Hindi Kavita
हिंदी कविता
Sandhya Kakali Suryakant Tripathi Nirala
सांध्य-काकली सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
1. जय तुम्हारी देख भी ली-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
जय तुम्हारी देख भी ली
रूप की गुण की, रसीली ।
वृद्ध हूँ मैं, वृद्ध की क्या,
साधना की, सिद्धी की क्या,
खिल चुका है फूल मेरा,
पंखड़ियाँ हो चलीं ढीली ।
चढ़ी थी जो आँख मेरी,
बज रही थी जहाँ भेरी,
वहाँ सिकुड़न पड़ चुकी है ।
जीर्ण है वह आज तीली ।
आग सारी फुक चुकी है,
रागिनी वह रुक चुकी है,
स्मरण में आज जीवन,
2. पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में ।
लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर ।
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
कल शारद कल्य की, हेम लोमों आच्छादित,
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
बीत चुका है दिक्चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
वाद्य-छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से--
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत । मल्ल भल्ल की--
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गए हैं ।
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
पुनः सवेरा, एक और फेरा है जी का ।
3. फिर बेले में कलियाँ आईं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
फिर बेले में कलियाँ आईं ।
डालों की अलियाँ मुसकाईं ।
सींचे बिना रहे जो जीते,
स्फीत हुए सहसा रस पीते;
नस-नस दौड़ गई हैं ख़ुशियाँ
नैहर की ललियाँ लहराईं ।
सावन, कजली, बारहमासे
उड़-उड़ कर पूर्वा में भासे;
प्राणों के पलटे हैं पासे,
पात-पात में साँसें छाईं ।
आमों की सुगन्ध से खिंच कर
वैदेशिक जन आए हैं घर,
बन्दनवार बँधे हैं सुन्दर,
सरिताएँ उमड़ीं, उतराईं ।
4. धिक मद, गरजे बदरवा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
धिक मद, गरजे बदरवा,
चमकि बिजुलि डरपावे,
सुहावे सघन झर, नरवा
कगरवा-कगरवा ।
5. समझे मनोहारि वरण जो हो सके-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
समझे मनोहारि वरण जो हो सके,
उपजे बिना वारि के तिन न ढूह से ।
सर नहीं सरोरुह, जीवन न देह में,
गेह में दधि, दुग्ध; जल नहीं मेह में,
रसना अरस, ठिठुर कर मृत्यु में परस,
हरि के हुए सरस तुम स्नेह से हँसे ।
विश्व यह गतिशील अन्यथा नाश को,
अथवा पुनर्व्यथा, फिर जन्म-पाश को,
फिर कलुष, काल-कवलित, निराश्वास को,
विपरीत गति धरा, हरि करों से धसे ।
6. यह जी न भरा तुमसे मेरा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
यह जी न भरा तुमसे मेरा,
फिर-फिर तृष्णा ने आ घेरा।
दहके लूके लहके लहके,
फिर-फिर उपवन महके महके,
बालू के वृन्दावन बहके,
सावन घन ने वर्षण फेरा।
वह कौन प्यास बुझकर न रही,
वह कौन साँस जो चली सही,
वह किस फंसने की रही कली-
खुलकर न रही, मधु ने टेरा।
(रचनाकाल : 12 जनवरी, 1958)
7. रहो तुम-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बैठा हुआ देखता हूँ-
स्वप्नहीन जीवन है।
एक दिन मग्न था मैं,
गिनता हुआ गगन-कुसुम
खिले हैं जो कविता की क्यारियों में
पुष्प जैसे, प्राकृत परिणाम के,
जीवन-मरण-शील,
गन्ध से दिगन्त को अन्ध कर देनेवाले,
भौरों के रूप में झुके हुए युवक-वृन्द
तृप्त होकर लौटे जो।
गृह की छाया में, बड़ी पदमल आँखोंवाली
गौरी वनिता के साथ विद्या-विनोद में
सारी रात काट दी
संगीत कौशल में।
पण्डित है पुत्र आज,
मैं अपत्र महीरूह,
स्वल्प-रस जीवन में,
स्वप्न-शेष भोर-जैसे
घोर जरा, सम्मुख की
काष्ठा में बैठा हुआ,
यदि सर्व स्वप्न शेष
