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साकेत नवम सर्ग मैथिलीशरण गुप्त (भाग 2 )
Saket Sarg 9 Maithili Sharan Gupt (Part 2)
आगे नहीं सहारा!
सखि, निरख नदी की धारा।
सखी, सत्य क्या मैं घुली जा रही?
मिलूँ चाँदनी में, बुरा क्या यही?
नहीं चाहते किन्तु वे चाँदनी,
तपोमग्न हैं आज मेरे धनी।
सखि, निरख नदी की धारा।
सखी, सत्य क्या मैं घुली जा रही?
मिलूँ चाँदनी में, बुरा क्या यही?
नहीं चाहते किन्तु वे चाँदनी,
तपोमग्न हैं आज मेरे धनी।
नैश गगन के गात्र में पड़े फफोले हाय!
तो क्या मैं निःश्वास भी न लूँ आज निरुपाय?
तारक-चिन्हदुकूलिनी पी पी कर मधु मात्र,
उलट गई श्यामा यहाँ रिक्त सुधाकर-पात्र।
[२]
यदपि काल है काल अन्त में,
उष्ण रहे चाहे वह शीत,
आया सखि हेमन्त दया कर
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
आगत का स्वागत समुचित है, पर क्या आँसू लेकर?
प्रिय होते तो लेती उसको मैं घी-गुड़ दे देकर।
पाक और पकवान रहें, पर
गया स्वाद का अवसर बीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
हे ऋतुवर्य, क्षमा कर मुझको, देख दैन्य यह मेरा,
करता रह प्रति वर्ष यहाँ तू फिर फिर अपना फेरा।
ब्याज-सहित ऋण भर दूँगी मैं ,
आने दे उनको हे मीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
सी सी करती हुई पार्श्व में पाकर जब-तब मुझको,
अपना उपकारी कहते थे मेरे प्रियतम तुझको।
कंबल ही संबल है अब तो,
ले आसन ही आज पुनीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
कालागरु की सुरभि उड़ा कर मानों मंगल तारे,
हँसे हंसन्ती में खिल खिल कर अनल-कुसुम अंगारे।
आज धुकधुकी में मेरी भी
ऐसा ही उद्दीप्त अतीत!
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
अब आतप-सेवन में कौन तपस्या, मुझे न यों छल तू;
तप पानी में पैठा, सखि, चाहे तो वहीं चल तू!
नाइन, रहने दे तू, तेल नहीं चाहिए मुझे तेरा,
तनु चाहे रूखा हो, मन तो सुस्नेह-पूर्ण है मेरा।
मेरी दुर्बलता क्या
दिखा रही तू अरी, मुझे दर्पण में?
देख, निरख मुख मेरा
वह तो धुँधला हुआ स्वयं ही क्षण में!
एक अनोखी मैं ही
क्या दुबली हो गई सखी,घर में?
देख, पद्मिनी भी तो
आज हुई नालशेष निज सर में।
पूछी थी सुकाल-दशा मैंने आज देवर से-
कैसी हुई उपज कपास, ईख, धान की?
बोले-"इस बार देवि, देखने में भूमि पर
दुगुनी दया-सी हुई इन्द्र भगवान की।
पूछा यही मैं ने एक ग्राम में तो कर्षकों ने
अन्न, गुड़, गोरस की वृद्धि ही बखान की,
किन्तु ’स्वाद कैसा है, न जानें, इस वर्ष हाय!’
यह कह रोई एक अबला किसान की!
तो क्या मैं निःश्वास भी न लूँ आज निरुपाय?
तारक-चिन्हदुकूलिनी पी पी कर मधु मात्र,
उलट गई श्यामा यहाँ रिक्त सुधाकर-पात्र।
[२]
यदपि काल है काल अन्त में,
उष्ण रहे चाहे वह शीत,
आया सखि हेमन्त दया कर
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
आगत का स्वागत समुचित है, पर क्या आँसू लेकर?
प्रिय होते तो लेती उसको मैं घी-गुड़ दे देकर।
पाक और पकवान रहें, पर
गया स्वाद का अवसर बीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
हे ऋतुवर्य, क्षमा कर मुझको, देख दैन्य यह मेरा,
करता रह प्रति वर्ष यहाँ तू फिर फिर अपना फेरा।
ब्याज-सहित ऋण भर दूँगी मैं ,
आने दे उनको हे मीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
सी सी करती हुई पार्श्व में पाकर जब-तब मुझको,
अपना उपकारी कहते थे मेरे प्रियतम तुझको।
कंबल ही संबल है अब तो,
ले आसन ही आज पुनीत,
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
कालागरु की सुरभि उड़ा कर मानों मंगल तारे,
हँसे हंसन्ती में खिल खिल कर अनल-कुसुम अंगारे।
आज धुकधुकी में मेरी भी
ऐसा ही उद्दीप्त अतीत!
