नज़्में अहमद नदीम क़ासमी Nazmein Ahmad Nadeem Qasmi

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नज़्में - अहमद नदीम क़ासमी
Nazmein Ahmad Nadeem Qasmi

1. अक़ीदेअपने माज़ी के घने जंगल से - अहमद नदीम क़ासमी

कौन निकलेगा! कहाँ निकलेगा
बे-कराँ रात सितारे नाबूद
चाँद उभरा है? कहाँ उभरा है?
इक फ़साना है तजल्ली की नुमूद
कितने गुंजान हैं अश्जार-ए-बुलंद
कितना मौहूम है आदम का वजूद
मुज़्महिल चाल क़दम बोझल से
अपने माज़ी के घने जंगल से
मुझ को सूझी है नई राह-ए-फ़रार
आहन ओ संग ओ शरर बरसाएँ
आओ अश्जार की बुनियादों पर
तेशा ओ तेग़-ओ-तबर बरसाएँ
इक तसलसुल से हम अपनी चोटें
बे-ख़तर बार-ए-दिगर बरसाएँ
ज़ेहन पर छाए हैं क्यूँ बादल से
अपने माज़ी के घने जंगल से
नौ-ए-इंसाँ को निकलना होगा
इन अँधेरों को निगलना होगा

2. अज़ली मसर्रतों की अज़ली मंज़िल - अहमद नदीम क़ासमी

मटियाले मटियाले बादल घूम रहे हैं मैदानों के फैलाव पर
दरिया की दीवानी मौजें हुमक हुमक कर हंस देती हैं इक नाव पर
सामने ऊदे से पर्बत की अब्र-आलूदा चोटी पर है एक शिवाला
जिस के अक्स की ताबानी से फैल रहा है चारों जानिब एक उजाला
झिलमिल करती एक मशअल से मेहराबों के गहरे साए रक़्सीदा हैं
हर सू परियाँ नाच रही हैं जिन के आरिज़ रख़्शाँ नज़रें दुज़दीदा हैं
अम्बर और लोबान की लहरें दोशीज़ा की ज़ुल्फ़ों पे ऐसे बल खाती हैं
चाँदी के नाक़ूस की तानें धुँदले धुँदले नज़्ज़ारों में घुल जाती हैं
हाथ बढ़ाए सर निहूड़ाए पतले सायों का इक झुरमुट घूम रहा है
पूजा की लज़्ज़त में खो कर मंदिर के ताबिंदा ज़ीने चूम रहा है
एक बहुत पतली पगडंडी साहिल-ए-दरिया से मंदिर तक काँप रही है
नाव चलाने वाली लड़की चप्पू को माथे से लगाए हाँप रही है
दीवानी को कौन बताए उस मंदिर की धुन में सब थक-हार गए हैं
साए बन के घूम रहे हैं जो बे-बाक चलाने वाले पार गए हैं
वो जब नाव से उतरेगी मटियाले मटियाले बादल घिर आएँगे
मैदानों पर कोहसारों पर दरिया पर नाव पर सब पर छा जाएँगे
अव्वल तो पगडंडी खो कर गिर जाएगी ग़ारों ग़ारों में बेचारी
बच निकली तो हो जाएगी उस के नाज़ुक दिल पर इक हैबत सी तारी
होश में आई तो रग रग पर एक नशा सा बे-होशी का छाया होगा
जिस्म के बदले उस मंदिर में धुँदला इक लचकीला साया होगा
ahmad-nadeem-qasmi

 

3. इंफ़िसाल - अहमद नदीम क़ासमी

दोस्तो 
तुम तो कंधों से ऊपर नज़र ही नहीं आ रहे हो
चलो
अपने चेहरे निदामत की अलमारियों से निकालो
इन्हें झाड़ कर गर्दनों पर रखो
तुम अधूरे नहीं हो तो पूरे दिखाई तो दो

4. एक दरख़्वास्त - अहमद नदीम क़ासमी

ज़िंदगी के जितने दरवाज़े हैं मुझ पे बंद हैं
देखना हद्द-ए-नज़र से आगे बढ़ कर देखना भी जुर्म है
सोचना अपने अक़ीदों और यक़ीनों से निकल कर सोचना भी जुर्म है
आसमाँ-दर-आसमाँ असरार की परतें हटा कर झाँकना भी जुर्म है
क्यूँ भी कहना जुर्म है कैसे भी कहना जुर्म है
साँस लेने की तो आज़ादी मयस्सर है मगर
ज़िंदा रहने के लिए इंसान को कुछ और भी दरकार है
और इस कुछ और भी का तज़्किरा भी जुर्म है
ऐ ख़ुदावंदान-ए-ऐवान-ए-अक़ाएद
ऐ हुनर-मन्दान-ए-आईन-ओ-सियासत
ज़िंदगी के नाम पर बस इक इनायत चाहिए
मुझ को इन सारे जराएम की इजाज़त चाहिए

