भर बुध्दि को पर्वत बनाकर दिखाया जाय। आजकल विनय अयोग्यता की द्योतक समझी जाती है और वही मनुष्य चलते-पुर्जे और कार्यकुशल समझे जाते हैं जो अपनी बुध्दि और चतुराई की महिमा गान करने में कभी नहीं चूकते। किसी यूरोपीय सज्जन ने यह लिखने में भी संकोच नहीं किया कि चुप रहने से मूर्खता प्रकट होती है। लेकिन इसमें किसी को शंका नहीं हो सकती कि मितभाषी होना भी समाज की उन्नति के लिए उपयोगी है। ऐसे अवसर भी आ जाते हैं जब हमको अपनी वाचालता पर पछताना पड़ता है। इस विषय में सादी ने कई मर्मपूर्ण उपदेश दिये हैं। जिन पर चलने से हमको विशेष लाभ हो सकता है।
एक चतुर युवक का निमय था कि बुध्दिमानों की सभा में बैठता तो मौन धारण कर लेता। लोगों ने उससे कहा, तुम भी कभी-कभी किसी विषय पर कुछ बोला करो। उसने कहा, कहीं ऐसा न हो कि लोग मुझसे ऐसी बात पूछ बैठें जो मुझे आती ही न हो और मुझे लज्जित होना पड़े।
एक विद्वान् ने कहा है कि यदि संसार में कोई ऐसा है जो अपनी मूर्खता को स्वीकार करता हो तो वही मनुष्य है जो किसी आदमी की बात समाप्त होने से पहले ही बोल उठता है।
हसन नाम के एक मंत्री पर बादशाह महमूद गज़नी का बड़ा विश्‍वास था। एक दिन उससे अन्य कर्मचारियों ने पूछा कि आज बादशाह ने अमुक विषय के संबंध में तुमसे क्या कहा? हसन ने कहा, जो तुमसे कहा, वही हमसे भी कहा। बोले, जो बातें तुमसे होती हैं वह हमसे नहीं करते। उत्‍तर दिया, जब बादशाह मुझ पर विश्‍वास करके कोई भेद की बातें कहते हैं तो मुझसे क्यों पूछते हो।
किसी मस्जिद में अवैतनिक मौलवी ऐसी बुरी तरह नमाज, पढ़ता कि सुनने वालों को घृणा होती। मस्जिद का स्वामी दयालु था। वह मौलवी का दिल दु:खाना नहीं चाहता था। मौलवी से कहा कि इस मस्जिद के कई पुराने मुल्ला हैं जिन्हें मैं पांच रुपये मासिक देता हूं। तुम्हें दस रुपये दूंगा, लेकिन किसी दूसरी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आया करो। मौलवी ने इसे स्वीकार कर लिया। लेकिन थोड़े ही दिनों में वह फिर स्वामी के पास आया और बोला, आपने तो मुझे दस रुपये देकर यहाँ से निकाला, अब जहाँ हूं वहाँ के लोग मुझे मस्जिद से जाने के लिए बीस रुपये दे रहे हैं। स्वामी खूब हंसा और बोला, पचास दीनार लिये बिना पिंड मत छोड़ना।
पांचवां और छठवां प्रकरण : जीवन की ही मुख्य अवस्थाओं से संबंध रखते हैं। एक में युवावस्था, दूसरे में वृध्दावस्था का वर्णन है। युवावस्था में हमारी मनोवृत्तियॉं कैसी होती हैं, हमारे कर्तव्‍य क्या होते हैं, हम वासनाओं में किस प्रकार लिप्त हो जाते हैं, बुढ़ापे में हमें क्या-क्या अनुभव होते हैं, मन में क्या अभिलाषायें रहती हैं, हमारा क्या कर्तव्‍य होना चाहिए। इन सब विषयों का सादी ने इस तरह वर्णन किया है मानो वह भी सदाचार के अंग हैं। इसमें कितनी ही कथायें ऐसी हैं जिनसे मनोरंजन के सिवा कोई नतीजा नहीं निकलता, वरन् कुछ कथायें ऐसी भी हैं जिनको गुलिस्तां जैसे ग्रंथ में स्थान न मिलना चाहिए था। विशेषकर युवावस्था का वर्णन करते हुए तो ऐसा मालूम होता है मानो सादी को जवानी का नशा चढ़ गया था।
