Maithilisharan Gupt-Yashodhara Part (2) मैथिलीशरण गुप्त-यशोधरा भाग (2)

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Maithili Sharan Gupt-Yashodhara Part (2)
मैथिलीशरण गुप्त-यशोधरा भाग (2)

मैथिलीशरण गुप्त-राहुल-जननी | Maithili Sharan Gupt

1
घुसा तिमिर अलकों में भाग,
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!
जागा नूतन गन्ध पवन में,
उठ तू अपने राज-भवन में,
जाग उठे खग वन-उपवन में,
और खगों में कलरव-राग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

तात! रात बीती वह काली,
उजियाली ले आई लाली,
लदी मोतियों से हरियाली,
ले लीलाशाली, निज भाग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!
 
किरणों ने कर दिया सवेरा,
हिमकण-दर्पण में मुख हेरा,
मेरा मुकुर मंजु मुख तेरा,
उठ, पंकज पर पड़े पराग!
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!
 
तेरे वैतालिक गाते हैं,
स्वस्ति लिये ब्राह्मण आते हैं,
गोप दुग्ध-भाजन लाते हैं,
ऊपर झलक रहा है झाग।
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!
MaithilisharanGupt

मेरे बेटा, भैया, राजा,
उठ, मेरी गोदी में आजा,
भौंरा नचे, बजे हाँ, बाजा,
सजे श्याम हय, या सित नाग?
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!

जाग अरे, विस्मृत भव मेरे!
आ तू, क्षम्य उपद्रव मेरे!
उठ, उठ, सोये शैशव मेरे!
जाग स्वप्न, उठ, तन्द्रा त्याग!
जाग, दु:खिनी के सुख, जाग!
2
अम्ब, स्वप्न देखा है रात,
लिये मेष-शावक गोदी में खिला रहे हैं तात ।
उसकी प्रसू चाटती है पद कर करके प्रणिपात,
घेरे है कितने पशु-पक्षी, कितना यातायात!
'ले लो मुझको भी गोदी में सुन मेरी यह बात,
हंस बोले-'असमर्थ हुई क्या तेरी जननी ? जात !"
आँख खुल गई सहसा मेरी, माँ, हो गया प्रभात,
सारी प्रकृति सजल है तुझ-सी भरे अश्रु अवदात!


3
बस, मैं ऐसी ही निभ जाऊँ ।
राहुल, निज रानीपन देकर
तेरी चिर परिचर्या पाऊँ ।
तेरी जननी कहलाऊँ तो
इस परवश मन को बहलाऊँ ।
उबटन कर नहलाऊँ तुझको,
खिला पिला कर पट पहनाऊँ ।
रीझ-खीझ कर, रूठ मना कर
पीड़ा को क्रीड़ा कर लाऊँ ।
यह मुख देख देख दुख में भी
सुख से दैव-दया-गुण गाऊँ।
स्नेह-दीप उनकी पूजा का
तुझमें यहां अखण्ड जगाऊँ ।
डीठ न लगे, डिठौना देकर,
काजल लेकर तुझे लगाऊँ ।
4
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?
मान लिया आँखों में अंजन, माँ, किस लिए डिठौना?

यही डीठ लगने के लच्छिन-छूटे खाना-पीना,
कभी कांपना, कभी पसीना, जैसै तैसे जीना ?
डीठ लगी तब स्वयं तुझे ही, तू है सुध-बुध हीना,
तू ही लगा डिठौना, जिसको कांटा बना विछौना ।
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?


लोहत-बिन्दु भाल पर तेरे, मैं काला क्यों दूँ माँ?
लेती है जो वर्ण आप तू क्यों न वही मैं लूँ माँ?
एक इसी अन्तर के मारे मैं अति अस्थिर हूँ माँ!
मेरा चुम्बन तुझे मधुर क्यों ? तेरा मुझे सलोना!
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?
रह जाते हैं स्वयं चकित-से मुझे देख सब कोई,
लग सकती है कह, मां, मुझको डीठ कहाँ कब कोई?
तेरा अंक-लाभ कर मुझको चाह नहीं अब कोई ।
देकर मुझे कलंक-बिन्दु तू बना न चन्द-खिलौना ।
कैसी डीठ? कहाँ का टौना?
5
पात्र-
यशोधरा=गौतम-गृहिणी, राहुल-जननी ।
राहुल-बुद्धदेव का पुत्र ।
गंगा-गौतमी}यशोधरा की सखियाँ
चित्रा-विचित्रा}यशोधरा की दासियाँ
स्थान-
कपिलवस्तु के राजोपवन का अलिन्द ।
समय-
संध्या।
गंगा-
देवि, यदि वह घटना सच्ची हो तो तपस्विनी सीता देवी
भी इसी प्रकार पति-परित्यक्ता होकर आदिकवि के आश्रम
में स्वामी का ध्यान करके कुश-लव के लिए जीवन धारण
करती होंगी ।


यशोधरा-
मैं उन्हें प्रणाम करती हूँ । सखी, सीता देवी ने बहुत सहा ।
सम्भवत: मैं उतना न झेल सकती । कहते हैं, स्वामि-वंचिता
होने के साथ-साथ उन्हें मिथ्या लोकापवाद भी सहन करना
पड़ा था ।

