अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’-प्रेमपुष्पोपहार Ayodhya Singh-Prempushpophar

Hindi Kavita

Prempushpophar -Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
प्रेमपुष्पोपहार -अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

22. रुक्मिणी-सन्देश-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

परम रम्य था नगर एक कुण्डिनपुर नामक।
जहाँ राज्य करते थे नृप-कुल-भूषण भीष्मक।
सकल-सम्पदा-सुकृति-धाम था नगर मनोहर।
वहाँ उलहती बेलि नीति की थी अति सुन्दर।1।
 
एक सुता थी परम-दिव्य उनकी गुणवाली।
रूप-राशि से ढँकी अलौकिक साँचे ढाली।
थी अपूर्व मुख-ज्योति छलकती थी छबि न्यारी।
नाम रुक्मिणी था, वह थी सबकी अति प्यारी।2।
 
जब विवाह के योग्य हुई यह कन्या सुन्दर।
कलह-बीज-अंकुरित हुआ गृह मधय भयंकर।
नृपति, द्वारकाधीश-कृष्ण को देकर कन्या।
उसे चाहते थे करना अवनी-तल-धन्या।3।
 
रुक्म नाम का एक पुत्र भूपति-वर का था।
परम क्रूर, क्रोधी महान, वह कुटिल महा था।
सहमत वह नहिं हुआ नृपति से पूर्ण रूप से।
उसने निश्चित किया ब्याह शिशुपाल भूप से।4।
 
यत: रुक्म था बड़ा उम्र अतिशय हठकारी।
शक्तिमान युवराज, राज्य का भी अधिकारी।
अत: नृपति ने व्यर्थ बखेड़ा नहीं बढ़ाया।
माना उसका कहा यदपि वह उन्हें न भाया।5।
 
उक्त नृपति के निकट रुक्म ने तिलक पठा कर।
ब्याह कार्य के लिए किया लोगों को तत्पर।
तिथि निश्चित हो गयी बात यह सबने जानी।
आता है ब्याहने चेदि भूपति अभिमानी।6।
 
विबुधा-बरों, गायकों, विविधा गुणियों के द्वारा।
सुयश, श्रवण करके विचित्र, अनुपम अति प्यारा।
यत: हृदय दे चुकी हाथ में थीं यदुवर के।
अत: व्यथित अति हुई रुक्मिणी यह सुन करके।7।
 
पर सम्भव था नहीं रुक्म का सीधा होना।
उससे कुछ कहना था निज गौरव का खोना।
अत: हुईं वे गुप्त-भाव से उद्यमशीला।
वृथा न रोयीं, औ न बनाया मुखड़ा पीला।8।
 
सोचा यदि मैं नीति-निपुण गुण-निधि प्रभुवर को।
परम विज्ञ, करुणा-निधान, यदुवंश-प्रवर को।
सकल हृदय का भाव स्वच्छता से जतलाऊँ।
औ लिख कर सन्देश यहाँ का सकल पठाऊँ।9।
 
तो अवश्य वे अखिल आपदा को टालेंगे।
मर्यादा निश्चय अपने कुल की पालेंगे।
शमन करेंगे ताप हृदय की व्यथा हरेंगे।
सकल हमारी मनोकामना सफल करेंगे।10।
 
जी में ऐसा सोच लिख एक पत्र उन्होंने।
जिसके अक्षर आँखों पर करते थे टोने।
अपना आशय प्रकट किया यों सम्मत होकर।
हे करुणाकर प्रणत-पाल, यदुवंश-दिवाकर।11।
 
मैं न कहूँगी एक नृपति की कन्या हूँ मैं।
मुझे लाज लगती है जो परिचय यों दूँ मैं।
बरन कहूँगी हूँ चकोरिका चन्द-बदन की।
प्रभु मैं हूँ चातकी किसी नव-जलधार तन की।12।
 
पावन पद-पंकज-पराग की मैं भ्रमरी हूँ।
अतिशय अनुपम-रूप-राशि-पानिप-सफरी हूँ।
मैं कुरंगिनी हूँ पवित्र कल-कंठ नाद की।
मैं समुत्सुका-रसना हूँ प्रभु सुयश-स्वाद की।13।
 
जैसे देखे बिना रूप भी सौरभ का जन।
हो जाता है सानुराग सब काल सुखित वन।
वैसे ही प्रभु-रूप बिना देखे अति प्यारा।
हुई हृदय से सानुराग हूँ तज भ्रम सारा।14।
 
सुचरित, सद्गुण, सुकृति, आपकी है, महि-व्यापी।
इन सबने ही प्रभु सुमूर्ति है उर में थापी।
रूप-जनित अनुराग क्षणिक है, अस्थायी है।
रूप गये औ मोह नसे नहिं सुखदायी है।15।
 
पर सद्गुण-सुचरित्र जनित अनुराग सदा ही।
अचल अटल है अत: वही है अति उर-ग्राही।
सुकर उसी के मैं उमंग के साथ बिकी हूँ।
निश्चल, नीरव, समुद, उसी के द्वार टिकी हूँ।16।
 
एक मूढ़ जन इस मेरे अनुराग-सोत को।
करके गौरव-हीन प्रशंसित, प्रथित गोत को।
निज इच्छा अनुकूल चाहता है लौटाना।
पर उसने यह भेद नहीं अब लौं प्रभु जाना।17।
 
कौन फेर सकता प्रवाह है सुर-सरिता का।
रोक कौन सकता है जलनिधि-पथ का नाका।
कौन प्रवाहित कर सकता है यत्नों द्वारा।
पश्चिम दिशि में भानु-नन्दिनी की खर धारा।18।
 
प्रणय-राज्य में बल-प्रयोग अति कायरता है।
मंगल-मय विवाह में कौशल पामरता है।
जिस परिणय का हृदय-मिलन उद्देश्य नहीं है।
वह अवैध है विधि का उसमें लेश नहीं है।19।
 
जहाँ परस्पर-प्रेम पताका नहिं लहराती।
वहाँ धवजा है कलह कपट की नित फहराती।
प्रणय-कुसुम में कीट स्वार्थ का जहाँ समाया।
वहाँ हुई सुख और शान्ति की कलुषित काया।20।
 
यह प्रपंच सब अनमिल ब्याहों से होते हैं।
जो दम्पति-जीवन का अनुपम सुख खोते हैं।
अहह प्रभो ऐसा प्रण क्यों भ्राता ने ठाना।
जिससे दुख में मुझको जीवन पड़े बिताना।21।
 
अब प्रभु तज नहिं अन्य हमारा है हितकारी।
निरवलम्बिनी हो, मैं आई शरण तुम्हारी।
प्रभु-पद-नख की ज्योति हरेगी तिमिर हमारा।
वही एक अवलम्बन है, है वही सहारा।22।
 
पवन बिना प्राणी, औ मणि विन फणि, जी जावे।
यह सम्भव है त्राण बिना जल मछली पावे।
है परन्तु यह नहिं कदापि संभव मैं जीऊँ।
जो न प्रभु-कृपा-सुधा यथा-रुचि सादर पीऊँ।23।
 
तरु हरीतिमा नसे, उड़े बिन पंख पखेरू।
हीरा वन जावे, बहु उज्ज्वल होकर गेरू।
जल शीतलता तजे, त्याग गति करे प्रभंजन।
तदपि न होगा मम विचार में कुछ परिवर्तन।24।
 
नाथ समर्पित हृदय अन्य को कैसे दूँगी।
हूँगी जो सेविका प्रभु-कमल-पग की हूँगी।
कभी अन्यथा नहीं करूँगी मैं न टलूँगी।
विष खाऊँगी, प्राण तजँगी, कर न मलूँगी।25।
 
मैं हूँ परम अबोध बालिका प्रभु बुधावर हैं।
मैं हूँ बहु दुखपगी आप अति करुणाकर हैं।
मैं हूँ कृपा-भिखारिणि प्रभु अति ही उदार हैं।
मैं हूँ विपत-समुद्र पड़ी प्रभु कर्ण-धार हैं।26।
 
जैसे मेरी लाज रहे मम धर्म न जावे।
देव-भाग को दनुज न बल-पूर्वक अपनावे।
जिससे कलुषित बने नहीं मम जीवन सारा।
होवे वही, निवेदन है प्रभु यही हमारा।27।
 
इस प्रकार चीठी लिख वे चिन्ता में डूबीं।
भेजूँ क्यों कर किसे सोच ये बातें ऊबीं।
छिपी नहीं यह बात रहेगी अन्त खुलेगी।
उग्र रुक्म से कभी किसी की नहीं चलेगी।28।
 
संभव है मम उपकारक को वह दुख देवे।
उसे नाश करके सरवस उसका हर लेवे।
अत: उन्होंने एक योग्य ब्राह्मण के द्वारा।
पत्र द्वारिका नगर भेजना भला विचारा।29।
 
क्योंकि विप्र का किसी काल में बध नहिं होता।
वह अब्याहत गति में है बहु विघ्न डुबोता।
सखियों द्वारा सब बातें पहले बतलाई।
फिर बुलवा कर उसे आप कोठे पर आई।30।
 
बातायन में बैठ पत्र को कर में लेकर।
झुकीं विप्र के देने को अति आतुर होकर।
दोनों कर से बसन इधार द्विज ने फैलाया।
लेने को वह पत्र, शीश हो चकित उठाया।31।
 
इसी काल का चित्र हुआ है अंकित सुन्दर।
देखो द्विज का भाव, रुक्मिणी बदन मनोहर।
यद्यपि धीर, गँभीर, मुखाकृति राज-सुता की।
लोचन स्थिरता, व्यंजक है उर की दृढ़ता की।32।
 
तदपि सामयिक, उत्सुकता, शंका, चंचलता।
अंकित है की गयी चित्र में सहित निपुणता।
शीश अचानक लज्जा-शीला का खुल जाना।
परम शीघ्रता वश सम्हालने वस्त्र न पाना।33।
 
पत्र-दान की तन्मयता को है जतलाता।
अति सशंकता, चंचलता है प्रकट दिखाता।
जो असावधाानता हुई थी आतुरता से।
उसको भी है वही बताता चातुरता से।34।
 
कसी हुई कटि, लोटा डोरी काँधो पर की।
पत्र-ग्रहण की रीति, भाव-भंगी द्विज-वर की।
यात्रा की तत्परता को है सूचित करती।
उर में नाना भाव सरलता का है भरती।35।

23. सती सीता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वह शरद ऋतु के अनूठे पंकजों सा है खिला।
तेज है उसको अलौकिक कान्ति-मानो सा मिला।
वह सुधा कमनीय अपने कान्त हाथों से पिला।
मर रही सुकल त्राता को है सदा लेता जिला।
इस कलंकित मेदिनी में है सतीपन वह रतन।
पा जिसे है पूत होता कामिनी-अपुनीत-तन।1।
 
वह गगन यह है जहाँ उठता नहीं अविचार-घन।
है नहीं जिसमें कलह-रज लेश यह वह है पवन।
है नहीं जिसमें कपट का कीट यह वह है सुमन।
है पड़ी जिस पर न मतलब छींट यह वह है वसन।
है न जिसमें मान मद कटता यही है वह सुफल।
यह सलिल है वह, नहीं जिसमें मनो-मालिन्य-मल।2।
 
सुख-सदन का दीप यह है नीति-निधि का बिधुविमल।
यह परस्पर-प्यार-सर के अंक का है कल कमल।
वर गुणों, विनयादि की उत्पत्ति का है मंजु थल।
प्रेम के अभिराम-व्रत का है बड़ा ही दिव्य-फल।
यह सुभावुकता-सरोजिनि के लिए है भानु कर।
पूत-चरितावलि मही-रुह के लिए है वारिधार।3।
 
हैं सुलझ जातीं इसी के हाथ से जग-उलझनें।
स्वर्ग से, जंजाल में डूबे सदन, इससे बनें।
दुख-भरे परिवार इससे ही हुए मन-भावने।
पूत-दम्पति-सुख इसी से ही सुधा में हैं सने।
ज्ञान की गरिमा-रँगी भव के प्रपंचों की जयी।
जाति बनती है इसी की गोद में गौरवमयी।4।
 
राजती जिनमें सतीपन की रही पूरी कला।
पा जिन्हें सुपुनीत होकर देश यह फूला फला।
गा चरित जिनका हुआ बहुकामिनी-कुल का भला।
अंक में जिसके सुगौरव आर्यगण का है पला।
हो गयी भारतधारा में हैं कई ऐसी सती।
हैं उन्हीं में एक मेदिनी-नन्दिनी शुचि रुचिवती।5।
 
बंक भौंहों को बना जप कोप विधाता ने किया।
जब पिता ने राम को चौदह बरस का बन दिया।
राज-श्री ने फेर जब उनसे बदन अपना लिया।
तज सकीं उन दुर्दिनों में भी नहीं उनको सिया।
कंज से कमनीय कोमल गात पर आँचें सहीं।
किन्तु अपने प्राणपति की वे बनी छाया रहीं।6।
 
राज-सुख था, थे जनक से, तात, दशरथ से ससुर।
सम्पदा सुरलोक की थी, औ विभव भी था प्रचुर।
कौसिला सी सास का शुभ अंक था अति ही मधुर।
मुख-कमल था जोहता उत्कण्ठ होकर सर्व पुर।
किन्तु पति को छोड़ कर वे रह सकीं गृह में नहीं।
क्या कलाधार त्याग कर है कौमुदी रहती कहीं।7।
 
सुर सदन की सी सुहाती थी कुटी पत्तों बनी।
व्यंजनों से थी सरसता कंद मूलों में घनी।
शीश पर फैली लताएँ थीं वितानों सी तनी।
धूप लगती थी उन्हें राका-रजनि की चाँदनी।
श्याम-घन सी तन-छटा अवलोक ऑंखों बर बदन।
था हुआ-नन्दन-विपनि सा मुग्धाता आधार बन।8।
 
काल पाकर वे हुईं निज प्राण-प्यारे से अलग।
प्रेम में उनके गया लंकेश सा लोकेश पग।
खुल गया उनके लिए सब राज-सुख का मंजु पग।
चूमने बहु सम्पदा उनकी लगी फिर कंज-पग।
दृग उठाकर किन्तु उनकी ओर ताका तक नहीं।
रात दिन बनके तपस्वी के लिए रोती रहीं।9।
 
जिस दिवस रघुवंश-मणि उर में हुआ भ्रम का उदय।
वह दिवस उनके लिए था और भी आवेग-मय।
आँख में आँसू नहीं था पर विहरता था हृदय।
क्षोभ औ संताप से थी बन गयी धरती निरय।
किन्तु ऐसे काल में भी वे नहीं बिचलीं तनक।
है निखरती और भी पड़ आँच में आभा कनक।10।
 
