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हिंदी कविता
निशा निमन्त्रण - Harivansh Rai Bachchan (शेष भाग )Nisha Nimantran - Harivansh Rai Bachchan
हम कब अपनी बात छिपाते - Harivansh Rai Bachchan
हम कब अपनी बात छिपाते?हम अपना जीवन अंकित कर
फेंक चुके हैं राज मार्ग पर,
जिसके जी में आए पढ़ले थमकर पलभर आते जाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
हम सब कुछ करके भी मानव,
हमीं देवता, हम ही दानव,
हमीं स्वर्ग की, हमीं नरक की, क्षण भर में सीमा छू आते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
मानवता के विस्तृत उर हम,
मानवता के स्वच्छ मुकुर हम,
मानव क्यों अपनी मानवता बिंबित हममें देख लजाते!
हम कब अपनी बात छिपाते?
हम आँसू की धार बहाते - Harivansh Rai Bachchan
हम आँसू की धार बहाते!मानव के दुख का सागर जल
हम पी लेते बनकर बादल,
रोकर बरसाते हैं, फिर भी हम खारे को मधुर बनाते!
हम आँसू की धार बहाते!
उर मथकर कंठों तक आता,
कंठ रुँधा पाकर फिर जाता,
कितने ऐसे विष का दर्शन, हाय, नहीं मानव कर पाते!
हम आँसू की धार बहाते!
मिट जाते हम करके वितरण
अपना अमृत सरीखा सब धन!
फिर भी ऐसे बहुत पड़े जो मेरा तेरा भाग्य सिहाते!
हम आँसू की धार बहाते!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर - Harivansh Rai Bachchan
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!जिनका उर था स्नेह विनिर्मित,
भाव सरसता से अभिसिंचित,
जब न पसीजे इनसे वे भी, आज पसीजेगें क्या पत्थर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
इनमें मानव का जीवन है,
जीवन का नीरव क्रंदन है,
नष्ट न कर तू इन बूँदों को मरुथल के ऊपर बरसाकर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
रो तू अक्षर-अक्षर में ही,
रो तू गीतों के स्वर में ही,
शांत किसी दुखिया का मन हो जिनको सूनेपन में गाकर!
क्यों रोता है जड़ तकियों पर!
मैंने दुर्दिन में गाया है - Harivansh Rai Bachchan
मैंने दुर्दिन में गाया है!दुर्दिन जिसके आगे रोता,
बंदी सा नतमस्तक होता,
एक न एक समय दुनिया का एक-एक प्राणी आया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
जीवन का क्या भेद बताऊँ,
जगती का क्या मर्म जताऊँ,
किसी तरह रो-गाकर मैंने अपने मन को बहलाया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
साथी, हाथ पकड़ मत मेरा,
कोई और सहारा तेरा,
यही बहुत, दुख दुर्बल तूने मुझको अपने सा पाया है!
मैंने दुर्दिन में गाया है!
साथी, कवि नयनों का पानी - Harivansh Rai Bachchan
साथी, कवि नयनों का पानी-चढ जाए मंदिर प्रतिमा पर,
यी दे मस्जिद की गागर भर,
या धोए वह रक्त सना है जिससे जग का आहत प्राणी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
लिखे कथाएँ राज-काज की,
या परिवर्तित जन समाज की,
या मानवता के विषाद की लिखे अनादि-अनंत कहानी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
’कल-कल’ करे सरित निर्झर में,
या मुखरित हो सिन्धु लहर में,
युग वाणी बोले या बोले वह, जो है युग-युग की वाणी?
साथी, कवि नयनों का पानी-
जग बदलेगा, किंतु न जीवन - Harivansh Rai Bachchan
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!क्या न करेंगे उर में क्रंदन
मरण-जन्म के प्रश्न चिरंतन,
हल कर लेंगे जब रोटी का मसला जगती के नेतागण?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
प्रणय-स्वप्न की चंचलता पर
जो रोएँगे सिर धुन-धुनकर,
नेताओं के तर्क वचन क्या उनको दे देंगे आश्वासन?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
मानव-भाग्य-पटल पर अंकित
न्याय नियति का जो चिर निश्चित,
धो पाएँगें उसे तनिक भी नेताओं के आँसू के कण?