गंगा-
श्रीकृष्ण के वियोग में गोपियों ने भी बहुत सहन किया।

यशोधरा-
हाय! वे उनके लिए कितनी तरसीं । परन्तु मुझे विश्वास है,
मैं अपने प्रभु के दर्शन अवश्य पाऊँगी।
गंगा-
तुम्हें देखकर मुझे स्वामि-वंचिता शकुन्तला का स्मरण आता है ।
उनके पुत्र भरत की भांति ही कुमार राहुल का अभ्युदय हो, यही
हम सबकी कामना है ।

यशोधरा-
अहो! अभागिनी गोपा ही एक दु:खिनी नहीं है । उसकी पूज्य
पूर्वजाओं ने भी बड़े दु:ख उठाये हैं । उनके बल से मैं भी किसी
प्रकार सह लूँगी गंगा!
गौतमी-
निर्दयी पुरुषों के पाले पड़कर हम अबलाजनों के भाग्य में रोना
ही लिखा है ।


यशोधरा-
अरी, तू उन्हें निर्दय कैसे कहती है? वे तो किसी कीट-पतंग का
दु:ख भी नहीं देख सकते ।

गौतमी-
तभी न हम लोगों को इतना सुख दे गये हैं?
यशोधरा-
नहीं, वे अपने दु:ख का भागी बनाकर हमें अपना सच्चा
आत्मीय सिद्ध कर गये हैं और हम सबके सच्चे सुख की
खोज में ही गये हैं ।

गौतमी-
देवि, तुम कुछ भी कहो, परन्तु मैं तो यही कहूंगी कि
ऐसा सोने का घर छोड़कर उन्होंने वन की धूल ही छानी।
जननी जन्मभूमि की भी उन्हें कुछ ममता न हुई।

यशोधरा-
अरी, सदा माँ की गोद में ही बैठे रहने के लिए पुरुषों का
जन्म नहीं होता । स्त्रियों को भी पति के घर जाना पड़ता है ।
सारा विश्व जिनका कुटुम्ब है, उन्हें जन्मभूमि का बंधन कैसे
बाँध सकता है?
गौतमी-
कुमार राहुल कदाचित् विश्व से बाहर थे! मोह ममता तो ऐसों
को क्या होगी, किन्तु उनके पालन-पोषन और उनकी शिक्षा-दीक्षा
की देख-रेख करना भी क्या उनका कर्त्तव्य न था ?

यशोधरा-
हमको तो उस पर बड़ी ममता है । हम क्या इतना भी न कर
सकेंगी, मैं कहती हूं, राहुल के जन्म ने उन्हें अमृत की प्राप्ति
के लिए और भी आतुर कर दिया। परन्तु अब इन बातों को
रहने दे । वह आता होगा । मैं उसके सामने हंसती ही रहना
चाहती हूं। परन्तु बहुधा आँसू आ जाते हैं । इससे उसे कष्ट
होता है । वह अब समझने लगा है ।


गंगा-
देवि, कुमार को देखकर ही धीरज धरना चाहिए ।

यशोधरा-
ठीक है, विपत्ति में जो रह जाय वही बहुत है । चित्रा, देख भोजन
प्रस्तुत है । यहीं एक और उसके लिए आसन लगा । मैंने अपने हाथों
उसके लिए कुछ खीर बनायी है । वह ठण्डी हुई या नहीं? और जो
कुछ हो, आम रखना न भूलना ।
चित्रा-
जो आज्ञा ।
(गयी)

यशोधरा-
गंगा, तू दादा जी के यहाँ जाने योग्य उसकी वेश-भूषा ठीक कर ।

(गंगा 'जो आज्ञा' कहकर जिस द्वार से जाती है उसी से राहुल
अलिन्द में आता है । यशोधरा और गौतमी सामने से उसकी
प्रतीक्षा कर रही हैं । परंतू वह चुपके-चुपके उनके पीछे से आना
चाहता है । सामने गंगा को देखकर मुंह पर अंगुली रखकर उससे
चुप रहने का आग्रह करता है । गंगा मुस्करा कर गुप चुप रहती
है । राहुल पीछे से मां के गले में हाथ डालकर पीठ पर चढ़ जाता
है और 'प्रणाम', 'प्रणाम' कहकर अपना मुंह बढ़ाकर माता के मुंह
से लगाकर हंसता है)
यशोधरा-
जीता रह, बेटा ।

राहुल-
मेरी जीत हो गई । दादाजी से मैंने कहा था,-मेरे प्रणाम करने के पहले
ही मां मुझे आशीर्वाद दे देती है । उन्होंने कहा-तू प्रणाम करने में पिछड़
जाता है । इसीलिए आज मैंने पीछे से आकर पहले प्रणाम कर लिया! अब
तू हार गई न ?


यशोधरा-
वाह मैं कैसे हार गयी! तूने छिपकर आक्रमण किया है । इसे मैं तेरी जीत
नहीं मानती ।

राहुल-
क्यों नहीं मानती? प्रणाम करना क्या कोई प्रहार करना है जो सामने से ही किया
जाय । अच्छे काम तो अज्ञात रूप से भी किये जाते हैं । यह तूने ही कहा था । नहीं
कहा था ?

यशोधरा-
बेटा, अब मैं हार गई ।
राहुल-
तू हार न मानती तो मैंने दूसरा उपाय भी सोच लिया था।

यशोधरा-
सो क्या?

