Shabad Bhakt Kabir Ji in Hindi शब्द भक्त कबीर जी

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Shabad Bhakt Kabir Ji in Hindi | Sant Kabir
शब्द भक्त कबीर जी

1. जननी जानत सुतु बडा होतु है - Sant Kabir

जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥
मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥
ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥
कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥
रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥
भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥
उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥
इतु संगति नाही मरणा ॥
हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥91॥

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2. नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु - Sant Kabir

नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥324॥

3. किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा - Sant Kabir

किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
करम करत बधे अहमेव ॥
मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥324॥

4. गरभ वास महि कुलु नही जाती - Sant Kabir

गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥324॥

5. अवर मूए किआ सोगु करीजै - Sant Kabir

अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
इआ देही परमल महकंदा ॥
ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥325॥

6. जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी - Sant Kabir

जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥328॥

7. जो जन लेहि खसम का नाउ - Sant Kabir

जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥328॥

8. ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे - Sant Kabir

ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
कहु रे पंडित अम्बरु का सिउ लागा ॥
बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥
सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥
सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥
कहु कबीर जानैगा सोइ ॥
हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥329॥

9. बेद की पुत्री सिम्रिति भाई - Sant Kabir

बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥
सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥
मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥
कटी न कटै तूटि नह जाई ॥
सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥
कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥329॥

10. देइ मुहार लगामु पहिरावउ - Sant Kabir

देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥
सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥
अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥
सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥
हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥
कहत कबीर भले असवारा ॥
बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥329॥

11. आपे पावकु आपे पवना - Sant Kabir

आपे पावकु आपे पवना ॥
जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥
राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥
राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
का को जरै काहि होइ हानि ॥
नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥
कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥
होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥329॥

12. जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग - Sant Kabir

जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥330॥

13. रे जीअ निलज लाज तोहि नाही - Sant Kabir

रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
कवला चरन सरन है जा के ॥
कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥330॥

14. कउनु को पूतु पिता को का को - Sant Kabir

कउनु को पूतु पिता को का को ॥
कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥
हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥
इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥
गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥330॥

15. जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई - Sant Kabir

जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥
जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥
ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ ॥
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥
ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥
कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥331॥

16. झगरा एकु निबेरहु राम - Sant Kabir

झगरा एकु निबेरहु राम ॥
जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ ॥
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥
रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥
बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥
तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥331॥

17. देखौ भाई ग्यान की आई आंधी - Sant Kabir

देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥
सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ ॥
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥
तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥
कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥331॥

18. हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि - Sant Kabir

हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥
बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥
जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥
तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥
आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥
ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥
आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
अवरन हसत आप हहि कांने ॥
तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥332॥

19. जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही - Sant Kabir

जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥332॥

20. राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे - Sant Kabir

राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥337॥

21. सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु - Sant Kabir

सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥
होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
रमईआ गुन गाईऐ ॥
जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥
जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥337॥

22. रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु - Sant Kabir

रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥
बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
राम रसु पीआ रे ॥
जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥
जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥
कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥337॥

23. मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे - Sant Kabir

मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥
सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥
अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥
कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥338॥

24. लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे - Sant Kabir

लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥
भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥
धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ ॥
संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥
कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥338॥

25. निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ - Sant Kabir

निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥
निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥
नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥
रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥
हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥
निंदक माहि हमारा चीतु ॥
निंदकु सो जो निंदा होरै ॥
हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥
निंदा हमरा करै उधारु ॥
जन कबीर कउ निंदा सारु ॥
निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥339॥

27. हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई - Sant Kabir

हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥477॥

28. जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥ - Sant Kabir

जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥
रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥
तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ ॥
का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥
घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥
देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥
लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥
इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥478॥

29. सुतु अपराध करत है जेते - Sant Kabir

सुतु अपराध करत है जेते ॥
जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥
रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥
काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥
जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥
ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥
चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥
नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥
देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥
सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥478॥

30. हज हमारी गोमती तीर - Sant Kabir

हज हमारी गोमती तीर ॥
जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥
वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥
हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ ॥
नारद सारद करहि खवासी ॥
पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥
कंठे माला जिहवा रामु ॥
सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥
कहत कबीर राम गुन गावउ ॥
हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥478॥

31. पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ - Sant Kabir

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
भूली मालनी है एउ ॥
सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥
ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥
तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥
पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥
जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥
भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥
भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥
मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥
कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥479॥

32. बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ - Sant Kabir

बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥
तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥
मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥
साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥
आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥
चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥
जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥
हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥
गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥
आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥479॥

33. काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा - Sant Kabir

काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥
काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥
अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥
सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ ॥
कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥
काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥
सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥
हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥
जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥
चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥479॥

34. हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै - Sant Kabir

हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥
अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥
काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥
रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥
निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥
पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥
खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥
आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥
माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥
कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥480॥

35. गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना - Sant Kabir

गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥
पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥
बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥
सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ ॥
बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥
साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥
स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥
चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥
थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥
थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥
मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥
कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥480॥

36. सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ - Sant Kabir

सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥
जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥
मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥
जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ ॥
स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥
जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥
स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥
स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥
इह स्रपनी ता की कीती होई ॥
बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥
इह बसती ता बसत सरीरा ॥
गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥480॥

37. कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए - Sant Kabir

कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥
कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥
राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥
साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
कऊआ कहा कपूर चराए ॥
कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥
सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥
पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥
साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥
जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥
अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥
कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥481॥

38. लंका सा कोटु समुंद सी खाई - Sant Kabir

लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥
तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥
किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥
देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ ॥
इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥
तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥
चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥
बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥
गुरमति रामै नामि बसाई ॥
असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥
राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥481॥

39. हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे - Sant Kabir

हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥482॥

40. रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै - Sant Kabir

रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥
आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥
काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥
खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥
साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥
पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥
अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥
हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥483॥

41. करवतु भला न करवट तेरी - Sant Kabir

करवतु भला न करवट तेरी ॥
लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥
हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥
करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ ॥
जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥
पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥
हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥
तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥
अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥484॥

42. कोरी को काहू मरमु न जानां - Sant Kabir

कोरी को काहू मरमु न जानां ॥
सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ ॥
जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥
तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥
धरनि अकास की करगह बनाई ॥
चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥
पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥
जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥
कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥
सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥484॥

43. अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां - Sant Kabir

अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥
लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥
पूजहु रामु एकु ही देवा ॥
साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ ॥
जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥
जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥
मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥
हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥
दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥
कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥484॥

44. चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गई है - Sant Kabir

चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥
ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥
हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥
फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ ॥
सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥
जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥
दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥
रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥
भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥
कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥524॥

45. मुसि मुसि रोवै कबीर की माई - Sant Kabir

मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥
ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥
तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥
हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु तागा बाहउ बेही ॥
तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥
हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥
हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥524॥

46. बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई - Sant Kabir

बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥
ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
मन रे संसारु अंध गहेरा ॥
चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥
कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥
जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥
दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥
बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥
राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥
हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥654॥

47. जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई - Sant Kabir

जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥
काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥
काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥
जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥
जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥
मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥
देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥
मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥
कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥
झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥654॥

48. बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा - Sant Kabir

बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥
काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥
मन रे सरिओ न एकै काजा ॥
भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥
बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥
नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥
राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥
परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥
कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥654॥

49. दुइ दुइ लोचन पेखा - Sant Kabir

दुइ दुइ लोचन पेखा ॥
हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥
नैन रहे रंगु लाई ॥
अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥
हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥
जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥
बाजीगर डंक बजाई ॥
सभ खलक तमासे आई ॥
बाजीगर स्वांगु सकेला ॥
अपने रंग रवै अकेला ॥२॥
कथनी कहि भरमु न जाई ॥
सभ कथि कथि रही लुकाई ॥
जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥
ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥
गुर किंचत किरपा कीनी ॥
सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥
कहि कबीर रंगि राता ॥
मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥655॥