जीवन निर्मरण हो;
रहो तुम एक-मात्र
सब गात्र अहोरात्र।
(रचनाकाल : 12 जनवरी, 1958)
8. सभी लोगो में योग-ध्यान-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सभी लोगो में योग-ध्यान बने बैठे हैं,
ज्ञानी के ज्ञान हैं, अज्ञान बने बैठे हैं।
मिले है तुमसे द्विजोत्तम बनकर मन्दिर में,
अभी मसजिद में मुसलमान बने बैठे हैं।
(सम्भावित रचनाकाल : 15 जनवरी, 1958)
9. नयी ज्योतियाँ पायीं-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
नयी ज्योतियाँ पायीं,
तभी जाना तुम आयीं।
कुल किरणे मुरझायीं,
तभी जाना तुम आयीं।
नाद - ढके वकवाद सभी के,
छन में रंग सभी के फीके,
हो गये सत्य कहीं के कहीं के,
वीणा में तानें लहरायीं।
खुले द्वार वे और जनो के,
जके - थके रह गये तनों के,
देखे तोल पुराण - धनों के,
राशि - राशि भर आयीं।
गीत - वाद के उमड़े सागर,
बने नयन के नागर-नागर,
वीणा - पुस्तक - जीवन - आगर,
नागरियाँ मुसकायीं।
छुटी चाल पहली चपला की,
चली धीर मति-गति विमला की,
बदले उर के स्पन्दन बाकी,
सरिताएँ सरसायीं।
(रचनाकाल : 21 जनवरी, 1958)
10. कैसे नये तने, तुम्हारे वन्दनवार बने-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कैसे नये तने, तुम्हारे वन्दनवार बने।
पतझ्तर पर कितने, तुम्हारे वन्दनवार बने।
खड़े गणित के चक्र - चक्र पर,
पठित युवक - युवतियाँ मनोहर
देख रहे हैं प्रात - गगन पर
रंग - रंग ललित तने।
कहीं लता-तरु-ग्रुल्म हरित छवि
कही पीत परिपक्व क्षेत्र रवि,
कही नील-नभ अनवकाश कवि
स्तर - स्तर सुघर घने।
वेद - पाठ - रत पण्डरिकागन
जैसे स्तावकजन स्तुति - गायन,
पुष्प - पुष्प पर मधुलिह गुञ्जन,
सन्मन मुखर रने।
(रचनाकाल : 21 जनवरी, 1958)
11. तेरी पानी भरन जानी है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
तेरी पानी भरन जानी है, मानी है।
बेला हारो में लासानी है, सानी है।
जगमग जो यह रानी है, पानी है;
खोयी हुई जैसी वाणी है, यानी है।
मेहराबी लन्तरानी है, तानी है।
लहरों चढ़ी जो धानी है, रानी है।
खूबसूरत ऐसी मानी है, आनी है;
दुनियाँ की दी निशानी है, लानी है।
(सम्भावित रचनाकाल : जनवरी-जुलाई 1958)
12. ये बालों के बादल छाये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
ये बालों के बादल छाये
फिर फिर घिर घिरकर मंडलाये।
बिजली की नयन ज्योति चमकी,
गति पावों की थमकी - थमकी,
स्वर्गीया देवी के शम की
दुर्लभ दर्शन जैसे पाये।
पायल की बूँदों में रुनझुन
क्या भरे घड़े के मिले सगुन,
बोली नूतनता, सुन सुन सुन
नवरसता के तल सरसाये।
(रचनाकाल : 19 जुलाई, 1958)
13. बरसो मेरे आँगन, बादल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बरसो मेरे आँगन, बादल,
जल-जल से भर दो सर, उत्पल।
करो विकम्पित अवनी का उर
भरो आम्र पल्लव में नव सुर,
रंगो अधर तरुणी के आतुर,
सींचो युवक जनों के हृत्तल।
नयी शक्ति, अनुरक्ति जगा दो,
विकृत भाव से भक्ति भगा दो,
उत्पादन के भाग लगा दो
साहित्यिक - वैज्ञानिक के बल।
लहरें सत्य - धर्म - निष्ठा की
जगें, न कुछ रह जाय व्यथा की,
कलके बोझिल, हल्के; बाकी
रहे ने कुछ जीवन का सम्बल।
(रचनाकाल : 28 जुलाई, 1958)
14. सुख के सारे साज तुम्हारे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सुख के सारे साज तुम्हारे;
क्षण में अक्षम ही को वारे।
भूमि - गर्भ तरु में रो - रोकर
फिरी गन्ध वन्दी हो - होकर;
दिया कमल को प्रभा-स्नात वर,
बेले को शशि, सुन्दर तारे।
खोले दल के पटल, विश्व जन
आमोदित हो गये स्वस्थ-मन;
जोड़े कर, स्तुति पढ़ी, विनन्दन
किया तुम्हारा, मन से हारे।
(रचनाकाल : 14 अगस्त, 1958)
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