राहुल-
मैं दूर इयोढ़ी से ही, तुझे देखे बिना ही, 'माँ प्रणाम', 'माँ प्रणाम'
कहता हुआ आता ।

यशोधरा-
बेटा, इसकी आवश्यक्ता नहीं । मेरा आशीर्वाद तो प्रणाम की प्रतीक्षा
थोड़े करता है ।

राहुल-
परन्तु मेरा विनय तो सदा गुरुजनों का आशीष चाहता है । दादाजी
कहते हैं, शिष्टाचार के नियम की रक्षा होनी चाहिए । इस कारण मेरे
प्रणाम करने पर ही तुझे आशीष देना चाहिए । नहीं माँ?
यशोधरा-
अच्छी बात है, अब मैं तैरे प्रणाम करने पर ही मुँह से तुझे आशीष
दिया करूंगी ।


राहुल-
मुंह से?

यशोधरा-
मन से तो दिन-रात ही तेरा मंगल मनाती रहती हूं ।

राहुल-
परन्तु मां, मुझे तो कितने ही काम रहते हैं । मैं कैसे सर्वदा एक
ही चिन्तन कर सकूंगा)

यशोधरा-
बेटा, तेरे जितने शुभ संकल्प हैं वे सब मेरी ही पूजा के साधन हैं । तू
उपवन में घूम आया ।

राहुल-
हाँ, मां, मैंने जो आम के पौधे रोपे थे उनमें नयी कोंपलें निकली हैं-
बड़ी सुन्दर, लाल लाल!
यशोधरा-
जैसी तेरी अंगुलियां!

राहुल-
मेरी अँगुलियां तो धनुष की प्रत्यंचा भी खींच लेती हैं । वे हाथ लगते
ही कुम्हला कर तेरे होठों से होड़ करने लगेंगी ।

गौतमी-
कुमार तो कविता करने लगे हैं!


राहुल-
गौतमी, इसी को न कविता कहते हैं-
खान-पान तो दो ही धन्य,
आम और अम्मा का स्तन्य!

गौतमी-
धन्य, धन्य! परन्तु ये तो दो दो पद हुए?

राहुल-
मेरा छन्द क्या चौपाया है? क्यों माँ!

यशोधरा-
ठीक कहा बेटा!

गौतमी-
भगवान करे, तुम कवि होने के साथ साथ कविता के विषय भी
हो जायो ।
राहुल-
माँ, कविता का विषय कैसे हुआ जाता है?

यशोधरा-
बेटा, कोई विशेषता धारण करके ।

राहुल-
परन्तु माँ, मुझे तो किसी काम में विशेषता नहीं जान पड़ती । सब
बातें साधारणत: यथानियम होती दिखाई पड़ती हैं । हाँ, एक तेरे
रोने को छोड़कर! तू हंस पड़ी, यह और भी विचित्र है!

यशोधरा-
अच्छा, बेटा, अब भोजन कर । गौतमी थाली मंगा ।
(गौतमी 'जो आज्ञा' कहकर गयी)
राहुल-
मां, मेरे साथ तू भी खा ।


यशोधरा-
बेटा, मैं पीछे खा लूंगी ।

राहुल-
दादाजी मुझसे कहते थे-तू माँ को खिलाये बिना खा लेता है ।
मुझे बड़ी लज्जा आयी ।

यशोधरा-
मैं क्या भूखी रहती हूं? उचित तो यह होगा कि तू दादाजी
को साथ लेकर ही यहाँ भोजन किया कर ।

राहुल-
यह अच्छी रही! दादाजी तेरे लिए कहते हैं और तू दादाजी के लिए
कहती है । यह भी कविता का एक विषय मुझे मिल गया । अच्छा,
कल से दो बार तेरे साथ खाया करूँगा और दो बार दादाजी के साथ ।
आज तो तू मेरे साथ बैठ । नहीं तो मैं भी नहीं खाऊंगा ।
यशोधरा-
बेटा, हठ नहीं करते। मेरी तृप्ति तभी होती है जब मैं सबको खिला
कर खाऊँ ।


राहुल-
तू खा लेगी तो क्या फिर कोई खायगा नहीं?

यशोधरा-
परन्तु मेरे लिए यह उचित नहीं कि जिनका भार मुझ पर है
उन्हें छोड़कर मैं पहले खा लूं ।

राहुल-
तो क्या मुझ पर किसी का भार नहीं?

यशोधरा-
बेटा, तू अभी छोटा है ।
राहुल-
मैं छोटा हूँ तो क्या ? बल तो मुझमें तुझसे अधिक है! चाहे परीक्षा
करके देख ले । मैं घोड़े पर जमकर बैठने लगा हूं, व्यायाम
करता हूं, शस्त्र चलाना सीखता हूँ । मेरा बाण जितनी दूर जाता
है मेरे किसी भी समवयस्क का उतनी दूर नहीं जा सकता। तू तो मेरे
साथ दो डग दौड़ भी नहीं सकती।

यशोधरा-
फिर भी बेटा, मैं तुझसे बड़ी हूं।

राहुल-
मैं बड़ा होता तो ?

यशोधरा-
तो मेरा भार तुझ पर होता ।

राहुल-
परन्तु मैं तो सदा तुझसे छोटा ही रहा। माँ! अच्छा, पिताजी तो बड़े
हैं । वे क्यों हमारी सुध नहीं लेते?


यशोधरा-
लेंगे बेटा लेंगे । तब तक तेरा भार मुझे दे गये हैं ।
राहुल-
और तेरा भर किसे दे गये हैं, दादाजी को?

यशोधरा-
हाँ बेटा, दादाजी को।

राहुल-
और दादाजी का भार?

