मिलन यामिनी हरिवंशराय बच्चन (शेष भाग )
Milan Yamini Harivansh Rai Bachchan
मध्य भाग - Harivansh Rai Bachchan
1. मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित - Harivansh Rai Bachchan
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
1
जन कोई अपने कोटि करों को कर बाहर
अपने तप का चिर संचित कोष लुटाता है,
जब उसका सौरभ-यश कलि-कुसुमों के मुख से
विस्तृत वसुधा के कण-कण में छा जाता है,
तब जाकर तम का काला, भारी, भयकारी
पर्दा ऊपर को उठता और सिमटता है;
इतने उत्सर्गों, उल्लासों का यह अवसर,
अचरज है मुझको, कैसे प्रति दिन आता है ।
कवि वह है जिसके मन को चोट पहुँचती है
जब होती जग में सुन्दरता की अवहेला,
अनजाने भी अपमान किसीका हो जाता,
अनजाने भी अपराध कभी हो जाते हैं;
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
2
रजनी में आँखें सपनों से बहला भी लो,
दिन देन दूसरी ही कुछ माँगा करता है,
देखें अँधियारा चीर निकलता है कोई,
देखें कोई अंतर की पीड़ा हरता है,
सारी आशा-प्रत्याशाओं की परवशता
में मन गलकर निर्मम बूंदों में ढल जाता,
देखें मिलकर क्या देता जबकि प्रतीक्षा में
पलकों का आँचल मुक्ताहल से भरता है,
कवि वह है जिसके उर में आहें उठती हैं
जब होती मिलनातुर घड़ियों की अवहेला,
आँसू का कुछ भी मोल नहीं बाज़ारों में,
क्यों इस कारण कोई उसका उपहास करे;
मैं गाता हूँ इसलिए कि विरही के दृग में
जो बिंदु सुधा का सिंधु समेट छलकता है,
उसको कोई खारा जलकण मत कह बैठे ।
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
3
जब जगती छाती में अभाव की चेतनता
तब निखिल सृष्टि का मूल केंद्र ही हिलता है,
वह ठंडी साँसें खींच बिलख तब उठती है
जब एकाकी को अपना संगी मिलता है,
जलते अधरों कुछ खोज रही-सी बाँहों में
धरती की सारी बेचैनी जाहिर होती,
जब प्राणों का विनिमय प्राणी से होता है
अंबर के दिल का पंकज ही तब खिलता है,
कवि वह है जिसका अंतर विगलित होता है
जब होती जग में प्यास-प्रणय की अवहेला,
शब्दों की निर्धन दुनिया में अक्सर होता
कुछ कहते हैं पर मतलब कुछ से होता है,
मैं गाता हूँ इसलिए कि प्रेमी के मन में
जो प्यार अनंत, अपार, अगाध उमड़ता है,
उसको कोई व्यामोह-व्यसन मत कह बैठे ।
मैं गाता हूँ इसलिए कि पूरब से सुरभित
जो सोना शुभ्र-सलोना नित्य बरसता है,
उसको कोई बस प्रात किरण मत कह बैठे ।
2. मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए - Harivansh Rai Bachchan
मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए,
ऊबड़-खाबड़ तम की ठोकर खाते-खाते
इनसे कोई रक्ताभ किरण फूटेगी ही ।
1
तम कहता है मुझ महानिशा
की दिशा नहीं तुम पाओगे,
ज्यादा संभव है भूल-भटक
फिर उसी जगह आ जाओगे,
थे चले जहाँ से पहले दिन
मन में तूफ़ानी जोश लिए-
कंचन की नगरी में जाकर
माणिक के दीप जलाओगे ।
है बहुत सिखाया जगती के
कड़ुए अनुभव ने पर अब भी-
मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए,
ऊबड़-खाबड़ तम की ठोकर खाते-खाते
इनसे कोई रक्ताभ किरण फूटेगी ही ।
2
जो भेंट चला था मैं लेकर
हाथों में कब की कुम्हलाई,
नयनों ने सींचा उसे बहुत
लेकिन वह फिर भी मुरझाई,
तब से पथ-पुष्पों से निर्मित
कितनी मालाएँ सूख चुकीं,
जिस मग से मैं आया उसपर
पाओगे बिखरी-बिखराई;
कुम्हला न सकी, मुरझा न सकी
लेकिन अर्चन की अभिलाषा,
मैं चुनता हूँ हर फूल अटल विश्वास लिए,
ये पूज न पाएँ प्रेय चरण लेकिन दुनिया
इनकी श्रद्धा को एक समय पूजेगी ही ।
मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए,
ऊबड़-खाबड़ तम की ठोकर खाते-खाते
इनसे कोई रक्ताभ किरण फूटेगी ही ।
3
जब इस पथ पर थे पाँव दिए
तब चीख पड़ा था यों अंबर--
इसकी मंज़िल पाई जाती
केवल मरकर, केवल मिटकर !
