रंगभूमि अध्याय 23
अब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार की दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावत: करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास की विजय होते ही यह सहानुभूति स्पध्र्दा के रूप में प्रकट हुई। यह शंका पैदा हुई कि सूरदास मन में हम लोगों को तुच्छ समझ रहा होगा। कहता होगा, जब मैंने राजा महेंद्रकुमार सिंह-जैसों को नीचा दिखा दिया, उनका गर्व चूर-चूर कर दिया, तो ये लोग किस खेत की मूली हैं। सारा मुहल्ला उससे मन-ही-मन खार खाने लगा। केवल एक ठाकुरदीन था, जो अब भी उसके पास आया-जाया करता था। उसे अब यकीन हो गया था कि सूरदास को अवश्य किसी देवता का इष्ट है,उसने जरूर कोई मंत्र सिध्द किया है, नहीं तो उसकी इतनी कहाँ मजाल कि ऐसे-ऐसे प्रतापी आदमियों का सिर झुका देता। लोग कहते हैं,जंत्र-मंत्र सब ढकोसला है। यह कौतुक देखकर भी उनकी आँखें नहीं खुलतीं।
सूरदास के स्वभाव में भी अब कुछ परिवर्तन हुआ। धैर्यशील वह पहले ही से था; पर न्याय और धर्म के पक्ष में कभी-कभी उसे क्रोध आ जाता था। अब उसमें अग्नि का लेशांश भी न रहा; घूर था, जिस पर सभी कूड़े फेंकते हैं। मुहल्लेवाले राह चलते उसे छेड़ते, आवाजें कसते,ताने मारते; पर वह किसी को जवाब न देता, सिर झुकाए भीख माँगने जाता और चुपके से अपनी झोंपड़ी में आकर पड़ रहता। हाँ, मिठुआ के मिजाज न मिलते थे, किसी से सीधो मुँह बात न करता। कहता, यह कोई न समझे कि अंधा भीख माँगता है, अंधा बड़े-बड़ों की पीठ में धूल लगा देता है। बरबस लोगों को छेड़ता, भले आदमियों से बतबढ़ाव कर बैठता। अपने हमजोलियों से कहता, चाहूँ तो सारे मुहल्ले को बँधवा दूँ। किसानों के खेतों से बेधड़क चने, मटर, मूली, गाजर उखाड़ लाता; अगर कोई टोकता, तो उससे लड़ने को तैयार हो जाता था। सूरदास को नित्य उलहने मिलने लगे। वह अकेले में मिठुआ को समझाता; पर उस पर कुछ असर न होता था। अनर्थ यह था कि सूरदास की नम्रता और सहिष्णुता पर तो किसी की निगाह न जाती थी, मिठुआ की लनतरानियों और दुष्टताओं पर सभी की निगाह पड़ती थी। लोग यहाँ तक कह जाते थे कि सूरदास ने ही उसे सिर चढ़ा लिया है, बछवा खूँटे ही के बल कूदता है। ईष्या बाल-क्रीड़ाओं को भी कपट-नीति समझती है।
आजकल सोफ़िया मि. क्लार्क के साथ सूरदास से अकसर मिला करती थी। वह नित्य उसे कुछ-न-कुछ देती और उसकी दिलजोई करती। पूछती रहती, मुहल्लेवाले या राजा साहब के आदमी तुम्हें दिक तो नहीं कर रहे हैं। सूरदास जवाब देता, मुझ पर सब लोग दया करते हैं, मुझे किसी से शिकायत नहीं है। मुहल्लेवाले समझते थे, वह बड़े साहब से हम लोगों की शिकायत करता है। अन्योक्तियों द्वारा यह भाव प्रकट भी करते-'सैंयाँ भये कोतवाल, अब डर काहे का'? 'प्यादे से फरजी भयो, टेढ़ो-टेढ़ो जाए। एक बार किसी चोरी के सम्बंध में नायकराम के घर में तलाशी हो गई। नायकराम को संदेह हुआ, सूरदास ने यह तीर मारा है। इसी भाँति एक बार भैरों से आबकारी के दारोगा ने जवाब तलब किया। भैरों ने शायद नियम के विरुध्द आधी रात तक दूकान खुली रखी थी। भैरों का भी शुभा सूरदास ही पर हुआ, इसी ने यह चिनगारी छोड़ी है। इन लोगों के संदेह पर तो सूरदास को बहुत दु:ख न हुआ, लेकिन जब सुभागी खुल्लमखुल्ला उसे लांछित करने लगी, तो उसे बहुत दु:ख हुआ। उसे विश्वास था कि कम-से-कम सुभागी को मेरी नीयत का हाल मालूम है। उसे मुझको इन लोगों के अन्याय से बचाना चाहिए था, मगर उसका मन भी मुझसे फिर गया।
इस भाँति कई महीने गुजर गए। एक दिन रात को सूरदास खा-पीकर लेटा हुआ था कि किसी ने आकर चुपके से उसका हाथ पकड़ा। सूरदास चौंका, पर सुभागी की आवाज़ पहचानकर बोला-क्या कहती है?
सुभागी-कुछ नहीं, जरा मड़ैया में चलो, तुमसे कुछ कहना है।
सूरदास उठा और सुभागी के साथ झोंपड़ी में आकर बोला-कह, क्या कहती है? अब तो तुझे भी मुझसे बैर हो गया है। गालियाँ देती फिरती है, चारों ओर बदनाम कर रही है। बतला, मैंने तेरे साथ कौन-सी बुराई की थी कि तने मेरी बुराई पर कमर बाँध ली? और लोग मुझे भला-बुरा कहते हैं, मुझे रंज नहीं होता; लेकिन जब तुझे ताने देते सुनता हूँ, तो मुझे रोना आता है, कलेजे में पीड़ा-सी होने लगती है। जिस दिन भैरों की तलबी हुई थी, तूने कितना कोसा था। सच बता, क्या तुझे भी सक हुआ था कि मैंने ही दारोगाजी से शिकायत की है? क्या तू मुझे इतना नीच समझती है? बता।
सुभागी ने करुणावरुध्द कंठ से उत्तार दिया-मैं तुम्हारा जितना आदर करती हूँ, उतना और किसी का नहीं। तुम अगर देवता होते, तो भी इतनी ही सिरधा से तुम्हारी पूजा करती।
सूरदास-मैं क्या घमंड करता हूँ? साहब से किसकी शिकायत करता हूँ? जब जमीन निकल गई थी, तब तो लोग मुझसे न चिढ़ते थे। अब जमीन छूट जाने से क्यों सब-के-सब मेरे दुसमन हो गए हैं? बता, मैं क्या घमंड करता हूँ? मेरी जमीन छूट गई है, तो कोई बादसाही मिल गई है कि घमंड करूँगा?
सुभागी-मेरे मन का हाल भगवान जानते होंगे।
सूरदास-तो मुझे क्यों जलाया करती है?
सुभागी-इसलिए।
यह कहकर उसने एक छोटी-सी पोटली सूरदास के हाथ में रख दी। पोटली भारी थी। सूरदास ने उसे टटोला और पहचान गया। यह उसी की पोटली थी, जो चोरी गई थी। अनुमान से मालूम हुआ कि रुपये भी उतने ही हैं। विस्मित होकर बोला-यह कहाँ मिली?
सुभागी-तुम्हारी मिहनत की कमाई है, तुम्हारे पास आ गई। अब जतन से रखना।
सूरदास-मैं न रखूँगा। इसे ले जा।
सुभागी-क्यों? अपनी चीज लेने में कोई हरज है?
सूरदास-यह मेरी चीज नहीं; भैरों की चीज है। इसी के लिए भैरों ने अपनी आत्मा बेची है; महँगा सौदा लिया है। मैं इसे कैसे लू लूँ?
सुभागी-मैं ये सब बातें नहीं जानती। तुम्हारी चीज है, तुम्हें लेनी पड़ेगी। इसके लिए मैंने अपने घरवालों से छल किया है। इतने दिनों से इसी के लिए माया रच रही हूँ। तुम न लोगे, तो इसे मैं क्या करूँगी?
सूरदास-भैरों को मालूम हो गया, तो तुम्हें जीता न छोड़ेगा।
सुभागी-उन्हें न मालूम होने पाएगा। मैंने इसका उपाय सोच लिया है।
यह कहकर सुभागी चली गई। सूरदास को और तर्क-वितर्क करने का मौका न मिला। बड़े असमंजस में पड़ा-ये रुपये लूँ या क्या करूँ? यह थैली मेरी है या न हीं? अगर भैरों ने इसे खर्च कर दिया होता, तो? क्या चोर के घर चोरी करना पाप नहीं? क्या मैं अपने रुपये के बदले उसके रुपये ले सकता हूँ? सुभागी मुझ पर कितनी दया करती है! वह इसीलिए मुझे ताने दिया करती थी कि यह भेद न खुलने पाए।
वह इसी उधोड़बुन में पड़ा हुआ था कि एकाएक 'चोर-चोर!' का शोर सुनाई दिया। पहली ही नींद थी। लोग गाफिल सो रहे थे। फिर आवाज आई-'चोर-चोर!'
