Hindi Kavita
हिंदी कविता
मैथिलीशरण गुप्त-स्वदेश संगीत
Maithilisharan Gupt-Swadesh Sangeet
मैथिलीशरण गुप्त-निवेदन | Maithili Sharan Gupt
राम, तुम्हें यह देश न भूले,
धाम-धरा-धन जाय भले ही,
यह अपना उद्देश्य न भूले।
निज भाषा, निज भाव न भूले,
निज भूषा, निज वेश न भूले।
प्रभो, तुम्हें भी सिन्धु पार से
मैथिलीशरण गुप्त-विनय | Maithili Sharan Gupt
आवें ईश ! ऐसे योग
हिल मिल तुम्हारी ओर होवें अग्रसर हम लोग।।
जिन दिव्य भावों का करें अनुभव तथा उपयोग
उनको स्वभाषा में भरें हम सब करें जो भोग।।
विज्ञान के हित, ज्ञान के हित सब करें उद्योग।
स्वच्छन्द परमानन्द पावें मेट कर भव-रोग।।
मैथिलीशरण गुप्त-प्रार्थना | Maithili Sharan Gupt
दयानिधे, निज दया दिखा कर
एक वार फिर हमें जगा दो।
धर्म्म-नीति की रीति सिखा कर
प्रीति-दान कर भीर्ति भगा दो।।
समय-सिन्धु चंचल है भारी,
कर्णधार, हो कृपा तुम्हारी;
भार-भरी है तरी हमारी,
एक वार ही न डगमगा दो।।
ह्रास मिटे अब, फिर विकास हो;
सभी गुणों का स्थिर निवास हो;
रुचिर शान्ति का चिर विलास हो;
विश्व-प्रेम में हमें पगा दो।।
राम-रूप का शील-सत्व दो,
सेतुबन्ध-रचना-महत्त्व दो;
श्याम-रूप का रास-तत्व दो,
कुरुक्षेत्र का सु-गीत गा दो।।
ज्ञान-मार्ग की बात बता दो;
कर्म-मार्ग का पूर्ण पता दो;
काल-चक्र की चाल जता दो;
भक्ति-मार्ग में हमें लगा दो।।
फूट फैल कर फूट रही है;
उद्यमता सिर कूट रही है;
और अलसता लूट रही है;
न आप से ही हमें ठगा दो।।
रहे न यह जड़ता जीवन में;
जागरुकता हो जन जन में;
तन में बल, साहस हो मन में;
नई ज्योतियाँ सु जगमगा दो।।
मैथिलीशरण गुप्त-कर्तव्य | Maithili Sharan Gupt
भावुक ! भरा भाव-रत्नों से,
भाषा के भाण्डार भरो ।।
देर करो न देशवासी गण,
अपनी उन्नति आप करो ।।
एक हदय से, एक ईश का,
धरो, विविध विध ध्यान धरो ।।
विश्व-प्रेम-रत, रोम रोम से,
गद्गद निर्झर-सदृश झरो ।।
मन से; वाणी से, कर्मों से,
आधि, व्याधि, उपाधि हरो ।।
अक्षय आत्मा के अधिकारी,
किसी विघ्न-भय से न डरो ।।
विचरो अपने पैरों के बल,
भुजबल से भव-सिन्धु तरो ।।
जियो कर्म के लिए जगत में-
और धर्म के लिए मरो ।।
मैथिलीशरण गुप्त-नूतन वर्ष | Maithili Sharan Gupt
नूतन वर्ष !
आते हो? स्वागत, आओ;
नूतन हर्ष,
नूतन आशाएं लाओ ।
हमें खिलाकर खिल जाओ ।।
तुम गत वर्ष !
जाते हो? रोकें कैसे?
हा हतवर्स !
जाओ, नैश स्वप्न जैसे ।
निश्वासों में मिल जाओ ।।
जाने को नव वर्ष चला है,
और न आने को गत वर्ष ।
भुक्ति-मुक्ति के लिए भला है,
आवागमनशील संघर्ष ।।
मैथिलीशरण गुप्त-स्वराज्य | Maithili Sharan Gupt
जो पर-पदार्थ के इच्छुक हैं,
वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं ।
हम को तो 'स्व' पद-विहीन कहीं
है स्वयं राज्य भी इष्ट नहीं!!