फिर भी न डरा, हिचका, झिझका,
मेरा मन बंदा सैलानी;
ज़िंदा रहना क्या इतना ही
बस डोले साँसों का लंगर ।
है मेरा पूरा सफ़र नपा
मेरी छाती की धड़कन से-
मैं लेता हूँ हर साँस अमर विश्वास लिए,
मैं पहुँच न पाऊँ जीते जी अपनी मंज़िल,
पर मरने पर मंज़िल मुझ तक पहुँचेगी ही ।
मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए,
ऊबड़-खाबड़ तम की ठोकर खाते-खाते
इनसे कोई रक्ताभ किरण फूटेगी ही ।
4
अज्ञात नहीं है यह मुझको
गाया करता निशि-दिन सागर,
गाया करता दिन-रात अनिल
हरहर-हरहर, मरमर, मरमर,
जो मौन महा संगीत गगन
को पुलकाकुल नित रखता है,
उससे भी मैं चिर परिचित हूँ--
लेकिन मेरा भी अपना स्वर ।
मेरी सता का अंश अमर
यह क्षीण सबों से होकर भी ।
मैं गाता हूँ हर गीत मधुर विश्वास लिए,
लहराती अंबर पर, तारों से टकराती
ध्वनि पास तुम्हारे एक समय गूँजेगी ही ।
मैं रखता हूँ हर पाँव सुदृढ़ विश्वास लिए,
ऊबड़-खाबड़ तम की ठोकर खाते-खाते
इनसे कोई रक्ताभ किरण फूटेगी ही ।
3. प्यार, जवानी, जीवन इनका - Harivansh Rai Bachchan
प्यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मैंने सब दिन माना।
1
यह वह पाप जिसे करने से
भेद भरा परलोक डराता,
यह वह पाप जिसे कर कोई
कब जग के दृग से बच पाता,
यह वह पाप झगड़ती आई
जिससे बुद्धि सदा मानव की,
यह वह पाप मनन भी जिसका
कर लेने से मन शरमाता;
तन सुलगा, मन द्रवित, भ्रमित कर
बुद्धि, लोक, युग, सब पर छाता,
हार नहीं स्वीकार हुआ तो
प्यार रहेगा ही अनजाना।
प्यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मैंने सब दिन माना।
2
डूब किनारे जाते हैं जब
नदी में जोबन आता है,
कूल-तटों में बंदी होकर
लहरों का दम घुट जाता है,
नाम दूसरा केवल जगती
जंग लगी कुछ ज़ंजीरों का,
जिसके अंदर तान-तरंगें
उनका जग से क्या नाता है;
मन के राजा हो तो मुझसे
लो वरदान अमर यौवन का,
नहीं जवानी उसने जानी
जिसने पर का वंधन जाना।
प्यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मैंने सब दिन माना।
3
फूलों से, चाहे आँसु से
मैंने अपनी माला पोही,
किंतु उसे अर्पित करने को
बाट सदा जीवन की जोही,
गई मुझे ले भुलावा
दे अपनी दुर्गम घाटी में,
किंतु वहाँ पर भूल-भटककर
खोजा मैंने जीवन को ही;
जीने की उत्कट इच्छा में
था मैंने, ‘आ मौत’ पुकारा।
वर्ना मुझको मिल सकता था
मरने का सौ बार बहाना।
प्यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मैंने सब दिन माना।
4. बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार - Harivansh Rai Bachchan
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(१)
जिनकी छाया में काट दिए थे दिन दुख के,
जिनकी छाया में देखे थे सपने सुख के,
अब इने-गिने उन पत्रों के हैं दिवस चार ।
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(२)
देखो पीलापन इनपर छाया जाता है,
मधुवन का मधुवन, लो, मुरझाया बजाता है,
ले गया काल इनकी सब श्री-सुषमा उतार,
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(३)
जो एक डाल पर एक साथ झूले-डोले,
जो एक साथ प्रात: किरणों की जय बोले,
ये अलग-थलग गिरते अपनी सुधबुध विसार,
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(४)
पीले पत्तों के नीचे अंकुर की लाली,
नूतन जीवन का चिह्न लिए डाली-डाली,
तरुवर-तरुवर पर लक्षित यौवन का उभार,
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(५)
जिन झोंकों से कुम्हलाए पत्ते झरते हैं,
उनसे ही बल नव पल्लव संचित करते हैं,
