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हिंदी कविता
Isliye Baudam Ji Isliye Ashok Chakradhar
इसलिए बौड़म जी इसलिए अशोक चक्रधर
पुस्तक की भूमिका - अशोक चक्रधर
देते हुए एन.डी.टी.वी. का हवाला,
एक दिन घर पर आई
रेवती नाम की बाला।
प्यारी सी उत्साही कन्या
शहंशाही काठी में स्वनामधन्या।
यानि करुणा-मानवता की
निर्मल नदी,
नए प्रस्ताव की
झुलाते हुए झोली,
रेवती बोली-
हमारे ‘गुड मार्निंग इंडिया’ में
एक सैक्शन है ‘फ़नीज़’,
आप उसमें जोक्स जैसी
कुछ कविताएं सुनाइए प्लीज़।
कोई सद्भाव से आए घर की दहलीज़
तो मना कैसे कर सकता था
ये नाचीज़।
झट से राज़ी हो गया,
फ़ौरन ‘हां जी’ हो गया।
इस ‘हां जी’ के पीछे थी एक बात और,
प्रणय राय को मानता हूं
भारत में छोटे परदे पर
सूचना-संचार का सिरमौर।
विनम्र, तेजस्वी, शालीन,
संतुलित, त्वरित सधी हुई तत्कालीन
धीर-गम्भीर भाषा,
आंखों में भविष्यत् के लिए
घनघोर आशा।
न बड़बोलापन है न लफ़्फ़ाजी,
इसलिए भी हो गई
मेरी शीघ्र ‘हां जी’।
फिर स्मिता शिबानी के साथ
रखी गई मुलाकात,
हास्य को लेकर हुई
संजीदा बहस-बात।
थोड़ी-थोड़ी हिन्दी, ज़्यादा अंग्रेज़ी,
एक-एक बात मैंने मन में सहेजी।
चमत्कृत सा हतप्रभ सा सुनता रहा,
मेरी बारी आई तो मैंने कहा-
जहां तक मैंने आपकी ज़रूरतें समझी हैं,
उसके अनुरूप मेरे पास
एक चरित्र बौड़म जी हैं।
लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसे,
और सुनें तो हसें
सोचें तो रोएं!
शिबानी बोली-
चलिए शूट करते हैं
वक्त क्यों खोएं?
तो लगभग एक साल से
बौड़म जी अपने विभिन्न रूपों में
छोटे परदे पर आ रहे हैं,
मुझसे एक सम्भ्रांत मज़दूर चेतना से
कविताएं लिखवा रहे हैं।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई - अशोक चक्रधर
कि इन कविताओं में
एन.डी.टी.वी. की डिमाण्ड पर
माल किया गया है सप्लाई।
इस सकंलन में
ऐसी बहुत सी कविताएं नहीं हैं
जो उन्होंने परदे पर दिखाईं,
लेकिन ऐसी कई हैं
जो अब तक नहीं आईं।
कुछ बढ़ाईं, कुछ काटीं,
कुछ छीली, कुछ छांटीं।
कुछ में परिहास है, कुछ में उपहास है
कुछ में शुद्ध अहसास है,
कहीं सुने-सुनाए का विकास है
कहीं प्राचीन को नया लिबास है
पर एक बात ख़ास है-
कि पचासवीं वर्षगांठ है ये आज़ादी की
इसलिए कविताओं की संख्या भी पचास है।
कितने प्यारे हैं हमारे सुधीर भाई
जिन्होंने बौड़म जी की एक-एक तस्वीर
बड़ी मौहब्बत से बनाई,
और धन्य है नरेन्द्र जी का अपनापा
कि पुस्तक को त्वरित गति से छापा
अब आपके पास है पुस्तक
पुस्तक में कविताएं,
चलें पन्ने पलटें और ग़ौर फरमाएं।
प्रतिक्रिया भी दें इनकों पढ़ने के बाद,
धन्यवाद!