सातवां प्रकरण : शिक्षा से संबंध रखता है। सादी ने शिक्षकों के दोष और गुण, शिष्य और गुरु के पारस्परिक व्यवहार और शिक्षा के फल और विफल का वर्णन किया है। उनका सिध्दान्त था कि शिक्षा चाहे कितनी भी उत्‍तम हो मानव स्वभाव को नहीं बदल सकती और शिक्षक चाहे कितना ही विद्वान और सच्चरित्र क्यों न हो कठोरता के बिना अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। यद्यपि आजकल यह सिध्दांत निर्भ्रांत नहीं माने जा सकते तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें कुछ भी तत्‍व नहीं है। कोई शिक्षा पध्दति अब तक ऐसी नहीं निकलती है जो दंड का निषेध करती हो, हाँ कोई शारीरिक दंड के पक्ष में है, कोई मानसिक।

एक विद्वान किसी बादशाह के लड़के को पढ़ाता था। वह उसे बहुत मारता और डांटता था। राजपुत्र ने एक दिन अपने पिता से जाकर अध्‍यापक की शिकायत की। बादशाह को भी क्रोध आया। अध्‍यापक को बुलाकर पूछा, आप मेरे लड़के को इतना क्यों मारते हैं? इतनी निर्दयता आप अन्य लड़कों के साथ नहीं करते? अध्‍यापक ने उत्‍तर दिया, महाराज, राजपुत्र में नम्रता और सदाचार की विशेष आवश्यकता है क्योंकि बादशाह लोग जो कुछ कहते या करते हैं वह प्रत्येक मनुष्य की जिह्ना पर रहता है पर जिसे बचपन में सचरित्रता की शिक्षा कठोरतापूर्वक नहीं मिलती उसमें बड़े होने पर कोई अच्छा गुण नहीं आ सकता। हरी लकड़ी को चाहे जितनी झुका लो लेकिन सूख जाने पर वह नहीं मुड़ सकती। मैंने अफ्रीका देश में एक मौलवी को देखा। वह अत्यंत कुरूप, कठोर और कटुभाषी था। लड़कों को पढ़ाता कम और मारता जि़यादा। लोगों ने उसे निकालकर एक धार्मिक, नम्र और सहनशील मौलवी रक्खा। यह हज़रत लड़कों से बहुत प्रेम से बोलते और कभी उनकी तरफ कड़ी आंख से भी न देखते। लड़के उनका यह स्वभाव देखकर ढीठ हो गये। आपस में लड़ाई दंगा मचाते और लिखने की तख्तियॉं लड़ाया करते। जब मैं दूसरी बार फिर वहाँ गया तो मैंने देखा कि वही पहले वाला मौलवी बालकों को पढ़ा रहा है। पूछने पर विदित हुआ कि दूसरे मौलवी की नम्रता से उकता जाने पर लोग पहले मौलवी को मनाकर लाये थे।

एक बार मैं बलख़ से कुछ यात्रियों के साथ आ रहा था। हमारे साथ एक बहुत बलवान नवयुवक था जो डींग मारता चला आता था कि मैंने यह किया और वह किया। निदान हमको कई डाकुओं ने घेर लिया। मैंने पहलवान से कहा, अब क्यों खड़े हो, कुछ अपना पराक्रम दिखाओ। लेकिन लुटेरों को देखते ही उस मनुष्य के होश उड़ गये। मुख फीका पड़ गया। तीर-कमान हाथ से छूटकर गिर पड़ा और वह थरथर कांपने लगा। जब उसकी यह दशा देखी तो अपना असबाब वहीं छोड़कर हम लोग भाग खड़े हुए। यों किसी तरह प्राण बचे। जिसे युध्द का अनुभव हो वही समर में अड़ सकता है। इसके लिए बल से अधिक साहस की ज़रूरत है।
आठवां प्रकरण : सादी ने सदाचार और सद्व्यवहार के नियम लिखे हैं। कथाओं का आश्रय न लेकर खुले-खुले उपदेश किये हैं। इसलिए सामान्य रीति से यह प्रकरण विशेष रोचक न हो सकता था, किन्तु इस कमी को सादी ने रचना सौंदर्य से पूरा किया है। छोटे-वाक्यों में सूत्रों की भांति अर्थ भरा हुआ है। मानो यह प्रकरण सादी के उपदेशों का निचोड़ है। यह वह उपवन है जिसमें राजनीति, सदाचार, मनोविज्ञान, समाजनीति, सभाचातुरी आदि रंग-बिरंगे पुरुष लहलहा रहे हैं। इन फूलों में छिपे हुए कांटे भी हैं, जिनमें वह अद्भुत गुण है कि वह वहीं चुभते हैं जहाँ चुभने चाहिये।
यदि कोई निर्बल शत्रु तुम्हारे साथ मित्रता करे तो तुमको उससे अधिक सचेत रहना चाहिए। जब मित्र की सच्चाई का ही भरोसा नहीं तो शत्रुओं की खुशामद का क्या विश्‍वास!
