Karmbhoomi Munshi Premchand कर्मभूमि मुंशी प्रेमचंद

Hindi Kavita

कर्मभूमि अध्याय 3 (भाग 1)

Karmbhoomi -Munshi Premchand (Part1)

लाला समरकान्त की जिंदगी के सारे मंसूबे धूल में मिल गए। उन्होंने कल्पना की थी कि जीवन-संध्यि में अपना सर्वस्व बेटे को सौंपकर और बेटी का विवाह करके किसी एकांत में बैठकर भगवत्-भजन में विश्राम लेंगे, लेकिन मन की मन में ही रह गई। यह तो मानी हुई बात थी कि वह अंतिम सांस तक विश्राम लेने वाले प्राणी न थे। लड़के को बढ़ता देखकर उनका हौसला और बढ़ता, लेकिन कहने को हो गया। बीच में अमर कुछ ढर्रे पर आता हुआ जान पड़ता था लेकिन जब उसकी बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई, तो अब उससे में क्या आशा की जा सकती थी अमर में और चाहे जितनी बुराइयां हों, उसके चरित्र के विषय में कोई संदेह न था पर कुसंगति में पड़कर उसने धर्म भी खोया, चरित्र भी खोया और कुल-मर्यादा भी खोई।

लालाजी कुत्सित संबंध को बहुत बुरा न समझते थे। रईसों में यह प्रथा प्राचीनकाल से चली आती है। वह रईस ही क्या, जो इस तरह का खेल न खेले लेकिन धर्म को छोड़ने को तैयार हो जाना, खुले खजाने समाज की मर्यादाओं को तोड़ डालना, यह तो पागलपन है, बल्कि गधापन।
Karmbhoomi-Munshi-Premchand
समरकान्त का व्यावहारिक जीवन उनके धार्मिक जीवन से बिलकुल अलग था। व्यवहार और व्यापार में वह धोखा-धड़ी, छल-प्रपंच, सब कुछ क्षम्य समझते थे। व्यापार-नीति में सन या कपास में कचरा भर देना, घी में आलू या घुइयां मिला देना, औचित्य से बाहर न था पर बिना स्नान किए वह मुंह में पानी न डालते थे। चालीस वर्षों में ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो कि उन्होंने संध्यां समय की आरती न ली हो और तुलसी-दल माथे पर न चढ़ाया हो। एकादशी को बराबर निर्जल व्रत रखते थे। सारांश यह कि उनका धर्म आडंबर मात्र था जिसका उनके जीवन में कोई प्रयोजन न था।
सलीम के घर से लौटकर पहला काम जो लालाजी ने किया, वह सुखदा को फटकारना था। इसके बाद नैना की बारी आई। दोनों को रूलाकर वह अपने कमरे में गए और खुद रोने लगे।
रातों-रात यह खबर सारे शहर में फैल गई- तरह-तरह की मिस्कौट होने लगी। समरकान्त दिन-भर घर से नहीं निकले। यहां तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गए। कई असामी रुपये लेकर आए। मुनीम तिजोरी की कुंजी मांगने गए। लालाजी ने ऐसा डांटा कि वह चुपके से बाहर निकल गया। असामी रुपये लेकर लौट गए।
खिदमतगार ने चांदी का गड़गड़ा लाकर सामने रख दिया। तंबाकू जल गया। लालाजी ने निगाली भी मुंह में न ली।
दस बजे सुखदा ने आकर कहा-आप क्या भोजन कीजिएगा-
लालाजी ने उसे कठोर आंखों से देखकर कहा-मुझे भूख नहीं है।
सुखदा चली गई। दिन-भर किसी ने कुछ न खाया।
नौ बजे रात को नैना ने आकर कहा-दादा, आरती में न जाइएगा-
लालाजी चौंके-हां-हां, जाऊंगा क्यों नहीं- तुम लोगों ने कुछ खाया कि नहीं-
नैना बोली-किसी की इच्छा ही न थी। कौन खाता-
'तो क्या उसके पीछे सारा घर प्राण देगा?'
सुखदा इसी समय तैयार होकर आ गई। बोली-जब आप ही प्राण दे रहे हैं, तो दूसरों पर बिगड़ने का आपको क्या अधिकार है-
लालाजी चादर ओढ़कर जाते हुए बोले-मेरा क्या बिगड़ा है कि मैं प्राण दूं- यहां था, तो मुझे कौन-सा सुख देता था- मैंने तो बेटे का सुख ही नहीं जाना। तब भी जलाता था, अब भी जला रहा है। चलो, भोजन बनाओ, मैं आकर खाऊंगा। जो गया, उसे जाने दो। जो हैं उन्हीं को उस जाने वाले की कमी पूरी करनी है। मैं क्या प्राण देने लगा- मैंने पुत्र को जन्म दिया। उसका विवाह भी मैंने किया। सारी गृहस्थी मैंने बनाई। इसके चलाने का भार मुझ पर है। मुझे अब बहुत दिन जीना है। मगर मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि इस लौंडे को यह क्या सूझी- पठानिन की पोती अप्सरा नहीं हो सकती। फिर उसके पीछे यह क्यों इतना लट्टू हो गया- उसका तो ऐसा स्वभाव न था। इसी को भगवान् की लीला कहते हैं।
ठाकुरद्वारे में लोग जमा हो गए। लाला समरकान्त को देखते कई सज्जनों ने पूछा-अमर कहीं चले गए क्या सेठजी क्या बात हुई-
लालाजी ने जैसे इस वार को काटते हुए कहा-कुछ नहीं, उसकी बहुत दिनों से घूमने-घामने की इच्छा थी, पूर्वजन्म का तपस्वी है कोई, उसका बस चले, तो मेरी सारी गृहस्थी एक दिन में लुटा दे। मुझसे यह नहीं देखा जाता। बस, यही झगड़ा है। मैंने गरीबी का मजा भी चखा है अमीरी का मजा भी चखा है। उसने अभी गरीबी का मजा नहीं चखा। साल-छ: महीने उसका मजा चख लेगा, तो आंखें खुल जाएंगी। तब उसे मालूम होगा कि जनता की सेवा भी वही लोग कर सकते हैं, जिनके पास धन है। घर में भोजन का आधार न होता, तो मेंबरी भी न मिलती।
किसी को और कुछ पूछने का साहस न हुआ। मगर मूर्ख पूजारी पूछ ही बैठा-सुना, किसी जुलाहे की लड़की से फंस गए थे-
यह अक्खड़ प्रश्न सुनकर लोगों ने जीभ काटकर मुंह फेर लिए। लालाजी ने पुजारी को रक्त-भरी आंखों से देखा और ऊंचे स्वर में बोले-हां फंस गए थे, तो फिर- कृष्ण भगवान् ने एक हजार रानियों के साथ नहीं भोग किया था- राजा शान्तनु ने मछुए की कन्या से नहीं भोग किया था- कौन राजा है, जिसके महल में सौ दो-सौ रानियां न हों। अगर उसने किया तो कोई नई बात नहीं की। तुम जैसों के लिए यही जवाब है। समझदारों के लिए यह जवाब है कि जिसके घर में अप्सरा-सी स्त्री हो, वह क्यों जूठी पत्तल चाटने लगा- मोहन भोग खाने वाले आदमी चबैने पर नहीं गिरते।
यह कहते हुए लालाजी प्रतिमा के सम्मुख गए पर आज उनके मन में वह श्रध्दा न थी। दु:खी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से। दु:खी पर जितना ही अधिक दु:ख पड़े, उसकी भक्ति बढ़ती जाती है। सुखी पर दु:ख पड़ता है, तो वह विद्रोह करने लगता है। वह ईश्वर को भी अपने धन के आगे झुकाना चाहता है। लालाजी का व्यथित हृदय आज सोने और रेशम से जगमगती हुई प्रतिमा में धैर्य और संतोष का संदेश न पा सका। कल तक यही प्रतिमा उन्हें बल और उत्साह प्रदान करती थी। उसी प्रतिमा से आज उनका विपद्ग्रस्त मन विद्रोह कर रहा था। उनकी भक्ति का यही पुरस्कार है- उनके स्नान और व्रत और निष्ठा का यही फल है ।
वह चलने लगे तो ब्रह्मचारी बोले-लालाजी, अबकी यहां श्री वाल्मीकीय कथा का विचार है।
लालाजी ने पीछे फिरकर कहा-हां-हां, होने दो।
एक बाबू साहब ने कहा-यहां किसी में इतना सामर्थ्य नहीं है। आप ही हिम्मत करें, तो हो सकती है।
समरकान्त ने उत्साह से कहा-हां-हां, मैं उसका सारा भार लेने को तैयार हूं। भगवद् भजन से बढ़कर धन का सदुपयोग और क्या होगा-
उनका यह उत्साह देखकर लोग चकित हो गए। वह कृपण थे और किसी धर्मकार्य में अग्रसर न होते थे। लोगों ने समझा था, इससे दस-बीस रुपये ही मिल जायं, तो बहुत है। उन्हें यों बाजी मारते देखकर और लोग भी गरमाए। सेठ धनीराम ने कहा-आपसे सारा भार लेने को नहीं कहा जाता, लालाजी आप लक्ष्मी-पात्र हैं सही पर औरों को भी तो श्रध्दा है। चंदे से होने दीजिए।
समरकान्त बोले-तो और लोग आपस में चंदा कर लें। जितनी कमी रह जाएगी, वह मैं पूरी कर दूंगा।
धनीराम को भय हुआ, कहीं यह महाशय सस्ते न छूट जाएं। बोले-यह नहीं, आपको जितना लिखना हो लिख दें।
समरकान्त ने होड़ के भाव से कहा-पहले आप लिखिए।
कागज, कलम, दावात लाया गया, धनीराम ने लिखा एक सौ एक रुपये।
समरकान्त ने ब्रह्मचारीजी से पूछा-आपके अनुमान से कुल कितना खर्च होगा-
ब्रह्मचारीजी का तखमीना एक हजार का था।
समरकान्त ने आठ सौ निन्यानवे लिख दिए। और वहां से चल दिए। सच्ची श्रध्दा की कमी को वह धन से पूरा करना चाहते थे। धर्म की क्षति जिस अनुपात से होती है, उसी अनुपात से आडंबर की वृध्दि होती है।