1. पांच सीढ़ियां - अशोक चक्रधर
बौड़म जी स्पीच दे रहे थे मोहल्ले में,
लोग सुन ही नहीं पा रहे थे हो-हल्ले में।
सुनिए सुनिए ध्यान दीजिए,
अपने कान मुझे दान दीजिए।
चलिए तालियां बजाइए,
बजाइए, बजाइए
समारोह को सजाइए!
नहीं बजा रहे कोई बात नहीं,
जो कुछ है वो अकस्मात नहीं।
सब कुछ समझ में आता है,
फिर बौड़म आपको जो बताता है
उस पर ग़ौर फरमाइए फिलहाल-
हमारी आज़ादी को पचास साल
यानि पांच दशक बीते हैं श्रीमान!
उन पांच दशकों की हैं
पांच सीढ़ियां, पांच सोपान।
इस दौरान
हम समय के साथ-साथ आगे बढ़े हैं,
अब देखना ये है कि
हम इन पांच सीढ़ियों पर
उतरे हैं या चढ़े हैं।
पहला दशक, पहली सीढ़ी-सदाचरण
यानि काम सच्चा करने की इच्छा,
दूसरा दशक, दूसरी सीढ़ी-आचरण
यानि उसके लिए प्रयास अच्छा।
तीसरा दशक, तीसरी सीढ़ी-चरण
यानि थोड़ी गति, थोड़ा चरण छूना,
चौथा दशक, चौथी सीढ़ी-रण
यानि आपस की लड़ाई
और जनता को चूना।
पांचवां दशक, पांचवीं सीढ़ी बची-न!
यानि कुछ नहीं
यानि शून्य, यानि ज़ीरो,
लेकिन हम फिर भी हीरो।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई
कि बौड़म जी ने एक ही शब्द के जरिए
पिछले पांच दशकों की
झनझनाती हुई झांकी दिखाई।
पहले सदाचरण
फिर आचरण
फिर चरण
फिर रण
और फिर न!
यही तो है पांच दशकों का सफ़र न!
मैंने पूछा-
बौड़म जी, बताइए अब क्या करना है?
वे बोले-
करना क्या है
इस बचे हुए शून्य में
रंग भरना है।
और ये काम
हम तुम नहीं करेंगे,
इस शून्य में रंग तो
अगले दशक के
बच्चे ही भरेंगे।
2. पचास साल का इंसान - अशोक चक्रधर
पचास साल का इंसान
न बूढ़ा होता है न जवान
न वो बच्चा होता है
न बच्चों की तरह
कच्चा होता है।
वो पके फलों से लदा
एक पेड़ होता है,
आधी उम्र पार करने के कारण
अधेड़ होता है।
पचास साल का इंसान
चुका हुआ नहीं होता
जो उसे करना है
कर चुका होता है,
जवानों से मीठी ईर्ष्या करता है
सद्भावना में फुका होता है
शामिल नहीं होता है
बूढ़ों की जमात में,
बिदक जाता है
ज़रा सी बात में।
बच्चे उससे कतराते हैं
जवान सुरक्षित दूरी अपनाते हैं,
बूढ़े उसके मामलों में
अपना पांव नहीं फंसाते हैं।
क्योंकि वो वैल कैलकुलेटैड
कल्टीवेटैड
पूर्वनियोजित और बार बार संशोधित
पंगे लेता है,
अपने पकाए फल,
अपनी माया, अपनी छाया
आसानी से नहीं देता है।
वो बरगद नहीं होता
बल्कि अगस्त महीने का
मस्त लेकिन पस्त
आम का पेड़ होता है,
जी हां, पचास का इंसान अधेड़ होता है।
यही वह उमर है जब
जब कभी कभी अंदर
बहुत अंदर कुछ क्रैक होता है,
हिम्मत न रखे तो
पहला हार्ट-अटैक होता है।