50. जा के निगम दूध के ठाटा - Sant Kabir

जा के निगम दूध के ठाटा ॥
समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥
ता की होहु बिलोवनहारी ॥
किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥
चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥
जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥
तू घर घर रमईऐ फेरी ॥
तू अजहु न चेतसि चेरी ॥
तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥
प्रभ करन करावनहारी ॥
किआ चेरी हाथ बिचारी ॥
सोई सोई जागी ॥
जितु लाई तितु लागी ॥३॥
चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥
जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥
सु रसु कबीरै जानिआ ॥
मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥655॥

51. जिह बाझु न जीआ जाई - Sant Kabir

जिह बाझु न जीआ जाई ॥
जउ मिलै त घाल अघाई ॥
सद जीवनु भलो कहांही ॥
मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥
अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥
निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥
घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥
बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥
पूति पिता इकु जाइआ ॥
बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥
जाचक जन दाता पाइआ ॥
सो दीआ न जाई खाइआ ॥
छोडिआ जाइ न मूका ॥
अउरन पहि जाना चूका ॥३॥
जो जीवन मरना जानै ॥
सो पंच सैल सुख मानै ॥
कबीरै सो धनु पाइआ ॥
हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥655॥

52. किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ - Sant Kabir

किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥
किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥
पड़े सुने किआ होई ॥
जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥
हरि का नामु न जपसि गवारा ॥
किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥
अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥
बसतु अगोचर पाई ॥
घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥
कहि कबीर अब जानिआ ॥
जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥
मन माने लोगु न पतीजै ॥
न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥655॥

53. ह्रिदै कपटु मुख गिआनी - Sant Kabir

ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥
झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥
कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥
जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ ॥
लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥
कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥
कहि कबीर बीचारी ॥
भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥656॥

54. बहु परपंच करि पर धनु लिआवै - Sant Kabir

बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥
सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥
मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥
अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥
तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥
कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥
हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥656॥

55. संतहु मन पवनै सुखु बनिआ - Sant Kabir

संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥
किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥
गुरि दिखलाई मोरी ॥
जितु मिरग पड़त है चोरी ॥
मूंदि लीए दरवाजे ॥
बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥
कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥
जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥
कहु कबीर जन जानिआ ॥
जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥656॥

56. भूखे भगति न कीजै - Sant Kabir

भूखे भगति न कीजै ॥
यह माला अपनी लीजै ॥
हउ मांगउ संतन रेना ॥
मै नाही किसी का देना ॥१॥
माधो कैसी बनै तुम संगे ॥
आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ ॥
दुइ सेर मांगउ चूना ॥
पाउ घीउ संगि लूना ॥
अध सेरु मांगउ दाले ॥
मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥
खाट मांगउ चउपाई ॥
सिरहाना अवर तुलाई ॥
ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥
तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥
मै नाही कीता लबो ॥
इकु नाउ तेरा मै फबो ॥
कहि कबीर मनु मानिआ ॥
मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥656॥

57. सनक सनंद महेस समानां - Sant Kabir

सनक सनंद महेस समानां ॥
सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ ॥
हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥
सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥
कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
कहि कबीर सो भरमै नाही ॥
पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥691॥

58. दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै - Sant Kabir

दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥
कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
सो दिनु आवन लागा ॥
मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥
लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥692॥

59. जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो - Sant Kabir

जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥
जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥
जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥
किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥692॥

60. इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो - Sant Kabir

इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥
ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥
राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥
सोभा राज बिभै बडिआई ॥
अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥
इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
कहत कबीर अवर नही कामा ॥
हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥692॥

61. राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई - Sant Kabir

राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥
राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥
इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥
तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥
राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥
गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥692॥

62. बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ - Sant Kabir

बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥
टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥
इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥
हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
असमान ‍िम्याने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥
करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥
कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥727॥

63. अमलु सिरानो लेखा देना - Sant Kabir

अमलु सिरानो लेखा देना ॥
आए कठिन दूत जम लेना ॥
किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥
चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥
चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥
हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥
लेउ निबेरि आजु की राती ॥
किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥
सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥
साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥
धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥
जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥
जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥
मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥
कहु कबीर तेई नर भूले ॥
खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥792॥

64. थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ - Sant Kabir

थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥
जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥
बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥
बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥
जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥
जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥
हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥
जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥
कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥793॥

65. ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे - Sant Kabir

ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥
बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥
मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥
धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥
राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥
हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥
आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥
पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥855॥

