अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’-प्रेमपुष्पोपहार Prempushpophar-Ayodhya Singh

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हिंदी कविता

Prempushpophar Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
प्रेमपुष्पोपहार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

1. प्रेमपुष्पोपहार-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आज ऐसा है न कोई दिन भला।
भाग से मिलते हैं ऐसे दिन कहीं।
हाय! किसने किसलिए हमको छला।
जो सदा मिलते हैं ऐसे दिन नहीं।
हैं परब त्योहार के कितने दिवस।
जिनमें करते हैं महा आमोद हम।
पर हमारे दिन हैं वह अतिही सरस।
देस का हम जिस दिवस भरते हैं दम।
 
मातृभाषा की सबिधि परिसेवना।
देस हित इससे नहीं बढ़कर कहीं।
कौन सा है देस कब उन्नत बना।
मातृभाषा की जहाँ उन्नति नहीं।
 
आज उस ही मातृभाषा के लिए।
आप लोगों का हुआ है आगमन।
और वह उन्नत बनेगी क्या किये।
सोचते इसका भी जी से हैं जतन।
 
है इसी से आज का यह दिन भला।
लाड़ भी इसका इसी से है अधिक।
दूर होवे ईस सब इसकी बला।
जो भला न गिने इसे उसको है धिक।
 
बान कुछ ऐसी हमारी है पड़ी।
हम कभी करना नहीं कुछ चाहते।
मिल गयी पर जो कहीं ऐसी जड़ी।
जिससे हम हैं काम कोई ठानते।
 
काम तो लेते नहीं उतसाह से।
औ' नियम से कुछ नहीं करते कभी।
जी जला करता है सब दिन डाह से।
यों मिला देते हैं मिट्टी में सभी।
 
जो कभी होता है कुछ उतसाह भी।
कुछ दिनों वह तो ठहरता है नहीं।
देख लो दो दिन भले ही जब कभी।
फिर नहीं उसका पता लगता कहीं।
 
नित हमारी आँख के ही सामने।
काम होते हैं नियम से अनगिनत।
जामिनी के वास्ते तारे बने।
दिन में सूरज है चमकता अनवरत।
 
वायु बहती है बरसती है घटा।
दस दिसा में फैलता है तेज तम।
है दिखाता चाँद भी अपनी छटा।
ओस से धरती हुआ करती है नम।
 
ऋतु हुआ करती है भीषण वो सरस।
फूल नाना रंग के हैं फूलते।
मोहता है मलय मारुत का परस।
कुंज पुंजों में भँवर हैं झूलते।
 
हम नहीं फिर भी नियम को मानते।
बिगड़ जावे काम सारा या बने।
हाय! इतना भी नहीं हम जानते।
और रहते हैं सदा सबसे तने।
 
एक के करने से कुछ होता नहीं।
काम दस का दस नहीं जब तक करें।
एक के बल है समर होता नहीं।
सैकड़ों लाखों नहीं जब तक लड़ें।
 
एक मधुमक्खी करेगी क्या भला।
फूल का रस सैकड़ों लावें न जो।
कौन सी इक बूँद सीखेगा कला।
घन करोड़ों बूँद बरसावें न जो।
 
फिर परस्पर डाह करने की चलन।
भूल कर भी हो नहीं सकती भली।
पर घड़ी भर है हमें पड़ती न कल।
डाह की मिलती नहीं जब तक गली।
 
हो दसा जिस जाति की ऐसी बुरी।
बन गयी हो जो यहाँ तक बेखबर।
फिर भले ही जाय गरदन पर छुरी।
पर जो उहँ करने में करती है कसर।
 
आप ही जिसकी है इतनी बेबसी।
है तरसती हाथ हिलाने के लिए।
आस हो सकती है उससे कौन सी।
हो सके है क्या भला उसके किए।
 
पर अमावस के सितारों की तरह।
लोग जो इसमें चमकते हैं कहीं।
टूटती जिनसे अंधोरी कुछ है यह।
भूल सकता है समय जिनको नहीं।
 
कुछ सपूतों को इन्हीं में से सुरत।
नागरी दुखभागिनी की भी हुई।
देखकर उसकी भयानक बुरी गत।
चुभ गयी हर रोम में इनके सुई।
 
यह लगे उसके लिए करने जतन।
आज भी साहस है इनका वैसही।
वारते अपना हैं सब तन मन वो धन।
बैरियों की हैं नहीं सुनते कहीं।
 
इन भले लोगों से जितनी आजतक।
नागरी देवी की सेवा हो सकी।
आज भी उसकी दिखाती है झलक।
दूसरों ने कुछ मदद चाहे न की।
 
हम बता सकते हैं उस सेवा को भी।
पर बताते लाज लगती है बड़ी।
बीस कोटि मनुष्य की भाषा अभी।
इस तरह सब भाँति है पीछे पड़ी।
 
काम जो हैं आज के दिन तक हुए।
हैं न होने के बराबर वह सभी।
चार डग हमने भरे तो क्या किए।
है पड़ा मैदान कोसों का अभी।
 
सामने बहती है जो मंदाकिनी।
हमने उसमें से न पाया बूँद भी।
सच बता री तू दुरासा पापिनी।
आस क्या पूरी न होवेगी कभी।
 
देख करके बंगभाषा की छटा।
कौन सा जन मोह जाता है नहीं।
मरहठी की भी बनी ऊँची अटा।
है सजावट जिसकी बढ़ करके कहीं।
 
गुरजरी भाषा भी है फूली-फली।
है निराली आज उसकी भी फबन।
ढंग में उरदू भी देखो ढल चली।
हो गयी है ठीक उसकी भी गठन।
 
पर बिचारी नागरी ही है गिरी।
हैं सम्हलते देखते जिसको नहीं।
दैव तेरी दीठ है कैसी फिरी।
जो सहारा है नहीं मिलता कहीं।
 
बात क्या है यह नहीं अपकार की।
अपने घर में ही जगह मिलती नहीं।
कौन सी आसा है फिर उपकार की।
अपने होते हैं पराये भी कहीं।
 
पण्डितों की है नहीं होती कृपा।
नागरी पर भूल करके भी कभी।
भाव है नहिं ग्रेजुएटों का छिपा।
वह इसे बच्ची समझते हैं अभी।
 
हैं महाजन भी इसे नहिं चाहते।
धुन उन्हें भी और ही कुछ है लगी।
काशमीरी हैं इसे न सराहते।
है तबीअत ठेठ से उनकी भगी।
 
है हमीं लोगों में ऐसी जाति भी।
मातृभाषा जो इसे कहती नहीं।
क्या रहा है शेष कुछ सुनना अभी।
है सरलता इससे बढ़कर भी कहीं।
 
हिन्द हिन्दू और हिन्दी के लिए।
छोड़ करके राज का सुखभोग भी।
प्रान हैं जिस कुल के बीरों ने दिये।
हाय! उस सुपुनीत कुल के लोग भी।
 
बाँह हिन्दी की पकड़ते हैं नहीं।
हाय! दुख इससे भला बढ़कर है क्या।
देखते हैं राज उरदू का वहीं।
हाय! क्या अब भी नहीं फटती धरा।
 
है हमारी पूज्य पण्डित मण्डली।
हैं समादरणीय ग्रेजुएट भी।
है महाजन से मेरी काया पली।
काशमीरी भी हमारे हैं सभी।
 
जाति भी वह है हमारे प्यार की।
है महाराजों से उज्जल मुख बना।
बात है क्या यह मेरे अधिकार की।
भूल कर भी जो करें हम सामना।
 
पर बिथा अपनी सुनावें हम किसे।
हम सदा ही आह भरते हैं सरद।
कौन है बिन आप लोगों के जिसे।
नागरी दुखभागिनी की हो दरद।
 
जो गिरी इतनी हुई है नागरी।
और है बिगड़ी हुई उसकी दसा।
आप लोगों पास ही है तो जड़ी।
आपही लोग इसको सकते हैं बसा।
 
पर नहीं जो आप लोगों को हुआ।
आज भी इसकी दसा का धयान कुछ।
तो फिरेगी झाँकती सब दिन कुआँ।
हाय! होगा मान भी इसका न कुछ।
 
लाज की यह बात है कितनी बड़ी।
मातृभाषा आप लोगों की बिबस।
नित रहे सब भाँति झंझट में पड़ी।
औ फड़क करके भी फड़के है न नस।
 
है जगत के बीच जिसका पद बड़ा।
आन भी होती उसी की है बड़ी।
है कमर कसकर वही होता खड़ा।
है उसी के साथ रहती सुभ घड़ी।
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कर दिखाता है वही संसार में।
काम जो सब से हैं बढ़ करके कठिन।
है उसीकी पूछ पर-उपकार में।
है बना देता वही उज्जल मलिन।
 
है इसीसे आप लोगों के लिए।
नागरी का हित नहीं कुछ भी कठिन।
हैं बिपत में दिन बहुत इसके गये।
उँगलियों पर भी न अब सकते हैं गिन।
 
मुँह सुधा से धोय कर सौ बार भी।
नाम जिनका ले नहीं सकते हैं हम।
ऐसे कुछ राजे महाराजे अभी।
कर चुके हैं प्रगट वह साहस असम।
 
जिसकी है समता नहीं मिलती कहीं।
काम जिसने है सजीवन का किया।
क्या कहीं अब वह रहा साहस नहीं।
नागरी को जिसने है जीवन दिया।
 
है, असम साहस वह है, अब भी बचा।
और महराजों वो राजों के निकट।
कल्पने तू मत बहुत हमको नचा।
है अभी भी सीस पर उनके मुकट।
 
ऐ हमारे देस के गौरव परम।
ऐ हमारे मान्यतम महिपाल गन।
आपही से नागरी का है भरम।
दीजिए दरबार में इसको सरन।
 
ऐ हमारी पूज्य पण्डित मण्डली।
आपको रुचती नहीं क्यों नागरी।
आपही के घर में यह सब दिन पली।
आपकी फिर दीठ इससे क्यों फिरी।
 
मौलवी ऐसा न होगा एक भी।
ख़ूब जो उर्दू न होवे जानता।
आप पढ़ते भी नहीं इसको कभी।
किस तरह है आपका मन मानता।
 
इसमें लिख सकते हैं चीठी तक नहीं।
जो लिखेंगे भूल होगी सौ जगह।
दुख बड़ा होता हमें भी है यहीं।
क्या नहीं कुछ लाज की है बात यह।
 
है धरम की हानि होती इस समय।
बात यह हम सुन रहे हैं हर घड़ी।
पर हमें कहने में होता है न भय।
आप ही की भूल इसमें है बड़ी।
 
हैं बहुत गहरे धारम के भाव सब।
उठ गया है संसकीरत का चलन।
नागरी ही एक है आधार अब।
जिसमें कर सकते हैं कुछ इसका जतन।
 
संस्कृत के साथ पढ़ कर नागरी।
देस का औ धरम का हित कीजिए।
एक सी जाती नहीं सारी घरी।
मान इतनी बात मेरी लीजिए।
 
ऐ सुगौरववान ग्रेजुएट गन।
है भरोसा आपका हमको बहुत।
नागरी हो जायगी उज्जल रतन।
आप जो हो जायँ इसकी ओर रत।
 
है समय का ज्ञान पूरा आपको।
देखते हैं देस की भी सब दसा।
कौन मेटेगा हमारे ताप को।
नागरी को आप जो देंगे नसा।
 
सच है कुछ भी नागरी में है नहीं।
आपको वह है नहीं सकती लुभा।
पर कोई अपने को तजता है कहीं।
क्या वह जी में है नहीं रहता खुभा।
 
नागरी में जो हैं ऐसे गुन नहीं।
इसमें भी तो आप ही की चूक है।
आज तक तो यह पहुँच जाती कहीं।
पर किया कब हमने कौन सलूक है।
 
सकल विद्या से है अंग्रेजी भरी।
आप चुन चुन करके उसमें से रतन।
नागरी को कीजिए गुन आगरी।
कौन सा मन फिर न होवेगा मगन।
 
है सिखाती हमको अंग्रेजी यही।
मातृभाषा को सदा उन्नत करो।
क्यों नहीं करते हैं आप उसकी कही।
क्या है इसमें भी नरो वा कुंजरो।
 
ऐ हमारे काशमीरी बिबुधा गन।
ऐ समादरनीय कायथ मण्डली।
है जगत के बीच वह प्रानी रतन।
मातृभाषा जिसके हाथों हो पली।
 
इस हमारे प्रान्त में हैं आप लोग।
बुध्दि विद्या विनय में आगे बढ़े।
किसको सुन कर यह भला होगा न सोग।
आप हैं अपनी नहीं भाषा पढ़े।
 
मातृभाषा आप लोगों की यही।
नागरी है, जानता यह है सभी।
मान लेंगे आप भी मेरी कही।
क्या करेंगे सुरत भी इसकी कभी।
 
भूल कर भी दीठ जो फिरती इधर।
तो दसा होती न इसकी आज यह।
चाहिए घर की भी कुछ रखनी खबर।
आप कैसे घर का दुख सकते हैं सह।
 
कर हमारा काम सब सरकार दे।
कुछ पड़े हमको न करना भूल कर।
यह हमारे ढंग हैं ऐसे बुरे।
जिससे बस सकता नहीं अपना भी घर।
 
कम नहीं है, जो दया सरकार ने।
नागरी पर कर दिखाई गये दिन।
पर न हम लोगों से जो कुछ भी बने।
तो करे उसके लिए वह क्या जतन।
 
आप लोगों की कचहरी में है गति।
पूछ भी है आप लोगों की बड़ी।
दीजिए कर दूर हिन्दी की विपति।
जोहती मुँह आपका है वह खड़ी।
 
है सुकीरत हाथ जो जग में बिका।
उसके ऐसा है कोई प्रानी नहीं।
सच है प्यारी जीव से है जीविका।
पर सुकीरत उससे है प्यारी कहीं।
 
ऐ हमारे नागरी उन्नायको।
ऐ हमारी नागरी के प्रान धान।
ऐ हमारी नागरी के सहायको।
ऐ अंधोरी कान के उज्जल रतन।
 
काम ऐसा है कठिन कोई नहीं।
जो न करने से हो जावे सरल।
हैं असम्भव का भी सुनते नाम ही।
कर उसे देता है सम्भव बुध्दिबल।
 
जो सदुद्यम का मरम हैं जानते।
टूटता जिनका नहीं साहस कभी।
जो न इतना भाग को हैं मानते।
कर दिखाते हैं वही कारज सभी।
 
ऊसरों में वह खिलाते हैं कमल।
फूल होता है कुलिस उनके लिए।
आपदा उनकी सभी जाती है टल।
कितने ही उनके जिलाये हैं जिये।
 
