Hindi Kavita
हिंदी कविता
हरिवंशराय बच्चन -आकुल अंतर
Harivansh Rai Bachchan -Aakul Antar
तूने अभी नहीं दुख पाए - Harivansh Rai Bachchan
तूने अभी नहीं दुख पाए।शूल चुभा, तू चिल्लाता है,
पाँव सिद्ध तब कहलाता है,
इतने शूल चुभें शूलों के चुभने का पग पता न पाए।
तूने अभी नहीं दुख पाए।
बीते सुख की याद सताती?
अभी बहुत कोमल है छाती,
दुख तो वह है जिसे सहन कर पत्थर की छाती हो जाए।
तूने अभी नहीं दुख पाए।
कंठ करुण स्वर में गाता है,
नयनों में घन घिर आता है,
पन्ना-पन्ना रंग जाता है
लेकिन, प्यारे, दुख तो वह है,
हाथ न ड़ोले, कंठ न बोले, नयन मुँदे हों या पथराए।
तूने अभी नहीं दुख पाए।
ठहरा-सा लगता है जीवन - Harivansh Rai Bachchan
ठहरा-सा लगता है जीवन।एक ही तरह से घटनाएँ
नयनों के आगे आतीं हैं,
एक ही तरह के भावों को
दिल के अंदर उपजातीं हैं,
एक ही तरह से आह उठा, आँसू बरसा,
हल्का हो जाया करता मन।
ठहरा सा लगता है जीवन।
एक ही तरह की तान कान
के अंदर गूँजा करती है,
एक ही तरह की पंक्ति पृष्ठ
के ऊपर नित्य उतरती है,
एक ही तरह के गीत बना, सूने में गा,
हल्का हो जाया करता मन।
ठहरा-सा लगता है जीवन।
हाय, क्या जीवन यही था - Harivansh Rai Bachchan
हाय, क्या जीवन यही था।एक बिजली की झलक में
स्वप्न औ' रस-रूप दीखा,
हाथ फैले तो मुझे निज हाथ भी दिखता नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।
एक झोंके ने गगन के
तारकों में जा बिठाया,
मुट्ठियाँ खोलीं, सिवा कुछ कंकड़ों के कुछ नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।
मैं पुलक उठता न सुख से
दुःख से तो क्षुब्ध होता,
इस तरह निर्लिप्त होना लक्ष्य तो मेरा नहीं था।
हाय क्या जीवन यही था।
लो दिन बीता, लो रात गई - Harivansh Rai Bachchan
लो दिन बीता, लो रात गई।सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
चिडियाँ चहकीं, कलियाँ महकीं,
पूरब से फिर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।
छल गया जीवन मुझे भी - Harivansh Rai Bachchan
छल गया जीवन मुझे भी।देखने में था अमृत वह,
हाथ में आ मधु गया रह
और जिह्वा पर हलाहल! विश्व का वचन मुझे भी।
छल गया जीवन मुझे भी।
गीत से जगती न झूमी,
चीख से दुनिया न घूमी,
हाय, लगते एक से अब गान औ' क्रंदन मुझे भी।
छल गया जीवन मुझे भी।
जो द्रवित होता न दुख से,
जो स्रवित होता न सुख से,
श्वास क्रम से किंतु शापित कर गया पाहन मुझे भी।
छल गया जीवन मुझे भी।
वह साल गया यह साल चला - Harivansh Rai Bachchan
वह साल गया, यह साल चला।मित्रों ने हर्ष-बधाई दी,
मित्रों को हर्ष-बधाई दी,
उत्तर भेजा, उत्तर आया,
'नूतन प्रकाश', 'नूतन प्रभात'
इत्यादि शब्द कुछ दिन गूँजे,
फिर मंद पड़े, फिर लुप्त हुए,
फिर अपनी गति से काल चला;
वह साल गया, यह साल चला।
आनेवाला 'कल' 'आज' हुआ,
जो 'आज'हुआ 'कल' कहलाया,
पृथ्वी पर नाचे रात-दिवस,
नभ में नाचे रवि-शशि-तारे,
निश्चित गति रखकर बेचारे।
यह मास गया, वह मास गया,
ॠतु-ऋतु बदली, मौसम बदला;
वह साल गया, यह साल चला।
झंझा-सनसन, घन घन-गर्जन,
कोकिल-कूजन, केकी-क्रंदन,
अख़बारी दुनिया की हलचल,
संग्राम-सन्धि, दंगा-फसाद,
व्याख्यान, विविघ चर्चा-विवाद,
हम-तुम यह कहकर भूल गए,
यह बुरा हुआ, यह हुआ भला;
वह साल गया, यह साल चला।
यदि जीवन पुनः बना पाता - Harivansh Rai Bachchan
यदि जीवन पुनः बना पाता।मैं करता चकनाचूर न जग का
दुख-संकटमय यंत्र पकड़,
बस कुछ कण के परिवर्तन से क्षण में क्या से क्या हो जाता।
यदि जीवन पुनः बना पाता।
मैं करता टुकड़े-टुकड़े क्यों
युग-युग की चिर संबद्ध लड़ी,
केवल कुछ पल को अदल-बदल जीवन क्या से क्या हो जाता।
यदि जीवन पुनः बना पाता।
जो सपना है वह सच होता,
क्या निश्चय होता तोष मुझे?