आया सखि, हेमन्त दया कर,
देख हमें सन्तप्त-सभीत।
अब आतप-सेवन में कौन तपस्या, मुझे न यों छल तू;
तप पानी में पैठा, सखि, चाहे तो वहीं चल तू!
नाइन, रहने दे तू, तेल नहीं चाहिए मुझे तेरा,
तनु चाहे रूखा हो, मन तो सुस्नेह-पूर्ण है मेरा।
मेरी दुर्बलता क्या
दिखा रही तू अरी, मुझे दर्पण में?
देख, निरख मुख मेरा
वह तो धुँधला हुआ स्वयं ही क्षण में!
एक अनोखी मैं ही
क्या दुबली हो गई सखी,घर में?
देख, पद्मिनी भी तो
आज हुई नालशेष निज सर में।
पूछी थी सुकाल-दशा मैंने आज देवर से-
कैसी हुई उपज कपास, ईख, धान की?
बोले-"इस बार देवि, देखने में भूमि पर
दुगुनी दया-सी हुई इन्द्र भगवान की।
पूछा यही मैं ने एक ग्राम में तो कर्षकों ने
अन्न, गुड़, गोरस की वृद्धि ही बखान की,
किन्तु ’स्वाद कैसा है, न जानें, इस वर्ष हाय!’
यह कह रोई एक अबला किसान की!
हम राज्य लिए मरते हैं!
सच्चा राज्य परन्तु हमारे कर्षक ही करते हैं।
जिनके खेतों में हैं अन्न,
कौन अधिक उनसे सम्पन्न?
पत्नी-सहित विचरते हैं वे, भव-वैभव भरते हैं,
हम राज्य लिए मरते हैं!
वे गो-धन के धनी उदार,
उनको सुलभ सुधा की धार,
सहनशीलता के आगर वे श्रम-सागर तरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं!
यदि वे करें, उचित है गर्व,
बात बात में उत्सव-पर्व,
हम-से प्रहरी-रक्षक जिनके, वे किससे डरते हैं?
हम राज्य लिए मरते हैं!
करके मीन-मेख सब ओर,
किया करें बुध वाद कठोर,
शाखामयी बुद्धि तज कर वे मूल-धर्म धरते हैं।
हम राज्य लिए मरते हैं!
होते कहीं वही हम लोग,
कौन भोगता फिर ये भोग?
उन्हीं अन्नदाताओं के सुख आज दुःख हरते हैं!
हम राज्य लिए मरते हैं!
प्रभु को निष्कासन मिला, मुझको कारागार,
मृत्यु-दण्ड उन तात को, राज्य, तुझे धिक्कार!
चौदह चक्कर खायगी जब यह भूमि अभंग,
घूमेंगे इस ओर तब प्रियतम प्रभु के संग।
प्रियतम प्रभु के संग आयँगे तब हे सजनी,
अब दिन पर दिन गिनो और रजनी पर रजनी!
पर पल पल ले रहा यहाँ प्राणों से टक्कर,
कलह-मूल यह भूमि लगावे चौदह चक्कर!
सिकुड़ा सिकुड़ा दिन था, सभीत-सा शीत के कसाले से,
सजनी, यह रजनी तो जम बैठी विषम पाले से!
आये सखि, द्वार-पटी हाथ से हटा के प्रिय
वंचक भी वंचित-से कम्पित विनोद में,
’ओढ़ देखो तनिक तुम्हीं तो परिधान यह’
बोले डाल रोमपट मेरी इस गोद में।
क्या हुआ, उठी मैं झट प्रावरण छोड़ कर
परिणत हो रहा था पवन प्रतोद में,
हर्षित थे तो भी रोम रोम हम दम्पति के,
कर्षित थे दोनों बाहु-बन्धन के मोद में।
करती है तू शिशिर का बार बार उल्लेख,
पर सखि, मैं जल-सी रही, धुवाँधार यह देख!
सचमुच यह नीहार तो अब तू तनिक विहार,
अन्धकार भी शीत से श्वेत हुआ इस बार!
कभी गमकता था जहाँ कस्तूरी का गन्ध;
चौंक चमकता है वहाँ आज मनोमृग अन्ध!
शिशिर, न फिर गिरि-वन में,
जितना माँगे, पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में,
कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में।
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में?
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस-भाजन में,
तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में।
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं,-अपने इस जीवन में,
तो उत्कंठा है, देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में।
सखि, न हटा मकड़ी को, आई है वह सहानुभूति-वशा,
जालगता मैं भी तो, हम दोनों की यहाँ समान-दशा।
भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?
झाँक झरोखे से न, लौट जा, गूँजें तुझसे तार जहाँ।
मेरी वीणा गीली गीली;
आज हो रही ढीली ढीली;
लाल हरी तू पीली नीली,
कोई राग न रंग यहाँ।
भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?