एक नस में भी लहू जब तक बहे।
देह में जब तक रहे एक साँस भी।
आन करके क्यों न कुछ कोई कहे।
क्यों न होवें सैकड़ों उतपात भी।
 
भूलिए अपना नहीं उद्यम करम।
छोड़िए अपना यह साहस भी नहीं।
आपकी होगी विजय कहते हैं हम।
वह भी ऐसी जो नहीं देखी कहीं।
 
खोलते हैं आज मिलकर आप लोग।
एक हिन्दी का भवन करके जतन।
आएगा वह दिन कि जब मिल करके लोग।
सैकड़ों खोलेंगे हिन्दी का भवन।
 
वह गिरे इसका करे जो सामना।
ऐस ही आवें सब इसके दिन भले।
हे प्रभो मेरी यही है कामना।
नित हमारी नागरी फूले-फले।

2. यह भारत भूमि हमारी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

यह भारत भूमि हमारी।
है तीन लोक से न्यारी।
 
है हिमगिरि गौरव दाता, मलयानिल चँवर हिलाता।
धान मुक्तमाल पहिनाता, है जलधि चूम पग जाता।
जग ने आरती उतारी।1।
 
है यहीं ज्योति वह फूटी, जिससे अंधियारी टूटी।
है यहीं मिली वह बूटी, जिससे जग जड़ता छूटी।
मानव रुचि गयी सँवारी।2।
 
है यहीं सुरसरी धारा, जिसने पतितों को तारा।
है यहीं नगर वह न्यारा, जो है विमुक्ति का द्वारा।
हैं यहीं सिध्दियाँ सारी।3।
 
कपिलादिक से विज्ञानी, शिवि बलि दधीचि से दानी।
शुकदेव बुध्द से ज्ञानी, सुरसरि सुत से सेनानी।
हरि यहीं हुए तनधारी।4।
 
कमनीय प्रकृति कर पाले, रुचि रुचिर सुधा के प्याले।
सब सुगुण सुतरु के थाले, मानवता के मत वाले।
हैं यहीं विपुल नर-नारी।5।
 
कर कान्तिमान मणि मोती, है यहीं कान्त ऋतु होती।
है यहीं वह सरस सोती, जो प्रकृति क्लान्ति है खोती।
कर उसे मधुर मृदु प्यारी।6।
 
हैं यहीं हुए गिरि-धारी, जलनिधि बन्धान अधिकारी।
वसुधा गोदोहन कारी, रवि शशि समान नभचारी।
इस अवनी की बलिहारी।7।

3. जय जय जय भारत माता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जय जय जय भारत माता।
सुर वंदित नमित विधाता।
 
हिम मेरु है मुकुट न्यारा, बह रही सुरसरी धारा।
कटिबन्ध विन्धय गिरि प्यारा, पग है विधौत निधि द्वारा।
मणि कांचन मण्डित गाता।1।
 
रवि ज्योति जाल उज्वलिता, कमनीय कौमुदी कलिता।
ललिताभ सलिल धार ललिता, बहु धवलित धाम धवलिता।
अति लोकोत्तार अवदाता।2।
 
पारन विभूतिदा धूनी, सरसा सुरपुर से दूनी।
वह विभवमयी चौगूनी, अलका से छबि छगूनी।
सुजला सुफला विख्याता।3।
 
जन तीस कोटि की जननी, जगविदिता वीर-प्रसविनी।
कलकीर्ति कुसुम संचयनी, अवनीतल सकल विजयिनी।
सुर सुरपति सुरपुर त्राता।4।
 
मुक्तिदा अनिर्वचनीया, महती महिमा महनीया।
कामदा परम कमनीया, भजनीय सतत यजनीया।
नरनिकर अभय वरदाता।5।

4. महती महा पुनीता मधुरा मनोहरा है-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

1.
महती महा पुनीता मधुरा मनोहरा है।
वसुधा ललामभूता भारत वसुंधारा है।1।
 
नव शस्य-शालिनी है सुप्रसून मालिनी है।
विदिता रसालिनी है सुप्रसिध्द उर्वरा है।2।
 
सर्वांग-सुन्दरी है प्रियकारिता भरी है।
सुखशान्ति सहचरी है सुविभूति निर्भरा है।3।
 
गुरु गिरि विमंडिता है शुभ सरि समन्विता है।
बहु सर अलंकृता है सरसा ससागरा है।4।
 
वरबोध विधुरजनि है सुविचार चारु खनि है।
मति मानता जननि है शुचिरुचि सहोदरा है।5।
 
कमनीय कृतिवती है लसिता यती सती है।
वर वीरता व्रती है गति मति अगोचरा है।6।
 
गौरव गरीयसी है महिमा महीयसी है।
विपुला बलीयसी है उज्ज्वल कलेवरा है।7।
 
आमोद मोदिता है परमा प्रमोदिता है।
विभुता विनोदिता है प्रथिता धानुर्धरा है।8।
 
सब सिध्दिदायिका है वांछित विधायिका है।
संसृति सहायिका है अनुरक्त श्रुतिवरा है।9।
 
अति दिव्यतम त्रिया है भव भव्यतर क्रिया है।
स्वाधीनता प्रिया है कर्तव्य तत्परता है।10।
 
2
महती महा पुनीता मधुरा मनोहरा है।
वसुधा ललामभूता भारत वसुंधारा है।1।
 
लसती कहीं लता है फूले कहीं कमल हैं।
कल काँच सा कहीं पर निर्मल सलिल भरा है।2।
 
मनमोहता कहीं है कलरव बिहंग कुल का।
औ सोहता कहीं पर पादप हरा भरा है।3।
 
बहती मलय पवन है मुक्तानिकेत घन है।
नन्दन समान बन है मणिमय यहाँ धरा है।4।
 
हो गौरवित यहीं के गौरव समूह द्वारा।
जग के समस्त गिरि का गिरिराज सिर धरा है।5।
 
है मानसर यहीं पर मण्डित मराल माला।
कश्मीर महि यहाँ की कुसुमित कलेवरा है।6।
 
आये बसंत सुनकर पिक-काकली कलित तर।
कर में यहीं कुसुमशर ले काम अवतरा है।7।
 
माधुर्य्य का यहीं पर मंडप मनोज्ञतम है।
सौंदर्य्य का यहीं पर अति चारु चौतरा है।8।
 
पाते यहीं भवन हैं बहु भव्य, भारती का।
मिलता यहीं रमा का मंजुल महल सरा है।9।
 
बहती मिली यहीं पर धारा सरस सुधा की।
है कल यहीं कलाधर राका रुचिर तरा है।10।
 
3
महती विमुग्धातामय मधुरा मनोहरा है।
वसुधा विभूतिपूता भारत वसुंधरा है।1।
 
बहुवंश में यहाँ ही बुधावृन्द हैं बिलसते।
वर वीर धीर का भी बँधाता यहीं परा है।2।
 
पाये गये कहाँ पर ऐसे पुनीत मानव।
पाहन अपूत जिनका पग पूत छू तरा है।3।
 
तन मन सहित सकल धान कर कान्त पर निछावर।
मुखड़ा कुलांगना का होता यहीं हरा है।4।
 
पतिदेवता कहाँ पर ऐसी किसे मिली हैं।
यह आप देख जिनकी तेजस्विता डरा है।5।
 
विद्या परापरा की गुरुता गरीयसी का।
सिर पर यहीं मनुज के सेहरा गया धरा है।6।
 
अब भी सुरुचि सरलता शुचिता सुशीलता का।
फहरा रहा यहीं पर कमनीय फर हरा है।7।
 
लोकोपकार अथवा उध्दार धर्म के हित।
मरना समझ अमरता मानव यहीं मरा है।8।
 
विधि साथ कर यहीं पर सब कामना समर्पित।
संसार सार विभु को वर भक्ति ने वरा है।9।
 
आलोकमय बना के मानव-समूह मानस।
परलोक-तम यहीं के आलोक ने हरा है।10।

5. प्रभु-प्रताप-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चाँद औ सूरज गगन में घूमते हैं रात दिन।
तेज औ तम से, दिशा होती है उजली औ मलिन।
वायु बहती है, घटा उठती है, जलती है अगिन।
फूल होता है अचानक वज्र से बढ़कर कठिन।
जिस अलौकिक देव के अनुकूल केलि-कलाप बल।
वह करे सब काल में संसार का मंगल सकल।1।
 
क्या नहीं है हाथ में वह नाथ क्या करता नहीं।
चाहता जो है, उसे करते कभी डरता नहीं।
सुख मिला उसको न, दुख जिसका कि वह हरता नहीं।
कौन उसको भर सके जिसको कि वह भरता नहीं।
है अछूती नीति, करतूतें निराली हैं सभी।
भेद का उसके पता कोई नहीं पाता कभी।2।
 
है बहुत सुन्दर बसे कितने नगर देता उजाड़।
है मिलाता घूल में कितने बड़े ऊँचे-पहाड़।
एक झटके में करोड़ों पेड़ लेता है उखाड़।
एक पल में है सकल ब्रह्माण्ड को सकता बिगाड़।
काँपते सब देखते आतंक से हैं रात दिन।
मोम करता है उसे, है जो कि पत्थर से कठिन।3।
 
देखते हैं राज पाकर हम जिसे करते बिहार।
माँगता फिरता रहा कल भीख वह कर को पसार।
एक टुकड़े के लिए जो घूमता था द्वार द्वार।
आज धरती है कँपाती उसके धौंसे की धुकार।
नित्य ऐसी सैकड़ों लीला किया करता है वह।
रंक करता है कभी सिर पर मुकुट धारता है वह।4।
 
जड़ जमा कितने उजड़तों को बसाता है वही।
बात रख कितने बिगड़तों को बनाता है वही।
गिर गयों को कर पकड़ करके उठाता है वही।
भूलतों को पथ बहुत सीधा बताता है वही।
इस धरा पर सुन सका कोई नहीं जिसकी कही।
उस दुखी की सब व्यथा सुनता समझता है वही।5।
 
डाल सकता शीश पर जिसके पिता छाया नहीं।
गोद माता की खुली जिसके लिए पाया नहीं।
है पसीजी देखकर जिसकी व्यथा जाया नहीं।
काम आती दिखती जिसके लिए काया नहीं।
बाँह ऐसे दीन की है प्यार से गहता वही।
सब जगह सब काल उसके साथ है रहता वही।6।
 
वह अँधेरी रात जिसमें है घिरी काली घटा।
वह बिकट जंगल, जहाँ पर शेर रहता है डटा।
वह महा मरघट, पिशाचों का जहाँ है जम घटा।
वह भयंकर ठाम जो है लोथ से बिलकुल पटा।
मत डरो ये कुछ किसी का कर कभी सकते नहीं।
क्या सकल संसार पाता है पड़ा सोता कहीं।7।
 
जिस महा मरुभूमि से कढ़ती सदा है लू-लपट।
वारि की धारा मधुर रहती उसी के है निकट।
जिस विशद जल-राशि का है दूर तक मिलता न तट।
है उसी के बीच हो जाता धरातल भी प्रगट।
वह कृपा ऐसी किया करता है कितनी ही सदा।
लाभ जिससे हैं उठाते सैकड़ों जन सर्वदा।8।
 
जिस अँधेरे को नहीं करता कभी सूरज शमन।
उस अँधेरे को सदा करता है वह पल में दमन।
भूल करके भी किसी का है जहाँ जाता न मन।
वह बिना आयास के करता वहाँ भी है गमन।
देवतों के ध्यान में भी जो नहीं आता कभी।
उस खिलाड़ी के लिए हस्तामलक है वह सभी।9।
 
जगमगाती व्योम मण्डल की विविधा तारावली।
फूल फल सब रंग के खिलती हुई सुन्दर कली।
सब तरह के पेड़ उनकी पत्तियाँ साँचे ढली।
रंग बिरंगे पंख की चिड़ियाँ प्रकृति हाथों पलीं।
आँख वाले के हृदय में हैं बिठा देती यही।
इन अनूठे विश्व-चित्र का चितेरा है वही।10।
 
देख जो पाया 'अरोराबोरिएलिस' का समा।
रंग जिसकी आँख में है मेघमाला का जमा।
जो समझ ले व्यूह तारों का अधर में है थमा।
जो लखे सब कुछ लिये है घूमती सारी क्षमा।
कुछ लगाता है वही करतूत का उसकी पता।
भाव कुछ उसके गुणों का है वही सकता बता।11।
 
है कहीं लाखों करोड़ों कोस में जल ही भरा।
है करोड़ों मील में फैली कहीं सूखी धारा।
है कहीं पर्वत जमाये दूर तक अपना परा।
दिखाई पड़ता है कहीं मैदान कोसों तक हरा।
बह रहीं नदियाँ कहीं, हैं गिर रहे झरने कहीं।
किस जगह उसकी हमें महिमा दिखती है नहीं।12।
 
जी लगाकर आँख की देखो क्रिया कौतुक भरी।
इस कलेजे की बनावट की लखो जादूगरी।
देख कर मेजा बिचारो फिर विमल बाजीगरी।
इस तरह सब देह की सोचो सरस कारीगरी।
फिर बता दो यह हमें संसार के मानव सकल।
इस जगत में है किसी की तूलिका इतनी प्रबल।13।
 
जब जनमने का नहीं था नाम भी हमने लिया।
था तभी तैयार उसने दूधा का कलसा किया।
प्यार की बहु आपदायें, बुद्धि बल वैभव दिया।
की भलाई की न जाने और भी कितनी क्रिया।
तीनपन बीते मगर तब भी तनिक चेते नहीं।
हैं पतित ऐसे कि उसका नाम तक लेते नहीं।14।
 
हे प्रभो! है भेद तेरा वेद भी पाता नहीं।
शेष, शिव, सनकादि को भी अन्त दिखलाता नहीं।
क्या अजब है जो हमें गाने सुयश आता नहीं।
व्योम तल पर चींटियों का जी कभी जाता नहीं।
मन मनाने के लिए जो कुछ ढिठाई की गयी।
कीजिए उसको क्षमा, है बात जो अनुचित हुई।15।

6. लोकसत्ता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

काम बनता निकाम सुन्दर क्यों।
कान्ति कमनीयता स्वयं खोती।
विधु लालता ललाम होने को।
जो न प्रभु की ललामता होती।1।
 
मोहती तरु हरीतिमा कैसे पाते।
क्यों गगन नीलिमा लुभा लेती।
मंजु तम श्यामघन न बन पाते।
श्याम रुचि जो न श्यामता देती।2।
 
क्यों विभाकर बिभा बलित बनता।
दामिनी क्यों चमक-दमक पाती।
तारकावलि न जगमगा सकती।
जागती ज्योति जो न जग जाती।3।
 
तो न होती ललित नवल-लतिका।
तो न बनती कलित कुसुम क्यारी।
तो न सरसिज सुहावने लगते।
जो छिटकती नहीं छटा न्यारी।4।
 