मैथिलीशरण गुप्त-व्यापार | Maithili Sharan Gupt
करो तुम मिलजुल कर व्यापार ।
देखो, होता है कि नहीं फिर भारत का उद्धार ।।
बहुत दिनों तक देख चुके हो दासपने का द्वार ।
अब अपना अवलम्ब आप लो, समझो उसका मार ।।
या दारुण दारिद्रय दशा क्यों, क्यों यह हाहाकार?
भिक्षावृति नहीं कर सकती इस विपत्ति से पार ।।
भरते हो तुम अपने धन से औरों के भाण्डार !
ले जाता है लाभ तुम्हारा हँस-हँस कर संसार ।।
भारतजननी के अंचल का अल्प नहीं विस्तार ।
बहती है जब भी उसमें से सरस सुधा की धार ।।
दूध बहुत है, पर हा ! मक्खन कौन करे तैयार ?
मथ लेते हैं उसे विदेशी छाँछ छोड़ कर छार !
अपने में स्वतन्त्र जीवन का कर देखो संचार ।
नहीं रहेगी और हीनता होगा पुन: प्रसार ।।
औरों की उन्नति, निज दुर्गति सोचो वारंवार ।
उद्यम में ही रत्नाकर है खारा पारावार !
मैथिलीशरण गुप्त-भजन | Maithili Sharan Gupt
भजो भारत को तन-मन से।
बनो जड़ हाय ! न चेतन से ।।
करते हो किस इष्ट देव का आँख मूँद का ध्यान?
तीस कोटि लोगों में देखो तीस कोटि भगवान ।
मुक्ति होगी इस साधन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
जिसके लिए सदैव ईश ने लिये आप अवतार,
ईश-भक्त क्या हो यदि उसका करो न तुम उपकार ।
पूछ लो किसी सुधी जन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
पद पद पर जो तीर्थ भूमि है, देती है जो अन्न,
जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो करो उसे सम्पन्न ।
नहीं तो क्या होगा धन से?
भजो भारत को तन-मन से ।।
हो जावे अज्ञान-तिमिर का एक बार ही नाश,
और यहाँ घर घर में फिर से फैले वही प्रकाश ।
जियें सब नूतन जीवन से ।
भजो भारत को तन-मन से ।।
मैथिलीशरण गुप्त-भारत का झण्डा | Maithili Sharan Gupt
भारत का झण्डा फहरै ।
छोर मुक्ति-पट का क्षोणी पर,
छाया काके छहरै ।।
मुक्त गगन में, मुक्त पवन में,
इसको ऊँचा उड़ने दो ।
पुण्य-भूमि के गत गौरव का,
जुड़ने दो, जी जुड़ने दो ।
मान-मानसर का शतदल यह,
लहर लहर का लहरै ।
भारत का झण्डा फहरै ।।
रक्तपात पर अड़ा नहीं यह,
दया-दण्ड में जड़ा हुआ ।
खड़ा नहीं पशु-बल के ऊपर,
आत्म-शक्ति से बड़ा हुआ ।
इसको छोड़ कहाँ वह सच्ची,
विजय-वीरता ठहरै ।
भारत का झण्डा फहरै ।।
इसके नीचे अखिल जगत का,
होता है अद्भुत आह्वान !
कब है स्वार्थ मूल में इसके ?
है बस, त्याग और बलिदान ।।
ईर्षा, द्वेष, दम्भ; हिंसा का,
हदय हार कर हहरै ।
भारत का झण्डा फहरै ।।
पूज्य पुनीत मातृ-मन्दिर का,
झण्डा क्या झुक सकता है?
क्या मिथ्या भय देख सामने,
सत्याग्रह रुक सकता है?
घहरै दिग-दिगन्त में अपनी
विजय दुन्दभी घहरै ।
भारत का झण्डा फहरै ।।
मैथिलीशरण गुप्त-मातृ-मूर्ति | Maithili Sharan Gupt
जय भारत-भूमि-भवानी!
