Hindi Kavita
हिंदी कविता
Bhole Bhale Ashok Chakradhar
भोले-भाले अशोक चक्रधर
1. जिज्ञासा - अशोक चक्रधर
एकाएक मंत्री जी
कोई बात सोचकर
मुस्कुराए,
कुछ नए से भाव
उन्होंने अपने पी.ए. से पूछा-
क्यों भई,
ये डैमोक्रैसी क्या होती है?
पी.ए. कुछ झिझका
सकुचाया, शर्माया।
-बोलो, बोलो
डैमोक्रैसी क्या होती है?
-सर, जहां
जनता के लिए
जनता के द्वारा
जनता की
ऐसी-तैसी होती है,
वहीं डैमोक्रैसी होती है।
2. डैमोक्रैसी - अशोक चक्रधर
पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।
आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।
और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमनता है ?
और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।
फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अफ़सरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !
3. रिक्शेवाला - अशोक चक्रधर
आवाज़ देकर
रिक्शेवाले को बुलाया
वो कुछ
लंगड़ाता हुआ आया।
मैंने पूछा—
यार, पहले ये तो बताओगे,
पैर में चोट है कैसे चलाओगे ?
रिक्शेवाला कहता है—
बाबू जी,
रिक्शा पैर से नहीं
पेट से चलता है।
4. कटे हाथ - अशोक चक्रधर
बगल में एक पोटली दबाए
एक सिपाही थाने में घुसा
और सहसा
थानेदार को सामने पाकर
सैल्यूट मारा
थानेदार ने पोटली की तरफ निहारा
सैल्यूट के झटके में पोटली भिंच गई
और उसमें से एक गाढी-सी कत्थई बूंद रिस गई
थानेदार ने पूछा:
'ये पोटली में से क्या टपक रहा है ?
क्या कहीं से शरबत की बोतलें
मारके आ रहा है ?
सिपाही हडबढाया , हुजूर इसमें शरबत नहीं है
शरबत नहीं है
तो घबराया क्यों है, हद है
शरबत नहीं है, तो क्या शहद है?
सिपाही कांपा, शर शहद भी नहीं है
इसमें से तो
कुछ और ही चीज बही है
और ही चीज, तो खून है क्?
अबे जल्दी बता
क्या किसी मुर्गे की गरदन मरोड़ दी
क्या किसी मेमने की टांग तोड़ दी
अगर ऐसा है तो बहुत अच्छा है
पकाएंगे
हम भी खाएंगे, तुझे भी खिलाएंगे!
सिपाही घिघियाया
सर! न पका सकता हूं, न खा सकता हूं
मैं तो बस आपको दिखा सकता हूं
इतना कहकर सिपाही ने मेज पर पोटली खोली
देखते ही, थानेदार की आत्मा भी डोली
पोटली से निकले
किसी नौजवान के दो कटे हुए हाथ
थानेदार ने पूछाए , बता क्या है बात
यह क्या कलेस है ?
सिपाही बोला, हुजूर!
रेलवे लाइन एक्सीडेंट का केस है
एक्सीडेंट का केस है।
तो यहां क्यों लाया है,
और बीस परसेंट बाडी ले आया है।
एट़टी परसेंट कहां छोड़ आया है।
सिपाही ने कहा, माई-बाप
यह बंदा इसलिए तो शर्मिंदा है
क्योंकि एट्टी परसेंट बाडी तो जिंदा है
पूरी लाश होती तो यहां क्यों लाता
वहीं उसका पंचनामा न बनाता
लेकिन गजब बहुत बड़ा हो गया
वह तो हाथ कटवा के खड़ा हो गया
रेल गुजर गई तो मैं दौडा
वह तो तना था मानिंदे हथौडा
मुझे देखकर मुसकराने लगा
और अपनी ठूंठ बाहों को
हिला-हिलाकर बताने लगा
ले जा, ले जा
ये फालतू हैं, बेकार हैं
और बुलरा ले कहां पत्रकार हैं ?