5. एक नज़्म - अहमद नदीम क़ासमी

छुटपुटे के ग़ुर्फ़े में
लम्हे अब भी मिलते हैं
सुब्ह के धुँदलके में
फूल अब भी खिलते हैं
अब भी कोहसारों पर
सर-कशीदा हरियाली
पत्थरों की दीवारें
तोड़ कर निकलती है
अब भी आब-ज़ारों पर
कश्तियों की सूरत में
ज़ीस्त की तवानाई
ज़ाविए बदलती है
अब भी घास के मैदाँ
शबनमी सितारों से
मेरे ख़ाक-दाँ पर भी
आसमाँ सजाते हैं
अब भी खेत गंदुम के
तेज़ धूप में तप कर
इस ग़रीब धरती को
ज़र-फ़िशाँ बनाते हैं
साए अब भी चलते हैं
सूरज अब भी ढलता है
सुब्हें अब भी रौशन हैं
रातें अब भी काली हैं
ज़ेहन अब भी चटयल हैं
रूहें अब भी बंजर हैं
जिस्म अब भी नंगे हैं
हाथ अब भी ख़ाली हैं
अब भी सब्ज़ फ़सलों में
ज़िंदगी के रखवाले
ज़र्द ज़र्द चेहरों पर
ख़ाक ओढ़े रहते हैं
अब भी उन की तक़दीरें
मुंक़लिब नहीं होतीं
मुंक़लिब नहीं होंगी
कहने वाले कहते हैं
गर्दिशों की रानाई
आम ही नहीं होती
अपने रोज़-ए-अव्वल की
शाम ही नहीं होती

6. क़यामत - अहमद नदीम क़ासमी

चलो इक रात तो गुज़री
चलो सफ़्फ़ाक ज़ुल्मत के बदन का एक टुकड़ा तो कटा
और वक़्त की बे-इंतिहाई के समुंदर में
कोई ताबूत गिरने की सदा आई
 
ये माना रात आँखों में कटी
एक एक पल बुत सा बन कर जम गया
इक साँस तो इक सदी के बाद फिर से साँस लेने का ख़याल आया
ये सब सच है कि रात इक कर्ब-ए-बे-पायाँ थी
लेकिन कर्ब ही तख़्लीक़ है
ऐ पौ फटे के दिलरुबा लम्हो गवाही दो
 
यूँही कटती चली जाएँगी रातें
और फिर वो आफ़्ताब उभरेगा
जो अपनी शुआओं से अबद को रौशनी बख़्शेगा
फिर कोई अँधेरी धरती को न छू पाएगा
दानायान-ए-मज़हब के मुताबिक़ हश्र आ जाएगा
लेकिन हश्र भी इक कर्ब है
हर कर्ब इक तख़्लीक़ है
ऐ पौ फटे के दिलरुबा लम्हो गवाही दो

7. क़रिया-ए-मोहब्बत - अहमद नदीम क़ासमी

बहुत शदीद तशंनुज में मुब्तिला लोगो
यहाँ से दूर मोहब्बत का एक क़र्या है
यहाँ धुएँ ने मनाज़िर छुपा रखे हैं मगर
उफ़ुक़ बक़ा का वहाँ से दिखाई देता है
यहाँ तो अपनी सदा कान में नहीं पड़ती
वहाँ ख़ुदा का तनफ़्फ़ुस सुनाई देता है

8. क़ानून-ए-क़ुदरत - अहमद नदीम क़ासमी

गलियों की शमएँ बुझ गईं और शहर सूना हो गया
बिजली का खम्बा थाम कर बाँका सिपाही सो गया
तारीकियों की देवियाँ करने लगीं सरगोशियाँ
इक धीमी धीमी तान में गाने लगीं ख़ामोशियाँ
मशरिक़ के पर्बत से वरे उभरीं घटाएँ यक-ब-यक
अंगड़ाइयाँ लेने लगीं बे-ख़ुद हवाएँ यक-ब-यक
तारे निगलती बदलियाँ चारों तरफ़ छाने लगीं
छम-छम फुवारों की झड़ी धरती पे बरसाने लगीं
कुत्ते अचानक चौंक कर भौंके दुबक कर सो गए
बे-रस चचोड़ी हड्डियों की लज़्ज़तों में खो गए
माएँ लपकती हैं कहीं बच्चे बिलकते हैं कहीं
और खाट लेने के लिए बूढ़े उचकते हैं कहीं
इक सरसराहट सी उठी लहराई थम कर रह गई
हर चीज़ ने आँखें मलीं हर चीज़ जम कर रह गई
फिर गुनगुनाती ज़ुल्मतों का सेहर हर-सू छा गया
बादल कहीं गुम होगए तारों पे जौबन आ गया
क़ुदरत के सब छोटे बड़े क़ानून हैं यकसाँ मगर
पर्दे पड़े हैं जा-ब-जा छनती नहीं जिन से नज़र
इंसान का मासूम दिल तारीक सूना शहर है
जिस के तले एहसास की चिंगारियों की लहर है
जब देखता है वो कहीं बदमस्त पनघट वालियाँ
गालों को जिन के चूमती हैं पतली पतली बालियाँ
ज़ुल्फ़ें घटाओं की तरह आँखें सितारों की तरह
चलना हवाओं की तरह रंगत शरारों की तरह
लहंगे की लहरों के तले मक्खन से पाँव रक़्स में
पगडंडियों के उस तरफ़ गागर की छाँव रक़्स में
सीने छलकते मय-कदे और होंट पैमानों के लब
टख़नों पे बजती झाँझनें हँसना-हँसाना बे-सबब
ये देख कर अंगड़ाइयाँ लेता है दिल इंसान का
और उस की हर धड़कन पे होता है गुमाँ तूफ़ान का
गलियों में छुप जाती हैं जब ये चलती-फिरती बिजलियाँ
होता है तारी रूह पर सुनसान रातों का समाँ