जिनसे लुटता, उनसे ही बंटता भी सिंगार,
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
(६)
सौ बार शिशिर मधुवन के आँगन में आए,
पर वह जादू की शक्ति न मधुवन से जाए,
जो नूतन से करती पुराण का परिष्कार,
बहती है मधुवन में अब पतझर की बयार ।
5. गरमी में प्रात: काल पवन - Harivansh Rai Bachchan
गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
1
जब मन में लाखों बार गया-
आया सुख सपनों का मेला,
जब मैंने घोर प्रतीक्षा के
युग का पल-पल जल-जल झेला,
मिलने के उन दो यामों ने
दिखलाई अपनी परछाईं,
वह दिन ही था बस दिन मुझको
वह बेला थी मुझको बेला;
उड़ती छाया-सी वे घड़ियाँ
बीतीं कब की लेकिन तब से,
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
2
तुमने जिन सुमनों से उस दिन
केशों का रूप सजाया था,
उनका सौरभ तुमसे पहले
मुझसे मिलने को आया था,
बह गंध गई गठबंध करा
तुमसे, उन चंचल घड़ियों से,
उस सुख से जो उस दिन मेरे
प्राणों के बीच समाया था;
वह गंध उठा जब करती है
दिल बैठ न जाने जाता क्यों;
गरमी में प्रात:काल पवन,
प्रिय, ठंडी आहें भरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात:काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
3
चितवन जिस ओर गई उसने
मृदु फूलों की वर्षा कर दी,
मादक मुसकानों ने मेरी
गोदी पंखुरियों से भर दी
हाथों में हाथ लिए, आए
अंजली में पुष्पों के गुच्छे,
जब तुमने मेरी अधरों पर
अधरों की कोमलता धर दी,
कुसुमायुध का शर ही मानो
मेरे अंतर में पैठ गया!
गरमी में प्रात: काल पवन
कलियों को चूम सिहरता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
गरमी में प्रात: काल पवन
बेला से खेला करता जब
तब याद तुम्हारी आती है।
6. ओ पावस के पहले बादल - Harivansh Rai Bachchan
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे मन-प्राणों पर बरसो।
1
यह आशा की लतिकाएँ थीं
जो बिखरीं आकुल-व्याकुल-सी,
यह स्वप्नों की कलिकाएँ थीं
जो खिलने से पहले झुलसीं,
यह मधुवन था, जो सुना-सा
मरुथल दिखलाई पड़ता है,
इन सुखे कूल-किनारों में
थी एक समय सरिता हुलसी;
आँसू की बूँदें चाट कहीं
अंतर की तृष्णा मिटती है;
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे मन-प्राणों पर बरसो।
2
मेरे उच्छ्वास बनें शीतल
तो जग में मलयानिल डोले,
मेरा अंतर लहराएँ तो
जगती अपना कल्मष धो ले,
सतरंगा इंद्रधनुष निकले
मेरे मन के धुँधले पट पर,
तो दुनिया सुख की, सुखमा की,
मंगल वेला की जय बोले;
सुख है तो औरों को छूकर
अपने से सुखमय कर देगा,
ओ वर्षा के हर्षित बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे अरमानों पर बरसो।
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे मन-प्राणों पर बरसो।
3
सुख की घड़ियों के स्वागत में
छंदों पर छंद सजाता हूँ,
पर अपने दुख के दर्द भरे
गीतों पर कब पछताता हूँ,
जो औरों का आनंद बना
वह दुख मुझपर फिर-फिर आए,
रस में भीगे दुख के ऊपर
मैं सुख का स्वर्ग लुटाता हूँ;
कंठों से फूट न जो निकले
कवि को क्या उस दुख से, सुख से;
ओ बारिश के बेख़ुद बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे स्वर-गानों पर बरसो।
ओ पावस के पहले बादल,
उठ उमड़-गरज, घिर घुमड़-चमक
मेरे मन-प्राणों पर बरसो।
7. खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से - Harivansh Rai Bachchan
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं--
1
काम ऐसा कौन जिसको
छोड़ मैं सकता नहीं हूँ,
कौन ऐसा मुँह कि जिससे
मोड़ मैं सकता नहीं हूँ?
