यह हमारा लखनऊ का सेंटल जेल शहर से बाहर खुली हुई जगह में है। सुखदा उसी जेल के जनाने वार्ड में एक वृक्ष के नीचे खड़ी बादलों की घुड़दौड़ देख रही है। बरसात बीत गई है। आकाश में बड़ी धूम से घेर-घार होता है पर छींटे पड़कर रह जाते हैं। दानी के दिल में अब भी दया है पर हाथ खाली है। जो कुछ था, लुटा चुका।
जब कोई अंदर आता है और सदर द्वार खुलता है, तो सुखदा द्वार के सामने आकर खड़ी हो जाती है। द्वार एक ही क्षण में बंद हो जाता है पर बाहर के संसार की उसी एक झलक के लिए वह कई-कई घंटे उस वृक्ष के नीचे खड़ी रहती है, जो द्वार के सामने है। उस मील-भर की चार-दीवारी के अंदर जैसे दम घुटता है। उसे यहां आए अभी पूरे दो महीने भी नहीं हुए, पर ऐसा जान पड़ता है, दुनिया में न जाने क्या-क्या परिवर्तन हो गए। पथिकों को राह चलते देखने में भी अब एक विचित्र आनंद था। बाहर का संसार कभी इतना मोहक नथा।
वह कभी-कभी सोचती है-उसने सफाई दी होती, तो शायद बरी हो जाती पर क्या मालूम था, चित्त की यह दशा होगी। वे भावनाएं, जो कभी भूलकर मन में न आती थीं, अब किसी रोगी की कुपथ्य-चेष्टाओं की भांति मन को उद्विग्न करती रहती थीं। झूला झूलने की उसे कभी इच्छा न होती थी पर आज बार-बार जी चाहता था-रस्सी हो, तो इसी वृक्ष में झूला डालकर झूले। अहाते में ग्वालों की लड़कियां भैंसें चराती हुई आम की उबाली हुई गुठलियां तोड़-तोड़कर खा रही हैं। सुखदा ने एक बार बचपन में एक गुठली चखी थी। उस वक्त वह कसैली लगी थी। फिर उस अनुभव को उसने नहीं दुहराया पर इस समय उन गुठलियों पर उसका मन ललचा रहा है। उनकी कठोरता, उनका सोंधापन, उनकी सुगंध उसे कभी इतनी प्रिय न लगी थी। उसका चित्त कुछ अधिक कोमल हो गया है, जैसे पाल में पड़कर कोई फल अधिक रसीला, स्वादिष्ट, मधुर, मुलायम हो गया हो। मुन्ने को वह एक क्षण के लिए भी आंखों से ओझल न होने देती। वही उसके जीवन का आधार था। दिन में कई बार उसके लिए दूध, हलवा आदि पकाती। उसके साथ दौड़ती, खेलती, यहां तक कि जब वह बुआ या दादा के लिए रोता, तो खुद रोने लगती थी। अब उसे बार-बार अमर की याद आती है। उसकी गिरफ्तारी और सजा का सामाचार पाकर उन्होंने जो खत लिखा होगा, उसे पढ़ने के लिए उसका मन तड़प-तड़प कर रह जाता है।
लेडी मेट'न ने आकर कहा-सुखदादेवी, तुम्हारे ससुर तुमसे मिलने आए हैं। तैयार हो जाओ साहब ने बीस मिनट का समय दिया है।
सुखदा ने चटपट मुन्ने का मुंह धोया, नए कपड़े पहनाए, जो कई दिन पहले जेल में सिले थे, और उसे गोद में लिए मेट'न के साथ बाहर निकली, मानो पहले ही से तैयार बैठी हो।
मुलाकात का कमरा जेल के मधय में था और रास्ता बाहर ही से था। एक महीने के बाद जेल से बाहर निकलकर सुखदा को ऐसा उल्लास हो रहा था, मानो कोई रोगी शय्या से उठा हो। जी चाहता था, सामने के मैदान में खूब उछले और मुन्ना तो चिड़ियों के पीछे दौड़ रहा था।
लाला समरकान्त वहां पहले ही से बैठे हुए थे। मुन्ने को देखते ही गद्गद हो गए और गोद में उठाकर बार-बार उसका मुंह चूमने लगे। उसके लिए मिठाई, खिलौने, फल, कपड़ा, पूरा एक गट्ठर लाए थे। सुखदा भी श्रध्दा और भक्ति से पुलकित हो उठी उनके चरणों पर गिर पड़ी और रोने लगी इसलिए नहीं कि उस पर कोई विपत्ति पड़ी है, बल्कि रोने में ही आनंद आ रहा है।
समरकान्त ने आशीर्वाद देते हुए पूछा-यहां तुम्हें जिस बात का कष्ट हो, मेट'न साहब से कहना। मुझ पर इनकी बड़ी कृपा है। मुन्ना अब शाम को रोज बाहर खेला करेगा और किसी बात की तकलीफ तो नहीं है-
सुखदा ने देखा, समरकान्त दुबले हो गए हैं। स्नेह से उसका हृदय जैसे झलक उठा। बोली-मैं तो यहां बड़े आराम से हूं पर आप क्यों इतने दुबले हो गए हैं-
'यह न पूछो, यह पूछो कि आप जीते कैसे हैं- नैना भी चली गई, अब घर भूतों का डेरा हो गया है। सुनता हूं लाला मनीराम अपने पिता से अलग होकर दूसरा विवाह करने जा रहे हैं। तुम्हारी माताजी तीर्थ-यात्रा करने चली गईं। शहर में आंदोलन चलाया जा रहा है। उस जमीन पर दिन-भर जनता की भीड़ लगी रहती है। कुछ लोग रात को वहां सोते हैं। एक दिन तो रातो-रात वहां सैंकडों झोंपड़े खड़े हो गए लेकिन दूसरे दिन पुलिस ने उन्हें जला दिया और कई चौधरियों को पकड़ लिया।'
सुखदा ने मन-ही-मन हर्षित होकर पूछा-यह लोगों ने क्या नादानी की वहां अब कोठियां बनने लगी होंगी-
समरकान्त बोले-हां ईंटें, चूना, सुर्खी तो जमा की गई थी लेकिन एक दिन रातों-रात सारा सामान उड़ गया। ईंटें बखेर दी गईं, चूना मिट्टी में मिला दिया गया। तब से वहां किसी को मजूर ही नहीं मिलते। न कोई बेलदार जाता है, न कारीगर। रात को पुलिस का पहरा रहता है। वही बुढ़िया पठानिन आजकल वहां सब कुछ कर-धर रही है। ऐसा संगठन कर लिया है कि आश्चर्य होता है।
जिस काम में वह असफल हुई, उसे वह खप्पट बुढ़िया सुचाई रूप से चला रही है इस विचार से उसके आत्माभिमान को चोट लगी। बोली-वह बुढ़िया तो चल-फिर भी न पाती थी।
'हां, वही बुढ़िया अच्छे-अच्छों के दांत खट्टे कर रही है। जनता को तो उसने ऐसे मुट्ठी में कर लिया है कि क्या कहूं- भीतर बैठे हुए कल घुमाने वाले शान्ति बाबू हैं।'
सुखदा ने आज तक उनसे या किसी से, अमरकान्त के विषय में कुछ न पूछा था पर इस वक्त वह मन को न रोक सकी-हरिद्वार से कोई पत्र आया था-
लाला समरकान्त की मुद्रा कठोर हो गई। बोले-हां, आया था। उसी शोहदे सलीम का खत था। वही उस इलाके का हाकिम है। उसने भी पकड़-धकड़ शुरू कर दी है। उसने खुद लालाजी को गिरफ्तार किया। यह आपके मित्रों का हाल है। अब आंखें खुली होंगी। मेरा क्या बिगड़ा- अब ठोकरें खा रहे हैं। अब जेल में चक्की पीस रहे होंगे। गए थे गरीबों की सेवा करने। यह उसी का उपहार है। मैं तो ऐसे मित्र को गोली मार देता। गिरफ्तार तक हुए पर मुझे पत्र न लिखा। उसके हिसाब से तो मैं मर गया मगर बुङ्ढा अभी मरने का नाम नहीं लेता, चैन से खाता है और सोता है। किसी के मनाने से नहीं मरा जाता। जरा यह मुठमरदी देखो कि घर में किसी को खबर तक न दी। मैं दुश्मन था, नैना तो दुश्मन न थी, शान्तिकुमार तो दुश्मन न थे। यहां से कोई जाकर मुकदमे की पैरवी करता, तो ए, बी. का दर्जा तो मिल जाता। नहीं, मामूली कैदियों की तरह पड़े हुए हैं आप रोएंगे, मेरा क्या बिगड़ता है।