भाग 2

अमरकान्त का पत्र लिए हुए नैना अंदर आई, तो सुखदा ने पूछा-किसका पत्र है-
नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली-भैया का।
सुखदा ने पूछा-अच्छा उनका खत है- कहां हैं-
'हरिद्वार के पास किसी गांव में हैं।'
आज पांच महीनों से दोनों में अमरकान्त की कभी चर्चा न हुई थी। मानो वह कोई घाव था, जिसको छूते दोनों ही के दिल कांपते थे। सुखदा ने फिर कुछ न पूछा। बच्चे के लिए प्राक सी रही थी। फिर सीने लगी।
नैना पत्र का जवाब लिखने लगी। इसी वक्त वह जवाब भेज देगी। आज पांच महीने में आपको मेरी सुधि आई है। जाने क्या-क्या लिखना चाहती थी- कई घंटों के बाद वह खत तैयार हुआ, जो हम पहले ही देख चुके हैं। खत लेकर वह भाभी को दिखाने गई। सुखदा ने देखने की जरूरत न समझी।
नैना ने हताश होकर पूछा-तुम्हारी तरफ से भी कुछ लिख दूं-
'नहीं, कुछ नहीं।'
'तुम्हीं अपने हाथ से लिख दो।'
'मुझे कुछ नहीं लिखना है।'
नैना रूआंसी होकर चली गई। खत डाक में भेज दिया गया।
सुखदा को अमर के नाम से भी चिढ़ है। उसके कमरे में अमर की तस्वीर थी, उसे उसने तोड़कर फेंक दिया था। अब उसके पास अमर की याद दिलाने वाली कोई चीज न थी। यहां तक की बालक से भी उसका जी हट गया था। वह अब अधिकतर नैना के पास रहता था। स्नेह के बदले वह उस पर दया करती थी पर इस पराजय ने उसे हताश नहीं किया उसका आत्माभिमान कई गुना बढ़ गया है। आत्मनिर्भर भी अब वह कहीं ज्यादा हो गई है। वह अब किसी की उपेक्षा नहीं करना चाहती। स्नेह के दबाव के सिवा और किसी दबाव से उसका मन विद्रोह करने लगता है। उसकी विलासिता मानो मान के वन में खो गई है ।
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सकीना से उसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। वह उसे भी अपनी ही तरह, बल्कि अपने से अधिक दु:खी समझती है। उसकी कितनी बदनामी हुई और अब बेचारी उस निर्दयी के नाम को रो रही है। वह सारा उन्माद जाता रहा। ऐसे छिछोरों का एतबार ही क्या- वहां कोई दूसरा शिकार फांस लिया होगा। उससे मिलने की उसे बड़ी इच्छा थी पर सोच-सोचकर रह जाती थी।
एक दिन पठानिन से मालूम हुआ कि सकीना बहुत बीमार है। उस दिन सुखदा ने उससे मिलने का निश्चय कर लिया। नैना को भी साथ ले लिया। पठानिन ने रास्ते में कहा-मेरे सामने तो उसका मुंह ही बंद हो जाएगा। मुझसे तो तभी से बोल-चाल नहीं है। मैं तुम्हें घर दिखाकर कहीं चली जाऊंगी। ऐसी अच्छी शादी हो रही थी उसने मंजूर ही न किया। मैं भी चुप हूं, देखूं कब तक उसके नाम को बैठी रहती है। मेरे जीतेजी तो लाला घर में कदम रखने न पाएंगे। हां, पीछे को नहीं कह सकती।
सुखदा ने छेड़ा-किसी दिन उनका खत आ जाय और सकीना चली जाय तो क्या करोगी-
बुढ़िया आंखें निकालकर बोली-मजाल है कि इस तरह चली जाय खून पी जाऊं।
सुखदा ने फिर छेड़ा-जब वह मुसलमान होने को कहते हैं, तब तुम्हें क्या इंकार है-
पठानिन ने कानों पर हाथ रखकर कहा-अरे बेटा जिसका जिंदगी भर नमक खाया उसका घर उजाड़कर अपना घर बनाऊं- यह शरीफों का काम नहीं है। मेरी तो समझ ही में नहीं आता, छोकरी में क्या देखकर भैया रीझ पड़े।
अपना घर दिखाकर पठानिन तो पड़ोस के घर में चली गई, दोनों युवतियों ने सकीना के द्वार की कुंडी खटखटाई। सकीना ने उठकर द्वार खोल दिया। दोनों को देखकर वह घबरा- सी गई। जैसे कहीं भागना चाहती है। कहां बैठाए, क्या सत्कार करे ।
सुखदा ने कहा-तुम परेशान न हो बहन, हम इस खाट पर बैठ जाते हैं। तुम तो जैसे घुलती जाती हो। एक बेवफा मरद के चकमे में पड़कर क्या जान दे दोगी-
सकीना का पीला चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा कि सुखदा मुझसे जवाब तलब कर रही है-तुमने मेरा बना-बनाया घर क्यों उजाड़ दिया- इसका सकीना के पास कोई जवाब न था। वह कांड कुछ इस आकस्मिक रूप से हुआ कि वह स्वयं कुछ न समझ सकी। पहले बादल का एक टुकड़ा आकाश के एक कोने में दिखाई दिया। देखते-देखते सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और ऐसे जोर की आंधी चली कि वह खुद उसमें उड़ गई। वह क्या बताए कैसे क्या हुआ- बादल के उस टुकड़े को देखकर कौन कह सकता था, आंधी आ रही है-
उसने सिर झुकाकर कहा-औरत की जिंदगी और है ही किसलिए बहनजी वह अपने दिल से लाचार है, जिससे वफा की उम्मीद करती है, वही दगा करता है। उसका क्या अख्तियार- लेकिन बेवफाओं से मुहब्बत न हो, तो मुहब्बत में मजा ही क्या रहे- शिकवा-शिकायत, रोना-धोना, बेताबी और बेकरारी यही तो मुहब्बत के मजे हैं, फिर मैं तो वफा की उम्मीद भी नहीं करती थी। मैं उस वक्त भी इतना जानती थी कि यह आंधी दो-चार घड़ी की मेहमान है लेकिन तस्कीन के लिए तो इतना ही काफी था कि जिस आदमी की मैं दिल में सबसे ज्यादा इज्जत करने लगी थी, उसने मुझे इस लायक तो समझा। मैं इस कागज की नाव पर बैठकर भी सफर को पार कर दूंगी।
सुखदा ने देखा, इस युवती का हृदय कितना निष्कपट है कुछ निराश होकर बोली- यही तो मरदों के हथकंडे हैं। पहले तो देवता बन जाएंगे, जैसे सारी शराफत इन्हीं पर खतम है, फिर तोतों की तरह आंखें फेर लेंगे।

सकीना ने ढिठाई के साथ कहा-बहन, बनने से कोई देवता नहीं हो जाता। आपकी उम्र चाहे साल-दो साल मुझसे ज्यादा हो लेकिन मैं इस मुआमले में आपसे ज्यादा तजुर्बा रखती हूं। यह घमंड से नहीं कहती, शर्म से कहती हूं। खुदा न करे, गरीब की लड़की हसीन हो। गरीबी में हुस्न बला है। वहां बड़ों का तो कहना ही क्या, छोटों की रसाई भी आसानी से हो जाती है। अम्मां बड़ी पारसा हैं, मुझे देवी समझती होंगी, किसी जवान को दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देतीं लेकिन इस वक्त बात आ पड़ी है, तो कहना पड़ता है कि मुझे मरदों को देखने और परखने के काफी मौके मिले हैं। सभी ने मुझे दिल-बहलाव की चीज समझा, और मेरी गरीबी से अपना मतलब निकालना चाहा। अगर किसी ने मुझे इज्जत की निगाह से देखा, तो वह बाबूजी थे। मैं खुदा को गवाह करके कहती हूं कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से नहीं देखा और न एक कलाम भी ऐसा मुंह से निकाला, जिससे छिछोरेपन की बू आई हो। उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी। मैंने मंजूर कर लिया। जब तक वह खुद उस दावत को रप्र न कर दें, मैं उसकी पाबंद हूं, चाहे मुझे उम्र भर यों ही क्यों न रहना पड़े। चार-पांच बार की मुख्तसर मुलाकातों से मुझे उन पर इतना एतबार हो गया है कि मैं उम्र भर उनके नाम पर बैठी रह सकती हूं। मैं अब पछताती हूं कि क्यों न उनके साथ चली गई। मेरे रहने से उन्हें कुछ तो आराम होता। कुछ तो उनकी खिदमत कर सकती। इसका तो मुझे यकीन है कि उन पर रंग-रूप का जादू नहीं चल सकता। हूर भी आ जाय, तो उसकी तरफ आंखें उठाकर न देखेंगे, लेकिन खिदमत और मोहब्बत का जादू उन पर बड़ी आसानी से चल सकता है। यही खौफ है। मैं आपसे सच्चे दिल से कहती हूं बहन, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात नहीं हो सकती कि आप और वह फिर मिल जायं, आपस का मनमुटाव दूर हो जाय। मैं उस हालत में और भी खुश रहूंगी। मैं उनके साथ न गई, इसका यही सबब था लेकिन बुरा न मानो तो एक बात कहूं-

वह चुप होकर सुखदा के उत्तर का इंतजार करने लगी। सुखदा ने आश्वासन दिया-तुम जितनी साफ दिली से बातें कर रही हो, उससे अब मुझे तुम्हारी कोई बात भी बुरी न मालूम होगी। शौक से कहो।
सकीना ने धन्यवाद देते हुए कहा-अब तो उनका पता मालूम हो गया है, आप एक बार उनके पास चली जायं। वह खिदमत के गुलाम हैं और खिदमत से ही आप उन्हें अपना सकती हैं।
सुखदा ने पूछा-बस, या और कुछ-
'बस, और मैं आपको क्या समझाऊंगी, आप मुझसे कहीं ज्यादा समझदार हैं।'
'उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं ऐसे कमीने आदमी की खुशामद नहीं कर सकती। अगर आज मैं किसी मरद के साथ चली जाऊं, तो तुम समझती हो, वह मुझे मनाने जाएंगे- वह शायद मेरी गर्दन काटने जायं। मैं औरत हूं, और औरत का दिल इतना कड़ा नहीं होता लेकिन उनकी खुशामद तो मैं मरते दम तक नहीं कर सकती।'
यह कहती हुई सुखदा उठ खड़ी हुई। सकीना दिल में पछताई कि क्यों जरूरत से ज्यादा बहनापा जताकर उसने सुखदा को नाराज कर दिया। द्वार तक माफी मांगती हुई आई।
दोनों तांगे पर बैठीं, तो नैना ने कहा-तुम्हें क्रोध बहुत जल्द आ जाता है, भाभी
सुखदा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा-तुम तो ऐसा कहोगी ही, अपने भाई की बहन हो न संसार में ऐसी कौन औरत है, जो ऐसे पति को मनाने जाएगी- हां, शायद सकीना चली जाती इसलिए कि उसे आशातीत वस्तु मिल गई है।
एक क्षण के बाद फिर बोली-मैं इससे सहानुभूति करने आई थी पर यहां से परास्त होकर जा रही हूं। इसके विश्वास ने मुझे परास्त कर दिया। इस छोकरी में वह सभी गुण हैं, जो पुरुषों को आकृष्ट करते हैं। ऐसी ही स्त्रियां पुरुषों के हृदय पर राज करती हैं। मेरे हृदय में कभी इतनी श्रध्दा न हुई। मैंने उनसे हंसकर बोलने, हास-परिहास करने और अपने रूप और यौवन के प्रदर्शन में ही अपने कर्तव्यल का अंत समझ लिया। न कभी प्रेम किया, न प्रेम पाया। मैंने बरसों में जो कुछ न पाया, वह इसने घंटों में पा लिया। आज मुझे कुछ-कुछ ज्ञात हुआ कि मुझमें क्या त्रुटियां हैं- इस छोकरी ने मेरी आंखें खोल दीं।

