रंगभूमि अध्याय 6
धर्मभीरुता में जहाँ अनेक गुण हैं, वहाँ एक अवगुण भी है; वह सरल होती है। पाखंडियों का दाँव उस पर सहज ही में चल जाता है। धर्मभीरु प्राणी तार्किक नहीं होता। उसकी विवेचना-शक्ति शिथिल हो जाती है। ताहिर अली ने जब से अपनी दोनों विमाताओं की बातें सुनी थीं, उनके हृदय में घोर अशांति हो रही थी। बार-बार खुदा से दुआ माँगते थे, नीति-ग्रंथों से अपनी शंका का समाधान करने की चेष्टा करते थे। दिन तो किसी तरह गुजरा, संध्या होते ही वह मि. जॉन सेवक के पास पहुँचे और बड़े विनीत शब्दों में बोले-हुजूर की खिदमत में इस वक्त एक खास अर्ज करने के लिए हाज़िर हुआ हूँ। इर्शाद हो तो कहूँ।
जॉन सेवक-हाँ-हाँ, कहिए, कोई नई बात है क्या?
ताहिर-हुजूर उस अंधे की जमीन लेने का खयाल छोड़ दें, तो बहुत ही मुनासिब हो। हजारों दिक्कतें हैं। अकेला सूरदास ही नहीं, सारा मुहल्ला लड़ने पर तुला हुआ है। खासकर नायकराम पंडा बहुत बिगड़ा हुआ है। वह बड़ा खौफनायक आदमी है। जाने कितनी बार फौजदारियाँ कर चुका है। अगर ये सब दिक्कतें किसी तरह दूर भी हो जाएँ, तो भी मैं आपसे यही अर्ज करूँगा कि इसके बजाए किसी दूसरी जमीन की फिक्र कीजिए।
जॉन सेवक-यह क्यों?
ताहिर-हुजूर, यह सब अजाब का काम है। सैंकड़ों आदमियों का काम उस जमीन से निकलता है, सबकी गायें वहीं चरती हैं, बरातें ठहरती हैं, प्लेग के दिनोें में लोग वहीं झोंपड़े डालते हैं। वह जमीन निकल गई, तो सारी आबादी को तकलीफ होगी, और लोग दिल में हमें सैंकड़ों बददुआएँ देंगे। इसका अजाब जरूर पड़ेगा।
जॉन सेवक-(हँसकर) अजाब तो मेरी गरदन पर पड़ेगा न? मैं उसका बोझ उठा सकता हूँ।
ताहिर-हुजूर, मैं भी तो आप ही के दामन से लगा हुआ हूँ। मैं उस अजाब से कब बच सकता हूँ? बल्कि मुहल्लेवाले मुझी को बागी समझते हैं। हुजूर तो यहाँ तशरीफ रखते हैं, मैं तो आठों पहर उनकी आँखों के सामने रहूँगा, नित्य उनकी नजरों में खटकता रहूँगा, औरतें भी राह चलते दो गालियाँ सुना दिया करेंगी। बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ; खुदा जाने क्या पड़े, क्या न पड़े। आखिर शहर के करीब और जमीनें भी तो मिल सकती हैं।
धर्मभीरुता जड़वादियों की दृष्टि में हास्यास्पद बन जाती है। विशेषत: एक जवान आदमी में तो यह अक्षम्य समझी जाती है। जॉन सेवक ने कृत्रिम क्रोध धारण करके कहा-मेरे भी बाल-बच्चे हैं। जब मैं नहीं डरता, तो आप क्यों डरते हैं? क्या आप समझते हैं कि मुझे अपने बाल-बच्चे प्यारे नहीं, या मैं खुदा से नहीं डरता?
ताहिर-आप साहबे-एकबाल हैं, आपको अजाब का खौफ नहीं। एकबाल वालों से अजाब भी काँपता है। खुदा का कहर गरीबों ही पर गिरता है।
जॉन सेवक-इस नए धर्म-सिध्दांत के जन्मदाता शायद आप ही होंगे; क्योंकि मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि ऐश्वर्य से ईश्वरीय कोप भी डरता है। बल्कि हमारे धर्म-ग्रंथों में तो धनिकों के लिए स्वर्ग का द्वार ही बंद कर दिया गया है।
ताहिर-हुजूर, मुझे इस झगड़े से दूर रखें, तो अच्छा हो।
जॉन सेवक-आज आपको इस झगड़े से दूर रखूँ, कल आपको यह शंका हो कि पशु-हत्या से खुदा नाराज होता है, आप मुझे वालों की खरीद से दूर रखें, तो मैं आपको किन-किन बातों से दूर रखूँगा, और कहाँ-कहाँ ईश्वर के कोप से आपकी रक्षा करूँगा? इससे तो कहीं अच्छा यही है कि आपको अपने ही से दूर रखूँ। मेरे यहाँ रहकर आपको ईश्वरीय कोप का सामना करना पड़ेगा।
मिसेज सेवक-जब आपको ईश्वरीय कोप का इतना भय है, तो आपसे हमारे यहाँ काम नहीं हो सकता।
ताहिर-मुझे हुजूर की खिदमत से इनकार थोड़े ही है, मैं तो सिर्फ...
मिसेज़ सेवक-आपको हमारी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना पड़ेगा, चाहे उससे आपका खुदा खुश हो या नाखुश। हम अपने कामों में आपके खुदा को हस्तक्षेप न करने देंगे।
ताहिर अली हताश हो गए। मन को समझाने लगे-ईश्वर दयालु है, क्या वह देखता नहीं कि मैं कैसी बेड़ियों में जकड़ा हुआ हूँ। मेरा इसमें क्या वश है? अगर स्वामी की आज्ञाओं को न मानूँ, तो कुटुम्ब का पालन क्योंकर हो। बरसों मारे-मारे फिरने के बाद तो यह ठिकाने की नौकरी हाथ आई है। इसे छोड़ दूँ, तो फिर उसी तरह की ठोकरें खानी पड़ेंगी। अभी कुछ और नहीं है, तो रोटी-दाल का सहारा तो है। गृहचिंता आत्मचिंतन की घातिका है।
ताहिर अली को निरुत्तार होना पड़ा। बेचारे अपने स्त्री के सारे गहने बेचकर खा चुके थे। अब एक छल्ला भी न था। माहिर अली अंगरेजी पढ़ता था।
उसके लिए अच्छे कपड़े बनवाने पड़ते, प्रतिमास फीस देनी पड़ती। जाबिर अली और जाहिर अली उर्दू मदरसे में पढ़ते थे; किंतु उनकी माता नित्य जान खाया करती थीं कि इन्हें भी अंगरेजी मदरसे में दाखिल करा दो, उर्दू पढ़ाकर क्या चपरासगिरी करानी है? अंगरेजी थोड़ी भी आ जाएगी, तो किसी-न-किसी दफ्तर में घुस ही जाएँगे। भाइयों के लालन-पालन पर उनकी आवश्यकताएँ ठोकर खाती रहती थीं। पाजामे में इतने पैबंद लग जाते थे कि कपड़े का यथार्थ रूप छिप जाता था। नए जूते तो शायद इन पाँच बरसों में उन्हें नसीब ही नहीं हुए। माहिर अली के पुराने जूतों पर संतोष करना पड़ता था। सौभाग्य से माहिर अली के पाँव बड़े थे। यथासाधय यह भाइयों को कष्ट न होने देते थे। लेकिन कभी हाथ तंग रहने के कारण उनके लिए नए कपड़े न बनवा सकते, या फीस देने में देर हो जाती, या नाश्ता न मिल सकता, या मदरसे में जलपान करने के लिए पैसे न मिलते, तो दोनों माताएँ व्यंग्यों और कटूक्तियों से उनका हृदय छेद डालती थीं। बेकारी के दिनों में वह बहुधा, अपना बोझ हलका करने के लिए, स्त्री और बच्चों को मैके पहुँचा दिया करते थे। उपहास से बचने के खयाल से एक-आधा महीने के लिए बुला लेते, और फिर किसी-न-किसी बहाने से विदा कर देते। जब से मि. जॉन सेवक की शरण आए थे, एक प्रकार से उनके सुदिन आ गए थे; कल की चिंता सिर पर सवार न रहती थी। माहिर अली की उम्र पंद्रह से अधिक हो गई थी। अब सारी आशाएँ उसी पर अवलम्बित थीं। सोचते, जब माहिर मैट्रिक पास हो जाएगा, तो साहब से सिफारिश कराके पुलिस में भरती करा दूँगा। पचास रुपये से क्या कम वेतन मिलेगा! हम दोनों भाइयों की आय मिलाकर 80 रुपये हो जाएगी। तब जीवन का कुछ आनंद मिलेगा। तब तक जाहिर अली भी हाथ-पैर सम्भाल लेगा, फिर चैन ही चैन है। बस, तीन-चार साल की और तकलीफ है। स्त्री से बहुधा झगड़ा हो जाता। वह कहा करती-ये भाई-बंद एक भी काम न आएँगे। ज्यों ही अवसर मिला, पर झाड़कर निकल जाएँगे, तुम खड़े ताकते रह जाओगे। ताहिर अली इन बातों पर स्त्री से रूठ जाते। उसे घर में आग लगाने वाली, विष की गाँठ कहकर रुलाते।
आशाओं और चिंताओं से इतना दबा हुआ व्यक्ति मिसेज सेवक के कटु वाक्यों का क्या उत्तर देता! स्वामी के कोप ने ईश्वर के कोप को परास्त कर दिया। व्यथित कंठ से बोले-हुजूर का नमक खाता हूँ, आपकी मरजी मेरे लिए खुदा के हुक्म का दरजा रखती है। किताबों में आका को खुश करने का वही सबाब लिखा है, जो खुदा को खुश रखने का है। हुजूर की नमकहरामी करके खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा!
जॉन सेवक-हाँ, अब आप आए सीधो रास्ते पर। जाइए, अपना काम कीजिए। धर्म और व्यापार को एक तराजू तौलना मूर्खता है। धर्म धर्म है, व्यापार व्यापार; परस्पर कोई सम्बंध नहीं। संसार में जीवित रहने के लिए किसी व्यापार की जरूरत है, धर्म की नहीं। धर्म तो व्यापार का शृंगार है। वह धनाधीशों ही को शोभा देता है। खुदा आपको समाई दे, अवकाश मिले, घर में फालतू रुपये हों, तो नमाज पढ़िए, हज कीजिए, मसजिद बनवाइए, कुएँ खुदवाइए; तब मजहब है, खाली पेट खुदा को नाम लेना पाप है।
ताहिर अली ने झुककर सलाम किया और घर लौट आए।
रंगभूमि अध्याय 7
संध्या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा, इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था और प्राणपण से समय-चक्र को पलट देना चाहता था। बादल भी थे, बूँदें भी थीं, ठंडी हवा भी थी, कुहरा भी था। इतनी विभिन्न शक्तियों के मुकाबिले में ऋतुराज की एक न चलती। लोग लिहाफ में यों मुँह छिपाए हुए थे, जैसे चूहे बिलों में से झाँकते हैं। दूकानदार अंगीठियों के सामने, बैठे हाथ सेंकते थे। पैसों के सौदे नहीं, मुरौवत के सौदे बेचते थे। राह चलते लोग अलाव पर यों गिरते थे,
मानो दीपक पर पतंगे गिरते हों। बड़े घरों की स्त्रियाँ मनाती थीं-मिसराइन न आए, तो आज भोजन बनाएँ, चूल्हे के सामने बैठने का अवसर मिले। चाय की दूकानों पर जमघट रहता था। ठाकुरदीन के पान छबड़ी में पड़े सड़ रहे थे; पर उसकी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें फेरे! सूरदास अपनी जगह पर तो आ बैठा था; पर इधर-उधर से सूखी टहनियाँ बटोरकर जला ली थीं और हाथ सेंक रहा था। सवारियाँ आज कहाँ! हाँ, कोई इक्का-दुक्का मुसाफिर निकल जाता था, तो बैठे-बैठे उसका कल्याण मना लेता था। जब से सैयद ताहिर अली ने उसे धमकियाँ दी थीं, जमीन के निकल जाने की शंका उसके हृदय पर छाई रहती थी। सोचता-क्या इसी दिन के लिए, मैंने इस जमीन का इतना जतन किया था? मेरे दिन सदा यों ही थोड़े ही रहेंगे, कभी तो लच्छमी प्रसन्न होंगी! अंधों की आँखें न खुलें; पर भाग खुल सकता है। कौन जाने, कोई दानी मिल जाए, या मेरे ही हाथ में धीरे-धीरे कुछ रुपये इकट्ठे हो जाएँ, बनते देर नहीं लगती। यही अभिलाषा थी कि यहाँ एक कुआँ और एक छोटा-सा मंदिर बनवा देता, मरने के पीछे अपनी कुछ निशानी रहती। नहीं तो कौन जानेगा कि अंधा कौन था। पिसनहारी ने कुआँ खुदवाया था, आज तक उसका नाम चला जाता है। झक्कड़ साईं ने बावली बनवाई थी, आज तक झक्कड़ की बावली मशहूर है। जमीन निकल गई, तो नाम डूब जाएगा। कुछ रुपये मिले भी, तो किस काम के?