शीत काल है और सबेरा;
उछल रहा है मानस मेरा;
भरे न छींटों से तनु तेरा,
रुदन जहाँ क्या गान वहाँ?
भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?
मेरी दशा हुई कुछ ऐसी
तारों पर अँगुली की जैसी,
मींड़, परन्तु कसक भी कैसी?
कह सकती हूँ नहीं न हाँ।
भूल पड़ी तू किरण, कहाँ?
न तो अगति ही है न गति, आज किसी भी ओर,
इस जीवन के झाड़ में रही एक झकझोर!
पाऊँ मैं तुम्हें आज, तुम मुझको पाओ,
ले लूँ अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।
फूल और फल-निमित्त,
बलि देकर स्वरस-वित्त,
लेकर निश्चिन्त चित्त,
उड़ न हाय! जाओ,
लूँ मैं अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।
तुम हो नीरस शरीर,
मुझ में है नयन-नीर;
इसका उपयोग वीर,
मुझको बतलाओ।
लूँ मैं अंचल पसार, पीतपत्र, आओ।
जो प्राप्ति हो फूल तथा फलों की,
मधूक, चिन्ता न करो दलों की।
हो लाभ पूरा पर हानि थोड़ी,
हुआ करे तो वह भी निगोड़ी।
श्लाघनीय हैं एक-से दोनों ही द्युतिमन्त,
जो वसन्त का आदि है, वही शिशिर का अन्त।
ज्वलित जीवन धूम कि धूप है,
भुवन तो मन के अनुरूप है।
हसित कुन्द रहे कवि का कहा,
सखि, मुझे वह दाँत दिखा रहा!
हाय! अर्थ की उष्णता देगी किसे न ताप?
धनद-दिशा में तप उठे आतप-पति भी आप।
अपना सुमन लता ने
निकाल कर रख दिया, बिना बोले,
आलि, कहाँ वनमाली,
झड़ने के पूर्व झाँक ही जो ले?
काली काली कोईल बोली-
होली-होली-होली!
हँस कर लाल लाल होठों पर हरयाली हिल डोली,
फूटा यौवन, फाड़ प्रकृति की पीली पीली चोली।
होली-होली-होली!
अलस कमलिनी ने कलरव सुन उन्मद अँखियाँ खोली,
मल दी ऊषा ने अम्बर में दिन के मुख पर रोली।
होली-होली-होली!
रागी फूलों ने पराग से भरली अपनी झोली,
और ओस ने केसर उनके स्फुट-सम्पुट में घोली।
होली-होली-होली!
ऋतुने रवि-शशि के पलड़ों पर तुल्य प्रकृति निज तोली
सिहर उठी सहसा क्यों मेरी भुवन-भावना भोली?
होली-होली-होली!
गूँज उठी खिलती कलियों पर उड़ अलियों की टोली,
प्रिय की श्वास-सुरभि दक्षिण से आती है अनमोली।
होली-होली-होली!
जा, मलयानिल, लौट जा, यहाँ अवधि का शाप,
लगे न लू होकर कहीं तू अपने को आप!
भ्रमर, इधर मत भटकना, ये खट्टे अंगूर,
लेना चम्पक-गन्ध तुम, किन्तु दूर ही दूर।
सहज मातृगुण गन्ध था कर्णिकार का भाग;
विगुण रूप-दृष्टान्त के अर्थ न हो यह त्याग!
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हरनेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!
फूल! खिलो आनन्द से तुम पर मेरा तोष;
इस मनसिज पर ही मुझे दोष देख कर रोष।
आई हूँ सशोक मैं अशोक, आज तेरे तले,
आती है तुझे क्या हाय! सुध उस बात की।
प्रिय ने कहा था-’प्रिये, पहले ही फूला यह,
भीति जो थी इसको तुम्हारे पदाघात की!’
देवी उन कान्ता सती शान्ता को सुलक्ष कर,
वक्ष भर मैं ने भी हँसी यों अकस्मात की-
’भूलते हो नाथ, फूल फूलते ये कैसे, यदि
ननद न देतीं प्रीति पद-जलजात की!’
सूखा है यह मुख यहाँ, रूखा है मन आज;
किन्तु सुमन-संकुल रहे प्रिय का वकुल-समाज।
करूँ बड़ाई फूल की या फल की चिरकाल?
फूला-फला यथार्थ में तू ही यहाँ रसाल!
देखूँ मैं तुझको सविलास;
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
अतुल अम्बुकुल-सा अमल भला कौन है अन्य?
अम्बुज, जिसका जन्य तू धन्य, धन्य, ध्रुव धन्य!
साधु सरोवर-विभव-विकास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
कब फूलों के साथ फल, फूल फलों के साथ?