झटके झेल जाता है,
ज़िन्दगी को खेल जाता है।
क्योंकि उसके सामने
उसी का बनाया हुआ
घौंसला होता है,
इसीलिए जीने का हौसला होता है।
बौड़म जी बोले-
पचास का इंसान
चुलबुले बुलबुलों का एक बबाल है,
पचास की उमर
उमर नहीं है
ट्रांज़ीशन पीरियड है
संक्रमण काल है।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई
कि हमारी आज़ादी भी
पचास की पूरी होने आई।
उसका भी लगभग यही हाल है
अपने ऊपर मुग्ध है निहाल है
ऊपरी वैभव का इंद्रजाल है
पुरानी ख़ुशबुओं का रुमाल है
समय के ग्राउंड की फुटबाल है
एक तरफ चिकनी तो
दूसरी तरफ रेगमाल है
संक्रमण के कण कण में वाचाल है
फिर भी खुशहाल है
क्योंकि दुनिया के आगे
विशालतम जनतंत्र की इकलौती मिसाल है।
ओ आज़ादी।
उमरिया की डगरिया के
पचासवें स्वर्ण मील पत्थर पर
तेरा इस्तेकबाल है!
3. आम की पेटी - अशोक चक्रधर
गांव में ब्याही गई थी
बौड़म जी की बेटी,
उसने भिजवाई एक आम की पेटी।
महक पूरे मुहल्ले को आ गई,
कइयों का तो दिल ही जला गई।
कुछ पड़ौसियों ने द्वार खटखटाया
एक स्वर आया-
बौड़म जी, हमें मालूम है कि आप
आम ख़रीद कर नहीं लाते हैं,
और ये भी पता है कि
बेटी के यहां का कुछ नहीं खाते हैं।
हम चाहते हैं कि
आपका संकट मिटवा दें,
इसलिए सलाह दे रहे हैं कि
आप इन्हें पड़ौस में बंटवा दें।
हम लोग ये आम खाएंगे,
और आपकी बेटी के गुन गाएंगे।
श्रीमती बौड़म बोलीं-
वाह जी वाह!
अपने पास ही रखिए अपनी सलाह!
इन आमों को हम
बांट देंगे कैसे?
बेटी को भेज देंगे इनके पैसे।
क्या बात कर दी बच्चों सी!
जवाब में बोला दूसरा पड़ौसी-
भाभी जी गुस्सा मत कीजिए,
देखिए ध्यान दीजिए!
ये गाँव के उम्दा आम हैं
लंगड़ा और दशहरी,
और हम लोग ठहरे शहरी।
इन आमों के तो
बाज़ार में दर्शन ही नहीं हुए हैं,
और अगर हो भी जाएं
तो भावों ने आसमान छुए हैं।
अब आपको कोई कैसे समझाए
कि अगर आपने ये आम खाए
तो मार्केट रेट लगाने पर
ये पेटी खा जाएगी पूरी तनख़ा
ऊपर से जंजाल मन का
कि बेटी को अगर भेजे कम पैसे,
तो स्वर्ग में स्थान मिलेगा कैसे?
श्रीमती बौड़म फिर से भड़कीं
बिजली की तरह कड़कीं-
ठीक है, हमें नर्क मिलेगा मरने के बाद,
लेकिन आप चाहें
तो यहीं चखा दूं उसका स्वाद?
पड़ौसी ये रूप देखकर डर गए,
एक एक करके अपने घर गए।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,
कि बेटी की आम की पेटी
बौड़म दम्पति के लिए बन गई दुखदाई।
एक तो आमों की महक जानलेवा
फिर सुबह से किया भी नहीं था कलेवा।
हाय री बदनसीबी,
गुमसुम लाचार मियां-बीबी!
बार-बार पेटी को निहारते,
आखिर कब तलक मन को मारते!