जग बदलेगा, किंतु न जीवन!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था - Harivansh Rai Bachchan
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर,
पलक संपुटों में मदिरा भर
तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
‘यह अधिकार कहाँ से लाया?'
और न कुछ मैं कहने पाया -
मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
वह क्षण अमर हुआ जीवन में,
आज राग जो उठता मन में -
यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!
क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
आज सुखी मैं कितनी, प्यारे - Harivansh Rai Bachchan
'आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!'चिर अतीत में 'आज' समाया,
उस दिन का सब साज समाया,
किंतु प्रतिक्षण गूँज रहे हैं नभ में वे कुछ शब्द तुम्हारे!
'आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!'
लहरों में मचला यौवन था,
तुम थीं, मैं था, जग निर्जन था,
सागर में हम कूद पड़े थे भूल जगत के कूल किनारे!
'आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!'
साँसों में अटका जीवन है,
जीवन में एकाकीपन है,
'सागर की बस याद दिलाते नयनों में दो जल-कण खारे!'
'आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!'
सोच सुखी मेरी छाती है - Harivansh Rai Bachchan
सोच सुखी मेरी छाती है—दूर कहाँ मुझसे जाएगी,
कैसे मुझको बिसराएगी?
मेरे ही उर की मदिरा से तो, प्रेयसि, तू मदमाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
मैंने कैसे तुझे गँवाया,
जब तुझको अपने में पाया?
पास रहे तू कहीं किसी के, सुरक्षित मेरी थाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
तू जिसको कर प्यार, वही मैं!
अपनेमें ही आज नहीं मैं!
किसी मूर्ति पर पुष्प चढ़ा तू पूजा मेरी हो जाती है!
सोच सुखी मेरी छाती है—
जग-का मेरा प्यार नहीं था - Harivansh Rai Bachchan
जग-का मेरा प्यार नहीं था!तूने था जिसको लौटाया,
क्या उसको मैंने फिर पाया?
हृदय गया था अर्पित होने, साधारण उपहार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
सीमित जग से सीमित क्षण में
सीमाहीन तृषा थी मन में,
तुझमें अपना लय चाहा था, हेय प्रणय अभिसार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
स्वर्ग न जिसको छू पाया था,
तेरे चरणों में आया था,
तूने इसका मूल्य न समझा, जीवन था, खिलवार नहीं था!
जग-का मेरा प्यार नहीं था!
देवता उसने कहा था - Harivansh Rai Bachchan
देवता उसने कहा था!रख दिए थे पुष्प लाकर
नत नयन मेरे चरण पर!
देर तक अचरज भरा मैं देखता खुद को रहा था!
देवता उसने कहा था!
गोद मंदिर बन गई थी,
दे नए सपने गई थी,
किंतु जब आँखें खुलीं तब कुछ न था, मंदिर जहाँ था!
देवता उसने कहा था!
प्यार पूजा थी उसीकी,
है उपेक्षा भी उसी की,
क्या कठिन सहना घृणा का भार पूजा का सहा था!
देवता उसने कहा था!
मैंने भी जीवन देखा है - Harivansh Rai Bachchan
मैंने भी जीवन देखा है!अखिल विश्व था आलिंगन में,
था समस्त जीवन चुम्बन में
युग कर पाए माप न जिसकी मैंने ऐसा क्षण देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
सिंधु जहाँ था, मरु सोता है!
अचरज क्या मुझको होता है?
अतुल प्यार का अतुल घृणा में मैंने परिवर्तन देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
प्रिय सब कुछ खोकर जीता हूँ,
चिर अभाव का मधु पीता हूँ,
यौवन रँगरलियों से प्यारा मैंने सूनापन देखा है!
मैंने भी जीवन देखा है!
क्या मैं जीवन से भागा था - Harivansh Rai Bachchan
क्या मैं जीवन से भागा था?स्वर्ण श्रृंखला प्रेम-पाश की
मेरी अभिलाषा न पा सकी,
क्या उससे लिपटा रहता जो कच्चे रेशम का तागा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
मेरा सारा कोष नहीं था,
अंशों से संतोष नहीं था,
अपनाने की कुचली साधों में मैंने तुमको त्यागा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
बूँद उसे तुमने दिखलाया,
युग-युग की तृष्णा जो लाया,
जिसने चिर अथाह मधु मंजित जीवन का प्रतिक्षण माँगा था!
क्या मैं जीवन से भागा था?
