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गुलदस्ता भाग 3 (भाग २)
Guldasta Part 3 (Part 2)
कर्तब्यों जागो!
उठो! जागो!एक नया सबेरा आने को है
आँखे खोलो, ताले खोलो घर बर के;
नया सवेरा दस्तक देने को है ।
उठो ! उठो!
वक्त की कीमत सुबह की
सबसे ज्यादा है ।
उठो ! नव उत्साह तुम्हारा कदम चूमना चाहती है।
नव सदेश नई ऊषा बन आई।
कर्तव्यों जागो!
अब मार्ग हुए प्रशस्त तुम्हारे,
नि संकोच चलो, बढ़ो !
तुम्हारा नव-पथ-प्रदर्शक
तुम्हारा इन्तजार कर रहा
एक नई दिशा, नई रोशनी,
नया जीवन
नया तरग
आया कोई तुम्हारे तारों को छेड़ने
सप्तल सुरों में,
जागो! जागो !! जागो !!!
रंग अनेक रास्ते लम्बे दिशा-निणा विस्तार हुआ।
खिल कर फूल झड़े पंखुड़ियां, बदला दिन रातों में,
चलती नया, बहती धारा, डुवा रहा माझी को ।
खेल-खिलाड़ी खेल खेलकर हार रहे हैं,
भौगी-योगी भोग लगाकर, सच्चे योगी ध्यान लगाकर जाग रहे है।
जीवन का बस खेन निराला, जन्म-मरण का,
फिर भी प्राणी राग-द्वप में पड़े हुए हैं ।
मेम प्यार, त्याग-तपस्या, कुछ दिन भाई,
जीवन के दिन शोप बते, कुछ दिन ही भाई ।
जाति धर्म का बन्धन छोड़ प्रेम अपनाओ,
जीवन की प्रेम-सुधा-सिन्धु में दिन-रात नहाओ ।
दिखते झोपड़-पट्ट बहुत, कहीं लिफ्ट बहुताई ।
यह कैसा अन्तर फैला सृष्टि सूजन को ।
यह मानव का परिभाष, परिहास दुदिन का भाई ।
कोई फेके प्लेट, लगे बहु व्यंजन भाई ।
शर्म आ रहा हमें यह भी अपना भाई
यह कैसी आजादी भूषा अपना भाई ।
मानव का इतिहास लिखेगा; दुखता दिल का कोना
राह चले तो देखें, कौन थका राहों में,
थका, गिरा जो, देके सहारा बढ़ा करेंगे।
हक उनका भी है जीने का मेरे भाई।
प्रण करें तिरंगा तले "एकता" का भाई
सबको लगा गले, प्यार बांटेंगे भाई ।
आगे पीछे जीवन के
घूम रहे हैं चक्र व्यूह से
नचा रहे हैं मानव के लोभी मन को
सिक्का उछला आज; गिरा कुछ दूर
लेना है हेड या टेल, बताओ पहले
जीवन के हार जीत के पहले बने हुए
सिक्के के ये दो पहलू
उलट- पलट कर बार बार ये रूप बदलते रहते हैं।
क्या जीवन के ये दो पहलू हार-जीत के
हो सकते हैं अलग-अलग बनें एक ही सिक्के
चुने भले कोई भी पहलू
मिले और मिलेगा अपको दोनों पहलू ।
टप !!
टप !!!
कैसी आवाज यह।
खामोशियां दृष्टी कैसे ?
ये उजड़े हुए सिन्दूर
किसी अबला के बाग के ।
हुआ शहीद उसका पति देश के लिये
ममता से भरे गोद में
किसी की निशानो लिये हुए ।
टपक गये कुछ बूद आज आँखों से
थी किसकी ये हैवानी
रुदन किसी का आज
दिल में कर रहा हलचल ।
मासूम की ये जिन्दगी
फूलों की सेज थी
बना दिये है कटक
किसके मजाक ने।
गद्दार बस गये
लगा नकाब धर्म के नाम पर
बहा रहे हैं खून
अपने मुकाम पर।
इन्साफ कौन करता ?