तू ही ऐसा फूल है फल है जिसके हाथ।
ओ मधु के अनुपम आवास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
एक मात्र उपमान तू, हैं अनेक उपमेय,
रूप-रंग गुण-गंध में तू ही गुरुतम, गेय।
ओ उन अंगो के आभास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
तू सुषमा का कर कमल, रति-मुखाब्ज उदग्रीव;
तू लीला-लोचन नलिन, ओ प्रभु-पद राजीव!
रच लहरों को लेकर रास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
सहज सजल सौन्दर्य का जीवन-धन तू पद्म,
आर्य जाति के जगत की लक्ष्मी का शुभ सद्म।
क्या यथार्थ है यह विश्वास,
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
रह कर भी जल-जाल में तू अलिप्त अरविन्द,
फिर तुझ पर गूँजें न क्यों कविजन-मनोमिलिन्द!
कौन नहीं दानी का दास?
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
तेरे पट है खोलता आकर दिनकर आप;
हरता रह निष्पाप तू हम सब के सन्ताप।
ओ मेरे मानस के हास!
खिल सहस्रदल, सरस, सुवास!
पैठी है तू षट्पदी, निज सरसिज में लीन;
सप्तपदी देकर यहाँ बैठी मैं गति-हीन!
बिखर कली झड़ती है, कब सीखी किन्तु संकुचित होना?
संकोच किया मैं ने, भीतर कुछ रह गया, यही रोना!
अरी, गूँजती मधुमक्खी;
किसके लिए बता तू ने वह रस की मटकी रक्खी?
किसका संचय दैव सहेगा?
काल घात में लगा रहेगा,
व्याध बात भी नहीं कहेगा,
लूटेगा घर लक्खी!
अरी, गूँजती मधुमक्खी।
इसे त्याग का रंग न दीजो,
अपने श्रम का फल है, लीजो,
जयजयकार कुसुम का कीजो,
जहाँ सुधा-सी चक्खी।
अरी, गूँजती मधुमक्खी!
सखि, मैं भव-कानन में निकली
बन के इसकी वह एक कली,
खिलते खिलते जिससे मिलने
उड़ आ पहुँचा हिल हेम-अली।
मुसकाकर आलि, लिया उसको,
तब लों यह कौन बयार चली,
’पथ देख जियो’ कह गूँज यहाँ
किस ओर गया वह छोड़ छली?
छोड़, छोड़, फूल मत तोड़, आली, देख मेरा
हाथ लगते ही यह कैसे कुम्हलाये हैं?
कितना विनाश निज क्षणिक विनोद में है,
दुःखिनी लता के लाल आँसुओं से छाये हैं।
किन्तु नहीं, चुन ले सहर्ष खिले फूल सब
रूप, गुण, गन्ध से जो तेरे मनभाये हैं,
जाये नहीं लाल लतिका ने झड़ने के लिए,
गौरव के संग चढ़ने के लिए जाये हैं।
कैसी हिलती डुलती अभिलाषा है कली, तुझे खिलने की,
जैसी मिलती जुलती उच्चाशा है भली मुझे मिलने की!
मान छोड़ दे, मान, अरी,
कली, अली आया, हँस कर ले, यह वेला फिर कहाँ धरी,
सिर न हिला झोंकों में पड़ कर, रख सहृदयता सदा हरी,
छिपा न उसको भी प्रियतम से यदि है भीतर धूलि भरी।
भिन्न भी भाव-भंगी में भाती है रूप-सम्पदा,
फूल धूल उड़ा के भी आमोदप्रद है सदा।
फूल, रूप-गुण में कहीं मिला न तेरा जोड़;
फिर भी तू फल के लिए अपना आसन छोड़।
सखि, बिखर गईं हैं कलियाँ,
कहाँ गया प्रिय झुकामुकी में करके वे रँग-रलियाँ?
भुला सकेंगी पुनः पवनको अब क्या इनकी गलियाँ?
यही बहुत, ये पचें उन्हीं में जो थीं रंगस्थलियाँ।
कह कथा अपनी इस घ्राण से,
उड़ गये मधु-सौरभ प्राण-से।
फल हमें हमको-तुमको सखी,
तदपि बीज रहें सब त्राण-से।
उठती है उर में हाय! हूक,
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
क्या ही सकरुण, दारुण, गभीर,
निकली है नभ का चित्त चीर;
होते हैं दो दो दृग सनीर,
लगती है लय की एक लूक!
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
तेरे क्रन्दन तक में सु-गान,
सुनते हैं जग के कुटिल कान;
लेने में ऐसा रस महान।
हम चतुर करें किस भाँति चूक!
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
री, आवेगा फिर भी वसन्त;
जैसे मेरे प्रिय प्रेमवन्त।
दुःखों का भी है एक अन्त,
हो रहिए दुर्दिन देख मूक।
ओ कोइल, कह, यह कौन कूक?
अरे एक मन, रोक थाम तुझे मैं ने लिया,
दो नयनों ने, शोक, भरम खो दिया, रो दिया!
