हरिवंशराय बच्चन-सतरंगिनी Harivansh Rai Bachchan-Satrangini

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हरिवंशराय बच्चन-सतरंगिनी
Harivansh Rai Bachchan-Satrangini

पथ की पहचान - Harivansh Rai Bachchan

पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले
पुस्तकों में है नहीं छापी
गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह
से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी
बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी,
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर
सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो
जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब
कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे,
मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा
तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
कौन कहता है कि स्वप्नों
को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें
अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो,
मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ
ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि,
स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो,
सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
स्वप्न आता स्वर्ग का,
दृग-कोरकों में दीप्ति आती,
पंख लग जाते पगों को,
ललकती उन्मुक्त छाती,
रास्ते का एक काँटा,
पाँव का दिल चीर देता,
रक्त की दो बूँद गिरतीं,
एक दुनिया डूब जाती,
आँख में हो स्वर्ग लेकिन,
पाँव पृथ्वी पर टिके हों,
कंटकों की इस अनोखी
सीख का सम्मान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा,
व्यर्थ दिन इस पर बिताना,
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना,
तू इसे अच्छा समझ,
यात्रा सरल इससे बनेगी,
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना,
हर सफल पंथी यही विश्वास
ले इस पर बढ़ा है,
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही,
बाट की पहचान कर ले।

HarivanshRaiBachchan-Satrangini

नन्दन और बगिया - Harivansh Rai Bachchan

सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !
कहाँ गया वह मधुवन जिसकी
आभा-शोभा नित्य नई थी,
जिसके आँगन में वासन्ती
आकर जाना भूल गई थी,
जिसमें खिलती थीं इच्छा की
कलियाँ, अभिलाषा फलती थी,
साँसों में भरती मादकता
वायु जहाँ की मोदमयी थी,
यह सूखा तो आंसू से क्या,
हृदय-रक्त से हरा न होगा,
सूख-सूख फिर-फिर लहराता
वसुधा का ही अंचल धानी।
सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !
दिग्दिगंत में गुंजित होने-
वाला स्वर पड़ मंद गया क्यों ?
जुड़ा हुआ शब्दों-भावों से
खण्ड-खण्ड हो छन्द गया क्यों ?
गाती थीं नन्दन की परियाँ,
राग मिला तू भी गाता था,
बन्द हुए यदि उनके गायन,
गाना तेरा बन्द हुआ क्यों?
प्रेरित होने वाले मन की
प्रेरक शक्ति अकेली कब थी,
मूक पड़े गंधर्वों के सुर,
कूक रही कोयल मस्तानी;
सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !
उस मधुवन का स्वप्न भला क्या
जहाँ नहीं पतझड़ आता है,
जहाँ सुमन अपने जोबन पर
आकर नहीं बिखर पाता है,
जहाँ ढुलकते नहीं कली की
आँखों से मोती के आँसू,
जहाँ नहीं कोकिल का व्याकुल
क्रन्दन गायन बन जाता है
मर्त्य अमर्त्यों के सपने से
धोका देता है अपने को,
अमरों के अमरण जीवन से
मादक मेरी क्षणिक जवानी;
सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !
धन्यवाद दे, नन्दन के मिटने
से तूने धरती देखी,
जड़ दुनिया के बदले तूने
दुनिया जीती-मरती देखी,
वह मन की मूरत थी, उसमें
प्राण कहाँ थे, ओ दीवाने,
यह दुनिया तूने साँसों पर
दबती और उभरती देखी,
स्वप्न हृदय मथकर मिलते हैं,
मूल्य बड़ा उनका, तिसपर भी,
एक सत्य के ऊपर होती
सो-सौ सपनों की कुर्बानी;
सोच न कर सूखे नन्दन का,
देता जा बगिया में पानी !

