Karmbhoomi Munshi Premchand कर्मभूमि मुंशी प्रेमचंद

Hindi Kavita

KarmbhoomiMunshi-Premchand

कर्मभूमि अध्याय 1 (भाग 13)

मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था-जज साहब की स्त्री ने पति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थीं। स्त्री जब किसी बात पर अड़ जाए, तो पुरुष कैसे नहीं कर दे- कुछ लोगों का कहना था-सरकार ने जज साहब को हुक्म देकर फैसला कराया है क्योंकि भिखारिन को सजा देने से शहर में दंगा हो जाने का भय था। अमरकान्त उस समय भोज के सरंजाम करने में व्यस्त था पर यह खबर पा जरा देर के लिए सब कुछ भूल गया और इस फैसले का सारा श्रेय खुद लेने लगा। भीतर जाकर रेणुकादेवी से बोला-आपने देखा अम्मांजी, मैं कहता न था, उसे बरी कराके दम लूंगा, वही हुआ। वकीलों और गवाहों के साथ कितनी माथा-पच्ची करनी पड़ी है कि मेरा दिल ही जानता है। बाहर आकर मित्रों से और सामने के दूकानदारों से भी उसने यही डींग मारी।
एक मित्र ने कहा-औरत है बड़ी धुन की पक्की। शौहर के साथ न गई न गई बेचारा पैरों पड़ता रह गया।
अमरकान्त ने दार्शनिक विवेचना के भाव से कहा-जो काम खुद न देखो, वही चौपट हो जाता है। मैं तो इधर फंस गया। उधर किसी से इतना भी न हो सका कि उस औरत को समझाता। मैं होता तो मजाल थी कि वह यों चली जाती। मैं जानता कि यह हाल होगा, तो सब काम छोड़कर जाता और उसे समझाता। मैंने तो समझा डॉक्टर साहब और बीसों आदमी हैं, मेरे न रहने से ऐसा क्या घी का घड़ा लुढ़का जाता है, लेकिन वहां किसी को क्या परवाह नाम तो हो गया। काम हो या जहन्नुम में जाए ।
लाला समरकान्त ने नाच-तमाशे और दावत में खूब दिल खोलकर खर्च किया। वही अमरकान्त जो इन मिथ्या व्यवहारों की आलोचना करते कभी न थकता था, अब मुंह तक न खोलता था बल्कि उलटे और बढ़ावा देता था-जो संपन्न हैं, वह ऐसे शुभ अवसर पर न खर्च करेंगे, तो कब करेंगे- धन की यही शोभा है। हां, घर ठ्ठंककर तमाशा न देखना चाहिए।
अमरकान्त को अब घर से विशेष घनिष्ठता होती जाती थी। अब वह विद्यालय तो जाने लगा था, पर जलसों और सभाओं से जी चुराता रहता था। अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी। शाम-सबेरे बराबर दूकान पर आ बैठता और बड़ी तंदेही से काम करता। स्वभाव में कुछ कृपणता भी आ चली थी। दु:खी जनों पर अब भी दया आती थी पर वह दूकान की बंधी हुई कौड़ियों का अतिक्रमण न करने पाती। इस अल्पकाय शिशु ने ऊंट के नन्हे-से नकेल की भांति उसके जीवन का संचालन अपने हाथ में ले लिया था। मानो दीपक के सामने एक भुनगे ने आकर उसकी ज्योति को संकुचित कर दिया था।
तीन महीने बीत गए थे। संध्या का समय था। बच्चा पालने में सो रहा था। सुखदा हाथ में पंखिया लिए एक मोढ़े पर बैठी हुई थी। कृशांगी गर्भिणी मात़त्व के तेज और शक्ति से जैसे खिल उठी थी। उसके माधुर्य में किशोरी की चपलता न थी, गर्भिणी की आलस्यमय कातरता न थी, माता का शांत संतप्ती मंगलमय विलास था।
अमरकान्त कॉलेज से सीधे घर आया और बालक को संचित नेत्रों से देखकर बोला-अब तो ज्वर नहीं है ।
सुखदा ने धीरे से शिशु के माथे पर हाथ रखकर कहा-नहीं, इस समय तो नहीं जान पड़ता। अभी गोद में सो गया था, तो मैंने लिटा दिया।
अमर ने कुर्ते के बटन खोलते हुए कहा-मेरा तो आज वहां बिलकुल जी न लगा। मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूं कि मुझे संसार की और कोई वस्तु न चाहिए, यह बालक कुशल से रहे। देखो कैसे मुस्करा रहा है।
सुखदा ने मीठे तिरस्कार से कहा-तुम्हीं ने देख-देखकर नजर लगा दी है।
'मेरा जी तो चाहता है, उसका चुंबन ले लूं।'
'नहीं-नहीं, सोते हुए बच्चों का चुंबन न लेना चाहिए।'
सहसा किसी ने डयोढी में आकर पुकारा। अमर ने जाकर देखा, तो बुढ़िया पठानिन लठिया के सहारे खड़ी है। बोला-आओ पठानिन, तुमने तो सुना होगा, घर में बच्चा हुआ है-
पठानिन ने भीतर आकर कहा-अल्लाह करे जुग-जुग जिए और मेरी उम्र पाए। क्यों बेटा सारे शहर को नेवता हुआ और हम पूछे तक न गए। क्या हमीं सबसे गैर थे- अल्लाह जानता है, जिस दिन यह खुशखबरी सुनी, दिल से दुआ निकली कि अल्लाह इसे सलामत रखे।
अमर ने लज्जित होकर कहा-हां, यह गलती मुझसे हुई पठानिन, मुआफ करो। आओ, बच्चे को देखो। आज इसे न जाने क्यों बुखार हो आया है-
बुढ़िया दबे पांव आंगन में होती हुई सामने के बरामदे में पहुंची और बहू को दुआएं देती हुई बच्चे को देखकर बोली-कुछ नहीं बेटा नजर का फसाद है। मैं एक ताबीज दिए देती हूं, अल्लाह चाहेगा, अभी हंसने-खेलने लगेगा।
सुखदा ने मात़त्वो -जनित नम्रता से बुढ़िया के पैरों को आंचल से स्पर्श किया और बोली-चार दिन भी अच्छी तरह नहीं रहता, माता घर में कोई बड़ी-बूढ़ी तो है नहीं। मैं क्या जानूं, कैसे क्या होता है- मेरी अम्मां हैं पर वह रोज तो यहां नहीं आ सकतीं, न मैं ही रोज उनके पास जा सकती हूं।
बुढ़िया ने फिर आशीर्वाद दिया और बोली-जब काम पड़े, मुझे बुला लिया करो बेटा, मैं और किस दिन के लिए जीती हूं- जरा तुम मेरे साथ चले चलो भैया, मैं ताबीज दे दूं।
बुढ़िया ने अपने सलूके की जेब से एक रेशमी कुर्ता और टोपी निकाली और शिशु के सिराहने रखते हुए बोली-यह मेरे लाल की नजर है बेटा, इसे मंजूर करो। मैं और किस लायक हूं- सकीना कई दिन से सीकर रखे हुए थी, चला नहीं जाता बेटा, आज बड़ी हिम्मत करके आई हूं।
सुखदा के पास संबंधियों से मिले हुए कितने अच्छे-से-अच्छे कपड़े रखे हुए थे पर इस सरल उपहार से उसे जो हार्दिक आनंद प्राप्त हुआ वह और किसी उपहार से न हुआ था, क्योंकि इसमें अमीरी का गर्व, दिखावे की इच्छा या प्रथा की शुष्कता न थी। इसमें एक शुभचिंतक की आत्मा थी, प्रेम था और आशीर्वाद था।
बुढ़िया चलने लगी, तो सुखदा ने उसे एक पोटली में थोड़ी-सी मिठाई दी, पान खिलाए और बरौठे तक उसे विदा करने आई। अमरकान्त ने बाहर आकर एक इक्का किया और बुढ़िया के साथ बैठकर ताबीज लेने चला। गंडे-ताबीज पर उसे विश्वास न था पर वृध्दजनों के आशीर्वाद पर था, और उस ताबीज को वह केवल आशीर्वाद समझ रहा था।
रास्ते में बुढ़िया ने कहा-मैंने तुमसे कहा था वह तुम भूल गए, बेटा-
अमर सचमुच भूल गया था। शरमाता हुआ बोला-हां, पठानिन, मुझे याद नहीं आया। मुआफ करो।
'वही सकीना के बारे में।'
अमर ने माथा ठोककर कहा-हां माता, मुझे बिलकुल खयाल न रहा।
'तो अब खयाल रखो, बेटा मेरे और कौन बैठा हुआ है जिससे कहूं- इधर सकीना ने कई रूमाल बनाए हैं। कई टोपियों के पल्ले भी काढ़े हैं पर जब चीज बिकती नहीं, तो दिल नहीं बढ़ता।'
'मुझे वह सब चीजें दे दो। मैं बेचवा दूंगा।'
'तुम्हें तकलीफ न होगी?'
'कोई तकलीफ नहीं। भला इसमें क्या तकलीफ?'
अमरकान्त को बुढ़िया घर में न ले गई। इधर उसकी दशा और भी हीन हो गई थी। रोटियों के भी लाले थे। घर की एक-एक अंगुल जमीन पर उसकी दरिद्रता अंकित हो रही थी। उस घर में अमर को क्या ले जाती- बुढ़ापा निस्संकोच होने पर भी कुछ परदा रखना ही चाहता है। यह उसे इक्के ही पर छोड़कर अंदर गई, और थोड़ी देर में ताबीज और रूमालों की बकची लेकर आ पहुंची।
'ताबीज उसके गले में बाँध देना। फिर कल मुझसे हाल कहना।'
'कल मेरी तातील है। दो-चार दोस्तों से बात करूंगा। शाम तक बन पड़ा तो आऊंगा, नहीं फिर किसी दिन आ जाऊंगा।'
घर आकर अमर ने ताबीज बच्चे के गले में बंधी और दूकान पर जा बैठा। लालाजी ने पूछा-कहां गए थे- दूकान के वक्त कहीं मत जाएा करो।
अमर ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा-आज पठानिन आ गई। बच्चे के लिए ताबीज देने को कहा था, वही लेने चला गया था।
'मैंने अभी देखा। अब तो अच्छा मालूम होता है। दुष्ट ने मेरी मूंछें पकड़कर खींच लीं। मैंने भी कसकर एक घूंसा जमाया बच्चा को। हां, खूब याद आई, तुम बैठो, मैं जरा शास्त्रीजी के पास से जन्म-पत्री लेता आऊं। आज उन्होंने देने का वादा किया था।'
लालाजी चले गए, तो अमर फिर घर में जा पहुंचा और बच्चे को गोद में लेकर बोला-क्यों जी तुम हमारे बापू की मूंछें उखाड़ते हो खबरदार, जो फिर उनकी मूंछें छुईं, नहीं दांत तोड़ दूंगा।
बालक ने उसकी नाक पकड़ ली और उसे निगल जाने की चेष्टा करने लगा, जैसे हनुमान सूर्य को निगल रहे हों।
सुखदा हंसकर बोली-पहले अपनी नाक बचाओ, फिर बाप की मूंछें बचाना।
सलीम ने इतने जोर से पुकारा कि सारा घर हिल उठा।
अमरकान्त ने बाहर आकर कहा-तुम बड़े शैतान हो यार, ऐसा चिल्लाए कि मैं घबरा गया। किधर से आ रहे हो- आओ, कमरे में चलो।
दोनों आदमी बगल वाले कमरे में गए। सलीम ने रात को एक गजल कही थी। वही सुनाने आया था। गजल कह लेने के बाद जब तक वह अमर को सुना न ले, उसे चैन न आता था।
अमर ने कहा-मगर मैं तारीफ न करूंगा, यह समझ लो ।
शर्त तो जब है कि तुम तारीफ न करना चाहो, फिर भी करो :
यही दुनियाए उलगत में, हुआ करता है होने दो।
तुम्हें हंसना मुबारक हो, कोई रोता है रोने दो।
अमर ने झूमकर कहा-लाजवाब शेर है, भई बनावट नहीं, दिल से कहता हूं। कितनी मजबूरी है-वाह ।
सलीम ने दूसरा शेर पढ़ा :
कसम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफाई का
किए को अपने रोता हूं मुझे जी भर के रोने दो।
अमर-बड़ा दर्दनाक शेर है, रोंगटे खड़े हो गए। जैसे कोई अपनी बीती गा रहा हो। इस तरह सलीम ने पूरी गजल सुनाई और अमर ने झूम-झूमकर सुनी फिर बातें होने लगीं। अमर ने पठानिन के रूमाल दिखाने शुरू किए।
'एक बुढ़िया रख गई है। गरीब औरत है। जी चाहे दो-चार ले लो।'
सलीम ने रूमालों को देखकर कहा-चीज तो अच्छी है यार, लाओ एक दर्जन लेता जाऊं। किसने बनाए हैं-
'उसी बुढ़िया की एक पोती है।'