आज रिश्ता और नाता
जोड़ने का अर्थ क्या है?
श्रृंखला का कौन जिसको
तोड़ मैं सकता नहीं हूँ?
चाँद, सूरज भी पकड़
मुझको नहीं बिठला सकेंगे,
क्या प्रलोभन दे मुझे वे
एक पल बहला सकेंगे?
जब कि मेरा वश नही
मुझ पर रहा, किसका होगा?
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं--
2
उठ रहा है शोर-गुल
जग में, ज़माने में, सही है,
किंतु मुझको तो सुनाई
आज कुछ देता नहीं है,
कोकिलो, तुमको नई ऋतु
के नए नग़मे मुबारक,
और ही आवाज़ मेरे
वास्ते अब आ रही है;
स्वर्ग परियों के स्वरों के
भी लिए मैं आज बहरा,
गीत मेरा मौन सागर
में गया है डूब गहरा;
साँस भी थम जाए जिससे
साफ़ तुमको सुन सकूँ मै---
खींचतीं किन पीर-भींगे गायनों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं---
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं--
3
है समय किसको कि सोचे
बात वादों की, प्रणों की,
मान के, अपमान के,
अभिमान के बीते क्षणों की,
फूल यश के, शूल अपयश
के बिछा दो रास्ते में,
घाव का भय, चाह किसको
पंखुरी के चुंबनों की;
मैं बुझाता हूँ पगों से
आज अंतर के अँगारे,
और वे सपने के जिनको
कवि करों ने थे सँवारे,
आज उनकी लाश पर मैं
पाँव धरता आ रहा हूँ---
खींचतीं किन मैन दृग से जलकणों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं---
खींचतीं तुम कौन ऐसे बंधनों से
जो कि रुक सकता नहीं मैं--
8. तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते - Harivansh Rai Bachchan
1
तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते।
अंतस्तल के भाव बदलते
कंठस्थल के स्वर में,
लो, मेरी वाणी उठती है
धरती से अंबर में,
अर्थ और आखर के बल का
कुछ मैं भी अधिकारी,
तुमको मेरे मधुगान निमंत्रण देते;
तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते।
2
अब मुझको मालूम हुई है
शब्दों की भी सीमा,
गीत हुआ जाता है मेरे
रुद्ध गले में धीमा,
आज उदार दृगों ने रख ली
लाज हृदय की जाती,
तुमको नयनों के दान निमंत्रण दान देते;
तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते।
3
आँख सुने तो आँख भरे दिल
के सौ भेद बताए,
दूर बसे प्रियतम को आँसू
क्या संदेश सुनाए,
भिगा सकोगी इनसे अपने
मन का कोई कोना?
