Hindi Kavita
हिंदी कविता
So To Hai Ashok Chakradhar
सो तो है अशोक चक्रधर
1. ठेकेदार भाग लिया - अशोक चक्रधर
फावड़े ने
मिट्टी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
ऐसे में
तसले की मिट्टी ढोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावड़े की बगल में।
धुरमुट की क़ंदमताल.....रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
झाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोड़ी के ऊपर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गुस्से में ऐंठी हुई
काम छोड़ बैठ गईं
गुनिया और वसूली भी
ईंटों से पीठ टेक,
सिमट आया नापासूत
कन्नी के बराबर।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
गारे में गिरी हुई बाल्टी तो
वहीं-की-वहीं
खड़ी रह गई
ठगी-सी।
सब्बल
जो बालू में धंसी हुई खड़ी थी
कई बार
ज़ालिम ठेकेदार से लड़ी थी।
-आख़िर ये कब तक ?
-कब तक सहेंगे हम ?
-मामला ये अकेले
झाल का नहीं है
धुरमुट चाचा !
कुदाल का भी है
कन्नी का, वसूली का,
गुनिया का, सब्बल का
और नापासूत का भी है,
क्यों धुरमुट चाचा ?
फवड़े ने ज़रा जोश में कहा।
और ठेक पड़ी हथेलियां
कसने लगीं-कसने लगीं
कसती गईं-कसती गईं।
एक साथ उठी आसमान में
आसमान गूंज गया कांप उठा डरकर।
ठेकेदार भाग लिया टेलीफ़ोन करने।
2. माशो की मां - अशोक चक्रधर
नुक्कड़ पर माशो की मां
बेचती है टमाटर।
चेहरे पर जितनी सारी झुर्रियां हैं
झल्ली में उतने ही टमाटर हैं।
टमाटर नहीं हैं
वो सेब हैं,
सेब भी नहीं
हीरे-मोती हैं।
फटी मैली धोती से
एक-एक पोंछती है टमाटर,
नुक्कड़ पर माशो की मां।
गाहक को मेहमान-सा देखती है
एकाएक हो जाती है काइयां
-आठाने पाउ
लेना होय लेउ
नहीं जाउ।
मुतियाबिंद आंखों से
अठन्नी का खरा-खोटा देखती है
और
सुतली की तराजू पर
बेटी के दहेज-सा
एक-एक चढ़ाती हैं टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
-गाहक की तुष्टी होय
एक-एक चढ़ाती ही जाती है
टमाटर।
इतने चढ़ाती है टमाटर
कि टमाटर का पल्ला
ज़मीन छूता है
उसका ही बूता है।
सूर्य उगा-आती है
सूर्य ढला-जाती है।
लाती है झल्ली में भरे हुए टमाटर
नुक्कड़ पर माशो की मां।
3. सो तो है खचेरा - अशोक चक्रधर
गरीबी है- सो तो है,
भुखमरी है – सो तो है,
होतीलाल की हालत ख़स्ता है
-सो तो ख़स्ता है,
उनके पास कोई रस्ता नहीं है
– सो तो है।
पांय लागूं, पांय लागूं बौहरे
आप धन्न हैं,
आपका ही खाता हूं
आपका ही अन्न है।
सो तो है खचेरा !
वह जानता है
उसका कोई नहीं,
उसकी मेहनत भी उसकी नहीं है
- सो तो है।
4. चढ़ाई पर रिक्शेवाला - अशोक चक्रधर
(जो हथेलियों के कसाव से रिसते
पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है)
तपते तारकोल पर
पहले तवे जैसी एड़ी दिखती है
फिर तलवा
और फिर सारा बोझ पंजे की
उंगलियों पर आता है।
बायां पैर फिर दायां पैर
फिर बायां पैर फिर दायां।
वह चढ़ाई पर रिक्शा खैंचता है।
क्रूर शहर की धमनियों में
सभ्यों की नाक के रूमाल से दूर
हरी बत्तियों को लाल करता
और लाल को हरा
वह चढ़ाई पर उतर कर चढ़ता है,
पंजे से पिंडलियों तक बढ़ता है।
तारकोल ताप में
क्यों नहीं फट जाता
बारूद की तरह
क्यों नहीं सुलगता वह
घाटियों चरागाहों
कछारों के छोर तक?