भाग 3

एक महीने से ठाकुरद्वारे में कथा हो रही है। पृं मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं। उनकी कथा में श्रव्य और दृश्य, दोनों ही काव्यों का आनंद आता है। जितनी आसानी से वह जनता को हंसा सकते हैं, उतनी ही आसानी से रूला भी सकते हैं। दृष्टांतों के तो मानो वह सफर हैं, और नाटय में इतने कुशल हैं कि जो चरित्र दर्शाते हैं, उनकी तस्वीरें खींच देते हैं। सारा शहर उमड़ पड़ता है। रेणुकादेवी तो सांझ ही से ठाकुरद्वारे में पहुंच जाती हैं। व्यासजी और उनके भजनीक सब उन्हीं के मेहमान हैं। नैना भी मुन्ने को गोद में लेकर पहुंच जाती है। केवल सुखदा को कथा में रुचि नहीं है। वह नैना के बार-बार आग्रह करने पर भी नहीं जाती। उसका विद्रोही मन सारे संसार से प्रतिकार करने के लिए जैसे नंगी तलवार लिए खड़ा रहता है। कभी-कभी उसका मन इतना उद्विग्न हो जाता है कि समाज और धर्म के सारे बंधनो को तोड़कर फेंक दे। ऐसे आदमियों की सजा यही है कि उनकी स्त्रियां भी उन्हीं के मार्ग पर चलें। तब उनकी आंखें खुलेंगी और उन्हें ज्ञात होगा कि जलना किसे कहते हैं। एक मैं कुल-मर्यादा के नाम को रोया करूं लेकिन यह अत्याचार बहुत दिनों न चलेगा। अब कोई इस भ्रम में न रहे कि पति जो करे, उसकी स्त्री उसके पांव धोधोकर पिएगी, उसे अपना देवता समझेगी, उसके पांव दबाएगी और वह उससे हंसकर बोलेगा, तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी। वह दिन लद गए। इस विषय पर उसने पत्रों में कई लेख भी लिखे हैं।

आज नैना बहस कर बैठी-तुम कहती हो, पुरुष के आचार-विचार की परीक्षा कर लेनी चाहिए। क्या परीक्षा कर लेने पर धोखा नहीं होता- आए दिन तलाक क्यों होते रहते हैं-
सुखदा बोली-तो इसमें क्या बुराई है- यह तो नहीं होता कि पुरुष तो गुलछर्रे उड़ावे और स्त्री उसके नाम को रोती रहे-
नैना ने जैसे रटे हुए वाक्य को दुहराया-प्रेम के अभाव में सुख कभी नहीं मिल सकता। बाहरी रोकथाम से कुछ न होगा।
सुखदा ने छेड़ा-मालूम होता है, आजकल यह विद्या सीख रही हो। अगर देख-भालकर विवाह करने में कभी-कभी धोखा हो सकता है, तो बिना देखे-भाले करने में बराबर धोखा होता है। तलाक की प्रथा यहां हो जाने दो, फिर मालूम होगा कि हमारा जीवन कितना सुखी है।
नैना इसका कोई जवाब न दे सकी। कल व्यासजी ने पश्चिमी विवाह-प्रथा की तुलना भारतीय पति से की। वही बातें कुछ उखड़ी-सी उसे याद थीं।
बोली-तुम्हें कथा में चलना है कि नहीं, यह बताओ।
'तुम जाओ, मैं नहीं जाती।'
नैना ठाकुरद्वारे में पहुंची तो कथा आरंभ हो गई थी। आज और दिनों से ज्यादा हुजूम था। नौजवान-सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्या्पक भी आए हुए थे। मधुसूदनजी कह रहे थे-राम-रावण की कथा तो इस जीवन की, इस संसार की कथा है इसको चाहो तो सुनना पड़ेगा, न चाहो तो सुनना पड़ेगा। इससे हम-तुम बच नहीं सकते। हमारे ही अंदर राम भी हैं, रावण भी हैं, सीता भी हैं, आदि...।।
सहसा पिछली सगों में कुछ हलचल मची। ब्रह्मचारीजी कई आदमियों को हाथ पकड़-पकड़कर उठा रहे थे और जोर-जोर से गालियां दे रहे थे। हंगामा हो गया। लोग इधर-उधर से उठकर वहां जमा हो गए। कथा बंद हो गई-
समरकान्त ने पूछा-क्या बात है ब्रह्मचारीजी-
ब्रह्मचारीजी ने ब्रह्यतेज से लाल-लाल आंखें निकालकर कहा-बात क्या है, यहां लोग भगवान् की कथा सुनने आते हैं कि अपना धर्म भ्रष्ट करने आते हैं भंगी, चमार जिसे देखो घुसा चला आता है-ठाकुरजी का मंदिर न हुआ सराय हुई ।
समरकान्त ने कड़ककर कहा-निकाल दो सभी को मारकर ।
एक बूढ़े ने हाथ जोड़कर कहा-हम तो यहां दरवाजे पर बैठे थे सेठजी, जहां जूते रखे हैं। हम क्या ऐसे नादान हैं कि आप लोगों के बीच में जाकर बैठ जाते-
ब्रह्मचारी ने उसे एक जूता जमाते हुए कहा-तू यहां आया क्यों- यहां से वहां तक एक दरी बिछी हुई है। सब-का-सब भरभंड हुआ कि नहीं- प्रसाद है, चरणामृत है, गंगाजल है। सब मिट्टी हुआ कि नहीं- अब जाड़े-पाले में लोगों को नहाना-धोना पड़ेगा कि नहीं- हम कहते हैं तू बूढ़ा हो गया मिठुआ, मरने के दिन आ गए, पर तुझे अकल भी नहीं आई। चला है वहां से बड़ा भगत की पूंछ बनकर ।
समरकान्त ने बिगड़कर कहा-और भी कभी आया था कि आज ही आया है-
मिठुआ बोला-रोज आते हैं महाराज, यहीं दरवाजे पर बैठकर भगवान् की कथा सुनते हैं।
ब्रह्मचारीजी ने माथा पीट लिया। ये दुष्ट रोज यहां आते थे रोज सबको छूते थे। इनका छुआ हुआ प्रसाद लोग रोज खाते थे इससे बढ़कर अनर्थ क्या हो सकता है- धर्म पर इससे बड़ा आघात और क्या हो सकता है- धर्मात्माओं के क्रोध का पारावार न रहा। कई आदमी जूते ले-लेकर उन गरीबों पर पिल पड़े। भगवान् के मंदिर में, भगवान् के भक्तों के हाथों, भगवान् के भक्तों पर पादुका-प्रहार होने लगा।
डॉक्टर शान्तिकुमार और उनके अध्या-पक खड़े जरा देर तक यह तमाशा देखते रहे। जब जूते चलने लगे तो स्वामी आत्मानन्द अपना मोटा सोंटा लेकर ब्रह्मचारी की तरफ लपके।
डॉक्टर साहब ने देखा, घोर अनर्थ हुआ चाहता है। झपटकर आत्मानन्द के हाथों से सोटा छीन लिया।
आत्मानन्द ने खून-भरी आंखों से देखकर कहा-आप यह दृश्य देख सकते हैं, मैं नहीं देख सकता।
शान्तिकुमार ने उन्हें शांत किया और ऊंची आवाज से बोले-वाह रे ईश्वर-भक्तो वाह क्या कहना है तुम्हारी भक्ति का जो जितने जूते मारेगा, भगवान् उस पर उतने प्रसन्न होंगे। उसे चारों पदार्थ मिल जाएंगे। सीधो स्वर्ग से विमान आ जाएगा। मगर अब चाहे जितना मारो, धर्म तो नष्ट हो गया।
ब्रह्मचारी, लाला समरकान्त, सेठ धनीराम और अन्य धर्म के ठेकेदारों ने चकित होकर शान्तिकुमार की ओर देखा। जूते चलने बंद हो गए।
शान्तिकुमार इस समय कुर्ता और धोती पहने, माथे पर चंदन लगाए, गले में चादर डाले व्यास के छोटे भाई से लग रहे थे। यहां उनका वह व्य सन न था, जिस पर विधर्मी होने का आक्षेप किया जा सकता था।
डॉक्टर साहब ने फिर ललकार कहा-आप लोगों ने हाथ क्यों बंद कर लिए- लगाइए कस-कसकर और जूतों से क्या होता है- बंदूकें मंगाइए और धर्म-द्रोहियों का अंत कर डालिए। सरकार कुछ नहीं कर सकती। और तुम धर्म-द्रोहियो तुम सब-के-सब बैठ जाओ और जितने जूते खा सको, खाओ। तुम्हें इतनी खबर नहीं कि यहां सेठ महाजनों के भगवान् रहते हैं तुम्हारी इतनी मजाल कि इनके भगवान् के मंदिर में कदम रखो तुम्हारे भगवान् किसी झोंपड़े में या पेड़ तले होंगे। यह भगवान् रत्नों के आभूषण पहनते हैं। मोहनभोग-मलाई खाते हैं। चीथड़े पहनने वालों और चबैना खाने वालों की सूरत वह नहीं देखना चाहते।
ब्रह्मचारीजी परशुराम की भांति विकराल रूप दिखाकर बोले-तुम तो बाबूजी, अंधेर करते हो। सासतर में कहां लिखा है कि अंत्यजों को मंदिर में आने दिया जाए-
शान्तिकुमार ने आवेश से कहा-कहीं नहीं। शास्त्र में यह लिखा है कि घी में चर्बी मिलाकर बेचो, टेनी मारो, रिश्वतें खाओ। आंखों में धूल झोंको और जो तुमसे बलवान् हैं उनके चरण धोधोकर पीयो, चाहे वह शास्त्र को पैरों से ठुकराते हों। तुम्हारे शास्त्र में यह लिखा है, तो यह करो। हमारे शास्त्र में तो यह लिखा है कि भगवान् की दृष्टि में न कोई छोटा है न बड़ा, न कोई शुद्ध और न कोई अशुद्ध। उसकी गोद सबके लिए खुली हुई है।
समरकान्त ने कई आदमियों को अंत्यजों का पक्ष लेने के लिए तैयार देखकर उन्हें शांत करने की चेष्टा करते हुए कहा-डॉक्टर साहब, तुम व्यर्थ इतना क्रोध कर रहे हो। शास्त्र में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है, यह तो पंडित ही जानते हैं। हम तो जैसी प्रथा देखते हैं, वह करते हैं। इन पाजियों को सोचना चाहिए था या नहीं- इन्हें तो यहां का हाल मालूम है, कहीं बाहर से तो नहीं आए हैं-
शान्तिकुमार का खून खौल रहा था-आप लोगों ने जूते क्यों मारे-
ब्रह्मचारी ने उजड्डपन से कहा-और क्या पान-फूल लेकर पूजते-
शान्तिकुमार उत्तोजित होकर बोले-अंधे भक्तों की आंखों में धूल झोंककर यह हलवे बहुत दिन खाने को न मिलेंगे महाराज, समझ गए- अब वह समय आ रहा है, जब भगवान् भी पानी से स्नान करेंगे, दूध से नहीं।
सब लोग हां-हां करते ही रहे पर शान्ति कुमार, आत्मानन्द और सेवा-पाठशाला के छात्र उठकर चल दिए। भजन-मंडली का मुखिया सेवाश्रम का ब्रजनाथ था। वह भी उनके साथ ही चला गया।