'अच्छा, वही तो नहीं, जो एक बार कचहरी में पगली के मुकदमे में गई थी- माशूक तो यार तुमने अच्छा छांटा।'
अमरकान्त ने अपनी सफाई दी-कसम ले लो, जो मैंने उसकी तरफ देखा भी हो।
'मुझे कसम लेने की जरूरत नहीं तुम्हें वह मुबारक हो, मैं तुम्हारा रकीब नहीं बनना चाहता। दर्जन रूमाल कितने के हैं-
'जो मुनासिब समझो दे दो।'
'इसकी कीमत बनाने वाले के ऊपर मुनहसर है। अगर उस हसीना ने बनाए हैं, तो फी रूमाल पांच रुपये। बुढ़िया या किसी और ने बनाए हैं, तो फी रूमाल चार आने।'
'तुम मजाक करते हो। तुम्हें लेना मंजूर नहीं।'
'पहले यह बताओ किसने बनाए हैं?'
'बनाए हैं सकीना ही ने।'
'अच्छा उसका नाम सकीना है। तो मैं फी रूमाल पांच रुपये दे दूंगा। शर्त यह कि तुम मुझे उसका घर दिखा दो।'
'हां शौक से लेकिन तुमने कोई शरारत की तो मैं तुम्हारा जानी दुश्मन हो जाऊंगा। अगर हमदर्द बनकर चलना चाहो तो चलो। मैं तो चाहता हूं, उसकी किसी भले आदमी से शादी हो जाए। है कोई तुम्हारी निगाह में ऐसा आदमी- बस, यही समझ लो कि उसकी तकदीर खुल जाएगी। मैंने ऐसी हयादार और सलीकेमंद लड़की नहीं देखी। मर्द को लुभाने के लिए औरत में जितनी बातें हो सकती हैं, वह सब उसमें मौजूद हैं।'
सलीम ने मुस्कराकर कहा-मालूम होता है, तुम खुद उस पर रीझ चुके। हुस्न में तो वह तुम्हारी बीवी के तलवों के बराबर भी नहीं।
अमरकान्त ने आलोचक के भाव से कहा-औरत में रूप ही सबसे प्यारी चीज नहीं है। मैं तुमसे सच कहता हूं, अगर मेरी शादी न हुई होती और मजहब की रूकावट न होती तो मैं उससे शादी करके अपने को भाग्यवान समझता।
'आखिर उसमें ऐसी क्या बात है, जिस पर तुम इतने लट्टू हो?'
'यह तो मैं खुद नहीं समझ रहा हूं। शायद उसका भोलापन हो। तुम खुद क्यों नहीं कर लेते- मैं यह कह सकता हूं कि उसके साथ तुम्हारी जिंदगी जन्नत बन जाएगी।'
सलीम ने संदिग्ध भाव से कहा-मैंने अपने दिल में जिस औरत का नक्शा खींच रखा है वह कुछ और ही है। शायद वैसी औरत मेरी खयाली दुनिया के बाहर कहीं होगी भी नहीं। मेरी निगाह में कोई आदमी आएगा, तो बताऊंगा। इस वक्त तो मैं ये रूमाल लिए लेता हूं। पांच रुपये से कम क्या दूं- सकीना कपड़े भी सी लेती होगी- मुझे उम्मीद है कि मेरे घर से उसे काफी काम मिल जाएगा। तुम्हें भी एक दोस्ताना सलाह देता हूं। मैं तुमसे बदगुमानी नहीं करता लेकिन वहां बहुत आमदोरर्ति न रखना, नहीं बदनाम हो जाओगे। तुम चाहे कम बदनाम हो, उस गरीब की तो जिंदगी ही खराब हो जाएगी। ऐसे भले आदमियों की कमी भी नहीं है, जो इस मुआमले को मजहबी रंग देकर तुम्हारे पीछे पड़ जाएंगे। उसकी मदद तो कोई न करेगा तुम्हारे ऊपर उंगली उठाने वाले बहुतेरे निकल आएंगे।
अमरकान्त में उद़डंता न थी पर इस समय वह झल्लाकर बोला-मुझे ऐसे कमीने आदमियों की परवाह नहीं है। अपना दिल साफ रहे, तो किसी बात का गम नहीं।
सलीम ने जरा भी बुरा न मानकर कहा-तुम जरूरत से ज्यादा सीधे हो यार, खौफ है, किसी आफत में न फंस जाओ।
दूसरे दिन अमरकान्त ने दूकान बढ़ाकर जेब में पांच रुपये रखे, पठानिन के घर पहुंचा और आवाज दी। वह सोच रहा था-सकीना रुपये पाकर कितनी खुश होगी
अंदर से आवाज आई-कौन है-
अमरकान्त ने अपना नाम बताया।
द्वार तुरंत खुल गए और अमरकान्त ने अंदर कदम रखा पर देखा तो चारों तरफ अंधोरा। पूछा-आज दिया नहीं जलाया, अम्मां-
सकीना बोली-अम्मां तो एक जगह सिलाई का काम लेने गई हैं।
अंधोरा क्यों हैं- चिराग में तेल नहीं है-
सकीना धीरे से बोली-तेल तो है।
'फिर दिया क्यों नहीं जलाती, दियासलाई नहीं है?'
'दियासलाई भी है।'
'तो फिर चिराग जलाओ। कल जो रूमाल मैं ले गया था, वह पांच रुपये पर बिक गए हैं, ये रुपये ले लो। चटपट चिराग जलाओ।'
सकीना ने कोई जवाब न दिया। उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दी। अमर ने चौंककर पूछा-क्या बात है सकीना- तुम रो क्यों रही हो-
सकीना ने सिसकते हुए कहा-कुछ नहीं, आप जाइए। मैं अम्मां को रुपये दे दूंगी।
अमर ने व्याकुलता से कहा-जब तक तुम बता न दोगी, मैं न जाऊंगा। तेल न हो तो मैं ला दूं, दियासलाई न हो तो मैं ला दूं, कल एक लैंप लेता आऊंगा। कुप्पी के सामने बैठकर काम करने से आंखें खराब हो जाती हैं। घर के आदमी से क्या परदा- मैं अगर तुम्हें गैर समझता, तो इस तरह बार-बार क्यों आता-
सकीना सामने के सायबान में जाकर बोली-मेरे कपड़े गीले हैं। आपकी आवाज सुनकर मैंने चिराग बुझा दिया।
'तो गीले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?'
'कपड़े मैले हो गए थे। साबुन लगाकर रख दिए थे। अब और कुछ न पूछिए। कोई दूसरा होता, तो मैं किवाड़ न खोलती।'
अमरकान्त का कलेजा मसोस उठा। उफ इतनी घोर दरिद्रता पहनने को कपड़े तक नहीं। अब उसे ज्ञात हुआ कि कल पठानिन ने रेशमी कुर्ता और टोपी उपहार में दी थी, उसके लिए कितना त्याग किया था। दो रुपये से कम क्या खर्च हुए होंगे- दो रुपये में दो पाजामे बन सकते थे। इन गरीब प्राणियों में कितनी उदारता है। जिसे ये अपना धर्म समझते हैं, उसके लिए कितना कष्ट झेलने को तैयार रहते हैं।
उसने सकीना से कांपते स्वर में कहा-तुम चिराग जला लो। मैं अभी आता हूं।
गोवरधन सराय से चौक तक वह हवा के वेग से गया पर बाजार बंद हो चुका था। अब क्या करे- सकीना अभी तक गीले कपड़े पहने बैठी होगी। आज इन सबों ने इतनी जल्द क्यों दूकान बंद कर दी- वह यहां से उसी वेग के साथ घर पहुंचा। सुखदा के पास पचासों साड़ियां हैं। कई मामूली भी हैं। क्या वह उनमें से साड़ियां न दे देगी- मगर वह पूछेगी-क्या करोगे, तो क्या जवाब देगा- साफ-साफ कहने से तो वह शायद संदेह करने लगे। नहीं, इस वक्त सफाई देने का अवसर न था। सकीना गीले कपड़े पहने उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। सुखदा नीचे थी। वह चुपके से ऊपर चला गया, गठरी खोली और उसमें से चार साड़ियां निकालकर दबे पांव चल दिया।
सुखदा ने पूछा-अब कहां जा रहे हो- भोजन क्यों नहीं कर लेते-
अमर ने बरोठे से जवाब दिया-अभी आता हूं।
कुछ दूर जाने पर उसने सोचा-कल कहीं सुखदा ने अपनी गठरी खोली और साड़ियां न मिलीं तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। नौकरों के सिर जाएगी। क्या वह उस वक्त यह कहने का साहस रखता था कि वे साड़ियां मैंने एक गरीब औरत को दे दी हैं- नहीं, वह यह नहीं कह सकता, तो साड़ियां ले जाकर रख दे- मगर वहां सकीना गीले कपड़े पहने बैठी होगी। फिर खयाल आया-सकीना इन साड़ियों को पाकर कितनी प्रसन्न होगी इस खयाल ने उसे उन्मत्त कर दिया। जल्द-जल्द कदम बढ़ाता हुआ सकीना के घर जा पहुंचा।
सकीना ने उसकी आवाज सुनते ही द्वार खोल दिया। चिराग जल रहा था। सकीना ने इतनी देर में आग जलाकर कपड़े सुखा लिए थे और कुरता-पाजामा पहने, ओढ़नी ओढ़े खड़ी थी अमर ने साड़ियां खाट पर रख दीं और बोला-बाजार में तो न मिलीं, घर जाना पड़ा। हमदर्दों से परदा न रखना चाहिए।
सकीना ने साड़ियों को लेकर देखा और सकुचाती हुई बोली-बाबूजी, आप नाहक साड़ियां लाए। अम्मां देखेंगी, तो जल उठेंगी। फिर शायद आपका यहां आना मुश्किल हो जाए। आपकी शराफत और हमदर्दी की जितनी तारीफ अम्मां करती थीं, उससे कहीं ज्यादा पाया। आप यहां ज्यादा आया भी न करें, नहीं ख्वामख्वाह लोगों को शुबहा होगा। मेरी वजह से आपके ऊपर कोई शुबहा करे, यह मैं नहीं चाहती।
आवाज कितनी मीठी थी। भाव में कितनी नम्रता, कितना विश्वास। पर उसमें वह हर्ष न था, जिसकी अमर ने कल्पना की थी। अगर बुढ़िया इस सरल स्नेह को संदेह की दृष्टि से देखे, तो निश्चय ही उसका आना-जाना बंद हो जाएगा। उसने अपने मन को टटोलकर देखा, उस प्रकार के संदेह का कोई कारण नहीं है। उसका मन स्वच्छ था। वहां किसी प्रकार की कुत्सित भावना न थी। फिर भी सकीना से मिलना बंद हो जाने की संभावना उसके लिए असह्य थी। उसका शासित, दलित पुरुषत्व यहां अपने प्राकृतिक रूप में प्रकट हो सकता था। सुखदा की प्रतिभा, प्रगल्भता और स्वतंत्रता, जैसे उसके सिर पर सवार रहती थी। वह उसके सामने अपने को दबाए रखने पर मजबूर था। आत्मा में जो एक प्रकार के विकार और व्यक्तीकरण की आकांक्षा होती है, वह अपूर्ण रहती थी। सुखदा उसे पराभूत कर देती थी, सकीना उसे गौरवान्वित करती थी। सुखदा उसका दफ्तर थी, सकीना घर। वहां वह दास था, यहां स्वामी।
उसने साड़ियां उठा लीं और व्यथित कंठ से बोला-अगर यह बात है, तो मैं इन साड़ियों को लिए जाता हूं सकीना लेकिन मैं कह नहीं सकता, मुझे इससे कितना रंज होगा। रहा मेरा आना-जाना, अगर तुम्हारी इच्छा है कि मैं न आऊं, तो मैं भूलकर भी न आऊंगा लेकिन पड़ोसियों की मुझे परवाह नहीं है।
सकीना ने करूण स्वर में कहा-बाबूजी, मैं आपसे हाथ जोड़ती हूं, ऐसी बात मुंह से न निकालिए। जब से आप आने-जाने लगे हैं, मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गई है। मैं अपने दिल में एक ऐसी ताकत, ऐसी उमंग पाती हूं, जिसे एक तरह का नशा कह सकती हूं, लेकिन बदगोई से तो डरना ही पड़ता है।
अमर ने उन्मत्ता होकर कहा-मैं बदगोई से नहीं डरता, सकीना रत्तीह भर भी नहीं।
लेकिन एक ही पल में वह समझ गया-मैं बहका जाता हूं बोला-मगर तुम ठीक कहती हो। दुनिया और चाहे कुछ न करे, बदनाम तो कर ही सकती है।
दोनों एक मिनट शांत बैठे रहे, तब अमर ने कहा-और रूमाल बना लेना। कपड़ों का प्रबंध भी हो रहा है। अच्छा अब चलूंगा। लाओ, साड़ियां लेता जाऊं।
सकीना ने अमर की मुद्रा देखी। मालूम होता था, रोना ही चाहता है। उसके जी में आया, साड़ियां उठाकर छाती से लगा ले, पर संयम ने हाथ न उठाने दिया। अमर ने साड़ियां उठा लीं और लड़खड़ाता हुआ द्वार से निकल गया, मानो अब गिरा, अब गिरा।