नायकराम उसे ढाढ़स देता रहता था-तुम कुछ चिंता मत करो, कौन माँ का बेटा है, जो मेरे रहते तुम्हारी जमीन निकाल ले। लहू की नदी बहा दूँगा। उस किरंटे की क्या मजाल, गोदाम में आग लगा दूँगा, इधर का रास्ता छुड़ा दूँगा। वह है किस गुमान में! बस तुम हामी न भरना। किंतु इन शब्दों से जो तस्कीन होती थी, वह भैरों और जगधर की ईर्ष्यापूर्ण वितंडाओं से मिट जाती थी, और वह एक लम्बी साँस खींचकर रह जाता था।
वह इन्हीं विचारों में मग्न था कि नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे, एक अंगोछा कंधो पर डाले, पान के बीड़े मुँह में भरे, आकर खड़ा हो गया और बोला-सूरदास, बैठे टापते ही रहोगे? साँझ हो गई, हवा खानेवाले अब इस ठंड में न निकलेंगे। खाने-भर को मिल गया कि नहीं?
सूरदास-कहाँ महाराज, आज तो एक भागवान से भी भेंट न हुई।
नायकराम-जो भाग्य में था, मिल गया। चलो, घर चलें। बहुत ठंड लगती हो, तो मेरा यह अंगोछा कंधो पर डाल लो। मैं तो इधर आया था कि कहीं साहब मिल जाएँ, तो दो-दो बातें कर लूँ। फिर एक बार उनकी और हमारी भी हो जाए।
सूरदास चलने को उठा ही था कि सहसा एक गाड़ी की आहट मिली। रुक गया। आस बँधी। एक क्षण में फिटन आ पहुँची। सूरदास ने आगे बढ़कर कहा-दाता, भगवान् तुम्हारा कल्यान करें, अंधे की खबर लीजिए।
फिटन रुक गई, और चतारी के राजा साहब उतर पड़े। नायकराम उनका पंडा था। साल में दो-चार सौ रुपये उनकी रियासत से पाता था। उन्हें आशीर्वाद देकर बोला-सरकार का इधर कैसे आना हुआ? आज तो बड़ी ठंड है।
राजा साहब-यही सूरदास है, जिसकी जमीन आगे पड़ती है? आओ, तुम दोनों आदमी मेरे साथ बैठ जाओ, मैं जरा उस जमीन को देखना चाहता हूँ।
नायकराम-सरकार चलें, हम दोनों पीछे-पीछे आते हैं।
राजा साहब-अजी आकर बैठ जाओ, तुम्हें आने में देर होगी, और मैंने अभी संध्या नहीं की है।
सूरदास-पंडाजी, तुम बैठ जाओ, मैं दौड़ता हुआ चलूँगा, गाड़ी के साथ-ही-साथ पहुँचूँगा।
राजा साहब-नहीं-नहीं, तुम्हारे बैठने में कोई हरज नहीं है, तुम इस समय भिखारी सूरदास नहीं, जमींदार सूरदास हो।
नायकराम-बैठो सूरे, बैठो। हमारे सरकार साक्षात् देवरूप हैं।
सूरदास-पंडाजी, मैं...
राजा साहब-पंडाजी, तुम इनका हाथ पकड़कर बिठा दो, यों न बैठेंगे।
नायकराम ने सूरदास को गोद में उठाकर गद्दी पर बैठा दिया, आप भी बैठे, और फिटन चली। सूरदास को अपने जीवन में फिटन पर बैठने का यह पहला ही अवसर था। ऐसा जान पड़ता था कि मैं उड़ा जा रहा हूँ। तीन-चार मिनट में जब गोदाम पर गाड़ी रुक गई और राजा साहब उतर पड़े, तो सूरदास को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्दी क्योंकर आ गए।
राजा साहब-जमीन तो बड़े मौके की है।
सूरदास-सरकार, बाप-दादों की निसानी है।
सूरदास के मन में भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं-क्या साहब ने इनको यह जमीन देखने के लिए भेजा है? सुना है, यह बड़े धर्मात्मा पुरुष हैं। तो इन्होंने साहब को समझा क्यों न दिया? बड़े आदमी सब एक होते हैं, चाहे हिंदू हों या तुर्क; तभी तो मेरा इतना आदर कर रहे हैं, जैसे बकरे की गरदन काटने से पहले उसे भर-पेट दाना खिला देते हैं। लेकिन मैं इनकी बातों में आनेवाला नहीं हूँ।
राजा साहब-असामियों के साथ बंदोबस्त हैं?
नायकराम-नहीं सरकार, ऐसे ही परती पड़ी रहती है, सारे मुहल्ले की गऊएं यहीं चरने आती हैं। उठा दी जाए, तो 200 रुपये से कम नफ़ा न हो, पर यह कहता है, जब भगवान् मुझे यों ही खाने-भर को देते हैं, तो इसे क्यों उठाऊँ।
राजा साहब-अच्छा, तो सूरदास दान लेता ही नहीं, देता भी है। ऐसे प्राणियों के दर्शन ही से पुण्य होता है।
नायकराम की निगाह में सूरदास का इतना आदर कभी न हुआ था। बोले-हुजूर, उस जन्म का कोई बड़ा भारी महात्मा है।
राजा साहब-उस जन्म का नहीं, इस जन्म का महात्मा है।
सच्चा दानी प्रसिध्दि का अभिलाषी नहीं होता। सूरदास को अपने त्याग और दान के महत्व का ज्ञान ही न था। शायद होता, तो स्वभाव में इतनी सरल दीनता न रहती, अपनी प्रशंसा कानों को मधुर लगती है। सभ्य दृष्टि में दान का यही सर्वोत्ताम पुरस्कार है। सूरदास का दान पृथ्वी या आकाश का दान था, जिसे स्तुति या कीर्ति की चिंता नहीं होती। उसे राजा साहब की उदारता में कपट की गंध आ रही थी। वह यह जानने के लिए विकल हो रहा था कि राजा साहब का इन बातों से अभिप्राय क्या है।
नायकराम राजा साहब को खुश करने के लिए सूरदास का गुणानुवाद करने लगे-धर्मावतार, इतने पर भी इन्हें चैन नहीं है। यहाँ, धर्मशाला, मंदिर और कुआँ बनवाने का विचार कर रहे हैं।
राजा साहब-वाह, तब तो बात ही बन गई। क्यों सूरदास, तुम इस जमीन में से 9 बीघे मिस्टर जॉन सेवक को दे दो। उनसे जो रुपये मिलें, उन्हें धर्म-कार्य में लगा दो। इस तरह तुम्हारी अभिलाषा भी पूरी हो जाएगी और काम भी निकल जाएगा। दूसरों से इतने अच्छे दाम न मिलेंगे। बोलो, कितने रुपये दिला दूँ?
नायकराम सूरदास को मौन देखकर डरे कि कहीं यह इनकार कर बैठा, तो मेरी बात गई! बोले-सूरे, हमारे मालिक को जानते हो न, चतारी के महाराज हैं, इसी दरबार से हमारी परवरिस होती है। मिनिसपलटी के सबसे बड़े हाकिम हैं। आपके हुक्म बिना कोई अपने द्वार पर खूँटा भी नहीं गाड़ सकता। चाहें, तो सब इक्केवालों को पकड़वा लें, सारे शहर का पानी बंद कर दें।
सूरदास-जब आपका इतना बड़ा अखतियार है, तो साहब को कोई दूसरी जमीन क्यों नहीं दिला देते?
राजा साहब-ऐसे अच्छे मौके पर शहर में दूसरी जमीन मिलनी मुश्किल है। लेकिन तुम्हें इसके देने में क्या आपत्ति है? इस तरह न जाने कितने दिनों में तुम्हारी मनोकामनाएँ पूरी होंगी। यह तो बहुत अच्छा अवसर हाथ आया, रुपये लेकर धर्म-कार्य में लगा दो।
सूरदास-महाराज, मैं खुशी से जमीन न बेचूँगा।
नायकराम-सूरे, कुछ भंग तो नहीं खा गए? कुछ खयाल है, किससे बातें कर रहे हो!
सूरदास-पंडाजी, सब खियाल है, आँखें नहीं हैं, तो क्या अक्किल भी नहीं है! पर जब मेरी चीज है ही नहीं, तो मैं उसका बेचनेवाला कौन होता हूँ?
राजा साहब-यह जमीन तो तुम्हारी ही है?
सूरदास-नहीं सरकार, मेरी नहीं, मेरे बाप-दादों की है। मेरी चीज वही है, जो मैंने अपने बाँह-बल से पैदा की हो। यह जमीन मुझे धरोहर मिली है, मैं इसका मालिक नहीं हूँ।
राजा साहब-सूरदास, तुम्हारी यह बात मेरे मन में बैठ गई। अगर और जमींदारों के दिल में ऐसे ही भाव होते, तो आज सैकड़ों घर यों तबाह न होते। केवल भोग-विलास के लिए लोग बड़ी-बड़ी रियासतें बरबाद कर देते हैं। पंडाजी, मैंने सभा में यही प्रस्ताव पेश किया है कि जमींदारों को अपनी जायदाद बेचने का अधिकार न रहे, लेकिन जो जायदाद धर्म-कार्य के लिए बेची जाए, उसे मैं बेचना नहीं कहता।
सूरदास-धरमावतार, मेरा तो इस जमीन के साथ इतना ही नाता है कि जब तक जिऊँ, इसकी रक्षा करूँ, और मरूँ, तो इसे ज्यों-की-त्यों छोड़ जाऊँ।
राजा साहब-लेकिन यह तो सोचो कि तुम अपनी जमीन का एक भाग केवल इसलिए दूसरे को दे रहे हो कि मंदिर बनवाने के लिए रुपये मिल जाएँ।
नायकराम-बोलो सूरे, महाराज की इस बात का क्या जवाब देते हो?
सूरदास-मैं सरकार की बातों का जवाब देने जोग हूँ कि जवाब दूँ? लेकिन इतना तो सरकार जानते ही हैं कि लोग उँगली पकड़ते-पकड़ते पहुँचा पकड़ लेते हैं।
साहब पहले तो न बोलेंगे, फिर धीरे-धीरे हाता बना लेंगे, कोई मंदिर में जाने न पाएगा, उनसे कौन रोज-रोज लड़ाई करेगा।
नायकराम-दीनबंधु, सूरदास ने यह बात पक्की कही, बड़े आदमियों से कौन लड़ता फिरेगा?
राजा साहब-साहब क्या करेंगे, क्या तुम्हारा मंदिर खोदकर फेंक देंगे?
नायकराम-बोलो सूरे, अब क्या कहते हो?
सूरदास-सरकार, गरीब की घरवाली गाँव-भर की भावज होती है। साहब किरस्तान हैं, धरमशाले में तमाकू का गोदाम बनाएँगे, मंदिर में उनके मजूर सोएँगे, कुएँ पर उनके मजूरों का अड्डा होगा, बहू-बेटियाँ पानी भरने न जा सकेंगी। साहब न करेंगे, साहब के लड़के करेंगे। मेरे बाप-दादों का नाम डूब जाएगा। सरकार, मुझे इस दलदल में न फँसाइए।
नायकराम-धरमावतार, सूरदास की बात मेरे मन में भी बैठती है। थोड़े दिनों में मंदिर, धरमशाला, कुआँ, सब साहब का हो जाएगा, इसमें संदेह नहीं।
राजा साहब-अच्छा, यह भी माना; लेकिन जरा यह भी तो सोचो कि इस कारखाने से लोगों को क्या फायदा होगा। हजारों मजदूर, मिस्त्री , बाबू, मुंशी, लुहार, बढ़ई आकर आबाद हो जाएँगे, एक अच्छी बस्ती हो जाएगी, बनियों की नई-नई दूकानें खुल जाएँगी, आस-पास के किसानों को अपनी शाक-भाजी लेकर शहर न जाना पड़ेगा, यहीं खरे दाम मिल जाएँगे। कुँजड़े, खटिक, ग्वाले, धोबी, दरजी, सभी को लाभ होगा। क्या तुम इस पुण्य के भागी न बनोगे?