यशोधरा-
बेटा, पुरुषों के लिए स्वालम्बी होना ही उचित है । दूसरों का
भार बनना अपने पौरुष का अनादर करना है । यों तो सबका भार
भगवान् पर है । परन्तु मेरे लिए तो मेरे स्वामी ही भगवान्
हैं और तेरे लिए तेरे गुरुजन ही ।

राहुल-
तू ठीक कहती है । मैंने भी पढ़ा है-मातृदेवो भव, पितृदेवो भव ।
इसी के साथ माँ, आचार्यदेवो भव भी है ।

यशोधरा-
ठीक ही तो है बेटा । माता-पिता जन्म देते हैं, परन्तु सफल उसे
आचार्य देव ही बनाते हैं । हमेँ क्या करना चाहिए और क्या
न करना चाहिए, वही इसे बताते हैं ।
राहुल-
सचमुच वे बड़ी बड़ी बातें बताते हैं । आकाश तो मुझे भी
गोल गोल दिखाई देता है । वे कहते हैं धरती भी गोल है । वे
मुझको उसकी सब बातें बतायेंगे।

यशोधरा-
क्यों नहीं बतायेंगे बेटा।

राहुल-
परन्तु मेरा एक सहपाठी तो उनसे ऐसा डरता है मानो वे देव न
होकर कोई दानव हों!

यशोधरा-
वह अपना पाठ पढ़ने में कच्चा होगा ।
राहुल-
तूने कैसे जान लिया?

यशोधरा-
यह क्या कठिन है । ऐसे ही लड़के गुरुजनों के सामने जाने से जी
चुराते हैं ।


राहुल-
माँ, मैं तो एक दो बार सुनकर ही कोई बात नहीं भूलता । तू चाहे
मेरी परीक्षा ले ले ।

यशोधरा-
तेरे पूर्वजन्म का संस्कार है । तू उस जन्म में पण्डित रहा होगा,
इसलिए इस जन्म में तुझे सहज ही विद्या प्राप्त हो रही है ।

राहुल-
ऐसी बात है?

यशोधरा-
हाँ, बेटा, इस जन्म के अच्छे कर्म उस जन्म में साथ देते हैं ।
राहुल-
और बुरे कर्म?

यशोधरा-
वे भी ।

राहुल-
तो एक बार बुरे कर्म करने से फिर उनसे पिंड छूटना कठिन है?

यशोधरा-
यही बात है बेटा ।

राहुल-
तो मैं आचार्य देव से कहकर बुरे कर्मों की एक तालिका बनवा लूँगा,
जिससे उनसे बचता रहूँ ।

यशोधरा-
अच्छा तो यह होगा कि तू अच्छे कर्मों की सूची बनवा ले ।

राहुल-
अच्छी बातें तो वे पढ़ाते ही हैं ।

यशोधरा-
तब उन्हीं को स्मरण रखना चाहिए। बुरी बातों का स्मरण
भी बुरा ।
(थाली आती है)
राहुल-
तब एक ओर मुझे अज्ञ भी बनना पड़ेगा, जैसे आज असमर्थ
बनना पड़ा है ।

यशोधरा-
सो कैसे?


राहुल-
आज व्यायाशाला में कूदने के लिए बढ़ाकर एक नयी सीमा
निर्धारित की गयी। मेरे साथियों में से कोई भी वहाँ तक
नहीं उड़ सका। मैं कूद सकता था। परन्तु सबका मन रखने के
लिए समर्थ होते हुए भी, मैं वहां तक नहीं गया । कल ही मैंने
पढ़ा था-आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।
यशोधरा-
बड़ा अच्छा पाठ पढ़ा है तूने बेटा । परन्तु उसका उपयोग ठीक नहीं
हुआ । तेरा कोई साथी तुमसे अधिक योग्यता दिखावे तो क्या इसे
अपने प्रतिकूल समझना चाहिए ? नहीं यह तो अपने लिए उत्साह
की बात होनी चाहिए । हमारे सामने जो आदर्श हों, हमें उनसे
भी आगे जाने का उद्योग करना उचित है । इसी प्रकार हमारा
उदाहरण देखकर दूसरों को भी साहस दिखाना चाहिए । नहीं तो वे
भी उन्नति न कर सकेंगे और तेरी बलबुद्धि भी विकसित न हो सकेगी।

राहुल-
ऐसी बात है! तब तो बड़ी भूल हुई मां ।

यशोधरा-
परन्तु तेरी भूल में भी सद्भावना थी, इससे मुझे सन्तोष ही है ।

गौतमी-
मां-बेटे बातों में ही भूल गये। थाली ठण्डी हो रही है । उसका
ध्यान ही नहीं।

यशोधरा-
सचमुच! बेटा, अब भोजन कर ।
राहुल-
भूख तो मुझे भी लगी थी, पर तेरी बातों में भूल गया । चलो,
अच्छा ही हुआ । दादाजी को सुनाने के लिए बहुत-सी बातें मिल
गयीं । तूने भी कहा था, टहलने के पीछे कुछ विश्राम करके ही
खाना ठीक होता है ।
(भोजन करने बैठता है)


यशोधरा-
(अंचल झलती हुई)
अच्छा, अब खा, मैं चुप रहूँगी ।

राहुल-
तब तो मैं खा ही न सकूँगा ।

यशोधरा-
जैसे तुझे रुचे वैसे ही सही ।
(गंगा मूल्यवान वस्भूत्राषण लाती है ।)
राहुल-
आहा! खीर बड़ी स्वादिष्ट है । माँ, तू नहीं खाती तो चखकर ही देख ।

यशोधरा-
बेटा, मैं खीर नहीं खाती। राहुल-
मोतीचूर ।

यशोधरा-
वह भी नहीं।

राहुल-
दाल-भात, श्रीखण्ड, पापड़, दही-बड़े तुझे कुछ नहीं भाते?