सुखदा कातर कंठ से बोली-आप अब क्यों नहीं चले जाते-
समरकान्त ने नाक सिकोड़कर कहा-मैं क्यों जाऊं, अपने कर्मों का फल भोगे। वह लड़की जो थी, सकीना, उसकी शादी की बातचीत उसी दुष्ट सलीम से हो रही है, जिसने लालाजी को गिरफ्तार किया है। अब आंखें खुली होंगी।
सुखदा ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में कहा-आप तो उन्हें कोस रहे हैं, दादा वास्तव में दोष उनका न था। सरासर मेरा अपराध था। उनका-सा तपस्वी पुरुष मुझ-जैसी विलासिनी के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता था बल्कि यों कहो कि दोष न मेरा था, न आपका, न उनका, सारा विष लक्ष्मी ने बोया। आपके घर में उनके लिए स्थान न था। आप उनसे बराबर खिंचे रहते थे। मैं भी उसी जलवायु में पली थी। उन्हें न पहचान सकी। वह अच्छा या बुरा जो कुछ करते थे, घर में उसका विरोध होता था। बात-बात पर उनका अपमान किया जाता था। ऐसी दशा में कोई भी संतुष्ट न रह सकता था। मैंने यहां एकांत में इस प्रश्न पर खूब विचार किया है और मुझे अपना दोष स्वीकार करने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है। आप एक क्षण भी यहां न ठहरें। वहां जाकर अधिकारियों से मिलें, सलीम से मिलें और उनके लिए जो कुछ हो सके, करें। हमने उनकी विशाल तपस्वी आत्मा को भोग के बंधनो से बंधकर रखना चाहा था। आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिजड़े में बंद करना चाहते थे। जब पक्षी पिंजड़े को तोड़कर उड़ गया, तो मैंने समझा, मैं अभागिनी हूं। आज मुझे मालूम हो रहा है, वह मेरा परम सौभाग्य था।
समरकान्त एक क्षण तक चकित नेत्रों से सुखदा की ओर ताकते रहे, मानो अपने कानों पर विश्वास न आ रहा हो। इस शीतल क्षमा ने जैसे उनके मुरझाए हुए पुत्र-स्नेह को हरा कर दिया। बोले-इसकी तो मैंने खूब जांच की, बात कुछ नहीं थी। उस पर क्रोध था, उसी क्रोध में जो कुछ मुंह में आ गया, बक गया। यह ऐब उसमें कभी न था लेकिन उस वक्त मैं भी अंधा हो रहा था। फिर मैं कहता हूं, मिथ्या नहीं, सत्य ही सही, सोलहों आने सत्य सही, तो क्या संसार में जितने ऐसे मनुष्य हैं, उनकी गरदन काट दी जाती है- मैं बड़े-बड़े व्यभिचारियों के सामने मस्तक नवाता हूं। तो फिर अपने ही घर में और उन्हीं के ऊपर जिनसे किसी प्रतिकार की शंका नहीं, धर्म और सदाचार का सारा भार लाद दिया जाय- मनुष्य पर जब प्रेम का बंधन नहीं होता तभी वह व्यभिचार करने लगता है। भिक्षुक द्वार-द्वार इसीलिए जाता है कि एक द्वार से उसकी क्षुधा-तृप्ति नहीं होती। अगर इसे दोष भी मान लूं, तो ईश्वर ने क्यों निर्दोष संसार नहीं बनाया- जो कहो कि ईश्वर की इच्छा ऐसी नहीं है, तो मैं पूछूंगा, जब सब ईश्वर के अधीन है, तो वह मन को ऐसा क्यों बना देता है कि उसे किसी टूटी झोंपड़ी की भांति बहुत-सी थूनियों से संभलना पड़े। यहां तो ऐसा ही है जैसे किसी रोगी से कहा जाय कि तू अच्छा हो जा। अगर रोगी में सामर्थ्य होती, तो वह बीमार ही क्यों पड़ता-
एक ही सांस में अपने हृदय का सारा मालिन्य उंडेल देने के बाद लालाजी दम लेने के लिए रूक गए। जो कुछ इधर-उधर लगा-चिपटा रह गया हो, शायद उसे भी खुरचकर निकाल देने का प्रयत्न कर रहे थे।
सुखदा ने पूछा-तो आप वहां कब जा रहे हैं-
लालाजी ने तत्परता से कहा-आज ही, इधर ही से चला जाऊंगा। सुना है, वहां जोरों से दमन हो रहा है। अब तो वहां का हाल समाचार-पत्रों में भी छपने लगा। कई दिन हुए, मुन्नी नाम की कोई स्त्री भी कई आदमियों के साथ गिरफ्तार हुई है। कुछ इसी तरह की हलचल सारे प्रांत, बल्कि सारे देश में मची हुई है। सभी जगह पकड़-धकड़ हो रही है।
बालक कमरे के बाहर निकल गया था। लालाजी ने उसे पुकारा, तो वह सड़क की ओर भागा। समरकान्त भी उसके पीछे दौड़े। बालक ने समझा, खेल हो रहा है। और तेज दौड़ा। ढाई-तीन साल के बालक की तेजी ही क्या, किन्तु समरकान्त जैसे स्थूल आदमी के लिए पूरी कसरत थी। बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ा।
एक मिनट के बाद कुछ इस भाव से बोले, जैसे कोई सारगार्भित कथन हो-मैं तो सोचता हूं, जो लोग जाति-हित के लिए अपनी जान होम करने को हरदम तैयार रहते हैं, उनकी बुराइयों पर निगाह ही न डालनी चाहिए।
सुखदा ने विरोध किया-यह न कहिए, दादा ऐसे मनुष्यों का चरित्र आदर्श होना चाहिए नहीं तो उनके परोपकार में भी स्वार्थ और वासना की गंध आने लगेगी।
समरकान्त ने तत्व्ज्ञान की बात कही-स्वार्थ मैं उसी को कहता हूं, जिसके मिलने से चित्त को हर्ष और न मिलने से क्षोभ हो। ऐसा प्राणी, जिसे हर्ष और क्षोभ हो ही नहीं, मनुष्य नहीं, देवता भी नहीं, जड़ है।
सुखदा मुस्कराई-तो संसार में कोई निस्वार्थ हो ही नहीं सकता-
'असंभव स्वार्थ छोटा हो, तो स्वार्थ है बड़ा हो, तो उपकार है। मेरा तो विचार है, ईश्वर-भक्ति भी स्वार्थ है।'
मुलाकात का समय कब का गुजर चुका था। मेट'न अब और रिआयत न कर सकती थी। समरकान्त ने बालक को प्यार किया, बहू को आशीर्वाद दिया और बाहर निकले।
बहुत दिनों के बाद आज उन्हें अपने भीतर आनंद और प्रकाश का अनुभव हुआ, मानो चन्द्रदेव के मुख से मेघों का आवरण हट गया हो।
भाग 2
सुखदा अपने कमरे में पहुंची, तो देखा-एक युवती कैदियों के कपड़े पहने उसके कमरे की सफाई कर रही है। एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डांटती जाती है।
चौकीदारिन ने कैदिन की पीठ पर लात मारकर कहा-रांड, तुझे झाड़ू लगाना भी नहीं आता गर्द क्यों उड़ाती है- हाथ दबाकर लगा।
कैदिन ने झाडू फेंक दी और तमतमाते हुए मुख से बोली-मैं यहां किसी की टहल करने नहीं आई हूं।
'तब क्या रानी बनकर आई है?'