भैरों की आवाज थी। सूरदास समझ गया, सुभागी ने यह प्रपंच रचा है। अपने द्वार पर पड़ा रहा। इतने में बजरंगी की आवाज सुनाई दी-किधर गया, किधर? यह कहकर वह लाठी लिए अंधोरे में एक तरफ दौड़ा। नायकराम भी घर से निकले और 'किधर-किधर' करते हुए दौड़े। रास्ते में बजरंगी से मुठभेड़ हो गई। दोनों ने एक दूसरे को चोर समझा। दोनों ने वार किया और दोनों चोट खाकर गिर पड़े। जरा देर में बहुत-से आदमी जमा हो गए। ठाकुरदीन ने पूछा-क्या-क्या ले गया? अच्छी तरह देख लेना, कहीं छत में न चिमटा हुआ हो। चोर दीवार से ऐसा चिमट जाते हैं कि दिखाई नहीं देते।
सुभागी-हाय, मैं तो लुट गई। अभी तो बैठी-बैठी अम्माँ का पाँव दबा रही थी। इतने में न जाने मुआ कहाँ से आ पहुँचा।
भैरों-(चिराग से देखकर) सारी जमा-जथा लुट गई। हाय राम!
सुभागी-हाय, मैंने उसकी परछाईं देखी, तो समझी यही होंगे। जब उसने संदूक पर हाथ बढ़ाया, तो भी समझी यही होंगे।
ठाकुरदीन-खपरैल पर चढ़कर आया होगा। मेरे यहाँ जो चोरी हुई थी, उसमें भी चोर सब खपरैल पर चढ़कर आए थे।
इतने में बजरंगी आया। सिर से रुधिर बह रहा था, बोला-मैंने उसे भागते देखा। लाठी चलाई। उसने भी वार किया। मैं तो चक्कर खाकर गिर पड़ा; पर उस पर भी ऐसा हाथ पड़ा है कि सिर खुल गया होगा।
सहसा नायकराम हाय-हाय करते आए और जमीन पर गिर पड़े। सारी देह खून से तर थी।
ठाकुरदीन-पंडाजी, तुमसे भी उसका सामना हो गया क्या?
नायकराम की निगाह बजरंगी की ओर गई। बजरंगी ने नायकराम की ओर देखा। नायकराम ने दिल में कहा-पानी का दूध बनाकर बेचते हो; अब यह ढंग निकाला है। बजरंगी ने दिल में कहा-जात्रिायों को लूटते हो, अब मुहल्लेवालों ही पर हाथ साफ करने लगे।
नायकराम-हाँ भई, यहीं गली में तो मिला। बड़ा भारी जवान था।
ठाकुरदीन-तभी तो अकेले दो आदमियों को घायल कर गया। मेरे घर मेें जो चोर पैठे थे, वे सब देव मालूम होते थे। ऐसे डील-डौल के तो आदमी ही नहीं देखे। मालूम होता है, तुम्हारे ऊपर उसका भरपूर हाथ पड़ा।
नायकराम-हाथ मेरा भी भरपूर पड़ा है। मैंने उसे गिरते देखा। सिर जरूर फट गया होगा। जब तक पकड़ूँ, निकल गया।
बजरंगी-हाथ तो मेरा भी ऐसा पड़ा है कि बच्चा को छठी का दूध याद आ गया होगा। चारों खाने चित गिरा था।
ठाकुरदीन-किसी जाने हुए आदमी का काम है। घर के भेदिए बिना कभी चोरी नहीं होती। मेरे यहाँ सबों ने मेरी छोटी लड़की को मिठाई देकर नहीं घर का सारा भेद पूछ लिया था?
बजरंगी-थाने में जरूर रपट करना।
भैरों-रपट ही करके थोड़े ही रह जाऊँगा। बच्चा से चक्की न पिसवाऊँ, तो कहना। चाहे बिक जाऊँ, पर उन्हें भी पीस डालूँगा। मुझे सब मालूम है।
ठाकुरदीन-माल-का-माल ले गया, दो आदमियों को चुटैल कर गया। इसी से मैं चोरों के नगीच नहीं गया था। दूर ही से 'लेना-देना' करता रहा। जान सलामत रहे, तो माल फिर आ जाता है।
भैरों को बजरंगी पर शुभा न था, न नायकराम पर; उसे जगधर पर शुभा था। शुभा ही नहीं, पूरा विश्वास था। जगधर के सिवा किसी को न मालूम था कि रुपये कहाँ रखे हुए हैं। जगधर लठैत भी अच्छा था। वह पड़ोसी होकर भी घटनास्थल पर सबसे पीछे पहुँचा था। ये सब कारण उसके संदेह को पुष्ट करते थे।
यहाँ से लोग चले, तो रास्ते में बातें होने लगीं। ठाकुरदीन ने कहा-कुछ अपनी कमाई के रुपये तो थे नहीं, वही सूरदास के रुपये थे।
नायकराम-पराया माल अपने घर आकर अपना हो जाता है।
ठाकुरदीन-पाप का दंड जरूर भोगना पड़ता है, चाहे जल्दी हो, चाहे देर।
बजरंगी-तुम्हारे चोरों को कुछ दंड न मिला।
ठाकुरदीन-मुझे कौन किसी देवता का इष्ट था। सूरदास को इष्ट है। उसकी एक कौड़ी भी किसी को हजम नहीं हो सकती, चाहे कितना ही चूरन खाए। मैं तो बदकर कहता हूँ अभी उसके घर की तलासी ली जाए, तो सारा माल बरामद हो जाए।
दूसरे दिन मुँह-अंधोरे भैरों ने कोतवाली में इत्ताला दी। दोपहर तक दारोगाजी तहकीकात करने आ पहुँचे। जगधर की खानातलाशी हुई, कुछ न निकला। भैरों ने समझा, इसने माल कहीं छिपा दिया, उस दिन से भैरों के सिर एक भूत-सा सवार हो गया। वह सबेरे ही दारोगाजी के घर पहुँच जाता, दिन-भर उनकी सेवा-टहल किया करता, चिलम भरता, पैर दबाता, घोड़े के लिए घास छील लाता, थाने के चौकीदारों की खुशामद करता, अपनी दूकान पर बैठा हुआ सारे दिन इसी चोरी की चर्चा किया करता-क्या कहूँ, मुझे कभी ऐसी नींद न आती थी, उस दिन न जाने कैसे सो गया। अगर बँधवा न दूँ, तो नाम नहीं। दारोगाजी ताक में हैं। उसमें सब रुपये ही नहीं हैं असरफियाँ भी हैं। जहाँ बिकेगी, बेचनेवाला तुरंत पकड़ा जाएगा।
शनै:-शनै: भैरों को मुहल्ले-भर पर संदेह होने लगा। और, जलते तो लोग उससे पहले ही थे, अब सारा मुहल्ला उसका दुश्मन हो गया। यहाँ तक कि अंत में वह अपने घरवालों ही पर अपना क्रोध उतारने लगा। सुभागी पर फिर मार पड़ने लगी-तूने मुझे चौपट किया, तू इतनी बेखबर न होती, तो चोर कैसे घर में घुस आता? मैं तो दिन-भर दौरी-दूकान करता हूँ; थककर सो गया। तू घर में पड़े-पड़े क्या किया करती है? अब जहाँ से बने, मेरे रुपये ला, नहीं तो जीता न छोड़ईँगा। अब तक उसने अपनी माँ का हमेशा अदब किया था, पर अब उसकी भी ले-दे मचाता-तू कहा करती है, मुझे रात को नींद ही नहीं आती, रात भर जागती रहती हूँ। उस दिन तुझे कैसे नींद आ गई? सारांश यह कि उसके दिल में किसी की इज्जत, किसी का विश्वास, किसी का स्नेह न रहा। धन के साथ सद्भाव भी दिल से निकल गए। जगधर को देखकर तो उसकी आँखों में खून उतर आता था। उसे बार-बार छेड़ता कि यह गरम पड़े, तो खबर लूँ; पर जगधर उससे बचता रहता था। वह खुली चोटें करने की अपेक्षा छिपे वार करने में अधिक कुशल था।
एक दिन संधया समय जगधर ताहिर अली के पास आकर खड़ा हो गया। ताहिर अली ने पूछा-कैसे चले जी?