यदि किन्हीं दो दुश्मनों के बीच में कोई बात कहनी हो तो इस भांति कहो कि अगर वे फिर मित्र हो जायं तो तुम्हें लज्जित न होना पड़े।
जो मनुष्य अपने मित्र के शत्रुओं से मित्रता करता है। वह अपने मित्र का शत्रु है।
जब तक धन से काम निकले तब तक जान को जोखिम में न डालो। जब कोई उपाय न रहे तो म्यान से तलवार खींचो।
शत्रु की सलाह के विरुध्द काम करना ही बुध्दिमानी है अगर वह तुम्हें तीर के समान सीधी राह दिखावे तो भी उसे छोड़ दो और उलटी (उसके विरुध्द) राह जाओ।
न तो इतने कठोर बनो कि लोग तुमसे डरने लगें और न इतने कोमल कि लोग सिर चढ़ें।
दो मनुष्य राज्य और धर्म के शत्रु हैं, निर्दयी राजा और मूर्ख साधु।
राजा को उचित है कि अपने शत्रुओं पर इतना क्रोध न करे कि जिससे मित्रों के मन में भी खटका हो जाय।
जब शत्रु की कोई चाल काम नहीं करती तब वह मित्रता पैदा करता है; मित्रता की आड़ में वह उन सब कामों को कर सकता है जो दुश्मन रहकर न कर सकता।
साँप के सिर को अपने बैरी के हाथ से कुचलवाओ या तो साँप ही मरेगा या दुश्मन ही से गला छूटेगा।
जब तक तुम्हें पूर्ण विश्‍वास न हो कि तुम्हारी बात पसंद आवेगी तब तक बादशाह के सामने किसी की निंदा मत करो; अन्यथा तुम्हें स्वयं हानि उठानी पड़ेगी।
जो व्यक्ति किसी घमंडी आदमी को उपदेश करता है, वह खुद नसीहत का मुहताज है।
जो मनुष्य सामर्थ्यवान होकर भी भलाई नहीं करता उसे सामर्थ्यहीन होने पर दु:ख भोगना पड़ेगा। अत्याचारी का विपद में कोई साथी नहीं होता।
किसी के छिपे हुए ऐब मत खोलो, इससे तुम्हारा भी विश्‍वास उठ जायगा।
विद्या पढ़कर उसका अनुशीलन न करना ज़मीन जोतकर बीज न डालने के समान है।
जिसकी भुजाओं में बल नहीं है, यदि वह लोहे की कलाई वाले से पंजा ले तो यह उसकी मूर्खता है।
दुर्जन लोग सज्जनों को उसी तरह नहीं देख सकते जिस तरह बाज़ारी कुत्ते शिकारी कुत्‍तों को देखकर दूर से गुर्राते हैं; लेकिन पास जाने की हिम्मत नहीं करते।
गुणहीन-गुणवानों से द्वेष करते हैं।
बुध्दिमान लोग पहला भोजन पच जाने पर फिर खाते हैं, योगी लोग उतना खाते हैं जितने से जीवित रहे हैं, जवान लोग पेटभर खाते हैं, बूढ़े जब तक पसीना न आ जाय खाते ही रहते हैं, किन्तु कलन्दर इतना खा जाते हैं कि सांस की भी जगह नहीं रहती।
अगर पत्थर हाथ में हो और साँप नीचे तो उस समय सोच-विचार नहीं करना चाहिए।
अगर कोई बुध्दिमान मूर्खों के साथ वाद-विवाद करे तो उसे प्रतिष्ठा की आशा न रखनी चाहिये।
जिस मित्र को तुमने बहुत दिनों में पाया है उससे मित्रता निभाने का यत्न करो।
विवेक इन्द्रियों के अधीन है जैसे कोई सीधा मनुष्य किसी चंचल स्‍त्री के अधीन हो।
बुध्दि, बिना बल के छल और कपट है, बल बिना बुध्दि के मूर्खता और क्रूरता है।
जो व्यक्ति लोगों का प्रशंसापात्र बनने की इच्छा से वासनाओं का त्याग करता है, वह हलाल को छोड़कर हराम की ओर झुकता है।
दो बात असंभव हैं, एक तो अपने अंश से अधिक खाना, दूसरे मृत्यु से पहले मरना।

जारी है >>

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