हो सकता है ले वे सपने मैं और अधिक ही पछताता।
यदि जीवन पुनः बना पाता।
सृष्टा भी यह कहता होगा - Harivansh Rai Bachchan
(१)सृष्टा भी यह कहता होगा
हो अपनी कृति से असंतुष्ट,
यह पहले ही सा हुआ प्रलय,
यह पहले ही सी हुई सृष्टि।
(२)
इस बार किया था जब मैंने
अपनी अपूर्ण रचना का क्षय,
सब दोष हटा जग रचने का
मेरे मन में था दृढ़ निश्चय।
(३)
लेकिन, जब जग में गुण जागे,
तब संग-संग में दोष जगा,
जब पूण्य जगा, तब पाप जगा,
जब राग जगा, तब रोष जगा।
(४)
जब ज्ञान जगा, अज्ञान जगा,
पशु जागा, जब मानव जागा,
जब न्याय जगा, अन्याय जगा,
जब देव जगा, दानव जागा।
(५)
जग संघर्षों का क्षेत्र बना,
संग्राम छिड़ा, संहार बढ़ा,
कोई जीता, कोई हारा,
मरता-कटता संसार बढ़ा।
(६)
मेरी पिछ्ली रचनाओं का,
जैसे विकास औ' हास हुआ,
इस मेरी नूतन रचना का
वैसा ही तो इतिहास हुआ।
(७)
यह मिट्टी की हठधर्मी है
जो फिर-फिर मुझको छलती है,
सौ बार मिटे, सौ बार बने
अपना गुण नहीं बदलती है।
(८)
यह सष्टि नष्ट कर नवल सृष्टि
रचने का यदि मैं करूँ कष्ट,
फिर मुझे यही कहना होगा
अपनी कृति से हो असंतुष्ट,
'फिर उसी तरह से हुआ प्रलय
फिर उसी तरह से हुई सृष्टि।'
तुम भी तो मानो लाचारी - Harivansh Rai Bachchan
तुम भी तो मानो लाचारी।सर्व शक्तिमय थे तुम तब तक,
एक अकेले थे तुम जब तक,
किंतु विभक्त हुई कण-कण में अब वह शक्ति तुम्हारी।
तुम भी तो मानो लाचारी।
गुस्सा कल तक तुम पर आता,
आज तरस मैं तुम पर खाता,
साधक अगणित आँगन में हैं सीमित भेंट तुम्हारी।
तुम भी तो मानो लाचारी।
पाना-वाना नहीं कभी है,
ज्ञात मुझे यह बात सभी है,
पर मुझको संतोष तभी है,
दे न सको तुम किंतु बनूँ मैं पाने का अधिकारी।
तुम भी तो मानो लाचारी।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है - Harivansh Rai Bachchan
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।नीचे रहती है पावों के,
सिर चढ़ती राजा-रावों के,
अंबर को भी ढ़क लेने की यह आज शपथ कर आई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।
सौ बार हटाई जाती है,
फिर आ अधिकार जमाती है,
हा हंत, विजय यह पाती है,
कोई ऐसा रंग-रूप नहीं जिस पर न अंत को छाई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।
सबको मिट्टीमय कर देगी,
सबको निज में लय कर देगी,
लो अमर पंक्तियों पर मेरी यह निष्प्रयास चढ़ आई है।
मिट्टी से व्यर्थ लड़ाई है।
आज पागल हो गई है रात - Harivansh Rai Bachchan