'हां, रानी बनकर आई हूं। किसी की चाकरी करना मेरा काम नहीं है।'
'तू झाडू लगाएगी कि नहीं?'
'भलमनसी से कहो, तो मैं तुम्हारे भंगी के घर में भी झाडू लगा दूंगी लेकिन मार का भय दिखाकर तुम मुझसे राजा के घर में भी झाडू नहीं लगवा सकतीं। इतना समझ रखो।'
'तू न लगाएगी झाडू?'
'नहीं ।'
चौकीदारिन ने कैदिन के केश पकड़ लिए और खींचती हुई कमरे के बाहर ले चली। रह-रहकर गालों पर तमाचे भी लगाती जाती थी।
'चल जेलर साहब के पास।'
'हां, ले चलो। मैं यही उनसे भी कहूंगी। मार-गाली खाने नहीं आई हूं।'
सुखदा के लगातार लिखा-पढ़ी करने पर यह टहलनी दी गई थी पर यह कांड देखकर सुखदा का मन क्षुब्ध हो उठा। इस कमरे में कदम रखना भी उसे बुरा लग रहा था।
कैदिन ने उसकी ओर सजल आंखों से देखकर कहा-तुम गवाह रहना। इस चौकीदारिन ने मुझे कितना मारा है।
सुखदा ने समीप जाकर चौकीदारिन को हटाया और कैदिन का हाथ पकड़कर कमरे में ले गई।
चौकीदारिन ने धमकाकर कहा-रोज सबेरे यहां आ जाया कर। जो काम यह कहें, वह किया कर। नहीं डंडे पड़ेंगे।
कैदिन क्रोध से कांप रही थी-मैं किसी की लौंडी नहीं हूं और न यह काम करूंगी। किसी रानी-महारानी की टहल करने नहीं आई। जेल में सब बराबर हैं ।
सुखदा ने देखा, युवती में आत्म-सम्मान की कमी नहीं। लज्जित होकर बोली-यहां कोई रानी-महारानी नहीं है बहन, मेरा जी अकेले घबराया करता था, इसलिए तुम्हें बुला लिया। हम दोनों यहां बहनों की तरह रहेंगी। क्या नाम है तुम्हारा-
युवती की कठोर मुद्रा नर्म पड़ गई। बोली-मेरा नाम मुन्नी है। हरिद्वार से आई हूं।
सुखदा चौंक पड़ी। लाला समरकान्त ने यही नाम तो लिया था। पूछा-वहां किस अपराध में सजा हुई-
'अपराध क्या था- सरकार जमीन का लगान नहीं कम करती थी। चार आने की छूट हुई। जिंस का दाम आधा भी नहीं उतरा। हम किसके घर से ला के देते- इस बात पर हमने फरियाद की। बस, सरकार ने सजा देना शुरू कर दिया।'
मुन्नी को सुखदा अदालत में कई बार देख चुकी थी। तब से उसकी सूरत बहुत कुछ बदल गई थी। पूछा-तुम बाबू अमरकान्त को जानती हो- वह भी इसी मुआमले में गिरफ्तार हुए हैं-
मुन्नी प्रसन्न हो गई-जानती क्यों नहीं, वह तो मेरे ही घर में रहते थे। तुम उन्हें कैसे जानती हो- वही तो हमारे अगुआ हैं।
सुखदा ने कहा-मैं भी काशी की रहने वाली हूं। उसी मुहल्ले में उनका भी घर है। तुम क्या ब्राह्यणी हो-
'हूं तो ठकुरानी, पर अब कुछ नहीं हूं। जात-पांत, पूत-भतार सबको खो बैठी।'
'अमर बाबू कभी अपने घर की बातचीत नहीं करते थे?'
'कभी नहीं। न कभी आना न जाना न चिट़ठी, न पत्तार।'
सुखदा ने कनखियों से देखकर कहा-मगर वह तो बड़े रसिक आदमी हैं। वहां गांव में किसी पर डोरे नहीं डाले-
मुन्नी ने जीभ दांतों तले दबाई-कभी नहीं बहूजी, कभी नहीं। मैंने तो उन्हें कभी किसी मेहरिया की ओर ताकते या हंसते नहीं देखा। न जाने किस बात पर घरवाली से रूठ गए। तुम तो जानती होगी-
सुखदा ने मुस्कराते हुए कहा-रूठ क्या गए, स्त्री को छोड़ दिया। छिपकर घर से भाग गए। बेचारी औरत घर में बैठी हुई है। तुमको मालूम न होगा उन्होंने जरूर कहीं-न-कहीं दिल लगाया होगा।
मुन्नी ने दाहिने हाथ को सांप के फन की भांति हिलाते हुए कहा-ऐसी बात होती, तो गांव में छिपी न रहती, बहूजी मैं तो रोज ही दो-चार बार उनके पास जाती थी। कभी सिर ऊपर न उठाते थे। फिर उस देहात में ऐसी थी ही कौन, जिस पर उनका मन चलता। न कोई पढ़ी-लिखी, न गुन, न सहूर।
सुखदा ने नब्ज टटोली-मर्द गुन-सहूर, पढ़ना-लिखना नहीं देखते। वह तो रूप-रंग देखते हैं और वह तुम्हें भगवान् ने दिया ही है। जवान भी हो।
मुन्नी ने मुंह फेरकर कहा-तुम तो गाली देती हो, बहूजी मेरी ओर भला वह क्या देखते, जो उनके पांव की जूतियों के बराबर नहीं लेकिन तुम कौन हो बहूजी, तुम यहां कैसे आईं-
'जैसे तुम आईं, वैसे ही मैं भी आई।'
'तो यहां भी वही हलचल है?'