जो बीत गई - Harivansh Rai Bachchan

जो बीत गई सो बात गई!
जीवन में एक सितारा था,
माना, वह बेहद प्‍यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया;
अंबर के आनन को देखे,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने छूट गए कहाँ मिले;
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है!
जो बीत गई सो बात गई!
जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उस पर नित्‍य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया;
मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ,
मुरझाई कितनी वल्‍लरियाँ,
जो मुरझाई फिर कहाँ खिलीं;
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुवन शोर मचाता है;
जो बीत गई सो बात गई!
जीवन में मधु का प्‍याला था,
तुमने तन-मन दे डाला था,
वह टूट गया तो टूट गया;
मदिरालय का आँगन देखो,
कितने प्‍याले हिल जाते हैं,
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं,
जो गिरते हैं कब उठते हैं;
पर बोलो टूटे प्‍याले पर
कब मदिरालय पछताता है!
जो बीत गई सो बात गई!
मृदु मिट्टी के हैं बने हुए,
मधुघट फूटा ही करते हैं,
लघु जीवन लेकर आए हैं,
प्‍याले टूटा ही करते हैं,
फिर भी मदिरालय के अंदर
मधु के घट हैं, मधुप्‍याले हैं,
जो मादकता के मारे हैं,
वे मधु लूटा ही करते हैं;
वह कच्‍चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट-प्‍यालों पर,
जो सच्‍चे मधु से जला हुआ
कब रोता है, चिल्‍लाता है!
जो बीत गई सो बात गई!

कामना - Harivansh Rai Bachchan

संक्रामक शिशिर समीरण छू
जब मधुवन पीला पड़ जाता,
जब कुसुम-कुसुम, जब कली-कली
गिर जाती, पत्ता झड़ जाता,
तब पतझड़ का उजड़ा आँगन
करुणा-ममतामय स्वर वाली
जो कोकिल मुखरित रखती है
तेरे मन को भी बहलाए!
जब ताप भरा, जब दाप भरा
दुख-दीर्घ दिवस ढल चुकता है,
जब अंग-अंग, जब रोम-रोम
वसुधातल का जल चुकता है,
तब शीतल, कोमल, स्नेह भरी
जो शशि किरणें चुपके-चुपके
पृथ्वी पर छाती सहलातीं,
तेरे छाले भी सहलाएँ?
जब प्यास-प्यास कर धरती का
पौधा-पौधा मुर्झाता है,
जब बूँदबूँद को तरस-तरस
तिनका-तिनका मर जाता है,
तब नव जलधर की जो बूंदें
बरसातीं भू पर हरियाली,
तेरे मानस के अन्दर भी
अशा के अंकुर उकसाएँ !
प्रलयांधकार से घिर-घिर कर
युग-युग निश्चल सोने पर भी
युग-युग चेतनता के सारे
लक्षण-लक्षण खोने पर भी
जो सहसा पड़ती जाग राग,
रस, रंगों की प्रतिमा बनकर
वह तुझे मृत्यु की गोदी में
जीवन के सपने दिखलाए!

तीसरा रंग

प्रतिकूल - Harivansh Rai Bachchan

बहती है वासन्ती बयार,
पर एक पेड़ शाखावशेष
कर सांध्य गगन को पृष्ठभूमि
है खड़ा हुआ अविचल उदास,
कोकिल के स्वर से उदासीन;
है सोच रहा मन में मानो
उन मरकत पत्रों की बातें,
जो ऋतु-ऋतु मरमर ध्वनि करते
उसकी डाली-डाली झूले,
उन कलियों की, उन कुसुमों की,
जो उसकी गोद में फूले,
जो पड़ पीले, सूखे ढीले
गिर गए, झड़े, औ' फिर न उठे !
जब उसे उचित, हो परिस्फुटित
शत-शत अंकुर में मृदुल-मृदुल !
पड़ती है पावस की फुहार,
पर वसुन्धरा का एक भाग
है लुटा हुआ जिसका सुहाग,
खल्वाटों-सा जिसका ललाट,
है पड़ा चटानों-सा अचेत,
है सोच रहा मन में मानो
उन कोमल-कोमल हरे-हरे
लघु-लघु तृण-पौधों की बातें,
जिनकी मखमल-सी शैया पर
मलयानिल करवट लेता था,
आशीष-दुआएँ देता था,
जो ग्रीष्पातप में जल जलकर
ऐसे सूखे फिर उग न सके!
जब उसे उचित, हो नव सज्जित
हरियाली से मंजुल-मंजुल !
आती है जीवन की पुकार,
पर मानवता का एक सजग
प्रतिनिधि सुधियों के खंडहर में
है बैठा चिंता में निमग्न
कर अपने दोनों कान बंद;
है सोच रहा मन में मानो
उन मादक स्वप्नों की बातें,
जिनमें इच्छाएँ मूर्तिमान
हो सहसा अंतर्धान हुईं,
उन मधुर सूरतों की बातें,
जो मन-मंदिर में विहँस-खेल
औ' पल भर चहल-पहल करके
हो लुप्त गई औ’ फिर न मिलीं !
जब उसे उचित, हो प्रतिध्वनित
उसके प्रति स्वर पर पुलकाकूल ।