हे मानस के मोती, ढलक चले तुम कहाँ बिना कुछ जाने?
प्रिय हैं दूर गहन में, पथ में है कौन जो तुम्हें पहचाने?
न जा अधीर धूल में,
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
रहे एक ही पानी चाहे हम दोनों के मूल में,
मेरे भाव आँसुओं में हैं, और लता के फूल में।
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
फूल और आँसू दोनों ही उठें हृदय की हूल में,
मिलन-सूत्र-सूची से कम क्या अनी विरह के शूल में।
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
मधु हँसने में, लवण रुदन में रहे न कोई भूल में,
मौज किन्तु मँझधार बीच है किंवा है वह कूल में?
दृगम्बु, आ, दुकूल में।
नयनों को रोने दे,
मन, तू संकीर्ण न बन, प्रिय बैठे हैं,
आँखों से ओझल हों,
गये नहीं वे कहीं, यहीं पैठे हैं!
आँख, बता दे तू ही, तू हँसती या यथार्थ रोती है?
तेरे अधर-दशन ये, या तू भर अश्रुबिन्दु ढोती है?
सखे, जाओ तुम हँसकर भूल, रहूँ मैं सुध करके रोती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
मानती हूँ, तुम मेरे साध्य,
अहर्निशि एक मात्र आराध्य,
साधिका मैं भी किन्तु अवाध्य,
जागती होऊँ, या सोती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
सफल हो सहज तुम्हारा त्याग,
नहीं निष्फल मेरा अनुराग,
सिद्धि है स्वयं साधना-भाग,
सुधा क्या, क्षुधा जो न होती।
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
काल की रुके न चाहे चाल,
मिलन से बड़ा विरह का काल;
वहाँ लय, यहाँ प्रलय विकराल!
दृष्टि मैं दर्शनार्थ धोती!
तुम्हारे हँसने में हैं फूल, हमारे रोने में मोती!
अर्थ, तुझे भी हो रही पदप्राप्ति की चाह?
क्या इस जलते हृदय में और नहीं निर्वाह?
स्वजनि, रोता है मेरा गान,
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान।
झिलता नहीं समीर पर इस जी का जंजाल,
झड़ पड़ते हैं शून्य में बिखर सभी स्वर-ताल।
विफल आलाप-विलाप समान,
स्वजनि, रोता है मेरा गान।
उड़ने को है तड़पता मेरा भावानन्द,
व्यर्थ उसे पुचकार कर फुसलाते हैं छन्द।
दिखा कर पद-गौरव का ध्यान।
स्वजनि, रोता है मेरा गान।
अपना पानी भी नहीं रखता अपनी बात,
अपनी ही आँखें उसे ढाल रहीं दिन-रात।
जना देते हैं सभी अजान,
स्वजनि, रोता है मेरा गान।
दुख भी मुझसे विमुख हो करें न कहीं प्रयाण,
आज उन्हीं में तो तनिक अटके हैं ये प्राण।
विरह में आ जा, तू ही मान!
स्वजनि, रोता है मेरा गान।
यही आता है इस मन में,
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
व्यथा रहे, पर साथ साथ ही समाधान भरपूर।
हर्ष डूबा हो रोदन में,
यही आता है इस मन में।
बीच बीच में उन्हें देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
जब वे निकल जायँ तब लोटूँ उसी धूल में लोट।
रहें रत वे निज साधन में,
यही आता है इस मन में।
जाती जाती, गाती गाती, कह जाऊँ यह बात-
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात।
प्रेम की ही जय जीवन में,
यही आता है इस मन में।
अब जो प्रियतम को पाऊँ
तो इच्छा है, उन चरणों की रज मैं आप रमाऊँ!
आप अवधि बन सकूँ कहीं तो क्या कुछ देर लगाऊँ,
मैं अपने को आप मिटाकर, जाकर उनको लाऊँ।
ऊषा-सी आई थी जग में, सन्ध्या-सी क्या जाऊँ?
श्रान्त पवन-से वे आवें, मैं सुरभि-समान समाऊँ!
मेरा रोदन मचल रहा है, कहता है, कुछ गाऊँ,
उधर गान कहता है, रोना आवे तो मैं आऊँ!
इधर अनल है और उधर जल हाय! किधर मैं जाऊँ?
प्रबल बाष्प, फट जाय न यह घट कह तो हाहा खाऊँ?
उठ अवार न पार जाकर भी गई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
अटक जीवन के विशेष विचार में,
भटकती फिरती स्वयं मँझधार में,
सहज कर्षण कूल, कुंज, कछार में,
विषमता है किन्तु वायु-विकार में,
और चारों ओर चक्कर हैं कई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
पर विलीन नहीं, रहूँ गतिहीन मैं,
दैन्य से न दबूँ कभी, वह दीन मैं।
अति अवश हूँ, किन्तु आत्म-अधीन मैं;
सखि, मिलन के पूर्व ही प्रिय-लीन मैं।
कर सका सो कर चुका अपना दई,
उर्मि हूँ मैं इस भवार्णव की नई!