अचानक बिना कुछ भी बोले,
उन्होंने पेटी के ढक्कन खोले।
जमकर आम खाए और गुठलियां भी चूंसीं,
एक दूसरे को समझाया-
ये सब बातें हैं दकियानूसी!
बेटी हमारी है
और ये पेटी भी हमारी है।
खुद खाएंगे
जिसको मन चाहेगा खिलाएंगे
पड़ौसियों को जलाएंगे,
और बेटी को सम्पत्ति में हिस्सा देंगे।
आमों के पैसे नहीं भिजवाएंगे।
ये आम ख़ास हैं नहीं हैं आम,
बेटी का प्यार हैं ये
और प्यार का कैसा दाम?
4. लापता बंदर - अशोक चक्रधर
चिड़ियाघर का चौकीदार जागा,
तो पाया कि अंदर से
एक बंदर निकल भागा।
बंदर था नायाब,
और कीमती बेहिसाब,
इसलिए रिपोर्ट लिखवाई गई पुलिस में,
पुलिस ने भी
काफी दिलचस्पी ली इसमें।
बहुत दिनों चला
खोज का सिलसिला
पर बंदर नहीं मिला, नहीं मिला, नहीं मिला।
फिर एक
अंतरराष्ट्रीय बंदर अन्वेषण आयोग बिठाया गया,
दुनिया भर के पुलिस विशेषज्ञों को बुलाया गया।
अन्य बंदरों से भी पूछा
उनके साथियों से पूछा
तलाश में लग गया
तंत्र समूचा।
आधुनिकतम विधियों से
वैज्ञानिक प्रविधियों से
जमकर खोज हुई,
चौबीसों घंटे हर रोज हुई
पर बंदर फरार का फरार,
विदेशी विशेषज्ञों ने मान ली हार।
दिखा दी लाचारी,
तब इनाम रखा गया भारी।
इंस्पेक्टर बौड़मसिंह आए आगे,
उन्होंने बंदर बरामद करने के लिए
सिर्फ तीन घंटे माँगे।
थानेदार को सैल्यूट मारा,
और कर गए किनारा।
दो घंटे बाद देखा गया कि
इंस्पेक्टर बौड़मसिंह
थाने में एक गधे को
रस्सी पकड़कर
इधर से उधर घसीट रहे थे,
डंडे से लगातार पीट रहे थे।
ऐसा मारा बेभाव,
कि गधे के शरीर पर घाव ही घाव।
थानेदार ने बुलाया और कर दी खिंचाई-
तुम्हें बंदर ढूँढने भेजा था
और तुम कर रहे हो गधे की धुनाई !
ये कैसा क्रिया-कलाप है,
जानते नहीं हो
निरीह जीवों को सताना पाप है ?
इंस्पेक्टर बौड़म बिलकुल नहीं घबराए,
पसीना पोंछ कर मुस्कराए -
हुजूर,
मैं पुलिस का पुराना धुरंधर हूँ,
सिर्फ आधा घंटे की मोहलत दीजिए
ये गधा अपने मुँह से बोलेगा-बक्कारेगा कि
जी हाँ, मैं ही बंदर हूँ।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,
क्योंकि दुनिया जानती नहीं है
इंस्पेक्टर बौड़मसिंह की क्षमताई।
कि वे कितने चुस्त हैं
दुरुस्त हैं, शेष देशों के पुलिस वाले तो
एकदम सुस्त हैं।
इसलिए इंस्पेक्टर बौड़मसिंह के गुण गाएँ,
उनकी यशगाथा हर किसी को सुनाएँ।
बाकी सबको धता दें,
और आपकी जानकारी के लिए
इतना बता दें
कि बंदर अब फिर से
चिड़ियाघर के अंदर कैदी है, यही तो
पुलिस इंस्पेक्टर बौड़म सिंह की
मुस्तैदी है।
5. तीसरी कुर्सी - अशोक चक्रधर
अगर तीसरी कुर्सी होती
(लड़ाई कुर्सियों से भी हो तो
कुर्सियों के लिए होती है)
—मैंने सुना कि
पहले तो दोनों ने
एक दूसरे के लिए अपशब्द झाड़े,
पशुओं की तरह दहाड़े,
फिर एक दूसरे के कपड़े फाड़े!
