Hindi Kavita
हिंदी कविता
Jane Kya Tapke Ashok Chakradhar
जाने क्या टपके अशोक चक्रधर
1. होटल में लफड़ा - अशोक चक्रधर
जागो जागो हिन्दुस्तानी,
करता ये मालिक मनमानी।
प्लेट में पूरी
अभी बची हुई है
और भाजी के लिए मना जी!
हम ग्राहक, तू है दुकान...
पर हे ईश्वर करुणानिधान!
कुछ अक़्ल भेज दो भेजे में
इस चूज़े के लिए,
अरे हम बने तुम बने
इक दूजे के लिए।
हमसे टालमटोल करेगा
देश का पैसा गोल करेगा,
इधर हार्ट में होल करेगा
तो देश का बच्चा बच्चा बच्चू,
चेहरे पर तारकोल करेगा।
सुनो साथियो!
इस पाजी ने मेरी प्लेट में
भाजी की कम मात्रा की थी,
नमक टैक्स जब लगा
तो अपने गांधी जी ने
डांडी जी की यात्री की थी।
पैसा पूरा, प्याली खाली,
हमने भी सौगंध उठा ली-
यह बेदर्दी नहीं चलेगी,
अंधेरगर्दी नहीं चलेगी।
जनशोषण करने वालों को
बेनकाब कर
अपना आईना दिखलाओ,
आओ आओ,
ज़ालिम से मिलकर टकराओ।
पल दो पल का है ये जीवन
तुम जीते जी सिर न झुकाओ,
अत्याचारी से भिड़ जाओ।
नेता इससे मिले हुए
वोटर के आगे झूठ गा रहे,
भ्रष्टाचार और बेईमानी
दोनों मिलकर ड्यूट गा रहे।
घोटालों के महल हवेली,
भारत मां असहाय अकेली!
तड़प रही है भूखी प्यासी,
अब हम सारे भारतवासी,
जब साथ खड़े हो जाएंगे,
तो एक नया इतिहास बनाएंगे।
भारत मां के सपूतो
इस मिट्टी के माधो,
अब चुप्पी मत साधो!
क्रांति का बिगुल बजाओ,
मेरी आवाज़ सुनो,
टकराने का अंदाज़ चुनो।
अगर तुम्हें अपना ज़मीर
ज़रा भी प्यारा है,
तो हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में
संघर्ष हमारा नारा है।
2. भोजन प्रशंसा - अशोक चक्रधर
बागेश्वरी, हृदयेश्वरी, प्राणेश्वरी।
मेरी प्रिये!
तारीफ़ के वे शब्द
लाऊं कहां से तेरे लिये?
जिनमें हृदय की बात हो,
बिन कलम, बिना दवात हो।
मन-प्राण-जीवन संगिनी,
अर्द्धांगिनी,
....न न न न न....पूर्णांगिनी।
खाकर ये पूरी और हलुआ,
मस्त ललुआ!
(थाली के व्यंजन गिनते हुए)
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः, सात
बज उठी सतरंगिनी,
सतव्यंजनी-सी रागिनी।
तेरी अंगुलियां...
भव्य हैं तेरी अंगुलियां
दिव्य हैं तेरी अंगुलियां।
कोमल कमल के नाल सी,
हर पल सक्रिय
मैं आलसी।
तो...
तेरी अंगुलियां,
स्वाद का जादू बरसता,
नाचतीं मेरी अंतड़ियां।
खन खनन बरतन
किचिन में जब करें,
तो सुरों के झरने झरें।
हृदय बहता,
लगे जैसे जुबिन मेहता,
बजाए साज़ अनगिन,
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
ताक धिन धिन
एक आर्केस्ट्रा...
वहाँ भाजी नहीं ऐक्स्ट्रा!
