Sumitranandan Pant-Yugpath सुमित्रानंदन पंत-युगपथ

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Yugpath Sumitranandan Pant
युगपथ सुमित्रानंदन पंत

1. भारत गीत -सुमित्रानंदन पंत

जय जन भारत, जन मन अभिमत,
जन गण तंत्र विधाता !
गौरव भाल हिमालय उज्जवल
हृदय हार गंगा जल,
कटि विन्धयाचल, सिन्धु चरण तल
महिमा शाश्वत गाता !

हरे खेत, लहरे नद निर्झर,
जीवन शोभा उर्वर,
विश्व कर्म रत कोटि बाहु कर
अगणित पद ध्रुव पथ पर !
प्रथम सभ्यता ज्ञाता, साम ध्वनित गुण गाथा,
जय नव मानवता निर्माता,
सत्य अहिंसा दाता!
जय हे, जय हे, जय हे, शांति अधिष्ठाता !

प्रयाण तूर्य बज उठे,
पटह तुमुल गरज उठे,
विशाल सत्य सैन्य, लौह भुज उठे !
शक्ति स्वरूपिणि, बहु बल धारिणि, वंदित भारत माता,
धर्म चक्र रक्षित तिरंग ध्वज अपराजित फहराता !
जय हे, जय हे, जय हे, अभय, अजय त्राता !

2. जागरण -सुमित्रानंदन पंत

आओ, जन स्वतन्त्र भारत को
जीवन उर्वर भूमि बनाएँ,
उसके अंत: स्मित आनन से
तम का गुंठन भार उठाएँ!
अह, इस सोने की धरती के
खुले आज सदियों के बंधन,
मुक्त हुई चेतना धरा की,
मुक्त बनें अब भू के जनगण ।

अगणित जन लहरों से मुखरित
उमड़ रहा जग जीवन सागर,
इसके छोर हीन पुनिनों में
आज डुबाएं युग के अंतर ।
अश्रु स्वेद से ही सींचेंगे
जन क्या जीवन की हरियाली ?
संस्कृति के मुकुलित स्वप्नों से
क्या न भरेंगे उर की डाली ?
क्या इस सीमित धरती ही में
समा सकेगा मानव का मन,
मौन स्वर्ग श्रृंगों के ऊपर
कौन करेगा तब आरोहण ?
Sumitranandan-Pant
धरती ही के कर्दम में सन
नहीं फूलता फलता जीवन,
उसे चाहिये मुक्त समीरण,
उसे स्वर्ग किरनों के चुंबन !
समाधान भू के जीवन का
भू पर नहीं,-वृथा संघर्षण,
भू मन से ऊपर उठकर हम
बना सकेंगे भू को शोभन !
मानवता निर्माण करें जन
चरण मात्र हों जिसके भू पर,
हृदय स्वर्ग में हो लय जिसका,
मन हो स्वर्ग क्षितिज से ऊपर !

यांत्रिकता के विषम भार से
आज डूबने को जन धरणी,
महा प्रलय के सागर में क्या
भारत बन न सकेगा तरणी ?
अंधकार के महा सिन्धु में
डूबी रह न सकेगी धरती,
किरणें जिसमें अग्नि बीज बो,
यौवन की हरियाली भरतीं !
मिट्टी ही से सटे रहेंगे
क्या भारत भू के भी जनगण,
क्या न चेतना शस्य करेंगे
वे समस्त पृथ्वी पर रोपण ?

आज रक्त लथपथ मानव तन,
द्वेष कलह से मूर्छित जन मन,
भारत, निज अंतर-प्रकाश का
पुन: पिलाओ नव संजीवन ।
भूत तमस में खोए जग को
फिर अंतर्पथ आज दिखाओ,
मानवता के हृदय पद्म को
पंक मुक्त कर ऊर्ध्व उठाओ !

3. अमर स्पर्श -सुमित्रानंदन पंत

खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

4. श्रद्धा के फूल -सुमित्रानंदन पंत

(१)
अंतर्धान हुआ फिर देव विचर धरती पर,
स्वर्ग रुधिर से मर्त्यलोक की रज को रँगकर!
टूट गया तारा, अंतिम आभा का दे वर,
जीर्ण जाति मन के खँडहर का अंधकार हर!

अंतर्मुख हो गई चेतना दिव्य अनामय
मानस लहरों पर शतदल सी हँस ज्योतिर्मय!
मनुजों में मिल गया आज मनुजों का मानव
चिर पुराण को बना आत्मबल से चिर अभिनव!