जगधर-आपसे एक बात कहने आया हूँ। आबकारी के दारोगा अभी मुझसे मिले थे। पूछते थे-भैरों गोदाम पर दूकान रखता है कि नहीं?मैंने कहा-साहब, मुझे नहीं मालूम। तब चले गए, पर आजकल में वह इसकी तहकीकात करने जरूर आएँगे। मैंने सोचा, कहीं आपकी भी सिकायत न कर दें, इसलिए दौड़ा आया।
ताहिर अली ने दूसरे ही दिन भैरों को वहाँ से भगा दिया।
इसके कई दिन बाद एक दिन, रात के समय सूरदास बैठा भोजन बना रहा था कि जगधर ने आकर कहा-क्यों सूरे, तुम्हारी अमानत तो तुम्हें मिल गई न?
सूरदास ने अज्ञात भाव से कहा-कैसी अमानत?
जगधर-वही रुपये, जो तुम्हारी झोंपड़ी से उठ गए थे।
सूरदास-मेरे पास रुपये कहाँ थे?
जगधर-अब मुझसे न उड़ो, रत्ती-रत्ती बात जानता हूँ, और खुश हूँ कि किसी तरह तुम्हारी चीज उस पापी के चंगुल से निकल आई। सुभागी अपनी बात की पक्की औरत है।
सूरदास-जगधर, मुझे इस झमेले में न घसीटो, गरीब आदमी हूँ। भैरो के कान में जरा भी भनक पड़ गई, तो मेरी जान तो पीछे लेगा,पहले सुभागी का गला घोंट देगा।
जगधर-मैं उससे कहने थोड़े ही जाता हूँ; पर बात हुई मेरे मन की। बचा ने इतने दिनों तक हलवाई की दूकान पर खूब दादे का फातिहा पढ़ा, धरती पर पाँव ही न रखता था, अब होश ठिकाने आ जाएँगे।
सूरदास-तुम नाहक मेरी जान के पीछे पड़े हो।
जगधर-एक बार खिलखिलाकर हँस दो, तो मैं चला जाऊँ। अपनी गई हुई चीज पाकर लोग फूले नहीं समाते। मैं तुम्हारी जगह होता, तो नाचता-कूदता, गाता-बजाता, थोड़ी देर के लिए पागल हो जाता। इतना हँसता, इतना हँसता कि पेट में बावगोला पड़ जाता; और तुम सोंठ बने बैठे हो! ले, हँसो तो।
सूरदास-इस बखत हँसी नहीं आती।
जगधर-हँसी क्यों नहीं आएगी; मैं तो हँसा दूँगा।
यह कहकर उसने सूरदास को गुदगुदाना शुरू किया। सूरदास विनोदशील आदमी था। ठट्ठे मारने लगा। ईर्ष्यामय परिहास का विचित्र दृश्य था। दोनों रंगशाला के नटों की भाँति हँस रहे थे और यह खबर न थी कि इस हँसी का परिणाम क्या होगा। शाम की मारी सुभागी इसी वक्त बनिए की दूकान से जिंस लिए आ रही थी। सूरदास के घर से अट्टहास की आकाशभेदी धवनि सुनी, तो चकराई। अंधो कुएँ में पानी कैसा? आकर द्वार पर खड़ी हो गई और सूरदास से बोली-आज क्या मिल गया है सूरदास, जो फूले नहीं समाते?
सूरदास ने हँसी रोककर कहा-मेरी थैली मिल गई; चोर के घर में छिछोर पैठा।
सुभागी-तो सब माल अकेले हजम कर जाओगे?
सूरदास-नहीं, तुझे भी एक कंठी ला दूँगा, ठाकुरजी का भजन करना।
सुभागी-अपनी कंठी धर रखो, मुझे एक सोने का कंठा बनवा देना।
सूरदास-तब तो तू धरती पर पाँव ही न रखेगी!
जगधर-इसे चाहे कंठा बनवाना या न बनवाना, इसकी बुढ़िया को एक नथ जरूर बनवा देना। पोपले मुँह पर नथ खूब खिलेगी, जैसे कोई बंदरिया नथ पहने हो।
इस पर तीनों ने ठट्ठा मारा। संयोग से भैरों भी उसी वक्त थाने से चला आ रहा था। ठट्ठे की आवाज सुनी, तो झोंपड़ी के अंदर झाँका, ये आज कैसे गुलछर्रे उड़ रहे हैं। यह तिगड्डम देखा, तो आँखों में खून उतर आया, जैसे किसी ने कलेजे पर गरम लोहा रख दिया हो। क्रोध से उन्मत्ता हो उठा। सुहागी को कठोर-से-कठोर, अश्लील-से-अश्लील दुर्वचन कहे, जैसे कोई सूरमा अपनी जान बचाने के लिए अपने शस्त्रों का घातक-से-घातक प्रयोग करे-तू कुलटा है, मेरे दुसमनों के साथ हँसती है, फाहसा कहीं की, टके-टके पर अपनी आबरू बेचती है। खबरदार, जो आज से मेरे घर में कदम रखा, खून चूस लूँगा। अगर अपनी कुशल चाहती है, तो इस अंधो से कह दे, फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाए; नहीं तो इसकी और तेरी गरदन एक ही गँड़ासे से काटूँगा। मैं तो इधर-उधर मारा-मारा फिरूँ, और यह कलमुँही यारों के साथ नोक-झोंक करे! पापी अंधो को मौत भी नहीं आती कि मुहल्ला साफ हो जाता, न जाने इसके करम में क्या-क्या दु:ख भोगना लिखा है। सायद जेहल में चक्की पीसकर मरेगा।
यह कहता हुआ वह चला गया। सुभागी के काटो तो बदन में खून नहीं। मालूम हुआ, सिर पर बिजली गिर पड़ी। जगधर दिल में खुश हो रहा था, जैसे कोई शिकारी हरिन को तड़पते देखकर खुश हो। कैसा बौखला रहा है! लेकिन सूरदास? आह! उसकी वही दशा थी, जो किसी सती की अपना सतीत्व खो देने के पश्चात् होती है। तीनों थोड़ी देर तक स्तम्भित खड़े रहे। अंत में जगधर ने कहा-सुभागी, अब तू कहाँ जाएगी?
सुभागी ने उसकी ओर विषाक्त नेत्रों से देखकर कहा-अपने घर जाऊँगी! और कहाँ?
जगधर-बिगड़ा हुआ है प्रान लेकर छोड़ेगा।
सुभागी-चाहे मारे, चाहे जिलाए, घर तो मेरा वही है?
जगधर-कहीं और क्यों नहीं पड़ रहती, गुस्सा उतर जाए तो चली जाना।
सुभागी-तुम्हारे घर चलती हूँ, रहने दोगे?
जगधर-मेरे घर! मुझसे तो वह यों ही जलता है, फिर तो खून ही कर डालेगा।
सुभागी-तुम्हें अपनी जान इतनी प्यारी है, तो दूसरा कौन उससे बैर मोल लेगा?