मैं उन्हें बताऊंगा कि काट दिए
इसलिए कि
मैंने झेला है भूख और गरीबी का
एक लंबा सिलसिला
पंद्रह वर्ष हो गए
इन हाथों को कोई काम ही नहीं मिला
हां, इसलिए-इसलिए
मैंने सोचा कि फालतू हैं
इन्हें काट दूं
और इस सोए हुए जनतंत्र के
आलसी पत्रकारों को
लिखने के लिए प्लाट दूं
प्लाट दूं कि इन कटे हाथों को
पंद्रह साल से
रोजी-रोटी की तलाश है
आदमी जिंदा है और
ये उसकी तलाश की लाश है।
इसे उठा ले
अरे, इन दोनों हाथों को उठा ले
कटवा के भी मैं तो जिंदा हूं
तू क्यो मर गया ?
हुजूर, इतना सुनकर मैं तो डर गया
जिन्न है या भूत
मैने किसी तरह अपने-आपको साधा
हाथों को झटके से उठाया
पोटली में बांधा
और यहां चला आया
हुजूर, अब मुझे न भेजें
और इन हाथों को भी
आप ही सहेजें।
थानेदार चकरा गया
शायद कटे हाथ देखकर घबरा गया
बोला, इन्हें मेडिकल कालेज ले जा,
लडके इन्हें देखकर डरेंगे नहीं
इनकी चीर-फाड़ करके स्टडी करेंगे।
इसके बाद पता नहीं क्या हुआ
लेकिन घटना ने मन को छुआ
अरे उस पढ़े लिखे नौजवान ने
अपने हाथों को खो दिया
और सच कहता हूं अखबार में
यह खबर पढ़कर मैं रो दिया।
सोचने लगाकि इसे पढ़कर
तथाकथित बडे लोग
शर्म से क्यों नही गड़ गए
देखिए, आज एक अकेले पेट के लिए
दो हाथ भी कम हो गए।
वह उकता गया झूठे वादों, झूठी बातों से,
वरना क्या नहीं कर सकता था
अपने हाथों से
वह इन हाथों से किसी मकान का
नक्शा बना सकता था
हाथों में बंदूक थामकर
देश को सुरक्षा दिला सकता था।
इन हाथों से वह कोई
सडक बना सकता था
और तो और
ब्लैक बोर्ड पर 'ह' से हाथ लिखकर
बच्चों को पढ़ा सकता था,
मैं सोचता हूं
इन्हीं हाथों से उसे बचपन में
तिमाही, छमाही, सालाना परीक्षाएं दी होंगी,
मां ने पास होने की दुआएं की होंगी।
इन्हीं हाथों से वह
प्रथम श्रेणी में पास होने की
खबर लाया होगा,
इन्हीं हाथों से उसने
खुशी का लड़डू खाया होगा।
इन्हीं हाथों में डिग्रियां सहेजी होंगी
इन्हीं हाथों से अर्जियां भेजी होंगी।
और अगर काम पा जाता
तो यह नपूता
इन्हीं हाथों से मां के पांव भी छूता
खुशी में इन हाथों से ढपली बजाता
और किसी खास रात को
इन्हीं हाथों से
दुलहन का घूंघट उठाता।
इन्हीं हाथों से झुनझुना बजाकर
बेटी को बहलाता
रोते हुए बेटे के गाल सहलाता
तूने तो काट लिए मेरे दोस्त
लेकिन तू कायर नहीं है
कायर तो तब होता
जब समूचा कट जाता
और देश के रास्ते से
हमेशा-हमेशा को हट जाता
सरदार भगत सिंह ने
यह बताने के लिए देश में गुलामी है
पर्चे बांटे
और तूने बेरोजगारी है
यह बताने के लिए हाथ काटे
बडी बात बोलने का तो
मुझमें दम नहीं है
लेकिन प्यारे, तू किसी शहीद से कम नहीं है।
5. पोल-खोलक यंत्र - अशोक चक्रधर
ठोकर खाकर हमने
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई
कुछ घरघराया।
झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा
अब यंत्र से
पत्नी की आवाज़ आई-
मैं तो भर पाई!
सड़क पर चलने तक का
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर
या सली़क़ा नहीं आता।
बीवी साथ है
यह तक भूल जाते हैं,
और भिखमंगे नदीदों की तरह
चीज़ें उठाते हैं।
….इनसे
इनसे तो
वो पूना वाला
इंजीनियर ही ठीक था,
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता
इस तरह राह चलते
ठोकर तो न खाता।
हमने सोचा-
यंत्र ख़तरनाक है!