आओ, हम उसको श्रद्धांजलि दें देवोचित,
जीवन सुंदरता का घट मृत को कर अर्पित
मंगलप्रद हो देवमृत्यु यह हृदय विदारक
नव भारत हो बापू का चिर जीवित स्मारक!

बापू की चेतना बने पिक का नव कूजन,
बापू की चेतना वसंत बखेरे नूतन!

(२)
हाय, हिमालय ही पल में हो गया तिरोहित
ज्योतिर्मय जल से जन धरणी को कर प्लावित!
हाँ, हिमाद्रि ही तो उठ गया धरा से निश्चित
रजत वाष्प सा अंतर्नभ में हो अंतर्हित!

आत्मा का वह शिखर, चेतना में लय क्षण में,
व्याप्त हो गया सूक्ष्म चाँदनी सा जन मन में!
मानवता का मेरु, रजत किरणों से मंडित,
अभी अभी चलता था जो जग को कर विस्मित
लुप्त हो गया : लोक चेतना के क्षत पट पर,
अपनी स्वर्गिक स्मृति की शाश्वत छाप छोड़कर!

आओ, उसकी अक्षय स्मृति को नींव बनाएँ,
उसपर संस्कृति का लोकोत्तर भवन उठाएँ!
स्वर्ण शुभ्र धर सत्य कलश स्वर्गोच्च शिखर पर
विश्व प्रेम में खोल अहिंसा के गवाक्ष वर!

(३)
हाय, आँसुओं के आँचल से ढँक नत आनन
तू विषाद की शिला, बन गई आज अचेतन,
ओ गाँधी की धरे, नहीं क्या तू अकाय-व्रण?
कौन शस्त्र से भेद सका तेरा अछेद्य तन?

तू अमरों की जनी, मर्त्य भू में भी आकर
रही स्वर्ग से परिणीता, तप पूत निरंतर!
मंगल कलशों से तेरे वक्षोजों में घन
लहराता नित रहा चेतना का चिर यौवन!
कीर्ति स्तंभ से उठ तेरे कर अंबर पट पर
अंकित करते रहे अमिट ज्योतिर्मय अक्षर!

उठ, ओ गीता के अक्षय यौवन की प्रतिमा,
समा सकी कब धरा स्वर्ग में तेरी महिमा!
देख, और भी उच्च हुआ अब भाल हिम शिखर
बाँध रहा तेरे अंचल से भू को सागर!

(४)
हिम किरीटिनी, मौन आज तुम शीश झुकाए
सौ वसंत हों कोमल अंगों पर कुम्हलाए!
वह जो गौरव शृंग धरा का था स्वर्गोज्वल,
टूट गया वह?—हुआ अमरता से निज ओझल!
लो, जीवन सौंदर्य ज्वार पर आता गाँधी,
उसने फिर जन सागर से आभा पुल बाँधी!

खोलो, माँ, फिर बादल सी निज कबरी श्यामल,
जन मन के शिखरों पर चमके विद्युत के पल!
हृदय हार सुरधुनी तुम्हारी जीवन चंचल,
स्वर्ण श्रोणि पर शीश धरे सोया विंध्याचल!
गज रदनों से शुभ्र तुम्हारे जघनों में घन
प्राणों का उन्मादन जीवन करता नर्तन!

तुम अनंत यौवना धरा हो, स्वर्गाकांक्षित,
जन को जीवन शोभा दो : भू हो मनुजोचित!

(५)
देख रहा हूँ, शुभ्र चाँदनी का सा निर्झर
गाँधी युग अवतरित हो रहा इस धरती पर!
विगत युगों के तोरण, गुंबद, मीनारों पर
नव प्रकाश की शोभा रेखा का जादू भर!

संजीवन पा जाग उठा फिर राष्ट्र का मरण,
छायाएँ सी आज चल रहीं भू पर चेतन,-
जन मन में जग, दीप शिखा के पग धर नूतन
भावी के नव स्वप्न धरा पर करते विचरण!

सत्य अहिंसा बन अंतर्राष्ट्रीय जागरण
मानवीय स्पर्शों से भरते हैं भू के व्रण!
झुका तड़ित-अणु के अश्वों को, कर आरोहण,
नव मानवता करती गाँधी का जय घोषण!