यह कहकर सुभागी तुरंत अपने घर की ओर चली गई। सूरदास ने हाँ-नहीं कुछ न कहा। उसके चले जाने के बाद जगधर बोला-सूरे तुम आज मेरे घर चलकर सो रहो। मुझे डर लग रहा है कि भैरों रात को कोई उपद्रव न मचाए। बदमाश आदमी है, उसका कौन ठिकाना, मार-पीट करने लगे।
सूरदास-भैरों को जितना नादान समझते हो, उतना वह नहीं है। तुमसे कुछ न बोलेगा; हाँ, सुभागी को जी-भर मारेगा।
जगधर-नशे में उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती।
सूरदास-मैं कहता हूँ, तुमसे कुछ न बोलेगा। तुमने अपने दिल की कोई बात नहीं छिपाई है, तुमसे लड़ाई करने की उसे हिम्मत न पड़ेगी।
जगधर का भय शांत तो न हुआ; पर सूरदास की ओर से निराश होकर चला गया। सूरदास सारी रात जागता रहा। इतने बड़े लांछन के बाद उसे अब यहाँ रहना लज्जाजनक जान पड़ता था। अब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाने के सिवा उसे और उपाय न सूझता था-मैंने तो कभी किसी की बुराई नहीं की, भगवान् मुझे क्यों यह दंड दे रहे हैं? यह किन पापों का प्रायश्चित्ता पड़ रहा है? तीरथ-यात्रा से चाहे यह पाप उतर जाए। कल कहीं चल देना चाहिए। पहले भी भैरों ने मुझ पर यही पाप लगाया था। लेकिन तब सारे मुहल्ले के लोग मुझे मानते थे, उसकी यह बात हँसी में उड़ गई। उलटे लोगों ने उसी को डाँटा। अबकी तो सारा मुहल्ला मेरा दुश्मन है, लोग सहज ही में विश्वास कर लेंगे,मुँह में कालिख लग जाएगी। नहीं, अब यहाँ से भाग जाने ही में कुसल है। देवताओं की सरन लूँ, वह अब मेरी रच्छा कर सकते हैं। पर बेचारी सुभागी का क्या हाल होगा? भैरों अबकी उसे जरूर छोड़ देगा। इधर मैं भी चला जाऊँगा तो बेचारी कैसे रहेगी? उसके नैहर में भी तो कोई नहीं है। जवान औरत है, मिहनत-मजूरी कर नहीं सकती। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। चलकर एक बार भैरों से अकेले में सारी बातें साफ-साफ कह दूँ। भैरों से मेरी कभी सफाई से बातचीत नहीं हुई। उसके मन में गाँठ पड़ी हुई है। मन में मैल रहने ही से उसे मेरी ओर से ऐसा भरम होता है। जब तक उसका मन साफ न हो जाए, मेरा यहाँ से जाना उचित नहीं। लोग कहेंगे, काम किया था, तभी तो डरकर भागा; न करता,तो डरता क्यों? ये रुपये भी उसे फेर दूँ। मगर जो उसने पूछा कि ये रुपये कहाँ मिले, तो सुभागी का नाम न बताऊँगा, कह दूँगा, मुझे झोंपड़ी में रखे हुए मिले। इतना छिपाए बिना सुभागी की जान न बचेगी। लेकिन परदा रखने से सफाई कैसे होगी? छिपाने का काम नहीं है। सब कुछ आदि से अंत तक सच-सच कह दूँगा। तभी उसका मन साफ होगा।
इस विचार से उसे बड़ी शांति मिली, जैसे किसी कवि को उलझी हुई समस्या की पूर्ति से होती है।
वह तड़के ही उठा और जाकर भैरों के दरवाजे पर आवाज दी। भैरों सोया हुआ था। सुभागी बैठी रो रही थी। भैरों ने उसके घर पहुँचते ही उसकी यथाविधि ताड़ना की थी। सुभागी ने सूरदास की आवाज पहचानी। चौंकी कि यह इतने तड़के कैसे आ गया! कहीं दोनों में लड़ाई न हो जाए। सूरदास कितना बलिष्ठ है, यह बात उससे छिपी न थी। डरी कि सूरदास ही रात की बातों का बदला लेने न आया हो। यों तो बड़ा सहनशील है, पर आदमी है, क्रोध आ गया होगा। झूठा इलजाम सुनकर क्रोध आता ही है। कहीं गुस्से में आकर इन्हें मार न बैठे। पकड़ पाएगा, तो प्रान ही लेकर छोड़ेगा। सुभागी भैरों की मार खाती थी, घर से निकाली जाती थी, लेकन यह मजाल न थी कि कोई बाहरी आदमी भैरों को कुछ कहकर निकल जाए। उसका मुँह नोच लेती। उसने भैरों को जगाया नहीं, द्वार खोलकर पूछा-क्या है सूरे, क्या कहते हो?
सूरदास के मन में बड़ी प्रबल उत्कंठा हुई कि इससे पूछूँ, रात तुझ पर क्या बीती; लेकिन जब्त कर गया-मुझे इससे वास्ता? उसकी स्त्री है। चाहे मारे, चाहे दुलारे। मैं कौन होता हूँ पूछनेवाला। बोला-भैरों क्या अभी सोते हैं? जरा जगा दे, उनसे कुछ बातें करनी हैं।
सुभागी-कौन बात है, मैं भी सुनूँ?
सूरदास-ऐसी ही एक बात है, जरा जगा तो दे।
सुभागी-इस बखत जाओ, फिर कभी आकर कह देना।
सूरदास-दूसरा कौन बखत आएगा। मैं सड़क पर जा बैठूँगा कि नहीं? देर न लगेगी।
सुभागी-और कभी तो इतने तड़के न आते थे, आज ऐसी कौन-सी बात है?
सूरदास ने चिढ़कर कहा-उसी से कहूँगा, तुझसे कहने की बात नहीं है।
सुभागी को पूरा विश्वास हो गया कि यह इस समय आपे में नहीं है। जरूर मारपीट करेगा। बोली-मुझे मारा-पीटा थोड़े ही था; बस वहीं जो कुछ कहा-सुना, वही कह-सुनकर रह गए।
सूरदास-चल, तेरे चिल्लाने की आवाज मैंने अपने कानों सुनी।
सुभागी-मारने को धमकाता था; बस, मैं जोर से चिल्लाने लगी।
सूरदास-न मारा होगा। मारता भी, तो मुझे क्या, तू उसकी घरवाली है; जो चाहे करे, तू जाकर उसे भेज दे। मुझे एक बात कहनी है।
जब अब भी सुभागी न गई तो सूरदास ने भैरों का नाम लेकर जोर-जोर से पुकारना शुरू किया। कई हाँकों के बाद भैरों की आवाज सुनाई दी-कौन है, बैठो, आता हूँ।
सुभागी यह सुनते ही भीतर गई और बोली-जाते हो, तो एक डंडा लेते जाओ, सूरदास है, कहीं लड़ने न आया हो।
भैरों-चल बैठ, लड़ाई करने आया है! मुझसे तिरिया-चरित्तार मत खेल।
सुभागी-मुझे उसकी त्योरियाँ बदली हुई मालूम होती हैं, इसी से कहती हूँ।
भैरों-यह क्यों नहीं कहती कि तू उसे चढ़ाकर लाई है। वह तो इतना कीना नहीं रखता। उसके मन में कभी मैल नहीं रहता।
यह कहकर भैरों ने अपनी लाठी उठाई और बाहर आया। अंधा शेर भी हो, तो उसका क्या भय? एक बच्चा भी उसे मार गिराएगा।
सूरदास ने भैरों से कहा-यहाँ और कोई तो नहीं है? मुझे तुमसे एक भेद की बात करनी है।
भैरों-कोई नहीं है। कहो, क्या बात कहते हो?
सूरदास-तुम्हारे चोर का पता मिल गया।
भैरों-सच, जवानी कसम?
सूरदास-हाँ, सच कहता हूँ। वह मेरे पास आकर तुम्हारे रुपये रख गया। और तो कोई चीज नहीं गई थी?
भैरों-मुझे जलाने आए हो, अभी मन नहीं भरा?
सूरदास-नहीं, भगवान् से कहता हूँ, तुम्हारी थैली मेरे घर में ज्यों-की-त्यों पड़ी मिली।
भैरों-बड़ा पागल था, फिर चोरी काहे को की थी?
सूरदास-हाँ, पागल ही था और क्या।
भैरों-कहाँ है, जरा देखूँ तो?
सूरदास ने थैली कमर से निकालकर भैरों को दिखाई। भैरों ने लपककर थैली ले ली। ज्यों-की-त्यों बंद थी।
सूरदास-गिन लो, पूरे हैं कि नहीं?
भैरों-हैं, पूरे हैं, सच बताओ, किसने चुराया था?
भैरों को रुपये मिलने की इतनी खुशी न थी, जितनी चोर का नाम जानने की उत्सुकता। वह देखना चाहता था कि मैंने जिस पर शक किया था, वही है कि कोई और।
सूरदास-नाम जानकर क्या करोगे? तुम्हें अपने माल से मतलब है कि चोर के नाम से?
भैरों-नहीं, तुम्हें कसम है, बता दो, है इसी मुहल्ले का न?
सूरदास-हाँ, है तो मुहल्ले ही का; पर नाम न बताऊँगा।
भैरों-जवानी की कसम खाता हूँ, उससे कुछ न कहूँगा।
सूरदास-मैं उसको वचन दे चुका हूँ कि नाम न बताऊँगा। नाम बता दूँ, और तुम अभी दंगा करने लगो, तब?
भैरों-विसवास मानो, मैं किसी से न बोलूँगा। जो कसम कहो, खा जाऊँ। अगर जबान खोलूँ, तो समझ लेना, इसके असल में फरक है। बात और बाप एक है। अब और कौन कसम लेना चाहते हो?