खग रुचिर पंख, तितलियों का तनु।
इन्द्रधानु रंग किस तरह लाता।
है जगत रंग में रँगा जिसके।
यदि वही रंगतें न दिखलाता।5।
 
चारुता दे सुचारु चन्दन सी।
किस तरह दारु दारुता खोती।
जो न मिलती सुरभि सुरभि-खनि से।
सौरभित क्यों मलय-पवन होती ।6।
 
माधुरी की न माधुरी रहती।
हो न सकता मधुर-मधुप कलरव।
माधवी मधुरिमा न जो होती।
मधु न पाते कदापि मधु माधव।7।
 
सुधा सदाकर किसी सुधा-निधि की।
जो सुधा में प्रकृति नहीं सनती।
क्यों सुधाधार सरस सुधावता।
क्यों सुधामय वसुंधरा बनती।8।
 
तो न रहता रसिक जनों का रस।
मेघ रस किस तरह बरस पाता।
जो न होता सकल रसों का रस।
तो सरस क्यों सरस कहा जाता।9।
 
कह सके बुधा जिसे 'रसो वै स:'।
जो न उनकी रसालता होती।
तो रसोपल न रस उपल बनते।
निज सरसता सकल रसा खोती।10।

7. मनोव्यथा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ऐ प्रेम के पयोनिधि भवरुज पियूष प्याले।
उपताप ताप पातक परिताप तम उँजाले।1।
 
प्रतिदिन अनेक पीड़ा पीड़ित बना रही है।
कब तक रहें निपीड़ित प्रभु पापरिणी पाले।2।
 
चलती नहीं अबल की कुछ सामने सबल के।
क्यों आपकी सबलता सँभली नहीं सँभाले।3।
 
जी-जान से लिपट कर हम टालते नहीं कब।
संकट समूह संकट मोचन टले न टाले।4।
 
सब रंग ही हमारा बदरंग हो रहा है।
पर रंग में हमारे प्रभु तो ढले न ढाले।5।
 
क्यों काल कालिमायें करती कलंकिता हैं।
दिल के कलंक भंजन हम थे कभी न काले।6।
 
है हो रही छलों से उसकी टपक छ गूनी।
क्यों दिल छिले हुए के देखे गये न छाले।7।
 
दुख दे कभी किसी को होते नहीं सुखी हम।
सुख-निधि पड़े रहे क्यों सुख के सदैव लाले।8।
 
हैं क्यों न दूर होते पातक अपार मेरे।
वे आपके निरालेपन से नहीं निराले।9।
 
जो काम ही हमारा होता तमाम है तो।
कमनीयता कहाँ है कमनीय कान्ति वाले।10

8. कामना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सदा भारत-भू फूले फले।
सफल कामनाएँ हों उसकी मिले सफलता गले।
पुलकित रहे प्रिय सुअन प्रतिदिन सुख पालने में पले।
भव-हित-रत भावुक मानस में भरे भाव हों भले।
दुख दल दलित रहे, कोई खल कर खलता न खले।
छूटे क्षोभ, क्षुद्रजन को भी छली न छल कर छले।
सकल समल मन परम विमल हो छूटे तन मल मले।
धाम धाम हो धूम धाम धवनि अधाम अधामता टले।1।
 
भारत भूल में न पड़ भूले।
क्या फल होगा, अंगारों को फूल समझ कर फूले।
लिख न सकेंगे लेख लेखनी कर में लेकर लूले।
कनक न होवेंगे पुआल के पीले पीले पूले।
मलय समीर समान मनोरम बनते नहीं बगूले।
बहीं नहीं लू कलित कुसुम की मत्ताकरी बर बू ले।
काले को कोई क्यों कामिनी कल कुंतल कह छू ले।
परम अकाम अंक कैसे कामद काम बधू ले।2।

9. विद्या-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

इस चमकते हुए दिवाकर से।
रस बरसते हुए निशाकर से।1।
 
जो अलौकिक प्रकाश वाली है।
बहु सरसता भरी निराली है।2।
 
वह जगद्वंदनीय विद्या है।
अति अनूठा प्रभाव जिसका है।3।
 
ज्योति रवि की जहाँ नहीं जाती।
यह वहाँ भी विकास है पाती।4।
 
जो शशी को सरस नहीं कहते।
हैं इसीसे अपार रस लहते।5।
 
यह सुधा है; अमर बनाती है।
यह सुयश-वेलि को उगाती है।6।
 
हो गये व्यास, वाल्मीकि अमर।
आज भी है सुकीर्ति भूतल पर।7।
 
कामदा यह सुकल्प-लतिका है।
शान्ति-दात्री विचित्रा बटिका है।8।
 
कालिदासादि कामुकों का दल।
पा चुका है अनन्त इच्छित फल।9।
 
शान्ति इससे शुकादि ने पाई।
दीप्ति जिनकी दिगन्त में छाई।10।
 
यह अमर सरि पवित्र धारा है।
जिसने जाबालि को उधारा है।11।
 
नीच को ऊँच यह बनाती है।
काठ में भी सुफल फलाती है।12।
 
था विदुर का कहाँ नहीं आदर।
कौन कहता उन्हें न नयनागर।13।
 
सद्गुणों का प्रदीप्त पूषण था।
वह विबुध्द-मण्डली-विभूषण था।14।
 
शक्ति है अति अपूर्व विद्या की।
धूम सी है विचित्र क्षमता की।15।
 
विश्व के बीच वस्तु है जितनी।
एक में भी न शक्ति है इतनी।16।
 
स्वच्छ नीले अनन्त नभ-तल का।
सूर्य, बुध, सोम, शुक्र, मंगल का।17।
 
इन चमकते हुए सितारों का।
पूँछ वाले अनन्त तारों का।18।
 
भेद सब यह हमें बताती है।
मंजु दिल की कली खिलाती है।19।
 
सैकड़ों कोस एक कोस बना।
रेल की है अजब हुई रचना।20।
 
जो समाचार साल में आता।
तार उसको तुरंत है लाता।21।
 
है रसायन की वह सुचारु क्रिया।
सब धरा-गर्भ जिसने छान लिया।22।
 
बन गयी हैं विचित्र नौकाएँ।
जो जलधि-गर्भ में चली जाएँ।23।
 
था असम्भव अनन्त में उड़ना।
युक्ति से दिव्य व्योमयान बना।24।
 
हैं नये फूल फल उपज पाते।
अब मृतक हैं सजीव बन जाते।25।
 
देखने भालने लगे अंधो।
पुतलियाँ कर रही हैं सब धांधो।26।
 
बात बहरे समस्त सुनते हैं।
वस्त्रा बंदर अनेक बुनते हैं।27।
 
बोलने चालने लगे गूँगे।
बन गये रंग रंग के मूँगे॥़28।
 
दूरबीनें, कलें, बनीं ऐसी।
हैं न देखी सुनी गयी जैसी।29।
 
किन्तु यह सब कमाल है किसका।
गुण-मयी एक दिव्य विद्या का।30।
 
जो हुए वेद-मन्त्र के द्रष्टा।
हो गये उपनिषद् के जो अष्टा।31।
 
आज भी उन महर्षियों का रव।
है धारातल विबुधा गिरा गौरव।32।
 
तर्क, गौतम, कणाद, जैमिनि का।
कृत्य पण्डित्य-पूर्ण पाणिनि का।33।
 
शंकराचार्य्य का स्वमत-मंडन।
सूरि श्रीहर्ष का प्रबल खंडन।34।
 
आज भी है अज काम आता।
है जगत में प्रकाश फैलाता।35।
 
यह सभी है विभूति विद्या की।
है उसीकी सुकीर्ति यह बाँकी।36।
 
माघ, भवभूति का सुधा-वर्षण।
भारवी का अपूर्व संभाषण।37।
 
यह सदा ही श्रवण कराती है।
दिव्य कल-कंठता दिखाती है।38।
 
है जननि के समान क्षेमकरी।
है पिता के समान प्रीतिभरी।39।
 
है रमणी सम सदा रमण करती।
कीर्ति को है दिगन्त में भरती।40।
 
धान रहित के लिए महा धान है।
यह कुजन के लिए सुशासन है।41।
 
है निबल के लिए अलौकिक बल।
है समुद्योग का समुत्ताम फल।42।
 
है विमल तेज तेज-हीनों को।
रत्न की मंजु खानि, दीनों को।43।
 
है जरा-ग्रस्त के लिए लकुटी।
व्यग्रजन के निमित्ता शान्ति कुटी।44।
 
यह बिपत में बिरामदायिनि है।
क्लान्ति में मोद की विधायिनी है।45।
 
सहचरी है अनिन्द्य कर्मों में।
है व्यवस्था विशुद्ध धर्मों में।46।
 
यह निरवलम्ब का सहारा है।
तप्त उरकी सवारि-धारा है।47।
 
कालिमा की कलिन्द-नन्दिनी है।
पाप के पुंज की निकन्दिनी है।48।
 
है कलित कंठ कोकिला ऐसी।
गुणमयी है मरालिका जैसी।49।
 
मोर के पक्ष लौं सुचित्रित है।
यन्त्रा की भाँति यह नियंत्रित है।50।
 
है विकच-मल्लिका विनोद भरी।
पल्लवित वेलि है विमुग्धा करी।51।
 
है हृदय-तम विनाशिनी सुप्रभा।
है सदाचार की विचित्र सभा।52।
 
है कला उक्ति-युक्ति में ढाली।
है तुला बुद्धि तौलने वाली।53।
 
स्वर्ग की सैर यह कराती है।
मंजु अलकापुरी दिखाती है।54।
 
है सजाती नवल जलद-माला।
है पिलाती पियूष का प्याला।55।
 
है सुनाती मधुर भ्रमर-गूँजन।
पक्षि-कुल का अलाप कल-कूंजन।56।
 
है दिखाती हरी भरी डाली।
फूल-फल से लदी सुछबि वाली।57|
 
है जहाँ पर त्रिविध पवन बहती।
है जहाँ मत्ता कोकिला रहती।58।
 
जो सदा सौरभित सुपुष्पित है।
जो सुक्रीड़ित व मंजु मुखरित है।59।
 
इस तरह के अनेक उपवन में।
बाग में कुंज-पुंज में, वन में।60।
 
है हमें यह बिहार करवाती।
है छटा का रहस्य बतलाती।61।
 
स्वच्छ जल-राशिमय सरोवर पर।
हिम-धावल कर प्रदीप्त गिरिवर पर।62।
 
यह हमें है सप्रेम ले जाती।
है सुछबि का विकास दिखलाती।63।
 
बुद्धि जाती जहाँ न मन जाता।
जो सदा है अचिन्त्य कहलाता।64।
 
जो न मिलता हमें विचारों से।
हैं न पाते जिसे सहारों से।65।
 
है उसे भी यही लिखा देती।
थाह उसका है कुछ यही लेती।66।
 
 
विश्व-विद्या-करों विशेष पला।
है इसी से हुआ अशेष भला।67।
 
है अकथ और असीम-गुण-माला।
है उसे कौन आँकने वाला।68।
 
है यहाँ पर कहा गया जितना।
वह अखिल के समीप है कितना।69।
 
कुछ नहीं है, महा अकिंचित-कर।
जिस तरह बूँद और रत्नाकर।70।
 
इसलिए 'नेति' 'नेति' कहते हैं।
मुग्धा होते हैं मौन गहते हैं।71।

10. वेद हैं-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सब विद्या के मूल, जनक हैं सकल कला के।
विविधा-ज्ञान आधार, रसायन हैं अचला के।
सुरुचि विचार विवेक विज्ञता के हैं आकर।
हैं अपार अज्ञान तिमिर के प्रखर प्रभाकर।
परम खिलाड़ी प्रभु करों के लोकोत्तार गेंद हैं।
भव-सागर के सेतु ए जगत उजागर वेद हैं।1।
 
जब सारा संसार अचेतन पड़ा हुआ था।
निज पाँवों पर जीव नहीं जब खड़ा हुआ था।
रहा जिन दिनों अंधकार भूतल पर छाया।
जब न ज्ञान रवि-बिम्ब निकलने भी था पाया।
तभी प्रगट हो जिन्होंने बतलाये सब भेद हैं।
वे ही सारे लोक के दिव्य विलोचन वेद हैं।2।
 
जिनके सिर पर मुकुट जगत गुरुता का राजे।
जिनके मुख पर लोक चकित कर ज्योति बिराजे।
जिनके कर में भुक्ति-मुक्ति का सूत्र लसा है।
जिनका सारा अंग अलौकिक सुरभि बसा है।
जिनके पूत प्रभाव से मिटे भव-जनित खेद हैं।
सकल अपावनता दमन ए जग-पावन हैं।3।
 
कामधेनु सी कामद उनकी रुचिर ऋचा है।
उनका पूत प्रसंग निराली सुधा सिंचा है।
वे हैं चिंतामणि समान चिन्तित फलदाता।
उनसे सब कुछ जगत कल्पतरु लौं है पाता।
परम अगम भव-पंथ चल जोजन डूबे स्वेद हैं।
उनको मलया-सीर लौं महामोद-प्रद वेद हैं।4।
 
वे बहु साधन विटप वृन्द के हैं वर थाले।
सकल यम नियम गये गोद में उनकी पाले।
श्रद्धा और विश्वास हुए लालित उन से ही।
विमल सरोवर भक्ति कमलिनी के हैं वे ही।
अपरा विद्या मेदिनी मूल-भूत इव मेद हैं।
सुरभि पर विद्या सुमन बुधा जन वंदित वेद हैं।5।
 
इनमें से ही ज्योति जगमगा कर वह फूटी।
जिससे विकसित हुई सभ्यता जड़ता छूटी।
उसकी ही अभिनन्दनीय कल-कान्ति सहारे।
दमक रहे हैं सकल जगत मत के दृग तारे।
आँख डालकर देखिए मिलते अल्प विभेद हैं।
सकल धर्म सिद्धांत के अवलम्बन ए वेद हैं।6।
 
बुद्ध देव का परम दिव्य दीपक अवलोका।
ईसा का बहु विदित दमकता लंप विलोका।
देखी अति कमनीय शमा जश्र-दश्त जलाई।
निपट कान्त कन्दील मुहम्मद की दिखलाई।
पर विकास की दृष्टि से ए सर्वथा अभेद हैं।
करते आलोकित इन्हें आलोकाकर वेद हैं।7।
 
चाहे त्रिपिटक निज विभूति उनको बतलावें।
चाहे उनको जैन ग्रन्थ निज वस्तु बतावें।
निज अनुभव फल उन्हें क्या न इनजील बखाने।
उनको जिश्न्द कुरान भले ही स्वविभव माने।
किन्तु सत्य हम कथन कर नहिं करते विच्छेद हैं।
सर्वभौम सिद्धांत के आदि प्रवर्तक वेद हैं।8।
 