सम्मानित - Harivansh Rai Bachchan

पथ में भरी गई कठिनाई,
मंज़िल तेरे पास न आई,
(नहीं शत्रुता थी यह तुझसे)
क्योंकि चला था तू ले करके
कभी नहीं रुकने की आन ।
रवि ने तुमको पथ न दिखाया,
झंझा ने कर-दीप बुझाया,
(नहीं उपेक्षा थी यह तेरी)
क्योंकि जगत में एक तुझे था,
अपनी ज्वाला का अभिमान ।
ऊँचा तूने हाथ उठाया,
लेकिन अपना लक्ष्य न पाया,
(यह तेरा उपहास नहीं था)
क्योंकि तुझे थी केवल अपने
मनुजोचित कद की पहचान !
अमर वेदनाओं से अन्तर
मथा गया तेरा निशि-वासर,
(यह तुझपर अन्याय नहीं था)
क्योंकि यही था सबसे बढ़कर
तेरी छाती का सम्मान !

अजेय - Harivansh Rai Bachchan

अजेय तू अभी बना!
न मंजिलें मिलीं कभी,
न मुश्किलें हिलीं कभीं,
मगर क़दम थमें नहीं,
क़रार-क़ौल जो ठना।
अजेय तू अभी बना।
सफल न एक चाह भी,
सुनी न एक आह भी,
मगर नयन भुला सके
कभी न स्‍वप्‍न देखना।
अजेय तू अभी बना!
अतीत याद है तुझे,
कठिन विषाद है तुझे,
मगर भविष्‍य से रूका
न अँखमुदौल खेलना।
अजेय तू अभी बना!
सुरा समाप्‍त हो चुकी,
सुपात्र-माल खो चुकी,
मगर मिटी, हटी, दबी
कभी न प्‍यास-वासना।
अजेय तू अभी बना!
पहाड़ टूटकर गिरा,
प्रलय पयोद भी घिरा,
मनुष्‍य है कि देव है
कि मेरुदंड है तना!
अजेय तू अभी बना!

अधिकारी - Harivansh Rai Bachchan

तू तिमिर में धँस चुका है,
तू तिमिर में बस चुका है,
इसलिए तेरे नयन को
ज्योति का जादू समझने
का मिला अधिकार ।
तू उपेक्षा सह चुका है,
तू घृणा में दह चुका है,
इसलिए तेरा हृदय ही
जान सकता है कभी
वरदान क्या है प्यार !
प्रतिध्वनित करता रहा है
शून्य जो तूने कहा है,
इसलिए तुझको प्रणय की
एक दिन देगी सुनाई
दुर्निवार पुकार ।
कपट के कटु पाश में फंस
तू लुटा था, इसलिए बस
तू बताएगा कि कैसे
स्नेह-बंधन खोलते हैं
मुक्ति का नव द्वार ।

