Hindi Kavita
हिंदी कविता
Geet Kunj Suryakant Tripathi Nirala
गीत गुंज (कुंज) सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
1. वरद हुई शारदा जी हमारी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
वरद हुई शारदा जी हमारी,
पहनी वसंत की माला संवारी ।
लोक विशोक हुए, आंखों से
उमड़े गगन लाखों पांखों से,
कोयलें मंजरी की शाखों से,
गाएं सुमंगल होली तुम्हारी ।
नाचे मयूर प्रात के फूटे
पात के मेघ तले, सुख लूटे,
कामिनी के मन मूठ से छूटे,
मिलने खिलने की ललकी निवारी ।
2. कूची तुम्हारी फिरी कानन में-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कूची तुम्हारी फिरी कानन में,
फलों के आनन आनन में ।
फूटे रंग वसंती, गुलाबी,
लाल पलास, लिये सुख, स्वाबी;
नील, श्वेत शतदल सर के जल,
3. फिर उपवन में खिली चमेली-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
फिर उपवन में खिली चमेली,
मन्द पवन गंध की अकेली ।
छीन लिये सुख साज आज के,
रूपवती युवती समाज के-
बादल के दल के दल के बल
कोमल कमल विलास सहेली ।
अपराजिता, नयन की सुनियत,
अपने ही यौवन से विव्रत,
जूही, मालती आदिक सखियां
हंसती, करती हैं रंगरेली ।
4. मालती खिली, कृष्ण मेघ की-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मालती खिली, कृष्ण मेघ की ।
छायाकुल की गयी धरा
कर पीड़न से मधुरतरा-
विपुल पल्लवित मनोहरा,
दृगों से मिली ।
स्निग्ध हो गया निदाघ-दाह,
मन्द-मन्द गंध का प्रवाह,
गली-गली गीला उत्साह,
पत्रिका हिली ।
उग आये अंकुर जीवन,
धान, ज्वार, अरहर ओ सन,
बही पुन: गंध से पवन
पके आम की ।
5. शरत की शुभ्र गंध फैली-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
शरत की शुभ्र गंध फैली;
खुली ज्योत्सना की सित शैली ।
काले बादल धीरे-धीरे
मिटे गगन को चीरे-चीरे
पीर गई उर आये पी रे,
बदली द्युति मैली ।
शीतावास खगों ने पकड़े,
चहचह से पेड़ों को जकड़े,
यौवन से वन-उपवन अकड़े,
ज्वारों की लटकी है थैली ।
6. फिर नभ घन घहराये-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
फिर नभ घन घहराये ।
छाये, बादल छाये ।
कौंधी चपला अलक-बंध की
परी प्रिया के मुख की छवि-सी,
बून्दें सुख के आंसू ढल कर,
पृथ्वी के उर आये ।
दिवस निशा का सुखद स्वप्न है,
ज्योतिश्छाया देश लग्न है,
आतप के कुम्हलाये खुलकर
मुख-प्रसून भाये ।
उगी दूब की अति हरियाली,
गली-गली सुख-सेज बिछा ली,
प्रकृति-सुन्दरी ने शोभा के
रंग, कर दिखलाये ।
7. प्यासे तुमसे भरकर हरसे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
प्यासे तुमसे भरकर हरसे ।
सावन घन प्राणों में बरसे ।
उनघी आंखों में श्याम घटा,
विद्युत की नस-नस नई छटा,
फैली हरियाली अटा-अटा
अंगों के रंगों के परसे ।
अविरत रिमझिम वीना द्रिमद्रिम;
प्रति छन रेलती पवन पश्चिम
मृदंग वादन, गति अविकृत्रिम
जी के भीतर से, बाहर से ।
8. जिधर देखिये, श्याम विराजे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