प्लेटो कोमत का अलाप अनुपम सुन पाया।
केंट के परम ललित लयों ने बहुत रिझाया।
सुपनहार के मधुर तान ने हृदय लुभाया।
स्पेंसर के अति सरस राग ने मुग्ध बनाया।
दान्ते के कल गीत से मिटते मानस क्लेद हैं।
पर स्वर से जाना, उन्हें स्वरित बनाते वेद हैं।9।
 
ऐसा व्यक्ति विशेष सभी मत है बतलाता।
जिसके माने बिना मुक्ति कोई नहीं पाता।
किन्तु एक वैदिक मत ही ऐसा है प्यारे।
जिसमें नर तरता है निज व्यक्तित्व सहारे।
रख सुकर्म रत फलों में उपजाते निर्वेद हैं।
केवल ज्ञान-प्रभाव से मुक्ति दिलाते वेद हैं।10।
 
किसी जाति मत पंथ का मनुज कोई होवे।
जो प्रभु पद को गहे मलिनता चित की खोवे।
सदाचार रत रहे पाप तज जग हित साधो।
तो वह होगा मुक्त बिना प्रति भू आराधो।
गिरा परम गंभीर से करते भ्रम उच्छेद हैं।
मुक्त-कंठ से बात यह कहते केवल वेद हैं।11।
 
जब उपासनाएँ प्रतीक हैं काम चलाती।
नर उर में विज्ञान ज्योति है जब जग जाती।
मध्य दशाओं सहित दशा यह आदिम अंतिम।
जिनमें पड़कर हुई मनुज की महिमा अप्रतिम।
उनके अति व्यापक फलद कहे भेद उपभेद हैं।
क्योंकि सर्वदर्शी विशद सर्व ज्ञानमय वेद हैं।12।
 
किसी ग्रन्थ मत पंथ धर्म साधन का खंडन।
वे नहीं करते मिले क्योंकि वे हैं महि मंडन।
वे हैं उनके जनक विकासक जीवन दाता।
वे तब थे जब था न किसी का नाम सुनाता।
इसीलिए यद्यपि नहीं वे रखते संभेद हैं।
तो भी उन पर प्रेम जल वर्षण करते वेद हैं।13।
 
पंचभूत जल पवन आदि ऊपर है जैसा।
प्राणीमात्र अधिकार वेद पर भी है वैसा।
उनकी ऊँची आँख नहीं कहीं पर है अड़ती।
वह समान सब जाति देश पर ही है पड़ती।
सदा तुल्य उनके लिए यूरप अन्तर्वेद हैं।
सकल जगत हित में निरत विश्व प्रेम-रत वेद हैं।14।
 
थोड़ा अन्तर भ्रातृ-भाव में है रह जाता।
वैदिक मत है इसीलिए यह पाठ पढ़ाता।
मानव ही को नहीं सभी जीवों को मानो।
निज आत्मा समान आत्मा सब की जानो।
वंश जाति गत दृष्टि का वे करते उद्भेद हैं।
है कुटुम्ब वसुधा सकल यह बतलाते वेद हैं।15।
 
आये दिन ए शैव वैष्णव रगड़े कैसे।
धर्म सभा के औ समाज के झगड़े कैसे।
हमें बता दो सौर शक्ति क्यों हैं लड़ पड़ते।
क्यों वेदान्ती लोग कुछ दृगों में है गड़ते।
लोग परस्पर किसलिए करते वृथा कुरेद हैं।
जब कि धर्म के विषय में मान्य सभी के वेद हैं।16।
 
हैं विचित्राताएँ विचार रुचि की स्वाभाविक।
किन्तु न होगा उचित काक बन जावे यदि पिक।
भिन्न भिन्न मत गत विचित्रता ही है जीवन।
यदि समाज के लिए बने वह जड़ी सजीवन।
किन्तु लोक-हित हृदय में जो जन करते छेद हैं।
वे न जानते मर्म हैं न तो मानते वेद हैं।17।
 
विविधा गठन और रूप रंग जिनका हैं पाते।
वे बाजे हैं सदा मिलाने से मिल जाते।
रखते हुए स्वकीय भाव सारा ढँग न्यारा।
वे मिलते हैं एक देह-व्यापी स्वर द्वारा।
बने भले ही नित रहें जितने उचित प्रभेद हैं।
पर वे हृदय मिले रहें जिनमें बसते वेद हैं।18।
 
गजरों में है बिबिधा फूल को सूत्र मिलाता।
गहनों में है बिबिधा नगों का मेल दिखाता।
वे सब न्यारा रूप रंग अपना नहीं खोते।
पर तो भी हैं एक सिद्धि के साधान होते।
यों ही शुभ उद्देश्य से, हम पूछते सखेद हैं।
क्या वे मिल सकते नहीं जिन्हें मिलाते वेद हैं?।19।
 
मिल सकते हैं, जो न भूल अपने को जावें।
करें सत्य को प्यार कलह को मार भगावें।
धर्म ओट में कभी न जी का मैल निकालें।
रखें प्रेम का मान सुजनता को प्रति पालें।
पर को खेदित कर न जो रहते स्वयं अखेद हैं।
मुख उन का संसार में उज्ज्वल करते वेद हैं।20।
 
प्रभो! प्रभा वैदिक मत की भूतल में फैले।
लघु बातों के लिए न होवें मानस मैले।
सब सच्चे जी से कुटुम्ब वसुधा को माने।
विश्व-प्रेम के महामन्त्र की महिमा जाने।
हुए वितण्डावाद में जिनके बाल सुपेद हैं।
वे अभिज्ञ हों, देवता शान्ति मंत्रा के वेद हैं।21।

11. प्रेमधारा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

उसका ललित प्रवाह लसित सब लोकों में है।
उसका रव कमनीय भरा सब ओकों में है।
उसकी क्रीड़ा-केलि कल्प-लतिका सफला है।
उसकी लीला लोल लहर कैवल्य कला है।
मूल अमरपुर अमरता सदा प्रेमधारा रही।
वसुंधारा तल पर वही लोकोत्तारता से बही।1।
 
रवि किरणें हैं इसी धारा में उमग नहाती।
इसीलिए रज तक को हैं रंजित कर जाती।
कला कलानिधि कलित बनी पाकर वह धारा।
जिससे हुआ पियूष सिक्त वसुधा तल सारा।
श्याम-घटा में प्रेम की धारा ही है सरसती।
इसीलिए वह सभी पर रस धारा है बरसती।2।
 
सब अग जग को गगन गोद में है ले लेता।
किसके मुख को तेज नहीं उज्ज्वल कर देता।
मंद मंद चल पवन मुग्धा सब को है करती।
देती है फल फूल रुचिर कृमि तक को धरती।
निज शीतलता से सलिल सब को करता है सुखित।
मूल प्रेम धारा प्रकृति पंचतत्व में है निहित।3।
 
रिपु के कर में भी प्रसून है बिकच दिखाता।
छेदन रत नख निचय सुरभि उससे है पाता।
जिसके कर से कटा दसन से गया विदारा।
फल करता है मुदित उसे स्वादित रस द्वारा।
तरु से धाया कब नहीं पाहन हन्ता को मिली।
परस प्रेम धारा नहीं किस की कृति कलिका खिली।4।
 
पाहन गठित अपार नेरु उर को सुद्रवित कर।
वह लहराती मिली रूप सरिसोतों का धार।
निकली सुरसरि सदृश कहीं पावन सलिला वन।
करके सफलित धारा धााम मल रहित मलिन मन।
मरुमहि भूति मतीर का सलिल सुशीतल है वही।
विविधा मूर्ति धार कर कहाँ नहीं प्रेमधारा बही।5।
 
ओस, तृणलता कुसुम विपट पल्लव सिंचन रत।
बहु तरु चंदन करी सुरभि मलयाद्रि अंक गत।
विविधा दिव्यमणि जनित ज्योति उज्ज्वल उपकारी।
बहु ओषधी प्रसूत शक्ति-जीवन संचारी।
जगत जीव प्रतिपालिका पय धारा उरजों भरी।
क्या है? नानामूर्ति धार प्रेमधार ही अवतरी।6।
 
जो सत्ता है नित्य सत्य चिन्मयी अनूपा।
संसृति मूली भूत परम आनन्द स्वरूपा।
विश्व-व्यापिनी विपुल-सूक्ष्म जिसकी है धारा।
वस्तुमात्र में है विकास जिसका अति न्यारा।
धारा ही में प्रेम की वह होती है प्रतिफलित।
इस सुमुकुर में ही दिखा पड़ी मूर्ति उसकी कलित।7।
 
बुझ जाता है कलह-विरोध प्रबल दावानल।
बह जाता है मोह मूल बहु मानस का मल।
जाता है सविकार मैल धुल जी का सारा।
गिर जाता है टूट टूट कर कुरुचि करारा।
धारा द्वारा प्रेम का ढह जाता है विटप मद।
किये अपार प्रयत्न भी टिकता नहीं प्रमाद पद।8।
 
बन जाती है सुछबिवती पर हित रति क्यारी।
हो जाती है सरस सुरुचि प्रियता फुलवारी।
धारा बंधुता मानवता की सिंच जाती है।
सहृदयता कृषि वांछनीय जीवन पाती है।
धारा ही से प्रेम की कल कृति विटपावलि पली।
सहज सुजनता वाटिका पुलकित हो फूली फली।9।
 
कपट-जाल शैवाल समूह उपज नहिं पाता।
मोह पटल र्आवत्ता नहीं पड़ता दिखलाता।
बुद्धि कुत्सित भाव कदापि नहीं उठ पाते।
नहिं नाना कुविचार फेन बहते उतराते।
कुमति मलिनता प्रेम की धारा में आती नहीं।
छल-छाया प्रतिबिम्बता कथमपि हो पाती नहीं।10।
 
मिलती हैं वे भावमयी लहरें लहराती।
जो कि मंजुतर मनुज मनों को हैं कर जाती।
भावुक जन वह रत्न-राजि अनुपम है पाता।
जिससे मंडित हो वसुधा को है अपनाता।
धारा में ही प्रेम का खिलता है वह कल कमल।
सुरभित होता है सुरभि से जिसकी सब अवनि-तल।11।
 
वीर उर बसी विजय प्रेम धारा के द्वारा।
है मृणाल के तन्तु-तुल्य लगती असि धारा।
निज प्रियतम के प्रेम धार में डूबी बाला।
गिनती है अंगार पुंज को पंकज माला।
शान्त हुआ इस प्रेम की धारा ही से वह अनल।
जिससे जन प्रहलाद को मिला अलौकिक भक्ति फल।12।
 
जिसे धान विभव विविधा प्रलोभन हैं न लुभाते।
हाव-भाव सुविलास जिसे वश में नहिं लाते।
रूप माधुरी बदन कान्ति कोमलता प्यारी।
नहिं करती अनुरक्त जिसे आकृति अति न्यारी।
अनुगत कर पाती नहीं जिसको बहु अनुनय विनय।
वश में करता है उसे अंतर प्रेम प्रवाहमय।13।
 
वे लोचन हैं लोक लोचनों को बेलमाते।
वे उर हैं संसार उरों में सुधा बहाते।
वह प्रदेश है भाव राज्य की भू बन जाता।
वह समाज है शान्ति शिखर पर शोभा पाता।
वांछित धृति से धर्म वे धारण करते हैं मही।
जिनमें समुचित प्रगति से पूत प्रेम धारा बही।14।
 
देश जाति कुल जनित भिन्नता चरित विषमता।
रुचि विचार आचार शील व्यवहार असमता।
परम कठिनता मयी मेदिनी है पथरीली।
होती है पा जिन्हें प्रेम धारा गति ढीली।
किन्तु इसी के अति सरस प्रबल प्रवाहों में पड़े।
वारिधि विविधा विभेद के बनते हैं जल के घड़े।15।
 
परम प्रशंसित राजकीय सत्ताएँ सारी।
बड़ी-बड़ी सामरिक विजय भूतल वशकारी।
प्रेम-प्रवाह-प्रसूत विजय सत्ताओं जैसी।
व्यापक हितकर हृदय रंजिनी उनके ऐसी।
किसी काल में कब हुई वैसी कोमल उज्जवला।
वे हैं बिजली की विभा ए हैं राकापति कला।16।
 
प्रबल नृपति आतंक, वाहिनी जगत विजयिनी।
प्रलय-कारिणी तोप रण धारा काल प्रणयिनी।
निधि उत्ताल तरंग मान गिरि पावक आवी।
जन-समूह कर आत्ता नाद पाहन उर द्रावी।
जिन वीरों के पवि उरों को न प्रभावित कर सके।
किसी प्रेम धारा मयी रुचि के हाथों वे बिके।17।
 
पावन वेद प्रसूत प्रेम की व्यापक धारा।
हुई प्रवाहित परम सरस कर भूतल सारा।
उससे भारत धारा यदि हुई स्वर्ग समाना।
तो पाया सुख अन्य अखिल देशों ने नाना।
मानव भूरे सित असित पीत लाल औ साँवले।
सदा इसी के कूल पर ललित हो फूले-फले।18।
 
वैदिक ऋषिगण परम सरल भावुक उर द्वारा।
बुध्ददेव के सदय हृदय का ढँढ़ सहारा।
ईसा और मुहम्मदादि अंतर कर प्लावित।
हुई प्रेम धारा मधाुमयता सहित प्रवाहित।
कई कोटि जन आज भी उसके प्रबल प्रभाव से।
बँधो एकता सूत्रा में रहते हैं सद्भाव से।19।
 
प्रति हिंसा प्रिय दनुज देवता है बन जाता।
विविधा विभव मद अंधा दिव्य लोचन है पाता।
पर स्वतंत्रता हरण पिपासा कुटिल पिशाची।
प्रबल राज्य विस्तार कामना सुमुखि घृताची।
बन जाती हैं देवियाँ सकल सदाशयता मयी।
पड़कर प्रेम-प्रवाह में हो पाहनता पर जयी।20।
 
कभी न लोहित अवनि रुधिर धारा से होती।
पर की ममता कभी नहीं मद धारा खोती।
कभी किसी का प्रकृत स्वत्व औ गौरव सारा।
नाश न होता कुटिल नीति धारा के द्वारा।
मनुजोचित अधिाकार भी कभी नहीं जाता छिना।
जो बह पातीं प्रेम की धाराएँ बाधाा बिना।21।
 
कहीं सामने देश भेद के मेरु खड़े हैं।
कहीं जाति बंधन के ऊँचे बाधा पड़े हैं।
कहीं भित्ति है धर्म भिन्नता कठिन शिला की।
कहीं कंकरों मयी धारा है रुचि प्रियता की।
किन्तु मेरु को बेधा कर औरों का करके दलन।
वह निकलेंगी प्रेम की धाराएँ अविछिन्न बन।22।
 