निर्ममता भी है जीवन में - Harivansh Rai Bachchan
निर्ममता भी है जीवन में!हो वासंती अनिल प्रवाहित
करता जिनको दिन-दिन विकसित,
उन्हीं दलों को शिशिर-समीरण तोड़ गिराता है दो क्षण में!
निर्ममता भी है जीवन में!
जिसकी कंचन की काया थी,
जिसमें सब सुख की छाया थी,
उसे मिला देना पड़ता है पल भर में मिट्टी के कण में!
निर्ममता भी है जीवन में!
जगती में है प्रणय उच्चतर,
पर कुछ है उसके भी ऊपर,
पूछ उसीसे आज नहीं तू क्यों मेरे उर के आँगन में!
निर्ममता भी है जीवन में!
मैंने खेल किया जीवन से - Harivansh Rai Bachchan
मैंने खेल किया जीवन से!सत्य भवन में मेरे आया,
पर मैं उसको देख न पाया,
दूर न कर पाया मैं, साथी, सपनों का उन्माद नयन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
मिलता था बेमोल मुझे सुख,
पर मैंने उससे फेरा मुख,
मैं खरीद बैठा पीड़ा को यौवन के चिर संचित धन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
थे बैठे भगवान हृदय में,
देर हुई मुझको निर्णय में,
उन्हें देवता समझा जो थे कुछ भी अधिक नहीं पाहन से!
मैंने खेल किया जीवन से!
था तुम्हें मैंने रुलाया - Harivansh Rai Bachchan
था तुम्हें मैंने रुलाया!हाय, मृदु इच्छा तुम्हारी!
हा, उपेक्षा कटु हमारी!
था बहुत माँगा न तुमने किन्तु वह भी दे ना पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
स्नेह का वह कण तरल था,
मधु न था, न सुधा-गरल था,
एक क्षण को भी, सरलते, क्यों समझ तुमको न पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
बूँद कल की आज सागर,
सोचता हूँ बैठ तट पर -
क्यों अभी तक डूब इसमें कर न अपना अंत पाया!
था तुम्हें मैंने रुलाया!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ - Harivansh Rai Bachchan
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!सोचा करता बैठ अकेले
गत जीवन के सुख-दुख झेले,
दर्शनकारी स्मृतियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
नहीं खोजने जाता मरहम,
होकर अपने प्रति अति निर्मम
उर के घावों को आँसू के खारे जल से सहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
आह निकल मुख से जाती है,
मानव की ही तो छाती है
लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!
ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं - Harivansh Rai Bachchan
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,
मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
जगती के नीरस मरुथल पर,
हँसता था मैं जिनके बल पर,
चिर वसंत-सेवित सपनों के मेरे वे उद्यान कहा हैं!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
किस पर अपना प्यार चढाऊँ?
यौवन का उद्गार चढाऊँ?
मेरी पूजा को सह लेने वाले वे पाषाण कहाँ है!
अब वे मेरे गान कहाँ हैं!
बीते दिन कब आने वाले - Harivansh Rai Bachchan
बीते दिन कब आने वाले!मेरी वाणी का मधुमय स्वर,
विश्व सुनेगा कान लगाकर,
दूर गए पर मेरे उर की धड़कन को सुन पाने वाले!
बीते दिन कब आने वाले!
विश्व करेगा मेरा आदर,
हाथ बढ़ाकर, शीश नवाकर,
पर न खुलेंगे नेत्र प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले!
बीते दिन कब आने वाले!
मुझमें है देवत्व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को अब दुलरानेवाले!
बीते दिन कब आने वाले!
आज मुझसे दूर दुनिया - Harivansh Rai Bachchan
आज मुझसे दूर दुनिया!भावनाओं से विनिर्मित,
कल्पनाओं से सुसज्जित,
कर चुकी मेरे हृदय का स्वप्न चकनाचूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
’बात पिछली भूल जाओ,
दूसरी नगरी बसाओ’—
प्रेमियों के प्रति रही है, हाय, कितनी क्रूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
वह समझ मुझको न पाती,
और मेरा दिल जलाती,
है चिता की राख कर में, माँगती सिंदूर दुनिया!
आज मुझसे दूर दुनिया!