भाग 4

उस दिन फिर कथा न हुई। कुछ लोगों ने ब्रह्मचारी ही पर आक्षेप करना शुरू किया। बैठे तो थे बेचारे एक कोने में, उन्हें उठाने की जरूरत ही क्या थी- और उठाया भी, तो नम्रता से उठाते। मार-पीट से क्या फायदा-
दूसरे दिन नियत समय पर कथा शुरू हुई पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम हो गई थी। मधुसूदनजी ने बहुत चाहा कि रंग जमा दें पर लोग जम्हाइयां ले रहे थे और पिछली सगों में तो लोग धड़ल्ले से सो रहे थे। मालूम होता था, मंदिर का आंगन कुछ छोटा हो गया है, दरवाजे कुछ नीचे हो गए हैं, भजन-मंडली के न होने से और भी सन्नाटा है। उधर नौजवान सभा के सामने खुले मैदान में शान्तिकुमार की कथा हो रही थी। ब्रजनाथ, सलीम, आत्मानन्द आदि आने वालों का स्वागत करते थे। थोड़ी देर में दरियां छोटी पड़ गईं और थोड़ी देर और गुजरने पर मैदान भी छोटा पड़ गया। अधिकांश लोग नंगे बदन थे, कुछ लोग चीथड़े पहने हुए। उनकी देह से तंबाकू और मैलेपन की दुर्गंध आ रही थी। स्त्रियां आभूषणहीन, मैली-कुचैली धोतियां या लहंगे पहने हुए थीं। रेशम और सुगंध और चमकीले आभूषणों का कहीं नाम न था, पर हृदयों में दया थी, धर्म था, सेवा-भाव था, त्याग था। नए आने वालों को देखते ही लोग जगह घेरने को पांव न फैला लेते थे, यों न ताकते थे, जैसे कोई शत्रु आ गया हो बल्कि और सिमट जाते थे और खुशी से जगह दे देते थे।
नौ बजे कथा आरंभ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी। ब्रर्ह्यंषियों के तप और तेज का वृत्तांत न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहां मन और कर्म की शुद्वता ही धर्म का मूल तत्वय है। वही ऊंचा है, जिसका मन शुद्ध है वही नीच है, जिसका मन अशुद्ध है-जिसने वर्ण का स्वांग रचकर समाज के एक अंग को मदांध और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया किसी के लिए उन्नति या उधार का द्वार नहीं बंद किया-एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोन्नति का एक सजीव संदेश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनकी आत्मा के बंधन खुल गए हैं संसार पवित्र और सुंदर हो गया है।
नैना को भी धर्म के पाखंड से चिढ़ थी। अमरकान्त उससे इस विषय पर अक्सर बातें किया करता था। अछूतों पर यह अत्याचार देखकर उसका खून भी खौल उठा था। समरकान्त का भय न होता, तो उसने ब्रह्मचारीजी को फटकार बताई होती इसीलिए जब शान्तिकुमार ने तिलकधारियों को आड़े हाथ लिया, तो उसकी आत्मा जैसे मुग्ध होकर उनके चरणों पर लोटने लगी। अमरकान्त से उनका बखान कितनी ही बार सुन चुकी थी। इस समय उनके प्रति उसके मन में ऐसी श्रध्दा उठी कि जाकर उनसे कहे-तुम धर्म के सच्चे देवता हो, तुम्हें नमस्कार करती हूं। अपने आसपास के आदमियों को क्रोधित देख-देखकर उसे भय हो रहा था कि कहीं यह लोग उन पर टूट न पड़ें। उसके जी में आता था, जाकर डॉक्टर के पास खड़ी हो जाए और उनकी रक्षा करे। जब वह बहुत-से आदमियों के साथ चले गए, तो उसका चित्त शांत हो गया। वह भी सुखदा के साथ घर चली आई।
सुखदा ने रास्ते में कहा-ये दुष्ट न जाने कहां से फट पड़े- उस पर डॉक्टर साहब उल्टे उन्हीं का पक्ष लेकर लड़ने को तैयार हो गए।
नैना ने कहा-भगवान् ने तो किसी को ऊंचा और किसी को नीचा नहीं बनाया-
'भगवान् ने नहीं बनाया, तो किसने बनाया?'
'अन्याय ने।'
'छोटे-बड़े संसार में सदा रहे हैं और रहेंगे।'
नैना ने वाद-विवाद करना उचित न समझा।
दूसरे दिन संध्या- समय उसे खबर मिली कि आज नौजवान-सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहां जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मंदिर में सुखदा के साथ तो गई पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियां लेने लगी-आज यह कृत्य शीघ्र ही होने लगा-तो वह चुपके से बाहर आई और एक तांगे पर बैठकर नौजवान-सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की खबर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। जरा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर लहरियां कानों में आईं। तांगा उस स्थान पर पहुंचा, तो शान्तिकुमार मंच पर आ गए थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डॉक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भांति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो तांगे पर मंत्र-मुग्ध-सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली कतार में सबके पीछे खड़ी हो गई।
एक बुढ़िया बोली-कब तक खड़ी रहोगी बिटिया, भीतर जाकर बैठ जाओ।
नैना ने कहा-बड़े आराम से हूं। सुनाई दे रहा है।
बुढ़िया आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आई। नैना ने अब शान्तिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में है। मानो वहां की वायु सुधामयी हो गई है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानो वे किसी नवीन संपत्ति के स्वामी हो गए हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शान्तिकुमार कह रहे थे-क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आए हो- तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मंदिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहां हो सकती है- क्या तुम सदैव इसी भांति पतित और दलित बने रहना चाहते हो-
एक आवाज आई-हमारा क्या बस है-
शान्तिकुमार ने उत्तेहजना-पूर्ण स्वर में कहा-तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है जब तक समझते हो तुम्हारा बस नहीं है। मंदिर किसी एक आदमी या समुर्दाय की चीज नहीं। वह हिन्दू-मात्र की चीज है। यदि तुम्हें कोई रोकता है, तो यह उसकी जबर्दस्ती है। मत टलो उस मंदिर के द्वार से, चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा ही क्यों न हो तुम जरा-जरा-सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गंवा देते हो, जान दे देते हो, यह तो धर्म की बात है, और धर्म हमें जान से भी प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी।
कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तोजित कर दिया था। दिन-भर उसी विषय की चर्चा होती रही। बाईद तैयार होती रही। उसमें चिंगारी की कसर थी। ये शब्द चिंगारी का काम कर गए। संघ-शक्ति ने हिम्मत भी बढ़ा दी। लोगों ने पगड़ियां संभालीं, आसन बदले और एक-दूसरे की ओर देखा, मानो पूछ रहे हों- चलते हो, या अभी कुछ सोचना बाकी है- और फिर शांत हो गए। साहस ने चूहे की भांति बिल से सिर निकालकर फिर अंदर खींच लिया।
नैना के पास वाली बुढ़िया ने कहा-अपना मंदिर लिए रहें, हमें क्या करना है-
नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को संभाला-मंदिर किसी एक आदमी का नहीं है।
शान्तिकुमार ने गूंजती हुई आवाज में कहा-कौन चलता है मेरे साथ अपने ठाकुरजी के दर्शन करने-
बुढ़िया ने सशंक होकर कहा-क्या अंदर कोई जाने देगा-
शान्तिकुमार ने मुट्ठी बंधकर कहा-मैं देखूंगा कौन नहीं जाने देता- हमारा ईश्वर किसी की संपत्ति नहीं है, जो संदूक में बंद करके रखा जाय। आज इस मुआमले को तय करना है, सदा के लिए।
कई सौ स्त्री-पुरुष शान्ति कुमार के साथ मंदिर की ओर चले। नैना का हृदय धड़कने लगा पर उसने अपने मन को धिक्कारा और जत्थे के पीछे-पीछे चली। वह यह सोच-सोचकर पुलकित हो रही थी कि भैया इस समय यहां होते तो कितने प्रसन्न होते। इसके साथ भांति-भांति की शंकाएं भी बुलबुलों की तरह उठ रही थीं।
ज्यों-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था और लोग आ-आकर मिलते जाते थे पर ज्यों-ज्यों मंदिर समीप आता था, लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी। जिस अधिकार से ये सदैव वंचित रहे, उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी। केवल दु:ख था मार का। वह विश्वास, जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है, वहां न था। फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी। प्राण देने वाले तो बिरले ही थे। समूह की धौंस जमाकर विजय पाने की आशा ही उन्हें बढ़ा रही थी।
जत्था मंदिर के सामने पहुंचा तो दस बज गए थे। ब्रह्मचारीजी कई पुजारियों और पंडों के साथ लाठियां लिए द्वार पर खड़े थे। लाला समरकान्त भी पैंतरे बदल रहे थे।
नैना को ब्रह्मचारी पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि जाकर फटकारे, तुम बड़े धर्मात्मा बने हो आधी रात तक इसी मंदिर में जुआ खेलते हो, पैसे-पैसे पर ईमान बेचते हो, झूठी गवाहियां देते हो, द्वार-द्वार भीख मांगते हो। फिर भी तुम धर्म के ठेकेदार हो। तुम्हारे तो स्पर्श से ही देवताओं को कलंक लगता है।
वह मन के इस आग्रह को रोक न सकी। पीछे से भीड़ को चीरती हुई मंदिर के द्वार को चली आ रही थी कि शान्तिकुमार की निगाह उस पर पड़ गई। चौंककर बोले-तुम यहां कहां नैना- मैंने तो समझा था, तुम अंदर कथा सुन रही होगी।
नैना ने बनावटी रोष से कहा-आपने तो रास्ता रोक रखा है। कैसे जाऊं-
शान्ति कुमार ने भीड़ को सामने से हटाते हुए कहा-मुझे मालूम न था कि तुम रूकी खड़ी हो।
नैना ने जरा ठिठककर कहा-आप हमारे ठाकुरजी को भ्रष्ट करना चाहते हैं-
शान्तिकुमार उसका विनोद न समझ सके। उदास होकर बोले-क्या तुम्हारा भी यही विचार है, नैना-
नैना ने और रप्रा जमाया-आप अछूतों को मंदिर में भर देंगे, तो देवता भ्रष्ट न होंगे-
शान्तिकुमार ने गंभीर भाव से कहा-मैंने तो समझा था, देवता भ्रष्टों को पवित्र करते हैं, खुद भ्रष्ट नहीं होते।
सहसा ब्रह्मचारी ने गरजकर कहा-तुम लोग क्या यहां बलवा करने आए हो ठाकुरजी के मंदिर के द्वार पर-
एक आदमी ने आगे बढ़कर कहा-हम फौजदारी करने नहीं आए हैं। ठाकुरजी के दर्शन करने आए हैं।
समरकान्त ने उस आदमी को धक्का देकर कहा-तुम्हारे बाप-दादा भी कभी दर्शन करने आए थे कि तुम्हीं सबसे वीर हो ।
शान्तिकुमार ने उस आदमी को संभालकर कहा-बाप-दादों ने जो काम नहीं किया, क्या पोतों-परपोतों के लिए भी वर्जित है, लालाजी- बाप-दादे तो बिजली और तार का नाम तक नहीं जानते थे, फिर आज इन चीजों का क्यों व्यवहार होता है- विचारों में विकास होता ही रहता है, उसे आप नहीं रोक सकते।
समरकान्त ने व्यंग्य से कहा-इसीलिए तुम्हारे विचार में यह विकास हुआ है कि ठाकुरजी की भक्ति छोड़कर उनके द्रोही बन बैठे-
शान्तिकुमार ने प्रतिवाद किया-ठाकुरजी का द्रोही मैं नहीं हूं, द्रोही वह हैं जो उनके भक्तों को उनकी पूजा नहीं करने देते। क्या यह लोग हिन्दू-संस्कारों को नहीं मानते- फिर आपने मंदिर का द्वार क्यों बंद कर रखा है-
ब्रह्मचारी ने आंखें निकालकर कहा-जो लोग मांस-मदिरा तो खाते हैं, निखिद कर्म करते हैं, उन्हें मंदिर में नहीं आने दिया जा सकता।
शान्तिकुमार ने शांतभाव से जवाब दिया-मांस-मदिरा तो बहुत-से ब्राह्यण, क्षत्री, वैश्य भी खाते हैं। आप उन्हें क्यों नहीं रोकते- भंग तो प्राय: सभी पीते हैं। फिर वे क्यों यहां आचार्य और पुजारी बने हुए हैं-
समरकान्त ने डंडा संभालकर कहा-यह सब यों न मानेंगे। इन्हें डंडों से भगाना पड़ेगा। जरा जाकर थाने में इत्तिला कर दो कि यह लोग फौजदारी करने आए हैं।
इस वक्त तक बहुत-से पंडे-पुजारी जमा हो गए थे। सब-के-सब लाठियों के कुंदों से भीड़ को हटाने लगे। लोगों में भगदड़ मच गई। कोई पूरब भागा, कोई पश्चिम। शान्तिकुमार के सिर पर भी एक डंडा पड़ा पर खड़े आदमियों को समझाते रहे-भागो मत, भागो मत, सब-के-सब वहीं बैठ जाओ, ठाकुर के नाम पर अपने को बलिदान कर दो, धर्म के लिए...।
पर दूसरी लाठी सिर पर इतने जोर से पड़ी कि पूरी बात भी मुंह से न निकलने पाई और वह गिर पड़े। संभलकर फिर उठना चाहते थे कि ताबड़-तोड़ कई लाठियां पड़ गईं। यहां तक कि वह बेहोश हो गए।