है जिसे अपनी पड़ी, है प्रेमिका सच्ची न वह।
प्राण-पति कहती जिसे हैं, है उसी का प्राण यह।
है वृथा जीना, मलिनता जो गयी चितबीच रह।
क्या नहीं सकती सती पति के लिए भू मधय सह।
सोच यह पति की प्रतीति निमित्त तन ममता तजी।
कूद-पावक-मधय, उसमें से कढ़ीं पुष्पों सजी।11।
 
आह! आया वह दिवस भी जब उन्हें पति ने तजा।
जा बसीं अकेली विपिन के बीच जब जनकांगजा।
छोड़ सारा राजसुख कनकायतन फूलों सजा।
जब बिताने वे लगीं निजबार दुख किंगरी बजा।
जब सगा वे खोज कर भी थीं नहीं पाती कहीं।
देख जब उनकी दशा बन पत्तियाँ रोती रहीं।12।
 
उन दिनों भी इस सती का राम-मय-जीवन रहा।
जब कहा कुछ तब यही अपने कमल मुख से कहा।
राज्य-पालन पंथ में है लोक-रंजन-व्रत महा।
है वही नृप, रख इसे, जिसने मही पर यश लहा।
जो प्रथित था औ उचित था है वही पति ने किया।
है पतित, निन्दित, नृपति वह जो कलंकित हो जिया।13।
 
जो नरोंसा ही नृपति भी मोह-ममता में फँसे।
प्यार सुत-वित-नारि का, उर में उन्हीं सा जो बसे।
जो न उसमें आत्मबल हो जो न वह चित को कसे।
तो न है नृप वह, वृथा सिर पर मुकुट उसके लसे।
है वही नर-नाथ जो है न्याय-पथ पहचानता।
आत्म-हित से लोक-हित को जो महत है मानता।14।
 
स्वार्थ का ही अब समय है, प्यास समता है बढ़ी।
घिर घटा है उर गगन में आत्म-गौरव की चढ़ी।
है अधिक संभव कहें सुकुमारियाँ लिक्खी पढ़ी।
जानकी-सम्बन्धिनी बातें बहुत सी हैं गढ़ी।
हों गढ़ी, पर आत्म सुख त्यागे बिना तज कामना।
है न होता लोक-हित होती है नित अवमानना।15।

24. सुतवती सीता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कुसुम सु कोमल अल्प-वयस दो बालकवाली।
रहित केश-विन्यास प्रकृति-पावन कर पाली।
एक आधा गहने पहने साधारण-वसना।
मुख-गंभीरत नहिं जिसकी कह सकती रसना।
यह देवि स्वरूपा कौन है बन-भूतल में भ्राजती?
कुसुमित पौधों के मधय में क्या है रमा बिराजती?।1।
 
वन निवास के समय बहु विटप निम्न निरन्तर।
जो अवलोकी गयी पति प्रणयरता प्रचुर तर।
तरु-अशोक के तले पुरी लंका में प्रतिपल।
जिसका विकसित हुआ अलौकिक चारु चरितबल।
उस तपो भूमि में, जहाँ से रामचरित-धारा बही।
यह उसी सती की अति रुचिर मातृ-मूर्ति है लस रही।2।
 
निकट विलसते लव कुश नामक युगल तनय हैं।
भोले भाले परम सरलता-निधि मुदमय हैं।
पति-वियोग-विधुरा व्यथिता के प्रिय सम्बल हैं।
दुख-पयोधि में विवश पतित के पोत युगल हैं।
परितापवंत चित सुतरुहित युग कलसे हैं सलिल मय।
तम वलित उर सदन के ज्योति मान हैं दीप द्वय।3।
 
अग्रज को अवलोक लिये एक कुसुम मनोहर।
फिर करते आलाप देख जननी से प्रिय तर।
हुआ कुसुम के लिए द्वितीय बालक भी चंचल।
औ जा बैठा पुष्प बेलि ढिग मंद मंद चल।
प्रिय सुमन तोड़ने के समय जो सुषमा मुख पर लसी।
वह अति अनुपम है प्रात रविप्रभा कमलपर आ बसी।4।
 
कुसुम लाभ, उसके अवलोकन का विनोद मिल।
अति सुन्दरता संग उठा है आनन पर खिल।
क्या राका-पति अंक विकचता उफन पड़ी है।
अथवा खिले गुलाब में सरसता उमड़ी है।
नन्दन कानन के अति कलित विकसित किसी प्रसून पर।
अथवा अनुपमता सँग लसी स्वर्ग ज्योति कमनीय तर।5।
 
सम्मुख पाकर कुसुम वान बालक को सीता।
हस्त कमल के साथ उसे पकड़े हो प्रीता।
जिस रसालता मृदुता सँग हैं समालाप-रत।
हो सकता है वह भावुक जन को ही अवगत।
अवलोक बदन गम्भीरता उठी तर्जनी कलामय।
कलनीय कान्त भावों बलित नहीं होता किसका हृदय।6।
 
माता है मानव-जीवन की नींव जमाती।
उसे पूत उन्नत, उदार है वही बनाती।
ज्यों सोनार भूषण-स्वरूप का है निर्माता।
त्योंही है माता-विचार जन-हृदय-विधाता।
बालक उर मृदु महि मधय जो मा बोती है बीज चय।
फल बहु बिधिा लाता है वही हो अंकुरित यथा समय।7।
 
सिय मुख पर कत्ताव्य बुध्दि यह बहु व्यंजित है।
उससे उसकी गुरु गँभीरता अति रंजित है।
जो प्रसून उनका बालक है उन्हें दिखाता।
मंजुल वचन वही उनके मुख पर है लाता।
वे जिस वत्सलता, सरसता से हैं बातें कह रहीं।
वह केवल अनुभवनीय है सुकथनीय कथमपि नहीं।8।
 
क्या वह यह कहती हैं ऐ उर-उदधि-कलाधार।
तेरे जैसा ही प्रसून भी है अति सुन्दर।
प्राणि-नयन-रंजिनी परम न्यारी छबि वाली।
तव कपोल अधरों सी है इसकी भी लाली।
कोमलता इस पर वैसिही है लसती मन मोहती।
तेरे तन की सुकुमारता जैसी हूँ अवलोकती।9।
 
है समानता तुझमें और सुमन में इतनी।
किन्तु तात इसमें गुण गरिमाएँ हैं कितनी।
बहुत प्यार कर सुर शिर पर सानंद चढ़ावे।
या पाँवों से मसल धूल में इसे मिलावे।
पर यह सुबास तजता नहीं यों रहता है एक रस।
कैसे ही उनमें बिरसता नहिं होती जो हैं सरस।10।
 
यह सुरभित केवल तिल ही को नहीं बनाता।
निज सुगंधि दे रज का भी है मान बढ़ाता।
निज प्रफुल्लता से नर ही को नहिं पुलकाता।
बनता है बहु मधुप कीट का भी सुख-दाता।
जो हैं जग में सच्चे सुमन क्या कह उन्हें सराहिए।
उनकी गुणमयता विकचता होती है सब के लिए।11।
 
यह प्रसून काँटों में ही रहता पलता है।
पर कैसी इसमें सुमधुरता कोमलता है।
पड़ कुसंग में कभी नहीं वे निजता खोते।
जो भावुक गंभीर उच्च रुचि के हैं होते।
जैसे समीप की पवन को यह करता है परिमलित।
वैसे उनका सहवास भी होता है बहु गुण-वलित।12।
 
अल्प मोल का फूल, मुकुटमणि का है मण्डन।
मोहित होता है उस पर पृथ्वी-पति का मन।
अमर-वृन्द-मस्तक पर है वह शोभा पाता।
वह सुवर्ण भूषण को भी है सछबि बनाता।
क्यों! क्या यह बतला दूँ तुझे? सुन ऐ सुवन सुकौशली।
सब काल रही सम्मानिता बसुधा-बीच गुणावली।13।
 
जितनी वस्तु अवनि-मण्डल में है दिखलाती।
उन सबको मैं बिबिध गुणों-पूरित हूँ पाती।
सुवन सभी को तुम विचार दृग से बिलोक कर।
उनके गुण-गण गहो, बनो कुल-कुमुद कलाधार।
कर-पल्लव शोभित कुसुम के सकल सुगुण पहले गहो।
जिससे इनकी अवहेलना देवोपम शिशु से न हो।14।
 
मेरे जी में यही लालसा है ऐ प्यारे!
तेरे पिता-सदृश तेरे गुण होवें न्यारे।
प्रजा-पुंज-रंजन सुनीति तेरी हो वैसी।
पूत-चरित-रघुकुल-रवि की भू में है जैसी।
सब काल सत्य संकल्प, सत्कर्म-निरत संयत रहो।
निज पूज्य जनक के तुल्य तब जीवन रहित कलंक हो।15।

25. वीरवर सौमित्र-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कर करवाल लिये रण-भू में निधारक जाना।
बिधा कर विशिखादिक से पग पीछे न हटाना।
लख कर रुधिर-प्रवाह और उत्तोजित होना।
रोम रोम छिद गये न दृढ़ता चित की खोना।
गिरते लख करके लोथ पर लोथ देख शिरका पतन।
नहिं विचलित होना अल्प भी हुआ देख शत-खंड-तन।1।
 
तोपों का लख अग्नि-काण्ड आकुल न दिखाना।
न काँपना लख शिर पर से गोलों का जाना।
भिड़ना मत्ता गयंद संग केहरि से लड़ना।
कर द्वारा अति क्रुध्द व्याल को दौड़ पकड़ना।
लख काल-वदन विकराल भी त्याग न देना धीरता।
अकेले भिड़ना भट विपुल से यद्यिप है बड़ी वीरता।2।
 
किन्तु वीरता उच्चकोटि की और कई हैं।
कथित वीरताओं से जो वर कही गयी हैं।
करना स्वार्थ-त्याग क्रोध से विजित न होना।
विपत-काल औ कठिन समय में धैर्य न खोना।
ऐसी ही कितनी और हैं द्वितीय भाँति की वीरता।
जिनमें न चाहिए विपुल बल और न वज्र-शरीरता।3।
 
रामानुज में द्विविध वीरता है दिखलाती।
समय समय पर जो चित को है बहुत लुभाती।
पति बन जाता देख सिया थी जब अकुलाई।
सुत-वियोग वश जब कौशल्या थी बिलखाई।
उस काल सुमित्रा-सुवन ने जो दिखलाया आत्मबल।
वह उनके कीर्ति-निकेत का कलित खंभ है अति अचल।4।
 
तजा उन्होंने राज-भवन-सुख सुर-उर-ग्राही।
तजी सुमित्रा-सदृश जननि सब भाँति सराही।
आह! न जिसका विरह कभी जन सम्मुख आया।
तजी उर्मिला जैसी परम सुशीला जाया।
पर बाल-प्रीति को डोर में बँधा भायपरँग में रँगे।
वह तज न सके प्रिय बन्धु को विपिन गये पीछे लगे।5।
 
यों उनका तिय-जननि-राज-सुख को तज जाना।
यती-भाव से बन में चौदह बरस बिताना।
राम-सिया को मान पिता, माता और स्वामी।
बन में सह दुख बिपुल बना रहना अनुगामी।
संसार चकित-कर कार्य है मिलित मनोरम धीरता।
है यही आत्म-बल-संभव परम अलौकिक वीरता।6।
 
कुसुम चयन करते अलकावलि बीच लगाते।
जब सीता सँग बिबिध-केलि-रत राम दिखाते।
उसी काल सौमित्र रुचिर उटजादि बनाते।
कर-तान करते मंजु शाल-शाखा दिखलाते।
सो किशलय पर जो यामिनी राम बिताते सुमुखि सह।
वह निशि व्यतीत करते लखन नखतावलि गिन सजग रह।7।
 
कभी जानकी पट-भूषण पेटिका लिये कर।
वे दिखला पड़ते चढ़ते गिरि दुरारोह पर।
लता, बेलि काटते, कटीले तरु छिनगाते।
सुपथ बनाते गहन विपिन में कभी दिखाते।
पथ कभी सिय-कुटी से सरसि तक का हित गगनागमन।
चिन्हित करते वे दीखते बाँधा पादपों में बसन।8।
 
यक तुषार से मलिन-चन्द्रिकावती रयन में।
जब वह थी गत-प्राय बड़ी सरदी थी बन में।
वे थे देख गये वारि सरसी में भरते।
सीकरमय तृण-राजि-बीच बचकर पग धरते।
यक जलद-मयी यामिनी में शिर पर जलधारादि ले।
चूती कुटीर के काज वे तृण, पत्ते लाते मिले।9।
 
यह अति कोमल राज-कुँवर कुवलय-करलालित।
सुवरन का-सा कान्ति-मान सुख में प्रति पालित।
कुसुम-सेज पर शयन-निपुण, मृदु-भूतल-चारी।
वर व्यंजन पर बसन वर विभव का अधिकारी।
जब कानन में था दीखना करते परम कठोर व्रत।
तब अवगत था जग को हुआ वह कितना है राम-रत।10।
 
कपि-दल लेकर राम जलधि-तट पर जब आये।
उसका देख कराल रूप कपि-पति अकुलाये।
सुन गर्जन र्आवत्ता सहित लख तुंग तरंगें।
हो विलीन सी गयी चमू की सकल उमंगें।
पर विचलित हुए न अल्प भी शूर-शिरोमणि श्री लखन।
कर धानु, शायक, लेकर कहे परम ओजमय ये वचन।11।
 
वही वीर है जो कर्तव्य-विमूढ़ न होवे।
कार्य-कला को जो नहिं बन आकुल चित खोवे।
क्या है यह जलराशि कहो शर मार सुखाऊँ।
या कर इसे प्रभाव-हीन घट तुल्य बनाऊँ।
पर मर्यादा का तोड़ना कभी नहीं होता उचित।
इसलिए करो सुजतन, विवश हो करके न बनो दुचित।12।
 
इसी सुमित्रा-सुवन-कथन का सुफल हुआ यह।
जो बारिधि था अगम गया गिरि से बाँधा वह।
उस पर से ही उतर पार सेना सब आई।
फिर लंका पर धूम धाम से हुई चढ़ाई।
रण छिड़ जाने पर लखन ने जो दिखलाया विपुल बल।
वह अकथनीय है अगम है बीर-बृन्द में है बिरल।13।
 