मैं जग से कुछ सीख न पाया - Harivansh Rai Bachchan
मैं जग से कुछ सीख न पाया।जग ने थोड़ा-थोड़ा चाहा,
थोड़े में ही काम निबाहा,
लेकिन अपनी इच्छाओं को मैंने सीमाहीन बनाया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
जग ने जो दिन-बीच कमाया,
उसे निशा में किया सवाया,
मैंने जो दिन को जोड़ा था, उसको मैंने शाम गँवाया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
जग ने जो प्रतिमा ठुकराई,
झुककर उसके आगे आई,
फिर-फिर झुका उसी वेदी पर जहाँ गया फिर-फिर ठुकराया।
मैं जग से कुछ सीख न पाया।
श्यामा तरु पर बोलने लगी - Harivansh Rai Bachchan
श्यामा तरु पर बोलने लगी!है अभी पहर भर शेष रात,
है पड़ी भूमि हो शिथिल-गात,
यह कौन ओस जल में सहसा मिश्री के कण घोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
दिग्वधुओं का मुख तमाच्छ्न्न,
अब अस्फुट आभा से प्रसन्न,
यह कौन उषा का अवगुंठन गा-गा करके खोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
अधरों के नीचे लेजाकर
इसने रक्खा क्या पेय प्रखर,
जिसको छूते ही सकल प्रकृति हो सजग चपल डोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग - Harivansh Rai Bachchan
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!सुनकर इसकी हुंकार वीर
हो उठा सजग अस्थिर समीर,
उड चले तिमिर का वक्ष चीर चिड़ियों के पहरेदार काग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
जग पड़ा खगों का कुल महान,
छिड़ गया सम्मिलित मधुर गान,
पौ फटी, हुआ स्वर्णिम विहान, तम चला भाग, तम गया भाग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
अब जीवन-जागृति-ज्योति दान
परिपूर्ण भूमितल, आसमान,
मानो कण-कण की एक तान, सोना न पड़ेगा पुनः जाग!
यह अरुण-चूड़ का तरुण राग!
तारक दल छिपता जाता है - Harivansh Rai Bachchan
तारक दल छिपता जाता है।कलियाँ खिलती, फूल बिखरते,
मिल सुख-दुख के आँसू झरते,
जीवन और मरण दोनों का राग विहंगम-दल गाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
इसे कहूँ मैं हास पवन का,
या समझूँ उच्छ्वास पवन का?
अवनि और अंबर दोनों से प्रात समीरण का नाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
रवि ने अपना हाथ बढ़ाकर
नभ दीपों का लिया तेज हर,
जग में उजियाला होता है, स्वप्न-लोक में तम छाता है।
तारक दल छिपता जाता है।
शुरू हुआ उजियाला होना - Harivansh Rai Bachchan
शुरू हुआ उजियाला होना!हटता जाता है नभ से तम,
संख्या तारों की होती कम,
उषा झाँकती उठा क्षितिज से बादल की चादर का कोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
ओस-कणों से निर्मल-निर्मल,
उज्जवल-उज्जवल शीतल-शीतल
शुरू किया प्रातः समीर ने तरु-पल्लव-तृण का मुँह धोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
किसी बसे द्रुम की ड़ाली पर,
सद्यः जागृत चिड़ियों का स्वर,
किसी सुखी घर से सुन पड़ता है नन्हें बच्चों का रोना!
शुरू हुआ उजियाला होना!
आ रही रवि की सवारी - Harivansh Rai Bachchan
आ रही रवि की सवारी!नव किरण का रथ सजा है,
कलि-कुसुम से पथ सजा है,
बादलों से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी!
आ रही रवि की सवारी!
विहग बंदी और चारण,
गा रहे हैं कीर्ति गायन,
छोड़कर मैदान भागी तारकों की फौज सारी!
आ रही रवि की सवारी!
चाहता, उछलूँ विजय कह,
पर ठिठकता देखकर यह,
रात का राजा खड़ा है राह में बनकर भिखारी!