भाग 5

नैना बार-बार द्वार पर आती है और समरकान्त को बैठे देखकर लौट जाती है। आठ बज गए और लालाजी अभी तक गंगा-स्नान करने नहीं गए। नैना रात-भर करवटें बदलती रही। उस भीषण घटना के बाद क्या वह सो सकती थी- उसने शातिंकुमारको चोट खाकर गिरते देखा, पर निर्जीव-सी खड़ी रही थी। अमर ने उसे प्रारंभिक चिकित्सा की मोटी-मोटी बातें सिखा दी थीं पर वह उस अवसर पर कुछ भी तो न कर सकी। वह देख रही थी कि आदमियों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया है। फिर उसने देखा कि डॉक्टर आया और शान्तिकुमार को एक डोली पर लेटाकर ले गया पर वह अपनी जगह से नहीं हिली। उसका मन किसी बंधुए पशु की भांति बार-बार भागना चाहता था पर वह रस्सी को दोनों हाथ से पकड़े हुए पूरे बल के साथ उसे रोक रही थी। कारण क्या था- संकोच आखिर उसने कलेजा मजबूत किया और द्वार से निकलकर बरामदे में आ गई। समरकान्त ने पूछा-कहां जाती है-
'जरा मंदिर तक जाती हूं।'
'वहां का रास्ता ही बंद है। जाने कहां के चमार-सियार आकर द्वार पर बैठे हैं। किसी को जाने ही नहीं देते। पुलिस खड़ी उन्हें हटाने का यत्न कर रही है पर अभागे कुछ सुनते ही नहीं। यह सब उसी शान्तिकुमार का पाजीपन है। आज वही इन लोगों का नेता बना हुआ है। विलायत जाकर धर्म तो खो ही आया था, अब यहां हिन्दू-धर्म की जड़ खोद रहा है। न कोई आचार न विचार, उसी शोहदे सलीम के साथ खाता-पीता है। ऐसे धर्मद्रोहियों को और क्या सूझेगी- इन्हीं सभी की सोहब्बत ने अमर को चौपट किया इसे न जाने किसने अध्यासपक बना दिया?'
नैना ने दूर से ही यह दृश्य देखकर लौट आने का बहाना किया, और मंदिर की ओर चली। फिर कुछ दूर के बाद एक गली में होकर अस्पताल की ओर चल पड़ी। दाहिने-बाएं चौकन्नी आंखों से ताकती हुई, वह तेजी से चली जा रही थी, मानो चोरी करने जा रही हो।
अस्पताल में पहुंची तो देखा, हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई है, और यूनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं। सलीम भी नजर आया। वह उसे देखकर पीछे लौटना चाहती थी कि ब्रजनाथ मिल गया-अरे नैनादेवी तुम यहां कहां- डॉक्टर साहब को रात-भर होश नहीं रहा। सलीम और मैं उनके पास बैठे रहे। इस वक्त जाकर आंखें खोली हैं।
इतने परिचित आदमियों के सामने नैना कैसे ठहरती- वह तुरंत लौट पड़ी पर यहां आना निष्फल न हुआ। डॉक्टर साहब को होश आ गया है।
वह मार्ग में ही थी उसने सैकड़ों आदमियों को दौड़ते हुए आते देखा। वह एक गली में छिप गई। शायद फौजदारी हो गई। अब वह घर कैसे पहुंचेगी- संयोग से आत्मानन्दजी मिल गए। नैना को पहचानकर बोले-यहां तो गोलियां चल रही हैं। पुलिस कप्तान ने आकर व्र करा दिया।
नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। जैसे नसों में रक्त का प्रवाह बंद हो गया हो। बोली- क्या आप उधर ही से आ रहे हैं-
'हां, मरते-मरते बचा। गली-गली निकल आया। हम लोग केवल खड़े थे। बस, कप्तान ने व्र कराने का हुक्म दे दिया। तुम कहां गई थीं?'
'मैं गंगा-स्नान करके लौटी जा रही थी। लोगों को भागते देखकर इधर चली आई। कैसे घर पहुंचूंगी?'
'इस समय तो उधर जाने में जोखिम है।'
फिर एक क्षण के बाद कदाचित अपनी कायरता पर लज्जित होकर कहा-किंतु गलियों में कोई डर नहीं है। चलो, मैं तुम्हें पहुंचा दूं। कोई पूछे, तो कह देना, मैं लाला समरकान्त की कन्या हूं।
नैना ने मन में कहा-यह महाशय संन्यासी बनते हैं, फिर भी इतने डरपोक पहले तो गरीबों को भड़काया और जब मार पड़ी, तो सबसे आगे भाग खड़े हुए। मौका न था, नहीं उन्हें ऐसा फटकारती कि याद करते। उनके साथ कई गलियों का चक्कर लगाती कोई दस बजे घर पहुंची। आत्मानन्द फिर उसी रास्ते से लौट गए। नैना ने उन्हें धन्यवाद भी न दिया। उनके प्रति अब उसे लेशमात्र भी श्रध्दा न थी।
वह अंदर गई, तो देखा-सुखदा सदर द्वार पर खड़ी है और सामने सड़क से लोग भागते चले जा रहे हैं।
सुखदा ने पूछा-तुम कहां चली गई थीं बीबी- पुलिस ने व्र कर दिया बेचारे, आदमी भागे जा रहे हैं।
'मुझे तो रास्ते ही में पता लगा। गलियों में छिपती हुई आई हूं।'
'लोग कितने कायर हैं घरों के किवाड़ तक बंद कर लिए।'
'लालाजी जाकर पुलिस वालों को मना क्यों नहीं करते?'
'इन्हीं के आदेश से तो गोली चली है। मना कैसे करेंगे?'
'अच्छा दादा ही ने गोली चलवाई है?'
'हां, इन्हीं ने जाकर कप्तान से कहा है। और अब घर में छिपे बैठे हैं। मैं अछूतों का मंदिर जाना उचित नहीं समझती लेकिन गोलियां चलते देखकर मेरा खून खौल रहा है। जिस धर्म की रक्षा गोलियों से हो, उस धर्म में सत्य का लोप समझो। देखो, देखो उस आदमी बेचारे को गोली लग गई छाती से खून बह रहा है।'
यह कहती हुई वह समरकान्त के सामने जाकर बोली-क्यों लालाजी, रक्त की नदी बह जाय पर मंदिर का द्वार न खुलेगा ।
समरकान्त ने अविचलित भाव से उत्तर दिया-क्या बकती है बहू, इन डोम-चमारों को मंदिर में घुसने दें- तू तो अमर से भी दो-दो हाथ आगे बढ़ी जाती है। जिसके हाथ का पानी नहीं पी सकते, उसे मंदिर में कैसे जाने दें-
सुखदा ने और वाद-विवाद न किया। वह मनस्वी महिला थी। यही तेजस्विता, जो अभिमान बनकर उसे विलासिनी बनाए हुए थी, जो उसे छोटों से मिलने न देती थी, जो उसे किसी से दबने न देती थी, उत्सर्ग के रूप में उबल पड़ी। वह उन्माद की दशा में घर से निकली और पुलिस वालों के सामने खड़ी होकर, भागने वालों को ललकारती हुई बोली-भाइयो क्यों भाग रहे हो - यह भागने का समय नहीं, छाती खोलकर सामने आने का समय है। दिखा दो कि तुम धर्म के नाम पर किस तरह प्राणों को होम करते हो। धर्मवीर ही ईश्वर को पाते हैं। भागने वालों की कभी विजय नहीं होती।
भागने वालों के पांव संभल गए। एक महिला को गोलियों के सामने खड़ी देखकर कायरता भी लज्जित हो गई। एक बुढ़िया ने पास आकर कहा-बेटी, ऐसा न हो, तुम्हें गोली लग जाय ।
सुखदा ने निश्चल भाव से कहा-जहां इतने आदमी मर गए वहां मेरे जाने से कोई हानि न होगी। भाइयो, बहनो भागो मत तुम्हारे प्राणों का बलिदान पाकर ही ठाकुरजी तुमसे प्रसन्न होंगे ।
कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है। एक क्षण में उड़ते हुए पत्तों की तरह भागने वाले आदमियों की एक दीवार-सी खड़ी हो गई। अब डंडे पडें।, या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।
बंदूकों से धांय धांय की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के कानों के पास से सन से निकल गई। तीन-चार आदमी गिर पड़े पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।
फिर बंदूकें छूटीं। चार-पांच आदमी फिर गिरे लेकिन दीवार न हिली। सुखदा उसे थामे हुए थी। एक ज्योति सारे घर को प्रकाश से भर देती है। बलवान् हृदय उसे दीपक की भांति समूह में साहस भर देता है।
भीषण दृश्य था। लोग अपने प्यारों को आंखों के सामने तड़पते देखते थे पर किसी की आंखों में आंसू की बूंद न थी। उनमें इतना साहस कहां से आ गया था- फौजें क्या हमेशा मैदान में डटी ही रहती हैं- वही सेना जो एक दिन प्राणों की बाजी खेलती है, दूसरे दिन बंदूक की पहली आवाज पर मैदान से भाग खड़ी होती है पर यह किराए के सिपाहियों का हाल है, जिनमें सत्य और न्याय का बल नहीं होता। जो केवल पेट के लिए या लूट के लिए लड़ते हैं। इस समूह में सत्य और धर्म का बल आ गया था। हरेक स्त्री और पुरुष, चाहे वह कितना मूर्ख क्यों न हो, समझने लगा था कि हम अपने धर्म और हक के लिए लड़ रहे हैं, और धर्म के लिए प्राण देना अछूत-नीति में भी उतनी ही गौरव की बात है जितनी द्विज-नीति में।
मगर यह क्या- पुलिस के जवान क्यों संगीनें उतार रहे हैं- बंदूकें क्यों कंधो पर रख लीं- अरे सब-के-सब तो पीछे की तरफ घूम गए। उनकी चार-चार की कतारें बन रही हैं। मार्च का हुक्म मिलता है। सब-के-सब मंदिर की तरफ लौटे जा रहे हैं। एक कांस्टेबल भी नहीं रहा। केवल लाला समरकान्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट से कुछ बातें कर रहे हैं और जन-समूह उसी भांति सुखदा के पीछे निश्चल खड़ा है। एक क्षण में सुपरिंटेंडेंट भी चला जाता है। फिर लाला समरकान्त सुखदा के समीप आकर ऊंचे स्वर में बोलते हैं-
मंदिर खुल गया है। जिसका जी चाहे दर्शन करने जा सकता है। किसी के लिए रोक-टोक नहीं है।
जन-समूह में हलचल पड़ जाती है। लोग उन्मत्ता हो-होकर सुखदा के पैरों पर गिरते हैं, और तब मंदिर की तरफ दौड़ते हैं।
मगर दस मिनट के बाद ही समूह उसी स्थान पर लौट आता है, और लोग अपने प्यारों की लाशों से गले मिलकर रोने लगते हैं। सेवाश्रम के छात्र डोलियां ले-लेकर आ जाते हैं, और आहतों की उठा ले जाते हैं। वीरगति पाने वालों के क्रिया-कर्म का आयोजन होने लगता है। बजाजों की दूकानों से कपड़े के थान आ जाते हैं, कहीं से बांस, कहीं से रस्सियां, कहीं से घी, कहीं से लकड़ी। विजेताओं ने धर्म ही पर विजय नहीं पाई है, हृदयों पर भी विजय पाई है। सारा नगर उनका सम्मान करने के लिए उतावला हो उठा है।
संध्याग समय इन धर्म-विजेताओं की अर्थियां निकलीं। शहर फट पड़ा। जनाजे पहले मंदिर-द्वार पर गए। मंदिर के दोनों द्वार खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मंदिर से तुलसीदल लाकर अर्थियों पर रखा और मरने वालों के मुख में चरणामृत डाला। इन्हीं द्वारों को खुलवाने के लिए यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ वीरों का स्वागत करने के लिए हाथ फैलाए हुए है पर ये रूठने वाले अब द्वार की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता हैं जिस वस्तु के लिए प्राण दिए, उसी से इतना विराग।
जरा देर के बाद अर्थियां नदी की ओर चलीं। वही हिन्दू-समाज जो एक घंटा पहले इन अछूतों से घृणा करता था, इस समय उन अर्थियों पर फूलों की वर्षा कर रहा था। बलिदान में कितनी शक्ति है-
और सुखदा- वह तो विजय की देवी थी। पग-पग पर उसके नाम की जय-जयकार होती थी। कहीं फूलों की वर्षा होती थी, कहीं मेवे की, कहीं रुपयों की। घड़ी भर पहले वह नगर में नगण्य थी। इस समय वह नगर की रानी थी। इतना यश बिरले ही पाते हैं। उसे इस समय वास्तव में दोनों तरफ के ऊंचे मकान कुछ नीचे, और सड़क के दोनों ओर खड़े होने वाले मनुष्य कुछ छोटे मालूम होते थे, पर इतनी नम्रता, इतनी विनय उसमें कभी न थी। मानो इस यश और ऐश्वर्य के भार से उसका सिर झुका जाता हो।
इधर गंगा के तट पर चिताएं जल रही थीं उधर मंदिर इस उत्सव के आनंद में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था मानो वीरों की आत्माएं चमक रही हों