—जी हां!
जमकर हुई लड़ाई,
कुर्ते फाड़ने के बाद जब
आ गई थोड़ी और गरमाई,
तो वे करने लगे हाथापाई।
आगा-पीछा बिलकुल नहीं सोचा,
एक ने दूसरे को नोंचा,
तो दूसरे ने नाखूनों से खरोंचा।
फिर उन्होंने उठाई
एक एक कुर्सी,
चेतना हो गई असुर सी,
कुर्सियों से हुई
घमासान मिजाजपुर्सी!
—जब तुमने देखा
उनका ऐसा बरताव,
तो क्यों नहीं किया
बीचबचाव?
—क्योंकि वहां
तीसरी कुर्सी नहीं थी जनाब!
बात समझ में आई?
हमारे यहां
कुर्सियों से नहीं
कुर्सियों के लिए होती है लड़ाई।
जो एक बार
कुर्सी पा जाता है,
बड़ी जल्दी ताव खा जाता है,
बड़ी जल्दी गरमा जाता है,
कुर्सी से
अलग नहीं हो पाता
उसी में समा जाता है।
6. बांस की खपच्ची - अशोक चक्रधर
बांस की खपच्ची की माथापच्ची
(झुकना विनम्रता की निशानी है पर
स्वाभिमान की शर्त खोने पर नहीं)
एक होती है लकड़ी एक होती है रबर,
एक रहती है अकड़ी एक होती है लचर।
जो अकड़ा रहे उसे प्लास्टिक कहते हैं,
जो लचीला हो उसे इलास्टिक कहते हैं।
लेकिन स्टिक है दोनों की कॉमन कड़ी,
स्टिक माने छड़ी।
कड़ीलेपन की छड़ी
और लचीलेपन की छड़ी।
कड़ीलेपन की छड़ी कभी टूट जाती है
कभी हाथ से छूट जाती है
करे तो तगड़ा वार करती है,
लेकिन लचीलेपन की छड़ी
ज़्यादा मार करती है।
ऐसे ही होते हैं लोग
कुछ कड़े कुछ लचीले,
कुछ तने हुए कुछ ढीले।
मैंने कहा— आप छलिया बड़े हैं,
न लचीले हैं न कड़े हैं!
आपसे कौन करे माथापच्ची,
आप हैं फ़कत एक बांस की खपच्ची!
जो वैसे देखो तो तनी है,
पर हमेशा झुकने के लिए बनी है।
श्रीमानजी बोले— खपच्ची जब झुकती है
तभी बनती है पतंग
तभी बनता है इकतारा।
हां हम झुकते हैं
पतंग जैसी उड़ान के लिए
इकतारे जैसी तान के लिए,
और कुल मिलाकर
देखने-सुनने वालों की
मुस्कान के लिए।
पर इतना मत झुकाना कि
पतंग की डोर या इकतारे का तार
हाथ से छूट जाय,
और खपच्ची टूट जाय।
7. जिनके घर कांच के - अशोक चक्रधर
जिनके घर कांच के बने होते हैं
(कई बार अध्यापकगण कल्पना-लोक
और यथार्थ में आते-जाते रहते हैं)
पढ़ाई से भागने वाले नटखट बन्दरो!
चलो ये वाक्य पूरा करो—
जिनके घर कांच के बने होते हैं…..
एक बोला—
वे कहीं और जाकर सोते हैं।
दूसरा बोला—
वे बाहर सब कहीं देख सकते हैं।
तीसरा बोला—
वे दूसरों पर धूल नहीं फेंक सकते हैं।
चौथा बोला—
वे घर में टटोल-टटोल कर चलते हैं।
पांचवां बोला—
वे बिजली बंद करके कपड़े बदलते हैं।
—ठीक है न श्रीमानजी?