नायकराम-अब बोलो सूरे, अब तो कुछ नहीं कहना है? हमारे सरकार की भलमंसी है कि तुमसे इतनी दलील कर रहे हैं। दूसरा हाकिम होता तो एक हुकुमनामे में सारी जमीन तुम्हारे हाथ से निकल जाती।
सूरदास-भैया, इसीलिए न लोग चाहते हैं कि हाकिम धरमात्मा हो, नहीं तो क्या देखते नहीं हैं कि हाकिम लोग बिना डाम-फूल-सूअर के बात नहीं करते। उनके सामने खड़े होने का तो हियाव ही नहीं होता, बातें कौन करता। इसीलिए तो मानते हैं कि हमारे राजों-महाराजों का राज होता, जो हमारा दु:ख-दर्द सुनते। सरकार बहुत ठीक कहते हैं, मुहल्ले की रौनक जरूर बढ़ जाएगी, रोजगारी लोगों को फायदा भी खूब होगा। लेकिन जहाँ यह रौनक बढ़ेगी, वहाँ ताड़ी-शराब का भी तो परचार बढ़ जाएगा, कसबियाँ भी तो आकर बस जाएँगी, परदेशी आदमी हमारी बहू-बेटियों को घूरेंगे, कितना अधरम होगा! दिहात के किसान अपना काम छोड़कर मजूरी के लालच से दौड़ेंगे, यहाँ बुरी-बुरी बातें सीखेंगे और अपने बुरे आचरन अपने गाँव में फैलाएँगे। दिहातों की लड़कियाँ, बहुएँ मजूरी करने आएँगी और यहाँ पैसे के लोभ में अपना धरम बिगाड़ेंगी। यही रौनक शहरों में है। वही रौनक यहाँ हो जाएगी। भगवान् न करें, यहाँ वह रौनक हो। सरकार, मुझे इस कुकरम और अधरम से बचाएँ। यह सारा पाप मेरे सिर पड़ेगा।
नायकराम-दीनबंधु, सूरदास बहुत पक्की बात कहता है। कलकत्ता, बम्बई, अहमदाबाद, कानपुर, आपके अकबाल से सभी जगह घूम आया हूँ, जजमान लोग बुलाते रहते हैं। जहाँ-जहाँ कल-कारखाने हैं, वहाँ यही हाल देखा है।
राजा साहब-क्या बुराइयाँ तीर्थस्थान में नहीं हैं?
सूरदास-सरकार, उनका सुधार भी तो बड़े आदमियों ही के हाथ में है, जहाँ बुरी बातें पहले ही से हैं, वहाँ से हटाने के बदले उन्हें और फैलाना तो ठीक नहीं है।
राजा साहब-ठीक कहते हो सूरदास, बहुत ठीक कहते हो। तुम जीते, मैं हार गया। जिस वक्त मैंने साहब से इस जमीन को तय करा देने का वादा किया था, ये बातें मेरे धयान में न आई थीं। अब तुम निश्चिंत हो जाओ, मैं साहब से कह दूँगा, सूरदास अपनी जमीन नहीं देता। नायकराम, देखो, सूरदास को किसी बात की तकलीफ न होने पाए, अब मैं चलता हूँ। यह लो सूरदास, यह तुम्हारी इतनी दूर आने की मजूरी है।
यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए।
नायकराम ने कहा-सूरदास, आज राजा साहब भी तुम्हारी खोपड़ी को मान गए।
रंगभूमि अध्याय 8
सोफ़िया को इंदु के साथ रहते चार महीने गुजर गए। अपने घर और घरवालों की याद आते ही उसके हृदय में एक ज्वाला-सी प्रज्वलित हो जाती थी। प्रभु सेवक नित्यप्रति उससे एक बार मिलने आता; पर कभी उससे घर का कुशल-समाचार न पूछती। वह कभी हवा खाने भी न जाती कि कहीं मामा से साक्षात् न हो जाए। यद्यपि इंदु ने उसकी परिस्थिति को सबसे गुप्त रखा था; पर अनुमान से सभी प्राणी उसकी यथार्थ दशा से परिचित हो गए थे। इसलिए प्रत्येक प्राणी को यह ख्याल रहता था कि कोई ऐसी बात न होने पावे, जो उसे अप्रिय प्रतीत हो! इंदु को तो उससे इतना प्रेम हो गया था कि अधिकतर उसी के पास बैठी रहती। उसकी संगति में इंदु को भी धर्म और दर्शन के ग्रंथों से रुचि होने लगी।
घर टपकता हो, तो उसकी मरम्मत की जाती है; गिर जाए, तो उसे छोड़ दिया जाता है। सोफी को जब ज्ञात हुआ कि इन लोगों को मेरी सब बातें मालूम हो गईं तो उसने परदा रखने की चेष्टा करनी छोड़ दी; धर्म-ग्रंथों के अधययन में डूब गई। पुरानी कुदूरतें दिल से मिटने लगीं। माता के कठोर वाक्य-बाणों का घाव भरने लगा। वह संकीर्णता, जो व्यक्तिगत भावों और चिंताओं को अनुचित महत्व दे देती है, इस सेवा और सद्व्यवहार के क्षेत्र में आकर तुच्छ जान पड़ने लगी। मन ने कहा, यह मामा के दोष नहीं, उनकी धार्मिक अनुदारता का दोष है; उनका विचारक्षेत्र परिमित है, उनमें विचार-स्वातंत्रय का सम्मान करने की क्षमता ही नहीं, मैं व्यर्थ उनसे रुष्ट हो रही हूँ। यही एक काँटा था, जो उसके अंतस्तल में सदैव खटकता रहता था। जब वह निकल गया, तो चित्ता शांत हो गया। उसका जीवन धर्म-ग्रंथों के अवलोकन और धर्म-सिध्दांतों के मनन तथा चिंतन में व्यतीत होने लगा। अनुराग अंतर्वेदना की सबसे उत्ताम औषधि है।
किंतु इस मनन और अवलोकन से उसका चित्ता शांत होता हो, यह बात न थी। नाना प्रकार की शंकाएँ नित्य उपस्थित होती रहती थीं-जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रत्येक धर्म में इसके विविध उत्तर मिलते थे; पर एक भी ऐसा नहीं मिला, जो मन में बैठ जाए। ये विभूतियाँ क्या हैं, क्या केवल भक्तों की कपोल-कल्पनाएँ हैं? सबसे जटिल समस्या यह थी कि उपासना का उद्देश्य क्या है? ईश्वर क्यों मनुष्यों से अपनी उपासना करने का अनुरोध करता है, इससे उसका क्या अभिप्राय है? क्या वह अपनी ही सृष्टि से अपनी स्तुति सुनकर प्रसन्न होता है? वह इन प्रश्नों की मीमांसा में इतनी तल्लीन रहती कि कई-कई दिन कमरे के बाहर न निकलती, खाने-पीने की सुधि न रहती, यहाँ तक कि कभी-कभी इंदु का आना उसे बुरा मालूम होता।
एक दिन प्रात:काल वह कोई धर्मग्रंथ पढ़ रही थी कि इंदु आकर बैठ गई। उसका मुख उदास था। सोफ़िया उसकी ओर आकृष्ट न हुई, पूर्ववत् पुस्तक देखने में मग्न रही। इंदु बोली-सोफी, अब यहाँ दो-चार दिन की और मेहमान हूँ, मुझे भूल तो न जाओगी?
सोफी ने बिना सिर उठाए ही कहा-हाँ।
इंदु-तुम्हारा मन तो अपनी किताबों में बहल जाएगा, मेरी याद भी न आएगी; पर मुझसे तुम्हारे बिना एक दिन न रहा जाएगा।
सोफी ने किताब की तरफ देखते हुए कहा-हाँ।
इंदु-फिर न जाने कब भेंट हो। सारे दिन अकेले पड़े-पड़े बिसूरा करूँगी।
सोफी ने किताब का पन्ना उलटकर कहा-हाँ।
इंदु से सोफ़िया की निष्ठुरता अब न सही गई। किसी और समय वह रुष्ट होकर चली जाती, अथवा उसे स्वाध्याय में मग्न देखकर कमरे में पाँव ही न रखती; किंतु इस समय उसका कोमल हृदय वियोग-व्यथा से भरा हुआ था, उसमें मान का स्थान नहीं था, रोकर बोली-बहन, ईश्वर के लिए जरा पुस्तक बंद कर दो; चली जाऊँगी, तो फिर खूब पढ़ना। वहाँ से तुम्हें छेड़ने न आऊँगी।
सोफी ने इंदु की ओर देखा, मानो समाधि टूटी! उसकी आँखों में आँसू थे, मुख उतरा हुआ, सिर के बाल बिखरे हुए। बोली-अरे! इंदु, बात क्या है? रोती क्यों हो?
इंदु-तुम अपनी किताब देखो, तुम्हें किसी के रोने-धोने की क्या परवा है! ईश्वर ने न जाने क्यों मुझे तुझ-सा हृदय नहीं दिया।
सोफ़िया-बहन, क्षमा करना, मैं एक बड़ी उलझन में पड़ी हुई थी। अभी तक वह गुत्थी नहीं सुलझी। मूर्तिपूजा को सर्वथा मिथ्या समझती थी। मेरा विचार था कि ऋषियों ने केवल मूर्खों की आधयात्मिक शांति के लिए यह व्यवस्था कर दी है; आज से मैं मूर्ति-पूजा की कायल हो गई। लेखक ने इसे वैज्ञानिक सिध्दांतों से सिध्द किया है, यहाँ तक कि मूर्तियों का आकार-प्रकार भी वैज्ञानिक नियमों ही के आधार पर अवलम्बित बतलाया है।
इंदु-मेरे लिए बुलावा आ गया। तीसरे दिन चली जाऊँगी।
सोफ़िया-यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई, फिर मैं यहाँ कैसे रहूँगी?
इस वाक्य में सहानुभूति नहीं, केवल स्वहित था। किंतु इंदु ने इसका आशय यह समझा कि सोफी को मेरा वियोग असह्य होगा। बोली-तुम्हारा जी तो किताबों में बहल जाएगा। हाँ, मैं तुम्हारी याद में तड़पा करूँगी। सच कहती हूँ, तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी चित्ता से न उतरेगी, यह मोहिनी मूर्ति आँखों के सामने फिरा करेगी। बहन, अगर तुम्हें बुरा न लगे, तो एक याचना करूँ। क्या यह सम्भव नहीं हो सकता कि तुम भी कुछ दिन मेरे साथ रहो? तुम्हारे सत्संग में मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। मैं इसके लिए तुम्हारी सदैव अनुगृहीत रहूँगी।
सोफ़िया-तुम्हारे प्रेम के बंधन में बँधी हुई हूँ, जहाँ चाहो, ले चलो। चाहूँ तो जाऊँगी, न चाहूँ तो भी जाऊँगी। मगर यह तो बताओ, तुमने राजा साहब से भी पूछ लिया है?
इंदु-यह ऐसी कौन-सी बात है, जिसके लिए उनकी अनुमति लेनी पड़े। मुझसे बराबर कहते रहते हैं कि तुम्हारे लिए एक लेडी की जरूरत है, अकेले तुम्हारा जी घबराता होगा। यह प्रस्ताव सुनकर फूले न समाएँगे।
रानी जाह्नवी तो इंदु की विदाई की तैयारियाँ कर रही थीं, और इंदु सोफिया के लिए लैस और कपड़े आदि ला-लाकर रखती थी। भाँति-भाँति के कपड़ों से कई संदूक भर दिए। वह ऐसे ठाठ से ले जाना चाहती थी कि घर की लौंडियाँ-बाँदियाँ उसका उचित आदर करें। प्रभु सेवक को सोफी का इंदु के साथ जाना अच्छा न लगता था। उसे अब भी आशा थी कि मामा का क्रोध शांत हो जाएगा और वह सोफी को गले लगाएँगी। सोफी के जाने से वैमनस्य का बढ़ जाना निश्चित था। उसने सोफी को समझाया; किंतु वह इंदु का निमंत्रण अस्वीकार न करना चाहती थी। उसने प्रण कर लिया था कि अब घर न जाऊँगी।
तीसरे दिन राजा महेंद्रकुमार इंदु को विदा कराने आए, तो इंदु ने और बातों के साथ सोफी को साथ ले चलने का जिक्र छेड़ दिया। बोली-मेरी जी वहाँ अकेले घबराया करता है, मिस सोफ़िया के रहने से मेरा जी बहल जाएगा।
महेंद्र.-क्या मिस सेवक अभी तक वहीं हैं?