9. गुनाह ओ सवाब - अहमद नदीम क़ासमी

मेहरबाँ रात ने
अपनी आग़ोश में
कितने तरसे हुए बे-गुनाहों को भींचा
दिलासा दिया
और उन्हें इस तरह के गुनाहों की तर्ग़ीब दी
जिस तरह के गुनाहों से मीलाद-ए-आदम हुआ था

10. जंगल की आग - अहमद नदीम क़ासमी

आग जंगल में लगी थी लेकिन
बस्तियों में भी धुआँ जा पहुँचा
एक उड़ती हुई चिंगारी का
साया फैला तो कहाँ जा पहुँचा
तंग गलियों में उमड़ते हुए लोग
गो बचा लाए हैं जानें अपनी
अपने सर पर हैं जनाज़े अपने
अपने हाथों में ज़बानें अपनी
आग जब तक न बुझे जंगल की
बस्तियों तक कोई जाता ही नहीं
हुस्न-ए-अश्जार के मत्वालों को
हुस्न-ए-इंसाँ नज़र आता ही नहीं

11. ढलान - अहमद नदीम क़ासमी

रेत पर सब्त हैं ये किस के क़दम
हुस्न को नर्म-ख़िरामी की क़सम
सर-ए-साहिल मिरी तख़ईल-ए-जवाँ गुज़री है
या कोई अंजुमन-ए-गुल-बदनाँ गुज़री है
मौज ने नक़्श-ए-क़दम चाट लिए
मेरी तख़्ईल के पर काट लिए
लोग दरियाओं के अंजाम से डर जाते हैं
अब तो रस्ते भी समुंदर में उतर जाते हैं

12. तदफ़ीन - अहमद नदीम क़ासमी

तदफ़ीन
चार तरफ़ सन्नाटे की दीवारें हैं
और मरकज़ में इक ताज़ा ताज़ा क़ब्र खुदी है
कोई जनाज़ा आने वाला है
कुछ और नहीं तो आज शहादत का कलमा सुनने को मिलेगा
कानों के इक सदी पुराने क़ुफ़्ल खुलेंगे
आज मिरी क़ल्लाश समाअत को आवाज़ की दौलत अर्ज़ानी होगी
दीवारों के साए में इक बहुत बड़ा अम्बोह नुमायाँ होता है
जो आहिस्ता आहिस्ता क़ब्र की जानिब आता है
इन लोगों के क़दमों की कोई चाप नहीं है
लब हिलते हैं लेकिन हर्फ़ सदा बनने से पहले मर जाते हैं
आँखों से आँसू जारी हैं
लेकिन आँसू तो वैसे भी
दिल ओ दिमाग़ के सन्नाटों की तिम्सालें होते हैं
मय्यत क़ब्र में उतरी है
और हद्द-ए-नज़र तक लोग बिलकते हुए दिखाई देते हैं
और सिर्फ़ दिखाई देते हैं
और कान धरो तो सन्नाटे ही सुनाई देते हैं
जब क़ब्र मुकम्मल हो जाती है
इक बूढ़ा जो ''वक़्त'' नज़र आता है अपने हुलिए से
हाथों में उठाए कतबा क़ब्र पे झुकता है
जब उठता है तो कतबे का हर हर्फ़ गरजने लगता है
ये लौह-ए-मज़ार ''आवाज़'' की है!