आज पागल हो गई है रात।हँस पड़ी विद्युच्छटा में,
रो पड़ी रिमझिम घटा में,
अभी भरती आह, करती अभी वज्रापात।
आज पागल हो गई है रात।
एक दिन मैं भी हँसा था,
अश्रु-धारा में फँसा था,
आह उर में थी भरी, था क्रोध-कंपित गात।
आज पागल हो गई है रात।
योग्य हँसने के यहाँ क्या,
योग्य रोने के यहाँ क्या,
--क्रुद्ध होने के, यहाँ क्या,
--बुद्धि खोने के, यहाँ क्या,
व्यर्थ दोनों हैं मुझे हँस-रो हुआ यह ज्ञात।
आज पागल हो गई है रात।
दोनों चित्र सामने मेरे - Harivansh Rai Bachchan
दोनों चित्र सामने मेरे।पहला
सिर पर बाल घने, घुंघराले,
काले, कड़े, बड़े, बिखरे-से,
मस्ती, आजादी, बेफिकरी,
बेखबरी के हैं संदेसे।
माथा उठा हुआ ऊपर को,
भौंहों में कुछ टेढ़ापन है,
दुनिया को है एक चुनौती,
कभी नहीं झुकने का प्राण है।
नयनों में छाया-प्रकाश की
आँख-मिचौनी छिड़ी परस्पर,
बेचैनी में, बेसब्री में
लुके-छिपे हैं सपने सुंदर
दूसरा
सिर पर बाल कढ़े कंघी से
तरतीबी से, चिकने काले,
जग की रुढ़ि-रीति ने जैसे
मेरे ऊपर फंदें डाले।
भौंहें झुकी हुईं नीचे को,
माथे के ऊपर है रेखा,
अंकित किया जगत ने जैसे
मुझ पर अपनी जय का लेखा।
नयनों के दो द्वार खुले हैं,
समय दे गया ऐसी दीक्षा,
स्वागत सबके लिए यहाँ पर,
नहीं किसी के लिए प्रतीक्षा।
चुपके से चाँद निकलता है - Harivansh Rai Bachchan
चुपके से चाँद निकलता है।तरु-माला होती स्वच्छ प्रथम,
फिर आभा बढ़ती है थम-थम,
फिर सोने का चंदा नीचे से उठ ऊपर को चलता है।
चुपके से चाँद निकलता है।
सोना चाँदी हो जाता है,
जस्ता बनकर खो जाता है,
पल-पहले नभ के राजा का अब पता कहाँ पर चलता है।
चुपके से चंदा ढ़लता है।
अरुणाभा, किरणों की माला,
रवि-रथ बारह घोड़ोंवाला,
बादल-बिजली औ' इन्द्रधनुष,
तारक-दल, सुन्दर शशिबाला,
कुछ काल सभी से मन बहला, आकाश सभी को छलता है।
वश नहीं किसी का चलता है।
चाँद-सितारो, मिलकर गाओ - Harivansh Rai Bachchan
चाँद-सितारो, मिलकर गाओ!आज अधर से अधर मिले हैं,
आज बाँह से बाँह मिली,
आज हृदय से हृदय मिले हैं,
मन से मन की चाह मिली;
चाँद-सितारो, मिलकर गाओ!
चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
प्रणय-मिलन व्यापार हुआ है,
कितनी बार धरा पर प्रेयसि-
प्रियतम का अभिसार हुआ है!
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।
चाँद-सितारों, मिलकर रोओ!
आज अधर से अधर अलग है,
आज बाँह से बाँह अलग
आज हृदय से हृदय अलग है,
मन से मन की चाह अलग;
चाँद-सितारो, मिलकर रोओ!