रिक्शे के हैंडिल पर
कसाव की हथेलियों से
रिसते पसीने जैसी ज़िंदगी जीता है,
कई बरसातों और
चैत बैसाखों में तपे भीगे
पुराने चमड़े से हो गए चेहरे पर
चुल्लू की ओक लगा
प्याऊ से पीता है।
आस्तीन मुंह से रगड़
नेफ़े से निकाल नोट
गिनता है बराबर,
मालिक के पैसे काट
कल उसे करना है घर के लिए
दो सौ रुपल्ली का मनिऑडर।
5. कवित्त प्रयोग - अशोक चक्रधर
(एक तो घर में नहीं अन्न के दाने
ऊपर से मेहमान का अंदेशा)
रीतौ है कटोरा
थाल औंधौ परौ आंगन में
भाग में भगौना के भी
रीतौ रहिबौ लिखौ।
सिल रूठी बटना ते
चटनी न पीसै कोई
चार हात ओखली ते,
दूर मूसला दिखौ।
कोठे में कठउआ परौ
माकरी नै जालौ पुरौ
चूल्हे पै न पोता फिरौ,
बेजुबान सिसकौ।
कौने में बुहारी परी
बेझड़ी बुखारी परी
जैसे कोई भूत-जिन्न
आय घर में टिकौ।
कुड़की जमीन की
जे घुड़की अमीन की तौ
सालै सारी रात
दिन चैन नांय परिहै।
सुनियौं जी आज,
पर धैधका सौ खाय
हाय, हिय ये हमारौ
नैंकु धीर नांय धरिहै।
बार बार द्वार पै
निगाह जाय अकुलाय
देहरी पै आज वोई
पापी पांय धरिहै।
मानौ मत मानौ,
मन मानै नांय मेरौ, हाय
भोर ते ई कारौ कौआ
कांय-कांय करिहै।
6. क्रम - अशोक चक्रधर
एक अंकुर फूटा
पेड़ की जड़ के पास ।
एक किल्ला फूटा
फुनगी पर ।
अंकुर बढ़ा
जवान हुआ,
किल्ला पत्ता बना
सूख गया ।
गिरा
उस अंकुर की
जवानी की गोद में
गिरने का ग़म गिरा
बढ़ने के मोद में ।
7. चेतन जड़ - अशोक चक्रधर
प्यास कुछ और बढ़ी
और बढ़ी ।
बेल कुछ और चढ़ी
और चढ़ी ।
प्यास बढ़ती ही गई,
बेल चढ़ती ही गई ।
कहाँ तक जाओगी बेलरानी
पानी ऊपर कहाँ है ?
जड़ से आवाज़ आई
यहाँ है, यहाँ है ।
8. पहले पहले - अशोक चक्रधर
मुझे याद है
वह
जज़्बाती शुरुआत की
पहली मुलाक़ात
जब सोते हुए उसके बाल
अंगुल भर दूर थे
लेकिन उन दिनों
मेरे हाथ
कितने मज़बूर थे ?
9. नख़रेदार - अशोक चक्रधर
भूख लगी है
चलो, कहीं कुछ खाएं ।
देखता रहा उसको
खाते हुए लगती है कैसी,
देखती रही मुझको
खाते हुए लगता हूँ कैसा ।
नख़रेदार पानी पिया
नख़रेदार सिगरेट
ढाई घंटे बैठ वहाँ
बाहर निकल आए ।
10. चल दी जी, चल दी - अशोक चक्रधर
मैंने कहा
चलो
उसने कहा
ना
मैंने कहा
तुम्हारे लिए खरीदभर बाज़ार है
उसने कहा
बन्द
मैंने पूछा
क्यों
उसने कहा
मन
मैंने कहा
न लगने की क्या बात है
उअसने कहा
बातें करेंगे यहीं
मैंने कहा
नहीं, चलो कहीं
झुंझलाई
क्या-आ है?