सुनकर धानु-टंकार मेदिनी थर्राती थी।
दिग्दंती की द्विगुण दलक उठती छाती थी।
विशिख-वृन्द से नभ-मण्डल था पूरित होता।
जो था दश दिशि बीच बहाता शोणित सोता।
प्रलय-बद्दि थी दहकती त्रिपुरान्तक थे कोपते।
जिस कला बीर सौमित्रा थे रणभू में पग रोपते।14।
 
अगर वृन्द जिसके भय से था थर थर कँपता।
जो प्रचंड पूषण सा था रण-भू में तपता।
पाहन द्वारा गठित हुई थी जिसकी काया।
बिबिध-भयंकरर-मूत्ति-मती थी जिसकी माया।
वह परम साहसी अति प्रबल मेघनाद सा रिपु-दमन।
जिसके कोपालन में जला धान्य वह सुमित्रा-सुवन।15।
 
वाल्मीकि मुनि-पुंगव ने बदनाम्बुज द्वारा।
चरित सुमित्रा-सुत का जो अति सरस उचारा।
वह नितान्त तेजोमय है अति ओज-भरा है।
एक राम-जीवन-मय है निरुपम सुथरा है।
निज रुचि-प्रियता-ममतादि का है न पता उसमें कहीं।
धाराएँ उसमें राम-हित जो शुचिता सँग हैं बहीं।16।
 
अकपट-चित से बन अनन्यमन रोप युगल पग।
वे करते अनुसरण राम का नीरवता सँग।
उसी काल यह मौन तपस्वी जीभ हिलाता।
जब रघुपति-हित-सुयश-मान पर संकट आता।
जग-जनित ताप उपशमन के लिए त्याग निजता गिला।
सौमित्र आत्मरति नीर था राम-प्रीति पय में मिला।17।
 
कुंठितमति पौरुष-विहीनता, परवशता से।
वे न सिया-पति अनुगत थे स्वारथ-परता से।
वरन हृदय में भ्रातृभक्ति उनके थी न्यारी।
जिसने थी मोहनी अपर भावों पर डारी।
उनके जीवन-हिम-गिरि-शिखर पर अमरावति से खसी।
राका-रजनी-चाँदनी सी स्नेह-वीरता थी लसी।18।
 
वे वासर थे परम मनोहर दिव्य दरसते।
जब थे भारत-मधय लखन से बंधु विलसते।
आज कलह, छल, कूट-कपट घर घर है फैला।
हृदय बंधु से बंधु का हुआ है अति मैला।
हे प्रभो! बंधु सौमित्र से फिर उपजें, गृह गृह लसें।
शुचि-चरित सुखी परिवार फिर भारत वसुधा में बसें।19।

26. उर्मिला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसी ऊबती से न जो जी बचावें।
न दुख और का देख जो ऊब जावें।
कढ़ी आहें बेचैन जिनको बनावें।
जिन्हें प्यार की है परख वे बतावें।
किसी दिन भी दो बूँद ऑंसू गिरा कर।
हमारी पड़ी आँख है उर्मिला पर।1।
 
उसी उर्मिला पर न जिसने जताया।
किसी को दरद औ न दुखड़ा सुनाया।
तड़पता कलेजा न जिसने दिखाया।
न कोसा किसी को न मुखड़ा बनाया।
बिरह-बेलि जिसने हृदय बीच बोई।
जली रात दिन फूट कर जो न रोई।2।
 
जिसे प्यार कर, थी न फूले समाती।
न जिसका वदन देख कर थी अघाती।
न जिसके बिना थी कभी चैन पाती।
मधुर बात जिसकी बहुत थी लुभाती।
रही पद-सलिल प्रात ही जिसका पीती।
रही देख जिसकी कनक-कान्ति जीती।3।
 
उसी ने किया आह उससे किनारा।
न आई दया औ न दुख को बिचारा।
न एक बार उसके बदन को निहारा।
न देखी दृगों से गिरी वारि-धारा।
न दस पाँच दिन या बरस दो बरस को।
चला वह गया बन में चौदह बरस को।4।
 
सिसकती रही वह पड़ी एक कोने।
सुना सब, निकल किन्तु आई न रोने।
कलेजे में दुखके पड़े बीज बोने।
उसे सब सुखों से पड़े हाथ धोने।
न तब भी विकल प्राण-पति को बनाया।
न मुखड़ा हुआ आँसुओं में दिखाया।5।
 
जनक-नन्दिनी राम के पास आई।
किसी से तनिक भी न सहमी लजाई।
विलख कर बिरह वेदनाएँ सुनाई।
दृगों में भरी वारि बूँदें दिखाई।
अवध कँप उठा मर्म वेधी विरह से।
हिली तक नहीं उर्मिला निज जगह से।6।
 
जनक के सदन में पली उर्मिला थी।
सिया की सखी उच्च-कुल कन्यका थी।
इसी से कहूँगा न वह निष्ठुरा थी।
वरन प्रेम रँग में रँगी प्रेमिका थी।
तनिक भी नहीं जो जगह से हिली वह।
बड़ी ही समझ बूझ की बात थी यह।7।
 
रहे राम स्वाधीन जेठे सहोदर।
उन्हें था न संकोच सकते थे सब कर।
सुमित्रा सुवन थे पराधीन सहचर।
बिबिध राम-सेवादि में रत निरन्तर।
इसी से न वह साथ सकते थे ले जा।
सुमुखि उर्मिला को कठिन कर कलेजा।8।
 
उसे ले, अगर साथ सौमित्र जाते।
बड़े काम तो एक भी कर न पाते।
कहाँ तक लजाते ढिठाई दिखाते।
बड़ों की बड़ाई कहाँ तक निभाते।
असुविधा सभी बात में मुख दिखाती।
बँधी मेंड़ मरजाद की टूट जाती।9।
 
समझती रही उर्मिला बात सारी।
रही पति-हृदय से उसे जानकारी।
नहीं मानती थी उसे वह सु-नारी।
जिसे-कंत-अनुगामिता हो न प्यारी।
इसी से नहीं निज जगह से टली वह।
जहाँ थी वहीं दब बिरह में जली वह।10।
 
नहीं नारि जो पति हृदय जान पाती।
नहीं आप ही जो उचित कर दिखाती।
कठिन काल में जो नहीं काम आती।
नहीं जो कि पति-हेतु निजता गँवाती।
न कोई सकेगा उसे कुल-बधू कह।
न है प्यार के पंथ की पंथिनी वह।11।
 
भरी बात में हो बड़ी ही मिठाई।
लगी किन्तु होवे कलेजे में काई।
तनिक स्वार्थ बू प्यार में हो समाई।
दुई की झलक हो दृगों रंग लाई।
भला है न तो ब्याह-मंडप में आना।
भरे लोग में नेह-गाँठें गठाना।12।
 
रही उर्मिला कुल-बधू आर्य-बाला।
मिला था उसे उर बड़ा प्यार वाला।
इसी से बहुत जी को उसने सम्हाला।
पकड़ कर कलेजा सहा सब कसाला।
बड़े लाड़ औ प्यार के साथ पोसी।
जली औ घुली मोम की बत्तियों सी।13।
 
न तब भी किसी ने गले आ लगाया।
न पोंछा सलिल जो दृगों ने बहाया।
न कर तक उसे बोधाने को बढ़ाया।
दिखाई पड़ी तक किसी की न छाया।
न सोचा किसी ने कभी आँख भर कर।
गयी बीत क्या इस सरल बालिका पर।14।
 
बड़ों को सभी आँख है देख पाती।
दुखी दीन की है किसे याद आती।
नहीं दुंद जो रो कलप कर मचाती।
नहीं पीर अपनी किसी को जनाती।
सदा ही यही ढंग जग का दिखाया।
उदधि नाद में कब नदी रव सुनाया।15।

27. सच्चा प्रेम-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

अमरलोक से आ उतरी सी एक अलौकिक बाला।
क्षितितल पर निज छवि छिटकाती करती रूप उँजाला।
कलित किनारी बलित परम कमनीय वसन तन पहने।
विलसित हैं जिसके अंगों पर रत्न-खचित बर गहने।1।
 
रखे कमल-सम दायें कर पर लोटा सजल निराला।
लिए वाम-कर में कुसुमों की थाली अनुपम आला।
जैसे ही निज कान्त सदन से पुलकित बाहर आई।
वैसे ही एक मूर्ति अलौकिक सम्मुख पड़ी दिखाई।2।
 
था उसका अभिराम श्याम तन कोटि-काम-मद-हारी।
जिस पर नव विभूति विलसित थी भव-विभूति से न्यारी।
शिर पर मंजुल जटा-छटा थी तन पर था मृग-छाला।
कंबु मनोरम मृदुल गले में थी विराजती माला।3।
 
सकमंडल कर में लकुटी थी कानों में मुद्राएँ।
अंकित थीं सुविशाल भाल पर रुचिर तीन रेखाएँ।
विकच-नील-अरविन्द-विनिन्दक थी मुख-इन्दु-निकाई।
युगल भौंह ने जिस पर उपमा अलि-अवली की पाई।4।
 
अनुरंजित अनुराग-लाग में डूबे सहज फबीले।
रतनारे, न्यारे, कजरारे, थे युग नयन रसीले।
ललित अधर पर विलस रही थी हँसी सरस अभिरामा।
अंग अंग थी सुछबि छलकती देख ललकतीं बामा।5।
 
तिरछी आँखों से विलोक कर यह मूरत मन-हारी।
चकित हुई मृग-शावक-लोचनि विकच बनी उर क्यारी।
उठे न पाँव, पधार सकी नहिं पड़ी प्यार के पाले।
श्याम स्वरूप अनूप रूप ने औचक फंदे डाले।6।
 
चकित, थकित, पुलकित, नवला को देख श्याम-वपु बोले।
अपनी रुचिर वचन-रचना में सरस सुधा रस घोले।
ऐ विधि की कल कीर्ति-लता की कुसुमावलि में आला।
जग-ललामता कोमलता की कान्ति-विधायिनि बाला।7।
 
मानव-रत्न कौन है वह, तू है जिसके रँग-राती।
जिसके हित पूजने उमा-पति प्रति वासर है जाती।
होगा बड़ा भाग-वाला वह, मैं हूँ महा अभागा।
विधि-वश सुर-दुर्लभ विभूति से जो मम मन अनुरागा।8।
 
देख सामने खिली मालती मैं हूँ बल बल जाता।
पर उसके सँग जी बहलाने पल भर भी नहिं पाता।
मैं हूँ वह प्यासा, समीप जिसके है रस का प्याला।
किन्तु उसे छू सकने तक का पड़ा हुआ है लाला।9।
 
उमड़ घुमड़ है घन सनेह का दया-वारि बरसाता।
पर निज चातक को दो बूँदें देते है अकुलाता।
पारावार अपार रूप का लहराता है आगे।
पर अनुकूल लहर पा करके भाग न मेरे जागे।10।
 
कल मलयानिल अति समीप से बहुधा है बह जाता।
किन्तु कभी भी मम ही तल को शीतल नहीं बनाता।
यह प्रपंच अवलोक जगत का मेरा जी अकुलाया।
योगी बन मैं बन वन घूमा अंग भभूत रमाया।11।
 
किन्तु चित्त ने चैन न पाया मन भी हाथ न आया।
टली न आधि, समाधि लगी नहिं, मिटी न ममता माया।
आसन मार रोक मन को जब मैं हूँ ध्यान लगाता।
तब उसका ही रम्य-रूप मम उर में है खिल जाता।12।
 
कोमल किसलय, कल कुसुमवलि, मंजुल वंजुल कुंजें।
पारावत केकी-पिक-संकुल-मुखारित बिपुल-निकुंजें।
उस ललामता खनि की मुझको प्रति-पल याद दिला के।
परमाकुल करती हैं कितनी ललित कला दिखला के।13।
 
रजनि सुन्दरी जब नखतावलि मुक्तमाल है पाती।
जब चाँदनी मिस मृदु मुसकाती, है विधुबदन दिखाती।
तब मैं पुलकित क्या होऊँगा अति विचलित हूँ होता।
बड़े वेग से बह जाता है उर में बहु दुख-सोता।14।
 
सरस पवन जब सन सन चलकर है सुर मधुर सुनाती।
तब हो सुरति विभूषण-धवनि की भर आती है छाती।
प्रात:काल मृदुल रवि कर जब हैं कमलिनि को छूते।
तब होता हूँ विपुल विकल ऑंसू चख से हैं चूते।15।
 
किसी काल में जैसे तन को नहीं छोड़ती छाया।
निकल नहीं सकता वैसे ही उर में रूप समाया।
सुर-दुर्लभ विभूति को मुझ सा पामर जन नहिं पाता।
दिवि-ललाम-भूत ललना से क्या है कपि का नाता।16।
 
चरम शान्ति की मूर्ति सुशीले तू बतला इतना ही।
कैसे शान्ति मिलेगी मुझको क्यों होगी चित-चाही।
तू है सरल, शिरोमणि तू है प्रेम-पंथ-पथिक की।
इसीलिए हूँ दवा पूछता तुझसे हृदय-बिथा की।17।
 
निज-कर-कमल राजते जल लौं तू उर तरल बनावे।
फिर उसकी सनेह-धारा सों सारा ताप नसावे।
कर की सुमनवती थाली लौं सुमनवती वन बाले!
मुझ ऊबे, वियोग वारिध में डूबे को अपना ले।18।
 
जैसे मान सके मेरा मन वैसे इसे मना दे।
अधिक क्या कहूँ मेरी बिगड़ी जैसे बने बना दे।
इतना कह कर मौन हुआ वह प्रेम-पंथ-मतवाला।
ललना के तन-मन-नयनों पर जादू डाल निराला।19।
 
मुदित दिशाएँ हुईं, मंजु लतिकाएँ मृदु मृदु डोलीं।
खिले प्रसून, बेलियाँ विकसीं, चिड़ियाँ स्वर से बोलीं।
इसी काल का चित्र मनोहर यह सामने विलोको।
उसमें चित्रकार कर-कमलों का कौशल अवलोको।20।
 
प्रेमिक की सुन प्यारी बातें प्रेम रंग में डूबी।
पहले हुई अतिचकित बाला फिर चंचल हो ऊबी।
जिसकी प्रीति-लाभ हित प्रतिदिन था पुरारि को पूजा।
जिसके तुल्य आँख में उसकी था न अवनि में दूजा।21।
 
उसको निज अनुरक्त देख यों देह-दशा वह भूली।
प्रेम-उमंग-रंग-रंजित हो ललित लता लौं फूली।
फिर प्रतिपल अति पुलकित होती छबि विलोकती वाँकी।
उसने उसी सलिल-सुकुसुम से प्रियतम की पूजा की।22।
 