चाँद-सितारे, मिलकर बोले,
कितनी बार गगन के नीचे
अटल प्रणय का बंधन टूटे,
कितनी बार धरा के ऊपर
प्रेयसि-प्रियतम के प्रण टूटे?
चाँद-सितारे, मिलकर बोले।
मैं था, मेरी मधुबाला थी - Harivansh Rai Bachchan
(१)मैं था, मेरी मधुबाला थी,
अधरों में थी प्यास भरी,
नयनों में थे स्वप्न सुनहले,
कानों में थी स्वर लहरी;
सहसा एक सितारा बोला, 'यह न रहेगा बहुत दिनों तक!'
(२)
मैं था औ मेरी छाया थी,
अधरों पर था खारा पानी,
नयनों पर था तम का पर्दा,
कानों में थी कथा पुरानी;
सहसा एक सितारा बोला, 'यह न रहेगा बहुत दिनों तक!'
(३)
अनासक्त था मैं सुख-दुख से,
अधरों के कटु-कधु समान था,
नयनों को तम-ज्योति एक-सी,
कानों को सम रुदन-गान था,
सहसा एक सितारा बोला, 'यह न रहेगा बहुत दिनों तक!
इतने मत उन्मत्त बनो - Harivansh Rai Bachchan
(१)इतने मत उन्मत्त बनो।
जीवन मधुशाला से मधु पी,
बनकर तन-मन-मतवाला,
गीत सुनाने लगा झूमकर,
चूम-चूमकर मैं प्याला--
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उन्मत्त बनो।
(२)
इतने मत संतप्त बनो।
जीवन मरघट पर अपने सब
अरमानों की कर होली,
चला राह में रोदन करता
चिता राख से भर झोली--
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत संतप्त बनो।
(३)
इतने मत उत्तप्त बनो।
मेरे प्रति अन्याय हुआ है
ज्ञात हुआ मुझको जिस क्षण,
करने लगा अग्नि-आनन हो
गुरु गर्जन गुरुतर तर्जन--
शीश हिलाकर दुनिया बोली,
पृथ्वी पर हो चुका बहुत यह,
इतने मत उत्तप्त बनो।
मेरा जीवन सबका साखी - Harivansh Rai Bachchan
मेरा जीवन सबका साखी।(१)
कितनी बार दिवस बीता है,
कितनी बार निशा बीती है,
कितनी बार तिमिर जीता है,
कितनी बार ज्योति जीती है!
मेरा जीवन सबका साखी।
(२)
कितनी बार सृष्टि जागी है,
कितनी बार प्रलय सोया है,
कितनी बार हँसा है जीवन,
कितनी बार विवश रोया है!
मेरा जीवन सबका साखी।
(३)
कितनी बार विश्व-घट मधु से
पूरित होकर तिक्त हुआ है,
कितनी बार भरा भावों से
कवि का मानस रिक्त हुआ है!
मेरा जीवन सबका साखी।
(४)
कितनी बार विश्व कटुता का
हुआ मधुरता में परिवर्तन,
कितनी बार मौन की गोदी
में सोया है कवि का गायन।
मेरा जीवन सबका साखी।
तब तक समझूँ कैसे प्यार - Harivansh Rai Bachchan
(१)तब तक समझूँ कैसे प्यार,
अधरों से जब तक न कराए
प्यारी उस मधुरस का पान,
जिसको पीकर मिटे सदा को
अपनी कटु संज्ञा का ज्ञान,
मिटे साथ में कटु संसार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार
(२)
तब तक समझूँ कैसे प्यार।
बाँहों में जब तक न सुलाए
प्यारी, अंतरहित हो रात,
चाँद गया कब सूरज आया--
इनके जड़ क्रम से अज्ञात;
सेज चिता की साज-सँवार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार।
(३)
तब तक समझूँ कैसे प्यार।
प्राणों में जब तक न मिलाए
प्यारी प्राणों की झंकार,
खंड़-खंड़ हो तन की वीणा
स्वर उठ जाएँ तजकर तार,
स्वर-स्वर मिल हों एकाकार,
तब तक समझूँ कैसे प्यार।
कौन मिलनातुर नहीं है - Harivansh Rai Bachchan
कौन मिलनातुर नहीं है?आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरंतर पूछती है,
कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप,
और तू हो लीन मुझमें फिर बनेगा शांत?