मैनें कहा
कुर्ता ख़रीदना है अपने लिए ।
चल दी जी, चल दी
वो ख़ुशी-ख़ुशी जल्दी ।
11. किधर गईं बातें - अशोक चक्रधर
चलती रहीं
चलती रहीं
चलती रहीं बातें
यहाँ की, वहाँ की
इधर की, उधर की
इसकी, उसकी
जने किस-किस की,
कि
एकएक
सिर्फ़ उसकी आँखों को देखा मैंने
उसने देखा मेरा देखना ।
और... तो फिर...
किधर गईं बातें,
कहाँ गईं बातें ?
12. फिर कभी - अशोक चक्रधर
एक गुमसुम मैना है
अकेले में गाती है
राग बागेश्री ।
तोता उससे कहे
कुछ सुनाओ तो ज़रा
तो
चोंच चढ़ाकर कहती है
फिर कभी गाऊँगी जी ।
13. देह नृत्यशाला - अशोक चक्रधर
अँधेरे उस पेड़ के सहारे
मेरा हाथ
पेड़ की छाल के अन्दर
ऊपर की ओर
कोमल तव्चा पर
थरथराते हुए रेंगा
और जा पहुँचा वहाँ
जहाँ एक शाख निकली थी ।
काँप गई पत्तियाँ
काँप गई टहनी
काँप गया पूरा पेड़ ।
देह नृत्यशाला
आलाप-जोड़-झाला ।
14. सुदूर कामना - अशोक चक्रधर
सुदूर कामना
सारी ऊर्जाएं
सारी क्षमताएं खोने पर,
यानि कि
बहुत बहुत
बहुत बूढ़ा होने पर,
एक दिन चाहूंगा
कि तू मर जाए।
(इसलिए नहीं बताया
कि तू डर जाए।)
हां उस दिन
अपने हाथों से
तेरा संस्कार करुंगा,
उसके ठीक एक महीने बाद
मैं मरूंगा।
उस दिन मैं
तुझ मरी हुई का
सौंदर्य देखूंगा,
तेरे स्थाई मौन से सुनूंगा।
क़रीब,
और क़रीब जाते हुए
पहले मस्तक
और अंतिम तौर पर
चरण चूमूंगा।
अपनी बुढ़िया की
झुर्रियों के साथ-साथ
उसकी एक-एक ख़ूबी गिनूंगा
उंगलियों से।
झुर्रियों से ज़्यादा
ख़ूबियां होंगी
और फिर गिनते-गिनते
गिनते-गिनते
उंगलियां कांपने लगेंगी
अंगूठा थक जाएगा।
फिर मन-मन में गिनूंगा
पूरे महीने गिनता रहूंगा
बहुत कम सोउंगा,
और छिपकर नहीं
अपने बेटे-बेटी
पोते-पोतियों के सामने
आंसुओं से रोऊंगा।
एक महीना
हालांकि ज़्यादा है
पर मरना चाहूंगा
एक महीने ही बाद,
और उस दौरान
ताज़ा करूंगा
तेरी एक-एक याद।
आस्तिक हो जाऊंगा
एक महीने के लिए
बस तेरा नाम जपूंगा
और ढोऊंगा
फालतू जीवन का साक्षात् बोझ
हर पल तीसों रोज़।
इन तीस दिनों में
काग़ज़ नहीं छूउंगा
क़लम नहीं छूउंगा
अख़बार नहीं पढूंगा
संगीत नहीं सुनूंगा
बस अपने भीतर
तुझी को गुंजाउंगा
और तीसवीं रात के
गहन सन्नाटे में
खटाक से मर जाउंगा।
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ashok Chakradhar) #icon=(link) #color=(#2339bd)