श्रीमानजी का
कहीं और ही था ध्यान जी—
….पावर कट के इस ज़माने में
बिजली होती ही कहां है,
अंधकार चारों तरफ़ यहां से वहां है।
आपका घर कांच का है तो क्या हुआ,
दीजिए पावरकट को दुआ।
बिना स्विच ऑफ़ किए कपड़े बदलिए,
घर में नाचिए, कूदिए चाहे उछलिए।
लेकिन बिजली अगर अचानक
अपना जलवा दिखा गई,
यानी यदि बीच में ही आ गई,
ऐसे में कोई बाहर वाला आपको देखे,
तो हो सकता है
कांच के घर पर पत्थर फेंके।
दृश्य अगर सचमुच उसे कसकता है….
—बच्चो! हो सकता है!
ऐसा भी हो सकता है!!
—श्रीमानजी कैसा हो सकता है?
8. ये शक्ल कहीं देखी है - अशोक चक्रधर
ये शक्ल कहीं और देखी है!
(कई बार दर्शक भूल जाते
हैं कि कहां मिले थे)
टेलीविज़न पर आना कोई शेखी है!
लोग राह चलते कहते हैं—
ये शक्ल कहीं और देखी है।
प्यार उमड़ता है ऐसे बंदों पर,
मैं उन्हें कैसे समझाऊं
शक्ल कहीं और कैसे दिख सकती है
ये तो शुरू से टिकी है इन्हीं दो कंधों पर।
लोग हाथ मिलाते हुए चहककर मिलते हैं,
गले लगते हुए गहक कर मिलते हैं।
मिलते हैं तो ख़ुशी से फूल जाते हैं,
पर कहां मिले थे ये भूल जाते हैं।
याद नहीं आता तो अनुमान लगाते हैं—
आपकी जीके में साडि़यों की दुकान है न?
हमारे मौहल्ले में ही आपका मकान है न?
आपके स्टोर से तो हम बुक्स लाते हैं।
आपके यहीं तो हम कुर्ते सिलवाते हैं!
आप हमारे साले के रिश्ते में भाई हैं,
आप वकील हैं न,
आपके साढ़ू साब नागपुर में हलवाई हैं।
आप तीसहजारी में टाइपिस्ट हैं न,
आप मराठी के जर्नलिस्ट हैं न!
अजी आपके यहां हमने कार्ड छपवाए हैं।
आप तो बंकरडूमा में हमारे घर आए हैं!
मैं शपथपूर्वक कहता हूं
कि मुझे नहीं मालूम कहां है बंकरडूमा,
उसके आसपास की गलियों में भी
मैं कभी नहीं घूमा।
माफ़ कीजिएगा सिर्फ़ इतना बताता हूं,
टीवी की छोटी सी खिडक़ी से
बिना पूछे आपके घर में घुस जाता हूं।
घबराइए मत
आदमी सीधा सच्चा हूं,
दो हफ़्ते पहले
पूरे इकसठ साल का हो गया
पर आपका बच्चा हूं।
9. जेलर और तरबूज़ - अशोक चक्रधर
जेलर ने कालकोठरी का द्वार खोला,
और फाँसी के कैदी से बोला-
ये बताना मेरे आने का प्रयोजन है,
कि आज तेरा अंतिम भोजन है
जो चाहेगा खिलाऊँगा।
अपने पैसे देके मँगवाऊँगा
कुछ भी कर ले चूज !
कैदी बोला- जी, तरबूज !
ओ हो !
क्या नाम लीना है,
तू तो जानता है कि
ये दिसम्बर का महीना है।
तरबूज का तो प्यारे
मौसम ही नहीं है,
अभी बोया भी नहीं गया
क्योंकि धरती नम ही नहीं है।
कैदी बोला खुशी में-
जेलर साहब जिद्दी हूँ पैदाइशी मैं।
यही होगा अच्छा,
कि वचन निभाएँ
और पूरी करें इच्छा !