और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है
कि हमको मिला है,
और मिलते ही
पूना वाला गुल खिला है।
और भी देखते हैं
क्या-क्या गुल खिलते हैं?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं।
तो हमने एक दोस्त का
दरवाज़ा खटखटाया
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया,
दिमाग़ में होने लगी आहट
कुछ शूं-शूं
कुछ घरघराहट।
यंत्र से आवाज़ आई-
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को
नहीं लाया है।
प्रकट में बोला-
ओहो!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है!
और सब ठीक है?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं?
हमने कहा-
भा भी जी
या छप्पनछुरी गुलबदन?
वो बोला-
होश की दवा करो श्रीमन्
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो,
भाभी जी के लिए
कैसे-कैसे शब्दों का
प्रयोग करते हो?
हमने सोचा-
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही
हट रहा है।
सो फ़ैसला किया-
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे।
लेकिन अनुभव हुए नए-नए
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए।
स्वयं नहीं निकले
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं-
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी
अभी-अभी सोए हैं।
यंत्र ने बताया-
बिल्कुल नहीं सोए हैं
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है।
अगले दिन कॉलिज में
बी०ए० फ़ाइनल की क्लास में
एक लड़की बैठी थी
खिड़की के पास में।
लग रहा था
हमारा लैक्चर नहीं सुन रही है
अपने मन में
कुछ और-ही-और
गुन रही है।
तो यंत्र को ऑन कर
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर
हर्ष की रेखा।
यंत्र से आवाज़ आई-
सरजी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो
कितने स्मार्ट होते!
एक सहपाठी
जो कॉपी पर उसका
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ
पिकनिक मना रहा था।
हमने सोचा-
फ़्रायड ने सारी बातें
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में
सैक्स के अलावा कुछ नहीं है।
कुछ बातें तो
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में
भाषाएं बौनी हैं।
एक बार होटल में
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे
वापस लाया
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले
यंत्र से आवाज़ आई-
चले आते हैं
मनहूस, कंजड़ कहीं के साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले।
हमने सोचा- ग़नीमत है
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले।
ख़ैर साहब!
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं
कभी ज़हर तो कभी
अमृत के घूंट पिलाए हैं।
– वह जो लिपस्टिक और पाउडर में
पुती हुई लड़की है
हमें मालूम है
उसके घर में कितनी कड़की है!
– और वह जो पनवाड़ी है
यंत्र ने बता दिया
कि हमारे पान में
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है।
एक दिन कविसम्मेलन मंच पर भी
अपना यंत्र लाए थे
हमें सब पता था
कौन-कौन कवि
क्या-क्या करके आए थे।
ऊपर से वाह-वाह
दिल में कराह
अगला हूट हो जाए पूरी चाह।
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था।
ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान
कई कवि मित्र
एक साथ सोच रहे थे-
अरे ये तो जम गया!
6. सुरसी-सुरसा की मुंहबोली बहन सुरसी - अशोक चक्रधर
(पौराणिक पात्र यथार्थ में भी दिखाई देने
लगते हैं, कभी सजीव कभी कुरसी जैसे निर्जीव।)
ज्ञात होगी आपको
त्रेता युग की
वह राक्षसी-
सुरसा!
जिसके मुंह में
हनुमान घुसे
और मच्छर बनकर
निकल आए थे
सहसा।
विश्वस्त सूत्रों से
ज्ञात हुआ है कि
एक बहन और थी उसकी
जिसका नाम था-
सुरसी।
और
वह सुरसी ही
इस कलिकाल में
बन गई है
कुरसी।
आदमी इसमें
मच्छर की तरह
घुस जाता है,
लेकिन
थोड़ी ही देर में
हाथी की तरह
फूलकर
फंस जाता है।
सुरसी
उसी राजा बनाती है,
उसे मनमानी सिखाती है,
और धीरे-धीरे
उसका धरम-ईमान
खा जाती है।
7. धारा पर धारा - अशोक चक्रधर
मंच पर बैठे बैठे
बहुत देर हो गई थी,
हमारी एक टांग भी
सो गई थी।
सो हम उठ्ठे,
एक आदरणीय कवि हमसे सार्थक निगाहों से
पूछ बैठे-
कहां?