सूरदास-अगर फिर गए, तो यहीं तुम्हारे द्वार पर सिर पटककर जान दे दूँगा।
भैरों-अपनी जान क्यों दे दोगे, मेरी जान ले लेना; चूँ न करूँगा।
सूरदास-मेरे घर में एक बार चोरी हुई थी, तुम्हें याद है न? चोर को ऐसा सुभा हुआ होगा कि तुमने मेरे रुपये लिए हैं। इसी से उसने तुम्हारे यहाँ चोरी की, और मुझे रुपये लाकर दे दिए। बस, उसने मेरी गरीबी पर दया की, और कुछ नहीं। उससे मेरा और कोई नाता नहीं है।
भैरों-अच्छा, यह सब सुन चुका, नाम तो बताओ।
सूरदास-देखो, तुमने कसम खाई है।
भैरों-हाँ, भाई, कसम से मुकरता थोड़ा ही हूँ।
सूरदास-तुम्हारी घरवाली और मेरी बहन सुभागी।
इतना सुनना था कि भैरों जैसे पागल हो गया। घर में दौड़ा हुआ गया और माँ से बोला-अम्माँ, इसी डाइन ने मेरे रुपये चुराए थे। सूरदास अपने मुँह से कह रहा है। इस तरह मेरा घर मूसकर यह चुड़ैल अपने धींगड़ों का घर भरती। उस पर मुझसे उड़ती थी। देख तो, तेरी क्या गत बनाता हूँ। बता, सूरदास झूठ कहता है कि सच?
सुभागी ने सिर झुकाकर कहा-सूरदास झूठ बोलते हैं।
उसके मुँह से बात पूरी न निकलने पाई थी कि भैरों ने लकड़ी खींचकर मारी। वार खाली गया। इससे भैरों का क्रोध और भी बढ़ा। वह सुभागी के पीछे दौड़ा। सुभागी ने एक कोठरी में घुसकर भीतर से द्वार बंद कर लिया। भैरों ने द्वार पीटना शुरू किया। सारे मुहल्ले में हुल्लड़ मच गया, भैरों सुभागी को मारे डालता है। लोग दौड़ पड़े। ठाकुरदीन ने भीतर जाकर पूछा-क्या है भैरों, क्यों किवाड़ तोड़े डालते हो? भले आदमी, कोई घर के आदमी पर इतना गुस्सा करता है!
भैरों-कैसा घर का आदमी जी! ऐसे घर के आदमी का सिर काट लेना चाहिए, जो दूसरों से हँसे। आखिर मैं काना हूँ, कतरा हूँ, लूला हूँ,लँगड़ा हूँ, मुझमें क्या ऐब है, जो यह दूसरों से हँसती है? मैं इसकी नाक काटकर तभी छोड़ूँगा। मेरे घर जो चोरी हुई थी, वह इसी चुड़ैल की करतूत थी। इसी ने रुपये चुराकर सूरदास को दिए थे।
ठाकुरदीन-सूरदास को!
भैरों-हाँ-हाँ, सूरदास को। बाहर तो खड़ा है, पूछते क्यों नहीं? उसने जब देखा कि अब चोरी न पचेगी, तो लाकर सब रुपये मुझे दे गया है।
बजरंगी-अच्छा, तो रुपये सुभागी ने चुराए थे!
लोगों ने भैरों को ठंडा किया और बाहर खींच लाए। यहाँ सूरदास पर टिप्पणियाँ होने लगीं। किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि साफ-साफ कहे? सब-के-सब डर रहे थे कि कहीं मेम साहब से शिकायत न कर दे। पर अन्योक्तियों द्वारा सभी अपने मनोविचार प्रकट कर रहे थे। सूरदास को आज मालूम हुआ कि पहले कोई मुझसे डरता न था, पर दिल में सब इज्जत करते थे; अब सब-के-सब मुझसे डरते हैं; पर मेरी सच्ची इज्जत किसी के दिल में नहीं है। उसे इतनी ग्लानि हो रही थी कि आकाश से वज्र गिरे और मैं यहीं जल-भुन जाऊँ।
ठाकुरदीन ने धीरे से कहा-सूरे तो कभी ऐसा न था। आज से नहीं, लड़कपन से देखते हैं।
नायकराम-पहले नहीं था, अब हो गया। अब तो किसी को कुछ समझता ही नहीं।
ठाकुरदीन-प्रभुता पाकर सभी को मद हो जाता है, पर सूरे में तो मुझे कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती।
नायकराम-छिपा रुस्तम है! बजरंगी, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।
बजरंगी-(हँसकर) पंडाजी, भगवान् से कहता हूँ, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।
भैरों-और मुझसे जो सच पूछो, तो जगधर पर सक था।
सूरदास सिर झुकाए चारों ओर से ताने और लताड़ें सुन रहा था। पछता रहा था-मैंने ऐसे कमीने आदमी से यह बात बताई ही क्यों। मैंने तो समझा था, साफ-साफ कह देने से इसका दिल साफ हो जाएगा। उसका यह फल मिला! मेरे मुँह में तो कालिख लग ही गई, उस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा। भगवान् अब कहाँ गए, क्या कथा-पुरानों ही में अपने सेवकों को उबारने आते थे, अब क्यों नहीं आकाश से कोई दूत आकर कहता कि यह अंधा बेकसूर है।
जब भैरों के द्वार पर यह अभिनय होते हुए आधा घंटे से अधिक हो गया, तो सूरदास के धैर्य का प्याला छलक पड़ा। अब मौन बने रहना उसके विचार में कायरता थी, नीचता थी। एक सती पर इतना कलंक थोपा जा रहा है और मैं चुपचाप खड़ा सुनता हूँ। यह महापाप है। वह तनकर खड़ा हो गया और फटी हुई आँखें फाड़कर बोला-यारो, क्यों बिपत के मारे हुए दुखियों पर यह कीचड़ फेंक रहे हो, ये छुरियाँ चला रहे हो? कुछ तो भगवान् से डरो। क्या संसार में कहीं इंसाफ नहीं रहा? मैंने तो भलमनसी की कि भैरों के रुपये उसे लौटा दिए। उसका मुझे यह फल मिल रहा है! सुभागी ने क्यों यह काम किया और क्यों मुझे रुपये दिए यह मैं न बताऊँगा लेकिन भगवान् मेरी इससे भी ज्यादा दुर्गत करें, अगर मैंने सुभागी को अपनी छोटी बहन के सिवा कभी कुछ और समझा हो। मेरा कसूर इतना ही है कि वह रात को मेरी झोंपड़ी में आई थी। उस बखत जगधर वहाँ बैठा था। उससे पूछो कि हम लोगों में कौन-सी बातें हो रही थीं। अब इस मुहल्ले में मुझ-जैसे अंधो-अपाहिज आदमी का निबाह नहीं हो सकता। जाता हूँ; पर इतना कहे जाता हूँ कि सुभागी पर जो कलंक लगाएगा, उसका भला न होगा। वह सती है, सती को पाप लगाकर कोई सुखी नहीं हो सकता। मेरा कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है; जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह चुटकी-भर आटा दे देगा। अब यहाँ से दाना-पानी उठता है। पर एक दिन आवेगा, जब तुम लोगों को सब बातें मालूम हो जाएँगी, और तब तुम जानोगे कि अंधा निरपराध था।
यह कहकर सूरदास अपनी झोंपड़ी की तरफ चला गया।
रंगभूमि अध्याय 24
सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफ़िया फिर मि. क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि. क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लज्जा, तिरस्कार सहने की अपेक्षा कृत्रिाम प्रेम का स्वाँग भरना कहीं दुस्सह प्रतीत होता था। सोचती थी, मैं जल से बचने के लिए आग में कूद पड़ी। प्रकृति बल-प्रयोग सहन नहीं कर सकती। उसने अपने मन को बलात् विनय की ओर से खींचना चाहा था, अब उसका मन बड़े वेग से उनकी ओर दौड़ रहा था। इधर उसने भक्ति के विषय में कई ग्रंथ पढ़े थे और फलत: उसके विचारों में एक रूपांतर हो गया था। अपमान और लोक-निंदा का भय उसके दिल से मिटने लगा था। उसके सम्मुख प्रेम का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित हो गया था, जहाँ अहंकार की आवाज नहीं पहुँचती। त्यागपरायण तपस्वी को सोमरस का स्वाद मिल गया था और उसके नशे में उसे सांसारिक भोग-विलास, मान-प्रतिष्ठा सारहीन जान पड़ती थी। जिन विचारों से प्रेरित होकर उसने विनय से मुँह फेरने और क्लार्क से विवाह करने का निश्चय किया था, वे अब उसे नितांत अस्वाभाविक मालूम होते थे। रानी जाह्नवी से तिरस्कृत होकर अपने मन का दमन करने के लिए उसने अपने ऊपर यह अत्याचार किया था। पर अब उसे नजर ही न आता था कि मेरे आचरण में कलंक की कौन-सी बात थी, उसमें अनौचित्य कहाँ था। उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थी, उसे जघन्य समझ रही थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैंने विनय के स्थान पर क्लार्क को प्रतिष्ठित करने का फैसला कैसे किया। मि. क्लार्क में सद्गुणों की कमी नहीं, वह