जिधर देखिये, श्याम विराजे ।
श्याम कुंज वन, यमुना श्यामा,
श्याम गगन, घन-वारिद गाजे ।
श्याम धरा, तृषा-गुल्म श्याम हैं
श्याम सुरभि-अंचल दल साजे;
श्याम बलाका, शालि श्याम हैं,
श्याम-विजय-बाजे नभ बाजे ।
श्याम मयूर, कोकिला श्यामा,
कूजन, नृत्य श्याम मृदु माजे;
श्याम काम, रवि श्याम मध्य दिन,
श्याम नयन काजल के आंजे ।
श्रुति के अक्षर श्याम देखिये,
दीप-शिखा पर श्याम निवाजे;
श्याम तामरस, श्याम सरोवर
श्याम अनिल, छवि श्याम संवाजे ।
9. पारस, मदन हिलोर न दे तन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पारस, मदन हिलोर न दे तन,
बरसे झूम झूम कर सावन ।
बन द्रुमराजि साज सब साजे,
बसन हरे उर उड़े, विराजे,
अलियों, जूही की कलियों की
मधु की गलियों नूपुर बाजे;
घर बिछड़े आये मन-भावन ।
10. केश के मेचक मेघ छुटे-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
केश के मेचक मेघ छुटे
पलक-पल्लव पगतलों लुटे ।
सुख की इतराई आंखों में,
लगे फूल जैसे शाखों में,
मंडलाई सुगंध से नभ-
रंभा के रंग उठे ।
खिंची खसी साड़ी की मुख छवि,
कभी नहीं जो दिखा उगा रवि,
गदगद नद की भंवर-भंवर में,
दु:ख के पौर टुटे ।
11. धिक मनस्सब, मान, गरजे बदरवा-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
धिक मनस्सब, मान, गरजे बदरवा ।
झूले झिले, गान सरजे बदरवा ।
चीर के धनुश के तीर छुटे, छटे,
बून्द के वारि के वसन बूटे बटे,
गले के चले गायन, चरायन पटे,
पेड़ के तल, अतल, लरजे बदरवा ।
घुसे कामद शिखर, शिखर-गिरि फैल कर,
घन प्रवहमान, वन, शैल से शैल पर;
गायन ध्वनित ग्राम-ग्राम से नगर-घर
नागरी-नागरी; बरजे बदरवा ।
12. बुझी दिल की न लगी मेरी-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बुझी दिल की न लगी मेरी
तो क्या तेरी बात बनी।
चली कोई न चलायी चाल
तो क्या तेरी घात बनी।
भर दी करनी से बुरी जो,
तरी डगमग कर दी,
अपने पूरे बल पार
किनारे न जो तर दी।
बुझी दिल की न लगी मेरी
तो क्या तेरी बात बनी।
(रचनाकाल : 19 अप्रैल, 1953)
13. शाप तुम्हारा: गरज उठे सौ-सौ बादल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
शाप तुम्हारा: गरज उठे सौ-सौ बादल;
ताप न वारा, काँपे पृथ्वी के तरुदल।
हर - हर हरती समीर,
जीवन - यौवन अधीर,
चले तीक्ष्ण - तीक्ष्ण तीर,
छूटे गृह - वन के सम्बल।
नीचे - ऊपर अपार
सलिल राशि विसम्भार,
मुहर्मुह: वज्रहार,
संसृति के संहत चञ्चल।
आओ अनिमेष नयन,
करो निरामय वर्षण,
सञ्चय हे संघर्षण !
कलित साधना के शुभफल।
(रचनाकाल : 8 जनवरी, 1954)
14. फेर दी आँख जी आया-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
फेर दी आँख जी आया
जैसे रसाल बौराया।
रहकर मेरे दबते मन
फूटे सौ - सौ मधु गुञ्जन,
तन की छवियाँ नत लोचन,
उमड़ी, मानस लहराया।
सूखी समीर नव - गन्धित,
बह चली छन्द से नन्दित,
उग आया सलिल कमल सित,
कोमल सुगन्ध नभ छाया !
(रचनाकाल : 5 फरवरी, 1954)
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