कौन मिलनातुर नहीं है?
गगन की निर्बाध बहती बायु प्रतिपल पूछती है,
कब गिरेगी टूट तेरी देह की दीवार,
और तू हो लीन मुझमें फिर बनेगा मुक्त?
कौन मिलनातुर नहीं है?
सर्व व्यापी विश्व का व्यक्तित्व मुझसे पूछता है,
कब मिटेगा बोल तेरा अहं का अभिमान,
और तू हो लीन मुझमें फिर बनेगा पूर्ण?
कौन मिलनातुर नहीं है?
कभी, मन, अपने को भी जाँच - Harivansh Rai Bachchan
कभी, मन, अपने को भी जाँच।नियति पुस्तिका के पन्नों पर,
मूँद न आँखें, भूल दिखाकर,
लिखा हाथ से अपने तूने जो उसको भी बाँच।
कभी, मन, अपने को भी जाँच।
सोने का संसार दिखाकर,
दिया नियति ने कंकड़-पत्थर,
सही, सँजोया कंचन कहकर तूने कितना काँच?
कभी, मन, अपने को भी जाँच।
जगा नियति ने भीषण ज्वाला,
तुझको उसके भीतर डाला,
ठीक, छिपी थी तेरे दिल के अंदर कितनी आँच?
कभी, मन, अपने को भी जाँच।
यह वर्षा ॠतु की संध्या है - Harivansh Rai Bachchan
यह वर्षा ॠतु की संध्या है,मैं बरामदे में कुर्सी पर
घिरा अँधेरे से बैठा हूँ
बँगले से स्विच आँफ़ सभी कर,
उठे आज परवाने इतने
कुछ प्रकाश में करना दुष्कर,
नहीं कहीं जा भी सकता हूँ
होती बूँदा-बाँदी बाहर।
उधर कोठरी है नौकर की
एक दीप उसमें बलता है,
सभी ओर से उसमें आकर
परवानों का दल जलता है,
ज्योति दिखाता ज्वाला देता
दिया पतिंगों को छलता है,
नहीं पतिंगों का दीपक के
ऊपर कोई वश चलता है।
है दिमाग़ में चक्कर करती
एक फ़ारसी की रूबाई,
शायद यह इकबाल-रचित है
किसी मित्र ने कभी सुनाई;
मेरे मनोभाव की इसके
अंदर है कुछ-कुछ परछाई।-
'दिल दीवाना,
दिल परवाना,
तज दीपक लौ पर मँड़राना,
कब सीखेगा पाँव बढ़ाना
उस पथ पर जो है मर्दाना।
ज्वाला है खुद तेरे अंदर,
जलना उसमें सीख निरंतर,
उस ज्वाला में जल क्या पाना
जो बेगाना, जो बेगाना।'
(दिला नादानिये परवाना ताके,
नगीरी शेवए मर्दाना ताके,
यके खुद राज़ सोज़ें ख़ेसतन सोज,
तवाफ़े आतिशे बेगाना ताके।)
यह दीपक है, यह परवाना - Harivansh Rai Bachchan
यह दीपक है, यह परवाना।ज्वाल जगी है, उसके आगे
जलनेवालों का जमघट है,
भूल करे मत कोई कहकर,
यह परवानों का मरघट है;
एक नहीं है दोनों मरकर जलना औ' जलकर मर जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
इनकी तुलना करने को कुछ
देख न, हे मन, अपने अंदर,
वहाँ चिता चिंता की जलती,
जलता है तू शव-सा बनकर;
यहाँ प्रणय की होली में है खेल जलाना या जल जाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
लेनी पड़े अगर ज्वाला ही
तुझको जीवन में, मेरे मन,
तो न मृतक ज्वाला में जल तू
कर सजीव में प्राण समर्पण;
चिता-दग्ध होने से बेहतर है होली में प्राण गँवाना।
यह दीपक है, यह परवाना।
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