प्रकृत बात कब तक कुहकों में पड़ी रहेगी।
कब तक कटुता कूट नीति सत्यता सहेगी।
होंगे दूर विभेद परस्पर प्यार बढ़ेगा।
टले पयोद प्रमाद मयंक प्रमोद कढ़ेगा।
आवेंगे वे दिवस जब छटा बढ़ाती छेम की।
बहती होगी धारा पर अविरल धारा प्रेम की।23।
 
व्यापक धर्म समूह मूल सिध्दान्त एकता।
सब देशों के विबुधा वृन्द की वर विवेकता।
भ्रातापन का भाव जातिगत स्वार्थ महत्ता।
मानवता का मंत्रा विविधा स्वाभाविक सत्ता।
दूर करेंगी उरों से सकल अवांछित भिन्नता।
शमन करेगी प्रेम की धारा मानस खिन्नता।24।
 
उस दिन सारे देश बनेंगे शान्ति निकेतन।
फहरेंगे सब ओर सदा शयता के केतन।
सभी जातियाँ सभ्य सुखी स्वाधीन रहेंगी।
स्नेह तरंगों बीच उमंगों सहित बहेंगी।
होवेगी जनता सकल निज अधिकारों पर जयी।
हो जावेगी सब धारा प्रकृत प्रेम धारा मयी।25।

12. धर्मवीर-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

यह जगत जिसके सहारे से सदा फूले-फले।
ज्ञान का दीया निराली ज्योति से जिसके जले।
आँच में जिसके पिघल कर काँच हीरे सा ढले।
जो बड़ा ही दिव्य है, तलछट नहीं जिसके तले।
हैं उसे कहते धरम, जिस से टिकी है, यह धारा।
तेज से जिसके चमकता है, गगन तारों-भरा।1।
 
पालने वाला धरम का है कहता धर्मवीर।
सब लकीरों में उसी की है बड़ी सुन्दर लकीर।
है सुरत्नों से भरी संसार में उसकी कुटीर।
वह अलग करके दिखाता है जगत को छीर नीर।
है उसी से आज तक मरजादा की सीमा बची।
सीढ़ियाँ सुख की उसी के हाथ की ही हैं रची।2।
 
एक-देशी वह जगत-पति को बनाता है नहीं।
बात गढ़ कर एक का उसको बताता है नहीं।
रंग अपने ढंग का उस पर बढ़ाता है नहीं।
युक्तियों के जाल में उसको फँसाता है नहीं।
भेद का उसके लगाता है वही सच्चा पता।
ठीक उसका भाव देती है वही सब को बता।3।
 
तेज सूरज में उसी का देख पड़ता है उसे।
वह चमकता बादलों के बीच मिलता है उसे।
वह पवन में और पानी में झलकता है उसे।
जगमगाता आग में भी वह निरखता है उसे।
राजती सब ओर है उसके लिए उसकी विभा।
पत्थरों में भी उसे उसकी दिखाती है प्रभा।4।
 
पेड़ में उसको दिखते हैं हरे पत्ते लगे।
वह समझता है सुयश के पत्र हैं उसके टँगे।
फूल खिलते हैं, अनूठे रंग में उसके रँगे।
फल, उसे, रस में उसी के, देख पड़ते हैं पगे।
एक रजकण भी नहीं है आँख से उसकी गिरा।
राह का तिनका दिखाता है उसे भेदों भरा।5।
 
सोचता है वह, जो मिलते हैं उसे पर्वत खड़े।
हैं उसी की राह में सब ओर ये पत्थर गड़े।
जो दिखाते हैं उसे मैदान छोटे या बड़े।
तो उसे मिलते वहाँ हैं ज्ञान के बीये पड़े।
वह समझता है पयोनिधि प्रेम से उसके गला।
जंगलों में भी उसे उसकी दिखाती है कला।6।
 
हैं उसी की खोज में नदियाँ चली जाती कहीं।
है तरावट भूलती उसकी कछारों को नहीं।
याद में उसकी सरोवर लोटता सा है वहीं।
निर्झरों के बीच छींटें हैं उसी की उड़ रहीं।
वह समझता है उसी की धार सोतों में बही।
झलमलाता सा दिखाता झील में भी है वही।7।
 
भीर भौंरों की उसी की भर रही है भाँवरें।
गान गुण उसका रसीले कण्ठ से पंखी करें।
भनाभना कर मक्खियाँ हर दम उसी का दम भरें।
तितलियाँ हो निछावर ध्यान उसका ही धरें।
वह समझता है, न है, झनकार झींगुर की डगी।
है सभी कीड़े मकोड़ों को उसी की धुन लगी।8।
 
है अछूती जोत उसकी मंदिरों में जग रही।
मसजिदों गिरजाघरों में भी दरसता है वही।
बौद्ध-मठ के बीच है दिखला रहा वह एक ही।
जैन-मंदिर भी, छुटा उसकी छटा से है नहीं।
ठीक इनमें दीठ जिसकी है नहीं सकती ठहर।
देख पड़ती है उसी की आँख में उसको कसर।9।
 
शद्म उसके ही लिए देता जगत को है जगा।
बाँग भी सबको उसी की ओर देती है लगा।
गान इन ईसाइयों का ताल औ लय में पगा।
इस सुरत को है उसी की ओर ले जाता भगा।
जो बिना समझे किसी को भी बनाता है बुरा।
वह समझता है, वही सच पर चलाता है छुरा।10।
 
हो तिलक तिरछा, तिकोना, गोल, आड़ा या खड़ा।
गौन हो, दस्तार हो, या बाल हो लाँबा बड़ा।
जो बनावट का बुरा धब्बा न हो इन पर पड़ा।
तो सभी हैं ठीक, देते हैं दिखा पारस गड़ा।
जो इन्हें लेकर झगड़ता या उड़ाता है हँसी।
जानता है, वह समझ है जाल में उसकी फँसी।11।
 
गेरुआ कपड़ा पहनना, घूमना, दम-साधना।
राख मलना, गरमियों में आग जलती तापना।
जंगलों में वास करना, तन न अपना ढाँकना।
बाँधाना कंठी, गले में सेल्हियों का डालना।
वह इन्हें मन जीत लेने की जुगुत है जानता।
जो न उतरा मैल तो सूखा ढचर है मानता।12।
 
पतजिवा, रुद्राक्ष, तुलसी की बनी माला रहे।
या कोई तसवीह हो या पोर उँगली की गहे।
या बहुत सी कंकड़ी लेकर कोई गिनना चहे।
या कि प्रभु का नाम अपनी जीभ से यों ही कहे।
लौ लगाने को बुरा इनमें नहीं है एक भी।
आँख में उसकी नहीं तो, काठ मिट्टी हैं सभी।13।
 
ध्यान, पूजा, पाठ, व्रत, उपवास, देवाराधना।
घूमना सब तीरथों में, आसनों को साधना।
योग करना, दीठ को निज नासिका पर बाँधना।
सैकड़ों संयम नियम में इन्द्रियों को नाधना।
वह समझता है सभी हैं ज्ञान-माला की लड़ी।
जो दिखावट की न भद्दी छींट हो इन पर पड़ी।14।
 
बौद्ध, त्रिपिटिक, बाइबिल, तौरेत, या होवे कुरान।
जिन्दबस्ता, जैन की ग्रन्थावली, या हो पुरान।
वेद-मत का ही बहुत कुछ है हुआ इनमें बखान।
है बहा बहु धार से इनमें उसी का दिव्य ज्ञान।
ठीक इसका भेद गुण लेकर वही है बूझता।
है बुरी वह आँख अवगुण ही जिसे है सूझता।15।
 
बुद्ध, जैन, ईसा, मुहम्मद, और मूसा को भला।
कौन कह सकता है, दुनिया को इन्होंने है छला।
सोच लो जश्रदश्त भी है क्या कहीं उलटा चला।
ये लगाकर आग दुनिया को नहीं सकते जला।
वह इसीसे है समझता वेद के पथ पर चढ़े।
ये समय और देश के अनुसार हैं आगे बढ़े।16।
 
बौद्ध, हिन्दू, जैन, ईसाई, मुसलमाँ, पारसी।
जो बुराई से बचें, रक्खे न कुछ उसकी लसी।
धर्म की मरजाद पालें हो सुरत हरि में बसी।
तो भले हैं ये सभी, दोनों जगह होंगे जसी।
वह उसी को है बुरा कहता किसी को जो छले।
है धरम कोई न खोटा ठीक जो उस पर चले।17।
 
बौद्ध-मत, हिन्दू-धरम, इसलाम या ईसाइयत।
हैं, जगत के बीच जितने जैन आदिक और मत।
वह बताता है सभों की एक ही है असलियत।
है स्वमत में निज विचारों के सबब हर एक रत।
ठौर है वह एक ही, यह राह कितनी हैं गयी।
दूध इनका एक है, केवल पियाले हैं कई।18।
 
वह क्रिया से है भली जी की सफाई जानता।
पंडिताई से भलाई को बड़ी है मानता।
वह सचाई को पखंडों में नहीं है सानता।
वह धरम के रास्ते को ठीक है पहचानता।
ज्ञान से जग-बीच रहकर हाथ वह धोता नहीं।
आड़ में परलोक की वह लोक को खोता नहीं।19।
 
तंग करना, जी दुखाना, छेड़ना भाता नहीं।
वह बनाता है, कभी सुलझे को उलझाता नहीं।
देखकर दुख दूसरों का चैन वह पाता नहीं।
एक छोटे कीट से भी तोड़ता नाता नहीं।
लोक-सेवा से सफल होकर सदा बढ़ता है वह।
धूल बनकर पाँव की जन शीश पर चढ़ता है वह।20।
 
धान, विभव, पद, मान, उसको और देते हैं झुका।
प्रेम बदले के लिए उसका नहीं रहता रुका।
वह अजब जल है उसे जाता है जो जग में फँका।
बैरियों से वह कभी बदला नहीं सकता चुका।
प्यार से है बाघ से विकराल को लेता मना।
वह भयंकर ठौर को देता तपोवन है बना।21।
 
हैं कहीं काले बसे, गोरे दिखाते हैं कहीं।
लाल, पीले, सेत, भूरे, साँवले भी हैं यहीं।
पीढ़ियाँ इनकी कभी नीची, कभी ऊँची रहीं।
रँग बदलने से बदलती दीठ है उसकी नहीं।
भेद वह अपने पराये का नहीं रखता कभी।
सब जगत है देश उसका जाति हैं मानव सभी।22।
 
वह समझता है सभी रज बीर्य से ही हैं जना।
मांस का ही है कलेजा दूसरों का भी बना।
आन जाने पर न किसकी आँख से आँसू छना।
दूसरे भी चाहते हैं मान का मुट्ठी चना।
खौलना जिसका किसी से भी नहीं जाता सहा।
है रगों में दूसरों की भी वही लहू बहा।23।
 
वह तनिक रोना, कलपना और का सहता नहीं।
हाथ धोकर और के पीछे पड़ा रहता नहीं।
बात लगती वह किसी को एक भी कहता नहीं।
चोट पहुँचाना किसी को वह कभी चहता नहीं।
जानता है दीन दुखियों के दरद को भी वही।
बेकसों की आह उससे है नहीं जाती सही।24।
 
ए चुडैलें चाह की उसको नहीं सकतीं सता।
प्यार वह निज वासनाओं से नहीं सकता जता।
मोह की जी में नहीं उसके उलहती है लता।
है कलेजे में न कोने का कहीं मिलता पता।
रोस की, जी में कभी उठती नहीं उसके लपट।
छल नहीं करता किसी से वह नहीं करता कपट।25।
 
गालियाँ भातीं नहीं, ताने नहीं जाते सहे।
आग लग जाती है कच्ची बात जो कोई कहे।
देख कर नीचा किसकी आँख कब ऊँची रहे।
ठोकरें खाकर भला किसी को नहीं आँसू बहे।
वह समझता है न इतना घाव करती है छुरी।
ठेस होती है बड़ी ही इस कलेजे की बुरी।26।
 
देख करके तोप को जाता कलेजा है निकल।
यह बुरी बंदूक रखकर जी नहीं सकता सम्हल।
बरछियाँ, तलवार, भाले हैं बना देते विकल।
गोलियाँ, बारूद, छर्रे, आँख करते हैं सजल।
उस समय तो और भी उसका तड़पता है जिगर।
जब समझता है कि इनमें है भरी जी की कसर।27।
 
क्यों बहाने को लहू हथियार सब जाते गढ़े।
दूसरों पर दूसरे फिर किसलिए जाते चढ़े।
किसलिए रणपोत, बनते और वे जाते मढ़े।
नासमझ का काम करते किसलिए लिक्खे पढ़े।
जो उसी की भाँति उठती प्यार की सब की भुजा।
तो दिखाती शान्ति की सब ओर फहराती धुजा।28।
 
पेट भरने के लिए कटता किसीका क्यों गला।
एक भाई के लिए क्यों दूसरा होता बला।
इस जगत में किसलिए जाता कभी कोई छला।
बहु बसा घर क्यों कलह की आग में होता जला।
ठीक सुन्दर नीति उसकी जो सदा होती चली।
तो कटी डालें दिखातीं आज दिन फूली फली।29।
 
है विभव किस काम का वह हो लहू जिसमें लगा।
आग उस धान में लगे जिसमें हुई कुछ भी दगा।
गर्व वह गिर जाय जिसका है सताना ही सगा।
धूल में वह पद मिले जो है कलंकों से रँगा।
वह विवश होकर सदा दुख से सुनाता है यही।
वह धरा धँस जाय जिस पर हैं कभी लोथें ढही।30।
 
यह भला है, यह बुरा है, वह समझता है सभी।
भूसियों में, छोड़कर चावल नहीं फँसता कभी।
जब ठिकाने है पहुँचता मोद पाता है तभी।
बात थोथी है नहीं मुँह से निकलती एक भी।
है जहाँ पर चूक उसकी आँख पड़ती है वहीं।
जड़ पकड़ता है उलझता पत्तियों में वह नहीं।31।
 
आदमी का ऐंठना, बढ़ना, बहकना, बोलना।
रूठना, हँसना, मचलना, मुँह न अपना खोलना।
संग बन जाना, कभी इन पत्तियों सा डोलना।
वह समझता है तराजू पर उसे है तोलना।
है उसी ने ही पढ़ी जी की लिखावट को सही।
गुत्थियाँ उसकी सदा है ठीक सुलझाता वही।32।
 
देखता अंधा नहीं, उजले न होते हैं रँगे।
दौड़ता लँगड़ा नहीं, सोये नहीं होते जगे।
क्यों न वह फिर रास्ते पर ठीक चलने से डगे।
हैं बहुत से रोग, जिसके एक ही दिल को लगे।
देखकर बिगड़ा किसी को वह नहीं करता गिला।
काम की कितनी दवाएँ हैं उसे देता पिला।33।
 