अमरों ने भी तेरी महिमा वारंवार बखानी ।
तेरा चन्द्र-वदन वर विकसित शान्ति-सुधा बरसाता है;
मलयानिल-निश्वास निराला नवजीवन सरसाता है ।
हदय हरा कर देता है यह अंचल तेरा धानी;
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
उच्च हदय-हिमगिरि से तेरी गौरव-गंगा बहती है;
और करुण-कालिन्दी हमको प्लावित करती रहती है।
मौन मग्न हो रही देखकर सरस्वती-विधि वाणी;
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
तेरे चित्र विचित्र विभूषण हैं शूलों के हारों के;
उन्नत-अम्बर-आतपत्र में रत्न जड़े हैं तारों के ।
केशों से मोती झरते है या मेघों से पानी ?
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
वरद-हस्त हरता है तेरे शक्ति-शूल की सब शंका;
रत्नाकर-रसने, चरणों में अब भी पड़ी कनक लंका।
सत्य-सिंह-वाहिनी बनी तू विश्व-पालिनी रानी;
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
करके माँ, दिग्विजय जिन्होंने विदित विश्वजित याग किया,
फिर तेरा मृत्पात्र मात्र रख सारे धन का त्याग किया ।
तेरे तनय हुए हैं ऐसे मानी, दानी, ज्ञानी
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
तेरा अतुल अतीत काल है आराधन के योग्य समर्थ;
वर्तमान साधन के हित है और भविष्य सिद्धि के अर्थ ।
भुक्ति मुक्ति की युक्ति, हमें तू रख अपना अभिमानी;
जय जय भारत-भूमि-भवानी!
मैथिलीशरण गुप्त-शीतल छाया | Maithili Sharan Gupt
घूम फिरा चिरकाल मनोमृग,
देख मरीचिका रूपिनी माया!
जीवन हाय ! गंवाया वृथा,
पर पानी का एक भी बूंद न पाया।
सोच अरे, अब भी मन में थक,
हार चुका, मरने पर आया।
भागीरथी निकली जिनसे बस,
देंगे वही पद शीतल छाया ।।
कैसे मनुष्य कहो तुम हो यदि,
हो न तुम्हें निज देश की माया ।
जन्म दिया जिसने तुम को फिर,
पाला, बराबर अन्न खिलाया।
नाक की नाक तुम्हारे लिए यहीं,
चन्द्र की चांदी जो चाँदनी लाया।
और जो अन्त में देगा, तुम्हें निज
गोद में शान्ति की शीतल छाया ।।
भारत, मेरे पुरातन भारत,
नूतन भाव से तू मन भाया ।
भूतल छान चुके, तुझ-सा पर
देश कहीं पर दृष्टि न जाया ।
भाव कि भाषा कि भेस सदा
अपना, अपना है, पराया, पराया ।
माता, पिता, सुत जाया जहाँ,
बस है वहीं प्रेम की शीतल छाया ॥
वारिदों से अभिषेक करा,
नव भानुकरों से शरीर पुछाया ।
गन्ध मला मलयानिल से,
जगतीतल में यश सौरभ छाया ॥
शेष फणों पर बैठ गया,
हरयाली ने आसन आप बिछाया ।
भारत तू ने प्रदान की विश्व को
शान्त स्वराज्य की शीतल छाया ।।
मैथिलीशरण गुप्त-मातृभूमि | Maithili Sharan Gupt
नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
मृतक समान अशक्त, विवश आँखों को मीचे,
गिरता दुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे;
करके जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था,
लेकर अपने अतुल अंक में त्राण किया था,
जो जननी का भी सर्वदा थी पालन करती रही ।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो? मातृभूमि, माता मही!
जिसकी रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?