जो दो उर थे संगम-कामुक पडे प्रेम के पाले।
वो यों आज मिले दिखला कर अपने ढंग निराले।
जिस पर जिसका सत्य प्रेम भूतल में है हो जाता।
है सन्देह न कुछ भी इसमें वह उसको है पाता।23।

28. संयुक्ता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आर्यवंश की विमल कीर्ति की धवजा उड़ाती।
क्षत्रिय-कुल-ललना-प्रताप-पौरुष दिखलाती।
कायर उर में वीर भाव का बीज उगाती।
निबल नसों में नवल रुधिार की धार बहाती।
विपुल वाहिनी को लिये अतुल वीरता में भरी।
सबल बाजि पर जा रही है संयुक्ता सुन्दरी।1।
 
प्रबल नवल-उत्साह-अंक में शक्ति बसी है?
या साहस की गोद मधय धीरता लसी है?
परम ओज के संग विलसती तत्परता है।
या पौरुष के सहित राजती पीवरता है।
चपल तुरग की पीठ पर चाव-चढ़ी चित-मोहती।
या दिलीश उत्संग में है संयुक्ता सोहती।2।

29. शिशु-स्नेह-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सहज सुन्दरी अति सुकुमारी भोली भाली।
गोरे मुखड़े, बड़ी बड़ी कल आँखों वाली।
खिले कमल पर लसे सेवारों से मन भाये।
खुले केश, जिसके सुकपोलों पर हैं छाये।
बहु-पलक-भरी मन-मोहिनी कुछ भौंहें बाँकी किये।
यह सरल बालिका कौन है अंक नवल बालक लिये।1।
 
खिली कमलिनी-अंक गुलाब कुसुम विकसा है।
या भोलापन परम सरलता-संग लसा है।
या विधि न्यारे करके कलित खिलौने ये हैं।
जो जन की युग आँखों पर करते टोने हैं।
या जीवन-तरु-रस-मूल के ये फल हैं प्यारे परम।
या प्रकृति-कोष कमनीय के ये हैं रत्न मनोज्ञतम।2।
 
अपना विकसित बदन बड़े चावों से रख कर।
खिले फूल से शिशु के सुन्दर मुखड़े ऊपर।
कौन अनूठा भाव बालिका है बतलाती।
कौन अनोखा दृश्य दृगों को है दिखलाती।
क्या सूचित करती है उन्हें, हैं भावुक जो भूमि पर।
ये युगल कलाधर हैं मिले उर कुमोद उत्फुल्ल कर।3।
 
युग शिशु-उर में प्यार-बीज अंकुरित नहीं है।
क्यों होता है विकच बदन यह विदित नहीं है।
किसी काल जब मिल जाते हैं दो प्यारे जन।
क्यों होता है मोद, विकस जाता है क्यों मन।
इस गूढ़ बात का मरम भी यदपि नहीं कुछ जानते।
हैं तदपि मुदित वे, हैं मनो मोद-सिंधु अवगाहते।4।
 
रविकर कोमल परस, कमल-कुल खिल जाता है।
पाकर ऋतु पति पवन रंग पादप लाता है।
क्या उनका है प्यार, मोद वे क्यों हैं पाते।
किस स्वाभाविक सूत्र से बँधो वे किस नाते।
यह सकल श्रीमती प्रकृति की परम अलौकिक है कला।
है बहु अंशों में प्राणि-उर एक रंग ही में ढला।5।
 
क्यों विकसित मुख देख, चित्ता है विकसित होता।
उर में क्यों उर सरस बहाता है रस-सोता।
क्यों बीणा बजकर है सरव सितार बनाती।
क्यों मृदंग-धवनि है पनवों में धवनि उपजाती।
इसमें नहिं अपर रहस्य है सकल हृदय है एक ही।
स्वर जैसे बीन सितार, औ पनव मृदंग जुदा नहीं।6।
 
हैं दोनों शिशु हृदयवान नेही हैं दोनों।
रत्न मनोहर एक खानि के ही हैं दोनों।
फिर क्यों उनका परम प्रेममय उर नहिं होगा।
देख एक को मुदित, अपर क्यों मुदित न होगा।
नव कली कुमुदिनी कान्त की जो विकास पाती नहीं।
तो क्या स्वाभाविक मंजुता उसमें सरसाती नहीं।7।
 
इन शिशुओं की प्रीति परम आनंद-पगी है।
अति विमला है लोकोत्तारता रंग-रँगी है।
भावमयी, रसमयी, रुचिर उच्छासमयी है।
दृग-विमोहिनी चित्तारंजिनी नित्य नयी है।
यह लोक-विकासिनि शक्ति के, कमल करों से है छुई।
यह वह अति प्यारी वस्तु है, स्वर्ग-सुधा जिसमें चुई।8।
 
इस सनेह में नहीं स्वार्थ की बू आती है।
कपट, बनावट नहिं प्रवेश इसमें पाती है।
छींटें इस पर पड़ी नहीं छल बल की होतीं।
चित-मलीनता नहिं इसकी निर्मलता खोती।
यह वह प्रमोद वन है, नहीं अनबन वायु जहाँ बही।
यह वह प्रसून है, उपजता कलह-कीट जिसमें नहीं।9।
 
क्यों कोमल किसलय हैं जी को बहुत लुभाते।
क्यों पशु के बच्चे तक हैं चित को विलसाते।
बाल-भाव है परम रम्य है बहु मुददाता।
आँखों-भर उसको लख कर है जग सुख पाता।
मानव कुल के ये शिशु-युगल अति सुन्दर प्यारों-पगे।
मन, नयन विमोहेंगे न क्यों, सहज भाव सच्चे सगे।10।

30. वामन और बलि-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वामन हैं विभु प्रकृति नियम के नियमनकारी।
भव विभुता आधार भुवन प्रभुता अधिकारी।
व्यापक विविध विधान विश्व के सविधि विधायक।
लोकनीति परलोक प्रथा के प्रगति प्रदायक।
जग अभिनय अति कमनीय के वर अभिनेता मोद हद।
अवतार रूप में अवनि के भार निवारक मुक्तिप्रद।1।
 
बलि है बहु बलवान लोक विजयी दनुजाधिप।
धीर वीर साहसी विवुधा सेवित वसुधाधिप।
हो उदार अनुदार नीति अवलम्बन कारी।
कुछ उध्दत अधिकार प्रेम प्रेमिक अविचारी।
मानव मानवता दमनरत सुरसमूह दृग प्रबलतम।
मंगलमय, मंगल कामना कमनीयता कलंक सम।2।
 
यह सारा संसार बाग है परम मनोहर।
दनुज मनुज सुरवृन्द आदि हैं सुन्दर तरुवर।
ललित कलित वर वेलिलोक की ललनाएँ है।
बालक हैं कल कुसुम बालिका लतिकाएँ हैं।
खग ही हैं कलरव निरत खग पालित पशु हैं पशु सकल।
तृण वीरुधा बहुविधा जीव हैं विधिा विधान हैं विविध फल।3।
 
परि पालक यदि सरुचि बाग परिपालन रत हो।
सानुकूल रह सहज समुन्नति निरत सतत हो।
करे सकल मल दूर म्लानता उसकी खोवे।
बर अवसर अवलोक बीज हित साधन बोवे।
कर काट छाँट समुचित उसे करे सदा कंटक रहित।
तो होगी कृति कमनीयता मिलित परम प्रभु रुचि सहित।4।
 
किन्तु यदि न वह दया वारि से उसको सींचे।
कृमि संकुल विदलित विलोक नयनों को मींचे।
अथवा पादप पुंज समुन्मूलन रत होवे।
लता वेलि कोदले कुसुम चय उपचय खोवे।
तो किसी जगतहित साधिका दिव्य शक्ति से विवश बन।
निज नितपन गति अनुसार ही होवेगा उसका पतन।5।
 
दिव्य शक्ति की दिव्य मूर्ति हैं वामन विभु वर।
परिपालक है पतन प्राय बलि बैरी सुर नर।
वह उदार है, परम मलिन है नीति न उसकी।
परि पालन की विपुल बुरी है रीति न उसकी।
वह परम भक्त प्रधाद का है अति प्यारा वंश धार।
इस से निग्रह की क्रिया में है न अनुग्रह की कसर।6।
 
छल प्रपंच जिसके जीवन का संबल होवे।
क्यों सँभले सर्वस्व जो न वह छल से खोवे।
जो सबको लघु गिने, साम्य क्यों करे प्रचारित।
जो न आवरित करे उसे लघुता विस्तारित।
जग जैसे को तैसा मिला तुच्छ नहीं है अग्नि कण।
वामन वामनता विशदता का यह है विशदीकरण।7।
 
रुचिर नीति है यही रुधिर का पात न होवे।
जहाँ शान्ति रह सके वहाँ उत्पात न होवे।
भौंह तने जो भीत बने असि उसे न मारे।
लघु अपराधी उदर करद द्वार न बिदारे।
है क्रिया नीति की सहचरी जननी शान्ति महान की।
वामन के दान ग्रहण तथा बलि के दान प्रदान की।8।
 
लोक हितकारी क्रिया सके अवलोक नहीं सित।
इसीलिए लोचन विहीन हो बने कलंकित।
प्रतिपालन कर वचन न पाया बलि ने निज तन।
वामन ने प्रतिफल जन किया द्वारपाल बन।
यह देख युगल यश जलज का सकल लोकमन अलि हुआ।
बलि पर बामन वलि हो गये वामन पर बलि बलि हुआ।9।
 
जगजन रंजन रुचिर नीति से हो बहु वंचित।
कर त्रिभुवन भी दान हुआ बलि परम प्रवंचित।
हो त्रिलोक पति धीर बीर विजयी उदार चित।
अधा: पतित वह हुआ हुए पाताल प्रवासित।
वर्धान कर त्रिभुवन शान्ति सुख समधिक सम्वर्धित हुए।
हो वामन बँधा विधिा सूत्रा में वामन बहु वधिर्त हुए।10।

31. कमल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ऊपर नभ नीलाभ रक्त रविबिम्ब विराजित।
ककुभ परम रमणीय रागद्वारा आरंजित।
नीचे पुलकित हरित लता तरु पूरित भूतल।
नवश्यामल तृणराजि बड़े कमनीय फूल फल।
बहु विकच सरोरुह से लसित कान्त केलि खगकुल बलित।
कलकल कलकल रव मुखरित सरिकलिन्द तनया कलित।1।
 
रविजा में हैं सोह रहे सोपान मनोहर।
उन पर हैं लसरही युगल ललना अति सुन्दर।
हैं तनके वरवसन विभूषण बड़े निराले।
हैं सिर पर जल कलश नयन हैं रस के प्याले।
सामने जलद तन हैं खड़े कर आकुल लोचन सफल।
निज कमलोपम कर में लिये दो कमनीय विकच कमल।2।
 
उनका सुमधुर कंठ मधुरिममय कर मानस।
बरसा रहा है पूत प्रकृति पर परम रुचिर रस।
सानुराग कर ललित राग रंजित नभतल को।
सरस सरस अति सरस कर रहा है सरिजल को।
वह गोपबल को धोनु को विहगवृन्द को कर सुखित।
कलकूल विलसिती बाल को बना रहा है बहु मुदित।3।
 
उसकी धवनि है मधुर मुरलिका सी मनहारी।
पिक काकली समान विपुलचित पुलकितकारी।
सकल अलौकिक भूति निकेतन उसका मृदुस्वर।
बरसता है सुधा सुधानिधि लौं वसुधा पर।
उसमें सुभावनाओं सहित वह रसालता है भरी।
जिसने कि पिपासा ज्ञान की जगत पिपासित की हरी।4।
 
कहते हैं ब्रजदेव दिखा करके कमलों को।
देवि इन विकच कुसुमों की गरिमा अवलोको।
इन जैसा अनुराग रंग में कौन रँगा है।
कौन भला यों मित्र मित्राता मधय पगा है।
मानस मोहकता मधुरता भावों की रमणीयता।
किसमें है ऐसी विकचता कोमलता कमनीयता।5।
 
हैं विरंचि से सुबन बंधु है विदित विभाकर।
है उसका अवलंब जगत पाता पावन कर।
रमा मन रमे सदा रमी उसमें रहती है।
शिव शिर पर चढ़ मिली उसे महिमा महती है।
मदमत्ता हुआ तो भी न वह सदा प्रेम पाता रहा।
मधुकर समान मधुअंधा भी उससे मधु पाता रहा।6।
 
सर उससे है परम कान्त बन शोभा पाता।
पाकर सुरभि समीर सौरभित है हो जाता।
रस लोलुप को परम मधुर रस है वह देता।
दृग को कर सुखदान बहु सुखित है कर लेता।
वह परहित रत रहकर सदा किसका हित करता नहीं।
बर विकसित रहकर कौन-सा चित विकसित करता नहीं।7।
 
आरंजित रविबिम्ब गगन सर रक्त कमल है।
इसीलिए अनुराग रागरंजित जल थल है।
उसकी कोमल कान्ति कान्त भू को है करती।
तरु को तृण को फलदल को है सुछबि वितरती।
वह अपनी अनुपम ज्योति से जगत तिमिर है खो रहा।
रजकण भी नव आलोक पा आलोकित है हो रहा।8।
 
कहें न मुख को कमल यदि न मुख बिकच बनावे।
कहें न दृग को कमल यदि न रस वह बरसावे।
कहें न कर को कमल जो न वह हितकर होवे।
कहें न पग को कमल जो न अपना मल खोवे।
यदि तज न अकोमलता बुरी समुचित कोमलता लहे।
तो किसी गात को कमल सा कोमल कोई क्यों कहे।9।
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है ललामता लोक प्रीति की परम निराली।
लाली उसकी सकी जगत मुख की रख लाली।
वह ललना है बड़ी भली वह लाल भला है।
जिसने सीखी लोक बंधुता ललित कला है।
क्या रहा सलिल जैसा तरल कोई मानस बन विमल।
जो उसमें खिला मिला नहीं लोक प्रेम मंजुल कमल।10।

32. पर्णकुटी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ऊँचे श्यामल सघन एक पादप तले।
है यह एक कुटीर सित सुमन सज्जिता।
इधर उधा हैं फूल बेलियों में खिले।
वह है महि श्यामायमान छबि मज्जिता।1।
 
पास खड़े हैं कदाकार पादप कई।
परम शान्त है प्रकृति निपट नीरव दिशा।
व्यापी सी सब ओर कालिमा है नई।
धीरे धीरे आगत प्राया है निशा।2।
 
या नभ मण्डल जलद जाल से है घिरा।
छिति तल पर है उसकी छाया पड़ रही।
प्रात तिमिर है तरल हो गया तिरमिरा।
या है नभ तल विमल नीलिमा झड़ रही।3।
 