आ रही रवि की सवारी!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं - Harivansh Rai Bachchan
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!कहती है ऊषा की पहली
किरण लिए मुस्कान सुनहली—
नहीं दमकती दामिनि का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
कहता एक बूँद आँसू झर
पलक-पाँखुरी से पल्लव पर—
नहीं मेह की लहरों का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
टहनी पर बैठी गौरैया
चहक-चहककर कहती, भैया—
नहीं कड़कते बादल का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
भीगी रात विदा अब होती - Harivansh Rai Bachchan
भीगी रात विदा अब होती।रोते-रोते रक्त नयन हो,
पीत बदन हो, छाया तन हो,
पार क्षितिज के रजनी जाती, अपना अंचल छोर निचोती।
भीगी रात विदा अब होती।
प्राची से ऊषा हँस पड़ती,
विहगावलियाँ नौबत झड़ती,
पल में निर्मम प्रकृति निशा के रोदन की सब चिंता खोती।
भीगी रात विदा अब होती।
हाथ बढ़ा सूरज किरणों के
पोंछ रहा आँसू सुमनों के,
अपने गीले पंख सुखाते तरु पर बैठ कपोत-कपोती।
भीगी रात विदा अब होती।
मैं कल रात नहीं रोया था - Harivansh Rai Bachchan
मैं कल रात नहीं रोया था !दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
प्यार-भरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!
आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?
मैं कल रात नहीं रोया था!
मैं उसे फिर पा गया था - Harivansh Rai Bachchan
मैं उसे फिर पा गया था!था वही तन, था वही मन,
था वही सुकुमार दर्शन,
एक क्षण सौभाग्य का छूटा हुआ-सा आ गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
वह न बोली, मैं न बोला,
वह न डोली, मैं न डोला,
पर लगा पल में युगों का हाल-चाल बता गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
चार लोचन डबडबाए!
शब्द सुख कैसे बताए?
देवता का अश्रु मानव के नयन में छा गया था!
मैं उसे फिर पा गया था!
स्वप्न था मेरा भयंकर - Harivansh Rai Bachchan
स्वप्न था मेरा भयंकर!रात का-सा था अंधेरा,
बादलों का था न डेरा,
किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
क्षीण सरिता बह रही थी,
कूल से यह कह रही थी-
शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
धार से कुछ फासले पर
सिर कफ़न की ओढ चादर
एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर!
स्वप्न था मेरा भयंकर!
हूँ जैसा तुमने कर डाला - Harivansh Rai Bachchan
हूँ जैसा तुमने कर डाला!पूण्य किया, पापों में डूबा,
सुख से ऊबा, दुख से ऊबा,
हमसे यह सब करा तुम्हीं ने अपना कोई अर्थ निकाला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
क्षय मेरा निर्माण जगत का
लय मेरा उत्थान जगत का
जग की ओर हमारा तुमने जोड़ दिया संबंध निराला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
पूछा जब, ’क्या जीवन जग में?'
कभी चहककर किसी विहग में!
कभी किसी तरु में कर ’मरमर’प्रश्न हमारा तुमने टाला!
हूँ जैसा तुमने कर डाला!
मैं गाता, शून्य सुना करता - Harivansh Rai Bachchan
मैं गाता, शून्य सुना करता!इसको अपना सौभाग्य कहूँ,
अथवा दुर्भाग्य इसे समझूँ,
वह प्राप्त हुआ बन चिर-संगी जिससे था मैं पहले डरता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
जब सबने मुझको छोड़ दिया,
जब सबने नाता तोड़ लिया,
यह पास चला मेरे आया सब रिक्त-स्थानों को भरता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
मेरे मन की दुर्बलता पर--
मेरी मानी मानवता पर--
हँसता तो है यह शून्य नहीं, यदि इस पर सिर न धुना करता!
मैं गाता, शून्य सुना करता!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा - Harivansh Rai Bachchan
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!तेरे साथ खिली जो कलियाँ,
रूप-रंगमय कुसुमावलियाँ,
वे कब की धरती में सोईं, होगा उनका फिर न सवेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
नूतन मुकुलित कलिकाओं पर,
उपवन की नव आशाओं पर,
नहीं सोहता, पागल, तेरा दुर्बल-दीन-अंगमल फेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
जहाँ प्यार बरसा था तुझ पर,
वहाँ दया की भिक्षा लेकर,
जीने की लज्जा को कैसे सहता है, मानी, मन तेरा!
मधुप, नहीं अब मधुवन तेरा!