इंदु-बात यह है कि उनके धार्मिक विचार स्वतंत्र हैं, और उनके घरवाले उनके विचारों की स्वतंत्रता सहन नहीं कर सकते। इसी कारण वह अपने घर नहीं जाना चाहतीं।
महेंद्र.-लेकिन यह तो सोचो, उनके मेरे घर में रहने से मेरी कितनी बदनामी होगी। मि. सेवक को यह बात बुरी लगेगी, और यह नितांत अनुचित है कि मैं उनकी लड़की को, उनकी मरजी के बगैर, अपने घर में रखूँ। सरासर बदनामी होगी।
इंदु-मुझे तो इसमें बदनामी की कोई बात नहीं नजर आती। क्या सहेली अपनी सहेली के यहाँ मेहमान नहीं होती? सोफी का स्वभाव भी तो ऐसा उच्छृंखल नहीं है कि वह इधर-उधर घूमने लगेगी।
महेंद्र.-वह देवी सही; लेकिन ऐसे कितने ही कारण हैं कि मैं उनका तुम्हारे साथ जाना उचित नहीं समझता हूँ। तुममें यह बड़ा दोष है कि कोई काम करने से पहले उसके औचित्य का विचार नहीं करतीं। क्या तुम्हारे विचार में कुल-मर्यादा की अवहेलना करना कोई बुराई नहीं? उनके घरवाले यही तो चाहते हैं कि वह प्रकट रूप से अपने धर्म के नियमों का पालन करें। अगर वह इतना भी नहीं कर सकतीं, तो मैं यही कहूँगा कि उनका विचार-स्वातंत्रय औचित्य की सीमा से बहुत आगे बढ़ गया है।
इंदु-किंतु मैं तो उनसे वादा कर चुकी हूँ। कई दिन से मैं इन्हीं तैयारियों में व्यस्त हूँ। यहाँ अम्माँ से आज्ञा ले चुकी हूँ। घर के सभी प्राणी, नौकर-चाकर जानते हैं वह मेरे साथ जा रही हैं। ऐसी दशा में अगर मैं उन्हें न ले गई, तो लोग अपने मन में क्या कहेंगे? सोचिए, इसमें मेरी कितनी हेठी होगी। मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँगी।
महेंद्र.-बदनामी से बचने के लिए सब कुछ किया जा सकता है। तुम्हें मिस सेवक से कहते शर्म आती हो, तो मैं कह दूँ। वह इतनी नादान नहीं हैं कि इतनी मोटी-सी बात न समझें।
इंदु-मुझे उनके साथ रहते-रहते उनसे इतना प्रेम हो गया है कि उनसे एक दिन भी अलग रहना मेरे लिए असाधय-सा जान पड़ता है। इसकी तो खैर परवा नहीं; जानती हूँ, कभी-न-कभी उनसे वियोग होगा ही; इस समय मुझे सबसे बड़ी चिंता अपनी बात खोने की है। लोग कहेंगे, बात कहकर पलट गई। सोफी ने पहले साफ इनकार कर दिया था। मेरे बहुत कहने-सुनने पर राजी हुई थी। आप मेरी खातिर से अब की मेरी प्रार्थना स्वीकार कीजिए, फिर मैं आपसे पूछे बगैर कोई काम न करूँगी।
महेंद्रकुमार किसी तरह राजी न हुए। इंदु रोई, अनुनय-विनय की, पैरों पड़ी, वे सभी मंत्र फूँके, जो कभी निष्फल ही न होते; पर पति का पाषाण-हृदय न पसीजा; उन्हें अपना नाम संसार की सब वस्तुओं से प्रिय था।
जब महेंद्रकुमार बाहर चले गए, तो इंदु बहुत देर तक शोकावस्था में बैठी रही। बार-बार यही खयाल आता-सोफी अपने मन में क्या कहेगी। मैंने उससे कह रखा है कि मेरे स्वामी मेरी कोई बात नहीं टालते। अब वह समझेगी, वह इसकी बात भी नहीं पूछते। बात भी ऐसी ही है, इन्हें मेरी क्या परवा है? बातें ऐसी करेंगे, मानो इनसे उदार संसार में कोई प्राणी न होगा, पर वह सब कोरी बकवास है? इन्हें तो यही मंजूर है कि यह दिन-भर अकेली बैठी अपने नाम को रोया करे। दिल में जलते होंगे कि सोफी के साथ इसके दिन आराम से गुजरेेंगे। मुझे कैदियों की भाँति रखना चाहते हैं। इन्हें जिद करना आता है, तो मैं भी क्या जिद नहीं कर सकती? मैं भी कहे देती हूँ आप सोफी को न चलने देंगे, तो मैं भी न जाऊँगी। मेरा कर ही क्या सकते हैं, कुछ नहीं।
दिल में डरते हैं कि सोफी के जाने से घर का खर्च बढ़ जाएगा। स्वभाव के कृपण तो हैं ही। उस कृपणता को छिपाने के लिए बदनामी का बहाना निकाला है। दु:खी आत्मा दूसरों की नेकनीयती पर संदेह करने लगती है।
संध्या-समय जब जाह्नवी सैर करने चलीं, तो इंदु ने उनसे यह समाचार कहा, और आग्रह किया कि तुम महेंद्र को समझाकर सोफी को ले चलने पर राजी कर दो। जाह्नवी ने कहा-तुम्हीं क्यों नहीं मान जातीं?
इंदु-अम्माँ, मैं सच्चे हृदय से कह रही हूँ, मैं जिद नहीं करती। अगर मैंने पहले ही सोफ़िया से न कह दिया होता, तो मुझे जरा भी दु:ख न होता; पर सारी तैयारियाँ करके अब उसे न ले जाऊँ, तो वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं उसे मुँह नहीं दिखा सकती। यह इतनी छोटी-सी बात है कि अगर मेरा जरा भी ख्याल होता, तो वह इंकार न करते। ऐसी दशा में आप क्योंकर आशा कर सकती हैं कि मैं उनकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करूँ?
जाह्नवी-वह तुम्हारे स्वामी हैं, उनकी सभी बातें तुम्हें माननी पड़ेंगी।
इंदु-चाहे वह मेरी जरा-जरा-सी बातें भी न मानें?
जाह्नवी-हाँ, उन्हें इसका अख्तियार है। मुझे लज्जा आती है कि मेरे उपदेशों का तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। मैं तुम्हें पति-परायणा सती देखना चाहती हूँ, जिसे अपने पुरुष की आज्ञा या इच्छा के सामने अपने मानापमान का जरा भी विचार नहीं होता। अगर वह तुम्हें सिर के बल चलने को कहें, तो भी तुम्हारा धर्म है कि सिर के बल चलो। तुम इतने में ही घबरा गईं?
इंदु-आप मुझसे वह करने को कहती हैं, जो मेरे लिए असम्भव है।
जाह्नवी-चुप रहो, मैं तुम्हारे मुँह ऐसी बातें नहीं सुन सकती। मुझे भय हो रहा है कि कहीं सोफी के विचार-स्वातंत्रय का जादू तुम्हारे ऊपर भी तो नहीं चल गया!
इंदु ने इसका कुछ उत्तर न दिया। भय होता था कि मेरे मुँह से कोई ऐसा शब्द न निकल पड़े, जिससे अम्माँ के मन में यह संदेह और भी जम जाए, तो बेचारी सोफी का यहाँ रहना कठिन हो जाए। वह रास्ते-भर मौन धारण किए बैठी रही। जब गाड़ी फिर मकान पर पहुँची, और वह उतरकर अपने कमरे की ओर चली, तो जाह्नवी ने कहा-बेटी, मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, महेंद्र से इस विषय में अब एक शब्द भी न कहना, नहीं तो मुझे बहुत दु:ख होगा।
इंदु ने माता को मर्माहत भाव से देखा और अपने कमरे में चली गई। सौभाग्य से महेंद्रकुमार भोजन करके सीधो बाहर चले गए, नहीं तो इंदु के लिए अपने उद्गारों का रोकना अत्यंत कठिन हो जाता। उसके मन में रह-रहकर इच्छा होती थी कि चलकर सोफ़िया से क्षमा माँगूँ, साफ-साफ कह दूँ-बहन, मेरा कुछ वश नहीं है। मैं कहने को रानी हूँ, वास्तव में मुझे उतनी स्वाधीनता भी नहीं है, जितनी मेरे घर की महरियों को। लेकिन यह सोचकर रह जाती थी कि पति-निंदा मेरी धर्म-मर्यादा के प्रतिकूल है। सोफी की निगाहों से गिर जाऊँगी। वह समझेगी, इसमें जरा भी आत्माभिमान नहीं है।
नौ बजे विनयसिंह उससे मिलने आए। वह मानसिक अशांति की दशा में बैठी हुई अपने संदूकों में से सोफी के लिए खरीदे हुए कपड़े निकाल रही थी और सोच रही थी कि इन्हें उनके पास कैसे भेजूँ। खुद जाने का साहस न होता था। विनयसिंह को देखकर बोली-क्यों विनय, अगर तुम्हारी स्त्री अपनी किसी सहेली को कुछ दिनों के लिए अपने साथ रखना चाहे, तो तुम उसे मना कर दोगे, या खुश होगे?
विनय-मेरे सामने यह समस्या कभी आएगी ही नहीं, इसलिए मैं इसकी कल्पना करके अपने मस्तिष्क को कष्ट नहीं देना चाहता।
इंदू-यह समस्या तो पहले ही उपस्थित हो चुकी है।
विनय-बहन, मुझे तुम्हारी बातों से डर लग रहा है।
इंदु-इसीलिए कि तुम अपने को धोखा दे रहे हो; लेकिन वास्तव में तुम उससे बहुत गहरे पानी में हो, जितना तुम समझते हो। क्या तुम समझते हो कि तुम्हारा कई-कई दिनों तक घर में न आना, नित्य सेवा-समिति के कामों में व्यस्त रहना, मिस सोफ़िया की ओर आँख उठाकर न देखना, उसके साये से भागना, उस अंतर्द्वंद्व को छिपा सकता है, जो तुम्हारे हृदय-तल में विकराल रूप से छिड़ा हुआ है? लेकिन याद रखना, इस द्वंद्व की एक झंकार भी न सुनाई दे, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। सोफ़िया तुम्हारा इतना सम्मान करती है, जितना कोई सती अपने पुरुष का भी न करती होगी। वह तुम्हारी भक्ति करती है। तुम्हारे संयम, त्याग और सेवा ने उसे मोहित कर लिया है। लेकिन अगर मुझे धोखा नहीं हुआ है, तो उसकी भक्ति में प्रणय का लेश भी नहीं। यद्यपि तुम्हें सलाह देना व्यर्थ है, क्योंकि तुम इस मार्ग की कठिनाइयों को खूब जानते हो, तथापि मैं तुमसे यही अनुरोध करती हूँ कि तुम कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाओ। तब तक कदाचित् सोफी भी अपने लिए कोई-न-कोई रास्ता ढूँढ़ निकालेगी। सम्भव है, इस समय सचेत हो जाने से दो जीवनों का सर्वनाश होने से बच जाए।
विनय-बहन, जब सब कुछ जानती हो ही, तो तुमसे क्या छिपाऊँ। अब मैं सचेत नहीं हो सकता। इन चार-पाँच महीनों में मैंने जो मानसिक ताप सहन किया है, उसे मेरा हृदय ही जानता है। मेरी बुध्दि भ्रष्ट हो गई है, मैं आँखें खोकर गढ़े में गिर रहा हूँ, जान-बूझकर विष का प्याला पी रहा हूँ। कोई बाधा, कोई कठिनाई, कोई शंका अब मुझे सर्वनाश से नहीं बचा सकती। हाँ, इसका मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि इस आग की एक चिनगारी या एक लपट भी सोफी तक न पहुँचेगी। मेरा सारा शरीर भस्म हो जाए, हड्डियाँ तक राख हो जाएँ; पर सोफी को उस ज्वाला की झलक तक न दिखाई देगी। मैंने भी यही निश्चय किया है कि जितनी जल्दी हो सके, मैं यहाँ से चला जाऊँ-अपनी रक्षा के लिए नहीं, सोफी की रक्षा के लिए। आह! इससे तो यह कहीं अच्छा था कि सोफी ने मुझे उसी आग में जल जाने दिया होता; मेरा परदा ढँका रह जाता। अगर अम्माँ को यह बात मालूम हो गई, तो उनकी क्या दशा होगी। इसकी कल्पना ही से मेरे रोएँ खड़े हो जाते हैं। बस, अब मेरे लिए मुँह में कालिख लगाकर कहीं डूब मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है।
यह कहकर विनयसिंह बाहर चले गए। इंदु 'बैठो-बैठो' कहती रह गई। वह इस समय आवेश में उससे बहुत ज्यादा कह गए थे, जितना वह कहना चाहते थे। और देर तक बैठते, तो न जाने और क्या-क्या कह जाते। इंदु की दशा उस प्राणी की-सी थी, जिसके पैर बँधो हों और सामने उसका घर जल रहा हो। वह देख रही थी, यह आग सारे घर को जला देगी; विनय के ऊँचे-ऊँचे मंसूबे, माता की बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ, पिता के बड़े-बड़े अनुष्ठान, सब विधवंस हो जाएँगे। वह इन्हीं शोकमय विचारों में पड़ी सारी रात करवटें बदलती रही। प्रात:काल उठी, तो द्वार पर उसके लिए पालकी तैयार खड़ी थी। वह माता के गले से लिपटकर रोई, पिता के चरणों को आँसुओं से धोया और घर से चली। रास्ते में सोफी का कमरा पड़ता था। इंदु ने उस कमरे की ओर ताका भी नहीं। सोफी उठकर द्वार पर आई, और आँखों में आँसू भरे हुए उससे हाथ मिलाया। इंदु ने जल्दी से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़ गई।
रंगभूमि अध्याय 9
सोफ़िया इस समय उस अवस्था में थी, जब एक साधारण हँसी की बात, एक साधारण आँखों का इशारा, किसी का उसे देखकर मुस्करा देना, किसी महरी का उसकी आज्ञा का पालन करने में एक क्षण विलम्ब करना, ऐसी हजारों बातें, जो नित्य घरों में होती हैं और जिनकी कोई परवा भी नहीं करता, उसका दिल दु:खाने के लिए काफी हो सकती थीं। चोट खाए हुए अंग को मामूली-सी ठेस भी असह्य हो जाती है। फिर इंदु का बिना उससे कुछ कहे-सुने चला जाना क्यों न दु:खजनक होता! इंदु तो चली गई; पर वह बहुत देर तक अपने कमरे के द्वार पर मूर्ति की भाँति खड़ी सोचती रही-यह तिरस्कार क्यों? मैंने ऐेसा कौन-सा अपराध किया है, जिसका मुझे यह दंड मिला है? अगर उसे यह मंजूर न था कि मुझे साथ ले जाती, तो साफ-साफ कह देने में क्या आपत्ति थी? मैंने उसके साथ चलने के लिए आग्रह तो किया न था! क्या मैं इतना नहीं जानती कि विपत्ति में कोई किसी का साथी नहीं होता?