यहां थाली
मसालों की महक-सी
ज्यों ही उठाती है,
लकप कर भूख
प्यारे पेट में बाजे बजाती है,
ये जिव्हा लार की गंगो-जमुन
मुख में बहाती है,
मधुर स्वादिष्ट मोहक
इंद्रधनुषों को सजाती है,
चटोरी चेतना थाली कटोरी देखकर
कविता बनाती है।
कि पूरी चंद्रमा सी
और इडली पूर्णमासी।
मन-प्रिया सी दाल वासंती,
लगे, चटनी अमृतवंती।
यही ऋषिगण कहा करते,
यही है सार वेदों का,
हमारे कॉन्स्टीट्यूशन के
सारे अनुच्छेदों का,
कि यदि स्वादिष्ट भोजन
मिले घर में,
इस उदर में
ही बना है
मोक्ष का वह द्वार,
जिसमें है महा उद्धार।
हे बागेश्वरी!
हृदयेश्वरी!!
प्राणेशवरी!!!
तेरे लिए मेरे हृदय में प्यार,
अपरंपार!
3. मनोहर को विवाह-प्रेरणा - अशोक चक्रधर
रुक रुक ओ टेनिस के बल्ले,
जीवन चलता नहीं इकल्ले!
अरे अनाड़ी,
चला रहा तू बहुत दिनों से
बिना धुरी के अपनी गाड़ी!
ओ मगरुरी!
गांठ बांध ले,
इस जीवन में गांठ बांधना
शादी करना
बहुत ज़रूरी।
ये जीवन तो है टैस्ट मैच,
जिसमें कि चाहिए
बैस्ट मैच।
पहली बॉल किसी कारण से
यदि नौ बॉल हो गई प्यारे!
मत घबरा रे!
ओ गुड़ गोबर!
बचा हुआ है पूरा ओवर।
बॉल दूसरी मार लपक के,
विकिट गिरा दे
पलक झपक के।
प्यारे बच्चे!
माना तूने प्रथम प्रेम में
खाए गच्चे।
तो इससे क्या!
कभी नहीं करवाएगा ब्या?
अरे निखट्टू!
बिना डोर के बौड़म लट्टू!
लट्टू हो जा किसी और पर
शीघ्र छांट ले दूजी कन्या,
मां खुश होगी
जब आएगी उसके घर में
एक लाड़ली जीवन धन्या।
अरे अभागे!
बतला क्यों शादी से भागे?
एकाकी रस्ता शूलों का,
शादी है बंधन फूलों का।
सिर्फ़ एक सुर से
राग नहीं बनता,
सिर्फ़ एक पेड़ से
बाग नहीं बनता।
स्त्री-पुरुष ब्रह्म की माया
इन दोनों में जीवन समाया।
सुख ले मूरख!
स्त्री-पुरुष परस्पर पूरक।
अकल के ढक्कन!
पास रखा है तेरे मक्खन।
खुद को छोड़ ज़रा सा ढीला,
कर ले माखन चोरी लीला।
छोरी भी है, डोरी भी है
कह दे तो पंडित बुलवाऊं,
तेरी सप्तपदी फिरवाऊं?
अरे मवाली!
मेरे उपदेशों को सुनकर
अंदर से मत देना गाली।
इस बात में बड़ा मर्म है, कि गृहस्थ ही
सबसे बड़ा धर्म है।
ये बताने के लिए
तेरी मां से
रिश्वत नहीं खाई है,
और न ये समझना
कि इस रिटार्यड अध्यापक ने
अपनी ओर से बनाई है।
ये बात है बहुत पुरानी,
जिसको कह गए हैं
बडे-बड़े संत
बड़े-बड़े ज्ञानी।
ओ अज्ञानी!
बहुत बुरा होगा अगर तूने
मेरी बात नहीं मानी!
चांद उधर पूनम का देखा
इधर मचलने लगे जवानी,
चांद अगर सिर पर चढ़ जाए
हाय बुढ़ापे तेरी निशानी!
मुरझाए फूलों के गमले!
भाग न मुझसे थोड़ा थम ले!
बुन ले थोड़े ख्बाव रुपहले,
ब्याह रचा ले
गंजा हो जाने से पहले।
बहन जी! निराश न हों
ये एक दिन
अपना इरादा ज़रूर बदलेगा,
ज़रूर बदलेगा।
जैसे चींटियां चट्टान पर
छोड़ जाती हैं लीक,
जैसे कुएं की रस्सी
पत्थर को कर लेती है
अपने लिए ठीक!
ऐसे ही
इसका अटल निर्णय भी बदलेगा
कविताएं सुन-सुन कर
पत्थर दिल ज़रूर पिघलेगा।
डॉण्ट वरी!