हैं न कहीं खग मृग मानव दिखला रहे।
मानो अविचल वहाँ बिजनता राज है।
हैं अभाव धारा में ही कृमि कुल बहे।
रव सिर पर भी परम मौनता ताज है।4।
 
यह किस की है कुटी कहें कैसे इसे।
किसी व्यथित चित का क्या यह आवास है।
या यह उस जन की सहेलिका है जिसे।
निर्जन में एकान्तबास की प्यास है।5।
 
परम पापमय इस पापी संसार से।
समधिक आकुल जिसका मानस हो गया।
बहुत गया जो ऊब अवास्तव प्यार से।
जिसका प्यारा शान्ति-रत्न है खो गया।6।
 
जो अवलोकन कर पाता वह मुख नहीं।
लगी अधमता की है जिस पर कालिमा।
या हिंसकता धाराएँ जिस पर बहीं।
या जिसकी है लहू रंजित लालिमा।7।
 
गिरा अति दुखित चित जिसका दुख कूप में।
उस दानव की देख नीतियाँ दानवी।
अवनी तल पर जिसको मानव रूप में।
उपजाती है परम पुनीता मानवी।8।
 
उतर आँख में जिसकी आता है लहू।
उस पामर की पामरताओं को लखे।
सब बातों में जो दानव है हूबहू।
किन्तु वेश वानक बृन्दारक का रखे।9।
नर पिशाचता अहमहमिकता अधामता।
 
अवलोकन कर जिसका जी उकता गया।
जग मदांधाता मायिकता बहु असमता।
देख कलेजा मुँह को जिसका आ गया।10।
बिजन बिराजित ऐसी किसी कुटी सिवा।
 
कौन दूसरी शान्ति विधायिनि है उसे।
मिली कहाँ वह अति पावन प्यारी हवा।
हों न अपावन रुचि रज कण जिसमें बसे।11।
 
भारत के बहु विबुधा वृन्द सहवास से।
यह है वसुधा विविधा पुनीत प्रशंसिता।
पा अनुपम आलोक उन्हीं के पास से।
इसने की है सकल अवनि आलोकिता।12।
 
है प्रभावित यह बहु तपो प्रभाव से।
गिरि तनयाने इसे विपुल गौरव दिया।
जन रंजन मुनिजन ने पूजित भाव से।
इसका बहु अभिनन्दन अनुरंजन किया।13।
 
केकैय तनय प्रबल प्रपंचों में पड़े।
कुसुम सेज जब रघुकुल रंजन की छिनी।
वन में उन पर जब दुख पड़े बड़े कड़े।
तब कुटीर ही रही विराम विधायिनी।14।
 
देश-प्रेम औ जाति-प्रेम प्रेमिक बने।
विविध यातना जब नृप पुंगव ने सही।
जब प्रताप से प्रिय परिजन तक थे तने।
तब कुटीर ही उनका अवलंबन रही।15।
 
निकल आह इसमें से ही प्रलयंकरी।
सौधा धावल धामों को देती है जला।
लोकलयकरी ज्वाला है इसमें भरी।
इसमें ही दनु वंश दहन रत दब बला।16।
 
समधिक तेजोमयी महान बिनोदिनी।
सहज सुखों की सखी सरलताओं भरी।
बहु मानव हितकरी ताप अपनोदिनी।
कुटी शान्ति की है अति प्यारी सहचरी।17।

33. रवि सहचरी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चन्द्र बदनी तारकावलि शोभिता।
रंजिता जिसको बनाती है दिशा।
दिव्य करती है जिसे दीपावली।
है कहाँ वह कौमुदी वसना निशा।1।
 
क्या हुई तू लाल उसका कर लहू।
क्या उसी के रक्त से है सिक्त तन।
दीन हीन मलीन कितनों को बना।
क्यों हुआ तेरा उषा उत्फुल्ल मन।2।
 
वह बुरी काली कलूटी क्यों न हो।
क्यों न वह होवे भयंकरता भरी।
पर कलानिधिा का वही सर्वस्व है।
है वही कल कौमुदी की सहचरी।3।
 
मणि जटित करती गगन को है वही।
उड़ु विलसते हैं उसी में हो उदित।
है चकोरों को पिलाती वह सुधा।
है वही करती कुमुद कुल को मुदित।4।
 
है बिलसती तू घड़ी या दो घड़ी।
किन्तु वह सोलह घड़ी है सोहती।
है अगर मन मोहना आता तुझे।
तो रजनि है कम नहीं मन मोहती।5।
 
तू लसे पाकर परम कमनीयता।
लाभ कर बर ज्योति जाये जगमगा।
बंद आँखें खोल आलस दूर कर।
दे जगत के प्राणियों को तू जगा।6।
 
है उचित यह, है इसे चित मानता।
किन्तु है यह बात जी को खल रही।
देख करके दूसरे का वर विभव।
किसलिए तू इस तरह है जल रही।7।
 
लाल है तो तू भले ही लाल बन।
पर कभी मत क्रोध से तू लाल बन।
क्यों न मालामाल ही हो जाय तू।
पर किसी का मत कभी तू काल बन।8।
 
उस समुन्नति को भली कैसे कहें।
और को जो धूल में देवे मिला।
दूसरा जो फूल फल पाया न तो।
किसलिए मुखड़ा कभी कोई खिला।9।
 
देख कर तुझको परम अनुरंजिता।
था बिचारा प्यार से तू है भरी।
विधु विधायकता तुझे कैसे मिले।
जब प्रखर रवि की बनी तू सहचरी।10।

34. एक चिरपथिक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रिय आवास वास सुख वंचित बहु प्रवास दुख से ऊबा।
नव उमंगमय एक चिरपथिक अभिनव भावों में डूबा।
विकच वदन अति मंद मंद सानंद सदन दिशि जाता था।
विविध तरंग तरंगित मानस रंगत रुचिर दिखाता था।1।
 
प्रिया प्रतीची अंकरंजिनी दिन रंजन किरणें रंजित।
उसका मन रंजन करती थीं मंजुराग कर कर व्यंजित।
गगन लालिमा मुखलाली को समधिक ललित बनाती थी।
खिलखिल कलिका कलित कुसुम की दिल की कली खिलाती थी।2।
 
कानों को कलोलरत खग कुलकलरव सुधा पिलाता था।
गंधा बाह बरगंधा बहन कर बहु विनोद उपजाता था।
रजनी-मुख विकसित कुमोदिनी मिस मृदु मृदु मुसकाती थी।
करा किसी विधु वदनी की सुधि निज विधु वदन दिखाती थी।3।
 
विभावरी ने जब तारक चय खचित रुचिर सारी पहनी।
उसी समय अवलोकी उसने सदन पास की प्रिय अवनी।
सौधा धावल प्रासाद मनोहर निकट उसी के दिखलाया।
दूर हुआ अवसाद स्वाद गृह दर्शन का उसने पाया।4।
 
हँसा हँसाकर दिशा वधू को कान्त कौमुदी हँसती थी।
विमल गगन भूतल पादपदल फल पर विपुल विलसती थी।
गृह उद्यान ज्योति से उसकी ज्योतिर्मय दिखलाता था।
वर प्रासाद जगमगा करके हीरक जटित जनाता था।5।
 
किन्तु देख नीरवता बाँकी चिन्तित पुलकित-पथिक हुआ।
निर्जनता अवलोक अनाकुल मानस आकुल अधिक हुआ।
इसी समय आलापिनि द्वारा हुआ मधुर आलाप वहीं।
जिससे सरस सुधा की धारें परम सरसता साथ बहीं।6।
 
फिर कोकिल-कल-कंठ नाद से लगा गूँजने ककुभ सकल।
गीत कलित कोमल पदावली बनी विकल चित का संबल।
यह सुन पड़ा, चिर पथिक कैसे चिरपथिकों का है भूला।
कैसे कुम्हला गया हमारा अति सुन्दर सुख तरु फूला।7।
 
क्यों जीवन सर्वस्व न मेरा जीवन सफल बनाता है।
परम प्रेम धान क्यों स्वप्रेमिका को पल पल कलपाता है।
तन में मन में युगल नयन में जिसने अयन बनाया है।
रूप मनोरम जिसका मेरे रोम रोम रम पाया है।8।
 
वही नहीं मिलता है मेरा दिल मल मल रह जाता है।
दिन दिन दुख दूना होता है सूना जगत दिखाता है।
बन बन फिरी बिलोके उपबन किया तपोबन में फेरा।
नगर नगर घर घर में घूमी गिरिवर पर डाला डेरा।9।
 
तन सूखा, मन मरा, धान गया, पड़े पगों में हैं छाले।
मिले आज तक नहीं निवारक रौरव दुख गौरव वाले।
मिले कुसुम उद्यान धूल में परम रम्य प्रासाद ढहे।
इस आनन्दमयी अवनी में निरानन्द का सोत बहे।10।
 
परिजन दुख पावें, जिनको जन विधि विधानवश पाता है।
किन्तु हमें आलोक निकेतन अब परलोक दिखाता है।
यह स्वर लहरी गूँज गूँज जब पवन लहर में लीन हुई।
उसी समय दो भाग मलिनता अमलनिता आधीन हुई।11।
 
उठी यवनिका चिर वियोग की दो संयोगी गले मिले।
बहुत दिनों के अविकच मुखड़े विकच सरोज समान खिले।
चमक चाँदनी उठी चमकते चन्द्रदेव भी दिखलाये।
विपुल प्रसून, प्रफुल्लित तरु ने पुलक पुलक कर बरसाये।12।
 
पथिकतीर्थ प्रेमिक था पूरा पथिका पति प्रेमिका बड़ी।
इसीलिए उनको वियोग की सहनी नाना व्यथा पड़ी।
किन्तु अन्त में, हुए विरह का अन्त, मिले दोनों नेमी।
देख जगत की रीति अधिकतर बने प्रीति पथ के प्रेमी।13।
 
केवल गृह उद्यान सुमन ही, नहीं सुमनता दिखलाते।
कंटक मय पथ को भी वे थे सरस सुमन मय कर पाते।
यदि उनका प्रासाद प्रेम प्रासाद पुकारा जाता था।
तो उनके प्रसाद गुण द्वारा सभी प्रसादित आता था।14।
 
सुफलद सुतरु समान, सलिलधार तुल्य रुचिर रस संचारी।
सुखित जनों के सुखद रहे वे दुखित जनों के दुखहारी।
देश जाति-हित वसुधा तल पर सुर सरि धारा सदृश बही।
आजीवन चिरपथिक सहित चिर पथिका सत्पथ पथिक रही।15।

35. दिल के फफोले-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ग्रंथ कितने पढ़े बहुत डूबे।
भेद जाना अनेक आपा खो।
संत जन की सुनी सभी बातें।
पर न जाना गया प्रभो क्या हो।1।
 
आप में है अपार बल बूता।
यह सदा ही हमें सुनाता है।
किसलिए काम वह नहीं आता।
जब निबल को सबल सताता है।2।
 
दानवों के कठोर हाथों से।
सैकड़ों देव-वंश-दीप बुता।
धूल में मिल गये सुजन कितने।
फिर कहाँ आप की रही प्रभुता।3।
 
शान्त बैठा निरीह पंछी भी।
जो नहीं व्याध बान से बचता।
हो गयी तो कठोरपन की हद।
देख ली आप की दयामयता।4।
 
सामने बाप औ माँ के ही।
तोड़ते देख बालकों को दम।
लोग लेते पकड़ कलेजा हैं।
क्या कहें आप के हृदय को हम।5।
 
मर मिटे अन्न के बिना कितने।
कितने ही आधा पेट खा सूतें।
है कहीं यों पड़ा करोड़ों मन।
देखिए आप अपनी करतूतें।6।
 
बात कहते असंख्य जीवों को।
निधि डुबोता धारा निगलती है।
गिरि उगल आग धवंस करते हैं।
बात यह क्या कभी न खलती है।7।
 
हैं बनाये गये कुबेर वही।
जो पकड़ते हैं दाँत से पैसा।
तंग मैं हूँ उदार को पाता।
आप का यह प्रपंच है कैसा।8।
 
क्लेश पर क्लेश है, दुखी पाता।
बहु विकारों भरा मनुज मन है।
रोग का है सदन बना नर-तन।
क्या यही आपका बड़प्पन है।9।
 
जो भले और हैं बहुत सीधे।
पूछता तक उन्हें नहीं कोई।
है चलाकों की बोलती तूती।
नीति की बेलि है भली बोई।10।
 
हाथ पाँवों बिना रचे कितने।
है किसी को बना दिया काना।
झीखते हैं बहुत बिना आँखों।
हैं इसी को ही कहते मनमाना।11।
 
जो चमकते रतन धारा के हैं।
हैं उन्हें करते भोर का तारा।
मूढ़ पाते हैं आयु लोमस की।
आप का ढंग कितना है न्यारा।12।
 
प्यास जिनकी लहू से बुझती है।
जो निगल और को अघाते हैं।
टूट उन पर न जो पड़ी बिजली।
किसलिए आप प्रभु कहाते हैं।13।
 
बात जिनकी बड़ी अनूठी है।
पर भरा पेट में हलाहल है।
जो न पीछे को मुख बना उनका।
तो सधा आपका न बुधिबल है।14।
 
हैं जिन्हें धुन सवार यह रहती।
किस तरह मैं करूँ बुरा किसका।
जो उन्हें आपने न सींग दिया।
तो कहूँ आप की समझ को क्या।15।
 
जब मनुज-रक्त से सना गारा।
शिर लगाये गये कँगूरों पर।
एक दिन में गले कटे लाखों।
तब सके आप क्यों नहीं कुछकर।16।
 
जब बनी प्राण-नाशिनी गोली।
जब बनी तोप काल की पोती।
तब रहे देखते बदन किसका।
आप से है हमें कुढ़न होती।17।
 
देख शूली मसीह को पाते।
देख शर व्याध से विधा हरि-तन।
भू-समाती विलोक सीता को।
आप से फिर गया हमारा मन।18।
 
छीन लेते हैं आँख का तारा।
लूटते हैं किसी का जीवन-धान।
हैं किसी का सुहाग ले लेते।
है यही आप का निराला पन।19।
 
पीट दे या कि सर पटक देवे।
कूट डाले न क्यों कोई छाती।
पर टलेगी कभी नहीं होनी।
आप की कुछ कही नहीं जाती।20।
 
क्यों बनाया गया जगत ऐसा।
हैं सुलझती न गुत्थियाँ जिसकी।
चाल यह दूर की बड़ी गहरी।
आपको छोड़ और है किसकी।21।
 