देखकर गिरते उठाता है, बिगड़ जाता नहीं।
वह छुड़ाता है फँसे को, और उलझाता नहीं।
राह भूले को दिखा देता है भरमाता नहीं।
है बिगड़ते को बनाता, आँख दिखलाता नहीं।
सर अंधेरों में भला किसका न टकराया किया।
वह अँधेरा दूर करता है, जलाता है दिया।34।
 
जीव जितने हैं जगत में, हैं उसे प्यारे बड़े।
दुख उसे होता है जो तिनका कहीं उनको गड़े।
एक चींटी भी कहीं जो पाँव के नीचे पड़े।
तो अचानक देह के होते हैं सब रोयें खड़े।
हैं छुटे उसकी दया से ये हरे पत्ते नहीं।
तोड़ते इनको उसे है पीर सी होती कहीं।35।
 
कँप उठे सब लोक पत्तो की तरह धरती हिले।
राज, धान जाता रहे, पद, मान, मिट्टी में मिले।
जीभ काटी जाय, फोड़ी जाय आँखें, मुँह सिले।
सैकड़ों टुकड़े बदन हो, पर्त चमड़े की छिले।
छोड़ सकता उस समय भी वह नहीं अपना धरम।
जब हैं हर एक रोयें नोचते चिमटे गरम।36।
 
धर्मवीरों की चले, सब लोग हो जावें भले।
भाइयों से भाइयों का जी न भूले भी जले।
चन्द्रमा निकले धरम का, पाप का बादल टले।
हे प्रभो संसार का हर एक घर फूले फले।
इस धारा पर प्यार की प्यारी सुधा सब दिन बहे।
शान्ति की सब ओर सुन्दर चाँदनी छिटकी रहे।37।

13. कर्मवीर-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।1।
 
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही।
मानते जी की हैं सुनते हैं सदा सब की कही।
जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही।
भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं।
कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।2।
 
जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।
काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं।
आजकल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं।
यत्न करने में कभी जो जी चुराते हैं नहीं।
बात है वह कौन जो होती नहीं उनके किए।
वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए।3।
 
व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर।
वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर।
गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर।
आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लवर।
ये कँपा सकतीं कभी जिसके कलेजे को नहीं।
भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं।4।
 
चिलचिलाती धूप को जो चाँदनी देवें बना।
काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना।
जो कि हँस हँस के चबा लेते हैं लोहे का चना।
''है कठिन कुछ भी नहीं'' जिनके है जी में यह ठना।
कोस कितने ही चलें पर वे कभी थकते नहीं।
कौन सी है गाँठ जिसको खोल वे सकते नहीं।5।
 
ठीकरी को वे बना देते हैं सोने की डली।
रेग को करके दिखा देते हैं वे सुन्दर खली।
वे बबूलों में लगा देते हैं चंपे की कली।
काक को भी वे सिखा देते हैं कोकिल-काकली।
ऊसरों में हैं खिला देते अनूठे वे कमल।
वे लगा देते हैं उकठे काठ में भी फूल फल।6।
 
काम को आरंभ करके यों नहीं जो छोड़ते।
सामना करके नहीं जो भूल कर मुँह मोड़ते।
जो गगन के फूल बातों से वृथा नहिं तोड़ते।
संपदा मन से करोड़ों की नहीं जो जोड़ते।
बन गया हीरा उन्हीं के हाथ से है कारबन।
काँच को करके दिखा देते हैं वे उज्ज्वल रतन।7।
 
पर्वतों को काटकर सड़कें बना देते हैं वे।
सैकड़ों मरुभूमि में नदियाँ बहा देते हैं वे।
गर्भ में जल-राशि के बेड़ा चला देते हैं वे।
जंगलों में भी महा-मंगल रचा देते हैं वे।
भेद नभ तल का उन्होंने है बहुत बतला दिया।
है उन्होंने ही निकाली तार तार सारी क्रिया।8।
 
कार्य्य-थल को वे कभी नहिं पूछते 'वह है कहाँ'।
कर दिखाते हैं असंभव को वही संभव यहाँ।
उलझनें आकर उन्हें पड़ती हैं जितनी ही जहाँ।
वे दिखाते हैं नया उत्साह उतना ही वहाँ।
डाल देते हैं विरोधी सैकड़ों ही अड़चनें।
वे जगह से काम अपना ठीक करके ही टलें।9।
 
जो रुकावट डाल कर होवे कोई पर्वत खड़ा।
तो उसे देते हैं अपनी युक्तियों से वे उड़ा।
बीच में पड़कर जलधि जो काम देवे गड़बड़ा।
तो बना देंगे उसे वे क्षुद्र पानी का घड़ा।
बन ख्रगालेंगे करेंगे व्योम में बाजीगरी।
कुछ अजब धुन काम के करने की उनमें है भरी।10।
 
सब तरह से आज जितने देश हैं फूले फले।
बुध्दि, विद्या, धान, विभव के हैं जहाँ डेरे डले।
वे बनाने से उन्हीं के बन गये इतने भले।
वे सभी हैं हाथ से ऐसे सपूतों के पले।
लोग जब ऐसे समय पाकर जनम लेंगे कभी।
देश की औ जाति की होगी भलाई भी तभी।11।

14. जीवनमुक्त-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसे नहीं ललना-ललामता मोहती।
विफल नहीं होता उसका टोना कहीं।
किसे नहीं उसके विशाल दृग भेदते।
किसे कुसुम सायत कंपित करता नहीं।1।
 
निज लपटों से करके दग्ध विपुल हृदय।
कलह, वैर, कुवचन-अंगारक प्रसवती।
करके भस्मीभूत विचार, विवेक को।
किसके उर में क्रोध आग नहिं दहकती।2।
 
अनुचित उचित विचार-विहीन, उपद्रवी।
प्रतिहिंसा-प्रिय, हठी, निमज्जित अज्ञता।
असहन-शील, कठोर, दांभिक, मंदधी।
किसे नहीं करती प्रमत्ता, मद-मत्ताता।3।
 
कहीं कान्त-स्वर-ग्राम रूप में है रमा।
कहीं सरस रस परिमल बन कर सोहता।
सुत-कलत्र ममता-स्वरूप में है कहीं।
मधुर मूर्ति से मोह किसे नहिं मोहता।4।
 
तीन लोक का राज तथा सारा विभव।
पा करके भी तृप्ति नहीं होती जिसे।
रुधिर-पात पर-पीड़न का जो हेतु है।
भला लोभ विचलित करता है नहिं किसे।5।
चाहे द्रोह, प्रमाद, असूया आदि हो।
चाहे हो मत्सर, चाहे हो पशुनता।
काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ जैसे अपार।
दोष हैं न, ये सकल दोष के हैं पिता।6।
 
अनुपम साधन तथा आत्मबल अतुल से।
जिसका जीवन इन दोषों से मुक्त है।
पूत-चरित लोकोत्तार-गुण-गरिमा-बलित।
वही इस अवनि-तल पर जीवनमुक्त है।7।
 
क्या सकामता उसमें होती है नहीं?
होती है, पर वह होती है सुरुचि-मय।
बन जाता है पर फलद औ पूत तम।
काम-बिशिख छू अति पावन उसका हृदय।8।
 
नहिं विलासिता हेतु बनी उसके लिए।
किसी काल में कामिनी-कुल-कमनीयता।
वरन उसे सब काल दिखा उसमें पड़ी।
उस महान महिमा-मय की महनीयता।9।
 
उस पावक सा पूत कोप उसका मिला।
जो कंचन को तपा बनाता है विमल।
या होता है वह उस बाल पतंग सा।
जो समुदित हो देता है तम-तोम दल।10।
 
उस आतप सा भी कह सकते हैं उसे।
जिसके पीछे सुखद सलिल है बरसता।
वह सुतप्त जल भी उसका उपमान है।
तन जिससे पाता है अनुपम निरुजता।11।
 
यह वह शासन है जिससे सुधारे कुधी।
यह वह नियमन है जिसमें है हित निहित।
वह प्रयोग है मुक्त जनों का कोप यह।
जिससे अविहित रत पाता है पथ विहित।12।
 
आत्म-त्याग का अति पुनीत मद पान कर
वह रहता है सदा विमुग्धा प्रमत्ता सा।
होती हैं इसलिए भूत-हित में रँगी।
सकल भावनाएँ उसकी मद-संभवा।13।
 
पर-दुख-कातरता पर वरता बंद्यता।
अहं मन्यता को मानवता पगों पर।
सदा निछावर करता है वह मुग्धा हो।
पर-हित-प्रियता पर गौरव-गरिमा अपर।14।
 
कर विलोप साधान नभ-तारक-पुंज का।
दिन-नायक सा नहिं होता उसका उदय।
समुदित होता है वह कुमुदिन-कान्त सा।
सप्रभ, अविकलित, रंजित, रख तारक निचय।15।
 
होता है उर मोह महत्ताओं भरा।
होती हैं भ्रम-मयी न उसकी पूर्तियाँ।
मधुमयता, ममता, विमुग्धाता में उसे।
विश्व-प्रेम की मिलती हैं शुचिर् मूर्तियां।16।
 
सुन्दर-स्वर लहरी उसकी चित-वृत्ति को।
ले जाती हैं खींच अलौकिक लोक में।
बहती है अति पूत प्रेम-धारा जहाँ।
भक्ति-सुधा-सँग दिव्य ज्ञान आलोक में।17।
 
भाव 'रसो वै स:' का उसमें है भरा।
परिमल करता है मानस को परिमलित।
पाठ सिखा देता है समता का उसे।
मनन-शीलता सुत-कलत्र ममता-जनित।18।
 
कभी लोक-सेवा-लोलुपता-रूप में।
कभी उच्चतम-प्रेम ललक की मूर्ति बन।
मुक्त जनों का लोभ विलसता है कभी।
पा भावुकता-लसित-लालसा-पूत-तन।19।
 
रज-समान गिन तीन लोक के राज को।
लोक चित्ता-रंजन-हित लालायित रहा।
बना रहा वह विहित लाभ का लालची।
सदा विभव तज भव-हित-धारा में बहा।20।
 
रक्त-पात नियमन मदान्धाता दमन का।
सत्य, न्याय, को समुचित मान प्रदान का।
उसके जी से लोभ न जाता है कभी।
जीव-दया, सच्ची स्वतन्त्रता दान का।21।

15. देव-बुध्दि-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कर लिये करवाल अकुण्ठिता।
कनक-कश्यप ने जब यों कहा।
तब महाप्रभु क्या परिव्याप्त है।
इस महाजड़ प्रस्तर-स्तम्भ में।1।
 
तब अकम्पित औ दृढ़ कण्ठ से।
यह कहा प्रहलाद प्रबुध्द ने।
जब महाप्रभु व्यापक विश्व है।
 
तब नहीं वह है किस वस्तु में।2।
पत्तो पत्तो प्रगट करते कीर्ति लोकोत्तारा हैं।
कीटें में भी प्रथित महिमा की प्रभा व्यंजिता है।
कैसे होगी न प्रभु-वर की स्तम्भ में दिव्य सत्ता।
 
जो धूली के सकल कण में है कला दृष्टि आती।3।
कोई भी है न इस जग में वस्तु ऐसी कहीं भी।
पाया जाता न कुछ जिसमें अंश आकाश का हो।
मैं पाता हूँ वियत सँगवाँ वायु और तेज को भी।
कैसे होगी न फिर उसमें नाथ की सूक्ष्म सत्ता।4।
 
ये बातें ऐ सहृदय जनो! हैं यही तो बताती।
जो है, आज्ञा, तिमिर-वलिता है वही दानवी भी।
ऐसे ही जो परम शुचि है दिव्य ज्योतिर्मयी है।
सद्भावों की प्रसव-भुवि है, है वही देव-बुध्दि।5।

16. कुलीनता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

विवेक, विद्या, सुविचार, सत्यता।
क्षमा, दया, सज्जनता, उदारता।
क्रिया, सदाचार, परोपकारिता।
सदा समाधार कुलीनता रही।1।
 
परन्तु है आज विचित्र ही दशा।
विडम्बिना है नित ही कुलीनता।
सप्रेम है अर्पित हो रही सुता।
उसे बता वंशगता कुलागता।2।
 
किसी बड़े पूज्य महान व्यक्ति का।
सुवंश-सम्मान प्रदान योग्य है।
परन्तु तद्वंशज अज्ञ अग्रणी।
कदापि कन्यार्पण का न पात्र है।3।
 
गुणों बिना केवल वंश, विश्व में।
कदापि सम्मानित हो सका नहीं।
इसे सदा है करती प्रमाणिता।
कथावली पंकज कज्जलादि की।4।
अवश्य है अंधा-परम्परा किये।
हमें विवेकादि विहिन-मंद-धारी।
भला नहीं तो हम क्यों विलोकते।
स्वलोचनों से स्वसुता कदर्थना।5।
 
न मूढ़ ही हैं अविवेक में फँसे।
यही दशा है मतिमान वृन्द की।
समर्थ हैं जो तम के विनाश में।
स्वयं वही हैं तम-पुंज में पड़े।6।
 
पढ़ा, लिखा, अर्जन ज्ञान का किया।
सुधी बने, जीत सभा अनेक ली।
परन्तु पाई न विवेक-बुध्दि तो।
वृथा हुई सर्व अनुष्ठिता क्रिया।7।
 
उठा दृगों को कह दो मनीषियो!
बनी रहेगी कब लौं समाद्रिता।
कुलीनता के मिस निन्दिता प्रथा।
कुलीन के व्याज विमूढ़-मण्डली।8।
 
न काम आई प्रतिभा गरीयसी।
न बुध्दि विद्या विबुधों भरी सभा।
निपातिता जो न हुई प्रयत्न से।
प्रवर्ध्दमाना कुप्रथा-पिशाचिनी।9।
 
स्वजाति सेवा-व्रत है विडम्बना।
समस्त व्याख्यान प्रलाप मात्रा है।
विवेक-शीला वर बुध्दि आप की।
विलुप्त होवे यदि कार्य-काल में।10।
 
समाज के सम्मुख औ सभादि में।
जिसे बतावें अति कुत्सिता क्रिया।
करें उसी को यदि कार्य आ पड़े।
न अन्य तो है कुप्रवृत्तिा ईदृशी।11।
 
विलोक ली मुग्धा-करी विदग्धाता।
मनस्विता वाक्-पटुता सयत्नता।
शरीर की है धमनी सरक्त तो।
हमें दिखा दो निज कार्य-वीरता।12।
कुलीनता है अब भी अनेकश:।
सुवंश में शेष बची सुरक्षिता।
परन्तु योंहि यदि वंचिता रही।
विचित्र क्या है यदि हो तिरोहिता।13।
 