प्रत्याशा - Harivansh Rai Bachchan

किया गया मधुवन को विह्वल,
टूटा तरुओँ का दल, प्रतिदल,
फाड़ा गया कुसुम का दामन,
चीरा गया कली का अंचल,
क्योंकि कोकिला की वाणी में
थी वह शक्ति कि जिसके द्वारा
मृत मधुवन को दे सकती थी
फिर से वह जीवन का दान ।
मिला सूर्य को देश-निकाला,
हरा गया जग का उजियाला,
बहुरंगी दुनिया के ऊपर
फैला तम का परदा काला,
क्योंकि उषा के नवल हास में
थी वह शक्ति कि जिसके द्वारा
तिपिरावृत जग पर वह फिर से
ला सकती थी स्वर्ण विहान ।
दुनिया गई जलाई तेरी,
दुनिया गई मिटाई तेरी,
सोने का संसार जहाँ था,
वहाँ लगी मिट्टी की ढेरी,
क्योंकि हृदय के अन्दर तेरे
थी यह शक्ति कि जिसके द्वारा
महानाश की छाती पर तू
कर सकता था नव निर्माण ।

चेतावनी - Harivansh Rai Bachchan

मानी, देख न का नादानी!
मातम का तम छाया, माना,
अन्तिम सत्य इसे यदि जाना,
तो तूने जीवन की अब तक आधी- सुनी कहानी!
मानी, देख न कर नादानी!
सुन यदि तूने आशा छोड़ी,
तो अपनी परिभाषा छोड़ी,
तुझे मिली थी यह अमरों की केवल एक निशानी ।
मानी, देख न कर नादानी!
ध्वंसों में यदि सिर न उठाया,
सर्जन का यदि गीत न गाया,
स्वर्ग लोक की आशाओं पर फिर जाएगा पानी ।
मानी, देख न कर नादानी!

निर्माण (नीड़ का निर्माण) - Harivansh Rai Bachchan

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह उठी आँधी कि नभ में,
छा गया सहसा अँधेरा,
धूलि धूसर बादलों नें
भूमि को भाँति घेरा,
रात-सा दिन हो गया, फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्‍पात-भय से
भीत जन-जन, भीत कण-कण
किंतु प्राची से उषा की
मोहनी मुसकान फिर-फिर,
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़-पुखड़कर
गिर पड़े, टूटे विटप वर,
हाय, तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्‍या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़,
ईंट, पत्‍थर के महल-घर;
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुसकराती,
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती;
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो गा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्‍तब्‍धता से
सृष्टि का नव गान फिर-फिर!
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आह्वान फिर-फिर!

चौथा रंग

दो नयन - Harivansh Rai Bachchan

दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।
स्‍वप्‍न की जलती हुई नगरी
धुआँ जिसमें गई भर,
ज्‍योति जिनकी जा चुकी है
आँसुओं के साथ झर-झर,
मैं उन्‍हीं से किस तरह फिर
ज्‍योति का संसार देखूँ,
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।
देखते युग-युग रहे जो
विश्‍व का वह रुप अल्‍पक,
जो उपेक्षा, छल घृणा में
मग्‍न था नख से शिखा तक,
मैं उन्‍हीं से किस तरह फिर
प्‍यार का संसार देखूँ,
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।
संकुचित दृग की परिधि थी
बात यह मैं मान लूँगा,
विश्‍व का इससे जुदा जब
रुप भी मैं जान लूँगा,
दो नयन जिससे कि मैं
संसार का विस्‍तार देखूँ;
दो नयन जिससे कि फिर मैं
विश्‍व का श्रृंगार देखूँ।

प्यार और संघर्ष - Harivansh Rai Bachchan

प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!
अँखमिचौनी खेलती हो खूब खेलो,
खोज लूँगा, तुम कहीं भी आड़ ले लो,
खेल कब होगा ख़तम, यह तो बताओ,
प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!
खेल कल का हो गया संग्राम, देखो
कुछ नहीं खोया, अगर परिणाम देखो,
जीत जाओगी अगर तुम हार जाओ,
प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!
प्रीति पुर में हैं हुए बंदी विजित कब,
बन्धनों में बाँध लो, कर लो विजय तब,
यह न मानो, एक मानी को गंवाओ,
प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!
प्रेरणा पर्याप्त थी मुझको हृदय की,
तुम समझती हो नहीं भाषा प्रणय की,
यह समय का व्यँग था-तुम दूर जाओ,
प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!
जिस तरह शिशिरान्त में कंकाल तरु पर
फैलती पत्रावली सहसा विहँसकर,
वृक्ष-जीवन में अगर तुम इस तरह से
आ नहीं सकतीं सहज ही तो न आओ
प्यार को संघर्ष मत, सुन्दरि, बनाओ!