'हां, कुछ उसी तरह की है।'
मुन्नी को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि ऐसी विदुषी देवियां भी जेल में भेजी गई हैं। भला इन्हें किस बात का दु:ख होगा-
उसने डरते-डरते पूछा-तुम्हारे स्वामी भी सजा पा गए होंगे-
'हां, तभी तो मैं आई।'
मुन्नी ने छत की ओर देखकर आशीर्वाद दिया-भगवान् तुम्हारा मनोरथ पूरा करे, बहूजी गद़दी-मसनद लगाने वाली रानियां जब तपस्या करने लगीं, तो भगवान् वरदान भी जल्दी ही देंगे। कितने दिन की सजा हुई है- मुझे तो छ: महीने की है।
सुखदा ने अपनी सजा की मियाद बताकर कहा-तुम्हारे जिले में बड़ी सख्तियां हो रही होंगी। तुम्हारा क्या विचार है, लोग सख्ती से दब जाएंगे-
मुन्नी ने मानो क्षमा-याचना की-मेरे सामने तो लोग यही कहते थे कि चाहे फांसी पर चढ़ जाएं, पर आधो से बेसी लगान न देंगे लेकिन दिल से सोचो, जब बैल बधिए छीने जाने लगेंगे, सिपाही घरों में घुसेंगे, मरदों पर डंडे और गोलियों की मार पड़ेगी, तो आदमी कहां तक सहेगा- मुझे पकड़ने के लिए तो पूरी फौज गई थी। पचास आदमियों से कम न होंगे। गोली चलते-चलते बची। हजारों आदमी जमा हो गए। कितना समझाती थी-भाइयो, अपने-अपने घर जाओ, मुझे जाने दो लेकिन कौन सुनता है- आखिर जब मैंने कसम दिलाई, तो लोग लौटे नहीं, उसी दिन दस-पांच की जान जाती। न जाने भगवान् कहां सोए हैं कि इतना अन्याय देखते हैं और नहीं बोलते। साल में छ: महीने एक जून खाकर बेचारे दिन काटते हैं, चीथड़े पहनते हैं, लेकिन सरकार को देखो, तो उन्हीं की गरदन पर सवार हाकिमों को तो अपने लिए बंगला चाहिए, मोटर चाहिए, हर नियामत खाने को चाहिए, सैर-तमाशा चाहिए, पर गरीबों का इतना सुख भी नहीं देखा जाता जिसे देखो, गरीबों ही का रक्त चूसने को तैयार है। हम जमा करने को नहीं मांगते, न हमें भोग-विलास की इच्छा है, लेकिन पेट को रोटी और तन ढांकने को कपड़ा तो चाहिए। साल-भर खाने-पहनने को छोड़ दो, गृहस्थी का जो कुछ खरच पड़े वह दे दो। बाकी जितना बचे, उठा ले जाओ। मुर्दा गरीबों की कौन सुनता है-
सुखदा ने देखा, इस गंवारिन के हृदय में कितनी सहानुभूति, कितनी दया, कितनी जागृति भरी हुई है। अमर के त्याग और सेवा की उसने जिन शब्दों में सराहना की, उसने जैसे सुखदा के अंत:करण की सारी मलिनताओं को धोकर निर्मल कर दिया, जैसे उसके मन में प्रकाश आ गया हो, और उसकी सारी शंकाएं और चिंताएं अंधकार की भांति मिट गई हों। अमरकान्त का कल्पना-चित्र उसकी आंखों के सामने आ खड़ा हुआ-कैदियों का जांघिया-कंटोप पहने, बड़े-बड़े बाल बढ़ाए, मुख मलिन, कैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ। वह भयभीत होकर कांप उठी। उसका हृदय कभी इतना कोमल न था।
मेट'न ने आकर कहा-अब तो आपको नौकरानी मिल गई। इससे खूब काम लो।
सुखदा धीमे स्वर में बोली-मुझे अब नौकरानी की इच्छा नहीं है मेमसाहब, मैं यहां रहना भी नहीं चाहती। आप मुझे मामूली कैदियों में भेज दीजिए।
मेट'न छोटे कद की ऐग्लो-इंडियन महिला थी। चौड़ा मुंह, छोटी-छोटी आंखें, तराशे हुए बाल, घुटनों के ऊपर तक का स्कर्ट पहने हुए। विस्मय से बोली-यह क्या कहती हो, सुखदादेवी- नौकरानी मिल गया और जिस चीज का तकलीफ हो हमसे कहो, हम जेलर साहब से कहेगा।
सुखदा ने नम्रता से कहा-आपकी इस कृपा के लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूं। मैं अब किसी तरह की रियायत नहीं चाहती। मैं चाहती हूं कि मुझे मामूली कैदियों की तरह रखा जाय।
'नीच औरतों के साथ रहना पड़ेगा। खाना भी वही मिलेगा।'
'यही तो मैं चाहती हूं।'
'काम भी वही करना पड़ेगा। शायद चक्की पीसने का काम दे दें।'
'कोई हरज नहीं।'
'घर के आदमियों से तीसरे महीने मुलाकात हो सकेगी।'
'मालूम है।'
मेट'न की लाला समरकान्त ने खूब पूजा की थी। इस शिकार के हाथ से निकल जाने का दु:ख हो रहा था। कुछ देर समझाती रही। जब सुखदा ने अपनी राय न बदली, तो पछताती हुई चली गई।
मुन्नी ने पूछा-मेम साहब क्या कहती थी-
सुखदा ने मुन्नी को स्नेह-भरी आंखों से देखा-अब मैं तुम्हारे ही साथ रहूंगी, मुन्नी।
मुन्नी ने छाती पर हाथ रखकर कहा-यह क्या करती हो, बहू- वहां तुमसे न रहा जाएगा।
सुखदा ने प्रसन्न मुख से कहा-जहां तुम रह सकती हो, वहां मैं भी रह सकती हूं।
एक घंटे के बाद जब सुखदा यहां से मुन्नी के साथ चली, तो उसका मन आशा और भय से कांप रहा था, जैसे कोई बालक परीक्षा में सफल होकर अगली कक्षा में गया हो।
भाग 3
पुलिस ने उस पहाड़ी इलाके का घेरा डाल रखा था। सिपाही और सवार चौबीसों घंटे घूमते रहते थे। पांच आदमियों से ज्यादा एक जगह जमा न हो सकते थे। शाम को आठ बजे के बाद कोई घर से निकल न सकता था। पुलिस को इत्तिला दिए बगैर घर में मेहमान को ठहराने की भी मनाही थी। फौजी कानून जारी कर दिया गया था। कितने ही घर जला दिए गए थे और उनके रहने वाले हबूड़ों की भांति वृक्षों के नीचे बाल-बच्चों को लिए पड़े थे। पाठशाला में आग लगा दी गई थी और उसकी आधी-आधी काली दीवारें मानो केश खोले मातम कर रही थीं। स्वामी आत्मानन्द बांस की छतरी लगाए अब भी वहां डटे हुए थे। जरा-सा मौका पाते ही इधर-उधर से दस-बीस आदमी आकर जमा हो जाते पर सवारों को आते देखा और गायब।
सहसा लाला समरकान्त एक गट्ठर पीठ पर लादे मदरसे के सामने आकर खड़े हो गए। स्वामी ने दौड़कर उनका बिस्तर ले लिया और खाट की फिक्र में दौड़े। गांव-भर में बिजली की तरह खबर दौड़ गई-भैया के बाप आए हैं। हैं तो वृध्द मगर अभी टनमन हैं। सेठ-साहूकार से लगते हैं। एक क्षण में बहुत से आदमियों ने आकर घेर लिया। किसी के सिर में पट्टी बंधी थी, किसी के हाथ में। कई लंगड़ा रहे थे। शाम हो गई और आज कोई विशेष खटका न देखकर और सारे इलाके में डंडे के बल से शांति स्थापित करके पुलिस विश्राम कर रही थी। बेचारे रात-दिन दौड़ते-दौड़ते अधमरे हो गए थे।
गूदड़ ने लाठी टेकते हुए आकर समरकान्त के चरण छुए और बोले-अमर भैया का समाचार तो आपको मिला होगा। आजकल तो पुलिस का धावा है। हाकिम कहता है-बारह आने लेंगे, हम कहते हैं हमारे पास है ही नहीं, दें कहां से- बहुत-से लोग तो गांव छोड़कर भाग गए। जो हैं, उनकी दसा आप देख ही रहे हैं। मुन्नी बहू को पकड़कर जेल में डाल दिया। आप ऐसे समय में आए कि आपकी कुछ खातिर भी नहीं कर सकते।
समरकान्त मदरसे के चबूतरे पर बैठ गए और सिर पर हाथ रखकर सोचने लगे-इन गरीबों की क्या सहायता करें- क्रोध की एक ज्वाला-सी उठकर रोम-रोम में व्याप्त हो गई, पूछा-यहां कोई अफसर भी तो होगा-
गूदड़ ने कहा-हां, अफसर तो एक नहीं, पच्चीस हैं जी। सबसे बड़ा अफसर तो वही मियांजी हैं, जो अमर भैया के दोस्त हैं।
'तुम लोगों ने उस लगंगे से पूछा नहीं-मारपीट क्यों करते हो, क्या यह भी कानून है?'
