Hindi Kavita
हिंदी कविता
Shri Krishna Bal-Madhuri-Bhakt Surdas Ji
श्रीकृष्ण बाल-माधुरी-भक्त सूरदास जी
51. बाल बिनोद खरो जिय भावत - सूरदास
बाल बिनोद खरो जिय भावत ।
मुख प्रतिबिंब पकरिबे कारन हुलसि घुटुरुवनि धावत ॥
अखिल ब्रह्मंड-खंड की महिमा, सिसुता माहिं दुरावत ।
सब्द जोरि बोल्यौ चाहत हैं, प्रगट बचन नहिं आवत ॥
कमल-नैन माखन माँगत हैं करि करि सैन बतावत ।
सूरदास स्वामी सुख-सागर, जसुमति-प्रीति बढ़ावत ॥
52. मैं बलि स्याम, मनोहर नैन - सूरदास
मैं बलि स्याम, मनोहर नैन ।
जब चितवत मो तन करि अँखियन, मधुप देत मनु सैन ॥
कुंचित, अलक, तिलक गोरोचन, ससि पर हरि के ऐन ।
कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि, उपजावत सुख चैन ॥
कबहुँक रोवत-हँसत बलि गई, बोलत मधुरे बैन ।
कबहुँक ठाढ़े होत टेकि कर, चलि न सकत इक गैन ॥
देखत बदन करौं न्यौछावरि, तात-मात सुख-दैन ।
सूर बाल-लीला के ऊपर, बारौं कोटिक मैन ॥
राग सारंग
53. किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत - सूरदास
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
कबहुँ निरखि हरि आपु छाहँ कौं, कर सौं पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहिं अवगाहत ॥
कनक-भूमि पद कर-पग-छाया, यह उपमा इक राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रति मनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ॥
बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति ।
अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥
राग धनाश्री
54. नंद-धाम खेलत हरि डोलत - सूरदास
नंद-धाम खेलत हरि डोलत ।
जसुमति करति रसोई भीतर, आपुन किलकत बोलत ॥
टेरि उठी जसुमति मोहन कौं, आवहु काहैं न धाइ ।
बैन सुनत माता पहिचानी, चले घुटुरुवनि पाइ ॥
लै उठाइ अंचल गहि पोंछै, धूरि भरी सब देह ।
सूरज प्रभु जसुमति रज झारति,कहाँ भरी यह खेह ॥
राग बिलावल
55. धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै - सूरदास
धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै ।
तनक-तनक भुज पकरि कै, ठाढ़ौ होन सिखावै ॥
लरखतरात गिरि परत हैं, चलि घुटुरुनि धावैं ।
पुनि क्रम-क्रम भुज टेकि कै, पग द्वैक चलावैं ॥
अपने पाइनि कबहिं लौं, मोहिं देखन धावै ।
सूरदास जसुमति इहै बिधि सौं जु मनावै ॥
राग सूहौ बिलावल
56. हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना - सूरदास
हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना ।
मनिमय आँगन नदराइ कौ, बाल-गोपाल करैं तहँ रँगना ॥
गिरि-गिरि परत घुटुरुवनि रेंगत, खेलत हैं दोउ छगना-मगना ।
धूसरि धूरि दुहूँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछँगना ॥
बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिनहिं कठिन भयो देहरी उलँघना ।
सूरदास प्रभु ब्रज-बधु निरखति, रुचिर हार हिय बधना ॥
राग कान्हरौ
57. चलन चहत पाइनि गोपाल - सूरदास
चलन चहत पाइनि गोपाल ।
लए लाइ अँगुरी नंदरानी, सुंदर स्याम तमाल ॥
डगमगात गिरि परत पानि पर, भुज भ्राजत नँदलाल ।
जनु सिर पर ससि जानि अधोमुख, धुकत नलिनि नमि नाल ॥
धूरि-धौत तन, अंजन नैननि, चलत लटपटी चाल ।
चरन रनित नूपुर-ध्वनि, मानौ बिहरत बाल मराल ॥
लट लटकनि सिर चारु चखौड़ा, सुठि सोभा सिसु भाल ।
सूरदास ऐसौ सुख निरखत, जग जीजै बहु काल ॥
राग सूहौ बिलावल
58. सिखवति चलन जसोदा मैया - सूरदास
सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया ॥
कबहुँक सुंदर बदन बिलोकति, उर आनँद भरि लेति बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ॥
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति, इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥
राग बिलावल
59. भावत हरि कौ बाल-बिनोद - सूरदास