भाग 14

अमरकान्त का मन फिर से उचाट होने लगा। सकीना उसकी आंखों में बसी हुई थी। सकीना के ये शब्द उनके कानों में गूंज रहे थे...मेरे लिए दुनिया कुछ और हो गई है। मैं अपने दिल में ऐसी ताकत, ऐसी उमंग पाती हूं इन शब्दों में उसकी पुरुष कल्पना को ऐसी आनंदप्रद उत्तेतजना मिलती थी कि वह अपने को भूल जाता था। फिर दूकान से उसकी रुचि घटने लगी। रमणी की नम्रता और सलज्ज अनुरोध का स्वाद पा जाने के बाद अब सुखदा की प्रतिभा और गरिमा उसे बोझ-सी लगती थी। वहां हरे-भरे पत्तोंै में रूखी-सूखी सामग्री थी यहां सोने-चांदी के थालों में नाना व्यंजन सजे हुए थे। वहां सरल स्नेह था, यहां गर्व का दिखावा था। वह सरल स्नेह का प्रसाद उसे अपनी ओर खींचता था, यह अमीरी ठाट अपनी ओर से हटाता था। बचपन में ही वह माता के स्नेह से वंचित हो गया था। जीवन के पंद्रह साल उसने शुष्क शासन में काटे। कभी मां डांटती, कभी बाप बिगड़ता, केवल नैना की कोमलता उसके भग्न हृदय पर गाहा रखती रहती थी। सुखदा भी आई, तो वही शासन और गरिमा लेकर स्नेह का प्रसाद उसे यहां भी न मिला। वह चिरकाल की स्नेह-त्ष्णा किसी प्यासे पक्षी की भांति, जो कई सरोवरों के सूखे तट से निराश लौट आया हो, स्नेह की यह शीतल छाया देखकर विश्राम और त़प्ति के लोभ से उसकी शरण में आई। यहां शीतल छाया ही न थी, जल भी था, पक्षी यहीं रम जाए तो कोई आश्चर्य है ।

उस दिन सकीना की घोर दरिद्रता देखकर वह आहत हो उठा था। वह विद्रोह जो कुछ दिनों उसके मन में शांत हो गया था फिर दूने वेग से उठा। वह धर्म के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा। धन के इस बंधन का उसे बचपन से ही अनुभव होता आया था। धर्म का बंधन उससे कहीं कठोर, कहीं असहाय, कहीं निरर्थक था। धर्म का काम संसार में मेल और एकता पैदा करना होना चाहिए। यहां धर्म ने विभिन्नता और द्वेष पैदा कर दिया है। क्यों खान-पान में, रस्म-रिवाज में धर्म अपनी टांगें अड़ाता है- मैं चोरी करूं, खून करूं, धोखा दूं, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता। अछूत के हाथ से पानी पी लूं, धर्म छूमंतर हो गया। अच्छा धर्म है हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का संबंध भी नहीं कर सकते- आत्मा को भी धर्म ने बाँध रखा है, प्रेम को भी जकड़ रखा है। यह धर्म नहीं, धर्म का कलंक है।
अमरकान्त इसी उधोड़-बुन में पड़ा रहता। बुढ़िया हर महीने, और कभी-कभी महीने में दो-तीन बार, रूमालों की पोटलियां बनाकर लाती और अमर उसे मुंह मांगे दाम देकर ले लेता। रेणुका, उसको जेब खर्च के लिए जो रुपये देतीं, वह सब-के-सब रूमालों में जाते। सलीम का भी इस व्यवसाय में साझा था। उसके मित्रों में ऐसा कोई न था, जिसने एक-आधा दर्जन रूमाल न लिए हों। सलीम के घर से सिलाई का काम भी मिल जाता। बुढ़िया का सुखदा और रेणुका से भी परिचय हो गया था। चिकन की साड़ियां और चादरें बनाने का काम भी मिलने लगा उस दिन से अमर बुढ़िया के घर न गया। कई बार वह मजबूत इरादा करके चला पर आधो रास्ते से लौट आया।

विद्यालय में एक बार 'धर्म' पर विवाद हुआ। अमर ने उस अवसर पर जो भाषण किया, उसने सारे शहर में धूम मचा दी। वह अब क्रांति ही में देश का उबर समझता था-ऐसी क्रांति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शों का, झूठे सिध्दांतों का, परिपाटियों का अंत कर दे, जो एक नए युग की प्र्रवत्ताक हो, एक नई सृष्टि खड़ी कर दे, जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे, जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकने वाले राज्य के पंजे से मुक्त कर दे। उसके एक-एक अणु से क्रान्ति क्रान्ति ।' की आवाज सदा निकलती रहती थी लेकिन उदार हिन्दू-समाज उस वक्त तक किसी से नहीं बोलता, जब तक उसके लोकाचार पर खुल्लम-खुल्ला आघात न हो। कोई क्रांति नहीं, क्रांति के बाबा का ही उपदेश क्यों न करे, उसे परवाह नहीं होती लेकिन उपदेश की सीमा के बाहर व्यवहार क्षेत्र में किसी ने पांव निकाला और समाज ने उसकी गर्दन पकड़ी। अमर की क्रांति अभी तक व्याख्यानों और लेखों तक सीमित थी। डिग्री की परीक्षा समाप्त होते ही वह व्यवहार-क्षेत्र में उतरना चाहता था। पर अभी परीक्षा को एक महीना बाकी ही था कि एक ऐसी घटना हो गई, जिसने उसे मैदान में आने को मजबूर कर दिया। यह सकीना की शादी थी।

एक दिन संध्याा समय अमरकान्त दूकान पर बैठा हुआ था कि बुढ़िया सुखदा की चिकनी की साड़ी लेकर आई और अमर से बोली-बेटा, अल्ला के गजल से सकीना की शादी ठीक हो गई है आठवीं को निकाह हो जाएगा। और तो मैंने सब सामान जमा कर लिया है पर कुछ रुपयों से मदद करना।
अमर की नाड़ियों में जैसे रक्त न था। हकलाकर बोला-सकीना की शादी ऐसी क्या जल्दी थी-
'क्या करती बेटा, गुजर तो नहीं होता, फिर जवान लड़की बदनामी भी तो है।'
'सकीना भी राजी है?'
बुढ़िया ने सरल भाव से कहा-लड़कियां कहीं अपने मुंह से कुछ कहती हैं बेटा- वह तो नहीं-नहीं किए जाती है।
अमर ने गरजकर कहा-फिर भी तुम शादी किए देती हो- फिर संभलकर बोला- रुपये के लिए दादा से कहो।
'तुम मेरी तरफ से सिफारिश कर देना बेटा, कह तो मैं आप लूंगी।'
'मैं सिफारिश करने वाला कौन होता हूं- दादा तुम्हें जितना जानते हैं, उतना मैं नहीं जानता।'
बुढ़िया को वहीं खड़ी छोड़कर, अमर बदहवास सलीम के पास पहुंचा। सलीम ने उसकी बौखलाई हुई सूरत देखकर पूछा-खैर तो है- बदहवास क्यों हो-
अमर ने संयत होकर कहा-बदहवास तो नहीं हूं। तुम खुद बदहवास होगे।
'अच्छा तो आओ, तुम्हें अपनी ताजी गजल सुनाऊं। ऐसे-ऐसे शैर निकाले हैं कि गड़क न जाओ तो मेरा जिम्मा।'
अमरकान्त की गर्दन में जैसे फांसी पड़ गई, पर कैसे कहे-मेरी इच्छा नहीं है। सलीम ने मतला पढ़ा :
बहला के सवेरा करते हैं इस दिल को उन्हीं की बातों में,
दिल जलता है अपना जिनकी तरह, बरसात की भीगी रातों में।

अमर ने ऊपरी दिल से कहा-अच्छा शेर है।
सलीम हतोत्साह न हुआ। दूसरा शेर पढ़ा :

कुछ मेरी नजर ने उठ के कहा कुछ उनकी नजर ने झुक के कहा,
झगड़ा जो न बरसों में चुकता, तय हो गया बातों-बातों में।

अमर झूम उठा-खूब कहा है भई वाह वाह लाओ कलम चूम लूं। सलीम ने तीसरा शेर सुनाया :

यह यास का सन्नाटा तो न था, जब आस लगाए सुनते थे,
माना कि था धोखा ही धोखा, उन मीठी-मीठी बातों में।