वह रानी है, उसकी इतनी ही कृपा क्या कम थी कि मेरे साथ हँस-बोल लिया करती थी! मैं उसकी सहेली बनने के योग्य कब थी; क्या मुझे इतनी समझ भी न थी! लेकिन इस तरह आँखें फेर लेना कौन-सी भलमंसी है! राजा साहब ने न माना होगा, यह केवल बहाना है। राजा साहब इतनी-सी बात को कभी अस्वीकार नहीं कर सकते। इंदु ने खुद ही सोचा होगा-वहाँ बड़े-बड़े आदमी मिलने आवेंगे, उनसे इसका परिचय क्योंकर कराऊँगी। कदाचित् यह शंका हुई हो कि कहीं इसके सामने मेरा रंग फीका न पड़ जाए। बस, यही बात है, अगर मैं मूर्खा, रूप-गुणविहीना होती, तो वह मुझे जरूर साथ ले जाती; मेरी हीनता से उसका रंग और चमक उठता। मेरा दुर्भाग्य!
वह अभी द्वार पर खड़ी ही थी कि जाह्नवी बेटी को विदा करके लौटीं, और सोफी के कमरे में आकर बोलीं-बेटी, मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने ही तुम्हें रोक लिया। इंदु को बुरा लगा, पर करूँ क्या, वह तो गई ही तुम भी चली जातीं, तो मेरा दिन कैसे कटता? विनय भी राजपूताना जाने को तैयार बैठे हैं, मेरी तो मौत हो जाती। तुम्हारे रहने से मेरा दिल बहलता रहेगा। सच कहती हूँ बेटी, तुमने मुझ पर कोई मोहिनी-मंत्र फूँक दिया है।
सोफ़िया-आपकी शालीनता है, जो ऐसा कहती हैं। मुझे खेद है, इंदु ने जाते समय मुझसे हाथ भी न मिलाया।
जाह्नवी-केवल लज्जावश बेटी, केवल लज्जावश। मैं तुझसे कहती हूँ, ऐसी सरल बालिका संसार में न होगी। तुझे रोककर मैंने उस पर घोर अन्याय किया है। मेरी बच्ची का वहाँ जरा भी जी नहीं लगता; महीने-भर रह जाती है, तो स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। इतनी बड़ी रियासत है, महेंद्र सारा बोझा उसी के सिर डाल देते हैं। उन्हें तो म्युनिसिपैलिटी ही से फुरसत नहीं मिलती।
बेचारी आय-व्यय का हिसाब लिखते-लिखते घबरा जाती है, उस पर एक-एक पैसे का हिसाब! महेंद्र को हिसाब रखने की धुन है। जरा-सा फर्क पड़ा, तो उसके सिर हो जाते हैं। इंदु को अधिकार है, जितना चाहे खर्च करे, पर हिसाब जरूर लिखे। राजा साहब किसी की रू-रियासत नहीं करते। कोई नौकर एक पैसा भी खा जाए, तो उसे निकाल देते हैं; चाहे उसने उनकी सेवा में अपना जीवन बिता दिया हो। यहाँ मैं इंदु को कभी कड़ी निगाह से नहीं देखती, चाहे घी का घड़ा लुढ़का दे। वहाँ जरा-जरा-सी बात पर राजा साहब की घुड़कियाँ सुननी पड़ती हैं। बच्ची से बात नहीं सही जाती। जवाब तो देती नहीं-और यही हिंदू स्त्री का धर्म है-पर रोने लगती है। वह दया की मूर्ति है। कोई उसका सर्वस्व खा जाए, लेकिन ज्यों ही उसके सामने आकर रोया, बस उसका दिल पिघला। सोफी, भगवान् ने मुझे दो बच्चे दिए, और दोनों ही को देखकर हृदय शीतल हो जाता है। इंदु जितनी ही कोमल प्रकृति और सरल हृदया है, विनय उतना ही धर्मशील और साहसी है। थकना तो जानता ही नहीं। मालूम होता है, दूसरों की सेवा करने के लिए ही उसका जन्म हुआ है। घर में किसी टहलनी को भी कोई शिकायत हुई, और सब काम छोड़कर उसकी दवा-दारू करने लगा। एक बार मुझे ज्वर आने लगा था-इस लड़के ने तीन महीने तक द्वार का मुँह नहीं देखा। नित्य मेरे पास बैठा रहता, कभी पंखा झलता, कभी पाँव सहलाता, कभी रामायण और महाभारत पढ़कर सुनाता। कितना कहती, बेटा जाओ, घूमो-फिरो; आखिर ये लौंडियाँ-बाँदियाँ किस दिन काम आएँगी, डॉक्टर रोज आते ही हैं; तुम क्यों मेरे साथ सती होते हो; पर किसी तरह न जाता। अब कुछ दिनों से सेवा-समिति का आयोजन कर रहा है। कुँवर साहब को जो सेवा-समिति से इतना प्रेम है, वह विनय ही के सत्संग का फल है, नहीं तो आज से तीन साल पहले इनका-सा विलासी सारे नगर में न था। दिन में दो बार हजामत बनती थी। दरजनों धोबी और दरजी कपड़े धोने और सीने के लिए नौकर थे। पेरिस से एक कुशल धोबी कपड़े सँवारने के लिए आया था। कश्मीर और इटली के बावरची खाना पकाते थे।
तसवीरों का इतना व्यसन था कि कई बार अच्छे चित्र लेने के लिए इटली तक की यात्रा की। तुम उन दिनों मंसूरी रही होगी। सैर करने निकलते, तो सशस्त्र सवारों का एक दल साथ चलता। शिकार खेलने की लत थी, महीनों शिकार खेलते रहते। कभी कश्मीर, कभी बीकानेर, कभी नेपाल, केवल शिकार खेलने जाते। विनय ने उनकी काया ही पलट दी। जन्म का विरागी है। पूर्व-जन्म में अवश्य कोई ऋषि रहा होगा।
सोफी-आपके दिल में सेवा और भक्ति के इतने ऊँचे भाव कैसे जागृत हुए? यहाँ तो प्राय: रानियाँ अपने भोग-विलास में ही मग्न रहती हैं?
जाह्नवी-बेटी, यह डॉक्टर गांगुली के सदुपदेश का फल है। जब इंदु दो साल की थी, तो मैं बीमार पड़ी। डॉक्टर गांगुली मेरी दवा करने के लिए आए। हृदय का रोग था, जी घबराया करता, मानो किसी ने उच्चाटन-मंत्र मार दिया हो। डॉक्टर महोदय ने मुझे महाभारत पढ़कर सुनाना शुरू किया। उसमें मेरा ऐसा जी लगा कि कभी-कभी आधी रात तक बैठी पढ़ा करती। थक जाती तो डॉक्टर साहब से पढ़वाकर सुनती। फिर तो वीरतापूर्ण कथाओं के पढ़ने का मुझे ऐसा चस्का लगा कि राजपूतों की ऐसी कोई कथा नहीं, जो मैंने न पढ़ी हो। उसी समय से मेरे मन में जातिप्रेम का भाव अंकुरित हुआ। एक नई अभिलाषा उत्पन्न हुई-मेरी कोख से भी कोई ऐसा पुत्र जन्म लेता, जो अभिमन्यु, दुर्गादास और प्रताप की भाँति जाति का मस्तक ऊँचा करता। मैंने व्रत लिया कि पुत्र हुआ, तो उसे देश और जाति के हित के लिए समर्पित कर दूँगी। मैं उन दिनों तपस्विनी की भाँति जमीन पर सोती, केवल एक बार रूखा भोजन करती, अपने बरतन तक अपने हाथ से धोती थी।
एक वे देवियाँ थीं, जो जाति की मर्यादा रखने के लिए प्राण तक दे देती थीं; एक मैं अभागिनी हूँ कि लोक-परलोक की सब चिंताएँ छोड़कर केवल विषय-वासनाओं में लिप्त हूँ। मुझे जाति की इस अधोगति को देखकर अपनी विलासिता पर लज्जा आती थी। ईश्वर ने मेरी सुन ली। तीसरे साल विनय का जन्म हुआ। मैंने बाल्यावस्था ही से उसे कठिनाइयों का अभ्यास कराना शुरू किया। न कभी गद्दों पर सुलाती, न कभी महरियों और दाइयों की गोद में जाने देती, न कभी मेवे खाने देती। दस वर्ष की अवस्था तक केवल धार्मिक कथाओं द्वारा उसकी शिक्षा हुई। इसके बाद मैंने डॉक्टर गांगुली के साथ छोड़ दिया। मुझे उन्हीं पर पूरा विश्वास था; और मुझे इसका गर्व है कि विनय की शिक्षा-दीक्षा का भार जिस पुरुष पर रखा, वह इसके सर्वथा योग्य था। विनय पृथ्वी के अधिकांश प्रांतों का पर्यटन कर चुका है। संस्कृत और भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त योरप की प्रधान भाषाओं का भी उसे अच्छा ज्ञान है। संगीत का उसे इतना अभ्यास है कि अच्छे-अच्छे कलावंत उसके सामने मुँह खोलने का साहस नहीं कर सकते। नित्य कम्बल बिछाकर जमीन पर सोता है और कम्बल ही ओढ़ता है। पैदल चलने में कई बार इनाम पा चुका है। जलपान के लिए मुट्ठी-भर चने, भोजन के लिए रोटी और साग, बस इसके सिवा संसार के और सभी भोज्य पदार्थ उसके लिए वर्जित-से हैं। बेटी, मैं तुझसे कहाँ तक कहूँ, पूरा त्यागी है। उसके त्याग का सबसे उत्ताम फल यह हुआ कि उसके पिता को भी त्यागी बनना पड़ा। जवान बेटे के सामने बूढ़ा बाप कैसे विलास का दास बना रह सकता! मैं समझती हूँ कि विषय-भोग से उनका मन तृप्त हो गया, और बहुत अच्छा हुआ।
त्यागी पुत्र का भोगी पिता, अत्यंत हास्यास्पद दृश्य होता। वह मुक्त हृदय से विनय के सत्कार्यों में भाग लेते हैं और कह सकती हूँ कि उनके अनुराग के बगैर विनय को कभी इतनी सफलता न प्राप्त होती। समिति में इस समय एक सौ नवयुवक हैं, जिनमें कितने ही सम्पन्न घरों के हैं। कुँवर साहब की इच्छा है कि समिति के सदस्यों की पूर्ण संख्या पाँच सौ तक बढ़ा दी जाए। डॉक्टर गांगुली इस वृध्दावस्था में भी अदम्य उत्साह से समिति का संचालन करते हैं। वही इसके अधयक्ष हैं। जब व्यवस्थापक सभा के काम से अवकाश मिलता है, तो नित्य दो-ढाई घंटे युवकों को शरीर-विज्ञान-सम्बंधी व्याख्यान देते हैं। पाठयक्रम तीन वर्षों में समाप्त हो जाता है; तब सेवा-कार्य आरम्भ होता है। अब की बीस युवक उत्तीर्ण होंगे, और यह निश्चय किया गया है कि वे दो साल भारत का भ्रमण करें; पर शर्त यह है कि उनके साथ एक लुटिया, डोर, धोती और कम्बल के सिवा और सफर का सामान न हो। यहाँ तक कि खर्च के लिए रुपये भी न रखे जाएँ। इससे कई लाभ होंगे-युवकों को कठिनाइयों का अभ्यास होगा, देश की यथार्थ दशा का ज्ञान होगा, दृष्टि-क्षेत्र विस्तीर्ण हो जाएगा, और सबसे बड़ी बात यह है कि चरित्र बलवान् होगा, धैर्य, साहस, उद्योग, संकल्प आदि गुणों की वृध्दि होगी। विनय इन लोगों के साथ जा रहा है, और मैं गर्व से फूली नहीं समाती कि मेरा पुत्र जाति-हित के लिए यह आयोजन कर रहा है, और तुमसे सच कहती हूँ, अगर कोई ऐसा अवसर आ पड़े कि जाति-रक्षा के लिए उसे प्राण भी देना पड़े, तो मुझे जरा भी शोक न होगा। शोक तब होगा, जब मैं उसे ऐश्वर्य के सामने सिर झुकाते या कर्तव्य के क्षेत्र से हटते देखूँगी। ईश्वर न करे, मैं वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ। मैं नहीं कह सकती कि उस वक्त मेरे चित्ता की क्या दशा होगी। शायद मैं विनय के रक्त की प्यासी हो जाऊँ; शायद इन निर्बल हाथों में इतनी शक्ति आ जाए कि मैं उसका गला घोंट दूँ।
यह कहते-कहते रानी के मुख पर एक विचित्र तेजस्विता की झलक दिखाई देने लगी, अश्रुपूर्ण नेत्रों में आत्मगौरव की लालिमा प्रस्फुटित होने लगी। सोफ़िया आश्चर्य से रानी का मुँह ताकने लगी। इस कोमल काया में इतना अनुरक्त और परिष्कृत हृदय छिपा हुआ है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी।
एक क्षण में रानी ने फिर कहा-बेटी, मैं आवेश में तुमसे अपने दिल की कितनी ही बातें कह गई; पर क्या करूँ, तुम्हारे मुख पर ऐसी मधुर सरलता है, जो मेरे मन को आकर्षित करती है। इतने दिनों में मैंने तुम्हें खूब पहचान लिया। तुम सोफी नहीं, स्त्री के रूप में विनय हो। कुँवर साहब तो तुम्हारे ऊपर मोहित हो गए हैं। घर में आते हैं, तो तुम्हारी चर्चा जरूर करते हैं। यदि धार्मिक बाधा न होती, तो (मुस्कराकर) उन्होंने मिस्टर सेवक के पास विनय के विवाह का संदेशा कभी का भेज दिया होता!