मानव के अंतरतम शुभ्र तुषार के शिखर
नव्य चेतना मंडित, स्वर्णिम उठे हैं निखर!
(६)
प्रथम अहिंसक मानव बन तुम आये हिंस्र धरा पर,
मनुज बुद्धि को मनुज हृदय के स्पर्शों से संस्कृत कर!
निबल प्रेम को भाव गगन से निर्मम धरती पर धर
जन जीवन के बाहु पाश में बाँध गये तुम दृढ़तर!
द्वेष घृणा के कटु प्रहार सह, करुणा दे प्रेमोत्तर
मनुज अहं के गत विधान को बदल गए, हिंसा हर!

घृणा द्वेष मानव उर मे संस्कार नहीं हैं मौलिक,
वे स्थितियों की सीमाएँ हैं : जन होंगे भौगोलिक!
आत्मा का संचरण प्रेम होगा जन मन के अभिमुख,
हृदय ज्योति से मंडित होगा हिंसा स्पर्धा का मुख!

लोक अभीप्सा के प्रतीक, नव स्वर्ग मर्त्य के परिणय,
अग्रदूत बन भव्य युग पुरुष के आए तुम निश्वय!
ईश्वर को दे रहा जन्म युग मानव का संघर्षण,
मनुज प्रेम के ईश्वर, तुम यह सत्य कर गए घोषण!

(७)
राजकीय गौरव से जाता आज तुम्हारा अस्थि फूल रथ,
श्रद्धा मौन असंख्य दृगों से अंतिम दर्शन करता जन पथ!
हृदय स्तब्ध रह जाता क्षण भर, सागर को पी गया ताम्र घट?
घट घट में तुम समा गए, कहता विवेक फिर, हटा तिमिर पट!
बाँध रही गीले आँचल में गंगा पावन फूल ससंभ्रम,
भूत भूत में मिलें, प्रकृति क्रम : रहे तुम्हारे सँग न देह भ्रम!

अमर तुम्हारी आत्मा, चलती कोटि चरण धर जन में नूतन,
कोटि नयन नवयुग तोरण बन, मन ही मन करते अभिनंदन!
भूल क्षणिक भस्मांत स्वप्न यह, कोटि कोटि उर करते अनुभव
बापू नित्य रहेंगे जीवित भारत के जीवन में अभिनव!

आत्मज होते महापुरुष : वे अगणित तन कर लेते धारण,
मृत्यु द्वार कर पार, पुनर्जीवित हो, भू पर करते विचरण!
राजोचित सम्मान तुम्हें देता, युग सारथि, जन मन का रथ,
नव आत्मा बन उसे चलाओ, ज्योतित हो भावी जीवन पथ!

(८)
लो, झरता रक्त प्रकाश आज नीले बादल के अंचल से,
रँग रँग के उड़ते सूक्ष्म वाष्प मानस के रश्मि ज्वलित जल से!
प्राणों के सिंधु हरित पट से लिपटी हँस सोने की ज्वाला,
स्वप्नों की सुषमा में सहसा निखरा अवचेतन अँधियाला!

आभा रेखाओं के उठते गृह, धाम, अट्ट, नवयुग तोरण,
रुपहले परों की अप्सरियाँ करतीं स्मित भाव सुमन वर्षण!
दिव्यात्मा पहुँची स्वर्गलोक, कर काल अश्व पर आरोहण,
अंतर्मन का चैतन्य जगत करता बापू का अभिनंदन!

नव संस्कृति की चेतना शिला का न्यास हुआ अब भू-मन में,
नव लोक सत्य का विश्व संचरण हुआ प्रतिष्ठित जीवन में!
गत जाति धर्म के भेद हुए भावी मानवता में चिर लय,
विद्वेष घृणा का सामूहिक नव हुआ अहिंसा से परिचय!

तुम धन्य युगों के हिंसक पशु को बना गए मानव विकसित,
तुम शुभ्र पुरुष बन आए, करने स्वर्ण पुरुष का पथ विस्तृत!

(९)
जय हे,
जय राष्ट्रपिता, जय जय हे !

देव विनय, अविजेय आत्मबल,
शुभ्र वमन, तन कांति तपोज्जवल,
ह्रदय क्षमा का सागर निस्तल
शांत तेज नव सूर्योदय, जय जय हे !

नव प्रभात लाए तुम जन प्रांगण में
जीवन के अरुणोदय-से हँस मन में,
अपराजित तुम रहे, अहिंसक, रण में,
सत्य-शिखर के पांथ अभय, जय जय हे !

पशु बल का हर अंधकार जन दुस्तर,
मनुष्यता का मुख कर संस्कृत, सुन्दर,
विचरे स्वर्ग शिखा ले तुम धरती पर
मनुजों के मानव, चिर मंगलमय हे !

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