13. तर्क-ए-दरयूज़ा - अहमद नदीम क़ासमी

अब न फैलाउँगा मैं दस्त-ए-सवाल
मैं ने देखा है कि मजबूर है तू
मेरी दुनिया से बहुत दूर है तू
तेरी क़िस्मत में जहाँबानी है
मेरी तक़दीर में हैरानी है
बज़्म-ए-हस्ती में सर-अफ़राज़ है तू
मेरे अंजाम का आग़ाज़ है तू
तू है आसूदा-ए-फ़र्श-ए-संजाब
ख़ुल्द है तेरे शबिस्ताँ का जवाब
मस्जिद-ए-शहर की मेहराब का ख़म
तेरी तक़्दीस की खाता है क़सम
मैं हूँ इक शाएर-ए-आवारा-मिज़ाज
और तिरे फ़र्क़ पे अख़्लाक़ का ताज
मैं ने आलम से बग़ावत की है
तू ने हर शय से मोहब्बत की है!
मैं ने मज़हब पे भी इल्ज़ाम धरा
तू ने वहमों को भी ईमाँ समझा
गिल कहाँ और ख़स-ओ-ख़ाशाक कहाँ
आलम-ए-पाक कहाँ ख़ाक कहाँ
अब न फैलाउँगा मैं दस्त-ए-सवाल

14. दरांती - अहमद नदीम क़ासमी

चमक रहे हैं दरांती के तेज़ दंदाने
ख़मीदा हल की ये अल्हड़ जवान नूर-ए-नज़र
सुनहरी फ़स्ल में जिस वक़्त ग़ोता-ज़न होगी
तो एक गीत छिड़ेगा मुसलसल और दराज़
'नदीम' अज़ल से है तख़्लीक़ का यही अंदाज़
सितारे बोए गए आफ़्ताब काटे गए
हम आफ़्ताब ज़मीर-ए-जहाँ में बोएँगे
तो एक रोज़ अज़ीम इंक़लाब काटेंगे
कोई बताए ज़मीं के इजारा-दारों को
बुला रहे हैं जो गुज़री हुई बहारों को
कि आज भी तो उसी शान-ए-बे-नियाज़ी से
चमक रहे हैं दरांती के तेज़ दंदाने
 
सुनहरी फ़स्ल तक उस की चमक नहीं मौक़ूफ़
कि अब निज़ाम-ए-कोहन भी उसी की ज़द में है
ख़मीदा हल की ये अल्हड़ जवान नूर-ए-नज़र
जब इस निज़ाम में लहरा के ग़ोता-ज़न होगी
तो एक गीत छिड़ेगा मुसलसल और दराज़
'नदीम' अज़ल से है तख़्लीक़ का यही अंदाज़
सितारे बोए गए आफ़्ताब काटे गए

15. दश्त-ए-वफ़ा - अहमद नदीम क़ासमी

दोस्त कहते हैं तिरे दश्त-ए-वफ़ा में कैसे
इतनी ख़ुशबू है महकता हो गुलिस्ताँ जैसे
गो बड़ी चीज़ है ग़मख़ारी-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा
कितने बे-गाना-ए-आईन-ए-वफ़ा हैं ये लोग
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म मोहब्बत के चमन-ज़ार में भी
फ़क़त इक गुंचा-ए-मंतिक़ के गदा हैं ये लोग
मैं उन्हें गुलशन-ए-एहसास दिखाऊँ कैसे
जिन की पर्वाज़-ए-बसीरत पर-ए-बुलबुल तक है
वो न देखेंगे कभी हद-ए-नज़र से आगे
और मिरी हद्द-ए-नज़र हद्द-ए-तख़य्युल तक है
दिल के भेदों को भी मंतिक़ में जो उलझाते हैं
यूँ समझ लें कि बबूलों में भी फूल आते हैं

16. दुआ - अहमद नदीम क़ासमी

मुझे तू मुज़्दा-ए-कैफ़िय्यत-ए-दवामी दे
मिरे ख़ुदा मुझे एज़ाज़-ए-ना-तमामी दे
मैं तेरे चश्मा-ए-रहमत से काम काम रहूँ
कभी कभी मुझे एहसास-ए-तिश्ना-कामी दे
मुझे किसी भी मुअज़्ज़ज़ का हम-रिकाब न कर
मैं ख़ुद कमाऊँ जिसे बस वो नेक-नामी दे
वो लोग जो कई सदियों से हैं नशेब-नशीं
बुलंद हूँ तो मुझे भी बुलंद-बामी दे
तिरी ज़मीन ये तेरे चमन रहें आबाद
जो दश्त-ए-दिल है उसे भी तू लाला-फ़ामी दे
बड़ा सुरूर सही तुझ से हम-कलामी में
बस एक बार मगर ज़ौक़-ए-ख़ुद-कलामी दे
मैं दोस्तों की तरह ख़ाक उड़ा नहीं सकता
मैं गर्द-ए-राह सही मुझ को नर्म-गामी दे
अगर गिरूँ तो कुछ इस तरह सर बुलंद गिरूँ
कि मार कर मिरा दुश्मन मुझे सलामी दे

17. नया साल - अहमद नदीम क़ासमी

रात की उड़ती हुई राख से बोझल है नसीम
यूँ असा टेक के चलती है कि रहम आता है
साँस लेती है दरख़्तों का सहारा ले कर
और जब उस के लिबादे से लिपट कर कोई
पत्ता गिरता है तो पत्थर सा लुढ़क जाता है
 