सोफी का चेहरा शर्म से लाल हो गया, लम्बी-लम्बी पलकें नीचे को झुक गईं और अधरों पर एक अति सूक्ष्म, शांत, मृदुल मुस्कान की छटा दिखाई दी। उसने दोनों हाथों से मुँह छिपा लिया और बोली-आप मुझे गालियाँ दे रही हैं, मैं भाग जाऊँगी।
रानी-अच्छा, शर्माओ मत। लो, यह चर्चा ही न करूँगी। मेरा तुमसे यही अनुरोध है कि अब तुम्हें यहाँ किसी बात का संकोच न करना चाहिए। इंदु तुम्हारी सहेली थी, तुम्हारे स्वभाव से परिचित थी, तुम्हारी आवश्यकताओं को समझती थी। मुझमें इतनी बुध्दि नहीं। तुम इस घर को अपना घर समझो, जिस चीज की जरूरत हो, निस्संकोच भाव से कह दो। अपनी इच्छा के अनुसार भोजन बनवा लो। जब सैर करने को जी चाहे, गाड़ी तैयार करा लो। किसी नौकर को कहीं भेजना चाहो, भेज दो; मुझसे कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मुझसे कुछ कहना हो, तुरंत चली आओ; पहले से सूचना देने का काम नहीं। यह कमरा अगर पसंद न हो, तो मेरे बगलवाले कमरे में चलो, जिसमें इंदु रहती थी। वहाँ जब मेरा जी चाहेगा, तुमसे बातें कर लिया करूँगी। जब अवकाश हो, मुझे इधर-उधर के समाचार सुना देना। बस, यह समझो कि तुम मेरी प्राइवेट सेक्रेटरी हो।
यह कहकर जाह्नवी चली गई। सोफी का हृदय हलका हो गया। उसे बड़ी चिंता हो रही थी कि इंदु के चले जाने पर यहाँ मैं कैसे रहूँगी, कौन मेरी बात पूछेगा, बिन-बुलाए मेहमान की भाँति पड़ी रहूँगी। यह चिंता शांत हो गई।
उस दिन से उसका और भी आदर-सत्कार होने लगा। लौंडियाँ उसका मुँह जोहती रहतीं, बार-बार आकर पूछ जाती-मिस साहब, कोई काम तो नहीं है? कोचवान दोनों जून पूछ जाता-हुक्म हो तो गाड़ी तैयार करूँ। रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं। सोफी को अब मालूम हुआ कि उनका हृदय स्त्री -जाति के प्रति सदिच्छाओं से कितना परिपूर्ण था। उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी। वह उनके जड़वाद को, उनके मिथ्यावाद को, उनके स्वार्थवाद को भारत की अधोगति का मुख्य कारण समझती थीं। इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं।
इस कृपा और स्नेह ने धीरे-धीरे सोफी के दिल से विरानेपन के भावों को मिटाना शुरू किया। उसके आचार-विचार में परिवर्तन होने लगा। लौंडियों से कुछ कहते हुए अब झेंप न होती, भवन के किसी भाग में जाते हुए अब संकोच न होता; किंतु चिंताएँ ज्यों-ज्यों घटती थीं, विलास-प्रियता बढ़ती थी।
उसके अवकाश की मात्रा में वृध्दि होने लगी। विनोद से रुचि होने लगी। कभी-कभी प्राचीन कवियों के चित्रों को देखती, कभी बाग की सैर करने चली जाती, कभी प्यानो पर जा बैठती; यहाँ तक कि कभी-कभी जाह्नवी के साथ शतरंज भी खेलने लगी। वस्त्राभूषण से अब वह उदासीनता न रही। गाउन के बदले रेशमी साड़ियाँ पहनने लगी। रानीजी के आग्रह में कभी-कभी पान भी खा लेती। कंघी-चोटी से प्रेम हुआ। चिंता त्यागमूलक होती है। निश्चिंतता का आमोद-विनोद से मेल है।
एक दिन, तीसरे पहर, वह अपने कमरे में बैठी हुई कुछ पढ़ रही थी। गरमी इतनी सख्त थी कि बिजली के पंखे और खस की टट्टियों के होते हुए भी शरीर से पसीना निकल रहा था। बाहर लू से देह झुलसी जाती थी। सहसा प्रभु सेवक आकर बोले-सोफी, जरा चलकर एक झगड़े का निर्णय कर दो। मैंने एक कविता लिखी है, विनयसिंह को उसके विषय में कई शंकाएँ हैं। मैं कुछ कहता हूँ, वह कुछ कहते हैं; फैसला तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है। जरा चलो।
सोफी-मैं काव्य सम्बंधी विवाद का क्या निर्णय करूँगी, पिंगल का अक्षर तक नहीं जानती, अलंकारों का लेश-मात्र भी ज्ञान नहीं; मुझे व्यर्थ ले जाते हो।
प्रभु सेवक-उस झगड़े का निर्णय करने के लिए पिंगल जानने की जरूरत नहीं। मेरे और उनके आदर्श में विरोध है। चलो तो।
सोफी आँगन से निकली, तो ज्वाला-सी देह में लगी। जल्दी-जल्दी पग उठाते हुए विनय के कमरे में आई, जो राजभवन के दूसरे भाग में था। आज तक वह यहाँ कभी न आई थी। कमरे में कोई सामान न था। केवल एक कम्बल बिछा हुआ था और जमीन पर ही दस-पाँच पुस्तकें रखी हुई थीं। न पंखा, न खस की टट्टी, न परदे, न तसवीरें। पछुआ सीधो कमरे में आती थी। कमरे की दीवारें जलते तवे की भाँति तप रही थीं। वहीं विनय कम्बल पर सिर झुकाए बैठे हुए थे। सोफी को देखते ही वह उठ खड़े हुए और उसके लिए कुर्सी लाने दौड़े।
सोफी-कहाँ जा रहे हैं?
प्रभु सेवक-(मुस्कराकर) तुम्हारे लिए कुर्सी लाने।
सोफी-वह कुर्सी लगाएँगे और मैं बैठूँगी! कितनी भद्दी बात है!
प्रभु सेवक-मैं रोकता भी, तो वह न मानते।
सोफी-इस कमरे में इनसे कैसे रहा जाता है?
प्रभु सेवक-पूरे योगी हैं। मैं तो प्रेम-वश चला आता हूँ।
इतने में विनय ने एक गद्देदार कुर्सी लाकर सोफी के लिए रख दी। सोफी संकोच और लज्जा से गड़ी जा रही थी। विनय की ऐसी दशा हो रही थी, मानो पानी में भीग रहे हैं। सोफी मन में कहती थी-कैसा आदर्श जीवन है! विनय मन में कहते थे-कितना अनुपम सौंदर्य है! दोनों अपनी-अपनी जगह खड़े रहे! आखिर विनय को एक उक्ति सूझी। प्रभु सेवक की ओर देखकर बोले-हम और तुम वादी हैं, खड़े रह सकते हैं, पर न्यायाधीश का तो उच्च स्थान पर बैठना ही उचित है।
सोफी ने प्रभु सेवक की ओर ताकते हुए उत्तर दिया-खेल में बालक अपने को भूल नहीं जाता।
अंत में तीनों प्राणी कम्बल पर बैठे। प्रभु सेवक ने अपनी कविता पढ़ सुनाई। कविता माधुर्य में डूबी हुई, उच्च और पवित्र भावों से परिपूर्ण थी। कवि ने प्रसादगुण कूट-कूटकर भर दिया था। विषय था-एक माता का अपनी पुत्री को आशीर्वाद। पुत्री ससुराल जा रही है; माता उसे गले लगाकर आशीर्वाद देती है-पुत्री, तू पति-परायण हो, तेरी गोद फले, उसमें फूल के-से कोमल बच्चे खेलें, उनकी मधुर हास्य-धवनि से तेरा घर और आँगन गूँजे। तुझ पर लक्ष्मी की कृपा हो। तू पत्थर भी छूए, तो कंचन हो जाए। तेरा पति तुझ पर उसी भाँति अपने प्रेम की छाया रखे, जैसे छप्पर दीवार को अपनी छाया में रखता है।
कवि ने इन्हीं भावों के अंतर्गत दाम्पत्य जीवन का ऐसा सुललित चित्र खींचा था कि उसमें प्रकाश, पुष्प और प्रेम का आधिक्य था; कहीं अंधोरी घाटियाँ न थीं, जिनमें हम गिर पड़ते हैं; कहीं वे काँटे न थे, जो हमारे पैरों में चुभते हैं; कहीं वह विकार न था, जो हमें मार्ग से विचलित कर देता है। कविता समाप्त करके प्रभु सेवक ने विनयसिंह से कहा-अब आपको इसके विषय में जो कुछ कहना हो, कहिए।
विनयसिंह ने सकुचाते हुए उत्तर दिया-मुझे जो कुछ कहना था, कह चुका।
प्रभु सेवक-फिर से कहिए।
विनयसिंह-बार-बार वही बातें क्या कहूँ।
प्रभु सेवक-मैं आपके कथन का भावार्थ कर दूँ?