नई झनकार - Harivansh Rai Bachchan

छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
मौन तम के पार से यह कौन
तेरे पास आया,
मौत में सोए हुए संसार
को किसने जगाया,
कर गया है कौन फिर भिनसार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
रश्मियों ने रंग पहन ली आज
किसने लाल सारी,
फूल-कलियों से प्रकृति की माँग
है किसकी सँवारी,
कर रहा है कौन फिर श्रृंगार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
लोक के भय ने भले ही रात
का हो भय मिटाया,
किस लगन में रात दिन का भेद
ही मन से हटाया,
कौन करता है खुले अभिसार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
तू जिसे लेने चला था भूल-
कर अस्तित्‍व अपना,
तू जिसे लेने चला था बेच-
कर अपनत्‍व अपना,
दे गया है कौन वह उपहार
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
जो करुण विनती मधुर मनुहार
से न कभी पिघलते,
टूटते कर, फूट जाते शीश
तिल भर भी न हिलते,
खुल कभी जाते स्‍वयं वे द्वार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!
भूल तू जा अब पुराना गीत
औ' गाथा पुरानी,
भूल जा तू अब दुखों का राग
दुर्दिन की कहानी,
ले नया जीवन, नई झनकार,
वीणा बोलती है;
छू गया है कौन मन के तार,
वीणा बोलती है!

पाँचवां रंग-सातवां रंग

मुझे पुकार लो - Harivansh Rai Bachchan

इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न बोलती,
न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे
नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ
न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका
दिमाग-दिल टटोलता;
कहाँ मनुष्‍य है कि जो
उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;
तिमिर-समुद्र कर सकी
न पार नेत्र की तरी,
वि‍नष्‍ट स्‍वप्‍न से लदी,
विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला,
न कोर भेर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी
विरह-घिरी विभावरी;
कहाँ मनुष्‍य है जिसे
कमी खली न प्‍यार की,
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
उजाड़ से लगा चुका
उमीद मैं बाहर की,
निदाघ से उमीद की,
वसंत से बयार की,
मरुस्‍थली मरीचिका
सुधामयी मुझे लगी,
अँगार से लगा चुका
उमीद मैं तुषार की;
कहाँ मनुष्‍य है जिसे
न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो,
दुलार कर सुधार लो!

कौन तुम हो? - Harivansh Rai Bachchan

ले प्रलय की नींद सोया
जिन दृगों में था अँधेरा,
आज उनमें ज्‍योति बनकर
ला रही हो तुम सवेरा,
सृष्टि की पहली उषा की
यदि नहीं मुसकान तुम हो,
कौन तुम हो?
आज परिचय की मधुर
मुसकान दुनिया दे रही है,
आज सौ-सौ बात के
संकेत मुझसे ले रही है
विश्‍व से मेरी अकेली
यदि नहीं पहचान तुम हो,
कौन तुम हो?
हाय किसकी थी कि मिट्टी
मैं मिला संसार मेरा,
हास किसका है कि फूलों-
सा खिला संसार मेरा,
नाश को देती चुनौती
यदी नहीं निर्माण तुम हो,
कौन तुम हो?
मैं पुरानी यादगारों
से विदा भी ले न पाया
था कि तुमने ला नए ही
लोक में मुझको बसाया,
यदि नहीं तूफ़ान तुम हो,
जो नहीं उठकर ठहरता
कौन तुम हो?
तुम किसी बुझती चिता की
जो लुकाठी खींच लाती
हो, उसी से ब्‍याह-मंडप
के तले दीपक जलाती,
मृत्‍यु पर फिर-फिर विजय की
यदि नहीं दृढ़ आन तुम हो,
कौन तुम हो?
यह इशारे हैं कि जिन पर
काल ने भी चाल छोड़ी,
लौट मैं आया अगर तो
कौन-सी सौगंध तोड़ी,
सुन जिसे रुकना असंभव
यदि नहीं आह्वान तुम हो,
कौन तुम हो?
कर परिश्रम कौन तुमको
आज तक अपना सका है,
खोजकर कोई तुम्‍हारा
कब पता भी पा सका है,
देवताओं का अनिश्चित
यदि नहीं वरदान तुम हो,
कौन तुम हो?