आओ, हम पथ से हट जाएँ - Harivansh Rai Bachchan
आओ, हम पथ से हट जाएँ!युवती और युवक मदमाते,
उत्सव आज मनाने आते,
लिए नयन में स्वप्न, वचन में हर्ष, हृदय में अभिलाषाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
इनकी इन मधुमय घडियों में,
हास-लास की फुलझड़ियों में,
हम न अमंगल शब्द निकालें, हम न अमंगल अश्रु बहाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
यदि इनका सुख सपना टूटे,
काल इन्हें भी हम-सा लूटे,
धैर्य बंधाएँ इनके उर को हम पथिको की करुण कथाएँ!
आओ, हम पथ से हट जाएँ!
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ - Harivansh Rai Bachchan
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?यौवन के उजड़े प्रदेश के,
इस उर के ध्वंसावशेष के,
भग्न शिला-खंडों से क्या मैं फिर आशा की भीत उठाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
स्वप्नों के इस रंगमहल में,
हँसूँ निशा की चहल पहल में?
या इस खंडहर की समाधि पर बैठ रुदन को गीत बनाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
इसमें करुण स्मृतियाँ सोईं,
इसमें मेरी निधियाँ सोईं,
इसका नाम-निशान मिटाऊँ या मैं इस पर दीप जलाऊँ?
क्या कंकड़-पत्थर चुन लाऊँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ - Harivansh Rai Bachchan
किस कर में यह वीणा धर दूँ?देवों ने था जिसे बनाया,
देवों ने था जिसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समर्पित कर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
इसने स्वर्ग रिझाना सीखा,
स्वर्गिक तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले स्वर से कैसे इसको भर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
क्यों बाक़ी अभिलाषा मन में,
झंकृत हो यह फिर जीवन में?
क्यों न हृदय निर्मम हो कहता अंगारे अब धर इस पर दूँ?
किस कर में यह वीणा धर दूँ?
फिर भी जीवन की अभिलाषा - Harivansh Rai Bachchan
फिर भी जीवन की अभिलाषा!दुर्दिन की दुर्भाग्य निशा में,
लीन हुए अज्ञात दिशा में
साथी जो समझा करते थे मेरे पागल मन की भाषा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
सुखी किरण दिन की जो खोई,
मिली न सपनों में भी कोई,
फिर प्रभात होगा, इसकी भी रही नहीं प्राची से आशा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
शून्य प्रतीक्षा में है मेरी,
गिनती के क्षण की है देरी,
अंधकार में समा जाएगा संसृति का सब खेल-तमाशा!
फिर भी जीवन की अभिलाषा!
जग ने तुझे निराश किया - Harivansh Rai Bachchan
जग ने तुझे निराश किया!डूब-डूबकर मन के अंदर
लाया तू निज भावों का स्वर,
कभी न उनकी सच्चाई पर जगती ने विश्वास किया!
जग ने तुझे निराश किया!
तूने अपनी प्यास बताई,
जग ने समझा तू मधुपायी,
सौरभ समझा, जिसको तूने कहकर निज उच्छवास दिया!
जग ने तुझे निराश किया!
पूछा, निज रोदन में सकरुण
तूने दिखलाए क्या-क्या गुण?
कविता कहकर जग ने तेरे क्रंदन का उपहास किया!
जग ने तुझे निराश किया!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा - Harivansh Rai Bachchan
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!जल की धार पड़ी दिखलाई,
जिसने तेरी प्यास बढाई,
मरुथल के मृगजल के पीछे दौड़ मिटी सब तेरी आशा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
तूने समझा देव मनुज है,
पाया तूने मनुज दनुज है,
बाध्य घृणा करने को यों है पूजा करने की अभिलाषा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
समझा तूने प्यार अमर है,
तूने पाया वह नश्वर है,
छोटे से जीवन से की है तूने बड़ी-बड़ी प्रत्याशा!
सचमुच तेरी बड़ी निराशा!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं - Harivansh Rai Bachchan
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!अगणित उन्मादों के क्षण हैं,
अगणित अवसादों के क्षण हैं,
रजनी की सूनी घड़ियों को किन-किन से आबाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
याद सुखों की आँसू लाती,
दुख की, दिल भारी कर जाती,
दोष किसे दूँ जब अपने से अपने दिन बर्बाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
दोनों करके पछताता हूँ,
सोच नहीं, पर, मैं पाता हूँ,
सुधियों के बंधन से कैसे अपने को आज़ाद करूँ मैं!