66. बिदिआ न परउ बादु नही जानउ - Sant Kabir

बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥
हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥
मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥
मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥
सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥
मै बिगरे अपनी मति खोई ॥
मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥
सो बउरा जो आपु न पछानै ॥
आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥
अबहि न माता सु कबहु न माता ॥
कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥855॥

67. ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा - Sant Kabir

ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥
अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥
किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥
राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥
बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥
अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥
जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥
इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥855॥

68. नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ - Sant Kabir

नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥
हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥
सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥
सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥
संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥
घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥
कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥856॥

69. संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ - Sant Kabir

संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥
मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥
बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥
जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
संतन सिउ बोले उपकारी ॥
मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥
बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥
बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥
कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥
भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥870॥

70. नरू मरै नरु कामि न आवै - Sant Kabir

नरू मरै नरु कामि न आवै ॥
पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥
अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥
मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ ॥
हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥
केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥
कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥870॥

71. भुजा बांधि भिला करि डारिओ - Sant Kabir

भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥
हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
हसति भागि कै चीसा मारै ॥
इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥
काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
रे महावत तुझु डारउ काटि ॥
इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
हसति न तोरै धरै धिआनु ॥
वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥
बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥
बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥
मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥870॥

72. ना इहु मानसु ना इहु देउ - Sant Kabir

ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥
ना इहु जती कहावै सेउ ॥
ना इहु जोगी ना अवधूता ॥
ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥
इआ मंदर महि कौन बसाई ॥
ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ ॥
ना इहु गिरही ना ओदासी ॥
ना इहु राज न भीख मंगासी ॥
ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥
ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥
ना इहु तपा कहावै सेखु ॥
ना इहु जीवै न मरता देखु ॥
इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥
जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥
गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥
जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥871॥

73. तूटे तागे निखुटी पानि - Sant Kabir

तूटे तागे निखुटी पानि ॥
दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥
कूच बिचारे फूए फाल ॥
इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥
इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥
आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ ॥
तुरी नारि की छोडी बाता ॥
राम नाम वा का मनु राता ॥
लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥
मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥
इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥
हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥
मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥
हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥
मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥
ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥
सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥
इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥871॥

74. धंनु गुपाल धंनु गुरदेव - Sant Kabir

धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥
धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥
धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥
तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥
आदि पुरख ते होइ अनादि ॥
जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ ॥
जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥
अम्भै कै संगि नीका वंनु ॥
अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥
तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥
छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥
ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥
जग महि बकते दूधाधारी ॥
गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥
अंनै बिना न होइ सुकालु ॥
तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥
कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥
धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥873॥

75. जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै - Sant Kabir

जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥
जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥
रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥
चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥970॥

76. मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे - Sant Kabir

मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥
खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥
जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥
करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥970॥

77. पडीआ कवन कुमति तुम लागे - Sant Kabir

पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥
बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥
राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥
माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥
कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥1102॥

78. बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार - Sant Kabir

बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥
जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
सार सुखु पाईऐ रामा ॥
रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ ॥
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥
मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥
गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥
अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥1103॥

79. उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे - Sant Kabir

उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥
सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥
आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥
दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥
हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥
कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥1103॥

80. जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु - Sant Kabir

जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥
जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥
कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥1104॥

81. देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना - Sant Kabir

देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥
नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥
घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥
पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥
अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥1104॥

82. राजन कउनु तुमारै आवै - Sant Kabir

राजन कउनु तुमारै आवै ॥
ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥
तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥
खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥
कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥1105॥

83. दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे - Sant Kabir

दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥
पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ ॥
साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥
सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥
मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥
निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥
कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥
रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥1105॥

84. उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना - Sant Kabir

उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥
लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥
तेरा जनु एकु आधु कोई ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ ॥
रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥
चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥
त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥
जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥
निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥1123॥

85. काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी - Sant Kabir

काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥
फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥
चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥
असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ ॥
राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥
अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥
आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥
जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥
बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥
कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥1123॥

86. टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान - Sant Kabir

टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥
भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥
रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥
कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ ॥
लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥
कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥1124॥

87. चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ - Sant Kabir

चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥
इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥
मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥
कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥1124॥

88. नांगे आवनु नांगे जाना - Sant Kabir

नांगे आवनु नांगे जाना ॥
कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥
रामु राजा नउ निधि मेरै ॥
स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ ॥
आवत संग न जात संगाती ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥
लंका गढु सोने का भइआ ॥
मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥
कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥
चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥1157॥

89. मैला ब्रहमा मैला इंदु - Sant Kabir

मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥
रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥
मैला मलता इहु संसारु ॥
इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥
मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥
मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥
मैला मोती मैला हीरु ॥
मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥
मैले सिव संकरा महेस ॥
मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥
मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥
मैली काइआ हंस समेति ॥५॥
कहि कबीर ते जन परवान ॥
निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥1158॥

90. मनु करि मका किबला करि देही - Sant Kabir

मनु करि मका किबला करि देही ॥
बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥
कहु रे मुलां बांग निवाज ॥
एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ ॥
मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥
भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥
हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥
कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥
कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥
मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥1158॥

91. गंगा कै संगि सलिता बिगरी - Sant Kabir

गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥
सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥
बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥
साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥
सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥
पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥
सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥
संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥
सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥1158॥

92. माथे तिलकु हथि माला बानां - Sant Kabir

माथे तिलकु हथि माला बानां ॥
लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥
जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥
लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ ॥
तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥
राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥
सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥
ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥
लोगु कहै कबीरु बउराना ॥
कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥1158॥

93. उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी - Sant Kabir

उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥
सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥
हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥
पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥
बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥
जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥
पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥
छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥
रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥
आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥1158॥

94. निरधन आदरु कोई न देइ - Sant Kabir

निरधन आदरु कोई न देइ ॥
लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ ॥
जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥
आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥
जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥
दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥
निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥
प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥
कहि कबीर निरधनु है सोई ॥
जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥1159॥

95. सो मुलां जो मन सिउ लरै - Sant Kabir

सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥
गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥
काल पुरख का मरदै मानु ॥
तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥
है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥
दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ ॥
काजी सो जु काइआ बीचारै ॥
काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥
सुपनै बिंदु न देई झरना ॥
तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥
सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥
बाहरि जाता भीतरि आनै ॥
गगन मंडल महि लसकरु करै ॥
सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥
जोगी गोरखु गोरखु करै ॥
हिंदू राम नामु उचरै ॥
मुसलमान का एकु खुदाइ ॥
कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥1159॥

96. जब लगु मेरी मेरी करै - Sant Kabir

जब लगु मेरी मेरी करै ॥
तब लगु काजु एकु नही सरै ॥
जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥
तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥
ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥
हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥
तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥
जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥
फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥
जीतो बूडै हारो तिरै ॥
गुर परसादी पारि उतरै ॥
दासु कबीरु कहै समझाइ ॥
केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥1160॥

97. सभु कोई चलन कहत है ऊहां - Sant Kabir

सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥
ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ ॥
आप आप का मरमु न जानां ॥
बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥
जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥
तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥
खाई कोटु न परल पगारा ॥
ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥
कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥
साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥1161॥

98. गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर - Sant Kabir

गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥
जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥
मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥
चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ ॥
गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥
म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥
कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥
जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥1162॥

99. मउली धरती मउलिआ अकासु - Sant Kabir

मउली धरती मउलिआ अकासु ॥
घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥
राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥
जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दुतीआ मउले चारि बेद ॥
सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥
संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥
कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥1193॥

100. पंडित जन माते पड़्हि पुरान - Sant Kabir

पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥
जोगी माते जोग धिआन ॥
संनिआसी माते अहमेव ॥
तपसी माते तप कै भेव ॥१॥
सभ मद माते कोऊ न जाग ॥
संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ ॥
जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥
हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥
संकरु जागै चरन सेव ॥
कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥
जागत सोवत बहु प्रकार ॥
गुरमुखि जागै सोई सारु ॥
इसु देही के अधिक काम ॥
कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥1193॥

101. प्रहलाद पठाए पड़न साल - Sant Kabir

प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥
संगि सखा बहु लीए बाल ॥
मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥
मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गोपाल ॥१॥
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥
मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ ॥
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥
प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥
तू राम कहन की छोडु बानि ॥
तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥
प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥
इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥
मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥
तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥
प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥
हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥
भगति हेति नरसिंघ भेव ॥
कहि कबीर को लखै न पार ॥
प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥1194॥

102. माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे - Sant Kabir

माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥
जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥
इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥1195॥

103. कहा नर गरबसि थोरी बात - Sant Kabir

कहा नर गरबसि थोरी बात ॥
मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ ॥
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥
दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥
रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥
जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥
कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥1251॥

104. राजास्रम मिति नही जानी तेरी - Sant Kabir

राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥
तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ ॥
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥
बसतो होइ होइ सो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥
धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥
खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥
कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥1252॥

105. हरि बिनु कउनु सहाई मन का - Sant Kabir

हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥
मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ ॥
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥
कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥1253॥

106. अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा - Sant Kabir

अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥
हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥
अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥
तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ ॥
दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥
दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥
ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥
गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥
कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥
दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥
एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥
कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥
कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥1349॥

107. अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे - Sant Kabir

अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥1349॥

108. बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै - Sant Kabir

बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥
मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥
तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥
तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥
कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥1350॥

109. सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई - Sant Kabir

सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥
सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥
लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥
ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥
ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥
जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥1350॥

110. कोऊ हरि समानि नही राजा ॥ - Sant Kabir

कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥
हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥
चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥
कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥856॥

111. राखि लेहु हम ते बिगरी - Sant Kabir

राखि लेहु हम ते बिगरी ॥
सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥
अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥
संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥
कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥856॥

112. दरमादे ठाढे दरबारि - Sant Kabir

दरमादे ठाढे दरबारि ॥
तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ ॥
तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥
मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥
जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥
कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥856॥

113. डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी - Sant Kabir

डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥
भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥
आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥
छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ ॥
जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥
कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥856॥

114. इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे - Sant Kabir

इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥
किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ ॥
ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥
इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥
किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥
कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥857॥

115. सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप - Sant Kabir

सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥
परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥
रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ ॥
आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥
जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥
मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥857॥

116. जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी - Sant Kabir

जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥
जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ ॥
कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥
कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥
त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥
ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥
आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥
कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥857॥

117. चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव - Sant Kabir

चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥
मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ ॥
तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥
बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥
जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥
कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥857॥

118. आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले - Sant Kabir

आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥
आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥
मोहि बैरागु भइओ ॥
इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ ॥
पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥
करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥
हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥
कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥870॥

119. खसमु मरै तउ नारि न रोवै - Sant Kabir

खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥
उसु रखवारा अउरो होवै ॥
रखवारे का होइ बिनास ॥
आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥
एक सुहागनि जगत पिआरी ॥
सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि गलि सोहै हारु ॥
संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥
करि सीगारु बहै पखिआरी ॥
संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥
संत भागि ओह पाछै परै ॥
गुर परसादी मारहु डरै ॥
साकत की ओह पिंड पराइणि ॥
हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥
हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥
जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥
कहु कबीर अब बाहरि परी ॥
संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥871॥

120. ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि - Sant Kabir

ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥
आवत पहीआ खूधे जाहि ॥
वा कै अंतरि नही संतोखु ॥
बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥
धनु सोहागनि महा पवीत ॥
तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि किरपन की पूती ॥
सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥
साधू कै ठाढी दरबारि ॥
सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥
सोहागनि है अति सुंदरी ॥
पग नेवर छनक छनहरी ॥
जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥
नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥
सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥
दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥
ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥
बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥
सोहागनि उरवारि न पारि ॥
पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥
पांच नारद के मिटवे फूटे ॥
कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥872॥

121. जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै - Sant Kabir

जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥
नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥
कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥
साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥
जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥
तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥
सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥
घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥
साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥
जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥
बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥
घोर बिना कैसे असवार ॥
साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥
जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥
खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥
कहै कबीरु एकै करि करना ॥
गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥872॥

122. कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै - Sant Kabir

कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥
मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥
कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥
सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥
कूटनु किसै कहहु संसार ॥
सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ ॥
नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥
झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥
इसु मन आगे पूरै ताल ॥
इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥
बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥
पांच पलीतह कउ परबोधै ॥
नउ नाइक की भगति पछानै ॥
सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥
तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥
इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥
कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥
धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥872॥

123. काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे - Sant Kabir

काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥
त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥
एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥
सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥968॥

124. गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा - Sant Kabir

गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥
सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥
उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥
कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥
दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥968॥

125. तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी - Sant Kabir

तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
अब तब जब कब तुही तुही ॥
हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥
पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥
हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥
अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥
हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥969॥

126. संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी - Sant Kabir

संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥
दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
हम कूकर तेरे दरबारि ॥
भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥
तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥
साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥
गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥
अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥969॥

127. तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ - Sant Kabir

तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥
इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥
अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥
सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥
कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥970॥

128. कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ - Sant Kabir

कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥
भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥
जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ ॥
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥
आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥
ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥
दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥
कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥970॥

129. जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु - Sant Kabir

जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥
जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥
निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥
अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥
बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥
मुकति करै उतरै बहु भारु ॥
नमसकारु करि हिरदै माहि ॥
फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥
दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥
सो दीपकु अमरकु संसारि ॥
काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥
सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥
सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥
गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥
मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥
सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥
सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥
जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥
सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥
इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥
ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥
जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥
हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥
सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥
कहि कबीर जा का नही अंतु ॥
तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥871॥

130. बंधचि बंधनु पाइआ - Sant Kabir

बंधचि बंधनु पाइआ ॥
मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥
जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥
तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥
नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ ॥
उलटी ले सकति सहारं ॥
पैसीले गगन मझारं ॥
बेधीअले चक्र भुअंगा ॥
भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
चूकीअले मोह मइआसा ॥
ससि कीनो सूर गिरासा ॥
जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥
तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥
सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥
करि करता उतरसि पारं ॥
कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥971॥

131. चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु - Sant Kabir

चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥
जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥
जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ ॥
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥
कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥972॥

132. दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई - Sant Kabir

दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥
निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ ॥
नं​‍ीबु भइओ आंबु आंबु भइओ नं​‍ीबा केला पाका झारि ॥
नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥
कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥972॥

133. रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज - Sant Kabir

रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥
तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
रामु जिह पाइआ राम ॥
ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ ॥
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥
राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥
सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥
कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥1103॥

134. जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु - Sant Kabir

जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥
एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥
सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥
अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥1104॥

135. अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े - Sant Kabir

अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥
बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥
हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥
पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥
ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥
जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥
जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥
सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥
मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥1104॥

136. रामु सिमरु पछुताहिगा मन - Sant Kabir

रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥
पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ ॥
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥
धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥
सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥1106॥

137. किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी - Sant Kabir

किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
हरि के नाम के बिआपारी ॥
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥
साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥
आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥1123॥

138. री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ - Sant Kabir

री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥
मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥
पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥
जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥
त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥
उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥1123॥

139. इहु धनु मेरे हरि को नाउ - Sant Kabir

इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥
गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥
भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥
नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥
तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥
नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥
नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥
माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥
कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥1157॥

140. गुर सेवा ते भगति कमाई - Sant Kabir

गुर सेवा ते भगति कमाई ॥
तब इह मानस देही पाई ॥
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥
भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥
मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥
जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥
जब लगु बिकल भई नही बानी ॥
भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥
अब न भजसि भजसि कब भाई ॥
आवै अंतु न भजिआ जाई ॥
जो किछु करहि सोई अब सारु ॥
फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥
सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥
तिन ही पाए निरंजन देव ॥
गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥
बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥
इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥
घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥
कहत कबीरु जीति कै हारि ॥
बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥1159॥

141. सिव की पुरी बसै बुधि सारु - Sant Kabir

सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥
तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥
ईत ऊत की सोझी परै ॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥
निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥
मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥
रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥
पछम दुआरै सूरजु तपै ॥
मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥
पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥1159॥

142. जल महि मीन माइआ के बेधे - Sant Kabir

जल महि मीन माइआ के बेधे ॥
दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥
काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥
भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥
माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥
जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ ॥
पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥
साकर माखी अधिक संतापे ॥
तुरे उसट माइआ महि भेला ॥
सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥
छिअ जती माइआ के बंदा ॥
नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥
तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥
माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥
सुआन सिआल माइआ महि राता ॥
बंतर चीते अरु सिंघाता ॥
मांजार गाडर अरु लूबरा ॥
बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥
माइआ अंतरि भीने देव ॥
सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥
कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥
तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥1160॥