अमर ने कलेजा थाम लिया-गजब का दर्द है भई दिल मसोस उठा।
एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा-इधर एक महीने से सकीना ने कोई रूमाल नहीं भेजा क्या-
अमर ने गंभीर होकर कहा-तुम तो यार, मजाक करते हो। उसकी शादी हो रही है। एक ही हतर्िा और है।
'तो तुम दुल्हिन की तरफ से बारात में जाना। मैं दूल्हे की तरफ से जाऊंगा।'
अमर ने आंखें निकलाकर कहा-मेरे जीते-जी यह शादी नहीं हो सकती। मैं तुमसे कहता हूं सलीम, मैं सकीना के दरवाजे पर जान दे दूंगा, सिर पटक-पटककर मर जाऊंगा।
सलीम ने घबराकर पूछा-यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, भाईजान- सकीना पर आशिक तो नहीं हो गए- क्या सचमुच मेरा गुमान सही था-
अमर ने आंखों में आंसू भरकर कहा-मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरी क्यों ऐसी हालत हो रही है सलीम पर जब से मैंने यह खबर सुनी है मेरे जिगर में जैसे आरा-सा चल रहाहै।
'आखिर तुम चाहते क्या हो- तुम उससे शादी तो नहीं कर सकते।'
'क्यों नहीं कर सकता?'
'बिलकुल बच्चे न बन जाओ। जरा अक्ल से काम लो।'
'तुम्हारी यही तो मंशा है कि वह मुसलमान है, मैं हिन्दू हूं। मैं प्रेम के समने मजहब की हकीकत नहीं समझता, कुछ भी नहीं।'
सलीम ने अविश्वास के भाव से कहा-तुम्हारे खयालात तकरीरों में सुन चुका हूं, अखबारों में पढ़ चुका हूं। ऐसे खयालात बहुत ऊंचे, बहुत पाकीजा, दुनिया में इंकलाब पैदा करने वाले हैं और कितनों ने ही इन्हें जाहिर करके नामवरी हासिल की है, लेकिन इल्मी बहस दूसरी चीज है, उस पर अमल करना दूसरी चीज है। बगावत पर इल्मी बहस कीजिए, लोग शौक से सुनेंगे। बगावत करने के लिए तलवार उठाइए और आप सारी सोसाइटी के दुश्मन हो जाएंगे। इल्मी बहस से किसी को चोट नहीं लगती। बगावत से गरदनें कटती हैं। मगर तुमने सकीना से भी पूछा, वह तुमसे शादी करने पर राजी है-
अमर कुछ झिझका। इस तरफ उसने धयान ही न दिया था। उसने शायद दिल में समझ लिया था, मेरे कहने की देर है, वह तो राजी ही है। उन शब्दों के बाद अब उसे कुछ पूछने की जरूरत न मालूम हुई।
'मुझे यकीन है कि वह राजी है।'
'यकीन कैसे हुआ?'
'उसने ऐसी बातें की हैं, जिनका मतलब इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।'
'तुमने उससे कहा-मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं?'
'उससे पूछने की मैं जरूरत नहीं समझता।'
'तो एक ऐसी बात को, जो तुमसे एक हमदर्द के नाते कही थी, तुमने शादी का वादा समझ लिया। वाह री आपकी अक्ल मैं कहता हूं, तुम भंग तो नहीं खा गए हो, या बहुत पढ़ने से तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है- परी से ज्यादा हसीन बीबी, चांद-सा बच्चा और दुनिया की सारी नेमतों को आप तिलांजलि देने पर तैयार हैं, उस जुलाहे की नमकीन और शायद सलीकेदार छोकरी के लिए तुमने इसे भी कोई तकरीर या मजमून समझ रखा है- सरे शहर में तहलका पड़ जाएगा जनाब, भूचाल आ जाएगा, शहर ही में नहीं, सूबे भर में, बल्कि शुमाली हिन्दोस्तान भर में। आप हैं किस फेर में- जान से हाथ धोना पड़े, तो ताज्जुब नहीं।'
अमरकान्त इन सारी बाधाओं को सोच चुका था। इनसे वह जरा भी विचलित न हुआ था। और अगर इसके लिए समाज उसे दंड देता है, तो उसे परवाह नहीं। वह अपने हक के लिए मर जाना इससे कहीं अच्छा समझता है कि उसे छोड़कर कायरों की जिंदगी काटे। समाज उसकी जिंदगी को तबाह करने का कोई हक नहीं रखता। बोला-मैं यह सब जानता हूं सलीम, लेकिन मैं अपनी आत्मा को समाज का गुलाम नहीं बनाना चाहता। नतीजा जो कुछ भी हो उसके लिए मैं तैयार हूं। यह मुआमला मेरे और सकीना के दरमियान है। सोसाइटी को हमारे बीच में दखल देने का कोई हक नहीं।
सलीम ने संदिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा-सकीना कभी मंजूर न करेगी, अगर उसे तुमसे मुहब्बत है। हां, अगर वह तुम्हारी मुहब्बत का तमाशा देखना चाहती है, तो शायद मंजूर कर ले मगर मैं पूछता हूं, उसमें क्या खूबी है, जिसके लिए तुम खुद इतनी बड़ी कुर्बानी करने और कई जिंदगियों को खाक में मिलाने पर आमादा हो-
अमर को यह बात अप्रिय लगी। मुंह सिकोड़कर बोला-मैं कोई कुर्बानी नहीं कर रहा हूं और न किसी की जिंदगी को खाक में मिला रहा हूं। मैं सिर्फ उस रास्ते पर जा रहा हूं, जिधर मेरी आत्मा मुझे ले जा रही है। मैं किसी रिश्ते या दौलत को अपनी आत्मा के गले की जंजीर नहीं बना सकता। मैं उन आदमियों में नहीं हूं, जो जिंदगी की जंजीरों को ही जिंदगी समझते हैं। मैं जिंदगी की आरजुओं को जिंदगी समझता हूं। मुझे जिंदा रहने के लिए एक ऐसे दिल की जरूरत है, जिसमें आरजुएं हों, दर्द हो, त्याग हो, सौदा हो। जो मेरे साथ रो सकता हो मेरे साथ जल सकता हो। महसूस करता हूं कि मेरी जिंदगी पर रोज-ब-रोज जंग लगता जा रहा है। इन चंद सालों में मेरा कितना ईहानी जवाल हुआ, इसे मैं ही समझता हूं। मैं जंजीरों में जकड़ा जा रहा हूं। सकीना ही मुझे आजाद कर सकती है, उसी के साथ मैं ईहानी बुलंदियों पर उड़ सकता हूं, उसी के साथ मैं अपने को पा सकता हूं। तुम कहते हो-पहले उससे पूछ लो। तुम्हारा खयाल है-वह कभी मंजूर न करेगी। मुझे यकीन है-मुहब्बत जैसी अनमोल चीज पाकर कोई उसे रप्र नहीं कर सकता।
सलीम ने पूछा-अगर वह कहे तुम मुसलमान हो जाओ-
'वह यह नहीं कह सकती।'
'मान लो, कहे।'
'तो मैं उसी वक्त एक मौलवी को बुलाकर कलमा पढ़ लूंगा। मुझे इस्लाम में ऐसी कोई बात नहीं नजर आती, जिसे मेरी आत्मा स्वीकार न करती हो। धर्म-तत्वह सब एक हैं। हजरत मुहम्मद को खुदा का रसूल मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं। जिस सेवा, त्याग, दया, आत्म-शुध्दि पर हिन्दू-धर्म की बुनियाद कायम है, उसी पर इस्लाम की बुनियाद भी कायम है। इस्लाम मुझे बुध्दू और कृष्ण और राम की ताजीम करने से नहीं रोकता। मैं इस वक्त अपनी इच्छा से हिन्दू नहीं हूं बल्कि इसलिए कि हिन्दू घर में पैदा हुआ हूं। तब भी मैं अपनी इच्छा से मुसलमान न हूंगा बल्कि इसलिए कि सकीना की मरजी है। मेरा अपना ईमान यह है कि मजहब आत्मा के लिए बंधन है। मेरी अक्ल जिसे कबूल करे, वही मेरा मजहब है। बाकी खुरागात ।'
सलीम इस जवाब के लिए तैयार न था। इस जवाब ने उसे निश्शस्त्र कर दिया। ऐसे मनोद्गारों ने उसके अंत:करण को कभी स्पर्श न किया था। प्रेम को वह वासना मात्र समझता था। जरा-से उद्गार को इतना वृहद् रूप देना, उसके लिए इतनी कुर्बानियां करना, सारी दुनिया में बदनाम होना और चारों ओर एक तहलका मचा देना, उसे पागलपन मालूम होता था।
उसने सिर हिलाकर कहा-सकीना कभी मंजूर न करेगी।
अमर ने शांत भाव से कहा-तुम ऐसा क्यों समझते हो-
'इसलिए कि अगर उसे जरा भी अक्ल है, तो वह एक खानदान को कभी तबाह न करेगी।'
'इसके यह माने हैं कि उसे मेरे खानदान की मुहब्बत मुझसे ज्यादा है। फिर मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा खानदान क्या तबाह हो जाएगा- दादा को और सुखदा को दौलत मुझसे ज्यादा प्यारी है। बच्चे को तब भी मैं इसी तरह प्यार कर सकता हूं। ज्यादा-से-ज्यादा इतना होगा कि मैं घर में न जाऊंगा और उनके घडे।-मटके न छूऊंगा।'
सलीम ने पूछा-डॉक्टर शान्तिकुमार से भी इसका जिक्र किया है-
अमर ने जैसे मित्र की मोटी अक्ल से हताश होकर कहा-नहीं, मैंने उनसे जिक्र करने की जरूरत नहीं समझी। तुमसे भी सलाह लेने नहीं आया हूं सिर्फ दिल का बोझ हल्का करने के लिए। मेरा इरादा पक्का हो चुका है। अगर सकीना ने मायूस कर दिया, तो जिंदगी का खात्मा कर दूंगा। राजी हुई, तो हम दोनों चुपके से कहीं चले जाएंगे। किसी को खबर भी न होगी। दो-चार महीने बाद घर वालों को सूचना दे दूंगा। न कोई तहलका मचेगा, न कोई तूफान आएगा। यह है मेरा प्रोग्राम। मैं इसी वक्त उसके पास जाता हूं, अगर उसने मंजूर कर लिया, तो लौटकर फिर यहीं आऊंगा, और मायूस किया तो तुम मेरी सूरत न देखोगे।
यह कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ और तेजी से गोवर्धन सराय की तरफ चला। सलीम उसे रोकने का इरादा करके भी न रोक सका। शायद वह समझ गया था कि इस वक्त इसके सिर पर भूत सवार है, किसी की न सुनेगा।
माघ की रात। कड़ाके की सर्दी। आकाश पर धुआं छाया हुआ था। अमरकान्त अपनी धुन में मस्त चला जाता था। सकीना पर क्रोध आने लगा। मुझे पत्र तक न लिखा। एक कार्ड भी न डाला। फिर उसे एक विचित्र भय उत्पन्न हुआ। सकीना कहीं बुरा न मान जाए। उसके शब्दों का आशय यह तो नहीं था कि वह उसके साथ कहीं जाने पर तैयार है। संभव है उसकी रजामंदी से बुढ़िया ने विवाह ठीक किया हो। संभव है, उस आदमी की उसके यहां आमदरर्ति भी हो। वह इस समय वहां बैठा हो। अगर ऐसा हुआ, तो अमर वहां से चुपचाप चला आएगा। बुढ़िया आ गई होगी तो उसके सामने उसे और भी संकोच होगा। वह सकीना से एकांत में वार्तालाप का अवसर चाहता था।
सकीना के द्वार पर पहुंचा, तो उसका दिल धड़क रहा था। उसने एक क्षण कान लगाकर सुना। किसी की आवाज न सुनाई दी। आंगन में प्रकाश था। शायद सकीना अकेली है। मुंह मांगी मुराद मिली। आहिस्ता से जंजीर खटखटाई। सकीना ने पूछकर तुरंत द्वार खोल दिया और बोली-अम्मां तो आप ही के यहां गई हुई हैं। ।
अमर ने खड़े-खड़े जवाब दिया-हां, मुझसे मिली थीं, और उन्होंने जो खबर सुनाई, उसने मुझे दीवाना बना रखा है। अभी तक मैंने अपने दिल का राज तुमसे छिपाया था सकीना, और सोचा था कि उसे कुछ दिन और छिपाए रहूंगा लेकिन इस खबर ने मुझे मजबूर कर दिया है कि तुमसे वह राज कहूं। तुम सुनकर जो फैसला करोगी, उसी पर मेरी जिंदगी का दारोमदार है। तुम्हारे पैरों पर पड़ा हुआ हूं, चाहे ठुकरा दो, या उठाकर सीने से लगा लो। कह नहीं सकता यह आग मेरे दिल में क्योंकर लगी लेकिन जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा, उसी दिन से एक चिंगारी-सी अंदर बैठ गई और अब वह एक शोला बन गई है। और अगर उसे जल्द बुझाया न गया, तो मुझे जलाकर खाक कर देगी। मैंने बहुत जब्त किया है सकीना, घुट-घुटकर रह गया हूं मगर तुमने मना कर दिया था, आने का हौसला न हुआ तुम्हारे कदमों पर मैं अपना सब कुछ कुर्बान कर चुका हूं। वह घर मेरे लिए जेलखाने से बदतर है। मेरी हसीन बीवी मुझे संगमरमर की मूरत-सी लगती है, जिसमें दिल नहीं दर्द नहीं। तुम्हें पाकर मैं सब कुछ पा जाऊंगा ।
सकीना जैसे घबरा गई। जहां उसने एक चुटकी आटे का सवाल किया था, वहां दाता ने ज्योनार का एक भरा थाल लेकर उसके सामने रख दिया। उसके छोटे-से पात्र में इतनी जगह कहां है- उसकी समझ में नहीं आता कि उस विभूति को कैसे समेटे- आंचल और दामन सब कुछ भर जाने पर भी तो वह उसे समेट न सकेगी। आंखें सजल हो गईं, हृदय उछलने लगा। सिर झुकाकर संकोच-भरे स्वर में बोली-बाबूजी, खुदा जानता है, मेरे दिल में तुम्हारी कितनी इज्जत और कितनी मुहब्बत है। मैं तो तुम्हारी एक निगाह पर कुर्बान हो जाती। तुमने तो भिखारिन को जैसे तीनों लोक का राज्य दे दिया लेकिन भिखारिन राज लेकर क्या करेगी- उसे तो एक टुकड़ा चाहिए। मुझे तुमने इस लायक समझा, यही मेरे लिए बहुत है। मैं अपने को इस लायक नहीं समझती। सोचो, मैं कौन हूं- एक गरीब मुसलमान औरत, जो मजदूरी करके अपनी जिंदगी बसर करती है। मुझमें न वह नगासत है, न वह सलीका, न वह इल्म। मैं सुखदादेवी के कदमों की बराबरी भी नहीं कर सकती। मेढ़की उड़कर ऊंचे दरख्त पर तो नहीं जा सकती। मेरे कारण आपकी रूसवाई हो, उसके पहले मैं जान दे दूंगी। मैं आपकी जिंदगी में दाग न लगाऊंगी।
ऐसे अवसरों पर हमारे विचार कुछ कवितामय हो जाते हैं। प्रेम की गहराई कविता की वस्तु है और साधारण बोल-चाल में व्यक्त नहीं हो सकती। सकीना जरा दम लेकर बोली- तुमने एक यतीम, गरीब लड़की को खाक से उठाकर आसमान पर पहुंचाया-अपने दिल में जगह दी-तो मैं भी जब तक जिऊंगी इस मुहब्बत के चिराग को अपने दिल के खून से रोशन रखूंगी।
अमर ने ठंडी सांस खींचकर कहा-इस खयाल से मुझे तस्कीन न होगा, सकीना यह चिराग हवा के झोंके से बुझ जाएगा और वहां दूसरा चिराग रोशन होगा। फिर तुम मुझे कब याद करोगी- यह मैं नहीं देख सकता। तुम इस खयाल को दिल से निकाल डालो कि मैं कोई बड़ा आदमी हूं और तुम बिलकुल नाचीज हो। मैं अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर चुका और मैं तुम्हारे पुजारी के सिवा और कुछ नहीं। बेशक सुखदा तुमसे ज्यादा हसीन है लेकिन तुममें कुछ बात तो है, जिसने मुझे उधर से हटाकर तुम्हारे कदमों पर गिरा दिया। तुम किसी गैर की हो जाओ, यह मैं नहीं सह सकता। जिस दिन यह नौबत आएगी, तुम सुन लोगी कि अमर इस दुनिया में नहीं है अगर तुम्हें मेरी वफा के सबूत की जरूरत हो तो उसके लिए खून की यह बूंदें हाजिर हैं।
यह कहते हुए उसने जेब से छुरी निकाल ली। सकीना ने झपटकर छुरी उसके हाथ से छीन ली और मीठी झिड़की के साथ बोली-सबूत की जरूरत उन्हें होती है, जिन्हें यकीन न हो, जो कुछ बदले में चाहते हों। मैं तो सिर्फ तुम्हारी पूजा करना चाहती हूं। देवता मुंह से कुछ नहीं बोलता तो क्या पुजारी के दिल में उसकी भक्ति कुछ कम होती है- मुहब्बत खुद अपना इनाम है। नहीं जानती जिंदगी किस तरफ जाएगी लेकिन जो कुछ भी हो, जिस्म चाहे किसी का हो जाए, यह दिल हमेशा तुम्हारा रहेगा। इस मुहब्बत की गरज से पाक रखना चाहती हूं। सिर्फ यह यकीन कि मैं तुम्हारी हूं, मेरे लिए काफी है। मैं तुमसे सच कहती हूं प्यारे, इस यकीन ने मेरे दिल को इतना मजबूत कर दिया है कि वह बड़ी-से-बड़ी मुसीबत भी हंसकर झेल सकता है। मैंने तुम्हें यहां आने से रोका था। तुम्हारी बदनामी के सिवा, मुझे अपनी बदनामी का भी खौफ था पर अब मुझे जरा भी खौफ नहीं है। मैं अपनी ही तरफ से बेफिक्र नहीं हूं, तुम्हारी तरफ से भी बेफिक्र हूं। मेरी जान रहते कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता।
अमर की इच्छा हुई कि सकीना को गले लगाकर प्रेम से छक जाए पर सकीना के ऊंचे प्रेमादर्श ने उसे शांत कर दिया। बोला-लेकिन तुम्हारी शादी तो होने जा रही है-
'मैं अब इंकार कर दूंगी।'
'बुढ़िया मान जाएगी?'
'मैं कह दूंगी-अगर तुमने मेरी शादी का नाम भी लिया तो मैं जहर खा लूंगी।'
'क्यों न इसी वक्त हम और तुम कहीं चले जाएं?'
'नहीं, वह जाहिरी मुहब्बत है। असली मुहब्बत वह है, जिसकी जुदाई में भी विसाल है, जहां जुदाई है ही नहीं, जो अपने प्यारे से एक हजार कोस पर होकर भी अपने को उसके गले से मिला हुआ देखती है।'
सहसा पठानिन ने द्वार खोला। अमर ने बात बनाई-मैं तो समझा था, तुम कबकी आ गई होगी। बीच में कहां रह गईं-
बुढ़िया ने खट्टे मन से कहा-तुमने तो आज ऐसा रूखा जवाब दिया भैया, कि मैं रो पड़ी। तुम्हारा ही तो मुझे भरोसा था और तुम्हीं ने मुझे ऐसा जवाब दिया पर अल्लाह का गजल है, बहूजी ने मुझसे वादा किया-जितने रुपये चाहना ले जाना। वहीं देर हो गई। तुम मुझसे किसी बात पर नाराज तो नहीं हो, बेटा-
अमर ने उसकी दिलजोई की-नहीं अम्मां, आपसे भला क्या नाराज होता। उस वक्त दादा से एक बात पर झक-झक हो गई थी उसी का खुमार था। मैं बाद को खुद शमिऊदा हुआ और तुमसे मुआफी मांगने दौड़ा। सारी खता मुआफ करती हो-
बुढ़िया रोकर बोली-बेटा, तुम्हारे टुकड़ों पर तो जिंदगी कटी, तुमसे नाराज होकर खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगी- इस खाल से तुम्हारे पांव की जूतियों बनें, तो भी दरेग न करूं।
'बस, मुझे तस्कीन हो गई अम्मां। इसीलिए आया था।'
अमर द्वार पर पहुंचा, तो सकीना ने द्वार बंद करते हुए कहा-कल जरूर आना।
अमर पर एक गैलन का नशा चढ़ गया-जरूर आऊंगा।
'मैं तुम्हारी राह देखती रहूंगी।'
'कोई चीज तुम्हारी नजर करूं, तो नाराज तो न होगी?'
'दिल से बढ़कर भी कोई नजर हो सकती है?'
'नजर के साथ कुछ शीरीनी होनी जरूरी है।'
'तुम जो कुछ दो, वह सिर-आंखों पर।'
अमर इस तरह अकड़ता हुआ जा रहा था गोया दुनिया की बादशाही पा गया है।
सकीना ने द्वार बंद करके दादी से कहा-तुम नाहक दौड़-धूप कर रही हो अम्मां। मैं शादी न करूंगी।
'तो क्या यों ही बैठी रहेगी?'
'हां, जब मेरी मर्जी होगी, तब कर लूंगी।'
'तो क्या मैं हमेशा बैठी रहूंगी?'
'हां, जब तक मेरी शादी न हो जाएगी, आप बैठी रहेंगी।'
'हंसी मत कर। मैं सब इंतजाम कर चुकी हूं।'
'नहीं अम्मां, मैं शादी न करूंगी और मुझे दिख करोगी तो जहर खा लूंगी। शादी के खयाल से मेरी ईह फना हो जाती है।'
'तुम्हें क्या हो गया सकीना?'
'मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक कोई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से जिंदगी बसर होने का इत्मीनान हो मैं यह दर्द सर नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहां मेरी जिंदगी तल्ख हो जाएगी। शादी की मंशा यह नहीं है कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।'
पठानिन ने अंगीठी के सामने बैठकर सिर पर हाथ रख लिया और सोचने लगी-लड़की कितनी बेशर्म है ।
सकीना बाजरे की रोटियां मसूर की दाल के साथ खाकर, टूटी खाट पर लेटी और पुराने गटे हुए लिहाफ में सर्दी के मारे पांव सिकोड़ लिए, पर उसका हृदय आनंद से परिपूर्ण था। आज उसे जो विभूति मिली थी, उसके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी, नगण्य थी।