तुम गा दो - Harivansh Rai Bachchan

तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रृंखल,
चरण-चरण भरमाए,
गूँज-गूँजकर मिटने वाले
मैंने गीत बनाए;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठों पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैंने कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्‍या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊँ
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
सुंदर और असुंदर जग में
मैंने क्‍या न सराहा,
इतनी ममतामय दुनिया में
मैं केवल अनचाहा;
देखूँ अब किसकी रुकती है
आ मुझपर अभिलाषा,
तुम रख लो, मेरा मान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
दुख से जिवन बीता फिर भी
शेष अभी कुछ रहता,
जीवन की अंतिम घड़ियों में
भी तुमसे यह कहता,
सुख की एक साँस पर होता
है अमरत्‍व निछावर,
तुम छू दो, मेरा प्राण अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!

नया वर्ष - Harivansh Rai Bachchan

वर्ष नव,
हर्ष नव,
जीवन उत्कर्ष नव।
नव उमंग,
नव तरंग,
जीवन का नव प्रसंग।
नवल चाह,
नवल राह,
जीवन का नव प्रवाह।
गीत नवल,
प्रीत नवल,
जीवन की रीति नवल,
जीवन की नीति नवल,
जीवन की जीत नवल!

नव दर्शन - Harivansh Rai Bachchan

दर्श नवल,
स्पर्श नवल,
जीवन- आकर्ष नवल,
जीवन- आदर्श नवल,
वर्ण नवल
वेश नवल,
जीवन उन्मेष नवल
जीवन-सन्देश नवल ।
8प्राण नवल,
हृदय नवल,
जीवन की प्रणति नवल,
जीवन में प्रणय नवल ।

एक दाह

दाह एक
आह एक
जीवन की त्राहि एक ।
प्यास एक,
त्रास एक,
जीवन इतिहास एक ।
आग एक,
राग एक,
जीवन का भाग एक ।
तीर एक,
पीर एक,
नयनों में नीर एक,
जीवन-ज़ंजीर एक ।

एक स्नेह - Harivansh Rai Bachchan

एक पलक
एक झलक,
दो मन में एक ललक ।
एक पास,
एक पहर,
दो मन में एक लहर ।
एक रात,
एक साथ,
दो मन में एक बात ।
एक गेह,
एक देह,
दो मन में एक स्नेह ।

नवल प्रात - Harivansh Rai Bachchan

नवल हास,
नवल बास,
जीवन की नवल साँस ।
नवल अंग,
नवल रंग,
जीवन का नवल संग ।
नवल साज,
नवल सेज,
जीवन में नवल तेज ।
नवल नींद,
नवल प्रात,
जीवन का नव प्रभात,
कमल नवल किरण-स्नात ।

प्रेम - Harivansh Rai Bachchan

भूल नहीं,
शूल नहीं,
चिन्ता की मूल नहीं।
चाल नहीं,
जाल नहीं,
दुर्दिन की माल नहीं ।
पाप नहीं,
शाप नहीं,
संकट-संताप नहीं ।
प्रेम अजर, प्रेम अमर
जो कुछ भी सुंदरतर
जगती में, जीवन में
लाता है मंथन कर,
मंथन से सिहर-सिहर
उठते हैं नारी-नर !