हैं बहुत मत, अनेक झगड़े हैं।
आप को मानते नहीं कितने।
हैं सभी ओर उलझनें तो भी।
हम समझते हैं आप हैं जितने।22।
 
जब कहीं आपकी बिना इच्छा।
डोलता है न एक भी पत्ता।
किसलिए एंच पेंच फिर इतना
जब कि है एक आप की सत्ता।23।
 
ए सभी खेल जो प्रकृति के हैं।
आप क्या हैं? नहीं बताते क्यों?
जो कलें आप के करों में हैं।
ठीक उनको नहीं चलाते क्यों?।24।

36. दीन की आह-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

न तो हिलाती गगन न तो हरि हृदय कँपाती।
न तो निपीड़क उर को है भय-मीत बनाती।
निपट-निराशा-भरी निकल चुपचाप बदन से।
दीन-आह दुख साथ वायु में है मिल जाती।1।
 
उसकी बेधाकता का परिचय पाने वाला।
उसकी दुख-मयता को जी में लाने वाला।
देखा जाता नहीं, कहीं कोई होता है।
दीन-आह में अपनी आह मिलाने वाला।2।
 
बार बार अपने उर को मथ कर अकुलाती।
अमित-ताप-परिताप भरी होठों पर आती।
फिर सहती अपमान शून्य में लय होती है।
दीन-जनों की आह नहीं कुछ भी कर पाती।3।
 
सुनते हैं उससे है पाहन भी भय पाता।
उससे है ईश्वर का आसन भी डिग जाता।
किन्तु बात यह सब कहने सुनने ही की है।
दीन-आह का एक विफलता से है नाता।4।
 
वीर आह के तुल्य नहीं वह लहू बहाती।
सबल-आह के सदृश नहीं वह लोथ ढहाती।
आशंकित कर धीर-आह के सम नहिं होती।
वह अपना ही हृदय मथन कर है रह जाती।5।
 
वैसी ही उससे होती दिन रात ठगी है।
वही दीनता अब भी उसकी बनी सगी है।
कौशल है, अति गूढ़ चातुरी है, यह कहना।
दीन-आह पर हरि स्वीकृति की छाप लगी है।6।
 
पवि कठोर को धूल बना कर धर सकती है।
लोक-दाहक दुसह अंगारे झर सकती है।
किसी दयालु-हृदय से निकली हैं ये बातें।
आह दीन की भला नहीं क्या कर सकती है।7।
 
सभी सताने वाले निज कर मलते होते।
पड़ विपत्तियों में दिन रात विचलते होते।
जो दीनों की आह में जलन कुछ भी होती।
ऊँचे ऊँचे महल आज तो जलते होते।8।
 
चहल पहल है जहाँ वहाँ मातम छा जाता।
स्वर्ग-छटा है जहाँ वहाँ रौरव उठ आता।
दीन आह की धवनि यदि हरि-कानों में जाती।
नन्दन-वन है जहाँ आज मरु वहाँ दिखाता।9।
 
किया लोक-हित विबुध-जनों में धर्म कमाया।
जो उनको सब काल प्रभाव-मयी बतलाया।
किन्तु जानकर मर्म दीन-जन की आहों का।
भला, कलेजा किसका है मुँह को नहिं आया।10।

37. दुखिया के आँसू-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बावले से घूमते जी में मिले।
आँख में बेचैन बनते ही रहें।
गिर कपोलों पर पड़े बेहाल से।
बात दुखिया आँसुओं की क्या कहें।1।
 
हैं व्यथाएँ सैकड़ों इन में भरी।
ये बड़े गम्भीर दुख में हैं सने।
पर इन्हें अवलोक करके दो बता।
हैं कलेजा थामते कितने जने।2।
 
बालकों के आँसुओं को देख कर।
है उमड़ आता पिता-उर प्रेम मय।
कौन सी इन आँसुओं में है कसर।
जग-जनक भी जो नहीं होता सदय।3।
 
चन्द-बदनी आँसुओं पर प्यार से।
हैं बहुत से लोग तन मन वारते।
एक ये हैं, लोग जिनके वास्ते।
हैं नहीं दो बूँद ऑंसू ढालते।4।
 
क्या न कर डाला खुला जादू किया।
आँख के आँसू कढ़े या जब बहे।
किन्तु ये ही कुछ हमें ऐसे मिले।
हाथ ही में विफलता के रहे।5।
 
पोंछ देने के लिए धीरे इन्हें।
है नहीं उठता दया-मय-कर कहीं।
इन बेचारों पर किसी हम-दर्द की।
प्यार-वाली आँख भी पड़ती नहीं।6।
 
क्यों उरों से ये दृगों में आ कढ़े।
था भला, जो नाश हो जाते वहीं।
जो किसी का भी इन्हें अवलोक कर।
मन न रोया जी पसीजा तक नहीं।7।
 
भाग फूटा बे बसी लिपटी रही
बहु दुखों से ही सदा नाता रहा।
फिर अजब क्या, इस अभागे जीव के।
आँसुओं का जो असर जाता रहा।8।
 
बह पड़ी जो धार दुखिया आँख से।
क्यों न पानी ही उसे कहते रहें।
है नहीं जिसने जगह जी में किया।
हम भला कैसे उसे आँसू कहें।9।
 
है कलेजे को घुला देता कोई।
मैल चितवन पर कोई लाता नहीं।
कौन दुखिया आँसुओं पर हो सदय।
पूछ ऐसों की नहीं होती कहीं।10।

38. सबल और निबल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मर मिटे, पिट गये, सहा सब कुछ।
पर निबल की सुनी गयी न कहीं।
है सबल के लिए बनी दुनिया।
है निबल का यहाँ निबाह नहीं।1।
 
जान पर बीतती किसी की है।
और कोई है जी को बहलाता।
एक को धूल में मिला करके।
दूसरा है कमाल दिखलाता।2।
 
घर किसी का उजाड़ होता है।
और बनते महल किसी के हैं।
है किसी गेह का दिया बुझता।
औ कहीं दीये जलते घी के हैं।3।
 
दूसरों का बिगाड़ करके रँग।
रँग अपना सभी जमाते हैं।
एक के नाम को मिटा करके।
दूसरे लोग नाम पाते हैं।4।
 
क्या कहें बात हम अमीरों की।
आप होंगे दुखी उसे सुन के।
बेकसों का गला दबा देना।
खेल है बायें हाथ का उनके।5।
 
क्यों न दानों बिना मरे कोई।
क्यों न अपना सभी गँवा बैठे।
पर उन्हें क्या, करेंगे मनमानी।
जब कि पुतले सितम कभी ऐंठे।6।
 
काम से काम है उन्हें रहता।
वे भला कब हुए किसी के हैं।
और पिसते को पीस देना ही।
नित्ता के चोचले धनी के हैं।7।
 
रत्न न्यारे मोल का जितना अधिक।
राज सिंहासन मुकुट में हो लगा।
ठीक कहते कि उतना ही अधिक।
वह खून के दूसरों से है रँगा।8।
 
चैन कितने लोग पाते ही नहीं।
जान कितनी जो न हाथों से गई।
नित कलेजा सैकड़ों कुचले बिना।
पाँव सीधो पड़ नहीं सकते कई।9।
 
क्या कहें, जी है धड़क उठा बहुत।
फूँक कर घर सैकड़ों फूले फले।
लालसाएँ राज या धान मान की।
आज भी हैं रेततीं लाखों गले।10।
 
बेबसी जिन पर बरसाती है बहुत।
आँख से आँसू बहा करके घड़ों।
गेंद जैसे हैं लुढ़कते धूल में।
ठोकरें खा खा गिरे सिर सैकड़ों।11।
 
छिन गये सुख चाह मिट्टी में मिली।
औ कलेजे ने बुरी ठेसें सहीं।
लोग लाखों लुट गये सरबस गया।
औ हुआ क्या? एक की बातें रहीं।12।
 
आप आँखें खोल करके देखिए।
आज जितनी जातियाँ हैं सिर-धारी।
पेट में उनके पड़ी दिखलायेंगी।
जातियाँ कितनी सिसकती या मरी।13।
 
दूसरों की पीर कब समझी गयी।
और के दुख की हुई परवाह कब।
बात कहते गरदनें कितनी नपीं।
भौं चढ़ा बैठा कोई बे पीर जब।14।
 
जी सभी का मांस से ही है बना।
है कलेजा दूसरों के पास भी।
कौन लुट जाता नहीं निजता गँवा।
पर समझता यह नहीं कोई कभी।15।

39. आँख का आँसू-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आँख का आँसू ढलकता देख कर।
जी तड़प करके हमारा रह गया।
क्या गया मोती किसी का है बिखर।
या हुआ पैदा रतन कोई नया।1।
 
ओस की बूँदें कमल से हैं कढ़ी।
या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ।
या अनूठी गोलियाँ चाँदी मढ़ी।
खेलती हैं खंजनों की लड़कियाँ।2।
 
या जिगर पर जो फफोला था पड़ा।
फूट करके वह अचानक बह गया।
हाय! था अरमान जो इतना बड़ा।
आज वह कुछ बूँद बनकर रह गया।3।
 
पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ।
यों किसी का है निरालापन गया।
दर्द से मेरे कलेजे का लहू।
देखता हूँ आज पानी बन गया।4।
 
प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी।
वह नहीं इसको सका कोई पिला।
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी।
वाह! क्या अच्छा इसे पानी मिला।5।
 
ठीक कर लो जाँच लो धोखा न हो।
वह समझते हैं मगर करना इसे।
आँख के आँसू निकल करके कहो।
चाहते हो प्यार जतलाना किसे।6।
 
आँख के आँसू समझ लो बात यह।
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े।
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह।
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े।7।
 
हो गया कैसा निराला वह सितम।
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया।
या किसी का हैं नहीं खोते भरम।
आँसुओं! तुमने कहो यह क्या किया।8।
 
झाँकता फिरता है कोई क्यों कुआँ|
हैं फँसे इस रोग में छोटे बड़े।
है इसी दिल से तो वह पैदा हुआ।
क्यों न आँसू का असर दिल पर पड़े।9।
 
रंग क्यों निराला इतना कर लिया।
है नहीं अच्छा तुम्हारा ढंग यह।
आँसुओं! जब छोड़ तुमने दिल दिया।
किसलिए करते हो फिर दिल में जगह।10।
 
बात अपनी ही सुनाता है सभी।
पर छिपाये भेद छिपता है कहीं।
जब किसी का दिल पसीजेगा कभी।
आँख से आँसू कढ़ेगा क्यों नहीं।11।
 
आँख के परदों से जो छनकर बहे।
मैल थोड़ा भी रहा जिसमें नहीं।
बूँद जिसकी आँख टपकाती रहे।
दिल जलों को चाहिए पानी वही।12।
 
हम कहेंगे क्या कहेगा यह सभी।
आँख के आँसू न ये होते अगर।
बावले हम हो गये होते कभी।
सैकड़ों टुकड़े हुआ होता जिगर।13।
 
है सगों पर रंज का इतना असर।
जब कड़े सदमे कलेजे न सहे।
सब तरह का भेद अपना भूल कर।
आँख के आँसू लहू बनकर बहे।14।
 
क्या सुनावेंगे भला अब भी खरी।
रो पड़े हम पत तुम्हारी रह गयी।
ऐंठ थी जी में बहुत दिन से भरी।
आज वह इन आँसुओं में बह गयी।15।
 
बात चलते चल पड़ा आँसू थमा।
खुल पड़े बेंड़ी सुनाई रो दिया।
आज तक जो मैल था जी में जमा।
इन हमारे आँसुओं ने धो दिया।16।
 
क्या हुआ अंधेर ऐसा है कहीं।
सब गया कुछ भी नहीं अब रह गया।
ढूँढ़ते हैं पर हमें मिलता नहीं।
आँसुओं में दिल हमारा बह गया।17।
 
देखकर मुझको सम्हल लो, मत डरो।
फिर सकेगा हाय! यह मुझको न मिला।
छीन लो, लोगो! मदद मेरी करो।
आँख के आँसू लिये जाते हैं दिल।18।
 
इस गुलाबी गाल पर यों मत बहो।
कान से भिड़कर भला क्या पा लिया।
कुछ घड़ी के आँसुओ मेहमान हो।
नाम में क्यों नाक का दम कर दिया।19।
 
नागहानी से बचो, धीरे बहो।
है उमंगों से भरा उनका जिगर।
यों उमड़ कर आँसुओ सच्ची कहो।
किस खुशी की आज लाये हो खबर।20।
 
क्यों न वे अब और भी रो रो मरें।
सब तरफ उनको अँधेरा रह गया।
क्या बिचारी डूबती आँखें करें।
तिल तो था ही आँसुओं में बह गया।21।
 
दिल किया तुमने नहीं मेरा कहा।
देखते हैं खो रतन सारे गये।
जोत आँखों में न कहने को रही।
आँसुओं में डूब ये तारे गये।22।
 
पास हो क्यों कान के जाते चले।
किसलिए प्यारे कपोलों पर अड़ो।
क्यों तुम्हारे सामने रह कर जले।
आँसुओ! आकर कलेजे पर पड़ो।23।
 
आँसुओं की बूँद क्यों इतनी बढ़ी।
ठीक है तकष्दीर तेरी फिर गयी।
थी हमारे जी से पहले ही कढ़ी।
अब हमारी आँख से भी गिर गयी।24।
 
आँख का आँसू बनी मुँह पर गिरी।
धूल पर आकर वहीं वह खो गयी।
चाह थी जितनी कलेजे में भरी।
देखता हूँ आज मिट्टी हो गयी।25।
 
भर गयी काजल से कीचड़ में सनी।
आँख के कोनों छिपी ठंढी हुई।
आँसुओं की बूँद की क्या गत बनी।
वह बरौनी से भी देखो छिद गयी।26।
 
दिल से निकले अब कपोलों पर चढ़ो।
बात बिगड़ क्या भला बन जायगी।
ऐ हमारे आँसुओ! आगे बढ़ो।
आपकी गरमी न यह रह जायगी।27।
 
जी बचा तो हो जलाते आँख तुम।
आँसुओ! तुमने बहुत हमको ठगा।
जो बुझाते हो कहीं की आग तुम।
तो कहीं तुम आग देते हो लगा।28।
 
काम क्या निकला हुए बदनाम भर।
जो नहीं होना था वह भी हो लिया।
हाथ से अपना कलेजा थाम कर।
आँसुओं से मुँह भले ही धो लिया।29।
 
गाल के उसके दिखा करके मसे।
यह कहा हमने हमें ये ठग गये।
आज वे इस बात पर इतने हँसे।
आँख से आँसू टपकने लग गये।30।
 