विनयसिंह-मेरे मन में एक बात आई, कह दी; आप व्यर्थ उसे इतना बढ़ा रहे हैं।
प्रभु सेवक-आखिर आप उन भावों को सोफी के सामने प्रकट करते क्यों शर्माते हैं?
विनयसिंह-शर्माता नहीं हूँ, लेकिन आपसे मेरा कोई विवाद नहीं है। आपको मानव-जीवन का यह आदर्श सर्वोत्ताम प्रतीत होता है, मुझे वह अपनी वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल जान पड़ता है। इसमें झगड़े की कोई बात नहीं है।
प्रभु सेवक-(हँसकर) हाँ, यही तो मैं आपसे कहलाना चाहता हूँ कि आप उसे वर्तमान अवस्था के प्रतिकूल क्यों समझते हैं? क्या आपके विचार में दाम्पत्य जीवन सर्वथा निंद्य है? और, क्या संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए?
विनयसिंह-यह मेरा आशय कदापि नहीं कि संसार के समस्त प्राणियों को संन्यास धारण कर लेना चाहिए; मेरा आशय केवल यह था कि दाम्पत्य जीवन स्वार्थपरता का पोषक है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं, और इस अधोगति की दशा में, जबकि स्वार्थ हमारी नसों में कूट-कूटकर भरा हुआ है, जब कि हम बिना स्वार्थ के कोई काम या कोई बात नहीं करते, यहाँ तक कि माता-पुत्र-सम्बंध में-गुरु-शिष्य-सम्बंध में-पत्नी-पुरुष-सम्बंध में स्वार्थ का प्राधान्य हो गया है, किसी उच्चकोटि के कवि के लिए दाम्पत्य जीवन की सराहना करना-उसकी तारीफों के पुल बाँधना-शोभा नहीं देता। हम दाम्पत्य सुख के दास हो रहे हैं। हमने इसी को अपने जीवन का लक्ष्य समझ रखा है। इस समय हमें ऐसे व्रतधारियों की, त्यागियों की, परमार्थ-सेवियों की आवश्यकता है, जो जाति के उध्दार के लिए अपने प्राण तक दे दें। हमारे कविजनों को इन्हीं उच्च और पवित्र भावों को उत्तोजित करना चाहिए। हमारे देश में जनसंख्या जरूरत से ज्यादा हो गई है। हमारी जननी संतान-वृध्दि के भार को अब नहीं सँभाल सकती। विद्यालयों में, सड़कों पर, गलियों में इतने बालक दिखाई देते हैं कि समझ में नहीं आता, ये क्या करेंगे। हमारे देश में इतनी उपज भी नहीं होती कि सबके के लिए एक बार इच्छापूर्ण भोजन भी प्राप्त हो। भोजन का अभाव ही हमारे नैतिक और आर्थिक पतन का मुख्य कारण है। आपकी कविता सर्वथा असामयिक है। मेरे विचार में इससे समाज का उपकार नहीं हो सकता। इस समय हमारे कवियों का कर्तव्य है त्याग का महत्व दिखाना, ब्रह्मचर्य में अनुराग उत्पन्न करना, आत्मनिग्रह का उपदेश करना। दाम्पत्य तो दासत्व का मूल है और यह समय उसके गुण-गान के लिए अनुकूल नहीं है।
प्रभु सेवक-आपको जो कुछ कहना था, कह चुके?
विनयसिंह-अभी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर इस समय इतना ही काफी है।
प्रभु सेवक-मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि बलिदान और त्याग के आदर्श की मैं निंदा नहीं करता। वह मनुष्य के लिए सबसे ऊँचा स्थान है; और वह धन्य है, जो उसे प्राप्त कर ले। किंतु जिस प्रकार कुछ व्रतधारियों के निर्जल और निराहार रहने से अन्न और जल की उपयोगिता में बाधा नहीं पड़ती, उसी प्रकार दो-चार योगियों के त्याग से दाम्पत्य जीवन त्याज्य नहीं हो जाता। दाम्पत्य मनुष्य के सामाजिक जीवन का मूल है। उसका त्याग कर दीजिए, बस हमारे सामाजिक संगठन का शीराजा बिखर जाएगा, और हमारी दशा पशुओं के समान हो जाएगी। गार्हस्थ्य को ऋषियों ने सर्वोच्च धर्म कहा है; और अगर शांत हृदय से विचार कीजिए तो विदित हो जाएगा कि ऋषियों का यह कथन अत्युक्ति-मात्रा नहीं है। दया, सहानुभूति, सहिष्णुता, उपकार, त्याग आदि देवोचित गुणों के विकास के जैसे सुयोग गार्हस्थ्य जीवन में प्राप्त होते हैं, और किसी अवस्था में नहीं मिल सकते। मुझे तो यहाँ तक कहने में संकोच नहीं है कि मनुष्य के लिए यही एक ऐसी व्यवस्था है, जो स्वाभाविक कही जा सकती है। जिन कृत्यों ने मानव-जाति का मुख उज्ज्वल कर दिया है, उनका श्रेय योगियों को नहीं, दाम्पत्य-सुख-भोगियों को है। हरिश्चंद्र योगी नहीं थे, रामचंद्र योगी नहीं थे, कृष्ण त्यागी नहीं थे, नेपोलियन त्यागी नहीं था, नेलसन योगी नहीं था। धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में त्यागियों ने अवश्य कीर्ति-लाभ की है; लेकिन कर्मक्षेत्र में यश का सेहरा भोगियों के ही सिर बँधा है। इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता कि किसी जाति का उध्दार त्यागियों द्वारा हुआ हो। आज भी हिंदुस्तान में 10 लाख से अधिक त्यागी बसते हैं; पर कौन कह सकता है कि उनसे समाज का कुछ उपकार हो रहा है। सम्भव है, अप्रत्यक्ष रूप से होता हो; पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। फिर यह आशा क्योंकर की जा सकती है कि दाम्पत्य जीवन की अवहेलना से जाति का विशेष उपकार होगा? हाँ, अगर अविचार को उपकार कहें, तो अवश्य उपकार होगा।
यह कथन समाप्त करके प्रभु सेवक ने सोफ़िया से कहा-तुमने दोनों वादियों के कथन सुन लिए, तुम इस समय न्यास के आसन पर हो, सत्यासत्य का निर्णय करो।
सोफी-इसका निर्णय तुम आप ही कर सकते हो। तुम्हारी समझ में संगीत बहुत अच्छी चीज है?
प्रभु सेवक-अवश्य।
सोफी-लेकिन, अगर किसी के घर में आग लगी हुई हो, तो उसके निवासियों को गाते-बजाते देखकर तुम उन्हें क्या कहोगे?
प्रभु सेवक-मूर्ख कहूँगा, और क्या।
सोफी-क्यों, गाना तो कोई बुरी चीज नहीं?
प्रभु सेवक-तो यह साफ-साफ क्यों नहीं कहतीं कि तुमने इन्हें डिग्री दे दी? मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ झुकोगी।
सोफी-अगर यह भय था, तो तुमने मुझे निर्णायक क्यों बनाया था? तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वांग-सुंदर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारा कर्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश-बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होती, इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधन नहीं है-उन पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्व पूर्ण शक्ति प्रदान की है, उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।
जब सोफ़िया चली गई, तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा-मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लज्जित तो न हुए होगे?
प्रभु सेवक-उसने तुम्हारी मुरौवत की है।
विनयसिंह-भाई, तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्तिपूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल था, आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभु, मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा का दास हो जाऊँगा। मैं मार्ग से विचलित हो गया, मेरा संयम कपटी मित्र की भाँति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भाँति जानता हूँ कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूँ-वह फल खाने जा रहा हूँ, जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँ, प्रभु, कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूँ। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठाराघात कर रहा हूँ, अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूँ, अपनी महत्तवाकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूँ; पर मेरा अंत:करण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफ़िया मेरी किसी तरह नहीं हो सकती; पर मैं उसका हो गया, और आजीवन उसी का रहूँगा।
प्रभु सेवक-विनय, अगर सोफी को यह बात मालूम हो गई, तो वह यहाँ एक क्षण भी न रहेगी; कहीं वह आत्महत्या न कर ले। ईश्वर के लिए यह अनर्थ न करो।
विनयसिंह-नहीं प्रभु, मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगा, ओर फिर कभी न आऊँगा। मेरा हृदय जलकर भस्म हो जाए; पर सोफी को आँच भी न लगने पावेगी। मैं दूर देश में बैठा हुआ इस विद्या, विवेक और पवित्रता की देवी की उपासना किया करूँगा। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मेरे प्र्रेम में वासना का लेश भी नहीं है। मेरे जीवन को सार्थक बनाने के लिए यह अनुराग ही काफी है। यह मत समझो कि मैं सेवा-धर्म का त्याग कर रहा हूँ। नहीं, ऐसा न होगा, मैं अब भी सेवा-मार्ग का अनुगामी रहूँगा; अंतर केवल इतना होगा कि निराकार की जगह साकार की, अदृश्य की जगह दृश्यमान की भक्ति करूँगा।
सहसा जाह्नवी ने आकर कहा-विनय, जरा इंदु के पास चले जाओ, कई दिन से उसका समाचार नहीं मिला। मुझे शंका हो रही है, कहीं बीमार तो नहीं हो गई। खत भेजने में विलम्ब तो कभी न करती थी!
विनय तैयार हो गए। कुरता पहना, हाथ में सोटा लिया और चल दिए। प्रभु सेवक सोफी के पास आकर बैठ गए और सोचने लगे-विनयसिंह की बातें इससे कहूँ या न कहूँ। सोफी ने उन्हें चिंतित देखकर पूछा-कुँवर साहब कुछ कहते थे?
प्रभु सेवक-उस विषय में तो कुछ नहीं कहते थे; पर तुम्हारे विषय में ऐसे भाव प्रकट किए, जिनकी सम्भावना मेरी कल्पना में भी न आ सकती थी।
सोफी ने क्षण-भर जमीन की ओर ताकने के बाद कहा-मैं समझती हूँ, पहले ही समझ जाना चाहिए था; पर मैं इससे चिंतित नहीं हूँ। यह भावना मेरे हृदय में उसी दिन अंकुरित हुई, जब यहाँ आने के चौथे दिन बाद मैंने आँखें खोलीं, और उस अर्ध्दचेतना की दशा में एक देव-मूर्ति को सामने खड़े अपनी ओर वात्सल्य-दृष्टि से देखते हुए पाया। वह दृष्टि और वह मूर्ति आज तक मेरे हृदय पर अंकित है और सदैव अंकित रहेगी।
प्रभु सेवक-सोफी, तुम्हें यह कहते हुए लज्जा नहीं आती?
सोफ़िया-नहीं, लज्जा नहीं आती। लज्जा की बात ही नहीं है। वह मुझे अपने प्रेम के योग्य समझते हैं, यह मेरे लिए गौरव की बात है। ऐसे साधु-प्रकृति, ऐसे त्यागमूर्ति, ऐसे सदुत्साही पुरुष की प्रेम-पात्री बनने में कोई लज्जा नहीं। अगर प्रेम-प्रसाद पाकर किसी युवती को गर्व होना चाहिए, तो वह युवती मैं हूँ। यही वरदान था, जिसके लिए मैं इतने दिनों तक शांत भाव से धैर्य धारण किए हुए मन में तप कर रही थी। वह वरदान आज मुझे मिल गया है, तो यह मेरे लिए लज्जा की बात नहीं, आनंद की बात है।
प्रभु सेवक-धर्म-विरोध के होते हुए भी?
सोफ़िया-यह विचार उन लोगों के लिए है, जिनके प्रेम वासनाओें से युक्त होते हैं। प्रेम और वासना में उतना ही अंतर है, जितना कंचन और काँच में। प्रेम की सीमा भक्ति से मिलती है, और उनमें केवल मात्रा का भेद है। भक्ति में सम्मान और प्रेम में सेवाभाव का आधिक्य होता है। प्रेम के लिए धर्म की विभिन्नता कोई बंधन नहीं है। ऐसी बाधाएँ उस मनोभाव के लिए हैं, जिसका अंत विवाह है, उस प्रेम के लिए नहीं, जिसका अंत बलिदान है।
प्रभु सेवक-मैंने तुम्हें जता दिया, यहाँ से चलने के लिए तैयार रहो।
सोफ़िया-मगर घर पर किसी से इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं।
प्रभु सेवक-इससे निश्चिंत रहो।
सोफ़िया-कुछ निश्चय हुआ, यहाँ से उनके जाने का कब इरादा है?