भाग 6

दूसरे दिन मंदिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाए गए, इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं। सारे दिन मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गए थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उतनी, शायद उम्र भर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शांत हो गया किंतु ऊंची जाति वाले सज्जन अब भी मंदिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मंदिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।
कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अंतर हो गया- भोग-विलास पर प्राण देने वाली रमणी आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रध्दा और उत्साह देख-देखकर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबुत कपड़े नहीं हैं, आंखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधो पांव नहीं पड़ते, पर भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं, मानो संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुख-दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रवाह में सुखदा भी बही जा रही थी। प्राय: मनस्वी, कर्मशील, महत्तवाकांक्षी प्राणियों की यही प्रकृति है। भोग करने वाले ही वीर होते हैं।
छोटे-बड़े सभी सुखदा को पूज्य समझ रहे थे, और उनकी यह भावना सुखदा में एक गर्वमय सेवा का भाव प्रदीप्त कर रही थी। कल उसने जो कुछ किया, वह एक प्रबल आवेश में किया। उसका फल क्या होगा, इसकी उसे जरा भी चिंता न थी। ऐसे अवसरों पर हानि-लाभ का विचार मन को दुर्बल बना देता है। आज वह जो कुछ कर रही थी, उसमें उसके मन का अनुराग था, सद्भाव था। उसे अब अपनी शक्ति और क्षमता का ज्ञान हो गया है, वह नशा हो गया है, जो अपनी सुध-बुध भूलकर सेवा-रत हो जाता है जैसे अपनी आत्मा को पा गई है।
अब सुखदा नगर की नेत्री है। नगर में जाति-हित के लिए जो काम होता है, सुखदा के हाथों उसका श्रीगणेश होता है। कोई उत्सव हो, कोई परमार्थ का काम हो, कोई राष्ट' का आंदोलन हो, सुखदा का उसमें प्रमुख भाग होता है। उसका जी चाहे या न चाहे, भक्त लोग उसे खींच ले जाते हैं। उसकी उपस्थिति किसी जलसे की सफलता की कुंजी है। आश्चर्य यह है कि वह बोलने भी लगी है, और उसके भाषण में चाहे भाषा चातुर्य न हो, पर सच्चे उद्गार अवश्य होते हैं। शहर में कई सार्वजनिक संस्थाएं हैं, कुछ सामाजिक, कुछ राजनैतिक, कुछ धार्मिक। सभी निर्जीव-सी पड़ी थीं। सुखदा के आते ही उनमें स्ठ्ठर्ति-सी आ गई है। मादक वस्तु-वहिष्कार-सभा बरसों से बेजान पड़ी थी। न कुछ प्रचार होता था न कोई संगठन। उसका मंत्री एक दिन सुखदा को खींच ले गया। दूसरे ही दिन उस सभा की एक भजन-मंडली बन गई, कई उपदेशक निकल आए, कई महिलाएं घर-घर प्रचार करने के लिए तैयार हो गईं और मुहल्ले-मुहल्ले पंचायतें बनने लगीं। एक नए जीवन की सृष्टि हो गई।
अब सुखदा को गरीबों की दुर्दशा के यथार्थ रूप देखने के अवसर मिलने लगे। अब तक इस विषय में उसे जो कुछ ज्ञान था, वह सुनी-सुनाई बातों पर आधारित था। आंखों से देखकर उसे ज्ञात हुआ, देखने और सुनने में बड़ा अंतर है। शहर की उन अंधेरी तंग गलियों में, जहां वायु और प्रकाश का कभी गुजर ही न होता था, जहां की जमीन ही नहीं, दीवारें भी सीली रहती थीं, जहां दुर्गन्धो के मारे नाक फटती थी, भारत की कमाऊ संतान रोग और दरिद्रता के पैरों तले-दबी हुई अपने क्षीण जीवन को मृत्यु के हाथों से छीनने में प्राण दे रही थीं। उसे अब मालूम हुआ कि अमरकान्त को धन और विलास से जो विरोध था, यह कितना यथार्थ था। उसे खुद अब उस मकान में रहते, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनते, अच्छे-अच्छे पदार्थ खाते ग्लानि होती थी। नौकरों से काम लेना उसने छोड़ दिया। अपनी धोती खुद छांटती थी, घर में झाडू खुद लगाती। वह जो आठ बजे सोकर उठती थी, अब मुंह-अंधेरे उठती, और घर के काम-काज में लग जाती। नैना तो अब उसकी पूजा-सी करती थी। लालाजी अपने घर की यह दशा देख-देख कुढ़ते थे, पर करते क्या- सुखदा के यहां तो अब नित्य दरबार-सा लगा रहता था। बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े विद्वान् आते रहते थे। इसलिए वह अब बहू से कुछ दबते थे। गृहस्थी के जंजाल से अब उनका मन ऊबने लगा था। जिस घर में उनसे किसी को सहानुभूति न हो, उस घर में कैसे अनुराग होता। जहां अपने विचारों का राज हो, वही अपना घर है। जो अपने विचारों को मानते हों, वही अपने सगे हैं। यह घर अब उनके लिए सराय-मात्र था। सुखदा या नैना, दोनों ही से कुछ कहते उन्हें डर लगता था।

एक दिन सुखदा ने नैना से कहा-बीबी, अब तो इस घर में रहने को जी नहीं चाहता। लोग कहते होंगे, आप तो महल में रहती हैं, और हमें उपदेश करती हैं। महीनों दौड़ते हो गए, सब कुछ करके हार गई, पर नशेबाजों पर कुछ भी असर न हुआ। हमारी बातों पर कोई कान ही नहीं देता। अधिकतर तो लोग अपनी मुसीबतों को भूल जाने ही के लिए नशे करते हैं वह हमारी क्यों सुनने लगे- हमारा असर तभी होगा, जब हम भी उन्हीं की तरह रहें।
कई दिनों से सर्दी चमक रही थी, कुछ वर्षा हो गई थी और पूस की ठंडी हवा आर्द्र होकर आकाश को कुहरे से आच्छन्न कर रही थी। कहीं-कहीं पाला भी पड़ गया था-मुन्ना बाहर जाकर खेलना चाहता था-वह अब लटपटाता हुआ चलने लगा था-पर नैना उसे ठंड के भय से रोके हुए थी। उसके सिर पर ऊनी कनटोप बंधती हुई बोली-यह तो ठीक है पर उनकी तरह रहना हमारे लिए साधय भी है, यह देखना है। मैं तो शायद एक ही महीने में मर जाऊं।
सुखदा ने जैसे मन-ही-मन निश्चय करके कहा-मैं तो सोच रही हूं, किसी गली में छोटा-सा घर लेकर रहूं। इसका कनटोप उतारकर छोड़ क्यों नहीं देतीं- बच्चों को गमलों के पौधो बनाने की जरूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झोंका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिए, जो धूप और वर्षा ओले और पाले किसी की परवाह नहीं करते।
नैना ने मुस्कराकर कहा-शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब बेचारे की सांसत करने चली हो। कहीं ठंड-वंड लग जाए, तो लेने के देने पड़ें।
'अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है?'
'क्यों, इसे अपने साथ उस छोटे-से घर में न रखोगी?'
'जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रखे। मैं कौन होती हूं ।'
'अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहतीं, तो तुम्हारे चरण धोधोकर पीते ॥'
सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा-मैं तो जो तब थी, वही अब भी हूं। जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था- वह मुझे विलासिनी समझते थे, पर मैं कभी विलास की लौंडी नहीं रही हां, मैं दादाजी को रूष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब अलग रहूंगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से प्रश्न उठाऊंगी कि वह बिलकुल आपत्ति न करेंगे। चलो, जरा डॉक्टर शान्तिकुमार को देख आवें। मुझे तो उधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।
नैना प्राय: एक बार रोज शान्तिकुमार को देख आती थी। हां, सुखदा से कुछ कहती न थी। वह अब उठने-बैठने लगे थे पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चल सकते थे। चोटें उन्होंने खाईं-छ: महीने से शय्या-सेवन कर रहे थे-और यश सुखदा ने लूटा। वह दु:ख उन्हें और भी घुलाए डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी अपनी मनोव्यथा नहीं कहीं पर यह कांटा खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती, और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छ: महीनों में सुखदा दो-तीन बार से ज्यादा उन्हें देखने न गई थी। वह भी अमरकान्त के मित्र थे और इस नाते से सुखदा को उन पर विशेष श्रध्दा न थी।
नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुका देवी ने कुछ दिनों से मोटर रख ली थी, पर वह रहती थी सुखदा ही की सवारी में। दोनों उस पर बैठकर चलीं मुन्ना भला क्यों अकेले रहने लगा था- नैना ने उसे भी ले लिया।
सुखदा ने कुछ दूर जाने के बाद कहा-यह सब अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूं तो दो-तीन आने में अपना निबाह कर सकती हूं।
नैना ने विनोद-भाव से कहा-पहले करके दिखा दो, तो मुझे विश्वास आए। मैं तो नहीं कर सकती।
'जब तक इस घर में रहूंगी, मैं भी न कर सकूंगी। इसलिए तो मैं अलग रहना चाहती हूं।'
'लेकिन साथ तो किसी को रखना ही पड़ेगा?'
'मैं कोई जरूरत नहीं समझती। इसी शहर में हजारों औरतें अकेली रहती हैं। फिर मेरे लिए क्या मुश्किल है- मेरी रक्षा करने वाले बहुत हैं। मैं खुद अपनी रक्षा कर सकती हूं। (मुस्कराकर) हां, खुद किसी पर मरने लगूं, तो दूसरी बात है।'
शान्तिकुमार सिर से पांव तक कंबल लपेटे, अंगठी जलाए, कुर्सी पर बैठे एक स्वास्थ्य-संबंधी पुस्तक पढ़ रहे थे। वह कैसे जल्द-से-जल्द भले-चंगे हो जायं, आजकल उन्हें यही चिंता रहती थी। दोनों रमणियों के आने का समाचार पाते ही किताब रख दी और कंबल उतारकर रख दिया। अंगीठी भी हटाना चाहते थे पर इसका अवसर न मिला। दोनों ज्योंही कमरे में आईं, उन्हें प्रणाम करके कुर्सियों पर बैठने का इशारा करते हुए बोले-मुझे आप लोगों पर ईर्ष्या। हो रही है। आप इस शीत में घूम-फिर रही हैं और मैं अंगीठी जलाए पड़ा हूं। करूं क्या, उठा ही नहीं जाता। जिंदगी के छ: महीने मानो कट गए, बल्कि आधी उम्र कहिए। मैं अच्छा होकर भी आधा ही रहूंगा। कितनी लज्जा आती है कि देवियां बाहर निकलकर काम करें और मैं कोठरी में बंद पड़ा रहूं।
सुखदा ने जैसे आंसू पोंछते हुए कहा-आपने इस नगर में जितनी जागृति फैला दी, उस हिसाब से तो आपकी उम्र चौगुनी हो गई। मुझे तो बैठे-बैठाए यश मिल गया।
शान्तिकुमार के पीले मुख पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी। सुखदा के मुंह से यह सनद पाकर, मानो उनका जीवन सफल हो गया। बोले-यह आपकी उदारता है। आपने जो कुछ कर दिखाया और कर रही हैं, वह आप ही कर सकती हैं। अमरकान्त आएंगे तो उन्हें मालूम होगा कि अब उनके लिए यहां स्थान नहीं है। यह साल भर में जो कुछ हो गया इसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। यहां सेवाश्रम में लड़कों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। अगर यही हाल रहा, तो कोई दूसरी जगह लेनी पड़ेगी। अध्यातपक कहां से आएंगे, कह नहीं सकता। सभ्य समाज की यह उदासीनता देखकर मुझे तो कभी-कभी बड़ी चिंता होने लगती है। जिसे देखिए स्वार्थ में मगन है। जो जितना ही महान है उसका स्वार्थ भी उतना ही महान है। यूरोप की डेढ़ सौ साल तक उपासना करके हमें यही वरदान मिला है। लेकिन यह सब होने पर भी हमारा भविष्य उज्ज्वल है। मुझे इसमें संदेह नहीं। भारत की आत्मा अभी जीवित है और मुझे विश्वास है कि वह समय आने में देर नहीं है, जब हम सेवा और त्याग के पुराने आदर्श पर लौट आएंगे। तब धन हमारे जीवन का ध्येरय न होगा। तब हमारा मूल्य धन के कांटे पर न तौला जाएगा।
मुन्ने ने कुर्सी पर चढ़कर मेज पर से दवात उठा ली थी और अपने मुंह में कालिमा पोत-पोतकर खुश हो रहा था। नैना ने दौड़कर उसके हाथ से दवात छीन ली और एक धौल जमा दिया। शान्तिकुमार ने उठने की असफल चेष्टा करके कहा-क्यों मारती हो नैना, देखो तो कितना महान् पुरुष है, जो अपने मुंह में कालिमा पोतकर भी प्रसन्न होता है, नहीं तो हम अपनी कालिमाओं को सात परदों के अन्दर छिपाते है ं।
नैना ने बालक को उनकी गोद में देते हुए कहा-तो लीजिए, इस महान् पुरुष को आप ही। इसके मारे चैन से बैठना मुश्किल है।
शान्तिकुमार ने बालक को छाती से लगा लिया। उस गर्म और गुदगुदे स्पर्श में उनकी आत्मा ने जिस परितृप्ति और माधुर्य का अनुभव किया, वह उनके जीवन में बिलकुल नया था। अमरकान्त से उन्हें जितना स्नेह था, वह जैसे इस छोटे से रूप में सिमटकर और ठोस और भारी हो गया था। अमर की याद करके उनकी आंखें सजल हो गईं। अमर ने अपने को कितने अतुल आनंद से वंचित कर रखा है, इसका अनुमान करके वह जैसे दब गए। आज उन्हें स्वयं अपने जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ। जिन कामनाओं का वह अपने विचार में संपूर्णत: दमन कर चुके थे वह राख में छिपी हुई चिंगारियों की भांति सजीव हो गईं।
मुन्ने ने हाथों की स्याही शान्तिकुमार के मुख में पोतकर नीचे उतरने का आग्रह किया, मानो इसीलिए यह उनकी गोद में गया था। नैना ने हंसकर कहा-जरा अपना मुंह तो देखिए, डॉक्टर साहब इस महान् पुरुष ने आपके साथ होली खेल डाली बदमाश है।
सुखदा भी हंसी को न रोक सकी। शान्तिकुमार ने शीशे में मुंह देखा, तो वह भी जोर से हंसे। यह कालिमा का टीका उन्हें इस समय यश के तिलक से भी कहीं उल्लासमय जान पड़ा।
सहसा सुखदा ने पूछा-आपने शादी क्यों नहीं की, डॉक्टर साहब-