आये एक बार प्रिय बोले-’एक बात कहूँ,
विषय परन्तु गोपनीय सुनों कान में!’
मैं ने कहा-’कौन यहाँ?’ बोले-’प्रिये, चित्र तो हैं;
सुनते हैं वे भी राजनीति के विधान में।’
लाल किये कर्णमूल होंठों से उन्होंने कहा-
’क्या कहूँ सगद्गद हूँ, मैं भी छद-दान में;
कहते नहीं हैं , करते हैं कृती!’ सजनी मैं
खीझ के भी रीझ उठी उस मुस्कान में!
मेरे चपल यौवन-बाल!
अचल अंचल में पड़ा सो, मचल कर मत साल।
बीतने दे रात, होगा सुप्रभात विशाल,
खेलना फिर खेल मन के पहन के मणि-माल।
पक रहे हैं भाग्य-फल तेरे सुरम्य-रसाल,
डर न, अवसर आ रहा है, जा रहा है काल।
मन पुजारी और तन इस दुःखिनी का थाल,
भेंट प्रिय के हेतु उसमें एक तू ही लाल!
यही वाटिका थी, यही थी मही,
यही चन्द्र था, चाँदनी थी यही।
यहीं वल्लकी मैं लिए गोद में
उसे छेड़ती थी महा मोद में।
यही कण्ठ था, कौन-सा गान था?-
’न था दुर्ग तू, मानिनी-मान था!’
यही टेक मैं तन्मयी छोर से,
लगी छेड़ने कान्त की ओर से।
अकस्मात निःशब्द आये जयी,
मनोवृत्ति थी नाथ की मन्मयी।
सखी, आप ही आपको वे हँसे-
’बड़े वीर थे, आज अच्छे फँसे!’
हँसी मैं, अजी, मानिनी तो गई,
बधाई! मिली जीत यों ही नई!
’प्रिये हार में ही यहाँ जीत है।
रुका क्यों तुम्हारा नया गीत है?’
जहाँ आ गई चाप-टंकार है,
वहाँ व्यर्थ-सी आप झंकार है।
’प्रिये, चाप-टंकार तो सो रही,
स्वयं मग्न झंकार में हो रही।’
भला!-प्रश्न है किन्तु संसार में-
भली कौन झंकार-टंकार में?
’शुभे, धन्य झंकार है धाम में,
रहे किन्तु टंकार संग्राम में।
इसी हेतु है जन्म टंकार का,
न टूटे कभी तार झंकार का।
यही ठीक, टंकार सोती रहे,
सभी ओर झंकार होती रहे।
सुनो, किन्तु है लोभ संसार में,
इसी हेतु है क्षोभ संसार में।
हमें शान्ति का भार जो है मिला,
इसी चाप की कोटियों से झिला।’
हुआ,-किन्तु कोदण्ड-विद्या-कला
मुझे व्यर्थ, क्यों और सीखूँ भला?
भले उर्मिला के लिए गान ये,
विवादी स्वरों से बचें कान ये।
करूँ शिष्यता क्यों तुम्हारी अहो,
बनूँ तांत्रिकी शिक्षिका जो कहो।
मृगों को धरो तो सही चाप से,
कहो, खींच लूँ मैं स्वरालाप से!
’अभी खींच ही जो लिया है! रहो,
बनी शिष्य से शिक्षिका, क्यों न हो!
तुम्हारी स्वरालाप-धारा बहे
पड़ा कूल में चाप मेरा रहे।’
इसी भाँति आलाप-संलाप में,
(न ऐसे महाशाप में, ताप में,)
हमारा यहाँ काल था बीतता,
न सन्तोष का कोश था रीतता।
हरे! हाय! क्या से यहाँ क्या हुआ?
उड़ा ही दिया मन्थरा ने सुआ!
हिया-पींजरा शून्य माँ को मिला,
गया सिद्ध मेरा, रही मैं शिला!
स्वप्न था वह जो देखा, देखूँगी फिर क्या अभी?
इस प्रत्यक्ष से मेरा परित्राण कहाँ अभी?
कूड़े से भी आगे
पहुँचा अपना अदृष्ट गिरते गिरते,
दिन बारह वर्षों में
घूड़े के भी सुने गये हैं फिरते!
रस पिया सखि, नित्य जहाँ नया,
अब अलभ्य वहाँ विष हो गया!
मरण-जीवन की यह संगिनी
बन सकी वन की न विहंगिनी!