पैसे से बिक रहे
लोभी दिनों को शत्रु
टके में खरीदते।
वह चिपकता रहा, पीठ के प्रेम से ।
हाथों में खंजर न दिल में जलन
कागज की जमी, खुदती हो गई ।
एक दरिया बनी, गंगा सी वही
दिल के खेतों से, बहता चला जा रहा ।
हरियाली के उम्मीदों के बीज बोये
समुन्दर सा दिन देश का अपने यारो ।
कब्र अपनी यहीं, लब खामोश हों
आँखे हो खली और मैं देखा करू ।
हिन्द के जवानो, बढ़ों ! तुम चलो ।
मेरे सोने पर छोड़ो निशा आज ऐसे
बहा हो कभी अब भी आंसू तेरे
कशिश प्रेम की, देश की जब बढ़े
जुल्मों की जजी रे तुम तोड़ डालो ।
चांदनी को घोल पी लेता हूँ ।
दिन में जब भूख लगती है,
कटोरे में सूर उतार लेता हूँ ।
जब इन्सान के तलाश में भटकता हूँ,
तो जानवरों पर भी प्यार आ जाता है
इसलिये मैं इसे भी पाल लेता है ।
वफादारी का जब इससे अच्छा सबूत नहीं पाता हूँ।
तो भादमा के पूर्वज बन्दर के पास जाता हूँ
वह मुझे पास मे, प्यार से बिठाता है,
खाने के लिए पेडों से फल ले आता है ।
मुझे ध्यान आता है, बन्दर फल खाता है
और आज का आदमी
आदमी का खून पीता है
खजर चलाता है
फिर मांस साता है
पर्दे के पीछे से
पर्द के आगे से देवी देवताओं को सजाता है
पूजा भी करता है
पर्दे के पछि से उसे कहता है।
भगवान भी घूस लेता है. बिना प्रसाद चढ़ाये
काम नहीं करता है।
मैं सोचता हूँ - बदर अच्छा है फल खाता है
मन्दिर भी नहीं बनाता पूजा भी नहीं करता है
मैं अब रात-दिन रोटी को कटोरे में उतारता हूं
जानता हूँ चांद-सूरज युगों-युगों से मेरे साथ है ।
फांसी का फंदा,
कितनी ही त्याग और तपस्या पर,
मुझको किया अर्पण है।
मेरे ये शासक कितने है गोरे
मुझे भी खुशी है
यह दिन आने का
पहना है हार जो
लगता कुछ ऐसा है
जैसे मैने खुश होकर
अपनी माँ को फूलों से सजाया हो।
मैं अलविदा होता हूँ, खुश हूं।
गर्दन मेरा लटक कर भी
माथा मरा ऊंचा है।
मेरी मां के सपने जो
हुए साकार हुई।
जानता है रोया करती थी तू खूब
मेरे भूखे होने पर
आज गयो रोई तुम.
मेरी तो प्यास अब कब की बुझी हुई
अभी अभी नोंद खुनी,
आजादी के अब तो बहुत वर्ष बीत चुके
बेड़ी ये महंगाई के और बेईमानी के गये ?
हमने आज क्यों पहन लिये।
माँ को ममता को हम क्यों भूल गये ?/
क्या अपना यह गर्दन मैंने हो
खुद अपने ही हाथों से घोंट डाला है !
क्योंकि वह गोरे, जो पहले थे, अब यहाँ नहीं है
कितने गुनाह और करूं; मैं तुझे पाने के लिये।
गुलाब दिन के साथ काटो का,
धूप के साथ साया का,
धन के साथ माया का,
सिलसिला जोड़ कर तुमने
गुनाहों का गुल खिलाया है ।
पतझड़ के बाद बसन्त का दस्तर तेरा
काटों के बाद फूलों को लगाना तेरा
कैसा याराना बनाया है ।
इसलिये पूछता हूँ
पतझड़ में बहार आने के लिये ।
ठगे मुझको।
जमाने से समय की लम्बी धार में
बहता-बहता दूर तक
निकलता जा रहा है।
कभी अंधेरे, कभी उजाले के अन्तरालों में
न कोई मिलता, न ही मिलने के कोई आसार आते हैं।
भटकते - भटकते अब
मैंने छोड़ दो है ढीली बंधन के धागे
देखू कहाँ तक भाग सकती है अकेले
धागे है बड़े लम्बे
तुनककर छोड़ ही देगी पता जिस दिन चलेगा
अब नहीं कोई बाजी पतगों की चलेगी
जब डोरी ही कटी होगी ।