पालन, पोषण और जन्म का कारण तू ही,
वक्ष-स्थल पर हमें कर रही धारन तू ही;
अभ्रंकष प्रासाद और ये महल हमारे,
बने हुए हैं अहो तुझी से तुझ पर सारे;
हे मातृभूमि, हम जब कभी शरण न तेरी पायेंगे।
बस, तभी प्रलय के पेट में सभी लीन हो जायेंगे ॥
हमें जीवनाधार अन्न तू ही देती है,
बदले में कुछ नहीं किसी से तू लेती है;
श्रेष्ठ एक से एक विविध द्रव्यों के द्वारा,
पोषण करती प्रेम भाव से सदा हमारा;
हे मातृभूमि, उपजे न जो तुझ से कृषि-अंकुर कभी।
तो तड़प तड़प कर जल मरें, जठरानल में हम सभी ।।
पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥
जिन मित्रों का मिलन मलिनता को है खोता,
जिस प्रेमी का प्रेम हमें मुददायक होता;
जिन स्वजनों को देख हृदय हर्षित हो जाता,
नहीं टूटता कभी जन्म भर जिनसे नाता;
उन सब में तेरा सर्वदा व्याप्त हो रहा तत्व है ।
हे मातृभूमि, तेरे सदृश किसका महा महत्व है?
निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥
सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
दीख रही है कहीं दूर तक शैलश्रेणी,
कहीं घनावलि बनी हुई है तेरी वेणी;
नदियां पैर पखार रही हैं बनकर चेरी,
पुष्पों से तरू-राजि कर रही पूजा तेरी;
मृदु मलय-वायु मानो तुझे चन्दन चारु चढ़ा रही ।
हे मातृभूमि, किसका न तू सात्विक भाव बढ़ा रही?
क्षमामई, तू दयामई है, क्षेममई है।
सुधामई, वात्सल्यमई, तू प्रेममई है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
आते ही उपकार याद हे माता ! तेरा,
हो जाता मन मुग्ध भक्ति-भावों का प्रेरा;
तू पूजा के योग्य, कीर्ति तेरी हम गावें,
मन होता है-तुझे उठा कर शीश-चढ़ावें;
वह शक्ति कहां, हा ! क्या करें, क्यों हम को लज्जा न हो?
हम मातृभूमि, केवल तुझे शीश झुका सकते अहो !
कारण वश जब शोक-दाह से हम दहते हैं,
तब तुझ पर ही लोट-लोट कर दुख सहते हैं ।
पाखण्डी भी धूल चढ़ाकर तन में तेरी,
कहलाते हैं साधु, नहीं लगती है देरी;
इस तेरी ही शुचि धूलि में मातृभूमि वह शक्ति है-
जो क्रूरों के भी चित्त में उपजा सकती भक्ति है!
कोई व्यक्ति विशेष नहीं तेरा अपना है,
जो यह समझे हाय ! देखता वह सपना है;
तुझ को सारे जीव एक से ही प्यारे हैं,
कर्मों के फल मात्र यहाँ न्यारे न्यारे हैं;
हे मातृभूमि!, तेरे निकट सब का सब सम्बन्ध है।
जो भेद मानता वह अहो! लोचनयुत भी अन्ध है ।।
जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥
मैथिलीशरण गुप्त-ऊषा | Maithili Sharan Gupt
हरे, बहुत दिन तक सहा अन्धकार का भार ।
अब कब होगा देश में ऊषा-मय अवतार ?
ऐसी दया करो हे देव, भारत में फिर ऊषा आवे ।।
अब यह मिटे अविद्या-रात,
रुज-रजनीचर करें न घात,
दरसे चारों ओर प्रभात,
तम का पता न रहने पावे ।
ऐसी दया करो हे देव, भारत में फिर ऊषा आवे ।।
फैले अहा ! अरुण अनुराग,
चमके फिर प्राची का भाग,
जागें सब आलस को त्याग,
जड़ता की निद्रा मिट जावे ।
ऐसी दया करो हे देव, भारत में फिर ऊषा आवे ।।
गावें द्विज-नेता वह गान-
जिससे हो जावे उत्थान,
गूँजे आत्मतत्व की तान,
सत्यालोक सुमार्ग दिखावे ।
ऐसी दया करो हे देव, भारत में फिर ऊषा आवे ।।
पाकर हम सब पावन योग,
कर के नित्य नये उद्योग,
भोगें मन मानें सुख-भोग,
मानस-मधुप-मुक्त हो गावे ।
ऐसी दया करो हे देव, भारत में फिर ऊषा आवे ।।
मैथिलीशरण गुप्त-भारतवर्ष | Maithili Sharan Gupt
मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य हिमालय का उत्कर्ष ।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष ।।
हरा-भरा यह देश बना कर विधि ने रवि का मुकुट दिया,
पाकर प्रथम प्रकाश जगत ने इसका ही अनुसरण किया ।
प्रभु ने स्वयं 'पुण्य-भू' कह कर यहाँ पूर्ण अवतार लिया,
देवों ने रज सिर पर रक्खी, दैत्यों का हिल गया हिया!