शाख़ें हाथों में लिए कितनी अधूरी कलियाँ
माँगती हैं फ़क़त इक नर्म सी जुम्बिश की दुआ
ऐसा चुप-चाप है सँवलाई हुई सुब्ह में शहर
जैसे माबद किसी मुरझाए हुए मज़हब का
 
सर पे अपनी ही शिकस्तों को उठाए हुए लोग
इक दोराहे पे गिरोहों में खड़े हैं तन्हा
 
यक-ब-यक फ़ासले ताँबे की तरह बजने लगे
क़दम उठते हैं तो ज़र्रे भी सदा देने लगे
 
दर्द के पैरहन-ए-चाक से झाँको तो ज़रा
मुर्दा सूरज पे लटकते हुए मैले बादल
किसी तूफ़ान की आमद का पता देते हैं!

18. पत्थर - अहमद नदीम क़ासमी

रेत से बुत न बना मेरे अच्छे फ़नकार
एक लम्हे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूँ
मैं तेरे सामने अम्बार लगा दूँ लेकिन
कौन से रंग का पत्थर तेरे काम आएगा
सुर्ख़ पत्थर जिसे दिल कहती है बेदिल दुनिया
या वो पत्थराई हुई आँख का नीला पत्थर
जिस में सदियों के तहय्युर के पड़े हों डोरे
क्या तुझे रूह के पत्थर की जरूरत होगी
जिस पे हक़ बात भी पत्थर की तरह गिरती है
इक वो पत्थर है जिसे कहते हैं तहज़ीब-ए-सफ़ेद
उस के मर-मर में सियाह ख़ून झलक जाता है
इक इन्साफ़ का पत्थर भी होता है मगर
हाथ में तेशा-ए-ज़र हो, तो वो हाथ आता है
जितने मयार हैं इस दौर के सब पत्थर हैं
शेर भी रक्स भी तस्वीर-ओ-गिना भी पत्थर
मेरे इलहाम तेरा ज़हन-ए-रसा भी पत्थर
इस ज़माने में हर फ़न का निशां पत्थर है
हाथ पत्थर हैं तेरे मेरी ज़ुबां पत्थर है
रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नकार

19. पस-ए-आईना - अहमद नदीम क़ासमी

मुझे जमाल-ए-बदन का है ए'तिराफ़ मगर
मैं क्या करूँ कि वरा-ए-बदन भी देखता हूँ
ये काएनात फ़क़त एक रुख़ नहीं रखती
चमन भी देखता हूँ और बन भी देखता हूँ
मिरी नज़र में हैं जब हुस्न के तमाम अंदाज़
मैं फ़न भी देखता हूँ फ़िक्र-ओ-फ़न भी देखता हूँ
निकल गया हूँ फ़रेब-ए-निगाह से आगे
मैं आसमाँ को शिकन-दर-शिकन भी देखता हूँ
वो आदमी कि सभी रोए जिन की मय्यत पर
मैं उस को ज़ेर-ए-कफ़न ख़ंदा-ज़न भी देखता हूँ
 
मैं जानता हूँ कि ख़ुर्शीद है जलाल-मआब
मगर ग़ुरूब से ख़ुद को रिहाई देता नहीं
मैं सोचता हूँ कि चाँद इक जमाल-पारा है
मगर वो रुख़ जो किसी को दिखाई देता नहीं
मैं सोचता हूँ हक़ीक़त का ये तज़ाद है क्या
ख़ुदा जो देता है सब कुछ ख़ुदाई देता नहीं
वो लोग ज़ौक़ से आरी हैं जो ये कहते हैं
कि अश्क टूटता है और सुनाई देता नहीं
बदन भी आग है और रूह भी जहन्नम है
मिरा क़ुसूर ये है में दुहाई देता नहीं

20. पाबंदी - अहमद नदीम क़ासमी

मिरे आक़ा को गिला है कि मिरी हक़-गोई
राज़ क्यूँ खोलती
और मैं पूछता हूँ तेरी सियासत फ़न में
ज़हर क्यूँ घोलती है
मैं वो मोती न बनूँगा जिसे साहिल की हवा
रात दिन रोलती है
यूँ भी होता कि आँधी के मुक़ाबिल चिड़िया
अपने पर तौलती है
इक भड़कते हुए शोले पे टपक जाए अगर
बूँद भी बोलती है

21. फ़न - अहमद नदीम क़ासमी

एक रक़्क़ासा थी किस किस से इशारे करती
आँखें पथराई अदाओं में तवाज़ुन न रहा
डगमगाई तो सब अतराफ़ से आवाज़ आई
''फ़न के इस औज पे इक तेरे सिवा कौन गया''
फ़र्श-ए-मरमर पे गिरी गिर के उठी उठ के झुकी
ख़ुश्क होंटों पे ज़बाँ फेर के पानी माँगा
ओक उठाई तो तमाशाई सँभल कर बोले
रक़्स का ये भी इक अंदाज़ है अल्लाह अल्लाह
हाथ फैले ही रहे सिल गई होंटों से ज़बाँ
एक रक़्क़ास किसी सम्त से नागाह बढ़ा!
पर्दा सरका तो मअन फ़न के पुजारी गरजे
''रक़्स क्यूँ ख़त्म हुआ? वक़्त अभी बाक़ी था''