नहीं लगाऊगा जब ठुमका, बढ़ेगी त कहाँ आकाश में
हो जायगे फाख्ता तेरे अरमा देखते-देखते
नहीं चल पायेगा जब तेरा कोई जलवा जमाने में ।
भटक कर खुद गिरेगी दूर, हस्र होगा वही कटी पतंग सी
लूटने वाले मरी ही लुटी माया को
तार-तार पायगे।
खाते रहे, जिन्दगी के लम्हे यू ही गुजारते रहे
कभी न सोचा खाते हुए इन पत्तों की बावत
आई कहां से, भर गया पेट जिसकी बदौलत
है नहीं फुर्सत हमें सोचने की
जायेगी जिस उदर में यह जूठन
कहेगी दासता किसी की ।
अब बदल गये हैं पैमाने,
उन महलों के जिसमें रहते थे
इन्सानी रिस्ते ।
अब रहते हैं दरिंदे
भूखे भेड़िये ।
जंगलों से आ बसे शहरों में ये देश-द्रोही
जीते हैं. दूसरों का खून पीकर
पसीने की कमाई नहीं प्यारी जिन्हें
शायद वह पुस्तों से भूल बैठे हैं ।
गुलामी करते करते गुलाम हो गये पूरी तरह
जूठन हो मिटाती है अब भूख इनकी
वो फुटपाथों पर पड़े पहचानते हैं
ये जूठन जो पहले ही जूठी थी ।
मेरे घर भी है।
हो सकता है फेम और साइज अलग अलग हों पर
दर्पण ओट दर्पण का मकसद होगा वही
आज आप अपने चेहरे को देखने के पहले
शीश के धुन्ध को मिटा डाले।
हो सकता आपको अपने चेहरे में
मेरा अक्स उभरता नजर आये
मै तो वही हूँ
चांद और सूरज भी वही,
रास्ते हमसफर मेरे
कैसे कह सकते हैं आप ?
वह कभी दुष्मन थे आपके
वैसे तो वही रहा है
और इस जहां का रहगुज़र भी वही
फिर भी इसी चेहरे पर
बदलते बचपना और जवानी का मंजर देखा है
मैंने भी और आपने
कल फिर दर्पण यही होगा
फिर भीमंज़र बुढ़ापे का होगा।
आपने अपने चौखट का रंग बदलते देखा है।
और मैंने भी देखा है
पर जब "अकेला" दर्पण निहारोगे
मंज़र का सौदाई नज़र आयेगा।
रोज के दौड़ से गर्द जो उड़ा है
पोछ लो दर्पण की जरा।
आज फिर से दर्पण से दोस्ती के लो।
जाग कर भी क्या करू।
है नहीं कोई किनारा
छोर भी मिलता नहीं ।
दो किनारे जो न मिलते
देखा जब भी पास से ।
होते जब भी दूर ये
मिलते कहीं हैं दूर से
है कोई यदि राज तेरा
मैं भी तेरे साथ हूं।
कौन सी है वह कमी
जो पास आते ही नहीं ।
लग रहा डरपोक तू है
यदि पकड़ में आयेगा।
कौन से किस जाल में फंस जायेगा,
इसका न है अनुमान तुझको ।
है फंसा तू, है मुझे मालूम,
मेरे सलोने !
कहते हैं जिसे हम राम या घनश्याम मन में
तुम फसे हो भक्त के प्रमो हृदय में
सो निकलने में तुम्हें तकलीफ होगी ।
मैं "अकेला"
तू अकेला
जग अकेला
अकेला ही "अकेला"
उड़ता फिरा
कभी स्वच्छन्द मन बन
कभी बन श्वांस पंछी
उड़ रहे हैं...... उड़ रहा हूँ।
कोई बहेलिया नहीं पकड़ सकता इसे,
है फंसा नश्वर शरीरों में अकेला ।
बदले अजूबे रंग जग के सामने,
होता भ्रमित माया तले यह आदमी।
कर्म निष्काम कैसे कर सके यह आदमी,
भेद-भावों में पड़ा यह आदमी ।
जंग भीअनेकों करता रहा यह आदमी,
हर रंग में रंगा है आदमी ।
कहते हैं जानवर से बना है आदमी
इसलिये भटके बहुत यह आदमी ।
आदमी के भेष में फिर भी नहीं है आदमी।
कर्तव्यों जागो!
अब मार्ग हुए प्रशस्त तुम्हारे,
नि संकोच चलो, बढ़ो !
तुम्हारा नव-पथ-प्रदर्शक
तुम्हारा इन्तजार कर रहा
एक नई दिशा, नई रोशनी,
नया जीवन
नया तरग
आया कोई तुम्हारे तारों को छेड़ने
सप्तल सुरों में,
जागो! जागो !! जागो !!!