गूदड़ ने सलोनी की मड़ैया की ओर देखकर कहा-भैया, कहते तो सब कुछ हैं, जब कोई सुने सलीम साहब ने खुद अपने हाथों से हंटर मारे। उनकी बेदर्दी देखकर पुलिस वाले भी दांतों तले उंगली दबाते थे। सलोनी मेरी भावज लगती है। उसने उनके मुंह पर थूक दिया था। यह उसे न करना चाहिए था। पागलपन था और क्या- मियां साहब आग हो गए और बुढ़िया को इतने हंटर जमाए कि भगवान् ही बचाए तो बचे। मुर्दा वह भी है अपनी धुन की पक्की, हरेक हंटर पर गाली देती थी। जब बेदम होकर गिर पड़ी, तब जाकर उसका मुंह बंद हुआ। भैया उसे काकी-काकी करते रहते थे। कहीं से आवें, सबसे पहले काकी के पास जाते थे। उठने लायक होती तो जरूर-से-जरूर आती।
आत्मानन्द ने चिढ़कर कहा-अरे तो अब रहने भी दे, क्या सब आज ही कह डालोगे- पानी मंगवाओ, आप हाथ-मुंह धोएं, जरा आराम करने दो, थके-मांदे आ रहे हैं-वह देखो, सलोनी को भी खबर मिल गई, लाठी टेकती चली आ रही है ।
सलोनी ने पास आकर कहा-कहां हो देवरजी, सावन में आते तो तुम्हारे साथ झूला झूलती, चले हो कातिक में जिसका ऐसा सरदार और ऐसा बेटा, उसे किसका डर और किसकी चिंता तुम्हें देखकर सारा दु:ख भूल गई, देवरजी ।
समरकान्त ने देखा-सलोनी की सारी देह सूज उठी है और साड़ी पर लहू के दाग सूखकर कत्थई हो गए हैं। मुंह सूजा हुआ है। इस मुरदे पर इतना क्रोध उस पर विद्वान् बनता है उनकी आंखों में खून उतर आया। हिंसा-भावना मन में प्रचंड हो उठी। निर्बल क्रोध और चाहे कुछ न कर सके, भगवान् की खबर जरूर लेता है। तुम अंतर्यामी हो, सर्वशक्तिमान हो, दीनों के रक्षक हो और तुम्हारी आंखों के सामने यह अंधेर इस जगत का नियंता कोई नहीं है। कोई दयामय भगवान् सृष्टि का कर्ता होता, तो यह अत्याचार न होता अच्छे सर्वशक्तिमान हो। क्यों नरपिशाचों के हृदय में नहीं पैठ जाते, या वहां तुम्हारी पहुंच नहीं है- कहते हैं, यह सब भगवान् की लीला है। अच्छी लीला है अगर तुम्हें इस व्यापार की खबर नहीं है, तो फिर सर्वव्यापी क्यों कहलाते हो-
समरकान्त धार्मिक प्रवृत्ति के आदमी थे। धर्म-ग्रंथों का अधययन किया था। भगवद्गीता का नित्य पाठ किया करते थे, पर इस समय वह सारा धर्मज्ञान उन्हें पाखंड-सा प्रतीत हुआ।
वह उसी तरह उठ खड़े हुए और पूछा-सलीम तो सदर में होगा-
आत्मानन्द ने कहा-आजकल तो यहीं पड़ाव है। डाक बंगले में ठहरे हुए हैं।
'मैं जरा उनसे मिलूंगा।'
'अभी वह क्रोध में हैं, आप मिलकर क्या कीजिएगा। आपको भी अपशब्द कह बैठेंगे।'
'यही देखने तो जाता हूं कि मनुष्य की पशुता किस सीमा तक जा सकती है।'
'तो चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं।'
गूदड़ बोल उठे-नहीं-नहीं, तुम न जइयो, स्वामीजी भैया, यह हैं तो संन्यासी और दया के अवतार, मुर्दा क्रोध में भी दुर्वासा मुनि से कम नहीं हैं। जब हाकिम साहब सलोनी को मार रहे थे, तब चार आदमी इन्हें पकड़े हुए थे, नहीं तो उस बखत मियां का खून चूस लेते, चाहे पीछे से फांसी हो जाती। गांव भर की मरहम-पट्टी इन्हीं के सुपुर्द है।
सलोनी ने समरकान्त का हाथ पकड़कर कहा-मैं चलूंगी तुम्हारे साथ देवरजी। उसे दिखा दूंगी कि बुढ़िया तेरी छाती पर मूंग दलने को बैठी हुई है तू मारनहार है, तो कोई तुझसे बड़ा राखनहार भी है। जब तक उसका हुकम न होगा, तू क्या मार सकेगा ।
भगवान् में उसकी यह अपार निष्ठा देखकर समरकान्त की आंखें सजल हो गईं, सोचा -मुझसे तो ये मूर्ख ही अच्छे जो इतनी पीड़ा और दु:ख सहकर भी तुम्हारा ही नाम रटते हैं। बोले-नहीं भाभी, मुझे अकेले जाने दो। मैं अभी उनसे दो-दो बातें करके लौट आता हूं।
सलोनी लाठी संभाल रही थी कि समरकान्त चल पड़े। तेजा और दुरजन आगे-आगे डाक बंगले का रास्ता दिखाते हुए चले।
तेजा ने पूछा-दादा, जब अमर भैया छोटे-से थे, तो बड़े शैतान थे न-
समरकान्त ने इस प्रश्न का आशय न समझकर कहा-नहीं तो, वह तो लड़कपन ही से बड़ा सुशील था।
दुरजन ताली बजाकर बोला-अब कहो तेजू, हारे कि नहीं- दादा, हमारा-इनका यह झगड़ा है कि यह कहते हैं, जो लड़के बचपन में बड़े शैतान होते हैं, वही बड़े होकर सुशील हो जाते हैं, और मैं कहता हूं, जो लड़कपन में सुशील होते हैं, वही बड़े होकर भी सुशील रहते हैं। जो बात आदमी में है नहीं वह बीच में कहां से आ जाएगी-
तेजा ने शंका की-लड़के में तो अकल भी नहीं होती, जवान होने पर कहां से आ जाती है- अखुवे में तो खाली दो दल होते हैं, फिर उनमें डाल-पात कहां से आ जाते हैं- यह कोई बात नहीं। मैं ऐसे कितने ही नामी आदमियों के उदाहरण दे सकता हूं, जो बचपन में बड़े पाजी थे, पर आगे चलकर महात्मा हो गए।
समरकान्त को बालकों के इस तर्क में बड़ा आनंद आया। मधयस्थ बनकर दोनों ओर कुछ सहारा देते जाते थे। रास्ते में एक जगह कीचड़ भरा हुआ था। समरकान्त के जूते कीचड़ में फंसकर पांव से निकल गए। इस पर बड़ी हंसी हुई।
सामने से पांच सवार आते दिखाई दिए। तेजा ने एक पत्थर उठाकर एक सवार पर निशाना मारा। उसकी पगड़ी जमीन पर गिर पड़ी। वह तो घोड़े से उतरकर पगड़ी उठाने लगा, बाकी चारों घोड़े दौड़ाते हुए समरकान्त के पास आ पहुंचे।
तेजा दौड़कर एक पेड़ पर चढ़ गया। दो सवार उसके पीछे दौड़े और नीचे से गालियां देने लगे। बाकी तीन सवारों ने समरकान्त को घेर लिया और एक ने हंटर निकालकर ऊपर उठाया ही था कि एकाएक चौंक पड़ा और बोला-अरे आप हैं सेठजी आप यहां कहां-
सेठजी ने सलीम को पहचानकर कहा-हां-हां, चला दो हंटर, रूक क्यों गए- अपनी कारगुजारी दिखाने का ऐसा मौका फिर कहां मिलेगा- हाकिम होकर गरीबों पर हंटर न चलाया, तो हाकिमी किस काम की-
सलीम लज्जित हो गया-आप इन लौंडों की शरारत देख रहे हैं, फिर भी मुझी को कसूरवार ठहराते हैं। उसने ऐसा पत्थर मारा कि इन दारोगाजी की पगड़ी गिर गई। खैरियत हुई कि आंख में न लगा।
समरकान्त आवेश में औचित्य को भूलकर बोले-ठीक तो है, जब उस लौंडे ने पत्थर चलाया, जो अभी नादान है, तो फिर हमारे हाकिम साहब जो विद्या के सफर हैं, क्या हंटर भी न चलाएं - कह दो दोनों सवार पेड़ पर चढ़ जाएं, लौंडे को ढकेल दें, नीचे गिर पड़े। मर जाएगा, तो क्या हुआ, हाकिम से बेअदबी करने की सजा तो पा जाएगा।
सलीम ने सफाई दी-आप तो अभी आए हैं, आपको क्या खबर यहां के लोग कितने मुफसिद हैं- एक बुढ़िया ने मेरे मुंह पर थूक दिया, मैंने जब्त किया, वरना सारा गांव जेल में होता।
समरकान्त यह बमगोला खाकर भी परास्त न हुए-तुम्हारे जब्त की बानगी देखे आ रहा हूं बेटा, अब मुंह न खुलवाओ। वह अगर जाहिल बेसमझ औरत थी, तो तुम्हीं ने आलिम-गाजिल होकर कोन-सी शराफत की- उसकी सारी देह लहू-लुहान हो रही है। शायद बचेगी भी नहीं। कुछ याद है कितने आदमियों के अंग-भंग हुए- सब तुम्हारे नाम की दुआएं दे रहे हैं। अगर उनसे रुपये न वसूल होते थे, तो बेदखल कर सकते थे, उनकी फसल कुर्क कर सकते थे। मार-पीट का कानून कहां से निकला-
'बेदखली से क्या नतीजा, जमीन का यहां कौन खरीददार है- आखिर सरकारी रकम कैसे वसूल की जाए?'