यशोधरा-
बेटा, मैं व्रत करती हूं, फल और दूध ही मेरे लिए यथेष्ट हैं ।

राहुल-
तू बड़ी अरसज्ञ है! मैं दादाजी से कहूंगा।

यशोधरा-
नहीं बेटा, ऐसा न करना । उन्हें व्यर्य कष्ट होगा ।
राहुल-
अच्छा, तू उपवास क्यों करती है?

यशोधरा-
मेरे धर्म का यह एक अंग है ।

राहुल-
मेरे लिए यह धर्म कठिन पड़ेगा!

यशोधरा-
तुझे इसकी अश्वश्यकता नहीं।


राहुल-
क्यों ?

यशोधरा-
धर्म की व्यवस्था भी अवस्था के अनुसार होती है । तू अभी छोटा है ।
बच्चों के व्रत उनकी माताएँ ही पूरे किया करती हैं ।

राहुल-
यह ले, मैं तृप्त हो गया । चित्रा, हाथ धुला और थाली ले जा ।
यशोधरा-
अरे, अभी खाया ही क्या है?

राहुल-
और कितना खाऊँ? मैं क्या बड़ा हूं?

यशोधरा-
हूं, इसी के लिए तू छोटा है । जैसी तेरी रुचि ।
(राहुल हाथ-मुंह धोता है)

जा, अब दादाजी के यहाँ जाने योग्य वेशभूषा बना ले ।

राहुल-
क्यों मां, यह वस्त्र क्या बुरे हैं? तू फटे-पुराने पहने
और मैं सुवर्ण-खचित पहनूं, मैं नहीं पहनूंगा । मेरे
यही घूमने-फिरने और खेलने के वस्त्र क्या तेरे
काषाय-वस्त्त्रों से भी गये-बीते हैं?
यशोधरा-
बेटा, मैं काषाय वस्त्र पहने क्या तुझे भली नहीं जान पड़ती?

राहुल-
नहीं, मां, इनसे तेरा गौरव ही प्रकट होता है । फिर भी मन
न जाने कैसा हो जाता है-कभी कभी। तू इतना कठिन तप
क्यों करती है?


यशोधरा-
तप ही मनुष्यत्व है बेटा!

राहुल-
मैं कब तप करूँगा?

यशोधरा-
जब अपने पिता की भांति पिता बन जायगा । मैं तो यही
जानती हूँ । आगे तेरे पिता जानें ।
राहुल-
मां, पिताजी की बात आने से तुझे कष्ट होता है । इसलिए मैं
उनकी चर्चा ठीक नहीं समझता ।

यशोधरा-
बेटा, उन्हीं की चिन्ता करके तो मैं जी रही हूँ । तू इच्छानुसार जो
कहना हो, कह ।

राहुल-
अच्छा, मेरे ये वस्त्र क्या तुझे नहीं भाते ? साधारण वस्त्रों में तेरा
असाधारण महत्तव देखकर मुझे भी रत्न-खचित वेश-भूषा छोड़कर
साधारण वस्त्रों का ही लोभ होता है ।

यशोधरा-
परन्तु तेरी राजोचित वेश-भूषा से तेरे दादाजी को सन्तोष होता है ।
उनकी प्रसन्नता के लिए तुझे यह त्याग करना ही चाहिए ।
राहुल-
न्याय सचमुच त्याग ही है । अच्छा, पिता-


यशोधरा-
कह बेटा, कह ।

राहुल-
क्या पिताजी भी ऐसी ही वेशभूषा धारण करते थे?

यशोधरा-
क्यों नहीं ।

राहुल-
परन्तु तेरे सिरहाने उनका जो चित्र रहता है वह तो साधु-संन्यासी
के रुप में ही है ।

यशोधरा-
उसे मैंने उनकी अब की अवस्था की कल्पना करके बनाया है ।
राहुल-
उनका कोई राजवेश का चित्र नहीं है?

यशोधरा-
क्यों न होगा ।

राहुल-
तो मुझे दिखा ।

यशोधरा-
गौतमी है कोई चित्र?

गौतमी-
वह अशोकोत्सव वाला?

यशोधरा-
वहीँ ला ।
(गौतमी जाती है)
राहुल-
माँ, पहले तू भी ऐसे वस्त्राभूषण पहनती होगी?


यशोधरा-
बेटा, कौन-सा राज-वैभव है जो तेरी माँ ने नहीं भोगा?

राहुल-
अब केवल माथे पर लाल लाल बिन्दी ही तुझे अच्छी लगती है?