तुमको मेरे अरमान निमंत्रण देते;
तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते।
4
कवियों की सूची से अब से
मेरा नाम हटा दो,
मेरी कृतियों के पृष्ठों को
मरुथल में बिखरा दो,
मौन बिछी है पथ में मेरी
सत्ता, बस तुम आओ,
तुमको कवि के बलिदान निमंत्रण देते;
तुमको मेरे प्रिय प्राण निमंत्रण देते।
9. प्राण, संध्या झुक गई गिरि, ग्राम, तरु पर - Harivansh Rai Bachchan
प्राण, संध्या झुक गई गिरि, ग्राम, तरु पर,
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चाँद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम।
1
सूर्य जब ढलने लगा था कह गया था,
मानवो, खुश हो कि दिन अब जा रहा है,
जा रही है स्वेद, श्रम की क्रूर घड़ियाँ,
औ' समय सुंदर, सुहाना आ रहा है,
छा गई है, शांति खेतों में, वनों में
पर प्रकृति के वक्ष की धड़कन बना-सा,
दूर, अनजानी जगह पर एक पंछी
मंद लेकिन मस्त स्वर से गा रहा है,
औ' धरा की पीन पलकों पर विनिद्रित
एक सपने-सा मिलन का क्षण हमारा,
स्नेह के कंधे प्रतीक्षा कर रहे हैं;
झुक न जाओ और देखो उस तरफ़ भी-
प्राण, संध्या झुक गई गिरि, ग्राम, तरु पर,
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चाँद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम।
2
इस समय हिलती नहीं है एक डाली,
इस समय हिलता नहीं है एक पत्ता,
यदि प्रणय जागा न होता इस निशा में
सुप्त होती विश्व के संपूर्ण सत्ता,
वह मरण की नींद होती जड़-भयंकर
और उसका टूटना होता असंभव,
प्यार से संसार सोकर जागता है,
इसलिए है प्यार की जग में महत्ता,
हम किसी के हाथ में साधन बने हैं,
सृष्टि की कुछ माँग पूरी हो रही है,
हम नहीं कोई अपराध कर रहे हैं,
मत लजाओ और देखो उस तरु भी-
प्राण, रजनी भिंच गई नभ के भुजों में,
थम गया है शीश पर निरुपम रुपहरा चाँद
मेरा प्यार बारंबार लो तुम।
प्राण, संध्या झुक गई गिरि, ग्राम, तरु पर,
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चाँद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम।
3
पूर्व से पच्छिम तलक फैले गगन के
मन-फलक पर अनगिनत अपने करों से
चाँद सारी रात लिखने में लगा था
'प्रेम' जिसके सिर्फ़ ढाई अक्षरों से
हो अलंकृत आज नभ कुछ दूसरा ही
लग रहा है और लो जग-जग विहग दल
पढ़ इसे, जैसे नया है यह मंत्र कोई,
हर्ष करते व्यक्त पुलकित पर, स्वरों से;
किंतु तृण-तृण ओस छन-छन कह रही है,
आ गया वेला विदा के आँसुओं की,
यह विचित्र विडंबना पर कौन चारा,
हो न कातर और देखो उस तरु भी-
प्राण, राका उड़ गई प्रात: पवन में,
ढल रहा है क्षितिज के नीचे शिथिल-तन चाँद,
मेरा प्यार अंतिम बार लो तुम।
प्राण, संध्या झुक गई गिरि, ग्राम, तरु पर,
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चाँद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम।
10. सखि, अखिल प्रकृति की प्यास - Harivansh Rai Bachchan
क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं। मिट्टी की अंजलि में मैंने जोड़ा स्नेह तुम्हारा बाती की छाती दे तुमने मेरा भाग्य संवारा करूं आरती तो भी दिखते हैं वरदान तुम्हारे अपने प्राणों के दीप कहां जो बालू! क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं! छंदों में जो लय लहराती वह पदचाप तुम्हारी पायल की रुन—झुन पर मेरा राग मुखर बलिहारी शब्दों में जो भाव मचलते उन पर क्या वश मेरा अपने को ही बहलाना है तो गा लूं! क्या मेरा है जो आज तुम्हें दे डालूं!
10. सखि, अखिल प्रकृति की प्यास - Harivansh Rai Bachchan
1
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
अकस्मात यह बात हुई क्यों
जब हम-तुम मिल पाए,
तभी उठी आँधी अंबर में
सजल जलद घिर आए
यह रिमझिम संकेत गगन का
समझो या मत समझो,
सखि, भीग रहा आकाश कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
2
इन ठंडे-ठंडे झोंकों से
मैं काँपा, तुम काँपीं,
एक भावना बिजली बनकर
हो हृदयों में व्यापी,
आज उपेक्षित हो न सकेगा
रसमय पवन-सँदेसा,
सखि, भीग रही वातास कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
3
मधुवन के तरुवर से मिलकर
भीगी लतर सलोनी,
साथ कुसुम की कलिका भीगी
कौन हुई अनहोनी,
भीग-भीग, पी-पीकर चातक
का स्वर कातर भारी,
सखि, भीग रही है रात कि हम-तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
3
इस दूरी की मजबूरी पर
आँसू नयन गिराते,
आज समय तो था अधरों से
हम मधुरस बरसाते,
मेरी गीली साँस तुम्हारी
साँसों को छू आती,
सखि, भीग रहे उच्छवास कि हम तुम भीगें;
सखि, अखिल प्रकृति की प्यास कि हम तुम-तुम भीगें।
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