लेखा श्रेष्ट इसे शिष्टों ने, दुष्टों ने देखा दुर्द्धर्ष !
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष ।।
अंकित-सी आदर्श मूर्ति है सरयू के तट में अब भी,
गूँज रही है मोहन मुरली ब्रज-वंशीवट में अब भी।
लिखा बुद्धृ-निर्वाण-मन्त्र जयपाणि-केतुपट में अब भी,
महावीर की दया प्रकट है माता के घट में अब भी।
मिली स्वर्ण लंका मिट्टी में, यदि हमको आ गया अमर्ष ।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष ।।
आर्य, अमृत सन्तान, सत्य का रखते हैं हम पक्ष यहाँ,
दोनों लोक बनाने वाले कहलाते है, दक्ष यहाँ ।
शान्ति पूर्ण शुचि तपोवनों में हुए तत्व प्रत्यक्ष यहाँ,
लक्ष बन्धनों में भी अपना रहा मुक्ति ही लक्ष यहाँ।
जीवन और मरण का जग ने देखा यहीं सफल संघर्ष ।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष ।।
मलय पवन सेवन करके हम नन्दनवन बिसराते हैं,
हव्य भोग के लिए यहाँ पर अमर लोग भी आते हैं!
मरते समय हमें गंगाजल देना, याद दिलाते हैं,
वहाँ मिले न मिले फिर ऐसा अमृत जहाँ हम जाते हैं!
कर्म हेतु इस धर्म भूमि पर लें फिर फिर हम जन्म सहर्ष
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष ।।
मैथिलीशरण गुप्त-शिक्षण | Maithili Sharan Gupt
भय-रहित भव-सिन्धु तरना सीख ले कोई यहाँ ।
विश्व में आकर विचरना सीख ले कोई यहाँ ।।
ज्ञान पूर्वक, भक्ति पूर्वक कठिन कर्म-क्षेत्र में,
चाहिए कैसे उतरना ? सीख ले कोई यहाँ।
मुक्ति तो है साथ ही हम सर्वदा स्वच्छन्द हैं,
वासना बंधन-कतरना सीख ले कोई यहाँ ।।
कर्म हैं जितने सभी प्रभु नाम पर होते रहें,
एक मन से ध्यान धरना सीख ले कोई यहाँ ।।
आपदा में, सम्पदा में, हर्ष में या शोक में,
चित्त को चंचल न करना सीख ले कोई यहाँ ।
जानते हैं हम कि है आचार की सीमा कहाँ,
पुण्य के भाण्डार भरना सीख ले कोई यहाँ ।।
त्याग में सर्वस्व क्या, उत्सर्ग करना आप को,
स्वार्थ से सर्वत्र डरना सीख ले कोई यहाँ ।
ॠषि जनों की रीति थी-अपने लिए जीते न थे,
प्रेम में निर्मोह मरना सीख ले कोई यहाँ ।।
मैथिलीशरण गुप्त-बैठे हैं | Maithili Sharan Gupt
मत पूछो, कैसे बैठे हो? खाली यहां खड़े बैठे हैं;
कोरी कुल की ऐंठ दिखाकर, घर में बने बड़े बैठे हैं ।
बंधु-बांधवों से टुकड़ों पर श्वान समान लड़े बैठे हैं;
घर घर भीख माँगने को हम पत्थर हुए अड़े बैठे हैं ।
पके बेर के पेड़ों जैसे बारम्बार झड़े बैठे हैं;
बनकर बिगड़ चुके हैं फिर भी सोते सदा पड़े बैठे हैं ।
परवश विषयों के जालों में जड़ बन कर जकड़े बैठे हैं
अपने भूत पूर्व गौरव पर फिर भी हम अकड़े बैठे हैं ।
बने कूप मंडूक, निरुद्यम चौड़े में सकड़े बैठे हैं !