सुयोग्य हैं, शीलवान् हैं, उदार हैं, सहृदय हैं। वह किसी स्त्री को प्रसन्न रख सकते हैं, जिसे सांसारिक सुख-भोग की लालसा हो। लेकिन उनमें वह त्याग कहाँ, वह सेवा का भाव कहाँ, वह जीवन का उच्चादर्श कहाँ, वह वीर-प्रतिज्ञा कहाँ, वह आत्मसमर्पण कहाँ? उसे अब प्रेमानुराग की कथाएँ और भक्ति-रस-प्रधान काव्य, जीव और आत्मा, आदि और अनादि, पुनर्जन्म और मोक्ष आदि गूढ़ विषयों की व्यावख्या से कहीं आकर्षक मालूम होते थे। इसी बीच में उसे कृष्ण का जीवन-चरित्र पढ़ने का अवसर मिला और उसने उस भक्ति की जड़ हिला दी, जो उसे प्रभु मसीह से थी। वह मन में दोनों महान् पुरुषों की तुलना किया करती। मसीह की दया की अपेक्षा उसे कृष्ण के प्रेम से अधिक शांति मिलती थी। उसने अब तक गीता ही के कृष्ण को देखा था और मसीह की दयालुता, सेवाशीलता और पवित्रता के आगे उसे कृष्ण का रहस्यमय जीवन गीता की जटिल दार्शनिक व्याख्याओं से भी दुर्बोध जान पड़ता था। उसका मस्तिष्क गीता के विचारोत्कर्ष के सामने झुक जाता था, पर उसने मन में भक्ति का भाव न उत्पन्न होता था। कृष्ण के बाल-जीवन को उसने भक्तों की कपोल-कल्पना समझ रखा था। और उस पर विचार करना ही व्यर्थ समझती थी।
पर अब ईसा की दया इस बाल-क्रीड़ा के सामने नीरस थी। ईसा की दया में आधयात्मिकता थी, कृष्ण के प्रेम में भावुकता; ईसा की दया आकाश की भाँति अनंत थी, कृष्ण का प्रेम नवकुसुमित, नवपल्लवित उद्यान की भाँति मनोहर; ईसा की दया जल-प्रवाह की मधुर धवनि थी,कृष्ण का प्रेम वंशी की व्याकुल टेर; एक देवता था, दूसरा मनुष्य; एक तपस्वी था, दूसरा कवि; एक में जागृति और आत्मज्ञान था, दूसरे में अनुराग और उन्माद; एक व्यापारी था, हानि-लाभ पर निगाह रखनेवाला, दूसरा रसिया था, अपने सर्वस्व को दोनों हाथों लुटानेवाला; एक संयमी था, दूसरा भोगी। अब सोफ़िया का मन नित्य इसी प्रेम-क्रीड़ा में बसा रहता था, कृष्ण ने उसे मोहित कर लिया था, उसे अपनी वंशी की धवनि सुना दी थी।
मिस्टर क्लार्क का लौकिक शिष्टाचार अब उसे हास्यास्पद मालूम होता था। वह जानती थी कि यह सारा प्रेमालाप एक परीक्षा में भी सफल नहीं हो सकता। वह बहुधा उनसे रुखाई करती। वह बाहर से मुस्कराते हुए आकर उसकी बगल में कुर्सी खींचकर बैठ जाते, और वह उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी धार्मिक अश्रध्दा से मिस्टर क्लार्क के धर्मपरायण हृदय को कठोर आघात पहुँचाया। उन्हें सोफ़िया एक रहस्य-सी जान पड़ती थी, जिसका उद्घाटन करने में वह असमर्थ थे। उसका अनुपम सौंदर्य, उसकी हृदयहारिणी छवि, उसकी अद्भुत विचारशीलता उन्हें जितने जोर से अपनी ओर खींचती थी, उतनी ही उसकी मानशीलता, विचार-स्वाधीनता और अनम्रता उन्हें भयभीत कर देती थी। उसके सम्मुख बैठे हुए वह अपनी लघुता का अनुभव करते थे, पग-पग पर उन्हें ज्ञात होता था कि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। इसी वजह से इतनी घनिष्ठता होने पर भी उन्हें उसे वचनबध्द करने का साहस न होता था। मिसेज़ सेवक आग में ईंधन डालती रहती थीं-एक ओर क्लार्क को उकसातीं, दूसरी ओर सोफी को समझातीं-तू समझती है, जीवन में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं,यह तेरी गलती है। मनुष्य को केवल एक अवसर मिलता है, और वही उसके भाग्य का निर्णय कर देता है।
मि. जॉन सेवक ने भी अपने पिता के आदेशानुसार दोरुखी चाल चलनी शुरू की। वह गुप्त रूप से तो राजा महेंद्रकुमार सिंह की कल घुमाते रहते थे; पर प्रकट रूप से मिस्टर क्लार्क के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखते थे। रहे मि. ईश्वर सेवक, वह तो समझते थे, खुदा ने सोफ़िया को मिस्टर क्लार्क ही के लिए बनाया है। वह अकसर उनके यहाँ आते थे और भोजन भी वहीं कर लेते थे। जैसे कोई दलाल ग्राहक को देखकर उसके पीछे-पीछे हो लेता है, और उसे किसी दूसरी दूकान पर बैठने नहीं देता, वैसे ही वह मिस्टर क्लार्क को घेरे रहते थे कि कोई ऊँची दूकान उन्हें आकर्षित न कर ले। मगर इतने शुभेच्छुकों के रहते हुए भी मिस्टर क्लार्क को अपनी सफलता दुर्लभ मालूम होती थी।
सोफ़िया को इन दिनों बनाव-सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग-चोटी या वस्त्राभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग-विलास से दूर रहना चाहती थी। धर्म-ग्रंथों की यही शिक्षा थी, शरीर नश्वर है, संसार असार है, जीवन मृग-तृष्णा है, इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही है, उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब तक वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी सजग न थी।
संधया हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणें, किसी देवता के आशीर्वाद की भाँति, तरु-पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफ़िया एक क्ुं+ज में खड़ी आप-ही-आप मुस्करा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफ़िया को बाग में देखकर सीधो उसके पास आए और एक कृपा-लोलुप दृष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफ़िया ने मुँह फेर लिया, मानो उनके बढ़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।
सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य-भाव से पूछा-आज कितने अपराधियों को दंड दिया?
मिस्टर क्लार्क झेंप गए। सकुचाते हुए बोले-प्रिये, यह तो रोज की बातें हैं, इनकी क्या चर्चा करूँ?
सोफी-तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधी वास्तव में अपराधी है? इसका तुम्हारे पास कोई यंत्र है?
क्लार्क-गवाह तो रहते हैं।
सोफी-गवाह हमेशा सच्चे होते हैं?
क्लार्क-कदापि नहीं। गवाह अकसर झूठे और सिखाए हुए होते हैं।
सोफी-और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!
क्लार्क-इसके सिवा और उपाय ही क्या है!
सोफी-तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों ले? इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला, खानसामे, भाँति-भाँति की शराब और विनोद के अनेक साधन जुटाए जाएँ?
क्लार्क ने हतबुध्दि की भाँति कहा-तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँ?
सोफ़िया-जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन-प्रणाली में इतनी त्रुटियाँ हैं, तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते हो?
क्लार्क-प्रिये, मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।
सोफ़िया-और बिना विचार किए ही नित्य न्याय की हत्या किया करते हो। कितने निर्दयी हो!
क्लार्क-हम तो केवल कल के पुर्जे हैं, हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजन?
सोफी-क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराध नहीं किया?
क्लार्क-यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।
सोफी-तो तुम इसीलिए दंड से बचे हुए हो कि तुम्हारे अपराध छिपे हुए हैं?
क्लार्क-यह स्वीकार करने को जी तो नहीं चाहता; विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा।
सोफी-आश्चर्य है कि स्वयं अपराधी होकर तुम्हें दूसरे अपराधियों को दंड देते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती!