यशोधरा-
बेटा, यही मेरे सुख-सौभाग्य का चिह्न है ।

राहुल-
ऐसी ही बिन्दी मुझे भी लगा दे।
यशोधरा-
तेरे लिए केसर, कस्तूरी, गौरोचन और चन्दन ही उपयुक्त है । रोली
और अक्षत पूजा के समय लगाऊँगी ।
(गौतमी आती है)

गौतमी-
कुमार, तो यह देखो पिताजी का चित्र ।

राहुल-
ओहो! कहाँ यह राजसी वेश-विन्यास और कहाँ वह संन्यास! परन्तु
मुख पर दोनों स्थानों में प्राय: एक ही भाव है । अवस्था में अवश्य
कुछ अन्तर है । मां, सौम्य और साधु भाव में क्या विशेष अन्तर है?
यशोधरा-
कोई अन्तर नहीं बेटा!

गंगा-
कुमार, कैसा है यह रुप ?


राहुल-
मेरे जैसा! एक बार दादीजी मुझे देखकर चौंक पड़ीं और बोलीं
मुझे ऐसा जान पड़ा, मानों वही आ गया! मैंने भी दर्पण में अपना
मुख देखा है । क्यों माँ?

यशोधरा-
बेटा, तू ठीक कहता है । अरे तेरी आँखों में यह क्या आ पड़ा?

राहुल-
निकल गया माँ? तेरा अंचल तो भीग गया । अरे, यह तो देख! पिता
के पास ही यह कौन खड़ी है? वे उसे मरकत की माला उतार कर दे
रहे हैं । वह हाथ बढ़ाकर भी संकुचित-सी ले रही है । सिर नीचा है,
फिर भी अधखुली आंखें उन्हीं की ओर लगी हैं, माँ, यह कौन है?
गौतमी-
कुमार, तुम नहीं समझे?

राहुल-
अब ध्यान से देखकर समझ गया । मां की छोटी बहन मेरी कौन
होती है?

गौतमी-
मौसी ।

राहुल-
तो ये मेरी मौसी हैं । मुख मां के मुख से मिलता है । इतना गौरव
नहीं है परन्तु सरलता ऐसी ही है । क्यों मां हैं न मौसी ही?
गौतमी-
कुमार, मां की आँखें अब भी किरकिरा रही हैं । मैं तुम्हें बता दूँ ।
यह इन्हीं का चित्र है ।


राहुल-
ओहो! इतना परिवर्तन!

यशोधरा-
बेटा, बुरा या भला ?

राहुल-
माँ, यह मैं पहले ही कह चुका हूँ । तेरे इस परिवर्तन में तेरा गौरव
ही प्रकट हुआ है । यह मूर्ति सुख में भी संकुचित-सी है और
तू दु:खिनी होकर भी गौरवशालिनी । यह पवित्र है, तू पावन ।
क्या इस अवस्था के परिवर्तन पर तुझे खेद है ?
यशोधरा-
बेटा, तुझे सन्तोष हो तो मुझे कोई खेद नहीं।

राहुल-
बस, पिताजी, आ जायें, तो मुझे पूरा सन्तोष है ।

यशोधरा-
तूने मेरे मन की बात कही बेटा ।

राहुल-
तब आज मुझे वही माला पहना दे जो पिताजी ने तुझे दी थी ।

यशोधरा-
मैंने उसे तेरी बहू के लिए रख छोड़ा था । यह भी अच्छा है,
उसे वह तेरे ही हाथों पायगी । गौतमी ले आ ।
(गौतमी जाती है)
राहुल-
मेरी बहू की तुझे बड़ी चिंता है । इससे मुझे ईर्ष्या होती है ।


यशोधरा-
क्यों बेटा?

राहुल-
वह आकर मेरे और तेरे बीच में खड़ी हो जायगी, इसे मैं सहन
नहीं कर सकता ।

यशोधरा-
मेरी दो जांघें हैं, एक पर तू बैठेगा, दूसरी पर वह बैठेगी ।

राहुल-
परन्तु जिस जाँघ पर मैं बैठना चाहूंगा उसी पर वह बैठना
चाहेगी तो झगड़ा न मचेगा?
यशोधरा-
मैं उसे समझा लूँगी ।

राहुल-
काहे से समझा लेगी? मुंह तो तेरे एक ही है । वह मेरे भाग
में है । उससे मैं तुझे बहू के साथ बात करने दूंगा तब न?

यशोधरा-
इतना बड़ा स्वार्थी होगा तू?

राहुल-
इसमें स्वार्थ की क्या बात है माँ, यह तो स्वत्व की बात है ।

गंगा-
परन्तु, कुमार अधिकार क्या अकेले ही भोगा जाता है?
राहुल-
तुम भी माँ की ओर मिल गयी हो!

गौतमी-
(आ कर)
कुमार, मैं तुम्हारी ओर हूँ । समय आवे तब देख लेना । अभी से
क्या झगड़ा । लो, यह मरकत की माला।


राहुल-
(पहन कर)
अरे! यह तो मुझे बड़ी बैठी ।

(उतार कर)
माँ, एक बार तू ही इसे पहन ।
यशोधरा-
बेटा, मैं ?

राहुल-
इस हंसी से तो तेरा रोना ही भला! पहन मां, मैं देखूँगा ।

गौतमी-
देवि, माथे पर सिन्दूर-बिन्दु धारन करती हुई किस विचार से तुम
कुमार की इच्छा पूरी करने में असमंजस करती हो? जो ऐसा करने
से तुम्हें रोकता है वह धर्म नहीं, अधर्म है ।

यशोधरा-
पहना दे बेटा!

राहुल-
(पहना कर)
अहा हा! यह राजयोग है । चित्रा, दर्पण तो लाना ।
यशोधरा-
रहने दे बेटा, तू ही मेरा दर्पण है । अरे, यह विचित्रा क्या लाई?