लाल आँखें कीं, बहुत बिगड़े बने।
फिर उठाई दौड़ कर अपनी छड़ी।
वैसे ही अब भी रहे हम तो तने।
आँख से यह बूँद कैसी ढल पड़ी।31।
 
बूँद गिरते देखकर यों मत कहो।
आँख तेरी गड़ गयी या लड़ गयी।
जो समझते हो नहीं तो चुप रहो।
किरकिरी इस आँख में है पड़ गयी।32।
 
है यहाँ कोई नहीं धुआँ किये।
लग गयी मिरचें न सरदी है हुई।
इस तरह आँसू भर आये किसलिए।
आँख में ठंढी हवा क्या लग गयी।33।
 
देख करके और का होते भला।
आँख जो बिन आग ही यों जल मरे।
दूर से आँसू उमड़ कर तो चला।
पर उसे कैसे भला ठंडा करे।34।
 
पाप करते हैं न डरते हैं कभी।
चोट इस दिल ने अभी खाई नहीं।
सोच कर अपनी बुरी करनी सभी।
यह हमारी आँख भर आई नहीं।35।
 
है हमारे औगुनों की भी न हद।
हाय! गरदन भी उधार फिरती नहीं।
देख करके दूसरों का दुख दरद।
आँख से दो बूँद भी गिरती नहीं।36।
 
किस तरह का वह कलेजा है बना।
जो किसी के रंज से हिलता नहीं।
आँख से आँसू छना तो क्या छना।
दर्द का जिसमें पता मिलता नहीं।37।
 
वह कलेजा हो कई टुकड़े अभी।
नाम सुनकर जो पिघल जाता नहीं।
फूट जाये आँख वह जिसमें कभी।
प्रेम का आँसू उमड़ आता नहीं।38।
 
पाप में होता है सारा दिन वसर।
सोच कर यह जी उमड़ आता नहीं।
आज भी रोते नहीं हम फूट कर।
आँसुओं का तार लग जाता नहीं।39।
 
बू बनावट की तनिक जिनमें न हो।
चाह की छींटें नहीं जिन पर पड़ीं।
प्रेम के उन आँसुओं से हे प्रभो!
यह हमारी आँख तो भीगी नहीं।40।

40. मतलब की दुनिया-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हैं सदा सब लोग मतलब गाँठते।
यों सहारा है नहीं मिलता कहीं।
है कलेजा हो नहीं ऐसा बना।
बीज मतलब का उगा जिसमें नहीं।1।
 
कब कहाँ पर दीजिए हम को बता।
एक भी जी की कली ऐसी खिली।
था न जिस पर रंग मतलब का चढ़ा।
बू हमें जिसमें नहीं उसकी मिली।2।
 
वह करे जितना अधिक जी में जगह।
हो मिठाई बात की जितनी बढ़ी।
लीजिए यह जान उतनी ही अधिक।
मतलबों की चाशनी उस पर चढ़ी।3।
 
प्यार डूबे लोग कहते हैं उमग।
जो कहो अपना कलेजा काढ़ दूँ।
पर अगर वे निज कलेजा काढ़ दें।
तो कहेगा वह कढ़ा मतलब से हूँ।4।
 
और का गिरते पसीना देख कर।
जो कि अपना है गिरा देता लहू।
वे कहें कुछ, पर सदा उसमें मिली।
बूझ वालों को किसी मतलब की बू।5।
 
एक परउपकार ही के वास्ते।
था जहाँ झंडा बहुत ऊँचा गड़ा।
जो गड़ा कर आँख देखा, तो वहीं।
था छिपा चुपचाप मतलब भी खड़ा।6।
 
थे भलाई के जहाँ डेरे पड़े।
थी जहाँ पर हाट भलमंसी लगी।
घूम कर देखा वहीं मतलब खड़ा।
आँख करके बन्द करता था ठगी।7।
 
देखता ही दोस्ती का रँग रहा।
जी मुरौवत का टटोला ही किया।
कब बता दो ऐ अंधेरे में चलीं।
हाथ में जब था न मतलब का दिया।8।
 
डूब करके दूसरों के रंग में।
जो कहीं कोई कली हित की खिली।
फूल जो मुँह से किसी के भी झड़ा।
मतलबों की ही महँक उसमें मिली।9।
 
दान के सामान सब देखे गये।
देख डालीं डालियाँ छूही रँगी।
जाँच हमने की चढ़ावे की बहुत।
मतलबों की थी मुहर सब पर लगी।10।
 
जंगलों में देख ली धूनी रमी।
जोग में ही बाल कितनों का पका।
क्या हुआ घर से किनारे हो गये।
कौन मतलब से किनारा कर सका।11।
 
है बताती वीर की गरदन नपी।
है सती की भी चिता कहती यही।
है यही धुन जौहरी से भी कढ़ी।
आँच मतलब की नहीं किसने सही।12।
 
जाति के हित की सभी तानें सुनीं।
देश हित के भी लिए सब राग सुन।
लोक हित की गिटकिरी कानों पड़ी।
पर हमें सबमें मिली मतलब की धुन।13।
 
दिल टटोल उदारताओं का लिया।
रंगतें सारी दया की देख लीं।
साधुता के पेट की बातें सुनीं।
मतलबों को साथ लेकर सब चलीं।14।
 
कौन उसके बोल पर रीझा नहीं।
कौन सुनता है नहीं उसकी कही।
सब जगह सब काल सारे काम में।
मतलबों की बोलती तूती रही।15।

41. दिल टटोलो-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्या न होता है उसमें दिल उजला।
मैले कपड़े से क्यों झिझकते हो।
देख उजला लिबास मत भूलो।
दिल मैला कहीं न उसमें हो।1।
 
जो न सोने के कन उसे मिलते।
न्यारिया राख किसलिए धोता।
मत रुको देख कर फटे कपड़े।
लाल गुदड़ी में क्या नहीं होता।2।
 
है किसी काम का न रंग गोरा।
जो दिखाई पड़ा हृदय काला।
है बड़ा ही अमोल काला रँग।
मिल गया हो हृदय अगर आला।3।
 
क्या हुआ उच्च वंश में जनमे।
जो जँचा जी में पाप का कूँचा।
नीच कुल का हुए न कुछ बिगड़ा।
जो हृदय हो महान औ ऊँचा।4।
 
कब भला ठाट है अमीरी का।
ऐंठ जिसमें विकाश है पाती।
सादगी है कहीं भली, जिसमें-
है सुजनता झलक दिखा जाती।5।

42. एक तिनका-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।1।
 
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।2।
 
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिये।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।3।

43. एक मसा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देख कर ऊँचा सजा न्यारा महल।
और गहने देह के रत्नों जड़े।
पास बैठी चाँद-मुखड़े-वालियाँ।
फूल ऐसे लाडिले, सुन्दर, बड़े।1।
 
याद कर फूली हुई फुलवारियाँ।
फूल अलबेले महँक प्यारी भरे।
थी फलों से डालियाँ जिनकी लदी।
बाग के वे पेड़ पीछे छरहरे।2।
 
फल रसीले और खा व्यंजन सभी।
मुख सुखों का देख मन माना हरा।
तन लगे ठंढी हवा आनन्द पा।
रात में अवलोक नभ तारों-भरा।3।
 
कह उठा एक, राज-मदमाता हुआ।
भौंह दोनों चौगुनी टेढ़ी किये।
कौन मुझ सा है आह! मैं धन्य हूँ।
है बना संसार सब जिसके लिए।4।
 
एक मसा उस काल उसकी नाक पर।
बैठ कर बोला लहू पी कनमना।
है बना तेरे लिए संसार सब।
और मेरे वास्ते तू है बना।5।

44. एक बूँद-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़ कर मैं यों कढ़ी।1।
 
दैव मेरे भाग्य में क्या है बदा।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।2।
 
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।3।
 
लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते।
जब कि उनको छोड़ना पड़ता है घर।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।4।

45. रात का जागना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जी भरा है, आँखें हैं कडुआ रही।
सिर में है कुछ धामक नींद है आ रही।
उचित नहीं है बहुत रात तक जागना।
देह टूटकर है यह हमें बता रही।1।
 
सुर बाजों में मीठापन है कम नहीं।
जहाँ वर गला है मीठापन है वहीं।
नाच रंग में मीठेपन का रंग है।
पर मीठी है नींद इन सबों से कहीं।2।
 
न्यारा रस कितने ग्रन्थों में है भरा।
किसे नहिं मिला सत संगति में सुख धारा।
काम काज की धुन भी है प्यारी बड़ी।
पर संयम के बिना रहा कब मुख हरा।3।
 
मनको है अपना लेती कितनी कला।
नाटक-चेटक पर किसका नहिं जी चला।
खेल तमाशे ललचाते किसको नहीं।
पर निरोग तन रहना है सबसे भला।4।

46. काँटा और फूल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है न काँटों सा उभरना काम का।
क्या रहा, जब दूसरों को दुख दिया।
सीख लेवें क्यों न खिलना फूल सा।
जब किया तब और को पुलकित किया।1।
 
रंग जिन पर हो भलाई का चढ़ा।
सब जगह उनकी घटी सब दिन रही।
डालियों में है न काँटों की कमी।
पर दिखाते फूल हैं दो चार ही।2।
 
जब उठीं आँखें हमें काँटे मिले।
नोंक अपनी वैसी ही सीधी किये।
पर नहीं जाना निराले फूले ये।
कब खिले औ किस समय कुम्हला गये।3।
 
क्या बतावें, है कलेजा मल रहा।
कुछ न काँटों का हुआ इनके किये।
धूप निकली, लू चली, आँधी उठी।
हा! इन्हीं सुकुमार फूलों के लिए।4।
 
दूर आँखों से न वह काँटा हुआ।
नोक से जिसकी लहू कितना बहा।
पर बिचारी तितलियों के वास्ते।
दो दिनों भी फूल का न समा रहा।5।
 
किसलिए काँटे बहुत दिन तक रहें।
आह! मेरा जी बहुत खिजला गया।
किसलिए इतना अनूठा फूल यह।
आज फूला और कल कुम्हला गया।6।
 
दो दिनों भी फूल रह पाया नहीं।
पर बहुत दिन तक रहे काँटे अड़े।
जो भले हैं सब जिन्हें है चाहते।
कब न जीने के उन्हें लाले पड़े।7।

47. लोहित बसना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हुआ दूर तम पुंज दुरित तम सम्भव भागे।
खिले कमल सुख मिले मधुप कुल को मुँह माँगे।
अनुरंजित जग हुआ जीव जगती के जागे।
परम पिता पद कंज भजन में जन अनुरागे।
 
छिति पर छटा अनूठी छाई।
 
चूम चूम करके कलियाँ कमनीय खिलाती।
परम मृदुलता साथ लता बेलियाँ हिलाती।
धमनी में रस रुचिर धार कर प्यार बहाती।
सरस बना कर एक एक तरु दल सरसाती।
 
वही पवन सुन्दर सुखदाई।
 
कर नभ तल को लाल दान कर अनुपम लाली।
दिखलाती बहु चाव सहित चारुता निराली।
बनी लालिमा मयी बिपुल तरु की हरियाली।
लिये हाथ में खिले हुए फूलों की डाली।
प्यारी लोहित बसना आई।

48. उषाकाल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है विभु केश कलाप रक्त कुसुमावलि अर्चित।
या है भव असितांग लाल चन्दन से चर्चित।
हनित प्रात दनुजात रुधिार धारा दिखलाई।
या प्राची दिग्वधू बदन पर लसी ललाई।
प्रकृति सुन्दर कलित कपोल हुआ आरंजित।
या है जग जीवन सनेह जगती कृत व्यंजित।
ललित कला है किसी कलामय की अति प्यारी।
या पसरी है लाल लाल सुर ललना सारी।
तम में मंजुल कान्ति रजोगुण को निवसी है।
या शनि मंडल मधय भूमि सुत विभा वसी है।
बही जलधि के नील सलिल में गैरिक धारा।
या है असित वितान सुरंजित बसन सँवारा।
प्यारी रंगत अनुराग की रुचिर श्यामता में बसी।
या प्रात:कालिक लालिमा गगन नीलिमा में लसी।

49. राग रंजित गगन-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

तमो मयी यामिनी तिमिर हो चला तिरोहित।
काल जलधि में मग्न हुआ तारक चय बोहित।
ककुभ कालिमाटली उलूक समूह लुकाने।
कुमुद बन्धु छबि हीन हुई कैरव सकुचाने।
बोले तम चुर निचय हुआ खग कुल कलरव रत।
विकसे बिपुल सरोज विनोदित हुआ मधु व्रत।
सुन्दर बहा समीर रुचिर शीतलता कोले।
शाखाएँ हो गईं चारु तरु पल्लव डोले।
हुए सरित सर विपुल विमल तज श्यामल छाया।
मोती जैसा ओप अमल जल में भी आया।
हुई लताएँ ललित बेलियों पर छबि फैली।
बनी अवनि कमनीय फेंक कर चादर मैली।
तज आलस आँखें खोलिए लगा लोकहित से लगन।
अनुराग सहित अवलोकिए अरुण-राग रंजित गगन।

50. भारत गगन-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

अवनति काली निशा काल कवलित होवेगी।
दिशा कालिमा कूट नीति विदलित होवेगी।
 
होगा कान्ति विहीन जाति गत कलह कलाधर।
ज्योति जायगी गृह विवाद तारक चय की हर।
 
उन्नति बाधक बुरे सलूक उलूक लुकेंगे।
भेद जनित अविचार रजनिचर निकल रुकेंगे।
 
लोकहित करी शान्ति कमलिनी होंगी विकसित।
सब थल होगी रुचिर ज्योति जन समता विलसित।
 
बह स्वतंत्रता वायु करेगी परम प्रमोदित।
होंगे मधुकर निकल नारि-नर वृन्द विनोदित।
 
होगा नाना सुख समूह खग कुल निनाद कल।
उज्ज्वल होगा, जन्मसिध्द अधिकार धरातल।
 
कर लाभ-स्वबांछित बालरवि कर देगा दुखतम कदम।
देशानुराग नवराग से आ रंजित भारत गगन।

51. उषा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्या यह है नभ नील रंजिनी सु छबि निराली।
या है लोक ललाम ललित आनन की लाली।
विपुल चकित कर चारु चित्र की चित्र पटी है।
यात्रिलोक पति प्रीति करी प्रतिभा प्रगटी है।
परम पुनीत प्रभातकाल की प्रिय जननी है।
या जग उज्ज्वल करी ज्योतियों की सजनी है।
अखिल भुवन अभिराम भानु सहचरी भली है।
या सुरपुर कमनीय कान्ति की केलि थली है।
तरह तरह की लोक लालसा की है लीला।
या है कोई कला प्रकृति अनुरंजन शीला।
है रचना अति रुचिर रुचिरता लाने वाली।
या अरुणोदय कलित यंत्र की है कलताली।
यह दृग विमोहिनी कौन है महा मनोहरता भरी।
सुन्दर विभूति की सिरधारी लोहित बसना सुन्दरी।