भावत हरि कौ बाल-बिनोद ।
स्याम -राम-मुख निरखि-निरखि सुख-मुदित रोहिनी, जननि जसोद ॥
आँगन-पंक-राग तन सोभित, चल नूपुर-धुनि सुनि मन मोद ।
परम सनेह बढ़ावत मातनि, रबकि-रबकि हरि बैठत गोद ॥
आनँद-कंद, सकल सुखदायक, निसि-दिन रहत केलि-रस ओद ।
सूरदास प्रभु अंबुज-लोचन, फिरि-फिरि चितवत ब्रज-जन-कोद ॥
60. सूच्छम चरन चलावत बल करि
सूच्छम चरन चलावत बल करि ।
अटपटात, कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तन-मन धरि ॥
मृदु पद धरत धरनि ठहरात न, इत-उत भुज जुग लै-लै भरि-भरि ।
पुलकित सुमुखीभई स्याम-रस ज्यौं जल मैं दाँची गागरि गरि ॥
सूरदास सिसुता-सुख जलनिधि, कहँ लौं कहौं नाहिं कोउ समसरि ।
बिबुधनि मनतर मान रमत ब्रज, निरखत जसुमति सुख छिन-पल-धरि ॥
राग सूहौ
61. बाल-बिनोद आँगन की डोलनि - सूरदास
बाल-बिनोद आँगन की डोलनि ।
मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि-बलि जाउँ तोतरे बोलनि ॥
कठुला कंठ कुटिल केहरि-नख, ब्रज-माल बहु लाल अमोलनि ।
बदन सरोज तिलक गोरोचन, लट लटकनि मधुकर-गति डोलनि ॥
कर नवनीत परस आनन सौं, कछुक खात, कछु लग्यो कपोलनि ।
कहि जन सूर कहाँ लौं बरनौं, धन्य नंद जीवन जग तोलनि ॥
राग बिलावल
62. गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत - सूरदास
गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत ।
अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥
बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत ।
दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥
कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक रिंगावत ।
कबहुँ धरनि पर बैठि कै, मन मैं कछु गावत ॥
कबहुँ उलटि चलैं धाम कौं, घुटुरुनि करि धावत ।
सूर स्याम-मुख लखि महर, मन हरष बढ़ावत ॥
63. कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी - सूरदास
कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी ।
जो मन मैं अभिलाष करति ही, सो देखति नँद-घरनी ॥
रुनुक-झुनुक नूपुर पग बाजत, धुनि अतिहीं मन-हरनी ।
बैठि जात पुनि उठत तुरतहीं सो छबि जाइ न बरनी ॥
ब्रज-जुवती सब देखि थकित भइँ, सुंदरता की सरनी ।
चिरजीवहु जसुदा कौ नंदन सूरदास कौं तरनी ॥
राग धनाश्री
64. चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि - सूरदास
चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि पग-पग चारु मनोहर ।
डगमगात डोलत आँगन मैं, निरखि बिनोद मगन सुर-मुनि-नर ॥
उदित मुदित अति जननि जसोदा, पाछैं फिरति गहे अँगुरी कर ।
मनौ धेनु तृन छाँड़ि बच्छ-हित , प्रेम द्वित चित स्रवत पयोधर ॥
कुंडल लोल कपोल बिराजत,लटकति ललित लटुरिया भ्रू पर ।
सूर स्याम-सुंदर अवलोकत बिहरत बाल-गोपाल नंद-घर ॥
राग बिलावल
65. भीतर तैं बाहर लौं आवत - सूरदास
भीतर तैं बाहर लौं आवत ।
घर-आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत ॥
गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत ।
अहुँठ पैग बसुधा सब कीनी, धाम अवधि बिरमावत ॥
मन हीं मन बलबीर कहत हैं, ऐसे रंग बनावत ।
सूरदास प्रभु अगनित महिमा, भगतनि कैं मन भावत ॥
राग-गौरी
66. चलत देखि जसुमति सुख पावै - सूरदास
चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमुकि-ठुमुकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ॥
देहरि लौं चलि जात, बहुरि फिर-फिरि इत हीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ॥
कोटि ब्रह्मंड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिये नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ॥
तब जसुमति कर टेकि स्याम कौ, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि-देखि, सुर-नर-मुनि बुद्धि भुलावै ॥
राग धनाश्री
67. सो बल कहा भयौ भगवान - सूरदास
सो बल कहा भयौ भगवान ?