143. सतरि सैइ सलार है जा के - Sant Kabir

सतरि सैइ सलार है जा के ॥
सवा लाखु पैकाबर ता के ॥
सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥
छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥
मो गरीब की को गुजरावै ॥
मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ ॥
तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥
चउरासी लख फिरै दिवानां ॥
बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥
उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥
दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥
छोडि कतेब करै सैतानी ॥
दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥
अपना कीआ पावै सोई ॥३॥
तुम दाते हम सदा भिखारी ॥
देउ जबाबु होइ बजगारी ॥
दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥
भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥1161॥

144. किउ लीजै गढु बंका भाई - Sant Kabir

किउ लीजै गढु बंका भाई ॥
दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ ॥
पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥
जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥
कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥
क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥
स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥
तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥
प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥
ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥
सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥
साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥
भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥
दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥1161॥

145. अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास - Sant Kabir

अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥
जा महि जोति करे परगास ॥
बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥
जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥
इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥
जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ ॥
अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥
हउमै गावनि गावहि गीत ॥
अनहद सबद होत झुनकार ॥
जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥
खंडल मंडल मंडल मंडा ॥
त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥
अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥
पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥
कदली पुहप धूप परगास ॥
रज पंकज महि लीओ निवास ॥
दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥
जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥
अरध उरध मुखि लागो कासु ॥
सुंन मंडल महि करि परगासु ॥
ऊहां सूरज नाही चंद ॥
आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥
सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥
मान सरोवरि करि इसनानु ॥
सोहं सो जा कउ है जाप ॥
जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥
अबरन बरन घाम नही छाम ॥
अवर न पाईऐ गुर की साम ॥
टारी न टरै आवै न जाइ ॥
सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥
मन मधे जानै जे कोइ ॥
जो बोलै सो आपै होइ ॥
जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥
कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥1162॥

146. कोटि सूर जा कै परगास - Sant Kabir

कोटि सूर जा कै परगास ॥
कोटि महादेव अरु कबिलास ॥
दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥
ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥
जउ जाचउ तउ केवल राम ॥
आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ ॥
कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥
सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥
नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥
धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥
पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥
बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥
समुंद कोटि जा के पानीहार ॥
रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥
कोटि कमेर भरहि भंडार ॥
कोटिक लखिमी करै सीगार ॥
कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥
इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥
छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥
नगरी नगरी खिअत अपार ॥
लट छूटी वरतै बिकराल ॥
कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥
कोटि जग जा कै दरबार ॥
गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥
बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥
तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥
बावन कोटि जा कै रोमावली ॥
रावन सैना जह ते छली ॥
सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥
दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥
कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥
अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥
कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥
देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥1162॥

147. जोइ खसमु है जाइआ - Sant Kabir

जोइ खसमु है जाइआ ॥
पूति बापु खेलाइआ ॥
बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥
सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ ॥
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥
बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥
निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥
बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥
पैडे बिनु बाट घनेरी ॥
बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥
कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥1194॥

148. इसु तन मन मधे मदन चोर - Sant Kabir

इसु तन मन मधे मदन चोर ॥
जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥
मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥
को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥
मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥
नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥
कबि जन जोगी जटाधारि ॥
सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥
प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥
मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥
सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥1194॥

149. नाइकु एकु बनजारे पाच - Sant Kabir

नाइकु एकु बनजारे पाच ॥
बरध पचीसक संगु काच ॥
नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥
कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥
जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ ॥
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥
करम भावनी संग लीन ॥
तीनि जगाती करत रारि ॥
चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥
दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥
कहि कबीर मन सरसी काज ॥
सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥1194॥

150. सुरह की जैसी तेरी चाल - Sant Kabir

सुरह की जैसी तेरी चाल ॥
तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥
अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ ॥
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥
चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥
मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
कहि कबीर भोग भले कीन ॥
मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥1196॥

(नोट=ये सभी पद/शब्द गुरू ग्रंथ साहब में शामिल हैं)


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