22. बीसवीं सदी का इंसान - अहमद नदीम क़ासमी

मुझे समेटो
मैं रेज़ा रेज़ा बिखर रहा हूँ
न जाने मैं बढ़ रहा हूँ
या अपने ही ग़ुबार-ए-सफ़र में हर पल उतर रहा हूँ
न जाने मैं जी रहा हूँ
या अपने ही तराशे हुए नए रास्तों की तन्हाइयों में हर लहज़ा मर रहा हूँ
 
मैं एक पत्थर सही मगर हर सवाल का बाज़-गश्त बन कर जवाब दूँगा
मुझे पुकारो मुझे सदा दो
मैं एक सहरा सही मगर मुझ पे घिर के बरसो
मुझे महकने का वलवला दो
मैं इक समुंदर सही मगर आफ़्ताब की तरह मुझ पे चमको
मुझे बुलंदी की सम्त उड़ने का हौसला दो
 
मुझे न तोड़ो कि मैं गुल-ए-तर सही
मगर ओस के बजाए लहू में तर हूँ
मुझे न मारो
मैं ज़िंदगी के जमाल और गहमा-गहमियों का पयामबर हूँ
मुझे बचाओ कि मैं ज़मीं हूँ
करोड़ों करोड़ों की काएनात-ए-बसीत में सिर्फ़ मैं ही हूँ
जो ख़ुदा का घर हूँ

23. महफ़िल-ए-शब - अहमद नदीम क़ासमी

कितनी वीरान है ये महफ़िल-ए-शब
न सितारे न चराग़
इक घनी धुँद है गर्दूं पे मुहीत
चाँद है चाँद का दाग़
फैलते जाते हैं मंज़र के ख़ुतूत
बुझता जाता है दिमाग़
रास्ते घुल गए तारीकी में
तोड़ कर ज़ोअम-ए-सफ़र
कौन हद-ए-नज़र देख सके
मिट गई हद-ए-नज़र
सैकड़ों मंज़िलें तय कर तो चुके
लेकिन अब जाएँ किधर
आसमाँ है न ज़मीं है शायद
कुछ नहीं कुछ नहीं
इन ख़लाओं में पुकारें तो किसे
कोई सुनता ही नहीं
एक दुनिया तो है ये भी लेकिन
अपनी दुनिया सी नहीं
दोस्तो आओ क़रीब आ जाओ
आ के देखो तो सही
एक हल्क़े में बुझी आँखों को
ला के देखो तो सही
शायद आवाज़ पे आवाज़ आए!
दे के देखो तो सही

24. मुझे कल मेरा एक साथी मिला - अहमद नदीम क़ासमी

मुझे कल मेरा एक साथी मिला
जिस ने ये राज़ खोला
कि "अब जज्बा-ओ-शौक़ की वहशतों के ज़माने गए"
 
फिर वो आहिस्ता-आहिस्ता चारों तरफ़ देखता
मुझ से कहने लगा
 
"अब बिसात-ए-मुहब्बत लपेटो
जहां से भी मिल जाएं दौलत - समटो
ग़र्ज कुछ तो तहज़ीब सीखो"

25. लज़्ज़त-ए-आगही - अहमद नदीम क़ासमी

मैं अजीब लज़्ज़त-ए-आगही से दो चार हूँ
यही आगही मिरा लुत्फ़ है मिरा कर्ब है
कि मैं जानता हूँ
मैं जानता हूँ कि दिल में जितनी सदाक़तें हैं
वो तीर हैं
जो चलें तो नग़्मा सुनाई दे
जो हदफ़ पे जा के लगें तो कुछ भी न बच सके
कि सदाक़तों की नफ़ी हमारी हयात है
मिरे दिल में ऐसी हक़ीक़तों ने पनाह ली है
कि जिन पे एक निगाह डालना
सूरजों को बुतून-ए-जाँ में उतारना है
मैं जानता हूँ
कि हाकिमों का जो हुक्म है
वो दर-अस्ल अद्ल का ख़ौफ़ है
वो सज़ाएँ देते हैं
और नहीं जानते
कि जितनी सज़ाएँ हैं
वो सितमगरी की रिदाएँ हैं
 
मुझे इल्म है
यही इल्म मेरा सुरूर है ये इल्म मेरा अज़ाब है
यही इल्म मिरा नशा है
और मुझे इल्म है
कि जो ज़हर है वो नशे का दूसरा नाम है
मैं अजीब लज़्ज़त-ए-आगही से दो-चार हूँ