जहाँ अविद्वान विमूढ़ क्षुद्र-धारी।
वरेण्य हैं केवल वंश-सूत्र से।
वहाँ बनेगा जन कौन सद्गुणी।
सयत्न हो अर्जुन को कुलीनता।14।
 
विघातिनी है गुरुता स्वदेश की।
विलोपिनी है कुल-वन्दनीयता।
विनाशिनी है सुख-शान्ति जाति की।
अपूज्यता पूज्य, अपूज्य पूज्य।15।

17. आरम्भ-शूरता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देश, जाति के अध:पतन का मूल है।
उन्नति का बाधक अपयश का कोष है।
कार्य्-सिध्दि के लिए कृतान्त-स्वरूप है।
अति निन्दित आरम्भ-शूरता दोष है।1।
 
वह साहस है जल-बुद्बुद सा बिनसता।
वह उत्साह प्रभात-सोम से है बढ़ा।
वह उमंग है सिकता-विरचित भीत सी।
जिस पर है आरम्भ शूरता रँग चढ़ा।2।
 
उसने देखा कभी सफलता-मुख नहीं।
कभी कामना-वेलि नहीं उसकी खिली।
कभी न उसका भाग्य-गगन उज्ज्वल हुआ।
जिसकी कृति आरम्भ-शूरता से हिली।3।
 
वह उद्योग-समूह मिलेगा धूल में।
वह सयत्नता होगी असफलता ग्रसी।
वह प्रिय कार्य सकेगा नहिं सम्पन्न हो।
जिसमें है आरम्भ-शूरता आ बसी।4।
 
डूब गया गौरव-मयंक निज कान्ति खो।
हुई अचानक लोप देश-शोभी कला।
किसी काल में कहीं किसी समुदाय का।
हुआ नहीं आरम्भ-शूरता से भला।5।
 
किन्तु बात यह कहते होता हूँ व्यथित।
हम लोगों में यह अवगुण है अधिकतर।
इसीलिए है जगत यही अवलोकता।
सकते नहीं महान कार्य हम एक कर।6।
 
धूम धाम से खुलीं सभाएँ सैकड़ों।
सँभलीं नहीं अकाल काल-कवलित हुईं।
पड़ कर इस आरम्भ शूरता-पेच में।
असमय बुझीं अनेक लोक-हित-कर धुईं।7।
समारम्भ ही जिसका सिध्दि-निदान था।
पल में जिसकी विपुल-विघ्न-बाधा नसी।
आज उसी जड़-भूता हिन्दू जाति की।
नस नस में आरम्भ-शूरता है धाँसी।8।
 
कभी प्रगटती है वह मिस आलस्य के।
कभी हेतु बनती है कल्पित-सभ्यता।
कलह, अमूलक हिंसा, असहन-शीलता।
कभी उसे उपजाती है अल्पज्ञता।9।
 
नहिं करते आरम्म विघ्न-भय से अधाम।
विघ्न हुए मधयम जन हैं मुख मोड़ते।
बाधा विघ्न सहसो सम्मुख आ पड़े।
उत्तम जन आरम्भ कर नहीं छोड़ते।10।
 
यह सुउक्ति है युक्तिमयी जिस जाति की।
क्यों उसमें आरम्भ-शूरता आज की।
और कहूँ क्या मैं इतना ही कहूँगा।
उसमें है कर्तव्य-शीलता की कमी।11।
 
किन्तु कथन करता हूँ यह स्वर तार से।
सुन ऐ हिन्दू जाति ज्ञान-गौरवमयी।
बिना तजे आरम्भ-शूरता दोष को।
कभी न होगी कर्म क्षेत्र में तू जयी।12।

18. मन-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बह गये कान्त भक्ति कालिन्दी।
कूल जिसके सदा मिले घन तन।
बज उठे लोक प्रीति बर बंशी।
कौन मन बन गया न बृन्दाबन।1।
 
हैं भले भाव मंजुतम मोती।
बहु बिलसता विपुल-विमल रस है।
सोहता हंस हंस जैसा है।
मानसर के समान मानस है।2।
 
योग जीवन समाधि अवलम्बन।
साधना सूत्र सिध्दि का साधन।
मंत्र का बीज तंत्र का सम्बल।
भक्ति-सर्वस्व मुक्ति मठ है मन।3।
 
हैं विविध बाजे घटों में बज रहे।
है सदा जिनसे सुधारस झर रहा।
मुग्धा अनहद नाद सुन कर है सुरति।
किन्तु मन है सुर सबों में भर रहा।4।
 
है कलश दिननाथ उसके सामने।
चंद्रमा है एक चाँदी का पदक।
जगमगाया सब जगत जिस ज्योति से।
उस निराली ज्योति का है मन जनक।5।
क्रीट-मंडित कान्त कुंडल से कलित।
वर वसन विलसित परम कमनीय तन।
मधुमयी मुरली मधुर वादन निरत।
दो बना बन जायगा घनश्याम मन।6।
 
भर गये प्रेमरंग रग रग में।
हो गये अति अप्रतीति पूरित मति।
भावना बन गयी भवानी है।
भाव मन का बना भवानीपति।7।
 
जिस बड़े ही भावमय मन में बसीं।
प्रेम औ प्रतीति की ही सूरतें।
संग है उसके लिए सत्संग सम।
मूरतें हैं ज्ञानमय की मूरतें।8।
 
है कहाँ पास उस मनुज के मन।
जो मनन कर न भ्रम निवार सका।
आप आकार वान होकर भी।
जो न साकार को सकार सका।9।
 
है सकल मंजु गान का वह गेय।
है अखिल वंदनीय पथ-पाथेय।
मन अननुमेय और है अनुमेय।
ध्यान का धयेय ज्ञान का है ज्ञेय।10।
 
तम सदैव समाधि में उसको मिला।
कालिमा मन से नहीं जिसके टली।
हो सका जिसका विमल मानस उसे।
ज्योतिमय की ज्योति मंदिर में मिली।11।
 
योग जप यज्ञ यातना सम है।
है सकल साधना उपाधि उसे।
साधने से सधा न मन जिसका।
आधि है व्याधि है समाधि उसे।12।
 
वह बरसता कभी दुसह द्रव है।
है कभी वह सरस सुधा सावी।
है उसी में भरी सकल माया।
कौन है मन समान मायावी।13।
 
जब पकड़ पथ लिया असुबिधा का।
कर रही है विमुग्धा क्यों सुबिधा।
जब दुविधा भाव है भरा मन में।
हो सके दूर किस तरह दुविधा।14।
 
बीज है वीररस सरस तरु का।
वीर बर-बोधा बंक का है धान।
वारि है वीरभाव वारिद का।
है 'बना' वीरता 'बनी' का मन।15।
 
वह बिकच बारिज बदन का है मधुप।
रूप सर का मीन विधु है छबि धरा।
कामिनी ही है परम कामद उसे।
काम से है कामियों का मन भरा।16।
 
मान मोती उसे मिले कैसे।
किस तरह नीर छीर पहचाने।
मानवों के महान भावों को।
हंस मन जो न मानसर माने।17।
 
है बनाता सरस नहीं उसको।
रस बरस रागरंग नाना घन।
सुख सरित नीर पी नहीं पलता।
लोकहित स्वाति जल पपीहा मन।18।
 
वह रहा दूकानदारी में फँसा।
जब टिका तब पाप पैंठों में टिका।
मति कनौड़ी ने कनौड़ा कर दिया।
मन रहा मणि मोल कौड़ी के बिका।19।

19. पौरुष-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्यों न उसकी सदा रहे चाँदी।
पा कनक के नये-नये आकर।
जो मनुज-रत्न यत्न कर पाया।
क्यों उसे रत्न दे न रत्नाकर।1।
 
जो अमल हैं बिकच कमल जैसे।
बुध्दि जिनकी बनी रही बिमला।
काम में जो कमाल रखते हैं।
मिल सकी कब उन्हें नहीं कमला।2।
 
जब निकाला करें कमर कस कर।
मोतियों से न क्यों भरे डोंगे।
जो रखेंगे कुबेर सा काबू।
क्यों न तो धनकुबेर हम होंगे।3।
 
पाँव अपने जमा कमर को कस।
कर कमाई कमा कमा पैसे।
जो विभववान हम न बन पाये।
भव विभव दान तो करें कैसे।4।
 
क्यों सुनेगा असिध्दि की बातें।
है सदा ऋध्दि सिध्दि चाह जिसे।
कर रहा है असाध्य साधन वह।
साधना से मिली न सिध्दि किसे।5।
 
जब कमर काम के लिए कस ली।
क्यों नहीं तो कमाल करते वे।
पास जिनके विचार का पर है।
क्यों नहीं व्योम में बिचरते वे।6।
 
एक वैसा कर दिखाता है वही।
जब कभी जी में रहा जैसा ठना।
करतबी ही को न क्यों पारस कहें।
छू जिसे लोहा सदा सोना बना।7।
 
घेरती है जिन्हें न कायरता।
जो पड़े काम हैं न कतराते।
डर जिन्हें है नहीं विफलता का।
हैं सफलता सदा वही पाते।8।
 
जो हमें मिल सका नहीं चावल।
किस तरह तोष दे सके तो तुष।
उस पुरुष को पुरुष कहें कैसे।
पास जिसके न पा सके पौरुष।9।
 
वैसी ही सिध्दि मिल सकी उनको।
लोग थे सिध्द बन सके जैसे।
जो नहीं हैं विभूतियों वाले।
पा सकेंगे विभूतियाँ कैसे।10।
 
तब भला रीझती रमा कैसे।
साधनों में न जब रमा है मन।
जब न करतूत धान धानी होंगे।
तो धानद भी न दे सकेगा धान।11।

20. साहित्य-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

भाव गगन के लिए परम कमनीय कलाधर।
रस उपवन के लिए कुसुम कुल विपुल मनोहर।
उक्ति अवनि के लिए सलिल सुरसरि का प्यारा।
ज्ञान नयन के लिए ज्योतिमय उज्ज्वल तारा।
है जन मन मोहन के लिए मधुमय मधुऋतु से न कम।
संसार सरोवर के लिए है साहित्य सरोज सम।1।
 
जाति जीवनी शक्ति देश दुख जड़ी सजीवन।
जीवन हीन अनेक जीवितों का नवजीवन।
बुधा जन का सर्वस्व अबुधा जन बोधा विधाता।
निर्जीवों का जीव सजीवों का सुख दाता।
है घनीभूत तम-पुंज में लोकोत्तार आलोक वह।
है लौकिक विविधा विधान का सकल अलौकिक ओक वह।2।
 
उसमें सरस वसंत सब समय है सरसाता।
सब ऋतु में है मंद मंद मलयज बह जाता।
है कोकिल कमनीय कंठ सब काल सुनाता।
विकसित सरसीरुह समूह है सदा दिखाता।
कर कर अनुपम अठखेलियाँ हैं जन मानस मोहती।
हैं कलित ललित लतिका सकल सब दिन उसमें सोहती।3।
 
भवनों को जो बालभाव हैं स्वर्ग बनाते।
श्रुति में जो कल कथन हैं सुधा सोत बहाते।
कामिनी कुल की कला कान्ति कोमलता न्यारी।
बहुउदार चित्त वृत्ति विकच कलिका सी प्यारी।
नाना विलास लीला विविध हाव भाव अनुभाव सब।
उसमें विकसित हो लसित हो करते नहीं प्रफुल्ल कब।4।
 
है अरूप आलाप को रुचिर-रूप बनाता।
बोल चाल को परम अलंकृत है कर पाता।
रसना जनित उक्ति को रसिकता है देता।
कल्पलता है विविध कल्पना को कर लेता।
बहु अललित भाव समूह में भर देता लालित्य है।
नीरस विचार को भी सरस कर देता साहित्य है।5।
 
बड़े बडे क़वि अमर कीर्तियाँ कैसे पाते।
जीवित कैसे विपुल अजीवित जन कहलाते।
क्यों दिगन्त में सुयश सुयशवाले फैलाते।
कैसे गुण गुणवान जनों के गाये जाते।
इतिहास विदित वसुधाधिपति नाम सुनाता क्यों कहीं।
साहित्य सुधा से अमरता जो उनको मिलती नहीं।6।
 
मधुर मधुर धवनिसहित धवनित कर मानव मानस।
बहा बहा कर अमित अन्तरों में नव नव रस।
बहु विमुग्धाता बितर बितर स्वर लहरी द्वारा।
सिक्त बना कर सरस राग से भूतल सारा।
भर भुवन विमोहन भाव सब परम रुचिर पद-पुंज में।
बजती है प्रतिभा मुरलिका नित साहित्य निकुंज में।7।
 
साथ लिये अनुकूल कलामय कामिनी का दल।
गान वाद्य पटु राग रंग रत मानव मंडल।
धर्म प्रचारक विबुधावृन्द बहु उन्नत चेता।
धीर वीर धीमान धाराधिप नाना नेता।
अति अनुपम अभिनेता बने करते अभिनय हैं जहाँ।
है भूतल में साहित्य सा रंगमंच सुन्दर कहाँ।8।
 
वह विधान जो है विधान वालों का साधन।
वह विवेक जो है विवेकमय मानस का धन।
वह सुनीति जो नीतिमान की है रुचि न्यारी।
पूत प्रीति वह, प्रीतिमान की जो है प्यारी।
भव में भव हितकर अन्य जो वर विचार वरणीय हैं।
वे सब साहित्य समुद्र के रत्न निकर रमणीय हैं।9।
 
स्वर व्यंजन आकलित अखिल पद है अवलम्बन।
रुचिकर रुचिर विचारमयी रचना है मण्डन।
अतुल विभव है भाव उक्ति सरसा है सम्बल।
है वर बुध्दि प्रसूत प्रखर प्रतिभा समधिक बल।
संसार सार साहित्य का रस सहजात निजस्व है।
कविता है जीवन सहचरी कवि जीवन सर्वस्व है।10।

21. चित्तौड़ की एक शरद रजनी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मयंक मृदु मंद हँस रहा था।
असीम नीले अमल गगन में।
सुधा अलौकिक बरस रहा था।
चमक रहा था छत्र-गन में।1।
 
सुरंजिता हो रही धारा थी।
खिली हुई चारु चाँदनी से।
रजत-मयी हो गयी बिभा थी।
कला कुमुदिनी-विकासिनी से।2।
 
दसों दिशा दिव्य हो गयी थीं।
सुदुग्धा का सोत बह रहा था।
नभपगा भी प्रभा-मयी थी।
प्रवाह पारद उमड़ रहा था।3।
 
चमक रहे थे असंख्य तारे।
सुदीप्ति सब ओर ढल रही थी।
विमुग्धा-कर ज्योति-पुंज धारे।
अपार आभा उथल रही थी।4।
 