राग-द्वेष में पड़े हुये हैं
आंख खुली दुनियां को देखा, कुछ ऐसा आभाष हुआरंग अनेक रास्ते लम्बे दिशा-निणा विस्तार हुआ।
खिल कर फूल झड़े पंखुड़ियां, बदला दिन रातों में,
चलती नया, बहती धारा, डुवा रहा माझी को ।
खेल-खिलाड़ी खेल खेलकर हार रहे हैं,
भौगी-योगी भोग लगाकर, सच्चे योगी ध्यान लगाकर जाग रहे है।
जीवन का बस खेन निराला, जन्म-मरण का,
फिर भी प्राणी राग-द्वप में पड़े हुए हैं ।
मेम प्यार, त्याग-तपस्या, कुछ दिन भाई,
जीवन के दिन शोप बते, कुछ दिन ही भाई ।
जाति धर्म का बन्धन छोड़ प्रेम अपनाओ,
जीवन की प्रेम-सुधा-सिन्धु में दिन-रात नहाओ ।
प्रण करें तिरंगा तले
कहीं पहाड़ ऊचे, कहीं है खाईदिखते झोपड़-पट्ट बहुत, कहीं लिफ्ट बहुताई ।
यह कैसा अन्तर फैला सृष्टि सूजन को ।
यह मानव का परिभाष, परिहास दुदिन का भाई ।
कोई फेके प्लेट, लगे बहु व्यंजन भाई ।
शर्म आ रहा हमें यह भी अपना भाई
यह कैसी आजादी भूषा अपना भाई ।
मानव का इतिहास लिखेगा; दुखता दिल का कोना
राह चले तो देखें, कौन थका राहों में,
थका, गिरा जो, देके सहारा बढ़ा करेंगे।
हक उनका भी है जीने का मेरे भाई।
प्रण करें तिरंगा तले "एकता" का भाई
सबको लगा गले, प्यार बांटेंगे भाई ।
सिक्का
सिक्के ही सिक्केआगे पीछे जीवन के
घूम रहे हैं चक्र व्यूह से
नचा रहे हैं मानव के लोभी मन को
सिक्का उछला आज; गिरा कुछ दूर
लेना है हेड या टेल, बताओ पहले
जीवन के हार जीत के पहले बने हुए
सिक्के के ये दो पहलू
उलट- पलट कर बार बार ये रूप बदलते रहते हैं।
क्या जीवन के ये दो पहलू हार-जीत के
हो सकते हैं अलग-अलग बनें एक ही सिक्के
चुने भले कोई भी पहलू
मिले और मिलेगा अपको दोनों पहलू ।
लोभी दिलो को
टप !टप !!
टप !!!
कैसी आवाज यह।
खामोशियां दृष्टी कैसे ?
ये उजड़े हुए सिन्दूर
किसी अबला के बाग के ।
हुआ शहीद उसका पति देश के लिये
ममता से भरे गोद में
किसी की निशानो लिये हुए ।
टपक गये कुछ बूद आज आँखों से
थी किसकी ये हैवानी
रुदन किसी का आज
दिल में कर रहा हलचल ।
मासूम की ये जिन्दगी
फूलों की सेज थी
बना दिये है कटक
किसके मजाक ने।
गद्दार बस गये
लगा नकाब धर्म के नाम पर
बहा रहे हैं खून
अपने मुकाम पर।
इन्साफ कौन करता ?