'तो मार डालो सारे गांव को, देखो कितने रुपये वसूल होते हैं। तुमसे मुझे ऐसी आशा न थी, मगर शायद हुकूमत में कुछ नशा होता है।'
'आपने अभी इन लोगों की बदमाशी नहीं देखी। मेरे साथ आइए, तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं आप इस वक्त आ कहां से रहे हैं?'
समरकान्त ने अपने लखनऊ आने और सुखदा से मिलने का हाल कहा। फिर मतलब की बात छेड़ी-अमर तो यहीं होगा- सुना, तीसरे दरजे में रखा गया है।
अंधेरा ज्यादा हो गया था। कुछ ठंड भी पड़ने लगी थी। चार सवार तो गांव की तरफ चले गए, सलीम घोड़े की रास थामे हुए पांव-पांव समरकान्त के साथ डाक बंगले चला।
कुछ दूर चलने के बाद समरकान्त बोले-तुमने दोस्त के साथ खूब दोस्ती निभाई। जेल भेज दिया, अच्छा किया, मगर कम-से-कम उसे कोई अच्छा दरजा तो दिला देते। मगर हाकिम ठहरे, अपने दोस्त की सिफारिश कैसे करते-
सलीम ने व्यथित कंठ से कहा-आप तो लालाजी, मुझी पर सारा गुस्सा उतार रहे हैं। मैंने तो दूसरा दरजा दिला दिया था मगर अमर खुद मामूली कैदियों के साथ रहने पर जिद करने लगे, तो मैं क्या करता- मेरी बदनसीबी है कि यहां आते ही मुझे वह सब कुछ करना पड़ा, जिससे मुझे नफरत थी।
डाक बंगले पहुंचकर सेठजी एक आरामकुरसी पर लेट गए और बोले-तो मेरा यहां आना व्यर्थ हुआ। जब वह अपनी खुशी से तीसरे दरजे में है, तो लाचारी है। मुलाकात हो जाएगी-
सलीम ने उत्तर दिया-मैं आपके साथ चलूंगा। मुलाकात की तारीख तो अभी नहीं आई है, मगर जेल वाले शायद मान जाएं। हां, अंदेशा अमर की तरफ से है। वह किसी किस्म की रिआयत नहीं चाहते।
उसने जरा मुस्कराकर कहा-अब तो आप भी इन कामों में शरीक होने लगे-
सेठजी ने नम्रता से कहा-अब मैं इस उम्र में क्या काम करूंगा। बूढ़े दिल में जवानी का जोश कहां से आए- बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है और मैं चैन से खाता-पीता हूं। आराम से सोता हूं। मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है, मैंने गरीबों का कितना खून चूसा है, कितने घर तबाह किए हैं। उसकी याद करके खुद शर्मिंदा हो जाता हूं। अगर जवानी में समझ आ गई होती, तो कुछ अपना सुधार करता। अब क्या करूंगा- बाप संतान का गुरू होता है। उसी के पीछे लड़के चलते हैं। मुझे अपने लड़कों के पीछे चलना पड़ा। मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वांग को धर्म समझे हुए था। यही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि दुनिया का कैंडा ही बिगड़ा हुआ है। जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी, हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे। ईश्वर ने संसार को क्यों इस ढंग पर लगाया, यह मेरी समझ में नहीं आता। दुनिया को जायदाद के मोह-बंधन से छुड़ाना पड़ेगा, तभी आदमी आदमी होगा, तभी दुनिया से पाप का नाश होगा।
सलीम ऐसी ऊंची बातों में न पड़ना चाहता था। उसने सोचा-जब मैं भी इनकी तरह जिंदगी के सुख भोग लूंगा तो मरते-समय फिलासफर बन जाऊंगा। दोनों कई मिनट तक चुपचाप बैठे रहे। फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले-नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है। इसकी मैं बुराई नहीं करता। हां, एक बात कहूंगा। जिन पर तुमने जुल्म किया है, चलकर उनके आंसू पोंछ दो। यह गरीब आदमी थोड़ी-सी भलमनसी से काबू में आ जाते हैं। सरकार की नीति तो तुम नहीं बदल सकते, लेकिन इतना तो कर सकते हो कि किसी पर बेजा सख्ती न करो।
सलीम ने शरमाते हुए कहा-लोगों की गुस्ताखी पर गुस्सा आ जाता है, वरना मैं तो खुद नहीं चाहता कि किसी पर सख्ती करूं। फिर सिर पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। लगान न वसूल हुआ, तो मैं कितना नालायक समझा जाऊंगा-
समरकान्त ने तेज होकर कहा-तो बेटा, लगान तो न वसूल होगा, हां आदमियों के खून से हाथ रंग सकते हो।
'यही तो देखना है।'
'देख लेना। मैंने भी इसी दुनिया में बाल सफेद किए हैं। हमारे किसान अफसरों की सूरत से कांपते थे, लेकिन जमाना बदल रहा है। अब उन्हें भी मान-अपमान का खयाल होता है। तुम मुर्ति में बदनामी उठा रहे हो।'
'अपना फर्ज अदा करना बदनामी है, तो मुझे उसकी परवाह नहीं।'
समरकान्त ने अफसरी के इस अभिमान पर हंसकर कहा-फर्ज में थोड़ी-सी मिठास मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हां, बन बहुत कुछ जाता है, यह बेचारे किसान ऐसे गरीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना गुलाम बना सकते हो। हुकूमत वह बहुत झेल चुके। अब भलमनसी का बरताब चाहते हैं। जिस औरत को तुमने हंटरों से मारा, उसे एक बार माता कहकर उसकी गरदन काट सकते थे। यह मत समझो कि तुम उन पर हुकूमत करने आए हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आए हो मान लिया, तुम्हें तलब सरकार से मिलती है, लेकिन आती तो है इन्हीं की गांठ से। कोई मूर्ख हो तो उसे समझाऊं। तुम भगवान् की कृपा से आप ही विद्वान् हो। तुम्हें क्या समझाऊं- तुम पुलिस वालों की बातों में आ गए। यही बात है न-
सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता-
लेकिन समरकान्त अड़े रहे-मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नजर नहीं लेना चाहते, लेकिन जिन लोगों की रोटियां नोच-खसोट पर चलती हैं उन्होंने जरूर तुम्हें भरा होगा। तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें गरीबों पर जुल्म करने का अफसोस है। मैं यह तो नहीं चाहता कि आठ आने से एक पाई भी ज्यादा वसूल करो, लेकिन दिलजोई के साथ तुम बेशी भी वसूल कर सकते हो। जो भूखों मरते हैं चिथड़े पहनकर और पुआल में सोकर दिन काटते हैं उनसे एक पैसा भी दबाकर लेना अन्याय है। जब हम और तुम दो-चार घंटे आराम से काम करके आराम से रहना चाहते हैं, जायदादें बनाना चाहते हैं, शौक की चीजें जमा करते हैं, तो क्या यह अन्याय नहीं है कि जो लोग स्त्री-बच्चों समेत अठारह घंटे रोज काम करें, वह रोटी-कपड़े को तरसें- बेचारे गरीब हैं, बेजबान हैं, अपने को संगठित नहीं कर सकते, इसलिए सभी छोटे-बड़े उन पर रोब जमाते हैं। मगर तुम जैसे सहृदय और विद्वान् लोग भी वही करने लगें, जो मामूली अमले करते हैं, तो अफसोस होता है। अपने साथ किसी को मत लो, मेरे साथ चलो। मैं जिम्मा लेता हूं कि कोई तुमसे गुस्ताखी न करेगा। उनके जख्म पर मरहम रख दो, मैं इतना ही चाहता हूं। जब तक जिएंगे, बेचारे तुम्हें याद करेंगे। सद्भाव में सम्मोहन का-सा असर होता है।
सलीम का हृदय अभी इतना काला न हुआ था कि उस पर कोई रंग ही न चढ़ता। सकुचाता हुआ बोला-मेरी तरफ से आप ही को कहना पड़ेगा।
'हां-हां, यह सब मैं कह दूंगा, लेकिन ऐसा न हो, मैं उधर चलूं, इधर तुम हंटरबाजी शुरू करो।'
'अब ज्यादा शर्मिंदा न कीजिए।'
'तुम यह तजवीज क्यों नहीं करते कि असामियों की हालत की जांच की जाय। आंखें बंद करके हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं। पहले अपना इत्मीनान तो कर लो कि तुम बेइंसाफी तो नहीं कर रहे हो- तुम खुद ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते- मुमकिन है हुक्कम इसे पसंद न करें, लेकिन हक के लिए कुछ नुकसान उठाना पड़े, तो क्या चिंता?'
सलीम को यह बातें न्याय-संगत जान पड़ीं। खूंटे की पतली नोक जमीन के अंदर पहुंच चुकी थी। बोला-इस बुजुर्गाना सलाह के लिए आपका एहसानमंद हूं और उस पर अमल करने की कोशिश करूंगा।
भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा-आपके लिए क्या खाना बनवाऊं-
'जो चाहे बनवाओ, पर इतना याद रखो कि मैं हिन्दू हूं और पुराने जमाने का आदमी हूं। अभी तक छूत-छात को मानता हूं।'
'आप छूत-छात को अच्छा समझते हैं?'
'अच्छा तो नहीं समझता पर मानता हूं।'
'तब मानते ही क्यों हैं?'
'इसलिए कि संस्कारों को मिटाना मुश्किल है। अगर जरूरत पड़े, तो मैं तुम्हारा मल उठाकर फेंक दूंगा लेकिन तुम्हारी थाली में मुझसे न खाया जाएगा।'
'मैं तो आज आपको अपने साथ बैठाकर खिलाऊंगा।'
'तुम प्याज, मांस, अंडे खाते हो। मुझसे तो उन बरतनों में खाया ही न जाएगा।'
'आप यह सब कुछ न खाइएगा मगर मेरे साथ बैठना पड़ेगा। मैं रोज साबुन लगाकर नहाता हूं।'
'बरतनों को खूब साफ करा लेना।'
'आपका खाना हिन्दू बनाएगा, साहब बस, एक मेज पर बैठकर खा लेना।'
'अच्छा खा लूंगा, भाई मैं दूध और घी खूब खाता हूं।'
सेठजी तो संध्योंपासन करने बैठे, फिर पाठ करने लगे। इधर सलीम के साथ के एक हिन्दू कांस्टेबल ने पूरी, कचौरी, हलवा, खीर पकाई। दही पहले ही से रखा हुआ था। सलीम खुद आज यही भोजन करेगा। सेठजी संध्यू करके लौटे, तो देखा दो कंबल बिछे हुए हैं और थालियां रखी हुई हैं।
सेठजी ने खुश होकर कहा-यह तुमने बहुत अच्छा इन्तजाम किया।
सलीम ने हंसकर कहा-मैंने सोचा, आपका धर्म क्यों लूं, नहीं एक ही कंबल रखता।
'अगर यह खयाल है, तो तुम मेरे कंबल पर आ जाओ। नहीं, मैं ही आता हूं।'
वह थाली उठाकर सलीम के कंबल पर आ बैठे। अपने विचार में आज उन्होंने अपने जीवन का सबसे महान् त्याग किया। सारी संपत्ति दान देकर भी उनका हृदय इतना गौरवान्वित न होता।
सलीम ने चुटकी ली-अब तो आप मुसलमान हो गए।
सेठजी बोले-मैं मुसलमान नहीं हुआ। तुम हिन्दू हो गए।
भाग 4
प्रात:काल समरकान्त और सलीम डाकबंगले से गांव की ओर चले। पहाड़ियों से नीली भाप उठ रही थी और प्रकाश का हृदय जैसे किसी अव्यक्त वेदना से भारी हो रहा था। चारों ओर सन्नाटा था। पृथ्वी किसी रोगी की भांति कोहरे के नीचे पड़ी सिहर रही थी। कुछ लोग बंदरों की भांति छप्परों पर बैठे उसकी मरम्मत कर रहे थे और कहीं-कहीं स्त्रियां गोबर पाथ रही थीं। दोनों आदमी पहले सलोनी के घर गए।
सलोनी को ज्वर चढ़ा हुआ था और सारी देह फोड़े क़ी भांति दुख रही थी मगर उसे गाने की धुन सवार थी-
सन्तो देखत जग बौराना।
सांच कहो तो मारन धावे, झूठ जगत पतिआना, सन्तो देखत...