विचित्रा-
जय हो देवि, महाराज ने कुमार के लिए यह वीणा भेजी है, और
पूछा है, वे कब तक आते हैं?

राहुल-
वे क्या कर रहे हैं?


विचित्रा-
कुमार, महाराज अभी संध्या करने के लिए उठे हैं ।

राहुल-
जब तक वे संध्या से निवृत्त हों, मैं पहुँचता हूँ।
विचित्रा-
जो आज्ञा ।
(गयी)

राहुल-
मां, दादाजी ने मुझसे कहा था, तू बड़ा अच्छा बजाती है ।
तू ही मुझे वीणा सिखाया कर । इसी से दादाजी ने मेरे लिए यह
वीणा बनाने की आज्ञा दी थी ।

यशोधरा-
बेटा, मैं तो सब भूल गयी । परन्तु वीणा है सुन्दर ।

राहुल-
इसी से अपने आप तेरी अंगुलियां इसे छेड़ने लगीं! कैसी
बोलती है यह?

यशोधरा-
अच्छी-तेरे योग्य ।
राहुल-
माँ, तनिक इसे बजाकर कुछ गा ।

यशोधरा-
बेटा, यह छोटी है ।

गंगा-
कुमार, परन्तु स्वर दे सकेगी । गाने के लिए इतना ही पर्याप्त है ।

यशोधरा-
अरी, यह यों ही हठी है, ऊपर से इसे तुम और भी उकसा रही हो।

राहुल-
माँ, अपनी इच्छा से तू रोती-गाती है । मैं कहता हूं तो मुझे
हठी बताती है । यही सही। तू न गायगी तो मैं रोने लगूँगा।
(हंसता है)
यशोधरा-
गाती हूँ बेटा, उनके लिए रो रही हूँ तो तेरे लिए गाऊँगी क्यों नहीं?
(गान)


रुदन का हँसना ही तो गान ।
गा गा कर रोती है मेरी हत्तन्त्री की तान ।

मीड़-मसक है कसक हमारी, और गमक है हूक;
चातक की हुत-हृदय हूति जो, सो कोइल की कूक ।
राग हैं सब मूर्च्छित आह्वान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।

छेड़ो न वे लता के छाले, उड़ जावेगी धूल,
हलके हाथों प्रभु के अर्पण कर दो उसके फूल,
गन्ध है जिनका जीवन-दान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।
कादम्बिनी-प्रसव की पीड़ा जैसी तनिक उस ओर,
क्षिति का छोर छू गयी सहसा वह बिजली की कोर!
उजलती है जलती मुसकान,
रुदन का हँसना ही तो गान ।

यदि उमंग भरता न अद्रि के जो तू अन्तर्दाह,
तो कल कल कर कहाँ निकलता निर्मल सलिल-प्रवाह ?
सुलभ कर सबको मज्जन-पान ।
रुदन का हँसना ही तो गान ।

पर गोपा के भाग्य-भाल का उलट गया वह इन्दु,
टपकाता है अमृत छोड़कर ये खारी जल बिन्दु!
कौन लेगा इनको भगवान ?
रुदन का हँसना ही तो गान ।
राहुल-
माँ, माँ, रुलाई आती है । ये गंगा, गौतमी और चित्रा सभी तो
रो रही हैं ।

यशोधरा-
बेटा, बेटा, आ मेरी छाती से लग जा ।
(बलपूर्वक भेटती है)

राहुल-
ओह! ओह!


गौतमी-
छोड़ दो, छोड़ दो देवि, कुमार को । यह क्या करती हो?
(यशोधरा भुजपाश ढीला करती है)
राहुल-
आह! प्राण बचे । मैं तो तुझे सर्वथा दुर्बल समझता था ।
परन्तु तूने पागल की भाँति इतने बल से मुझे दबाया कि
मेरी सांस रुकने लगी माँ! हाथ जोड़े मैंने तेरे छाती से लगने को!
फिर भी तू रोती है? रोना मुझे चाहिए या तुझे?

यशोधरा-
बेटा; मैं तुझे हंसता ही देखूँ।

राहुल-
अच्छा, रात को कहानी कहेगी न?

यशोधरा-
कहूंगी ।
राहुल-
मेरी जीत! जाऊँ तो झटपट दादाजी के यहाँ हो आऊँ ।
6
राहुल-
अम्ब, मन करता है, पत्र लिखूँ तात को ।

यशोधरा-
क्या लिखेगा बेटा, सुनूँ मैं भी उस बात को ?

राहुल-
मैं लिखूँगा-तात, तुम तपते हो वन में,
हम हैं तुम्हारा नाम जपते भवन में।
आयो यहां, अथवा बुला लो हमको वहाँ ।
यशोधरा-
किन्तु बेटा, कौन जाने तेरे तात हैं कहां?
राहुल-
वे हैं वहाँ अम्ब, जहाँ चाहे और सब है,
किन्तु सोच, ऐसी धृति ऐसी स्मृति कब है?
ऐसा ठौर होगा कहाँ, जो सुध भुला दे माँ,
जागते ही जागते जो हमको सुला दे माँ?


यशोधरा-
ऐसा ठौर हो तो वह बेटा, तुझे भायगा?