शान्तिकुमार सेवा और व्रत का जो आधार बनाकर अपने जीवन का निर्माण कर रहे थे, वह इस शय्या सेवन के दिनों में कुछ नीचे खिसकता हुआ नजर जान पड़ रहा था। जिसे उन्होंने जीवन का मूल सत्य समझा था, वह अब उतना दृढ़ न रह गया था। इस आपातकाल में ऐसे कितने अवसर आए, जब उन्हें अपना जीवन भार-सा मालूम हुआ। तीमारदारों की कमी न थी। आठों पहर दो-चार आदमी घेरे ही रहते थे। नगर के बड़े-बड़े नेताओं का आना-जाना भी बराबर होता रहता था पर शान्तिकुमार को ऐसा जान पड़ता था कि वह दूसरों की दया या शिष्टता पर बोझ हो रहे हैं। इन सेवाओं में वह माधुर्य, वह कोमलता न थी, जिससे आत्मा की तृप्ति होती। भिक्षुक को क्या अधिकार है कि वह किसी के दान का निरादर करे। दान-स्वरूप उसे जो कुछ मिल जाय, वह सभी स्वीकार करना होगा। इन दिनों उन्हें कितनी ही बार अपनी माता की याद आई थीं। वह स्नेह कितना दुर्लभ था। नैना जो एक क्षण के लिए उनका हाल पूछने आ जाती थी, इसमें उन्हें न जाने क्यों एक प्रकार की स्फू्र्ति का अनुभव होता था। वह जब तक रहती थी, उनकी व्यथा जाने कहां छिप जाती थी- उसके जाते ही फिर वही कराहना, वही बेचैनी उनकी समझ में कदाचित् यह नैना का सरल अनुराग ही था, जिसने उन्हें मौत के मुंह से निकाल लिया लेकिन वह स्वर्ग की देवी कुछ नहीं ।

सुखदा का यह प्रश्न सुनकर मुस्कराते हुए बोले-इसीलिए कि विवाह करके किसी को सुखी नहीं देखा।
सुखदा ने समझा यह उस पर चोट है। बोली-दोष भी बराबर स्त्रियों का ही देखा होगा, क्यों-
शान्तिकुमार ने जैसे अपना सिर पत्थर से बचाया-यह तो मैंने नहीं कहा। शायद इसकी उल्टी बात हो। शायद नहीं, बल्कि उल्टी है।
'खैर, इतना तो आपने स्वीकार किया। धन्यवाद। इससे तो यही सि' हुआ कि पुरुष चाहे तो विवाह करके सुखी हो सकता है।'
'लेकिन पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम से वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुंचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, इन्हीं आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है और यह स्त्रियों के गुण हैं। अगर स्त्री इतना समझ ले, तो फिर दोनों का जीवन सुखी हो जाय। स्त्री पशु के साथ पशु हो जाती है, तभी दोनों सुखी होते हैं।'
सुखदा ने उपहास के स्वर में कहा-इस समय तो आपने सचमुच एक आविष्कार कर डाला। मैं तो हमेशा यह सुनती आती हूं कि स्त्री मूर्ख है, ताड़ना के योग्य है, पुरुषों के गले का बंधन है और जाने क्या-क्या- बस, इधर से भी मरदों की जीत, उधर से भी मरदों की जीत। अगर पुरुष नीचा है तो उसे स्त्रियों का शासन क्यों अप्रिय लगे-परीक्षा करके देखा तो होता, आप तो दूर से ही डर गए।
शान्तिकुमार ने कुछ झेंपते हुए कहा-अब अगर चाहूं भी, तो बूढ़ों को कौन पूछता है-
'अच्छा, आप बूढ़े भी हो गए- तो किसी अपनी-जैसी बुढ़िया से कर लीजिए न?'
'जब तुम जैसी विचारशील और अमर-जैसे गंभीर स्त्री-पुरुष में न बनी, तो फिर मुझे किसी तरह की परीक्षा करने की जरूरत नहीं रही। अमर-जैसा विनय और त्याग मुझमें नहीं है, और तुम जैसी उदार और?'
सुखदा ने बात काटी-मैं उदार नहीं हूं, न विचारशील हूं। हां, पुरुष के प्रति अपना धर्म समझती हूं। आप मुझसे बड़े हैं, और मुझसे कहीं बुद्धिमान हैं। मैं आपको अपने बड़े भाई के तुल्य समझती हूं। आज आपका स्नेह और सौजन्य देखकर मेरे चित्त को बड़ी शांति मिली। मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूं ऐसा पुरुष जो, स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रत-धारिणी रहने की आशा रखे- आप सत्यवादी हैं। मैं आपसे पूछती हूं, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दूं, तो आप मुझे क्षम्य समझेंगे-
शान्तिकुमार ने निशंक भाव से कहा-नहीं।
'उन्हें आपने क्षम्य समझ लिया?'
'नहीं ।'
'और यह समझकर भी आपने उनसे कुछ नहीं कहा- कभी एक पत्र भी नहीं लिखा- मैं पूछती हूं, इस उदासीनता का क्या कारण है- यही न कि इस अवसर पर एक नारी का अपमान हुआ है। यदि वही कृत्य मुझसे हुआ होता, तब भी आप इतने ही उदासीन रह सकते- बोलिए।'
शान्तिकुमार रो पड़े। नारी-हृदय की संचित व्यथा आज इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होकर कितनी करूण हो गई थी।
सुखदा उसी आवेश में बोली-कहते हैं, आदमी की पहचान उसकी संगत से होती है। जिसकी संगत आप, मुहम्मद सलीम और स्वामी आत्मानन्द जैसे महानुभावों की हो, वह अपने धर्म को इतना भूल जाय यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मैं यह नहीं कहती कि मैं निर्दोष हूं। कोई स्त्री यह दावा नहीं कर सकती, और न कोई पुरुष ही यह दावा कर सकता है। मैंने सकीना से मुलाकात की है। संभव है उसमें वह गुण हो, जो मुझमें नहीं है। वह ज्यादा मधुर है, उसके स्वभाव में कोमलता है। हो सकता है, वह प्रेम भी अधिक कर सकती हो लेकिन यदि इसी तरह सभी पुरुष और स्त्रियां तुलना करके बैठ जायं, तो संसार की क्या गति होगी- फिर तो यहां रक्त और आंसुओं की नदियों के सिवा और कुछ न दिखाई देगा।
शान्तिकुमार ने परास्त होकर कहा-मैं अपनी गलती को मानता हूं, सुखदादेवी मैं तुम्हें न जानता था और इस भय में था कि तुम्हारी ज्यादती है। मैं आज ही अमर को पत्र-
सुखदा ने फिर बात काटी-नहीं, मैं आपसे यह प्रेरणा करने नहीं आई हूं, और न यह चाहती हूं कि आप उनसे मेरी ओर से दया की भिक्षा मांगें। यदि वह मुझसे दूर भागना चाहते हैं, तो मैं भी उनको बंधकर नहीं रखना चाहती। पुरुष को जो आजादी मिली है, वह उसे मुबारक रहे वह अपना तन-मन गली-गली बेचता फिरे। मैं अपने बंधन में प्रसन्न हूं। और ईश्वर से यही विनती करती हूं कि वह इस बंधन में मुझे डाले रखे। मैं जलन यार् ईर्ष्यां से विचलित हो जाऊं, उस दिन के पहले वह मेरा अंत कर दे। मुझे आपसे मिलकर आज जो तृप्ति हुई, उसका प्रमाण यही है कि मैं आपसे वह बातें कह गई, जो मैंने कभी अपनी माता से भी नहीं कहीं। बीबी आपका बखान करती थी, उससे ज्यादा सज्जनता आपमें पाई मगर आपको मैं अकेला न रहने दूंगी। ईश्वीर वह दिन लाए कि मैं इस घर में भाभी के दर्शन करूं।
जब दोनों रमणियां यहां से चलीं, तो डॉक्टर साहब लाठी टेकते हुए फाटक तक उन्हें पहुंचाने आए और फिर कमरे में आकर लेटे, तो ऐसा जान पड़ा कि उनका यौवन जाग उठा है। सुखदा के वेदना से भरे हुए शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे और नैना मुन्ने को गोद में लिए जैसे उनके सम्मुख खड़ी थी।


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