कोई बात नहीं
मौसम का इंतजार करूँगा,
लेकिन साफ बात है
बिना तरबूज खाए
अब नहीं मरूँगा।
ये बात मैंने आपको इसलिए बताई,
क्योंकि जेलर स्मार्ट था
उसने तरबूज की एक बोरी
कोल्ड स्टोर से मँगवाई।
बोला-
ले बेटा तरबूज खा,
और मरने में
नखरा मत दिखा।
अंतिम इच्छा पूरी हो गई
अब अंतिम यात्रा का
इंतजाम करेंगे,
तू तो एक झटके में
मर जाएगा।
पर हम कोल्ड स्टोरेज का
टिण्ड फूड खा खा के
धीरे-धीरे मरेंगे।
निराश था कैदी,
जेलर ने दिखाई मुस्तैदी।
सारा सामान झटपट लिया
और वध-स्थल तक जाने का
शॉर्ट-कट लिया।
कैदी की
जरा सी भी दिलचस्पी नहीं थी
तरबूज में,
और जेलर साब तर थे बूज में।
रास्ता था ऊबड़-खाबड़ गंदा,
कैदी को दिख रहा था
फाँसी का फंदा।
दोनों आँखें आँसुओं से भरी
उसने जेलर से शिकायत करी-
एक तो इतनी जल्दी
मुझे मरवा रहे हैं,
दूसरे
इतने घटिया रास्ते से ले जा रहे हैं।
जेलर खा गया ताव,
बोला,
अब नहीं चलेगा तेरा कोई दाँव।
तुझे तो बेटा सिर्फ जाना ही है,
हमें तो इसी रास्ते पर
वापस आना भी है।
10. मूल धातु - अशोक चक्रधर
इनकी मूल धातु मत पूछ!
(शिक्षक दिवस पर गुरु-चेला संवाद)
पाठशाला में गुरू ने कहा— चेले!
अब थोड़ा सा ध्यान शिक्षा पर भी दे ले।
चल, संस्कृत में ’घोटाला’ अथवा
‘हवाला’ शब्द के रूप सुना।
चेले ने पहले तो कर दिया अनसुना,
पर जब पड़ी गुरू जी की ज़ोरदार संटी,
तो चेले की बोल गई घंटी—
घोटाला, घोटाले, घोटाला:
हवाला, हवाले, हवाला:
हवालां, हवाले, हवाला:
हवालाया, हवालाभ्याम्, हवालाभि:
हवालायै, हवालाभ्याम्, हवालाभ्य:
हवालाया:, हवालाभ्याम्, हवालाभ्य:
हवालात्, हवालाभ्याम्, हवालानाम्
समझ गया गुरू जी समझ गया!
हवाला में जिनका नाम है
हवाला से जिनको लाभ मिला
उन्हें हवालात होगी।
गुरू जी बोले— न कुछ होगा न होगी!
सारी दिशाओं से स्वर आए वाह के,
लेकिन चेला तो रह गया कराह के।
बोला— गुरू जी! हवाला शब्द की
मूल धातु क्या है?
गुरू जी कुपित हुए—
तुझमें न लज्जा है न हया है!
सुन, ये हवाला घोटाला से
सचमुच संबंधित जितने भी जने हैं
तू इनकी मूल धातु पूछता है बेटा,
ये किसी और ही धातु के बने हैं।
हम तो गुरु-शिष्य
ढोल गंवार शूद्र पशु
आम आदमी और वोटर हैं बच्चे,
लेकिन ये हैं देशभक्त सच्चे।
इन्होंने देश को कर दिया छूंछ,
मैं तेरे चरण छूता हूं मेरे शिष्य
तू मुझसे इनकी मूल धातु मत पूछ!