राहुल-
अम्ब, नहीं; ध्यान वहाँ तेरा भी न आयगा,
मानता हूं, वेदना ही बजती है ध्यान में,
किन्तु एक सुख भी तो रहता है ज्ञान में ।
यशोधरा-
तो भी तात होंगे वहाँ ।

राहुल-
वे क्या मुझे मानेंगे?
विस्मृति के बीच कह, कैसे पहचानेंगे?
ऐसी युक्ति हो जो वही आप यहाँ आ जावें,
जानें-पहचानें हमें हम उन्हें पा जावें ।

यशोधरा-
बेटा, यही होगा, यही होगा, धैर्य धर तू
शक्ति और भक्ति निज भावना में भर तू।
7
राहुल-
अम्ब, पिता आयेंगे तो उनसे न बोलूँगा,
और संग उनके न खेलूँगा न डोलूँगा ।
यशोधरा-
बेटा, क्यों ?

राहुल-
गये वे अम्ब, क्यों कुछ बिना कहे?
हम सबने ये दुख जिससे यहाँ सहे।

यशोधरा-
अविनय होगा किन्तु बेटा, क्या न इससे ?


राहुल-
अविनय? कैसे भला, किस पर, किससे ?
अन्य, क्या उन्होंने जाप अनय नहीं किया?
तुझको रुला कर अजाना पथ है लिया ।
यशोधरा-
किन्तु कोई अनय करे तो हम क्यों करें?

राहुल-
और नहीं माथे पर क्या हम उसे धरें?

यशोधरा-
बेटा, इसे छोड़ और अपना क्या बस है?

राहुल-
न्याय तो सभी के लिए अम्ब, एक रस है ।

यशोधरा-
न्याय से वे पालन ही करने को बाध्य हैं?
लालन करें या नहीं?

राहुल-
फिर भी क्या साध्य हैं?
प्रेमशून्य पालन क्यों चाहें हम उनका ?
यशोधरा-
किन्तु क्या किसी पर है प्रेम कम उनका?

राहुल-
अम्ब, फिर तू क्यों यहाँ रह रह रोती है?

यशोधरा-
बेटा रे, प्रसव की-सी पीड़ा मुझे होती है।


राहुल-
इससे क्या होगा अम्ब?

यशोधरा-
बेटा, वृद्धि उनकी,
बहन बनेगी वही तेरी, सिद्धि उनकी।
8
राहुल-
अम्ब, दमयन्ती की कहानी मुझे भायी है,
और एक बात मेरे ध्यान में समायी है ।
तू भी एक हंस को बना के दूत भेज दे,
जो सन्देश देना हो उसी को तू सहेज दे ।

यशोधरा-
बेटा, भला वैसा हंस पा सकूँगी मैं कहां?

राहुल-
हंस न हो, मेरा धीर कीर तो पला यहाँ।

यशोधरा-
किन्तु नहीं सूझता है, उनसे मैं क्या कहूं?
राहुल-
पूछ यही बात---"और कब तक मैं सहूं?"

यशोधरा-
"सिद्धि मिलने तक" कहेंगे क्या न वे यही?

राहुल-
तो क्या सिद्धि मिलने का एक थल है वही? यशोधरा-
बेटा, यहाँ विघ्न, उन्हें हम सब घेरेंगे ।


राहुल-
किन्तु धीर हैं तो अम्ब, वे क्यों ध्यान फेरेंगे?
वन में तो इन्द्र भी प्रलोभन दिखायगा,
विश्वामित्र-तुल्य उन्हें क्या वह न भायगा?
मुझको तो उसमें भी लाभ दृष्टि आता है-
भगिनी शकुन्तला-सी, राहुल-सा भराता है!
मेनका तो वंचिका थी, तू फिर भी उनकी;
और रहो चाहे जहां, सिद्धि तो है धुन की।
तेरी गोद में ही अम्ब, मैंने सब पाया है,
ब्रह्म भी मिलेगा कल, आज मिली माया है ।
9
राहुल-
ऐसे गिरि, ऐसे वन, ऐसी नदी, ऐसे कूल,
ऐसा जल, ऐसे थल, ऐसे फल, ऐसे फूल,
ऐसे खग, ऐसे मृग, होंगे अम्ब, क्या वहाँ,
करते निवास होंगे एकाकी पिता जहाँ ?

यशोधरा-
बेटा, इस विश्व में नहीं है एकदेशता,
होती कहीं एक, कहीं दूसरी विशेषता ।
मधुर बनाता सब वस्तुयों को नाता है,
भाता वहीं उसको, जहाँ जो जन्म पाता है।
राहुल-
अम्ब, क्या पिता ने यहीं जन्म नहीं पाया है?
क्यों स्वदेश छोड़, परदेश उन्हें भाया है?


यशोधरा-
बेटा, घर छोड़ वे गये हैं अन्य दृष्टि से,
जोड़ लिया नाता है उन्होंने सब सृष्टि से।
हदय विशाल और उनका उदार है,
विश्व को बनाना चाहता जो परिवार है ।

राहुल-
लाभ इससे क्या अन्य, अपनों को छोड़ के,
बैठ जायँ दूसरों से वे सम्बन्ध जोड़ के?

यशोधरा-
अपनों को छोड़ के क्यों बैठ भला जायेंगे?
अपनों के जैसा ही सभी का प्रेम पायेंगे ।
राहुल-
मां, क्या सब ओर होगा अपना ही अपना?
तब तो उचित ही है तात का यों तपना ।

 

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साकेत सर्ग मैथिलीशरण गुप्त | Saket Sarg Maithili Sharan Gupta

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