क्लार्क-सोफी, इसके लिए तुम फिर कभी मेरा तिरस्कार कर लेना। इस समय मुझे एक महत्तव के विषय में तुमसे सलाह लेनी है। खूब विचार करके राय देना। राजा महेंद्रकुमार ने मेरे फैसले की अपील गवर्नर के यहाँ की थी, इसका जिक्र तो मैं तुमसे कर ही चुका हूँ। उस वक्त मैंने समझा था, गवर्नर अपील पर धयान न देंगे। एक जिले के अफसर के खिलाफ किसी रईस की मदद करना हमारी प्रथा के प्रतिकूल है,क्योंकि इससे शासन में विघ्न पड़ता है; किंतु 6-7 महीनों में परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई है, राजा साहब ने अपनी कुल-मर्यादा, दृढ़ संकल्प और तर्क-बुध्दि से इतनी अच्छी तरह काम लिया है कि अब शायद फैसला मेरे खिलाफ होगा। काउंसिल में हिंदुस्तानियों का बहुमत हो जाने के कारण अब गवर्नर का महत्तव बहुत कम हो गया है। यद्यपि वह काउंसिल के निर्णय को रद्द कर सकते हैं, पर इस अधिकार से वह असाधारण अवसरों पर ही काम ले सकते हैं। अगर राजा साहब की अपील वापस कर दी गई, तो दूसरे ही दिन देश में कुहराम मच जाएगा और समाचार-पत्रों को विदेशी राज्य के एक नए अत्याचार पर शोर मचाने का वह मौका मिल जाएगा जो वे नित्य खोजते रहते हैं। इसलिए गवर्नर ने मुझसे पूछा है कि यदि राजा साहब के आँसू पोंछे जाएँ, तो तुम्हें कुछ दु:ख तो न होगा? मेरी समझ में नहीं आता, इसका क्या उत्तार दूँ। अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका।
सोफी-क्या इसका निर्णय करना मुश्किल है?
क्लार्क-हाँ, इसलिए मुश्किल है कि जन-सम्मत्तिा से राज्य करने की जो व्यवस्था हम लोगों ने खुद की है, उसे पैरों-तले कुचलना बुरा मालूम होता है। राजा कितना ही सबल हो, पर न्याय का गौरव रखने के लिए कभी-कभी राजा को भी सिर झुकाना पड़ता है। मेरे लिए कोई बात नहीं, फैसला मेरे अनुकूल हो प्रतिकूल, मेरे ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ता; बल्कि प्रजा पर हमारे न्याय की धाक और बैठ जाती है। (मुस्कराकर) गवर्नर ने मुझे इस अपराध के लिए दंड भी दिया है। वह मुझे यहाँ से हटा देना चाहते हैं।
सोफ़िया-क्या तुम्हें इतना दबना पड़ेगा?
क्लार्क-हाँ, मैं रियासत का पोलिटिकल एजेंट बना दिया जाऊँगा, यह पद बड़े मजे का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता है, सारा अख्तियार तो एजेंट ही के हाथों में रहता है। हममें जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हीं को यह पद प्रदान किया जाता है।
सोफ़िया-तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।
मिस्टर क्लार्क इस व्यंग से मन में कटकर रह गए। उन्होंने समझा था सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समाएगी, और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दाम्पत्य सूत्र में बँधा जाना आवश्यक है। 'तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो,' इस निर्दय व्यंग ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरता, वह कटाक्ष, वह उदासीनता भरी हुई थी, जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे-इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किए बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दी, कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगा?शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ-कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैं, पर उस बेकस अंधो की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना था, तो यह रोग ही क्यों छेड़ा था। बोले-यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।
सोफी ने उदासीन भाव से उत्तार दिया-इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।
क्लार्क-उस अंधो की फिक्र है।
सोफी ने निर्दयता से कहा-उस अंधो के खुदा तुम्हीं नहीं हो।
क्लार्क-मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।
सोफी-अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित हो, तो?
क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तार दिया-सोफी, मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ?
सोफी-(हँसकर) इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।
इतने में मिसेज़ सेवक वहाँ आ गईं और क्लार्क से हँस-हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखा, अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहा, तो अपने कमरे में चली आई। देखा, तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा-इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया-बँधना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।
प्रभु सेवक-(चौंककर) कब?
सोफी-बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।
प्रभु सेवक-तब तो तुम यहाँ थोड़े ही दिनों की मेहमान हो!
सोफी-मैं इनसे विवाह न करूँगी।
प्रभु सेवक-सच?
सोफी-हाँ, मैं कई दिन से यह फैसला कर चुकी हूँ, पर तुमसे कहने का मौका न मिला।
प्रभु सेवक-क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँ?
सोफी-बात तो वास्तव में यही थी।
प्रभु सेवक-मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती हो? जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।
सोफी-क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन है, कुछ ऐसे खुले हुए निर्द्वंद्व मनुष्य हो कि तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँ, जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली टहनी पर पैर रखते डरता है।
प्रभु सेवक-अच्छी बात है, यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँ, तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँ, मुझे चैन ही नहीं आता। खैर, मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहा; पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैं; पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़ हो गई है। बैठे सोंठ की तरह सुनते रहे, मानो मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगी, पर विनय-जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें तो खूब लिखें। उनका रोम-रोम काव्यमय है।
सोफी-तुम इधर कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गए थे?
प्रभु सेवक-आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्तिा में पड़ गए हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।
सोफ़िया के मुख पर क्रोध या शोक का कोई चिद्द न दिखाई दिया। उसने यह न पूछा, क्यों गिरफ्तार हुए? क्या अपराध था? ये सब बातें उसने अनुमान कर लीं। केवल इतना पूछा-रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैं?
प्रभु सेवक-न! कुँवर साहब और डॉक्टर गांगुली, दोनों जाने को तैयार हैं; पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैं, विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।
सोफ़िया थोड़ी देर तक गम्भीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चायात्मक भाव से बोली-मैं उदयपुर जाऊँगी।
प्रभु सेवक-वहाँ जाकर क्या करोगी?
सोफी-यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगी, तो कम-से-कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगी, अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया है, चाहे किसी इरादे से किया हो, वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दु:ख हुआ होगा, उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्ता विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्ता करूँगी, किसी और उपाय से नहीं, तो अपने प्राणों ही से।
यह कहकर सोफ़िया ने खिड़की से झाँका, तो मि. क्लार्क अभी तक खड़े मिसेज सेवक से बातें कर रहे थे। मोटरकार भी खड़ी थी। वह तुरंत बाहर आकर मि. क्लार्क से बोली-विलियम, आज मामा से बातें करने ही में रात खत्म कर दोगे? मैं सैर करने के लिए तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ।
कितनी मंजुल वाणी थी! कितनी मनोहारिणी छवि से, कमल-नेत्रों में मधुर हास्य का कितना जादू भरकर, यह प्रेम-ाचना की गई थी! क्लार्क ने क्षमाप्रार्थी नेत्रों से सोफ़िया को देखा-यह वही सोफ़िया है, जो अभी एक ही क्षण पहले मेरी हँसी उड़ा रही थी! तब जल पर आकाश की श्यामल छाया थी, अब उसी जल में इंदु की सुनहरी किरण नृत्य कर रही थी, उसी लहराते हुए जल की कम्पित, विहसित, चंचल छटा उसकी आँखों में थी। लज्जित होकर बोले-प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई।
सोफ़िया ने माता को सरल नेत्रों से देखकर कहा-मामा, देखती हो इनकी निष्ठुरता, यह अभी से मुझसे तंग आ गए हैं। मेरी इतनी सुधि न रही कि झूठे ही पूछ लेते, सैर करने चलोगी?
मिसेज़ सेवक-हाँ, विलियम, यह तुम्हारी ज्यादती है। आज सोफी ने तुम्हें रँगे हाथों पकड़ लिया। मैं तुम्हें निर्दोष समझती थी और सारा दोष उसी के सिर रखती थी।
क्लार्क ने कुछ मुस्कराकर अपनी झेंप मिटाई और सोफ़िया का हाथ पकड़कर मोटर की तरफ चले। पर अब भी उन्हें शंका हो रही थी कि मेरे हाथ में नाजुक कलाई है, वह कोई वस्तु है या केवल कल्पना और स्वप्न। रहस्य और भी दुर्भेद्य होता हुआ दिखाई देता था। यह कोई बंदर को नचानेवाला मदारी है या बालक, जो बंदर को दूर से देखकर खुश होता है, पर बंदर के निकट आते ही भय से चिल्लाने लगता है!
जब मोटर चली, तो सोफ़िया ने कहा-एजेंट के अधिकार तो बड़े होते हैं, वह चाहे तो किसी रियासत के भीतरी मुआमिलों में भी हस्तक्षेप कर सकता है, क्यों?