दो हाथों से एक दैव का पिण्ड मात्र पकड़े बैठे हैं !!
मैथिलीशरण गुप्त-चेतना | Maithili Sharan Gupt
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल,
उड़कर यंत्रों से, खगोल में घूम रहा भूगोल !
अवसर तेरे लिए खड़ा है,
फिर भी तू चुपचाप पड़ा है ।
तेरा कर्मक्षेत्र बड़ा है,
पल पल है अनमोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
बहुत हुआ अब क्या होना है,
रहा सहा भी क्या खोना है?
तेरी मिट्टी में सोना है,
तू अपने को तोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
दिखला कर भी अपनी माया,
अब तक जो न जगत ने पाया;
देकर वही भाव मन भाया,
जीवन की जय बोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
तेरी ऐसी वसुन्धरा है-
जिस पर स्वयं स्वर्ग उतरा है ।
अब भी भावुक भाव भरा है,
उठे कर्म-कल्लोल ।
अरे भारत ! उठ, आंखें खोल ॥
मैथिलीशरण गुप्त-प्रश्न | Maithili Sharan Gupt
सिर क्या सगर्व फिर हम ऊँचा न कर सकेंगे?
जो घाव हो गये हैं क्या अब न भर सकेंगे?
इस भूमि पर कि जिस पर सुर भी कृतार्थ होते,
बनकर मनुज न फिर क्या अब हम विचर सकेंगे ?
वह त्याग जो प्रतिष्ठित था उच्च आत्म पद पर
खोकर उसे अहो! क्या अब हम न धर सकेंगे?
वह वीरता कि थी जो गम्भीर धीरता में
वर के समान हम क्या अब फिर न वर सकेंगे ?
उपकार जो कि पर को अपना बना चुका था
करके स्वदेश का क्या दुख हम न हर सकेंगे ?
उस मार्ग से कि जिससे पूर्वज गये हमारे
जाकर न मृत्यु से क्या अब हम न डर सकेंगे?
भाण्डार शील के जो रहते सदा भरे थे
भरकर भवाब्धि को क्या अब हम न तर सकेंगे ?
पूछें किसे दयामय, तू ही हमें बता दे
फिर आपको अमर कर क्या हम न मर सकेंगे ?
मैथिलीशरण गुप्त-प्रतिज्ञा | Maithili Sharan Gupt
न अपनी हीनता को अब सहेंगे हम ।
हदय की बात ही मुंह से कहेंगे हम ।।
प्रकट होगी न क्यों आत्माभिलाषा है,
हमारी मातृभाषा राष्ट्र भाषा है ।
समय के साथ उन्नति की शुभाषा है,
बने भागीरथी जो कर्मनाशा है ।
बहक कर अब न विषयों में बहेंगे हम ।
हदय की बात ही मुंह से कहेंगे हम ।।
हमी उस भाव-सागर को हिलोड़ेंगे,
करोडों रत्न पाकर भी बिलोड़ेंगे ।
हलाहल देखकर भी मुँह न मोड़ेंगे,
पुरुष होकर कभी पौरुष न छोड़ेंगे ।
अमृत पीकर अमर होकर रहेंगे हम ।
हदय की जात ही मुँह से कहेंगे हम ।।
मैथिलीशरण गुप्त-अपनी भाषा | Maithili Sharan Gupt
करो अपनी भाषा पर प्यार ।
जिसके बिना मूक रहते तुम, रुकते सब व्यवहार ।।
जिसमें पुत्र पिता कहता है, पतनी प्राणाधार,
और प्रकट करते हो जिसमें तुम निज निखिल विचार ।
बढ़ायो बस उसका विस्तार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
भाषा विना व्यर्थ ही जाता ईश्वरीय भी ज्ञान,
सब दानों से बहुत बड़ा है ईश्वर का यह दान ।
असंख्यक हैं इसके उपकार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
यही पूर्वजों का देती है तुमको ज्ञान-प्रसाद,
और तुमहारा भी भविष्य को देगी शुभ संवाद ।
बनाओ इसे गले का हार ।
करो अपनी भाषा पर प्यार ।।
मैथिलीशरण गुप्त-मेरी भाषा | Maithili Sharan Gupt
मेरी भाषा में तोते भी राम राम जब कहते हैं,