भाग 15

अमरकान्त के जीवन में एक नई स्फूनर्ति का संचार होने लगा। अब तक घरवालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़े में न वह दम रहा, न वह उत्साह लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा देता था उसकी गर्दन पर हाथ फेरता था। जहां उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक शुष्क उदासीनता थी, वहां अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दों को जिला सकता है। उसकी साधन, जो बंधनों में पड़कर संकुचित हो गई थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गई है अपने अंदर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पाई थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत से उसकी साधन को सींचती रहती है यह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती पर उसका प्रेम उसऋषि का वरदान है जो आप भिक्षा मांगकर भी दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उप्रण्डता भी नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की जरूरत नहीं होती। वह जमीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की जरूरत नहीं।
डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अध्यापकों को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहां तक कि डॉ. शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया पर वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है-हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई, तो कागज की डिग्री व्यर्थ है। उसे इस शिक्षा ही से घृणा हो गई थी। जब वह अपने अध्यापकों को ट़यूशन की गुलामी करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी, और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट' की बागडोर है। यही कौम के विधाता हैं। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुजर करती है। एक साधारण आदमी को साल-भर में पचास से ज्यादा नहीं मिलते। हमारे अध्यापकों को पचास रुपये रोज चाहिए। तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरूजन झोंपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट' से कम-से-कम लेकर अधिक-से-अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे और एक यह अध्यापक हैं, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज्य-कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वही दंभ है, वही धन-मद है, वही अधिकार-मद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं, और हमारे अध्यापक उसी राज्य के अंश हैं। ये खुद अंधकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलाएंगे- वे आप अपने मनोविकारों के कैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं, और अपने शिष्यों को भी उसी कैद और गुलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना फिर अतीत का स्वप्न देखने लगती। परिस्थतियों को वह बिलकुल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट' के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अध्यापक झोंपडी में रहने वाले बल्कलधारी, कंदमूल-फल-भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित, न यह आए दिन के टंटे, न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरत क्या- यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए- ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिरोह का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाइयों को मोटर चाहिए, बंगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है, ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें ।