क्लार्क ने प्रसन्न होकर कहा-उसका अधिकार सर्वत्र, यहाँ तक कि राजा के महल के अंदर भी, होता है। रियासत का कहना ही क्या, वह राजा के खाने-सोने, आराम करने का समय तक नियत कर सकता है। राजा किससे मिले, किससे दूर रहे, किसका आदर करे, किसकी अवहेलना करे, ये सब बातें एजेंट के अधीन हैं। वह यहाँ तक निश्चय कर सकता है कि राजा की मेज पर कौन-कौन-से प्याले आएँगे, राजा के लिए कैसे और कितने कपड़ों की जरूरत है, यहाँ तक कि वह राजा के विवाह का भी निश्चय करता है। बस, यों समझो कि वह रियासत का खुदा होता है।
सोफ़िया-तब तो वहाँ सैर-सपाटे का खूब अवकाश मिलेगा। यहाँ की भाँति दिन-भर दफ्तर में तो न बैठना पड़ेगा?
क्लार्क-वहाँ कैसा दफ्तर, एजेंट का काम दफ्तर में बैठना नहीं है। वह वहाँ बादशाह का स्थानापन्न होता है।
सोफ़िया-अच्छा, जिस रियासत में चाहो, जा सकते हो?
क्लार्क-हाँ, केवल पहले कुछ लिखा-पढ़ी करनी पड़ेगी। तुम कौन-सी रियासत पसंद करोगी?
सोफ़िया-मुझे तो पहाड़ी देशों से विशेष प्रेम है। पहाड़ों के दामन में बसे हुए गाँव, पहाड़ों की गोद में चरनेवाली भेड़ें और पहाड़ों से गिरनेवाले जल-प्रपात, ये सभी दृश्य मुझे काव्यमय प्रतीत होते हैं। मुझे मालूम होता है, वह कोई दूसरा ही जगत् है, इससे कहीं शांतिमय और शुभ्र। शैल मेरे लिए एक मधुर स्वप्न है। कौन-कौन-सी रियासतें पहाड़ों में हैं?
क्लार्क-भरतपुर, जोधपुर, कश्मीर, उदयपुर...
सोफ़िया-बस, तुम उदयपुर के लिए लिखो। मैंने इतिहास में उदयपुर की वीरकथाएँ पढ़ी हैं और तभी से मुझे उस देश को देखने की बड़ी लालसा है। वहाँ के राजपूत कितने वीर, कितने स्वाधीनता-प्रेमी, कितने आन पर जान देनेवाले होते थे! लिखा है, चित्तौड़ में जितने राजपूतों ने वीरगति पाई, उनके जनेऊ तौले गए, तो 75 मन निकले। कई हजार राजपूत-स्त्रियाँ एक साथ चिता पर बैठकर राख हो गईं। ऐसे प्रणवीर प्राणी संसार में शायद ही और कहीं हों।
क्लार्क-हाँ, वे वृत्तांत मैंने भी इतिहास में देखे हैं। ऐसी वीर जाति का जितना सम्मान किया जाए, कम है। इसीलिए उदयपुर का राजा हिंदू राजों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। उनकी वीर-कथाओं में अतिशयोक्ति से बहुत काम लिया गया है, फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इस देश में इतनी जाँबाज और कोई जाति नहीं है।
सोफ़िया-तुम आज भी उदयपुर के लिए लिखो और सम्भव हो, तो हम लोग एक मास के अंदर यहाँ से प्रस्थान कर दें।
क्लार्क-लेकिन कहते हुए डर लगता है...तुम मेरा आशय समझ गई होगी...यहाँ से चलने के पहले मैं तुमसे वह चिर-सिंचित...मेरा जीवन...
सोफ़िया ने मुस्कराकर कहा-समझ गई, उसके प्रकट करने का कष्ट न उठाओ। इतनी मंदबुध्दि नहीं हूँ; लेकिन मेरी निश्चय-शक्ति अत्यंत शिथिल है, यहाँ तक कि सैर करने के लिए चलने का निश्चय भी मैं घंटों के सोच-विचार के बाद करती हूँ। ऐसे महत्तव के विषय में, जिसका सम्बंध जीवन-पर्यंत रहेगा, मैं इतनी जल्द कोई फैसला नहीं कर सकती। बल्कि साफ तो यों है कि अभी तक मैं यही निर्णय नहीं कर सकी कि मुझ-जैसी निर्द्वंद्व, स्वाधीन-विचार-प्रिय स्त्री दाम्पत्य जीवन के योग्य है भी या नहीं। विलियम, मैं तुमसे हृदय की बात कहती हूँ,गृहिणी-जीवन से मुझे भय मालूम होता है। इसलिए जब तक तुम मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित न हो जाओ, मैं तुम्हारे हृदय में झूठी आशाएँ पैदा करके तुम्हें धोखे में नहीं डालना चाहती। अभी मेरा और तुम्हारा परिचय केवल एक वर्ष का है। अब तक मैं तुम्हारे लिए केवल एक रहस्य हूँ। क्यों, हूँ या नहीं?
क्लार्क-हाँ सोफी! वास्तव में अभी मैं तुम्हें अच्छी तरह नहीं पहचान पाया हूँ।
सोफ़िया-फिर ऐसी दशा में तुम्हीं सोचो, हम दोनों का दाम्पत्य सूत्र में बँध जाना कितनी बड़ी नादानी है। मेरे दिल की जो पूछो, तो मुझे एक सहृदय, सज्जन विचारशील और सच्चरित्र पुरुष के साथ मित्र बनकर रहना, उसकी स्त्री बनकर रहने से कम आनंददायक नहीं मालूम होता। तुम्हारा क्या विचार है, यह मैं नहीं जानती, लेकिन मैं सहानुभूति और सहवास को वासनामय सम्बंध से कहीं महत्तवपूर्ण समझती हूँ।
क्लार्क-किंतु सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ ऐसे सम्बंधों को...
सोफ़िया-हाँ, ऐसे सम्बंध अस्वाभाविक होते हैं और साधारणत: उन पर आचरण नहीं किया जा सकता। मैं भी इसे सदैव के लिए जीवन का नियम बनाने को प्रस्तुत नहीं हूँ; लेकिन जब तक हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझ न लें, जब तक हमारे अंत:करण एक दूसरे के सामने आईने न बन जाएँ, उस समय तक मैं ऐसे ही सम्बंध को आवश्यक समझती हूँ।
क्लार्क-मैं तुम्हारी इच्छाओं का दास हूँ। केवल इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन वह घर है, जिसमें कोई रहनेवाला नहीं;वह दीपक है, जिसमें उजाला नहीं; वह कवित्ता है, जिसमें रस नहीं।
सोफ़िया-बस, बस। यह प्रेमियों की भाषा केवल प्रेम-कथाओं के ही लिए शोभा देती है। यह लो, पाँड़ेपुर आ गए। अंधोरा हो रहा है। सूरदास चला गया होगा। यह हाल सुनेगा, तो उस गरीब का दिल टूट जाएगा।
क्लार्क-उसके निर्वाह का कोई और प्रबंध कर दूँ?
सोफ़िया-इस भूमि से उसका निर्वाह नहीं होता था-केवल मुहल्ले के जानवर चरा करते थे। वह गरीब है, भिखारी है, पर लोभी नहीं। मुझे तो वह कोई साधु मालूम होता है।
क्लार्क-अंधो कुशाग्र बुध्दि और धार्मिक होते हैं।
सोफ़िया-मुझे तो उसके प्रति बड़ी श्रध्दा हो गई है। यह देखो, पापा ने काम शुरू कर दिया। अगर उन्होंने राजा की पीठ न ठोकी होती, तो उन्हें तुम्हारे सम्मुख आने का कदापि साहस न होता।
क्लार्क-तुम्हारे पापा बड़े चतुर आदमी हैं। ऐसे ही प्राणी संसार में सफल होते हैं। कम-से-कम मैं तो यह दोरुखी चाल न चल सकता।
सोफ़िया-देख लेना, दो-ही-चार वर्षों में मुहल्ले में कारखाने के मजदूरों के मकान होंगे, यहाँ का एक मनुष्य भी न रहने पाएगा।
क्लार्क-पहले तो अंधो ने बड़ा शोर-गुल मचाया था। देखें, अब क्या करता है?
सोफ़िया-मुझे तो विश्वास है कि वह चुप होकर कभी न बैठेगा, चाहे इस जमीन के पीछे जान ही क्यों न चली जाए।
क्लार्क-नहीं प्रिये, ऐसा कदापि न होने पाएगा। जिस दिन यह नौबत आएगी, सबसे पहले सूरदास के लिए मेरे कंठ से जय-धवनि निकलेगी, सबसे पहले मेरे हाथ उस पर फूलों की वर्षा करेंगे।
सोफ़िया ने क्लार्क को आज पहली बार सम्मानपूर्ण प्रेम की दृष्टि से देखा।