सखि, यहाँ सब ओर निहार तू,
फिर विचार अतीत-विहार तू।
उदित-से सब हास-विलास हैं,
रुदित-से अब किन्तु उदास हैं।
स्वजनि, पागल भी यदि हो सकूँ,
कुशल तो, अपनापन खो सकूँ।
शपथ है, उपचार न कीजियो,
अवधि की सुधि ही तुम लीजियो।
बस इसी प्रिय-कानन-कुंज में,
मिलन-भाषण के स्मृति-पुंज में,
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो,
हसन-रोदन से न पसीजियो।
सखि, न मृत्यु, न आधि, न व्याधि ही,
समझियो तुम स्वप्न-समाधि ही।
हहह! पागल हो यदि उर्मिला,
विरह-सर्प स्वयं फिर तो किला!
प्रिय यहाँ वन से जब आयँगे
सब विकार स्वयं मिट जायँगे।
न सपने सपने रह पायँगे,
प्रकटता अपनी दिखलायँगे।
अब भी समक्ष वह नाथ खड़े,
बढ़ किन्तु रिक्त यह हाथ पड़े।
न वियोग है न यह योग सखी,
कह कौन भाग्य मय भोग सखी?
विचारती हूँ सखि, मैं कभी कभी,
अरण्य से हैं प्रिय लौट आते।
छिपे छिपे आकर देखते सभी
कभी स्वयं भी कुछ दीख जाते!
आते यहाँ नाथ निहारने हमें,
उद्धारने या सखि, तारने हमें?
या जानने को, किस भाँति जी रहे?
तो जान लें वे, हम अश्रु पी रहे!
सखि, विचार कभी उठता यही-
अवधि पूर्ण हुई, प्रिय आ गये।
तदपि मैं मिलते सकुचा रही;
वह वही, पर आज नये नये!
निरखती सखी, आज मैं जहाँ,
दयति-दीप्ति ही दीखती वहाँ।
हहह! उर्मिला भ्रान्त है, रहे,
यह असत्य तो सत्य भी बहे।
ज्वलित प्राण भी प्राण पागये,
सुभग आगये, कान्त आगये!
निकल हंस-से केकि-कुंज से,
निरख वे खड़े प्रेम-पुंज-से!
रुचिर चन्द्र की चन्द्रिका खिली,
निज अशोक से मल्लिका मिली।
अवधि होगई पूर्ण अन्त में,
सुयश छा रहा है दिगन्त में।
स्वजनि, धन्य है आज की घड़ी,
तदपि खिन्न-सी तू यहाँ खड़ी!
त्वरित आरती ला, उतार लूँ,
पद दृगम्बु से मैं पखार लूँ।
चरण हैं भरे देख, धूल से,
विरह-सिन्धु में प्राप्त कूल-से।
विकट क्या जटाजूट है बना,
भृकुटि युग्म में चाप-सा तना।
वदन है भरा मन्द हास से,
गलित चन्द्र भी श्री-विलास से।
ललित कन्धरा, कण्ठ कम्बु-सा,
नयन पद्म-से, ओज अम्बु-सा।
तनु तपा हुआ शुद्ध हेम है,
सुलभ योग है और क्षेम है।
उदित उर्मिला-भाग्य धन्य है,
अब कृती कहाँ कौन अन्य है!
विजय नाथ की हो सभी कहीं,
तदपि क्यों खड़े हो गये वहीं?
प्रिय, प्रविष्ट हो, द्वार मुक्त है,
मिलन-योग तो नित्य युक्त है।
तुम महान हो और हीन मैं,
तदपि धूलि-सी अंध्रि-लीन मैं।
दयित, देखते देव भक्ति को,
निरखते नहीं नाथ, व्यक्ति को।
तुम बड़े, बने और भी बड़े,
तदपि उर्मिला-भाग में पड़े।
अब नहीं, रही दीन मैं कभी,
तुम मुझे मिले तो मिला सभी।
प्रभु कहाँ, कहाँ किन्तु अग्रजा,
कि जिनके लिए था तुझे तजा?
वह नहीं फिरे? क्या तुम्हीं फिरे?
हम गिरे अहो! तो गिरे, गिरे।
दयित, क्या मुझे आर्त्त जान के
अधिप ने अनुक्रोश मान के,
घर दिया तुम्हें भेज आप ही?
यह हुआ मुझे और ताप ही।
प्रिय, फिरो, फिरो हा! फिरो, फिरो!
न इस मोह की घूम से घिरो।
विकल मैं यहाँ, किन्तु गर्विणी,
न कर दो मुझे नष्टपर्विणी।
घर फिरे तुम्हीं मोह से कहीं,
तब हुए तपोभ्रष्ट क्या नहीं?
च्युत हुए अहो नाथ, जो यथा,
धिक! वृथा हुई उर्मिला-व्यथा।
समय है अभी, हा! फिरो, फिरो,
तुम न यों यशः-स्वर्ग से गिरो।
प्रभु दयालु हैं, लौट के मिलो,
न उनके कुटी-द्वार से हिलो।
धिक! प्रतीति भी की न नाथ की,
पर न थी सखी, बात हाथ की।
प्रतिविधान मैं क्या करूँ बता,
इस अनर्थ का भी कहीं पता!