यही भावनाएं अमर के अंतस्थल में लहरों की भांति उठती रहती थीं।

वह प्रात:काल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुंच जाता और दोपहर तक वहां लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बंगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फीस बिलकुल न ली जाती थी फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहां फीस और जुर्माने और चंदों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहां कोई झांकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो कैसे वे साहसी, संतोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौंदर्य-बोध जो मानव-प्रकृति का प्रधन अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाए, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएं, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गई थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा-आप आखिर कब तक प्रो्रेसरी करते चले जाएंगे- जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता ।
शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा-मैं खुद यही सोच रहा हूं भई पर सोचता हूं, रुपये कहां से आएंगे- कुछ खर्च नहीं है, तो भी पांच सौ में तो संदेह है ही नहीं।
'आप इसकी चिंता न कीजिए। कहीं-न-कहीं से रुपये आ ही जाएंगे। फिर रुपये की जरूरत क्या है?'
'मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं, और बीसों ही खर्च हैं। क्या-क्या गिनाऊं?'
'हम किसी वृक्ष के नीचे तो लड़कों को पढ़ा सकते हैं।'
'तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद खयाली पुलाव है।'
अमर ने चकित होकर कहा-मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।
शान्तिकुमार ने मानो इस चोट को ढाल पर रोककर कहा-मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान है।
'इसका अर्थ यह है कि आप गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज करते हैं।'
'जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें, तुम्हीं सोचो, मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूं- पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालने का दायित्व मुझ पर है। इसके बंद हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थायी प्रबंध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफा दे सकता हूं लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी नहीं हूं।'
अमरकान्त ने अभी सिध्दांत से समझौता करना न सीखा था। कार्यक्षेत्र में कुछ दिन रह जाने और संसार के कडुवे अनुभव हो जाने के बाद हमारी प्रकृति में जो ढीलापन आ जाता है, उस परिस्थिति में वह न पड़ा था। नवदीक्षितों को सिध्दांत में जो अटल भक्ति होती है वह उसमें भी थी। डॉक्टर साहब में उसे जो श्रध्दा थी, उसे जोर का धक्का लगा। उसे मालूम हुआ कि यह केवल बातों के वीर हैं, कहते कुछ हैं करते कुछ हैं। जिसका खुले शब्दों में यह आशय है कि यह संसार को धोखा देते हैं। ऐसे मनुष्य के साथ वह कैसे सहयोग कर सकता है-
उसने जैसे धमकी दी-तो आप इस्तीफा नहीं दे सकते-
'उस वक्त तक नहीं, जब तक धन का कोई प्रबंध न हो।'
'तो ऐसी दशा में मैं यहां काम नहीं कर सकता।'
डॉक्टर साहब ने नम्रता से कहा-देखो अमरकान्त, मुझे संसार का तुमसे ज्यादा तजुर्बा है, मेरा इतना जीवन नए-नए परीक्षणों में ही गुजरा है। मैंने जो तत्वा निकाला है, यह है कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम मुझे जो चाहे समझो पर एक समय आएगा, जब तुम्हारी आंखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्व आदर्श से जौ-भर भी कम नहीं।
अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हुए कहा-मैदान में मर जाना मैदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है। और उसी वक्त वहां से चल दिया।
पहले सलीम से मुठभेड़ हुई। सलीम इस शाला को मदारी का तमाशा कहा करता था, जहां जादू की लकड़ी छुआ देने ही से मिट्टी सोना बन जाती है। वह एमए की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कोई अच्छा सरकारी पद पा जाए और चैन से रहे। सुधार और संगठन और राष्ट्री य आंदोलन से उसे विशेष प्रेम न था। उसने यह खबर सुनी तो खुश होकर कहा-तुमने बहुत अच्छा किया, निकल आए। मैं डॉक्टर साहब को खूब जानता हूं, वह उन लोगों में हैं, जो दूसरों के घर में आग लगाकर अपना हाथ सेंकते हैं। कौम के नाम पर जान देते हैं, मगर जबान से।
सुखदा भी खुश हुई। अमर का शाला के पीछे पागल हो जाना उसे न सोहाता था। डॉक्टर साहब से उसे चिढ़ थी। वही अमर को उंगलियों पर नचा रहे हैं। उन्हीं के फेर में पड़कर अमर घर से उदासीन हो गया है।
पर जब संध्यार समय अमर ने सकीना से जिक्र किया, तो उसने डॉक्टर का पक्ष लिया-मैं समझती हूं, डॉक्टर साहब का खयाल ठीक है। भूखे पेट खुदा की याद भी नहीं हो सकता। जिसके सिर रोजी की फिक्र सवार है, वह कौम की क्या खिदमत करेगा, और करेगा तो अमानत में खयानत करेगा। आदमी भूखा नहीं रह सकता। फिर मदरसे का खर्च भी तो है। माना कि दरख्तों के नीचे ही मदरसा लगे लेकिन वह बाग कहां है- कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहां लड़के बैठकर पढ़ सकें। लड़कों को किताबें, कागज चाहिए, बैठने को गर्श चाहिए, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चंदे से आए, या कोई कमाकर दे। सोचो, जो आदमी अपने उसूल के खिलाग नौकरी करके एक काम की बुनियाद डालता है वह उसके लिए कितनी कुरबानी कर रहा है तुम अपने वक्त की कुरबानी करते हो। वह अपने जमीर तक की कुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज्यादा इज्जत के लायक समझती हूं।
पठानिन ने कहा-तुम इस छोकरी की बातों में न आ जाना बेटा, जाकर घर का धंधा देखो, जिससे गृहस्थी का निर्वाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज्जत दी है, मर्तबा दिया है, बाल-बच्चे दिए हैं। तुम इन खुरागातों में न पड़ो।
अमर को अब टोपियां बेचने से फुर्सत मिल गई थी। बुढ़िया को रेणुकादेवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज्यादा मिल जाता था कि टोपियां कौन काढ़ता- सलीम के घर से कोई-न-कोई काम आता ही रहता था। उसके जरिए से और घरों से भी काफी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ खुशहाली नजर आती थी। घर की पुताई हो गई थी, द्वार पर नया परदा पड़ गया था, दो खाटें नई आ गई थीं, खाटों पर दरियां भी नई थीं, कई बरतन नए आ गए थे। कपड़े-लत्तो की भी कोई शिकायत न थी। उर्दू का एक अखबार भी खाट पर रखा हुआ था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इससे ज्यादा समृ' िन हुई थी। बस, उसे अगर कोई गम था, तो यह कि सकीना शादी करने पर राजी न होती थी।
अमर यहां से चला, तो अपनी भूल पर लज्जित था। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शांत कर दी थी। डॉक्टर साहब से उसकी श्रध्दा फिर उतनी ही गहरी हो गई थी। सकीना की बुध्दिमत्ताा, विचार-सौष्ठव, सूझ और निर्भीकता ने तो चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपनी नम्रता और मधुरता से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुध्दिमान् और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या हूं-
डॉक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा-तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दूं- वास्तव में मैंने इस्तीफा लिख रखा है और कल दे दूंगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी न कर सकूंगा। तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठंडे दिल से सोचा तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ हूं। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्यसमाज की बुनियाद डाली-
अमरकान्त भी मुस्कराया-नहीं, मैंने ठंडे दिल से सोचा तो मालूम हुआ कि मैं गलती पर था। जब तक रुपये का कोई माकूल इंतजाम न हो जाए, आपको इस्तीफा देने की जरूरत नहीं।
डॉक्टर साहब ने विस्मय से कहा-तुम व्यंग्य कर रहे हो-
'नहीं, मैंने आपसे बेअदबी की थी उसे क्षमा कीजिए।'