सुअर्बली शैल के शिखर पर।
असंख्य हीरे ढलक रहे थे।
प्रकाश-मण्डित मयंक के कर।
अपार छबि से छलक रहे थे।5।
 
सुदूर विस्तृत विशाल गिरिवर।
सुज्योति संचित जगा रहा था।
अपूर्व कल-कान्ति-युक्त कलेवर।
रजत जटित जगमगा रहा था।6।
 
विचित्र तरु-पत्र की छटा थी।
प्रदीप्ति से दीप्तिमान होकर।
विराजती स्वच्छ शुभ्रता थी।
हरीतिमा का विकास खोकर।7।
 
प्रकाश के हैं कढ़े फुआरे।
प्रदीप्त भूतल विदार करके।
कि हैं प्रभा से गये सँवारे।
समस्त पादप प्रदेश भर के।8।
 
सुज्योति-सम्पन्न थीं लताएँ।
किरण-मयी बेलियाँ हुई थीं।
हरी भरी श्याम दूर्वाएँ।
प्रकाश से शुभ्र हो गयी थीं।9।
 
समस्त गिरि-शृंग का हिमोपल।
विचित्रता से दमक रहा था।
हरेक तृण था हुआ समुज्ज्वल।
समस्त रजकण चमक रहा था।10।
 
सरित-सरोवर समूह का जल।
बना हुआ दिव्य, था झलकता।
सुवीचियों-बीच स्वच्छ उज्ज्वल।
प्रकाश का बिम्ब था ढलकता।11।
 
हरी भरी भूमि का सरोवर।
सुभव्य था चारुता बड़ी थी।
रजत बनाई विशाल चादर।
सुशष्प के मधय में पड़ी थी।12।
 
अनेक छोटे बड़े जलाशय।
जहाँ तहाँ थे अजब दमकते।
प्रदीप्त नभ में नछत्र कतिपय।
सतेज हैं जिस तरह चमकते।13।
 
अनेक सितकर प्रदीप्त निर्झर।
असंख्य मोती उछालते थे।
निसार करके कवीक पति पर।
उमंग अपनी निकालते थे।14।
 
तमोमयी शैल कन्दराएँ।
महा तिमिर-वान झाड़ियाँ सब।
कहो न क्यों आज जगमगाएँ।
स्वयं तम है प्रभा-मयी जब।15।
 
बना हुआ था विशाल जंगल।
प्रकाश के पुंज का अखाड़ा।
मयंक-कर ने जहाँ सदल बल।
प्रचंड तम-तोम को पछाड़ा।16।
 
प्रसून पर काश के विभावस।
विचित्र है चारुता दिखाती।
अमल धवल केश राशि पावस।
रची गयी ज्योति की जनाती।17।
 
विविध बगीचे अनेक उपवन।
विकास से हैं महा विकसित।
कि मेदिनी पर कला-निकेतन।
अनन्त तजकर हुआ प्रकाशित।18।
 
न एक सित पुष्प ही मनोहर।
ससाम्य-बश ओप में बढ़ा था।
हरे असित नील पुष्प-चय पर।
प्रकाश का रंग ही चढ़ा था।19।
 
समस्त क्यारी कलित हुई थी।
प्रभा बलित थी अखिल प्रणाली।
सुधा सरस कुंज में चुई थी।
दमक रही थी मलीन डाली।20।
 
कटी छँटी बेलि बूटियों पर।
छँटी हुई ज्योति टिक रही थी।
हरी भरी बाँस खूँटियों पर।
किरण अछूती छिटक रही थी।21।
 
खिले हुए फूल पर न केवल।
कमाल थी कौमुदी दिखाती।
मुँदे हुए थे अनेक उत्पल।
जिन्हें कला थी मुकुट पिन्हाती।22।
 
समस्त समतल विशाल प्रान्तर।
प्रकाशमय थे बिछी रुई थी।
सु अंकुरित खेत खेत होकर।
प्रभा परम पल्लवित हुई थी।23।
 
प्रवेश करके विशद नगर में।
प्रकाश तमराशि खो रहा था।
डगर डगर औ बगर बगर में।
जगर मगर आज हो रहा था।24।
 
प्रशस्त प्रकार मन्दिरों में।
फटिक शिला शुभ्र लग गयी थी।
समग्र आँगन घरों दरों में।
नवल धवल ज्योति जग गयी थी।25।
 
अटारियाँ खिड़कियाँ मनोहर।
प्रकाश की कोठियाँ बनी थीं।
सुभग मुँडेरों सु कँगनियों पर।
लगी हुई बज्र की कनी थी।26।
 
हुए छतों पर विचित्र टोने।
समस्त छाजन ज्वलित हुई थी।
कला फिरी थी हरेक कोने।
झलक रही भूमि की सुई थी।27।
 
सकल गली ओ समस्त कूँचे।
चमक दमक चारु थे दिखाते।
चऊतरे चौखटे समूचे।
अजीब थे आज जगमगाते।28।
 
बना हुआ ठाट हाट का था।
रजतमयी सब दुकान ही थी।
सुचमकियों से बसन टँका था।
मिठाइयों पर सुधा बही थी।29।
 
भया प्रभावान भव्य भाजन।
हुआ विभूषण सुरत्न-मण्डित।
कलाबतू बदला बना सन।
अखिल उपस्कर हुए अलंकृत।30।
 
गिलम गलीचे मलिन दरी भी।
चमक दमक चारुता-मयी थी।
पड़ी सड़क में कुकंकरी भी।
प्रभावती पोत बन गयी थी।31।
 
सुधा धावल धाम ही न केवल।
हुआ प्रभा-पुंज से सुशोभन।
बुरा निकेतन महा मलिन थल।
सुदर्पणों सा बना सुदर्शन।32।
 
रचा हुआ घास का कुघर भी।
प्रदीप्त था, ज्योति भर रही थी।
पड़ी झोंपड़ी समस्त पर भी।
कला करामात कर रही थी।33।
 
कलित किरण थी प्रदीप्ति-बोरी।
प्रकाश में तेज सन गया था।
जकी चकी थी खड़ी चकोरी।
कवीकपित भानु बन गया था।34।
 
सुचाँदनी की चटक निकाई।
पयोधि का कान काटती थी।
जिसे बड़े चाव से बिलाई।
बिचार कर दूध चाटती थी।35।
 
निशा हुई थी महा समुज्ज्वल।
समस्त नभ श्वेत था दिखाता।
कभी अचानक बिहंग का दल।
प्रभात का राग था सुनाता।36।
 
दिगन्त में भूमि तल गगन पर।
त्रिलोक की स्वेतता बसी है।
वितुल कलितर्-कीत्ति-रूप धारकर।
स्वयंभु की या प्रकट लसी है।37।
 
महा सिताभा असीम नभ-तल।
प्रदीप्त करके हुई सुप्लावित।
निमग्न करके समग्र भूतल।
कि है पयोराशि पय प्रवाहित।38।
 
अमल सतोगुण विशुध्द उज्ज्वल।
स्वरूप धार कर प्रकट दिखाया।
विभा बलित सित सरोज दल या।
बसुंधरा पर गया बिछाया।39।
 
कलितकला जिस रुचिर नगरपर।
सुकान्ति का है प्रसार करती।
उसी नगर में महा मनोहर।
बिभावती एक है सुधारती।40।
 
रचे गुणी जन इसी धरा पर।
अनेक प्रसाद हैं चमकते।
सदैव जिनके कलश रुचिर तर।
दिनेश की भाँति हैं दमकते।41।
 
इन्हीं सुप्रसाद-पंक्ति-भीतर।
अपूर्व है एक हर्म्य शोभित।
विचित्र जिसकी बनावटों पर।
न दृष्टि किसकी हुई प्रलोभित।42।
 
इसी विशद हर्म्य में मनोहर।
प्रकोष्ठ है एक अति सुसज्जित।
जिसे कलाधर कला निराली।
थी कर रही सुरंजित।43।
 
शनै:-शनै: एक जन उसी पर।
प्रशान्त-गति से टहल रहा था।
प्रफुल्ल मुख कान्ति-मान होकर।
प्रसाद की ओर ढल रहा था।44।
 
विशाल-भुज-वक्ष यह युवा जन।
मयंक की माधुरी मनोहर।
विलोक कर था महा मुदित मन।
अपूर्व-उच्छ्वास-पूर्ण-अन्तर।45।
 
प्रकोष्ठ की कारु-कार्य-वाली।
खुली रुचिर सित-शिला-रची छत।
सकल-उपस्कर-सुरत्न-शाली।
सुबर्न-चूड़ा परम समुन्नत।46।
 
मयंक कर से चमक दमक कर।
मनोज्ञतर दृष्टि थे दिखाते।
जिन्हें युवा एक दृष्टि लख कर।
प्रमोद-पय-राशि पैर जाते।47।
 
जड़े हुए दिव्य रत्न सुन्दर।
निकालते ज्योति थे निराली।
बना युवा मन्त्र-मुग्ध लख कर।
हुई हृदय देश में दिवाली।48।
 
शिखर समुज्ज्वल,प्रदीप्त प्रान्तर।
अनेक पादप प्रकाश-मंडित।
सुकर-समाच्छन्न बहु सरोवर।
बिपुल बगीचे विभा-अलंकृत।49।
 
प्रकोष्ठ से दृष्टि पर पड़ रहे थे।
समस्त का कुछ अजब समा था।
युवा हृदय मधय गड़ रहे थे।
सुदृश्य प्रति रोम में रमा था।50।
 
कभी युवा देखता गगन-तल।
कभी धरातल विमुग्ध होकर।
कभी धावल धाम हर्म्य उज्ज्वल।
कभी समुद्दीप्त,शुभ्र परिसर।51।
 
पवन सुधा-सिक्त मन्द-गामी।
सकल कला-पूर्ण कल कलाधार।
सुचंद्रिका चारु-कीत्ति-कामी।
दिशा महा मंजु अति मनोहर।52।
 
युवा उन्हीं में रमा हुआ था।
शरीर की सुधि नहीं रही थी।
प्रमोद-पंकज खिला हुआ था।
विनोद की वेलि लहलही थी।53।
 
प्रतीच्य आकाश में इसी छन।
हुआ प्रकट एक दाग काला।
शनै: शनै: वह बना क्षुद्र घन।
पुन: हुआ मंजु मेघमाला।54।
 
अभी क्षितिज क्षुद्रभाग तजकर।
न था जलद व्योम मधय छाया।
कि बीच ही वायु ने सम्हलकर।
उसे वहीं धूल में मिलाया।55।
 
परन्तु पल में पुन: उसी थल।
हुए जलद-खण्ड दृष्टिगोचर।
हुआ प्रथम लौं सुपुष्ट दल बल।
शनै: शनै: वर्ध्दमान हो कर।56।
 
उठी हवा भी उसी तरह फिर।
तुरंत जिससे जलद गया टल।
पयोद आया पुन: पुन: घिर।
पुन: पुन: वायु भी पड़ी चल।57।
 
रही दशा यह नियत समय तक।
पयोद दलता रहा प्रभंजन।
परन्तु पीछे हुआ अचानक।
सकल-गगन-प्रान्त में प्रबल घन।58।
 
जहाँ तहाँ इस समय गगन में।
बिपुल जलद-खण्ड थे बिचरते।
घरों, दरों, सैकड़ों सहन में।
कलित कौमुदी मलीन करते।59।
 
कहीं हुए पर्वताकार घन।
कहीं सदल बल विहर रहे थे।
कहीं गये थे महा निविड़ बन।
कहीं खण्डश: विचर रहे थे।60।
 
शनै: शनै: हो गयी दशा यह।
लगा कलाधार मलीन होने।
न रह गया था प्रदीप्त नभ वह।
चला तिमिर था प्रकाश खोने।61।
 
प्रथम गगन के विपुल थलों पर।
परास्त था वायु से हुआ घन।
परन्तु इस काल शान्त बन कर।
स्वयं हुआ था विजित प्रभंजन।62।
 
प्रचण्डता जिस प्रबल पवन की।
सकल-जलद-जाल छिन्न करती।
न शक्ति उसमें रही शमन की।
भला न क्यों शान्त वह बिचरती।63।
 
विशद-गगन के अधिक थलों पर।
सजल जलद इस समय जमा था।
वहाँ चमकता न था कलाधार।
न चाँदनी का वहाँ समा था।64।
 
कभी कभी भेद कर सघन घन।
प्रकाश निज कान्ति था दिखाता।
कभी कभी यामिनी-विमोहन।
झलक जलद-जाल-बीच जाता।65।
 
परन्तु अब भी विशद गगन के।
बचे हुए थे विभाग ऐसे।
जहाँ छबीले नछत्र-गण के।
प्रकोष्ठ थे दिव्य पूर्व जैसे।66।
 
सु-चाँदनी वैसी ही यहाँ थी।
प्रकाश था पूर्व लौं मनोहर।
सुधा सरस वैसी ही बनी थी।
प्रदीप्त था पूर्ववत् कलाधार।67।
 
परन्तु ऐसे विभाग में भी।
धवल जलद-खण्ड फिर रहे थे।
कई निबिड़ वारि-वाह से भी।
विचित्रता साथ घिर रहे थे।68।
 
तथापि दो एक भाग अब भी।
बचे हुए थे प्रपंच घन से।
नछत्र-गण थे सशंक तब भी।
प्रफुल्लता दूर थी बदन से।69।
 
कभी किसी भाग का प्रभंजन।
प्रचण्डता पूर्ववत् दिखाता।
परन्तु अति दीर्घ काय दृढ़ घन।
प्रयत्न उसका विफल बनाता।70।
 
विशेषत: वात अब अबल था।
वरंच था वह घनानुसारी।
अत: जलद-जाल अति प्रबल था।
बना हुआ था अक्लिष्ट कारी।71।
 
समय हुआ और ही बदल कर।
रही न सद्बुध्दि अब सँघाती।
कला बनाता मलीन जलधार।
कला जलद को कलित बनाती।72।
 
कवीकपति का विलोप साधान।
जलद तटल का प्रधान व्रत था।
परन्तु घन को गगन-विभूषन।
सँवारने में समोद रत था।73।
 
विशद-गगन-बीच जो पयोधार।
कभी कहीं भी न था दिखाता।
वही बिबिधा रूप रंग रच कर।
दिगंत में भी न था समाता।74।
 
सरस सुधा सिक्त शशि समुज्ज्वल।
समीर से सेब्यमान होकर।
शनै: शनै: घेर कर गगन-तल।
हुआ अप्रति-हत-प्रताप जलधार।75।
 
सकल जलद-जाल की क्रिया यह।
विलोकता आदि से युवा था।
परन्तु इस काल था व्यथित वह।
प्रसन्न आनन मलिन हुआ था।76।
 
 

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