मेरे रोम रोम में मानो सुधा-स्रोत तब बहते हैं ।
सब कुछ छूट जाय मैं अपनी भाषा कभी न छोड़ूंगा,
वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोड़ूंगा ।।
कहीं अकेला भी हूँगा मैं तो भी सोच न लाऊंगा,
अपनी भाषा में अपनों के गीत वहाँ भी गाऊंगा।।
मुझे एक संगिनी वहाँ भी अनायास मिल जावेगी,
मेरा साथ प्रतिध्वनि देगी कली कली खिल जावेगी ।।
मेरा दुर्लभ देश आज यदि अवनति से आक्रान्त हुआ,
अंधकार में मार्ग भ्रूळकर भटक रहा है भ्रान्त हुआ।
तो भी भय की बात नहीं है भाषा पार लगावेगी,
अपने मधुर स्निग्ध, नाद से उन्नत भाव जगावेगी ।।
मैथिलीशरण गुप्त-जन्माष्टमी | Maithili Sharan Gupt
गगन में घुमड़े हैं घन घोर;
क्या अंधेरे अंधेरे के मिष छाया है सब ओर !
काली अर्द्ध यामिनी छाई,
आली भीति-भामिनी आई;
उसे दुरन्त दामिनी लाई,
चौंक उठे हैं चोर ।
वन्दी वे दम्पति बेचारे
बैठे हैं अब भी मन मारे;
अब तो हे संसार-सहारे !
करो कृपा की कोर ।
राजा जो सबका रक्षक है,
बना आज उलटा भक्षक है;
मार चुका शिशु तक तक्षक है
कंस नृशंस कठोर ।
सहसा बन्धन खुल जाते हैं,
वन्दी प्रभू-दर्शन पाते हैं;
मुक्ति मार्ग वे दिखलाते हैं,
करके विश्व विभोर ।
मैथिलीशरण गुप्त-जगौनी | Maithili Sharan Gupt
उठो, हे भारत, हुआ प्रभात ।
तजो यह तन्द्रा; जागो तात!
मिटी है कालनिशा इस वार,
हुआ है नवयुग का संचार ।
उठो; खोलो अब अपना द्वार,
प्रतीक्षा करता है संसार ।
हदय में कुछ तो करो विचार,
पड़े हो कब से पैर पसार!
करो अब और न अपना घात ।
उठो, हे भारत, हुआ प्रभात ॥
जगत को देकर शिक्षा-दान,
बने हो आप स्वयं अज्ञान!
सुनाकर मधुर मुक्ति का गान,
हुए हो सहसा मूक-समान ।
संभालो अब भी अपना मान,
सहारा देंगे श्री भगवान ।
बनेगी फिर भी बिगड़ी बात ।
उठो, हे भारत, हुआ प्रभात ।
मैथिलीशरण गुप्त-होली | Maithili Sharan Gupt
जो कुछ होनी थी, सब होली!
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली।
आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली।
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली!
मैथिलीशरण गुप्त-चेतावनी | Maithili Sharan Gupt
सौ सौ युगों की साधना भारत, न सो जावे कहीं।
तेरी अमृत आराधना आरत न हो जावे कहीं ।।
वह तीव्र तप की धीरता; बल-वीर्व्य की वर वीरता,
धन, जन मयी गम्भीरता, तुमको न रो जावे कहीं ।।
वह दु:ख की दमनीयता, चिरकीर्ति की कमनीयता,
भय सोच की शमनीयता, सहसा न खो जावे कहीं ।।
तेरी प्रसिद्ध पुनीतता; वह शीलपूर्ण विनीतता,
पर बुद्धी की विपरीतता, अब विष न बो जावे कहीं ।।
वह उच्चता आचार की, विश्वस्तता व्यवहार की,
अनुरक्तता उपकार की, तेरी न धो जावे कहीं ।।
तेजस्विता वह तयाग की, उनमुक्तता अनुराग की,
सुख-सम्पदा भव-भाग की, लुट कर न ढो जावे कहीं ।।
फिर सिद्ध हों शत सिद्धियाँ, लोटें पदों पर ऋद्धियाँ,
फिर हों यहां वे वृद्धियाँ, तू जाग जो जावे कहीं ।।
मैथिलीशरण गुप्त-विजयदशमी | Maithili Sharan Gupt
जानकी जीवन, विजय दशमी तुम्हारी आज है,
दीख पड़ता देश में कुछ दूसरा ही साज है।
राघवेन्द्र ! हमेँ तुम्हारा आज भी कुछ ज्ञान है,
क्या तुम्हें भी अब कभी आता हमारा ध्यान है ?