26. लम्हा - अहमद नदीम क़ासमी

साया जब भी ढलता है
कुछ न कुछ बदलता है
लम्हा एक लर्ज़िश है
इक बसीत जुम्बिश है
जैसे होंट मिलते हैं
जैसे फूल खिलते हैं
जैसे नूर बढ़ता है
जैसे नश्शा चढ़ता है

27. लरज़ते साए - अहमद नदीम क़ासमी

वो फ़साना जिसे तारीकी ने दोहराया है
मेरी आँखों ने सुना
मेरी आँखों में लरज़ता हुआ क़तरा जागा
मेरी आँखों में लरज़ते हुए क़तरे ने किसी झील की सूरत ले ली
जिस के ख़ामोश किनारे पे खड़ा कोई जवाँ
दूर जाती हुई दोशीज़ा को
हसरत ओ यास की तस्वीर बने तकता है
 
हसरत ओ यास की तस्वीर छनाका सा हवा
और फिर हाल के फैले हुए पर्दे के हर इक सिलवट पर
यक-ब-यक दामन-ए-माज़ी के लरज़ते हुए साए नाचे
माज़ी ओ हाल के नाते जागे

28. रूह लबों तक आ कर सोचे - अहमद नदीम क़ासमी

रूह लबों तक आ कर सोचे कैसे छोड़ूँ क़र्या-ए-जाँ
यूसुफ़ क़स्र-ए-शही में भी कब भूला कनआँ की गलियाँ
मौत क़रीब आई तो दुनिया कितनी मुक़द्दस लगती है
काहिश-ए-दिल भी ख़्वाहिश-ए-दिल है आफ़त-ए-जाँ भी राहत-ए-जाँ
मेरी वहशत को तो बहुत थी गोशा-ए-चशम-ए-यार की सैर
यूँ तो अदम में वुसअत होगी अर्श-ब-अर्श कराँ-ब-कराँ
ग़ुंचे अब तक रंग भरे हैं अब तक होंट उमंग-भरे
टूटी-फूटी क़ब्रों से हैं पथराई आँखें निगराँ
सिर्फ़ इक निगह-ए-गर्म से टूटें शोलों में परवान चढ़ें
हाए ये नाज़ुक नाज़ुक रिश्ते हाए ये बज़्म-ए-शीशा-गराँ
दश्त-ओ-दमन में कोह कमर में बिखरे हुए हैं फूल ही फूल
रु-ए-निगार-ए-गीती पर हैं सब्त मिरे बोसों के निशाँ
आँख की इक झपकी में बीता कितने बरस का क़ुर्ब-ए-जमाल
इश्क़ के इक पल में गुज़रे हैं कितने क़रन कितनी सदियाँ
सारी दुनिया मेरा काबा सब इंसाँ मेरे महबूब
दुश्मन भी दो एक थे लेकिन दुश्मन भी तो थे इंसाँ
दर्द-ए-हयात कहीं अब जा कर बनने लगा था हुस्न-ए-हयात
किस को ख़बर थी महव रहेगी क़त-ए-सफ़र में उम्र-ए-रवाँ
जन्नत की यख़-बस्तगियों को गर्माएगा उस का ख़याल
सुब्ह-ए-अबद तक जमी रहे ये अंजुमन-ए-आतिश-ए-नफ़साँ

29. रेस्तोराँ - अहमद नदीम क़ासमी

रेस्तोराँ में सजे हुए हैं कैसे कैसे चेहरे
क़ब्रों के कत्बों पर जैसे मसले मसले सहरे
 
इक साहिब जो सोच रहे हैं पिछले एक पहर से
यूँ लगते हैं जैसे बच्चा रूठ आया हो घर से
काफ़ी की प्याली को लबों तक लाएँ तो कैसे लाएँ
बैरे तक से आँख मिला कर बात जो न कर पाएँ
 
कितनी संजीदा बैठी है ये अहबाब की टोली
कितने औज-ए-बलाग़त पर है ख़ामोशी की बोली
सारी क़ुव्वत चूस चुकी दिन भर की शहर-नवर्दी
माथों में से झाँक रही है मरती धूप की ज़र्दी
 
लम्बी लम्बी पलकें झपके इक शर्मीली बी-बी
बालों की तरतीब से झलके ज़ेहन की बे-तरतीबी
शौहर को देखे तो लजाए लाज को ओट बनाए
हर आने वाले पर इक भरपूर नज़र दौड़ाए
 
इक लड़की और तीन जवान आए हैं कसे-कसाए
साँवले रूप को गोरे मुल्कों का बहरूप बनाए
बातों में नख़वत बाग़ों की वहशत सहराओं की
आँखों के चूल्हों में भरी है राख तमन्नाओं की
 