भाग 16

इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेंबर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धोला भी नहीं खर्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुकाबले में एक नामी वकील साहब खड़े थे। उन्हें उसके चौथाई वोट भी न मिले। सुखदा और लाला समरकान्त दोनों ही ने उसे मना किया था। दोनों ही उसे घर के कामों में फंसाना चाहते थे। अब वह पढ़ना छोड़ चुका था और लालाजी उसके माथे सारे भार डालकर खुद अलग हो जाना चाहते थे। इधर-उधर के कामों में पड़कर वह घर का काम क्या कर सकेगा। एक दिन घर में छोटा-मोटा तूफान आ गया। लालाजी और सुखदा एक तरफ थे, अमर दूसरी तरफ और नैना मधयस्थ थी।
लालाजी ने तोंद पर हाथ फेरकर कहा-धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। भोर से पाठशाला जाओ, सांझ हो तो कांग्रेस में बैठो अब यह नया रोग और बेसाहने को तैयार हो। घर में लगा दो आग ।
सुखदा ने समर्थन किया-हां, अब तुम्हें घर का काम-धंधा देखना चाहिए या व्यर्थ के कामों में फंसना- अब तक तो यह था कि पढ़ रहे हैं। अब तो पढ़-लिख चुके हो। अब तुम्हें अपना घर संभालना चाहिए। इस तरह के काम तो वे उठावें, जिनके घर दो-चार आदमी हों। अकेले आदमी को घर से ही फुर्सत नहीं मिल सकती। ऊपर के काम कहां से करे-
अमर ने कहा-जिसे आप लोग रोग और ऊपर का काम और व्यर्थ का झंझट कह रहे हैं, मैं उसे घर के काम से कम जरूरी नहीं समझता। फिर जब तक आप हैं, मुझे क्या चिंता- और सच तो यह है कि मैं इस काम के लिए बनाया ही नहीं गया। आदमी उसी काम में सफल होता है, जिसमें उसका जी लगता हो। लेन-देन, बनिज-व्यापार में मेरा जी बिलकुल नहीं लगता। मुझे डर लगता है कि कहीं बना-बनाया काम बिगाड़ न बैठूं।
लालाजी को यह कथन सारहीन जान पड़ा। उनका पुत्र बनिज-व्यवसाय के काम में कच्चा हो, यह असंभव था। पोपले मुंह से पान चबाते हुए बोले-यह सब तुम्हारी मुटमरदी है। और कुछ नहीं, मैं न होता, तो तुम क्या अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण न करते- तुम मुझी को पीसना चाहते हो। एक लड़के वह होते हैं, जो घर संभालकर बाप को छुट्टी देते हैं। एक तुम हो कि बाप की हड़डियां तक नहीं छोड़ना चाहते।
बात बढ़ने लगी। सुखदा ने मामला गर्म होते देखा, तो चुप हो गई। नैना उंगलियों से दोनों कान बंद करके घर में आ बैठी। यहां दोनों पहलवानों में मल्लयु' होता रहा। युवक में चुस्ती थी, फुर्ती थी, लचक थी बूढ़े में पेंच था, दम था, रोब था। पुराना फिकैत बार-बार उसे दबाना चाहता था पर जवान पट्ठा नीचे से सरक जाता था। कोई हाथ, कोई घात न चलता था।
अंत में लालाजी ने जामे से बाहर होकर कहा-तो बाबा, तुम अपने बाल-बच्चे लेकर अलग हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं संभाल सकता। इस घर में रहोगे, तो किराया और घर में जो कुछ खर्च पड़ेगा उसका आधा चुपके से निकालकर रख देना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी जिंदगी भर का ठेका नहीं लिया है। घर को अपना समझो, तो तुम्हारा सब कुछ है। ऐसा नहीं समझते, तो यहां तुम्हारा कुछ नहीं है। जब मैं मर जाऊं, तो जो कुछ हो आकर ले लेना।
अमरकान्त पर बिजली-सी गिर पड़ी। जब तक बालक न हुआ था और वह घर से फटा-फटा रहता था, तब उसे आघात की शंका दो-एक बार हुई थी, पर बालक के जन्म के बाद से लालाजी के व्यवहार और स्वभाव में वात्सल्य की स्निग्धता आ गई थी। अमर को अब इस कठोर आघात की बिलकुल शंका न रही थी। लालाजी को जिस खिलौने की अभिलाषा थी, उन्हें वह खिलौना देकर अमर निश्चिंित हो गया था, पर आज उसे मालूम हुआ वह खिलौना माया की जंजीरों को तोड़ न सका।
पिता पुत्र की टालमटोल पर नाराज हो घुड़के-झिड़के, मुंह फुलाए, यह तो उसकी समझ में आता था, लेकिन पिता पुत्र से घर का किराया और रोटियों का खर्च मांगे, यह तो माया-लिप्सा की-निर्मम माया-लिप्सा की-पराकाष्ठा थी। इसका एक ही जवाब था कि वह आज ही सुखदा और उसके बालक को लेकर कहीं और जा टिके। और फिर पिता से कोई सरोकार न रखे। और अगर सुखदा आपत्ति करे तो उसे भी तिलांजलि दे दे।
उसने स्थिर भाव से कहा-अगर आपकी यही इच्छा है तो यही सही।
लालाजी ने कुछ खिसियाकर पूछा-सास के बल पर कूद रहे होगे -
अमर ने तिरस्कार भरे स्वर में कहा-दादा, आप घाव पर नमक न छिड़कें। जिस पिता ने जन्म दिया, जब उसके घर में मेरे लिए स्थान नहीं है, तो क्या आप समझते हैं मैं सास और ससुर की रोटियां तोडूंगा- आपकी दया से इतना नीच नहीं हूं। मैं मजदूरी कर सकता हूं और पसीने की कमाई खा सकता हूं। मैं किसी प्राणी से दया की भिक्षा मांफना अपने आत्म-सम्मान के लिए घातक समझता हूं। ईश्वर ने चाहा तो मैं आपको दिखा दूंगा कि मैं मजदूरी करके भी जनता की सेवा कर सकता हूं।
समरकान्त ने समझा, अभी इसका नशा नहीं उतरा। महीना गृहस्थी के चरखे में पड़ेगा तो आंखें खुल जाएंगी। चुपचाप बाहर चले गए। और अमर उसी वक्त एक मकान की तलाश करने चला।
उसके चले जाने के बाद लालाजी फिर अंदर गए। उन्हें आशा थी कि सुखदा उनके घाव पर मरहम रखेगी पर सुखदा उन्हें अपने द्वार के सामने देखकर भी बाहर न निकली। कोई पिता इतना कठोर हो सकता है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी। आखिर यह लाखों की संपत्ति किस काम आएगी - अमर घर के काम-काज से अलग रहता है, यह सुखदा को खुद बुरा मालूम होता था। लालाजी इसके लिए पुत्र को ताड़ना देते हैं, यह भी उचित ही था लेकिन घर का और भोजन का खर्च मांफना यह तो नाता ही तोड़ना था। तो जब वह नाता तोड़ते हैं तो वह रोटियों के लिए उनकी खुशामद न करेगी। घर में आग लग जाए, उससे कोई मतलब नहीं। उसने अपने सारे गहने उतार डाले। आखिर यह गहने भी तो लालाजी ही ने दिए हैं। मां की दी हुई चीजें भी उतार फेंकी। मां ने भी जो कुछ दिया था, दहेज की पुरौती ही में तो दिया था। उसे भी लालाजी ने अपनी बही में टांक लिया होगा। वह इस घर से केवल एक साड़ी पहनकर जाएगी। भगवान् उसके मुन्ने को कुशल से रखें, उसे किसी की क्या परवाह यह अमूल्य रत्न तो कोई उससे छीन नहीं सकता।
अमर के प्रति इस समय उसके मन में सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हुई। आखिर म्युनिसिपैलिटी के लिए खड़े होने में क्या बुराई थी- मान और प्रतिष्ठा किसे प्यारी नहींहोती - इसी मेंबरी के लिए लोग लाखों खर्च करते हैं। क्या वहां जितने मेंबर हैं, वह सब घर के निखट्टू ही हैं - कुछ नाम करने की, कुछ काम करने की लालसा प्राणी मात्र को होती है। अगर वह स्वार्थ साधन पर अपना समर्पण नहीं करते, तो कोई ऐसा काम नहीं करते, जिसका यह दंड दिया जाए। कोई दूसरा आदमी पुत्र के इस अनुराग पर अपने को धन्य मानता, अपने भाग्य को सराहता।
सहसा अमर ने आकर कहा-तुमने आज दादा की बातें सुन लीं - अब क्या सलाह है -
'सलाह क्या है, आज ही यहां से विदा हो जाना चाहिए। यह फटकार पाने के बाद तो मैं इस घर में पानी पीना हराम समझती हूं। कोई घर ठीक कर लो।'
'वह तो ठीक कर आया। छोटा-सा मकान है, साफ-सुथरा, नीचीबाग में। दस रुपये किराया है।'
'मैं भी तैयार हूं।'
'तो एक तांगा लाऊं ?'
'कोई जरूरत नहीं। पांव-पांव चलेंगे।'
'संदूक, बिछावन यह सब तो ले चलना ही पड़ेगा ?'
'इस घर में हमारा कुछ नहीं है। मैंने तो सब गहने भी उतार दिए। मजदूरों की स्त्रियां गहने पहनकर नहीं बैठा करतीं।'
स्त्री कितनी अभिमानिनी है, यह देखकर अमरकान्त चकित हो गया। बोला-लेकिन गहने तो तुम्हारे हैं। उन पर किसी का दावा नहीं है। फिर आधो से ज्यादा तो तुम अपने साथ लाई थीं।
'अम्मां ने जो कुछ दिया, दहेज की पुरौती में दिया। लालाजी ने जो कुछ दिया, वह यह समझकर दिया कि घर ही में तो है। एक-एक चीज उनकी बही में दर्ज है। मैं गहनों को भी दया की भिक्षा समझती हूं। अब तो हमारा उसी चीज पर दावा होगा, जो हम अपनी कमाई से बनवाएंगे।'
अमर गहरी चिंता में डूब गया। यह तो इस तरह नाता तोड़ रही है कि एक तार भी बाकी न रहे। गहने औरतों को कितने प्रिय होते हैं, यह वह जानता था। पुत्र और पति के बाद अगर उन्हें किसी वस्तु से प्रेम होता है, तो वह गहने हैं। कभी-कभी तो गहनों के लिए वह पुत्र और पति से भी तन बैठती हैं। अभी घाव ताजा है, कसक नहीं है। दो-चार दिन के बाद यह वित़ष्णात जलन और असंतोष के रूप में प्रकट होगी। फिर तो बात-बात पर ताने मिलेंगे, बात-बात पर भाग्य का रोना होगा। घर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
बोला-मैं तो यह सलाह दूंगा सुखदा, जो चीज अपनी है, उसे अपने साथ ले चलने में मैं कोई बुराई नहीं समझता।
सुखदा ने पति को सगर्व दृष्टि से देखकर कहा-तुम समझते होगे, मैं गहनों के लिए कोने में बैठकर रोऊंगी और अपने भाग्य को कोसूंगी। स्त्रियां अवसर पड़ने पर कितना त्याग कर सकती हैं, यह तुम नहीं जानते। मैं इस फटकार के बाद इन गहनों की ओर ताकना भी पाप समझती हूं, इन्हें पहनना तो दूसरी बात है। अगर तुम डरते हो कि मैं कल ही से तुम्हारा सिर खाने लगूंगी, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि अगर गहनों का नाम मेरी जबान पर आए, तो जबान काट लेना। मैं यह भी कहे देती हूं कि मैं तुम्हारे भरोसे पर नहीं जा रही हूं। अपनी गुजर भर को आप कमा लूंगी। रोटियों में ज्यादा खर्च नहीं होता। खर्च होता है आडंबर में। एक बार अमीरी की शान छोड़ दो, फिर चार आने पैसे में काम चलता है।
नैना भाभी को गहने उतारकर रखते देख चुकी थी। उसके प्राण निकले जा रहे थे कि अकेली इस घर में कैसे रहेगी- बच्चे के बिना तो वह घड़ी भर भी नहीं रह सकती। उसे पिता, भाई, भावज सभी पर क्रोध आ रहा था। दादा को क्या सूझी- इतना धन तो घर में भरा हुआ है, वह क्या होगा- भैया ही घड़ी भर दूकान पर बैठ जाते, तो क्या बिगड़ जाता था- भाभी को भी न जाने क्या सनक सवार हो गई। वह न जातीं, तो भैया दो-चार दिन में फिर लौट ही आते। भाभी के साथ वह भी चली जाए, तो दादा को भोजन कौन देगा- किसी और के हाथ का बनाया खाते भी तो नहीं। वह भाभी को समझाना चाहती थी पर कैसे समझाए- यह दोनों तो उसकी तरफ आंखें उठाकर देखते भी नहीं। भैया ने अभी से आंखें फेर लीं। बच्चा भी कैसा खुश है- नैना के दु:ख का पारावार नहीं है ।
उसने जाकर बाप से कहा-दादा, भाभी तो सब गहने उतारकर रखे देती हैं।
लालाजी चिंतित थे। कुछ बोले नहीं। शायद सुना ही नहीं।
नैना ने जरा और जोर से कहा-भाभी अपने सब गहने उतारकर रखे देती हैं।
लालाजी ने अनमने भाव से सिर उठाकर कहा-गहने क्या कर रही हैं-
'उतार-उतार कर रखे देती हैं।'
'तो मैं क्या करूं?'
'तुम जाकर उनसे कहते क्यों नहीं?'
'वह नहीं पहनना चाहती, तो मैं क्या करूं ।'
'तुम्हीं ने उनसे कहा होगा, गहने मत ले जाना। क्या तुम उनके ब्याह के गहने भी ले लोगे?'
'हां, मैं सब ले लूंगा। इस घर में उसका कुछ भी नहीं है।'
'यह तुम्हारा अन्याय है।'
'जा अंदर बैठ, बक-बक मत कर ।'
'तुम जाकर उन्हें समझाते क्यों नहीं?'
'तुझे बड़ा दर्द आ रहा है, तू ही क्यों नहीं समझाती?'
'मैं कौन होती हूं समझाने वाली- तुम अपने गहने ले रहे हो, तो वह मेरे कहने से क्यों पहनने लगीं?'
दोनों कुछ देर तक चुपचाप रहे। फिर नैना ने कहा-मुझसे यह अन्याय नहीं देखा जाता। गहने उनके हैं। ब्याह के गहने तुम उनसे नहीं ले सकते।
'तू यह कानून कब से जान गई।'
'न्याय क्या है और अन्याय क्या है, यह सिखाना नहीं पड़ता। बच्चे को भी बेकसूर सजा दो तो वह चुपचाप न सहेगा।'
'मालूम होता है, भाई से यही विद्या सीखती है।'
'भाई से अगर न्याय-अन्याय का ज्ञान सीखती हूं, तो कोई बुराई नहीं।'
'अच्छा भाई, सिर मत खा, कह दिया अंदर जा। मैं किसी को मनाने-समझाने नहीं जाता। मेरा घर है, इसकी सारी संपदा मेरी है। मैंने इसके लिए जान खपाई है। किसी को क्यों ले जाने दूं?'
नैना ने सहसा सिर झुका लिया और जैसे दिल पर जोर डालकर कहा-तो फिर मैं भी भाभी के साथ चली जाऊंगी।
लालाजी की मुद्रा कठोर हो गई-चली जा, मैं नहीं रोकता। ऐसी संतान से बेसंतान रहना ही अच्छा। खाली कर दो मेरा घर, आज ही खाली कर दो। खूब टांगें फैलाकर सोऊंगा। कोई चिंता तो न होगी। आज यह नहीं है, आज वह नहीं है, यह तो न सुनना पड़ेगा। तुम्हारे रहने से कौन सुख था मुझे-
