बताना था न पापा...!
मैं निकल पड़ती जब- तब मुँह उठाचाँद की सैर पर...
अम्माँ नीचे से सोंटी दिखातीं
उतर नीचे...धरती पर चल
पापा अड़ जाते सामने
नापने दो आकाश
पंख मत बाँधो उसके !
अम्माँ झींकतीं
खाना, सफाई, घर- गृहस्थी
ये भी जरूरी हैं
आता ही क्या है इसे
कुछ पता भी है
कितनी तरह के तो तड़के
मूँग और उड़द
अरहर और चना दाल
कुछ पता नहीं फर्क इसे
पापा हंस कर विश्वास से कहते
जिस दिन पकड़ेगी न चमचा देखना
तुम सबकी छुट्टी करेगी
जिस डगर चलेगी
खुद मील का पत्थर गढ़ेगी...!
सब तुम्हारी गलती है पापा
अब देखो न-
मेरे पंख समाते ही नहीं कहीं
कितना विस्तार इनका...
ठीक कहती थीं अम्माँ
इतने तेवर लेकर कहाँ जाएगी,
ज़मीनी हक़ीक़त को कैसे जानेगी ?
पापा ! आसमानों से पहले
चाँद, बादल, इन्द्रधनुष से भी पहले
छानना होता है जमीन को
किताबों से पहले सीखना होता है
चेहरों को पढ़ना...और
लोगों की फितरत पढ़ना
नदियों संग बहने से पहले
बारीक सुई की नोक से
धागे सा पार होना पड़ता है
बताना था न पापा-
स्त्री है तू
बताना था न कि छोटा रख अपना मैं
कि तू गैर अमानत है
बताना था न कि तेरी ज़मानत नहीं,
किसी अदालत में
बताना था न कि-
आकाश की भी होती है एक सीमा
कि पीछे रह जाना होता है
जीत कर भी कभी
चलने देना था न नंगे पैर
पड़ने देने थे छाले पाँवों में
कहना था न धूप में तप
बारिशों में भीग, कि बह जाने दे
थोड़े रंग, कुछ मिट्टी, कुछ सुवास
अब क्या करूँ इस अना का
बस उलझे धागों को सुलझाती
वक्त की सलाइयों पर
बैठी बुन रही हूँ अब
एक सीधा...एक उल्टा
एक सीधा और फिर एक उल्टा...
सब तुम्हारी गलती है पापा
बताना था न...!!
- उषा किरण
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