4. चिड़िया की उड़ान - अशोक चक्रधर
चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।
वृक्ष की डाल दिखें
जंगल-ताल दिखें
खेतों में झूम रही
धान की बाल दिखें
गाँव-देहात दिखें, रात दिखे, प्रात दिखे,
खुल कर घूम यहां, यहां नहीं घर की घुटन।
चिड़िया तू जो मगन....
राह से राह जुड़ी
पहली ही बार उड़ी
भूल गई गैल-गली
जाने किस ओर मुड़ी
मुड़ गई जाने किधर, गई जिधर, देखा उधर,
देखा वहां खोल नयन-सुमन-सुमन, खिलता चमन।
चिड़िया तू जो मगन...
कोई पहचान नहीं
पथ का गुमान नहीं
मील के नहीं पत्थर
पांन के निशान नहीं
ना कोई चिंता फ़िक़र, डगर-डगर, जगर मगर,
पंख ले जाएं उसे बिना किए कोई जतन।
चिड़िया तू जो मगन, धरा मगन, गगन मगन,
फैला ले पंख ज़रा, उड़ तो सही, बोली पवन।
अब जब हौसले से, घोंसले से आई निकल,
चल बड़ी दूर, बहुत दूर, जहां तेरे सजन।
5. मैं तो पढ़-लिख गई सहेली - अशोक चक्रधर
(ग्रामीण बालाओं में साक्षरता के बाद
ग़ज़ब का आत्मविश्वास आता है।)
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
खेल न पाई बचपन में,
झिडक़ी तानों से खेली।
सदा सताया
निबल बताया,
कितनी आफत झेली।
समझ न पाए
नारी का मन,
बस कह दिया पहेली।
अब मेरे घर पढ़ें
जमीला, फूलो और चमेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
हमको कभी न
मानुस समझा,
समझा गुड़ की भेली।
चीज़ सजाने की माना,
दमका ली महल हवेली।
बचपन से ही बोझ कहा,
सारी आज़ादी ले ली।
हाथ की रेखा
बदलीं मैंने,
देखो जरा हथेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
दुनिया भर की ख़बरें बांचें,
समझें सभी पहेली।
अब न दबेंगी,
अब न सहेंगी,
समझो नहीं अकेली।
ओ भारत के नए ज़माने,
तेरी नारि नवेली।
पढ़-लिख कर अब
नई चेतना से
दमकी अलबेली।
मैं तो पढ़-लिख गई सहेली!
6. गुनगुना - अशोक चक्रधर
गुनगुना तुन तुन तुन तुन तुनतुना
(नए के आगमन पर ज़रूरी है कि
होने वाली मां खूब खुश रहे)
तुन तुन तुन
तुन तुनतुना,
छुन छुन छुन
छुन छुनछुना,
घर में नया मेहमान आएगा,
उसकी ख़ातिर गुनगुना।
कुछ सकुचा कर
साजन बोला,
ये ले सलाई,
ऊन का गोला,
जरा से मोजे,
जरा सा झोला,
अरी अभी से बुन बुना।
जरा सा कुरता,
जरा सी फरिया,
जरा सी चादर,
जरा सी दरिया,
छोरा होवे या छोकरिया,
बजे हमारा झुनझुना।
गहरी नींद,
चैन की रातें,
फिर अपनेपन की बरसातें,
कथा कहानी
ऊंची बातें,
ओ साजन से सुन सुना।
हाथी लाऊं,
घोड़ा लाऊं,
छुक छुक छुक छुक
रेल चलाऊं,
जो भी आए
खुश हो जाऊं,
मुनिया चाहे मुनमुना।
तुन तुन तुन
तुन तुनतुना।
7. लली आई - अशोक चक्रधर
सुनो, गाओ-गाओ बधाई लली आई,
घर की बगिया में कोमल कली आई ।
फर्क करना ही नहीं, हो लली या कि लला,
बेवजह इस तरह से, सास तू जी न जला।
मीठा मुंह कर सभी का, और तू संग में गा,
तू भी लड़की थी कभी, भूलती क्यों है भला?
जैसे मिश्री की झिलमिल डली आई।
गाओ-गाओ बधाई लली आई।
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