जिहिं बल मीन रूप जल थाह्यौ, लियौ निगम,हति असुर-परान ॥
जिहिं बल कमठ-पीठि पर गिरि धरि, जल सिंधु मथि कियौ बिमान ।
जिहिं बल रूप बराह दसन पर, राखी पुहुमी पुहुप समान ॥
जिहिं बल हिरनकसिप-उर फार्यौ, भए भगत कौं कृपानिधान ।
जिहिं बल बलि बंधन करि पठयौ, बसुधा त्रैपद करी प्रमान ॥
जिहिं बल बिप्र तिलक दै थाप्यौ, रच्छा करी आप बिदमान ।
जिहिं बल रावन के सिर काटे, कियौ बिभीषन नृपति निदान ॥
जिहिं बल जामवंत-मद मेट्यौ, जिहिं बल भू-बिनती सुनि कान ।
सूरदास अब धाम-देहरी चढ़ि न सकत प्रभु खरे अजान ॥
राग भैरव
68. देखो अद्भुत अबिगत की गति - सूरदास
देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्यौ है (हो)!
तीनि लोक जाकें उदर-भवन, सो सूप कैं कोन पर्यौ है (हो)!
जाकैं नाल भए ब्रह्मादिक, सकल जोग ब्रत साध्यो (हो)!
ताकौ नाल छीनि ब्रज-जुवती बाँटि तगा सौं बाँध्यौ (हो) !
जिहिं मुख कौं समाधि सिव साधी आराधन ठहराने (हो) !
सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध-लार लपटाने (हो) !
जिन स्रवननि जन की बिपदा सुनि, गरुड़ासन तजि धावै (हो) !
तिन स्रवननि ह्वै निकट जसोदा, हलरावै अरु गावै (हो) !
बिस्व-भरन-पोषन, सब समरथ, माखन-काज अरे हैं (हो) !
रूप बिराट कोटि प्रति रोमनि, पलना माँझ परे हैं (हो) !
जिहिं भुज बल प्रहलाद उबार्यौ, हिरनकसिप उर फारे (हो)
सो भुज पकरि कहति ब्रजनारी, ठाढ़े होहु लला रे (हो) !
जाकौ ध्यान न पायौ सुर-मुनि, संभु समाधि न टारी (हो)!
सोई सूर प्रगट या ब्रज मैं, गोकुल-गोप-बिहारी (हो) !