52. वरबनिता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वर बनिता है नहीं अति कलित कुन्तल वाली।
भुवन मोहिनी काम कामिनी कर प्रति पाली।
 
विधु बदनी रस मयी सरस सरसीरुह नयनी।
अमल अमोल कपोलवती कल कोकिल बयनी।
 
उत्ताम कुल की बधू उच्चकुल संभव बाला।
गौरव गरिमावती विविध गुण गण मणि माला।
 
हाव भाव विभ्रम विलास अनुपम पुत्तालिका।
रुचिर हास परिहास कुसुम कुल विकसित कलिका।
 
सुन्दर बसना बनी ठनी मधुमयी फबीली।
भागभरी औ रागरंग अनुराग रँगीली।
 
अलंकार आलोक समालोकित मुद मूला।
नीतिरता संयता बहु बिकचता अनुकूला।
 
है वह बर बनिता जो रहे जन्मभूमि हित में निरत।
हो जिसका जनहित जातिहित जगहित परमपुनीत व्रत।

53. आर्य बाला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बहु ललामता बलित अति ललित रुचियों वाली।
सकल लोक हित जननि भाव तालों की ताली।
मनुज रंजिनी कलित कला की कामद काया।
नव नव लीलामयी मूल सब ममता माया।
कमनीय विधाता कर कमल की रचना का चरम फल।
कल कीर्ति सुकुसुमावलि सजी जयति आर्य बाला सकल।1।
 
कमला लौं सब काल लोक लालन पालन रत।
गिरि नन्दिनी समान पूत पति प्रेम भार नत।
गौरव गरिमा मयी ज्ञान शालिनी गिरा सम।
काम कामिनी तुल्य मृदुलतावती मनोरम।
सुरपुर अधिपति ललना समा प्रीति नीति प्रति पालिका।
सब दनुज प्रकृति नर के लिए आर्य नारि है कालिका।2।
 
वह बहु अनुपम साधन की है सिध्दि उदारा।
वह है गुरुजन भक्ति भूमि की सुरसरि धारा।
वह है पति मन मधुप के लिए लतिका कुसुमित।
वह है सुन्दर सरसि सरोजिनि संतति के हित।
वह है मन मोहन मुरलिका मधुर मुखी मृदु नादिनी।
पुरजन परिजन परिवार जन गोप समूह प्रसादिनी।3।
 
वह है ममतामयी पूत माता अवलंबन।
वह है छाया समा प्रकृत जाया आलंबन।
परम प्रीति आधार भगिनी मणि की है वह खनि।
सहज प्रेममय सुता लताओं की है सुअवनि।
पर दुख कातरता सदयता सहृदयता अवलंबिनी।
वह है कुटुम्ब जन हित निरत परमोदार कुटुम्बिनी।4।
 
पा जिनका विज्ञान बनी अति पावन अवनी।
उन ऋषि गौतम कपिल व्यास की है वह जननी।
द्रोणार्जुन से धीर वीर औ महा धनुर्धर।
भीष्म तुल्य भूरत्न पले उसका पय पी कर।
उसकी सुज्योति ही बुध्द औ शंकर के उर में जगी।
जिनके अनुपम आलोक से जगत तमोमयता भगी।5।
 
नर है पीवर धीर वीर संयत श्रम कारी।
है मृदुतन उपराम मयी तरलित उर नारी।
विपुल कार्य मय नर जीवन है प्रान्तर न्यारा।
नाना सेवा निलय नारिता है सरि धारा।
मस्तिष्क मान साहस सदन वीर्यवान है पुरुष दल।
हैं सहृदयता ममतावती पयोमयी महिला सकल।6।
 
युगल मूर्ति सहयोग जनित है जग की सत्ता।
लालन पालन सृजन तथा संकलन महत्ता।
निज निज कृतिरत रहे युगल के सिध्दि मिलेगी।
किये अन्यथा प्रकृति चाल प्रतिकूल चलेगी।
हो उदय गगन तल में तभी विधु ढालेगा रस घड़े।
जब सुधाधार सी चाँदनी तृणवीरुधा तक पर पड़े।7।
 
हृदय हृदय मस्तिष्क सदा मस्तिष्क रहेगा।
वीर्यवान सम पयोमयी को कौन कहेगा।
स अवसाद जन नवजीवन तब कैसे पावे।
स अवसाद उपराममयी ही जब बन जावे।
युग भिन्न प्रकृति जो परस्पर हित वांछा से है बनी।
उनकी विभन्नता ही फलद है समानता से घनी।8।
 
भलीभाँति यह तत्तव आर्यतिय को है अवगत।
इसीलिए वह हुई नहीं समता विवादरत।
पा माता पद उच्च, सदन की जो है देवी।
सब कुटुंब जिसके सरोज पग का है सेवी।
वह क्यों समानता लाभ के लिए रहे चाहों भरी।
जो बन सच्ची सहधार्मिणी है गृहपति हृदयेश्वरी।9।
 
आत्म त्याग मंदार कुसुम से मंडित बाला।
क्यों पहनेगी आत्म प्रेम कुरबक की माला।
जो उदारता सुधा परम रुचि से पी लेगी।
वह क्यों प्रतिद्वंद्विता सुरा प्रेमिका बनेगी।
नर से समानता समर कर वह क्यों दिखलावे दुई।
जो सुरसरि धारा लौं मिलित जगहित जलनिधि में हुई।10।
 
अहमहमिका उपेत स्वार्थ परता में डूबी।
जिन अधिकारों के निमित्ता अधिाधिक ऊबी।
है समाज कमनीय गात की कुत्सित बाई।
परम रुचिर संसार सरोवर की है काई।
होगी बरबिधिा की बाधिाका जो हो वाद विधायिनी।
जाया जीवन अवलंबिनी जननी जीवन दायिनी।11।
 
वह समाज अनुराग कुसुम खिलते कुम्हलावे।
जिसमें से बहुविधा विलासिता की बू आवे।
कभी जाति हित का वह पादप पनप न पावे।
जो अवलंबन स्वरुचिलताओं का बन जावे।
वह देशप्रेम नवजनित शिशु भूतल पर गिरते मरे।
बर जीवन बहु नर-नारि का कूट नीति मय जो करे।12।
 
वह स्वतंत्रता रुचि प्रियता निजता जल जावे।
जो सुशीलता मानवता का गला दबावे।
वह मतिमत्ता नीति चतुरता वंचित होवे।
सत्य न्याय सौजन्य सुरुचि गरिमा जो खोवे।
वह गौरवममता समदता आत्म महत्ता धवंस हो।
जो पति प्रियता हितकारिता भव वत्सलता मय न हो।13।
 
जो सामयिक प्रवाह है जगत बीच प्रवाहित।
कैसे भारत अवनि न उससे होती प्लावित।
इसीलिए हो चली सुरुचि धारा कुछ गदली।
गति मति कितनी आर्य कामिनी की है बदली।
पर काम चारुतर रजत का राँगा द्वारा कब चला।
जलधार माला से आवरित सब दिन रही न विधुकला।14।
 
जिनका जीवन उच्च वेद वचनों द्वारा है।
जिनकी रग में बही पुनीत रुधिर धारा है।
वे अति पावन चरित आर्य कुल की बालाएँ।
भूलेंगी, पर तज न सकेंगी पूत प्रथाएँ।
कालान्तर में पा उन्हीं में परम अलौकिक आत्म बल।
आजावेंगी आलोक में भूतल की महिला सकल।15।

54. कुल कामिनी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है तमतोम समान पापमय नयनों के हित।
है रवितनया सलिल उसे जो है अमलिन चित।
है पति चाव निमित्ता सुरस शृंगार सार वह।
उसे सेवार सुप्रीति सरसिका सकते हैं कह।
है आतंकित कर गरल मय पन्नग पोओंसे न कम।
पामर निमित्ता कुल कामिनी केश पाश है पाश सम।1।
 
उसका सुन्दर भाल कान्त कंचन फलकोपम।
अवगत होता है सुहाग लीलाथल के सम।
रजनी पति सुविभागसा विलसता है प्रति पल।
होता है अनुकूल भाग्य आलोक समुज्ज्वल।
वह छटअटा सुविशालता चारु चौहटा ही नहीं।
लीकों मिस उस पर चरित बल बरधाराएँ भी बहीं।2।
 
है मेहराब पुनीत भाव दर के अनुमानित।
दूज कलाधार के समान है जन सम्मानित।
वे हैं वह सुकमान बंकता जिनकी अनुपम।
कर देती है मदन कमान समाकुलता कम।
सब काल कदम करती रही लांछित लोचन की लसी।
कुल ललनाओं की भौंह द्वय झुकी युगल करवाल सी।3।
 
सलज्जता सरसि सरोरुह परम मुग्धा कर।
हैं सुशीलता रुचिर सरित के मीन मनोहर।
खंजन हैं कमनीय सदयता प्रान्तर विलसित।
प्रेमिकता वर विपिन कुरंगम हैं मोहक चित।
हैं निशित बिशिख सम वेधाते मलिन विचार बिहंग तन।
बहु पूत कलाओं के अयन कुल बालाओं के नयन।4।
 
है शुक चंचु समान कुतेवर फल कत्तान पटु।
चलचित अलिके लिए तिलकुसुम के सम है कटु।
है तू नीर स्वकीय क्रिया शायक चयधारी।
कामी जन की काम जनित वासना विदारी।
आनन छवि जल ऊँची लहर सकल सुवास विलासिका।
है तन गौरव गरिमा समा, कुल रमणी की नासिका।5।
 
हैं अति अनुपम सीप बर वचन मुक्ता धारी।
हैं शुचिरुचिमय राग कुसुम विलसित कल क्यारी।
हैं पावन जन चरित सुधा पीने के प्याले।
हैं वर स्वर लहरी विलास के विवर निराले।
हैं प्रभु की सुकथित कीर्ति के परम पुनीत विहार थल।
पति मधुर कथन रस सिक्त से कान कुल वधू के युगल।6।
 
है अति मंजुल मुकुर चिर महत्ता प्रतिविम्बित।
है राकापतिबिम्ब परम उज्ज्वल अकलंकित।
है गुलाब सुप्रसून भाव सौरभ विस्तारक।
मादक गोला है पुनीत मानस उपकारक।
है मधुमय कुसुम मधाूकर का पति मन मधाप विमुग्धा कर।
सुन्दर कपोल कुल नारिका है विधिा कृति कमनीय तर।7।
 
है बिम्ब फल लौं अपूत लोचन हित सगरल।
है विद्रुम लो अशुचि लहरियों के हित अतरल।
है लालोपम परम विमल आभा से विलसित।
जपा तुल्य अनुकूल वायु से है विकसित।
है रक्तिमाभ वंधूक सम विहित चित्ता अनुरक्ति कर।
आधार भूत मुख लालिमा कुल अबलाओं का अधार।8।
 
है चपला की चमक चपल जन चंचल दृगहित।
है मरीचिका मदन विमोहित मानस मृगहित।
है चाँदनी समान रजनि वत्सलता रंजिनि।
है स्वर्गीय मरीचि मोहतम मान विभंजिनि।
है उत्ताम धारा सुधा की अनुपम अधारोपरि लसी।
लोकोत्तार कान्ति सहोदरा है कुल महिला की हँसी।9।
 
है गंभीर विचार गगन विधु शुचिता अंकित।
है उत्फुल्ल सरोज मंजु आमोद गौरवित।
उच्च मानसिक भाव केलिथल है अति आला।
है कोमलता दया सदाशयता में ढाला।
है मुकुर प्रकृति प्रतिबिम्ब का सहज सरलता का सदन।
लोकोपकार आलोकमय कुल वनिताओं का वदन।10।

55. आर्य महिला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मुग्धा कर है राकानिशि कान्त।
सुरसरी का है पावन आप।
स्वेत सरसिज है परम प्रफुल्ल।
आर्य महिला का कीर्तिकलाप।1।
भाव से उसके हो भरपूर।
भाव मय बना जगत आगार।
गौरवों का उसके पग पूज।
गौरवित हुआ सकल संसार।2।
 
अंक में पल उसके बहुकाल।
सुजनता आँख सकी है खोल।
सीखकर उससे कल आलाप।
चित्ता ले सकी सभ्यता मोल।3।
 
भक्ति से छू उसका पदकंज।
उच्च हो पाया मनुज समाज।
सिध्दि उसने कर दी वह दान।
वार दें जिस पर सुरपुर राज।4।
 
वही है गुण गरिमा अवलंब।
ज्ञान का उससे हुआ विकास।
अधार पर उसके पाया देख।
मुक्ति का महा मनोहर हास।5।

56. तरु और लता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

तरु कर छाया दान दुसह आतप है सहता।
सुख देने के लिए लता हित रत है रहता।
शिर पर ले सब काल सलिल धार की जलधारा।
बहुधा करक समूह पात का सह दुख सारा।
अति प्रबल पवन के वेग से विपुल विधूनित हो सतत।
पालन करता है लता का कर परिपालन पूत व्रत।1।
 
होता है जिस काल कठिन आघात विटप पर।
कँपता है उस काल लता का गात अधिाक तर।
कटती छँटती बार बार है समधिाक नुचती।
पतन हुए पर भी न लता है तरु को तजती।
सुख में सुखित बहुत बनी दुख में परम दुखित रही।
वह जीती मरती विकसती रहती है तरु साथ ही।2।
 
पति है वह जो प्रीति निरत तरु सा दिखलावे।
है पत्नी वह सती जो लता सी बन पावे।
पति पत्नी जो प्यार रंग में रँगे न होवें।
मनो मलिनता जनित जो न सारा मल खोवें।
तो क्यों वरणीय विधान से परिणय बंधान में बँधो।
क्या प्रेम साधाना में लगे साधान मंत्रा न जो सधो।3।
 
पति हो कामुक परम कामुका पत्नी होवे।
पति भूले पति भाव पतिव्रत पत्नी खोवे।
कर मत्सर मद पान बने प्रियतम मतवाला।
समता मायामयी मानिनी होवे बाला।
पति अहं भाव से हो भरा वनिता हो ममता नता।
तो तरुवर है पति से भला, बर है वनिता से लता।4।

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