पैसे से बिक रहे
लोभी दिनों को शत्रु
टके में खरीदते।
जुल्मों की जंजीरें तोड़ डालो
पेट भूबा रहा, उसने उक ना किया,वह चिपकता रहा, पीठ के प्रेम से ।
हाथों में खंजर न दिल में जलन
कागज की जमी, खुदती हो गई ।
एक दरिया बनी, गंगा सी वही
दिल के खेतों से, बहता चला जा रहा ।
हरियाली के उम्मीदों के बीज बोये
समुन्दर सा दिन देश का अपने यारो ।
कब्र अपनी यहीं, लब खामोश हों
आँखे हो खली और मैं देखा करू ।
हिन्द के जवानो, बढ़ों ! तुम चलो ।
मेरे सोने पर छोड़ो निशा आज ऐसे
बहा हो कभी अब भी आंसू तेरे
कशिश प्रेम की, देश की जब बढ़े
जुल्मों की जजी रे तुम तोड़ डालो ।
कटोरे में सूरज उतार लेता हूं
रात में जब प्यास लगती है,चांदनी को घोल पी लेता हूँ ।
दिन में जब भूख लगती है,
कटोरे में सूर उतार लेता हूँ ।
जब इन्सान के तलाश में भटकता हूँ,
तो जानवरों पर भी प्यार आ जाता है
इसलिये मैं इसे भी पाल लेता है ।
वफादारी का जब इससे अच्छा सबूत नहीं पाता हूँ।
तो भादमा के पूर्वज बन्दर के पास जाता हूँ
वह मुझे पास मे, प्यार से बिठाता है,
खाने के लिए पेडों से फल ले आता है ।
मुझे ध्यान आता है, बन्दर फल खाता है
और आज का आदमी
आदमी का खून पीता है
खजर चलाता है
फिर मांस साता है
पर्दे के पीछे से
पर्द के आगे से देवी देवताओं को सजाता है
पूजा भी करता है
पर्दे के पछि से उसे कहता है।
भगवान भी घूस लेता है. बिना प्रसाद चढ़ाये
काम नहीं करता है।
मैं सोचता हूँ - बदर अच्छा है फल खाता है
मन्दिर भी नहीं बनाता पूजा भी नहीं करता है
मैं अब रात-दिन रोटी को कटोरे में उतारता हूं
जानता हूँ चांद-सूरज युगों-युगों से मेरे साथ है ।
माँ की ममता
आज यह मेरे गले में;फांसी का फंदा,
कितनी ही त्याग और तपस्या पर,
मुझको किया अर्पण है।
मेरे ये शासक कितने है गोरे
मुझे भी खुशी है
यह दिन आने का
पहना है हार जो
लगता कुछ ऐसा है
जैसे मैने खुश होकर
अपनी माँ को फूलों से सजाया हो।
मैं अलविदा होता हूँ, खुश हूं।
गर्दन मेरा लटक कर भी
माथा मरा ऊंचा है।
मेरी मां के सपने जो
हुए साकार हुई।
जानता है रोया करती थी तू खूब
मेरे भूखे होने पर
आज गयो रोई तुम.
मेरी तो प्यास अब कब की बुझी हुई
अभी अभी नोंद खुनी,
आजादी के अब तो बहुत वर्ष बीत चुके
बेड़ी ये महंगाई के और बेईमानी के गये ?
हमने आज क्यों पहन लिये।
माँ को ममता को हम क्यों भूल गये ?/
क्या अपना यह गर्दन मैंने हो
खुद अपने ही हाथों से घोंट डाला है !
क्योंकि वह गोरे, जो पहले थे, अब यहाँ नहीं है
कितने गुनाह और करू' ?
चन्द गुनाह किया मैंने, तुझे याद आने के लिये,कितने गुनाह और करूं; मैं तुझे पाने के लिये।
गुलाब दिन के साथ काटो का,
धूप के साथ साया का,
धन के साथ माया का,
सिलसिला जोड़ कर तुमने
गुनाहों का गुल खिलाया है ।
पतझड़ के बाद बसन्त का दस्तर तेरा
काटों के बाद फूलों को लगाना तेरा
कैसा याराना बनाया है ।
इसलिये पूछता हूँ
पतझड़ में बहार आने के लिये ।
माया
बहुत चाहा बहुत काटा मगर ये मोह माया बंधन,ठगे मुझको।
जमाने से समय की लम्बी धार में
बहता-बहता दूर तक
निकलता जा रहा है।
कभी अंधेरे, कभी उजाले के अन्तरालों में
न कोई मिलता, न ही मिलने के कोई आसार आते हैं।
भटकते - भटकते अब
मैंने छोड़ दो है ढीली बंधन के धागे
देखू कहाँ तक भाग सकती है अकेले
धागे है बड़े लम्बे
तुनककर छोड़ ही देगी पता जिस दिन चलेगा
अब नहीं कोई बाजी पतगों की चलेगी
जब डोरी ही कटी होगी ।
नहीं लगाऊगा जब ठुमका, बढ़ेगी त कहाँ आकाश में