राग आसावरी
69. साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद - सूरदास
साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद ।
अति सुख पूरन परमानंद ॥
तीनि पैड जाके धरनि न आवै ।
ताहि जसोदा चलन सिखावै ॥
जाकी चितवनि काल डराई ।
ताहि महरि कर-लकुटि दिखाई ॥
जाकौ नाम कोटि भ्रम टारै ।
तापर राई-लोन उतारै ॥
सेवक सूर कहा कहि गावै ।
कृपा भई जो भक्तिहिं पावै ॥
राग अहीरी
70. आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा - सूरदास
आनँद-प्रेम उमंगि जसोदा, खरी गुपाल खिलावै ।
कबहुँक हिलकै-किलकै जननी मन-सुख-सिंधु बढ़ावै ॥
दै करताल बजावति, गावति, राग अनूप मल्हावै ।
कबहुँक पल्लव पानि गहावै, आँगन माँझ रिंगावै ॥
सिव सनकादि, सुकादि, ब्रह्मादिक खोजत अंत न पावैं ।
गोद लिए ताकौं हलरावैं तोतरे बैन बुलावै ॥
मोहे सुर, नर, किन्नर, मुनिजन, रबि रथ नाहिं चलावै ।
मोहि रहीं ब्रज की जुवती सब, सूरदास जस गावै ॥
राग आसावरी
71. हरि हरि हँसत मेरौ माधैया - सूरदास
हरि हरि हँसत मेरौ माधैया ।
देहरि चढ़त परत गिर-गिर, कर पल्लव गहति जु मैया ॥
भक्ति-हेत जसुदा के आगैं, धरनी चरन धरैया ।
जिनि चरनि छलियौ बलि राजा, नख गंगा जु बहैया ॥
जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रबि-ससि कोटि उगैया ।
सूरदास तिन प्रभु चरननि की, बलि-बलि मैं बलि जैया ॥
राग कान्हरौ
72. झुनक स्याम की पैजनियाँ - सूरदास
झुनक स्याम की पैजनियाँ ।
जसुमति-सुत कौ चलन सिखावति, अँगुरी गहि-गहि दोउ जनियाँ ॥
स्याम बरन पर पीत झँगुलिया, सीस कुलहिया चौतनियाँ ।
जाकौ ब्रह्मा पार न पावत, ताहि खिलावति ग्वालिनियाँ ॥
दूरि न जाहु निकट ही खेलौ, मैं बलिहारी रेंगनियाँ ।
सूरदास जसुमति बलिहारी, सुतहिं खिलावति लै कनियाँ ॥
73. चलत लाल पैजनि के चाइ - सूरदास
चलत लाल पैजनि के चाइ ।
पुनि-पुनि होत नयौ-नयौ आनँद, पुनि-पुनि निरखत पाइ ॥
छोटौ बदन छोटियै झिंगुली, कटि किंकिनी बनाइ ।
राजत जंत्र-हार, केहरि-नख पहुँची रतन-जराइ ॥
भाल तिलक पख स्याम चखौड़ा जननी लेति बलाइ ।
तनक लाल नवनीत लिए कर सूरज बलि-बलि जाइ ॥
74. मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत - सूरदास
मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री ।
ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री ॥
देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री ।
मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री ॥
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री ।
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री ॥
हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री ।
तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री ॥
जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री ।
तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री ॥
तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री ।
जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री ॥
टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री ।
सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री ॥
कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ री ।
इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री ॥
राग आसावरी
75. जब तैं आँगन खेलत देख्यौ - सूरदास
जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री ।
तब तैं गृह सौं नातौं टूट्यौ, जैसैं काँचौं सूत री ॥
अति बिसाल बारिज-दल-लोचन, राजति काजर-रेख री ।
इच्छा सौं मकरंद लेत मनु अलि गोलक के बेष री ॥
स्रवन सुनत उतकंठ रहत हैं, जब बोलत तुतरात री ।
उमँगै प्रेम नैन-मग ह्वै कै, कापै रोक्यौ जात री ॥
दमकति दोउ दूधकी दँतियाँ,जगमग जगमग होति री ।
मानौ सुंदरता-मंदिर मैं रूप रतन की ज्योति री ॥
सूरदास देखैं सुंदर मुख, आनँद उर न समाइ री ।
मानौ कुमद कामना-पूरन, पूरन इंदुहिं पाइ री ॥
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