अपनी अपनी उलझन सब की अपनी अपनी राय
सब ने आँसू रोक रखे हैं कौन किसे बहलाए
हर शय पर शक हो तो जीना एक सज़ा बन जाए
मेहवर ही मौजूद न हो तो गर्दिश किस काम आए
 
क़हक़हे जैसे ख़ाली बर्तन लुढ़क लुढ़क कर टूटें
बहसें जैसे होंटों में से ख़ून के छींटे छूटें
हुस्न का ज़िक्र करें यूँ जैसे आँधी फूल खिलाए
फ़न की बात करें यूँ जैसे बनिया शेर सुनाए
 
सुकड़ी सिमटी रूहें लेकिन जिस्म हैं दोहरे तिहरे
रेस्तोराँ में सजे हुए हैं कैसे कैसे चेहरे

30. वक़्त - अहमद नदीम क़ासमी

सर-बर-आवुर्दा सनोबर की घनी शाख़ों में
चाँद बिल्लोर की टूटी हुई चूड़ी की तरह अटका है
दामन-ए-कोह की इक बस्ती में
टिमटिमाते हैं मज़ारों पे चराग़
आसमाँ सुरमई फ़र्ग़ुल में सितारे टाँके
सिमटा जाता है झुका आता है
वक़्त बे-ज़ार नज़र आता है
 
सर-बर-आवुर्दा सनोबर की घनी शाख़ों में
सुब्ह की नुक़रई तनवीर रची जाती है
दामन-ए-कोह में बिखरे हुए खेत
लहलहाते हैं तो धरती के तनफ़्फ़ुस की सदा आती है
आसमाँ कितनी बुलंदी पे है और कितना अज़ीम
नए सूरज की शुआओं का मुसफ़्फ़ा आँगन
वक़्त बेदार नज़र आता है
सर-बर-आवुर्दा सनोबर की घनी शाख़ों में
आफ़्ताब एक अलाव की तरह रौशन है
दामन-ए-कोह में चलते हुए हल
सीना-ए-दहर पे इंसान के जबरूत की तारीख़ रक़म करते हैं
आसमाँ तेज़ शुआओं से है इस दर्जा गुदाज़
जैसे छूने से पिघल जाएगा
वक़्त तय्यार नज़र आता है
 
सर-बर-आवुर्दा सनोबर की घनी शाख़ों में
ज़िंदगी कितने हक़ाएक़ को जनम देती है
दामन-ए-कोह में फैले हुए मैदानों पर
ज़ौक़-ए-तख़्लीक़ ने एजाज़ दिखाए हैं लहू उगला है
आसमाँ गर्दिश-ए-अय्याम के रेले से हिरासाँ तो नहीं
ख़ैर-मक़्दम के भी अंदाज़ हुआ करते हैं
वक़्त की राह में मोड़ आते हैं मंज़िल तो नहीं आ सकती

31. वक़्फ़ा - अहमद नदीम क़ासमी

रास्ता नहीं मिलता
मुंजमिद अँधेरा है
फिर भी बा-वक़ार इंसाँ
इस यक़ीं पे ज़िंदा है
बर्फ़ के पिघलने में
पौ फटे का वक़्फ़ा है
उस के बा'द सूरज को
कौन रोक सकता है

32. रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ-गीत - अहमद नदीम क़ासमी

रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
कल जहाँ रूह झुलस जाती थी
अपने साए से भी आँच आती थी
आज उसी दश्त पे सावन की लगी हैं झड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
 
शब को जो वादियाँ सुनसान रहीं
सुब्ह यूँ ओस से आरास्ता थीं
हर तरफ़ मोतियों की जैसे तनी हुई लड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ
 
तोड़ कर पाँव न बैठो आओ!
सुब्ह के और क़रीब आ जाओ!
यूँ तो हर हाल में कटती ही रहेंगी घड़ियाँ
रात दिन सिलसिला-ए-उम्र-ए-रवाँ की कड़ियाँ

33. सफ़र और हम-सफ़र - अहमद नदीम क़ासमी

जंगल जंगल आग लगी है बस्ती बस्ती वीराँ है
खेती खेती राख उड़ती है दुनिया है कि बयाबाँ है
 
सन्नाटे की हैबत ने साँसों में पुकारें भर दी हैं
ज़ेहनों में मबहूत ख़यालों ने तलवारें भर दी हैं
 
क़दम क़दम पर झुलसे झुलसे ख़्वाब पड़े हैं राहों में
सुब्ह को जैसे काले काले दिए इबादत-गाहों में
 
एक इक संग-ए-मील में कितनी आँखें हैं पथराई हुई
एक इक नक़्श-ए-क़दम में कितनी रफ़्तारें काफ़्नाई हुई
 
हम-सफ़रो ऐ हम-सफ़रो कुछ और भी नज़दीक आ के चलो
जब चलना ही मुक़द्दर ठहरा हाथ में हाथ मिला के चलो

34. बहार - अहमद नदीम क़ासमी

इतनी खुशबू है कि दम घुटता है
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
 

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