हो जायगे फाख्ता तेरे अरमा देखते-देखते
नहीं चल पायेगा जब तेरा कोई जलवा जमाने में ।
भटक कर खुद गिरेगी दूर, हस्र होगा वही कटी पतंग सी
लूटने वाले मरी ही लुटी माया को
तार-तार पायगे।
जूठन
जूठे पत्ते फुटपाथों के,खाते रहे, जिन्दगी के लम्हे यू ही गुजारते रहे
कभी न सोचा खाते हुए इन पत्तों की बावत
आई कहां से, भर गया पेट जिसकी बदौलत
है नहीं फुर्सत हमें सोचने की
जायेगी जिस उदर में यह जूठन
कहेगी दासता किसी की ।
अब बदल गये हैं पैमाने,
उन महलों के जिसमें रहते थे
इन्सानी रिस्ते ।
अब रहते हैं दरिंदे
भूखे भेड़िये ।
जंगलों से आ बसे शहरों में ये देश-द्रोही
जीते हैं. दूसरों का खून पीकर
पसीने की कमाई नहीं प्यारी जिन्हें
शायद वह पुस्तों से भूल बैठे हैं ।
गुलामी करते करते गुलाम हो गये पूरी तरह
जूठन हो मिटाती है अब भूख इनकी
वो फुटपाथों पर पड़े पहचानते हैं
ये जूठन जो पहले ही जूठी थी ।
पोछ लो दर्पण को जरा
एक दर्पण आपके घरमेरे घर भी है।
हो सकता है फेम और साइज अलग अलग हों पर
दर्पण ओट दर्पण का मकसद होगा वही
आज आप अपने चेहरे को देखने के पहले
शीश के धुन्ध को मिटा डाले।
हो सकता आपको अपने चेहरे में
मेरा अक्स उभरता नजर आये
मै तो वही हूँ
चांद और सूरज भी वही,
रास्ते हमसफर मेरे
कैसे कह सकते हैं आप ?
वह कभी दुष्मन थे आपके
वैसे तो वही रहा है
और इस जहां का रहगुज़र भी वही
फिर भी इसी चेहरे पर
बदलते बचपना और जवानी का मंजर देखा है
मैंने भी और आपने
कल फिर दर्पण यही होगा
फिर भीमंज़र बुढ़ापे का होगा।
आपने अपने चौखट का रंग बदलते देखा है।
और मैंने भी देखा है
पर जब "अकेला" दर्पण निहारोगे
मंज़र का सौदाई नज़र आयेगा।
रोज के दौड़ से गर्द जो उड़ा है
पोछ लो दर्पण की जरा।
आज फिर से दर्पण से दोस्ती के लो।
तुम फंसे हो भक्त के प्रेमी हृदय में
थक चुका हूँ सोते-सोतेजाग कर भी क्या करू।
है नहीं कोई किनारा
छोर भी मिलता नहीं ।
दो किनारे जो न मिलते
देखा जब भी पास से ।
होते जब भी दूर ये
मिलते कहीं हैं दूर से
है कोई यदि राज तेरा
मैं भी तेरे साथ हूं।
कौन सी है वह कमी
जो पास आते ही नहीं ।
लग रहा डरपोक तू है
यदि पकड़ में आयेगा।
कौन से किस जाल में फंस जायेगा,
इसका न है अनुमान तुझको ।
है फंसा तू, है मुझे मालूम,
मेरे सलोने !
कहते हैं जिसे हम राम या घनश्याम मन में
तुम फसे हो भक्त के प्रमो हृदय में
सो निकलने में तुम्हें तकलीफ होगी ।
राजहंस
कितने अकेले !मैं "अकेला"
तू अकेला
जग अकेला
अकेला ही "अकेला"
उड़ता फिरा
कभी स्वच्छन्द मन बन
कभी बन श्वांस पंछी
उड़ रहे हैं...... उड़ रहा हूँ।
कोई बहेलिया नहीं पकड़ सकता इसे,
नहीं कोई मार सकता है इसे
विष का प्याला कोई पिला सके कैसे
दाना भी कोई चुगा सके कैसे
मुक्त है बोध इसका, पकते नहीं है पंख जिसके ।
फिर भी "अकेला" विचरण कर रहा, विश्व भ्रमण कर रहा
अमर है यह हंस,
किसका है यह अश?
राजहंस
है कोई राज?
कब उड़ चले यह हंस !
में प्राणी जगत में
प्राणी जगत में प्राण बिल्कुल है अकेला,है फंसा नश्वर शरीरों में अकेला ।
बदले अजूबे रंग जग के सामने,
होता भ्रमित माया तले यह आदमी।
कर्म निष्काम कैसे कर सके यह आदमी,
भेद-भावों में पड़ा यह आदमी ।
जंग भीअनेकों करता रहा यह आदमी,
हर रंग में रंगा है आदमी ।
कहते हैं जानवर से बना है आदमी
इसलिये भटके बहुत यह आदमी ।
आदमी के भेष में फिर भी नहीं है आदमी।
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