11. शुभकामनाएं नए साल की - अशोक चक्रधर
(बच्चे के बस्ते से लेकर ताप के प्रताप
से दमकते हुए आप तक को)
बच्चे के बस्ते को, हर दिन के रस्ते को
आपस की राम राम, प्यार की नमस्ते को
उस मीठी चिन्ता को, गली से गुज़रते जो
पूछताछ करे हालचाल की,
शुभकामनाएं नए साल की!
सोचते दिमाग़ों को, नापती निगाहों को
गारे सने हाथों को, डामर सने पांवों को
उन सबको जिन सबने, दिन रात श्रम करके
सडक़ें बनाईं कमाल की, शुभकामनाएं..!
आंगन के फूल को, नीम को बबूल को
मेहनती पसीने को, चेहरे की धूल को
उन सबको जिन सबकी, बिना बात तनी हुई
तिरछी हैं रेखाएं भाल की, शुभकामनाएं..!
दिल के उजियारे को, प्यारी को प्यारे को
छिपछिप कर किए गए, आंख के इशारे को
दूसरा भी समझे और, ख़ुश्बू रहे ज्यों की त्यों
हमदम के भेंट के रुमाल की, शुभकामनाएं..!
हरियाले खेत को, मरुथल की रेत को
रेत खेत बीच बसे, जनमन समवेत को
खुशियां मिलें और भरपूर खुशियां मिलें
चिन्ता नहीं रहे रोटी दाल की, शुभकामनाएं..!
भावों की बरात को, कलम को दवात को
हर अच्छी चीज़ को, हर सच्ची बात को
हौसला मिले और सब कुछ कहने वाली
हिम्मत मिले हर हाल की, शुभकामनाएं..!
टाले घोटाले को, सौम्य छवि वाले को
सदाचारी जीवन को, शोषण पर ताले को
जीवन के ताप को, ताप के प्रताप को
ताप के प्रताप से, दमकते हुए आपको
पहुंचाता हूं अपने दिल के कहारों से
उठवाई हुई दिव्य शब्दों की पालकी!
शुभकामनाएं नए साल की!
12. शॉल बचाइए - अशोक चक्रधर
देश को छोड़िए शॉल बचाइए!
(दूसरों के दाग़ दिखाने के चक्कर
में हम कई बार ख़ुद को जला बैठते हैं।)
श्रीमान जी आप खाना कैसे खाते हैं!
बच्चों की तरह गिराते हैं!!
कुर्ते पर गिराया है सरसों का साग,
पायजामे पर लगे हैं सोंठ के दाग।
ये भी कोई सलीक़ा है!
आपने कुछ भी नहीं सीखा है!!
जाइए कपड़े बदलिए
और इन्हें भिगोकर आइए,
या फिर भाभी जी का
काम हल्का करिए
अभी धोकर आइए!
श्रीमान जी बोले—
आपको क्या, कोई भी धो ले।
पर आप मेरे निजी मामलों में
बहुत दखल देते हैं,
बिना मांगे की अकल देते हैं।
अभी किसी ने
जलती हुई सिगरेट फेंकी,
मैंने अपनी आंखों से देखी।
पिछले तीन मिनिट से
सुलग रहा है आपका शॉल
पर क्या मजाल
जो मैंने टोका हो
आपकी किसी प्रक्रिया को रोका हो!
देश के मामले में भी मेरे भाई!
यही है सचाई!
या तो हम बुरी तरह खाने में लगे हैं,
या फिर दूसरों के दाग़
दिखाने में लगे हैं।
इस बात का किसी को
पता ही नहीं चल रहा है
कि देश धीरे-धीरे जल रहा है।
श्रीमान जी बोले— इस तरह आकाश में
उंगलियां मत नचाइए,
देश को छोडि़ए शॉल बचाइए!
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ashok Chakradhar) #icon=(link) #color=(#2339bd)