मनोव्यथा जब असह्य और अपार हो जाती है जब उसे कहीं त्राण नहीं मिलता जब वह रूदन और क्रंदन की गोद में भी आश्रय नहीं पाती, तो वह संगीत के चरणों पर जा गिरती है।
समरकान्त ने पुकारा-भाभी, जरा बाहर तो आओ।
सलोनी चटपट उठकर पके बालों को घूंघट से छिपाती, नवयौवना की भांति लजाती आकर खड़ी हो गई और पूछा-तुम कहां चले गए थे, देवरजी-
सहसा सलीम को देखकर वह एक पग पीछे हट गई और जैसे गाली दी-यह तो हाकिम है ।
फिर सिंहनी की भांति झपटकर उसने सलीम को ऐसा धक्का दिया कि वह गिरते-गिरते बचा, और जब तक समरकान्त उसे हटाएं-हटाएं, सलीम की गरदन पकड़कर इस तरह दबाई, मानो घोंट देगी।
सेठजी ने उसे बल-पूर्वक हटाकर कहा-पगला गई है क्या, भाभी- अलग हट जा, सुनती नहीं-
सलोनी ने फटी-फटी प्रज्वलित आंखों से सलीम को घूरते हुए कहा-मार तो दिखा दूं, आज मेरा सरदार आ गया है सिर कुचलकर रख देगा ।
समरकान्त ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा-सरदार के मुंह में कालिख लगा रही हो और क्या- बूढ़ी हो गई, मरने के दिन आ गए और अभी लड़कपन नहीं गया। यही तुम्हारा धर्म है कि कोई हाकिम द्वार पर आए तो उसका अपमान करो ।
सलोनी ने मन में कहा-यह लाला भी ठकुरसुहाती करते हैं। लड़का पकड़ गया है न, इसी से। फिर दुराग्रह से बोली-पूछो इसने सबको पीटा नहीं था-
सेठजी बिगड़कर बोले-तुम हाकिम होतीं और गांव वाले तुम्हें देखते ही लाठियां ले-लेकर निकल आते, तो तुम क्या करतीं- जब प्रजा लड़ने पर तैयार हो जाय, तो हाकिम क्या पूजा करे अमर होता तो वह लाठी लेकर न दौड़ता- गांव वालों को लाजिम था कि हाकिम के पास आकर अपना-अपना हाल कहते, अरज-विनती करते अदब से, नम्रता से। यह नहीं कि हाकिम को देखा और मारने दौड़े, मानो वह तुम्हारा दुश्मन है। मैं इन्हें समझा-बुझाकर लाया था कि मेल करा दूं, दिलों की सफाई हो जाय, और तुम उनसे लड़ने पर तैयार हो गईं।
यहां की हलचल सुनकर गांव के और कई आदमी जमा हो गए। पर किसी ने सलीम को सलाम नहीं किया। सबकी त्योरियां चढ़ी हुई थीं।
समरकान्त ने उन्हें संबोधित किया-तुम्हीं लोग सोचो। यह साहब तुम्हारे हाकिम हैं। जब रियाया हाकिम के साथ गुस्ताखी करती है, तो हाकिम को भी क्रोध आ जाय तो कोई ताज्जुब नहीं। यह बेचारे तो अपने को हाकिम समझते ही नहीं। लेकिन इज्जत तो सभी चाहते हैं, हाकिम हों या न हों। कोई आदमी अपनी बेइज्जती नहीं देख सकता। बोलो गूदड़, कुछ गलत कहता हूं-
गूदड़ ने सिर झुकाकर कहा-नहीं मालिक, सच ही कहते हो। मुर्दा वह तो बावली है। उसकी किसी बात का बुरा न मानो। सबके मुंह में कालिख लगा रही है और क्या।
'यह हमारे लड़के के बराबर हैं। अमर के साथ पढ़े, उन्हीं के साथ खेले। तुमने अपनी आंखों देखा कि अमर को गिरफ्तार करने यह अकेले आए थे। क्या समझकर क्या पुलिस को भेजकर न पकड़वा सकते थे- सिपाही हुक्म पाते ही आते और धक्के देकर बंध ले जाते। इनकी शराफत थी कि खुद आए और किसी पुलिस को साथ न लाए। अमर ने भी यही किया, जो उसका धर्म था। अकेले आदमी को बेइज्जत करना चाहते, तो क्या मुश्किल था- अब तक जो कुछ हुआ, उसका इन्हें रंज हैं, हालांकि कसूर तुम लोगों का भी था- अब तुम भी पिछली बातों को भूल जाओ। इनकी तरफ से अब किसी तरह की सख्ती न होगी। इन्हें तुम्हारी जायदाद नीलाम करने का हुक्म मिलेगा, नीलाम करेंगे गिरफ्तार करने का हुक्म मिलेगा, गिरफ्तार करेंगे तुम्हें बुरा न लगना चाहिए। तुम धर्म की लड़ाई लड़ रहे हो। लड़ाई नहीं, यह तपस्या है। तपस्या में क्रोध और द्वेष आ जाता है, तो तपस्या भंग हो जाती है।'
स्वामीजी बोले-धर्म की रक्षा एक ओर से नहीं होती सरकार नीति बनाती है। उसे नीति की रक्षा करनी चाहिए। जब उसके कर्मचारी नीति को पैरों से कुचलते हैं, तो फिर जनता कैसे नीति की रक्षा कर सकती है-
समरकान्त ने फटकार बताई-आप संन्यासी होकर ऐसा कहते हैं, स्वामीजी आपको अपनी नीतिपरकता से अपने शासकों को नीति पर लाना है। यदि वह नीति पर ही होते, तो आपको यह तपस्या क्यों करनी पड़ती- आप अनीति पर अनीति से नहीं, नीति से विजय पा सकते हैं।
स्वामीजी का मुंह जरा-सा निकल आया। जबान बंद हो गई।
सलोनी का पीड़ित हृदय पक्षी के समान पिंजरे से निकलकर भी कोई आश्रय खोज रहा था। सज्जनता और सत्प्रेणा से भरा हुआ यह तिरस्कार उसके सामने जैसे दाने बिखेरने लगा। पक्षी ने दो-चार बार गरदन झुकाकर दानों को सतर्क नेत्रों से देखा, फिर अपने रक्षक को 'आ, आ' करते सुना और पैर फैलाकर दानों पर उतर आया।
सलोनी आंखों में आंसू भरे, दोनों हाथ जोड़े, सलीम के सामने आकर बोली-सरकार, मुझसे बड़ी खता हो गई। माफी दीजिए। मुझे जूतों से पीटिए.।
सेठजी ने कहा-सरकार नहीं, बेटा कहो।
'बेटा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मूरख हूं, बावली हूं। जो चाहे सजा दो।'
सलीम के युवा नेत्र भी सजल हो गए। हुकूमत का रोब और अधिकार का गर्व भूल गया। बोला-माताजी, मुझे शर्मिंदा न करो। यहां जितने लोग खड़े हैं, मैं उन सबसे और जो यहां नहीं हैं, उनसे भी अपनी खताओं की मुआफी चाहता हूं।
गूदड़ ने कहा-हम तुम्हारे गुलाम हैं भैया लेकिन मूरख जो ठहरे, आदमी पहचानते तो क्यों इतनी बातें होतीं-
स्वामीजी ने समरकान्त के कान में कहा-मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि दगा करेगा।
सेठजी ने आश्वासन दिया-कभी नहीं। नौकरी चाहे चली जाय पर तुम्हें सताएगा नहीं। शरीफ आदमी है।
'तो क्या हमें पूरा लगान देना पड़ेगा?'
'जब कुछ है ही नहीं, तो दोगे कहां से?'
स्वामीजी हटे तो सलीम ने आकर सेठजी के कान में कुछ कहा।
सेठजी मुस्कराकर बोले-यह साहब तुम लोगों के दवा-दारू के लिए एक सौ रुपये भेंट कर रहे हैं। मैं अपनी ओर से उसमें नौ सौ रुपये मिलाए देता हूं। स्वामीजी, डाक बंगले पर चलकर मुझसे रुपये ले लो।
गूदड़ ने कृतज्ञता को दबाते हुए कहा-भैया' पर मुख से एक शब्द भी न निकला।
समरकान्त बोले-यह मत समझो कि यह मेरे रुपये हैं। मैं अपने बाप के घर से नहीं लाया। तुम्हीं से, तुम्हारा ही गला दबाकर लिए थे। वह तुम्हें लौटा रहा हूं।
गांव में जहां सियापा छाया हुआ था, वहां रौनक नजर आने लगी। जैसे कोई संगीत वायु में घुल गया हो ।