प्रभु सेवक-तैयारियाँ हो रही हैं। रानीजी को यह बात मालूम हुई, तो विनय के लिए कुशल नहीं। मुझे आश्चर्य न होगा, अगर मामा से इसकी शिकायत करें।
सोफ़िया ने गर्व से सिर उठाकर कहा-प्रभु, कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? प्रेम अभय का मंत्र है। प्रेम का उपासक संसार की समस्त चिंताओं और बाधाओं से मुक्त हो जाता है।
प्रभु सेवक चले गए, तो सोफ़िया ने किताब बंद कर दी और बाग में आकर हरी घास पर लेट गई। उसे आज लहराते हुए फूलों में, मंद-मंद चलनेवाली वायु में, वृक्षों पर चहकनेवाली चिड़ियों के कलरव में, आकाश पर छाई लालिमा में एक विचित्र शोभा, एक अकथनीय सुषमा, एक अलौकिक छटा का अनुभव हो रहा था। वह प्रेम-रत्न पा गई थी।
उस दिन के बाद एक सप्ताह हो गया, पर विनयसिंह ने राजपूताने को प्रस्थान न किया। वह किसी-न-किसी हीले से दिन टालते जाते थे। कोई तैयारी न करनी थी, फिर भी तैयारियाँ पूरी न होती थीं। अब विनय और सोफ़िया, दोनों ही को विदित होने लगा कि प्रेम को, जब वह स्त्री और पुरुष में हो, वासना से निर्लिप्त रखना उतना आसान नहीं, जितना उन्होेंने समझा था। सोफी एक किताब बगल में दबाकर प्रात:काल बाग में जा बैठती। शाम को भी कहीं और सैर करने न जाकर वहीं आ जाती। विनय भी उससे कुछ दूर पर लिखते-पढ़ते, कुत्तो से खेलते या किसी मित्र से बातें करते अवश्य दिखाई देते। दोनों एक दूसरे की ओर दबी आँखों से देख लेते थे; पर संकोचवश कोई बातचीत करने में अग्रसर न होता था। दोनों ही लज्जाशील थे; पर दोनों इस मौन भाषा का आशय समझते थे। पहले इस भाषा का ज्ञान न था। दोनों के मन में एक ही उत्कंठा, एक ही विकलता, एक ही तड़प, एक ही ज्वाला थी। मौन भाषा से उन्हें तस्कीन न होती; पर किसी को वार्तालाप करने का साहस न होता। दोनों अपने-अपने मन में प्रेम-वार्ता की नई-नई उक्तियाँ सोचकर आते और यहाँ आकर भूल जाते। दोनों ही व्रतधारी, दोनों ही आदर्शवादी थे; किंतु एक का धर्मग्रंथों की ओर ताकने को जी न चाहता था, दूसरा समिति को अपने निर्धारित विषय पर व्याख्यान देने का अवसर भी न पाता था। दोनों ही के लिए प्रेम-रत्न प्रेम-मद सिध्द हो रहा था।
एक दिन, रात को, भोजन करने के बाद सोफ़िया रानी जाह्नवी के पास बैठी हुई कोई समाचार-पत्र पढ़कर सुना रही थी कि विनयसिंह आकर बैठ गए। सोफी की विचित्र दशा हो गई, पढ़ते-पढ़ते भूल जाती कि कहाँ तक पढ़ चुकी हूँ, और पढ़ी हुई पंक्तियों को फिर पढ़ने लगती, वह भी अटक-अटककर, शब्दों पर आँखें न जमतीं। वह भूल जाना चाहती थी कि कमरे में रानी के अतिरिक्त कोई और बैठा हुआ है, पर बिना विनय की ओर देखे ही उसे दिव्य ज्ञान-सा हो जाता था कि अब वह मेरी ओर ताक रहे हैं, और तत्क्षण उसका मन अस्थिर हो जाता। जाह्नवी ने कई बार टोका-सोती तो नहीं हो? क्या बात है, रुक क्यों जाती हो? आज तुझे क्या हो गया है बेटी? सहसा उनकी दृष्टि विनयसिंह की ओर फिरी-उसी समय जब वह प्रेमातुर नेत्रों से उसकी ओर ताक रहे थे। जाह्नवी का विकसित, शांत मुख-मंडल तमतमा उठा, मानो बाग में आग लग गई। अग्निमय नेत्रों से विनय की ओर देखकर बोलीं-तुम कब जा रहे हो?
विनयसिंह-बहुत जल्द।
जाह्नवी-मैं बहुत जल्द का आशय यह समझती हूँ कि तुम कल प्रात:काल ही प्रस्थान करोगे।
विनयसिंह-अभी साथ जानेवाले कई सेवक बाहर गए हुए हैं।
जाह्नवी-कोई चिंता नहीं। वे पीछे चले जाएँगे, तुम्हें कल प्रस्थान करना होगा।
विनयसिंह-जैसी आज्ञा।
जाह्नवी-अभी जाकर सब आदमियों को सूचना दे दो। मैं चाहती हूँ कि तुम स्टेशन पर सूर्य के दर्शन करो।
विनय-इंदु से मिलने जाना है।
जाह्नवी-कोई जरूरत नहीं। मिलने-भेंटने की प्रथा स्त्रियों के लिए है, पुरुषों के लिए नहीं, जाओ।
विनय को फिर कुछ कहने की हिम्मत न हुई, आहिस्ता से उठे और चले गए।
सोफी ने साहस करके कहा-आजकल तो राजपूताने में आग बरसती होगी!
जाह्नवी ने निश्चयात्मक भाव से कहा-कर्तव्य कभी आग और पानी की परवा नहीं करता। जाओ, तुम भी सो रहो, सवेरे उठना है।
सोफी सारी रात बैठी रही। विनय से एक बार मिलने के लिए उसका हृदय तड़फड़ा रहा था-आह! वह कल चले जाएँगे, और मैं उनसे विदा भी न हो सकूँगी। वह बार-बार खिड़की से झाँकती कि कहीं विनय की आहट मिल जाए। छत पर चढ़कर देखा; अंधकार छाया हुआ था, तारागण उसकी आतुरता पर हँस रहे थे। उसके जी में कई बार प्रबल आवेग हुआ कि छत पर से नीचे बाग में कूद पड़ूँ, उनके कमरे में जाऊँ और कहूँ-मैं तुम्हारी हूँ! आह! अगर सम्प्रदाय ने हमारे और उनके बीच में बाधा न खड़ी कर दी होती, तो वह इतने चिंतित क्यों होते, मुझको इतना संकोच क्यों होता, रानी मेरी अवहेलना क्यों करतीं? अगर मैं राजपूतानी होती तो रानी सहर्ष मुझे स्वीकार करतीं, पर मैं ईसा की अनुचरी होने के कारण त्याज्य हूँ। ईसा और कृष्ण में कितनी समानता है; पर उनके अनुचरों में कितनी विभिन्नता! कौन कह सकता है कि साम्प्रदायिक भेदों ने हमारी आत्माओं पर कितना अत्याचार किया है!
ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, सोफी का दिल नैराश्य से बैठा जाता था-हाय, मैं यों ही बैठी रहूँगी और सबेरा हो जाएगा, विनय, चले जाएँगे। कोई भी तो नहीं, जिसके हाथों एक पत्र लिखकर भेज दूँ। मेरे ही कारण तो उन्हें यह दंड मिल रहा है। माता का हृदय भी निर्दय होता है। मैं समझी थी, मैं ही अभागिनी हूँ; पर अब मालूम हुआ, ऐसी माताएँ और भी हैं!
तब वह छत पर से उतरी और अपने कमरे में जाकर लेट रही। नैराश्य ने निद्रा की शरण ली; पर चिंता की निद्रा क्षुधावस्था का विनोद है-शांति-विहीन और नीरस। जरा ही देर सोई थी कि चौंककर उठ बैठी। सूर्य का प्रकाश कमरे में फैल गया था, और विनयसिंह अपने बीसों साथियों के साथ स्टेशन जाने को तैयार खड़े थे। बाग में हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई थी।
वह तुरंत बाग में आ पहुँची और भीड़ को हटाती हुई यात्रियों के सम्मुख आकर खड़ी हो गई। राष्ट्रीय गान हो रहा था, यात्री नंगे सिर, नंगे पैर, एक-एक कुरता पहने, हाथ में लकड़ी लिए, गरदनों में एक-एक थैली लटकाए चलने को तैयार थे। सब-के-सब प्रसन्न-वदन, उल्लास से भरे हुए, जातीयता के गर्व से उन्मत्ता थे, जिनको देखकर दर्शकों के मन गौरवान्वित हो रहे थे। एक क्षण में रानी जाह्नवी आईं और यात्रियों के मस्तक पर केशर के तिलक लगाए। तब कुँवर भरतसिंह ने आकर उनके गलों में हार पहनाए। इसके बाद डॉक्टर गांगुली ने चुने हुए शब्दों में उन्हें उपदेश दिया। उपदेश सुनकर यात्री लोग प्रस्थित हुए। जयजयकार की धवनि सह[-सह[ कठों से निकलकर वायुमंडल को प्रतिधवनित करने लगी। स्त्रियों और पुरुषों का एक समूह उनके पीछे-पीछे चला। सोफ़िया चित्रवत् खड़ी यह दृश्य देख रही थी। उसके हृदय में बार-बार उत्कंठा होती थी, मैं भी इन्हीं यात्रियों के साथ चली जाऊँ और अपने दु:खित बंधुओं की सेवा करूँ। उसकी आँखें विनयसिंह की ओर लगी हुई थीं। एकाएक विनयसिंह की आँखें उसकी ओर फिरीं; उनमें कितना नैराश्य था, कितनी मर्म-वेदना, कितनी विवशता, कितनी विनय! वह सब यात्रियों के पीछे चल रहे थे, बहुत धीरे-धीरे, मानो पैरों में बेड़ी पड़ी हो।
सोफ़िया उपचेतना की अवस्था में यात्रियों के पीछे-पीछे चली, और उसी दशा में सड़क पर आ पहुँची; फिर चौराहा मिला, इसके बाद किसी राजा का विशाल भवन मिला; पर अभी तक सोफी को खबर न हुई कि मैं इनके साथ चली आ रही हूँ। उसे इस समय विनयसिंह के सिवा और कोई नजर ही न आता था। कोई प्रबल आकर्षण उसे खींचे लिए जाता था। यहाँ तक कि वह स्टेशन के समीप के चौराहे पर पहुँच गई। अचानक उसके कानों में प्रभु सेवक की आवाज आई, जो बड़े वेग से फिटन दौड़ाए चले आते थे।
प्रभु सेवक ने पूछा-सोफी, तुम कहाँ जा रही हो? जूते तक नहीं, केवल स्लीपर पहने हो!
सोफ़िया पर घड़ों पानी पड़ गया-आह! मैं इस वेश में कहाँ चली आई! मुझे सुधि ही न रही। लजाती हुई बोली-कहीं तो नहीं!
प्रभु सेवक-क्या इन लोगों के साथ स्टेशन तक जाओगी? आओ, गाड़ी पर बैठ जाओ। मैं भी वहीं चलता हूँ। मुझे तो अभी-अभी मालूम हुआ कि ये लोग जा रहे हैं, जल्दी से गाड़ी तैयार करके आ पहुँचा, नहीं तो मुलाकात भी न होती।
सोफी-मैं इतनी दूर निकल आई, और जरा भी ख्याल न आया कि कहाँ जा रही हूँ।
प्रभु सेवक-आकर बैठ न जाओ। इतनी दूर आई हो, तो स्टेशन तक और चली चलो।
सोफी-मैं स्टेशन न जाऊँगी। यहीं से लौट जाऊँगी।
प्रभु सेवक-मैं स्टेशन से लौटता हुआ आऊँगा। आज तुम्हें मेरे साथ घर चलना होगा।
सोफी-मैं वहाँ न जाऊँगी।
प्रभु सेवक-बड़े पापा नाराज होंगे। आज उन्होंने तुम्हें बहुत आग्रह करके बुलाया है।
सोफी-जब तक मामा मुझे खुद आकर न ले जाएँगी, उस घर में कदम न रखूँगी।
यह कहकर सोफी लौट पड़ी, और प्रभु सेवक स्टेशन की तरफ चल दिए।
स्टेशन पर पहुँचकर विनय ने चारों तरफ आँखें फाड़-फाड़कर देखा, सोफी न थी।
प्रभु सेवक ने उसके कान में कहा-धर्मशाले तक यों ही रात के कपड़े पहने चली आई थी, वहाँ से लौट गई। जाकर खत जरूर लिखिएगा, वरना वह राजपूताने जा पहुँचेगी।
विनय ने गद्गद कंठ से कहा-केवल देह लेकर जा रहा हूँ, हृदय यहीं छोड़े जाता हूँ।