काल - Harivansh Rai Bachchan

कल्प-कल्पान्तर मदांध समान,
काल, तुम चलते रहे अनजान,
आ गया जो भी तुम्हारे पास,
कर दिया तुमने उसे बस नाश ।
मिटा क्या-क्या छू तुम्हारा हाथ,
यह किसी को भी नहीं है ज्ञात,
किन्तु अब तो मानवों की आँख
सजग प्रतिपल, घड़ी, वासर, पाख,
उल्लिखित प्रति पग तुम्हारी चाल,
उल्लिखित हर एक पल का हाल,
अब नहीं तुम प्रलय के जड़ दास,
अब तुम्हारा नाम है इतिहास !
ध्वंस की अब हो न शक्ति प्रचण्ड,
सभ्यता के वृद्धि-मापक दण्ड !
नाश के अब हो न गर्त महान,
प्रगतिमय संसार के सोपान !
तुम नहीं करते कभी कुछ नष्ट
जन्मती जिससे नहीं नव सृष्टि,
किन्तु यदि करते कभी बर्बाद
कुछ कि जो सुन्दर, सुमधुर, अनूप,
मानवों की चमत्कारी याद
है बनाती एक उसका रूप
और सुन्दर और मधुमय, पूत,
जानता है जो भविष्य न भूत,
सब समय रह वर्तमान समान
विश्व का करता सतत कल्याण !

कर्तव्‍य - Harivansh Rai Bachchan

देवि, गया है जोड़ा यह जो
मेरा और तुम्‍हारा नाता,
नहीं तुम्‍हारा मेरा केवल,
जग-जीवन से मेल कराता।
दुनिया अपनी, जीवन अपना,
सत्‍य, नहीं केवल मन-सपना;
मन-सपने-सा इसे बनाने
का, आओ, हम तुम प्रण ठानें।
जैसी हमने पाई दुनिया,
आओ, उससे बेहतर छोड़ें,
शुचि-सुंदरतर इसे बनाने
से मुँह अपना कभी न मोड़ें।
क्‍योंकि नहीं बस इससे नाता
जब तक जीवन-काल हमारा,
खेल, कूद, पढ़, बढ़ इसमें ही
रहने को है लाल हमारा।

विश्‍वास - Harivansh Rai Bachchan

पंथ जीवन का चुनौती
दे रहा है हर कदम पर,
आखिरी मंजिल नहीं होती
कहीं भी दृष्टिगोचर,
धूलि में लद, स्‍वेद में सिंच
हो गई है देह भारी,
कौन-सा विश्‍वास मुझको
खींचता जाता निरंतर?-
पंथ क्‍या, पंथ की थकान क्‍या,
स्‍वेद कण क्‍या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।
एक भी संदेश आशा
का नहीं देते सितारे,
प्रकृति ने मंगल शकुन पथ
में नहीं मेरे सँवारे,
विश्‍व का उत्‍साहव र्धक
शब्‍द भी मैंने सुना कब,
किंतु बढ़ता जा रहा हूँ
लक्ष्‍य पर किसके सहारे?-
विश्‍व की अवहेलना क्‍या,
अपशकुन क्‍या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।
चल रहा है पर पहुँचना
लक्ष्‍य पर इसका अनिश्चित,
कर्म कर भी कर्म फल से
यदि रहा यह पांथ वंचित,
विश्‍व तो उस पर हँसेगा
खूब भूला, खूब भटका!
किंतु गा यह पंक्तियाँ दो
वह करेगा धैर्य संचित-
व्‍यर्थ जीवन, व्‍यर्थ जीवन की
लगन क्‍या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं!
अब नहीं उस पार का भी
भय मुझे कुछ भी सताता,
उस तरफ़ के लोक से भी
जुड़ चुका है एक नाता,
मैं उसे भूला नहीं तो
वह नहीं भूली मुझे भी,
मृत्‍यु-पथ पर भी बढ़ूँगा
मोद से यह गुनगुनाता-
अंत यौवन, अंत जीवन का,
मरण क्‍या,
दो नयन मेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं

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