अधम उर्मिले, हाय निर्दया!
पतित नाथ हैं? तू सदाशया?
नियम पालती एक मात्र तू,
सब अपात्र हैं, और पात्र तू?
मुहँ दिखायगी क्या उन्हें अरी;
मर ससंशया, क्यों न तू मरी।
सदय वे, बता किन्तु चंचला,
वह क्षमा सही जायगी भला?
’बिसरता नहीं न्याय भी दया,
बस रहो प्रिये, जान मैं गया।
तुम अधीर हो तुच्छ ताप में
रह सकी नहीं आप आप में!
न उस धूप में और मेह में,
तुम रहीं यहाँ राजगेह में।
विदित क्या तुम्हें, देवि, क्या हुआ,
रुधिर स्वेद के रूप में चुआ।
विपिन में कभी सो सका न मैं,
अधिक क्या कहूँ, रो सका न मैं।
वचन ये पुरस्कार में मिले,
अहह उर्मिले! हाय उर्मिले!
गिन सको, गिनो शूल, जो चुभे,
सहज है समालोचना शुभे!
कठिन साधना किन्तु तत्व की,
प्रथम चाहिए सिद्धि सत्व की।
कठिन कर्म का क्षेत्र था वहाँ,
पर यहाँ? कहो देवि, क्या यहाँ?
उलहना कभी दैव को दिया,
बहुत जो किया, नेंक रो लिया!
सतत पुण्य या पाप-संगिनी,
समझता रहा आत्मअंगिनी।
स्वपति-पुण्य ही इष्ट था तुम्हें,
कटु मुझे, तथा मिष्ट था तुम्हें?
प्रियतमे, तपोभ्रष्ट मैं? भला!
मत छुओ मुझे, लौट मैं चला।
तुम सुखी रहो हे विरागिनी,
बस विदा मुझे पुण्यभागिनी!
हट सुलक्षणे, रोक तू न यों,
पतित मैं, मुझे टोक तू न यों।
विवश लक-’ ’नहीं, उर्मिला हहा!’
किधर उर्मिला? आलि, क्या कहा?
फिर हुई अहा! मत्त उर्मिला,
सखि, प्रियत्व था क्या मुझे मिला?
यह वियोग या रोग, जो कहे,
प्रियमयी सदा उर्मिला रहे।
उन्मादिनी कभी थी,
विवेकिनी उर्मिला हुई सखि, अब है;
अज्ञान भला, जिसमें
सोंह तो क्या, स्वयं अहं भी कब है?
बँध कर घुलना अथवा,
जल पल भर दीप-दान कर खुलना;
तुझको सभी सहज है,
मुझको कर्पूरवर्त्ति, बस घुलना!
लाना, लाना, सखि, तूली!
आँखों में छवि झूली।
आ, अंकित कर उसे दिखाऊँ;
इस चिन्ता से छुट्टी पाऊँ;
डरती हूँ, फिर भूल न जाऊँ;
मैं हूँ भूली भूली,
लाना, लाना, सखि, तूली!
जब जल चुकी विरहिणी बाला,
बुझने लगी चिता की ज्वाला,
तब पहुँचा विरही मतवाला,
सती-हीन ज्यों शूली।
लाना, लाना, सखि, तूली!
झुलसा तरु मरमर करता था;
झड़ निर्झर झरझर झरता था;
हत विरही हरहर करता था;
उड़ती थी गोधूली।
लाना, लाना, सखि, तूली!
ज्यों ही अश्रु चिता पर आया
उग अंकुर पत्तों से छाया;
फूल वही वदनाकृति लाया,
लिपटी लतिका फूली!
लाना, लाना, सखि, तूली!
सिर-माथे तेरा यह दान,
हे मेरे प्रेरक भगवान!
अब क्या माँगू भला और मैं फैला कर ये हाथ?
मुझे भूल कर ही विभु-वन में विचरें मेरे नाथ।
मुझे न भूले उनका ध्यान,
हे मेरे प्रेरक भगवान!
डूब बची लक्ष्मी पानी में, सती आग में पैठ;
जिये उर्मिला, करे प्रतीक्षा, सहे सभी घर बैठ।
विधि से चलता रहै विधान,
हे मेरे प्रेरक भगवान!
दहन दिया तो भला सहन क्या होगा तुझे अदेय?
प्रभु की ही इच्छा पूरी हो, जिसमें सबका श्रेय।
यही रुदन है मेरा गान,
हे मेरे प्रेरक भगवान!
अवधि-शिला का उर पर था गुरु भार;
तिल तिल काट रही थी दृगजल-धार।
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