नैना लाल आंखें किए सुखदा से जाकर बोली-भाभी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी।
सुखदा ने अविश्वास के स्वर में कहा-हमारे साथ हमारा तो अभी कहीं घर-द्वार नहीं है। न पास पैसे हैं, न बरतन-भांडे, न नौकर-चाकर। हमारे साथ कैसे चलोगी- इस महल में कौन रहेगा-
नैना की आंखें भर आईं-जब तुम्हीं जा रही हो, तो मेरा यहां क्या है-
पगली सिल्लो आई और ठट्ठा मारकर बोली-तुम सब जने चले जाओ, अब मैं इस घर की रानी बनूंगी। इस कमरे में इसी पलंग पर मजे से सोऊंगी। कोई भिखारी द्वार पर आएगा तो झाडू लेकर दौड़ूंगी।
अमर पगली के दिल की बात समझ रहा था पर इतना बड़ा खटला लेकर कैसे जाए घर में एक ही तो रहने लायक कोठरी है। वहां नैना कहां रहेगी और यह पगली तो जीना मुहाल कर देगी। नैना से बोला-तुम हमारे साथ चलोगी, तो दादा का खाना कौन बनाएगा, नैना- फिर हम कहीं दूर तो नहीं जाते। मैं वादा करता हूं, एक बार रोज तुमसे मिलने आया करूंगा। तुम और सिल्लो दोनों रहो। हमें जाने दो।
नैना रो पड़ी-तुम्हारे बिना मैं इस घर में कैसे रहूंगी भैया, सोचो दिन-भर पड़े-पड़े क्या करूंगी- मुझसे तो छिन भर भी न रहा जाएगा। मुन्ने की याद कर-करके रोया करूंगी। देखते हो भाभी, मेरी ओर ताकता भी नहीं।
अमर ने कहा-तो मुन्ने को छोड़ जाऊं- तेरे ही पास रहेगा।
सुखदा ने विरोध किया-वाह कैसी बात कर रहे हो- रो-रोकर जान दे देगा। फिर मेरा जी भी तो न मानेगा।
शाम को तीनों आदमी घर से निकले। पीछे-पीछे सिल्लो भी हंसती हुई चली जाती थी। सामने के दूकानदार ने समझा, कहीं नेवते जाती हैं पर क्या बात है, किसी के देह पर छल्ला भी नहीं न चादर, न धराऊ कपड़े ।
लाला समरकान्त अपने कमरे में बैठे हुक्का पी रहे थे। आंखें उठाकर भी न देखा। एक घंटे के बाद वह उठे, घर में ताला डाल दिया और फिर कमरे में आकर लेट रहे।
एक दूकानदार ने आकर पूछा-भैया और बीवी कहां गए, लालाजी-
लालाजी ने मुंह फेरकर जवाब दिया-मुझे नहीं मालूम-मैंने सबको घर से निकाल दिया। मैंने धन इसलिए नहीं कमाया है कि लोग मौज उड़ाएं। जो धन को मिट्टी समझे, उसे धन का मूल्य सीखना होगा। मैं आज भी अट्ठारह घंटे रोज काम करता हूं। इसलिए नहीं कि लड़के धन को मिट्टी समझें। मेरी ही गोद के लड़के मुझे ही आंखें दिखाएं। धन का धन दूं, ऊपर से धौंस भी सुनूं। बस, जबान न खोलूं, चाहे कोई घर में आग लगा दे। घर का काम चूल्हे में जाए, तुम्हें सभाओं में, जलसों में आनंद आता है, तो जाओ, जलसों से अपना निबाह भी करो। ऐसों के लिए मेरा घर नहीं। लड़का वही है, जो कहना सुने। जब लड़का अपने मन का हो गया तो कैसा लड़का ।
रेणुका को ज्योंही सल्लो ने खबर दी, वह बदहवास दौड़ी आईं, मानो बेटी और दामाद पर कोई बड़ा संकट आ गया है। वह क्या गैर थीं, उनसे क्या कोई नाता ही नहीं- उनको खबर तक न दी और अलग मकान ले लिया। वाह यह भी कोई लड़कों का खेल है। दोनों बिलल्ले। छोकरी तो ऐसी न थी, पर लौंडे के साथ उसका भी सिर फिर गया।
रात के आठ बज गए थे। हवा अभी तक गर्म थी। आकाश के तारे गर्द से धुंधले हो रहे थे। रेणुका पहुंचीं, तो तीनों निकलुए कोठे की एक चारपाई पर बराबर छत पर मन मारे बैठे थे। सारे घर में अंधकार छाया हुआ था। बेचारों पर गृहस्थी की नई विपत्तिा पड़ी थी। पास एक पैसा नहीं। कुछ न सूझता था, क्या करें।
अमर ने उन्हें देखते ही कहा-अरे तुम्हें कैसे खबर मिल गई अम्मांजी अच्छा, इस चुड़ैल सिल्लो ने जाकर कहा होगा। कहां है अभी खबर लेता हूं ।
रेणुका अंधोरे में जीने पर चढ़ने से हांग गई थीं। चादर उतारती हुई बोलीं-मैं क्या दुश्मन थी कि मुझसे उसने कह दिया तो बुराई की- क्या मेरा घर न था, या मेरे घर रोटियां न थीं- मैं यहां एक क्षण-भर तो रहने न दूंगी। वहां पहाड़-सा घर पड़ा हुआ है, यहां तुम सब-के-सब एक बिल में घुसे बैठे हो। उठो अभी। बच्चा मारे गर्मी के कुम्हला गया होगा। यहां खाटें भी तो नहीं हैं और इतनी-सी जगह में सोओगे कैसे- तू तो ऐसी न थी सुखदा, तुझे क्या हो गया- बड़े-बूढ़े दो बात कहें, तो गम खाना होता है कि घर से निकल खड़े होते हैं- क्या इनके साथ तेरी बुध्दि भी भ्रष्ट हो गई-
सुखदा ने सारा वृतांत कह सुनाया और इस ढंग से कि रेणुका को भी लाला समरकान्त की ही ज्यादती मालूम हुई। उन्हें अपने धन का घमंड है तो उसे लिए बैठे रहें। मरने लगें, तो साथ लेते जाएं ।
अमर ने कहा-दादा को यह खयाल न होगा कि ये सब घर से चले जाएंगे।
सुखदा का क्रोध इतनी जल्द शांत होने वाला न था। बोली-चलो, उन्होंने साफ कहा, यहां तुम्हारा कुछ नहीं है। क्या वह एक दफे भी आकर न कह सकते थे, तुम लोग कहां जा रहे हो- हम घर से निकले। वह कमरे में बैठे टुकुर-टुकुर देखा किए। बच्चे पर भी उन्हें दया न आई। जब इतना घमंड है, तो यहां क्या आदमी ही नहीं हैं- वह अपना महल लेकर रहें, हम अपनी मेहनत-मजूरी कर लेंगे। ऐसा लोभी आदमी तुमने कभी देखा था अम्मां, बीवी गईं, तो इन्हें भी डांट बतलाईं। बेचारी रोती चली आईं।
रेणुका ने नैना का हाथ पकड़कर कहा-अच्छा, जो हुआ अच्छा ही हुआ, चलो देर हो रही है। मैं महराजिन से भोजन को कह आई हूं। खाटें भी निकलवा आई हूं। लाला का घर न उजड़ता, तो मेरा कैसे बसता-
नीचे प्रकाश हुआ। सिल्लो ने कड़वे तेल का चिराग जला दिया था। रेणुका को यहां पहुंचाकर बाजार दौड़ी गई। चिराग, तेल और एक झाडू लाई। चिराग जलाकर घर में झाडू लगा रही थी।
सुखदा ने बच्चे को रेणुका की गोद में देकर कहा-आज तो क्षमा करो अम्मां, फिर आगे देखा जाएगा। लालाजी को यह कहने का मौका क्यों दें कि आखिर ससुराल भागा। उन्होंने पहले ही तुम्हारे घर का द्वार बंद कर दिया है। हमें दो-चार दिन यहां रहने दो, फिर तुम्हारे पास चले जाएंगे। जरा हम देख तो लें, अपने बूते पर रह सकते हैं या नहीं-
अमर की नानी मर रही थी। अपने लिए तो उसे चिंता न थी। सलीम या डॉक्टर के यहां चला जाएगा। यहां सुखदा और नैना दोनों बे-खाट के कैसे सोएंगी- कल ही कहां से धन बरस जाएगा- मगर सुखदा की बात की बात कैसे काटे।
रेणुका ने बच्चे की मुच्छियां लेकर कहा-भला, देख लेना जब मैं मर जाऊं। अभी तो मैं जीती ही हूं। वह घर भी तो तेरा ही है। चल जल्दी कर।
सुखदा ने दृढ़ता से कहा-अम्मां, जब तक हम अपनी कमाई से अपना निबाह न करने लगेंगे, तब तक तुम्हारे यहां न जाएंगे जाएंगे पर मेहमान की तरह। घंटे-दो घंटे बैठे और चले आए।
रेणुका ने अमर से अपील की-देखते हो बेटा, इसकी बातें। यह मुझे भी गैर समझती है।
सुखदा ने व्यथित कंठ से कहा-अम्मां, बुरा न मानना आज दादाजी का बर्ताव देखकर मुझे मालूम हो गया कि धनियों को अपना धन कितना प्यारा होता है- कौन जाने कभी तुम्हारे मन में भी ऐसे ही भाव पैदा हों तो ऐसा अवसर आने ही क्यों दिया जाए- जब हम मेहमान की तरह...
अमर ने बात काटी। रेणुका के कोमल हृदय पर कितना कठोर आघात था।
'तुम्हारे जाने में तो ऐसा कोई हर्ज नहीं है सुखदा तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।'
सुखदा ने तीव्र स्वर में कहा-तो क्या तुम्हीं कष्ट सह सकते हो- मैं नहीं सह सकती- तुम अगर कष्ट से डरते हो, तो जाओ। मैं तो अभी कहीं नहीं जाने की।
नतीजा यह हुआ कि रेणुका ने सिल्लो को घर भेजकर अपने बिस्तर मंगवाए। भोजन पक चुका था इसलिए भोजन भी मंगवा लिया गया। छत पर झाडू दी गई और जैसे धर्मशाला में यात्री ठहरते हैं, उसी तरह इन लोगों ने भोजन करके रात काटी। बीच-बीच में मजाक भी हो जाता था। विपत्तिा में जो चारों ओर अंधकार दीखता है, वह हाल न था। अंधकार था, पर ऊषाकाल का। विपत्तिा थी पर सिर पर नहीं, पैरों के नीचे।
दूसरे दिन सवेरे रेणुका घर चली गईं। उन्होंने फिर सबको साथ ले चलने के लिए जोर लगाया पर सुखदा राजी न हुई। कपड़े-लत्तो, बरतन-भांड़े, खाट-खटोली कोई चीज लेने पर राजी न हुई। यहां तक रेणुका नाराज हो गईं। और अमरकान्त को भी बुरा मालूम हुआ। वह इस अभाव में भी उस पर शासन कर रही थी।
रेणुका के जाने के बाद अमरकान्त सोचने लगा-रुपये-पैसे का कैसे प्रबंध हो- यह समय प्री पाठशाला का था। वहां जाना लाजमी था। सुखदा अभी सवेरे की नींद में मग्न थी, और नैना चिंतातुर बैठी सोच रही थी-कैसे घर का काम चलेगा- उस वक्त अमर पाठशाला चला गया पर आज वहां उसका जी बिलकुल न लगा। कभी पिता पर क्रोध आता, कभी सुखदा पर, कभी अपने आप पर। उसने अपने निर्वासन के विषय में डॉक्टर साहब से कुछ न कहा। वह किसी की सहानुभूति न चाहता था। आज अपने मित्रों में से वह किसी के पास न गया। उसे भय हुआ, लोग उसका हाल-सुनकर दिल में यही समझेंगे। मैं उनसे कुछ मदद चाहता हूं।
दस बजे घर लौटा, तो देखा सिल्लो आटा गूंथ रही है और नैना चौके में बैठी तरकारी पका रही है। पूछने की हिम्मत न पड़ी, पैसे कहां से आए- नैना ने आप ही कहा-सुनते हो भैया, आज सिल्लो ने हमारी दावत की है। लकड़ी, घी, आटा, दाल सब बाजार से लाई है। बर्तन भी किसी अपने जान-पहचान के घर से मांग लाई है।
सिल्लो बोल उठी-मैं दावत नहीं करती हूं। मैं अपने पैसे जोड़कर ले लूंगी।
नैना हंसती हुई बोली-यह बड़ी देर से मुझसे लड़ रही है। यह कहती है-मैं पैसे ले लूंगी मैं कहती हूं-तू तो दावत कर रही है। बताओ भैया, दावत ही तो कर रही है-
'हां और क्या दावत तो है ही।'
अमरकान्त पगली सिल्लो के मन का भाव ताड़ गया। वह समझती है, अगर यह न कहूंगी, तो शायद यह लोग उसके रुपयों की लाई हुई चीज लेने से इंकार कर देंगे।
सिल्लो का पोपला मुंह खिल गया। जैसे वह अपनी दृष्टि में कुछ ऊंची हो गई है, जैसे उसका जीवन सार्थक हो गया है। उसकी रूपहीनता और शुष्कता मानो माधुर्य में नहा उठी। उसने हाथ धोकर अमरकान्त के लिए लोटे का पानी रख दिया, तो पांव जमीन पर न पड़ते थे।
अमर को अभी तक आशा थी कि दादा शायद सुखदा और नैना को बुला लेंगे पर जब अब कोई बुलाने न आया और न वह खुद आए तो उसका मन खक्रा हो गया।
उसने जल्दी से स्नान किया पर याद आया, धोती तो है ही नहीं। गले की चादर पहन ली, भोजन किया और कुछ कमाने की टोह में निकला।
सुखदा ने मुंह लटकाकर पूछा-तुम तो ऐसे निंश्चित होकर बैठ रहे, जैसे यहां सारा इंतजाम किए जा रहे हो। यहां लाकर बिठाना ही जानते हो। सुबह से गायब हुए तो दोपहर को लौटे। किसी से कुछ काम-धन्धो के लिए कहा, या खुदा छप्पर गाड़कर देगा- यों काम न चलेगा, समझ गए-
चौबीस घंटे के अंदर सुखदा के मनोभावों में यह परिवर्तन देखकर अमर का मन उदास हो गया। कल कितने बढ़-बढ़कर बातें कर रही थी, आज शायद पछता रही है कि क्यों घर से निकले ।
ईखे स्वर में बोला-अभी तो किसी से कुछ नहीं कहा। अब जाता हूं किसी काम की तलाश में।
'मैं जरा जज साहब की स्त्री के पास जाऊंगी। उनसे किसी काम को कहूंगी। उन दिनों तो मेरा बड़ा आदर करती थीं। अब का हाल नहीं जानती।'
अमर कुछ नहीं बोला-यह मालूम हो गया कि उसकी कठिन परीक्षा के दिन आ गए।
अमरकान्त को बाजार के सभी लोग जानते थे। उसने एक खद़दर की दूकान से कमीशन पर बेचने के लिए कई थान खद़दर की साड़ियां, जंफर, कुर्ते, चादरें आदि ले लीं और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला।
दूकानदार ने कहा-यह क्या करते हो बाबू, एक मजूर ले लो। लोग क्या कहेंगे- भला लगता है।
अमर के अंत:करण में क्रांति का तूफान उठ रहा था। उसका बस चलता तो आज धनवानों का अंत कर देता, जो संसार को नरक बनाए हुए हैं। वह बोझ उठाकर दिखाना चाहता था, मैं मजूरी करके निबाह करना इससे कहीं अच्छा समझता हूं कि हराम की कमाई खाऊं। तुम सब मोटी तोंद वाले हरामखोर हो, पक्के हरामखोर हो। तुम मुझे नीच समझते हो इसलिए कि मैं अपनी पीठ पर बोझ लादे हुए हूं। क्या यह बोझ तुम्हारी अनीति और अधर्म के बोझ से ज्यादा लज्जास्पद है, जो तुम अपने सिर पर लादे फिरते हो और शरमाते जरा भी नहीं- उलटे और घमंड करते हो-
इस वक्त अगर कोई धनी अमरकान्त को छेड़ देता, तो उसकी शामत ही आ जाती। वह सिर से पांव तक बाईद बना हुआ था, बिजली का जिंदा तार।


कर्मभूमि अध्याय 1 (भाग 17-18)

कर्मभूमि अध्याय 1 (भाग 9-12)

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