क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ - Harivansh Rai Bachchan
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!स्वप्न-थल का पा निमंत्रण,
प्यार का देकर अमर धन
वेदनाओं की तरी में स्थान अपना ले चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
उठ पड़ा तूफान, देखो!
मैं नहीं हैरान, देखो!
एक झंझावात भीषण मैं हृदय में से चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
क्यों विहँसता छोर देखूँ?
क्यों लहर का जोर देखूँ?
मैं भँवर के बीच में अब नाव अपनी खे चुका हूँ!
मूल्य अब मैं दे चुका हूँ!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर - Harivansh Rai Bachchan
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?ध्येय न हो, पर है मग आगे,
बस धरता चल तू पग आगे,
बैठ न चलनेवालों के दल में तू आज तमाशा बनकर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
मानव का इतिहास रहेगा
कहीं, पुकार-पुकार कहेगा-
निश्चय था गिर मर जाएगा चलता किंतु रहा जीवन भर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
जीवित भी तू आज मरा-सा,
पर मेरी तो यह अभिलाषा-
चिता-निकट भी पहुँच सकूँ मैं अपने पैरों-पैरों चलकर!
तू क्यों बैठ गया है पथ पर?
साथी, सब कुछ सहना होगा - Harivansh Rai Bachchan
साथी, सब कुछ सहना होगा!मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसृति का बंधन,
संसृति को भी और किसी के प्रतिबंधो में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
हम क्या हैं जगती के सर में!
जगती क्या, संसृति सागर में!
एक प्रबल धारा में हमको लघु तिनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी निर्बलता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
साथी, साथ न देगा दुख भी - Harivansh Rai Bachchan
साथी, साथ न देगा दुख भी!काल छीनने दु:ख आता है,
जब दु:ख भी प्रिय हो जाता है,
नहीं चाहते जब हम दु:ख के बदले चिर सुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
जब परवशता का कर अनुभव
अश्रु बहाना पड़ता नीरव,
उसी विवशता से दुनिया में होना पडता है हँसमुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
इसे कहूँ कर्तव्य-सुघरता
या विरक्ति, या केवल जड़ता,
भिन्न सुखों से, भिन्न दुखों से, होता है जीवन का रुख भी!
साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
साथी, हमें अलग होना है - Harivansh Rai Bachchan
साथी, हमें अलग होना है!भार उठाते सब अपने बल,
संवेदना प्रथा है केवल,
अपने सुख-दुख के बोझे को सबको अलग-अलग ढोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
संग क्षणिक ही तेरा-मेरा,
एक रहा कुछ दिन पथ-डेरा,
जो कुछ भी पाया है हमने, एक न एक समय खोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
मिलकर एक गीत, आ, गा लें,
मिलकर दो-दो अश्रु बहा लें,
अलग-अलग ही अब से हमको जीवन में गाना रोना है!
साथी, हमें अलग होना है!
जय हो, हे संसार, तम्हारी - Harivansh Rai Bachchan
जय हो, हे संसार, तम्हारी!जहाँ झुके हम वहाँ तनो तुम,
जहाँ मिटे हम वहाँ बनो तुम,
तुम जीतो उस ठौर जहाँ पर हमने बाज़ी हारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
मानव का सच हो सपना सब,
हमें चाहिए और न कुछ अब,
याद रहे हमको बस इतना- मानव जाति हमारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
अनायास निकली यह वाणी,
यह निश्चय होगी कल्याणी,
जग को शुभाशीष देने के हम दुखिया अधिकारी!
जय हो, हे संसार, तुम्हारी!
जाओ कल्पित साथी मन के - Harivansh Rai Bachchan
जाओ कल्पित साथी मन के!जब नयनों में सूना पन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बनकर बंदी मेरे भुज-बंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में जाकर मुझ-से अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
विश्व को उपहार मेरा - Harivansh Rai Bachchan
विश्व को उपहार मेरा!पा जिन्हें धनपति, अकिंचन,
खो जिन्हें सम्राट निर्धन,
भावनाओं से भरा है आज भी भंडार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
थकित, आजा! व्यथित, आजा!
दलित, आजा! पतित, आजा!
स्थान किसको दे न सकता स्वप्न का संसार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
ले तृषित जग होंठ तेरे
लोचनों का नीर मेरे!
मिल न पाया प्यार जिनको आज उनका प्यार मेरा!
विश्व को उपहार मेरा!
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