वह शुभस्मृति आज भी मन को बनाती है हरा,
देव ! तुम को आज भी भूली नहीं है यह धरा ।
स्वच्छ जल रखती तथा उत्पन्न करती अन्न है,
दीन भी कुछ भेट लेकर दीखती सम्पन्न है ।।
व्योम को भी याद है प्रभुवर तुम्हारी यह प्रभा !
कीर्ति करने बैठती है चन्द्र-तारों की सभा ।
भानु भी नव-दीप्ति से करता प्रताप प्रकाश है,
जगमगा उठता स्वयं जल, थल तथा आकाश है ।।
दुख में ही हा ! तुम्हारा ध्यान आया है हमें,
जान पड़ता किन्तु अब तुमने भुलाया है हमें ।
सदय होकर भी सदा तुमने विभो ! यह क्या किया,
कठिन बनकर निज जनों को इस प्रकार भुला दिया ।।
है हमारी क्या दशा सुध भी न ली तुमने हरे?
और देखा तक नहीं जन जी रहे हैं या मरे।
बन सकी हम से न कुछ भी किन्तु तुम से क्या बनी ?
वचन देकर ही रहे, हो बात के ऐसे धनी !
आप आने को कहा था, किन्तु तुम आये कहां?
प्रश्न है जीवन-मरन का हो चुका प्रकटित यहाँ ।
क्या तुम्हारे आगमन का समय अब भी दूर है?
हाय तब तो देश का दुर्भाग्य ही भरपूर है !
आग लगने पर उचित है क्या प्रतीक्षा वृष्टि की,
यह धरा अधिकारिणी है पूर्ण करुणा दृष्टि की।
नाथ इसकी ओर देखो और तुम रक्खो इसे,
देर करने पर बताओ फिर बचाओगे किसे ?
बस तुम्हारे ही भरोसे आज भी यह जी रही,
पाप पीड़ित ताप से चुपचाप आँसू पी रही ।
ज्ञान, गौरव, मान, धन, गुण, शील सब कुछ खो गया,
अन्त होना शेष है बस और सब कुछ हो गया ।।
यह दशा है इस तुम्हारी कर्मलीला भूमि की,
हाय ! कैसी गति हुई इस धर्म-शीला भूमि की ।
जा घिरी सौभाग्य-सीता दैन्य-सागर-पार है,
राम-रावण-वध बिना सम्भव कहाँ उद्धार है ?
शक्ति दो भगवन् हमें कर्तव्य का पालन करें,
मनुज होकर हम न परवश पशु-समान जियें मरें।
विदित विजय-स्मृति तुम्हारी यह महामंगलमयी,
जटिल जीवन-युद्ध में कर दे हमें सत्वर जयी ।।
Tags : समैथिलीशरण गुप्त-स्वदेश संगीत,Maithilisharan Gupt-Swadesh Sangeet,साकेत के सर्ग के नाम,साकेत कविता का सारांश,मैथिलीशरण गुप्त साकेत नवम सर्ग की व्याख्या,साकेत प्रथम सर्ग की व्याख्या,विफल जीवन व्यर्थ बहा, बहा की व्याख्या,साकेत महाकाव्य,साकेत की रचना का मूल उद्देश्य क्या था?,साकेत में कौन सा रस है?,साकेत में कितने सर्ग है उनके नाम?,साकेत का हृदय स्थल कौन सा सर्ग है?
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Maithilisharan Gupt) #icon=(link) #color=(#2339bd)