तो हमने अपनी कन्नी ऊँगली उठाई-
वहां,
और मंच से उतर आये।
मंच से उतर आए तो सोचा
कर भी आयें,
चलो इस तरफ से भी
राहत पा जाएं
तो मंच के पिछवाड़े घूमने लगे
कोयी उचित, सही-सी-जगह
ढूंढने लगे।
चलते चलते
एक गली के मोड़ तक आ गए
एक सुरक्षित सी जगह पा गये
और जब हम गुनगुनाते हुए...करने लगे
किसी ने कमर में डंडा गड़ाया
मुड़कर देखा तो
सिपाही नज़र आया
हम हैरान,
उसके चेहरे पर क्रूर मुस्कान
डंडा हटा के गुर्राया-
चलो एक तो पकड़ में आया।
हमने कहा-
क्या मतलब?
वो बोला-
मतलब के बच्चे
पब्लिक प्लेस पर
... करना मना है
हमने कहा-
ऐसा कोयी कानून नहीं बना है।
वो बोला-
अबे ज़बान लडाता है,
हमीं को कानून सिखाता है
चल थाने।
और हम लगे हकलाने-
सि...सि...सि...सिपाही जी
हम कवि हैं,
कविताएं सुनाते हैं
वो बोला-
पिछले दो भी
खुद को कवि बता रहे थे इसीलिए छोड़ा है
तुझे नहीं छोडूंगा
हो जा मुश्तैद
दिल्ली पुलीस एक्ट सैक्शन पिचानवे
सौ रुपया जुर्माना
आठ दिन की कैद
हल्ला मचाएगा
बानवे लग जाएगी
तू तड़ाक बोलेगा
तिरानवे लग जाएगी
हमने कहा-
सिपाही जी
बानवे, तिराने, पिचानवे
क्या बलाएं हैं?
वो मुछों पर हाथ घुमाते हुए बोला
कानून की धाराएं हैं।
हमने सोचा वाह वाह रे कानून हमारा
धारा बहाने पर भी धारा?
8. सिपाही और कविता - अशोक चक्रधर
दरवाजा पीटा किसी ने सबेरे-सबेरे
मैं चीखा; भाई मेरे;
घंटी लगी है, बटन दबाओ
मुक्केबाजी का अभ्यास मत दिखाओ;
दरवाज खोला तो सिपाही था
हमारे दिमाग के लिए तबाही था
सुबह-सुबह देखी खाकी वर्दी
तो लगने लगी सर्दी
मैंने पूछा; कैसे पधारे?
वो बोला; आपको देख लिया है.
आपको देख लिया है
इसलिए रोजाना आयेंगे आपके दुआरे
सुनकर पसीने आ गए
खोपड़ी पर भयानक काले बादल छा गए
मैंने कहा; क्या?
रोजाना आयेंगे
यानि आप मुझे किसी झूठे केस में फसायेंगे
उसने कहा; ;नहीं-नहीं, अशोक जी ऐसा मत सोचिये
आप पहले पसीना पोछिये
मैं करतार सिंह, पुलिस में हवालदार हूँ
लेकिन मूलतः एक कलाकार हूँ
मुझे सही रास्ता दिखा दें
मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ
मुझे कविता लिखना सिखा दें
सुनकर तसल्ली हुई
हम भी हैं छुई-मुई
बेकार ही घबराए हैं
तो आप कविता सीखने आए हैं
लेकिन पुलिस और कविता
ये मामला थोड़ा नहीं जमता
उसने कहा मामला तो मैं जमाऊंगा
बस तुम शिष्य बना लो
जो कहोगे लिख के दिखाऊंगा
मैंने सोचा ये तो आप से तुम पर आ गया
मामले को तो नहीं
मुझे अपना शिष्य जरूर बना गया
फिर भी मैंने कहा; ठीक है, पहले लिख कर दिखाओ
अच्छा लगा तो शिष्य बनाऊंगा
वरना क्षमा चाहूंगा
उसने कहा; अभी लिखूं? अभी सुनाऊं?
मैंने कहा; नहीं
पहले मैं विषय बताता हूँ
उसपर लिखना है
उसने कहा; क्या विषय है?
मैंने कहा; शाम का समय है
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
चिडियां चहचहा रही हैं
मेढक टर्रा रहे हैं
पहाड़ों के पीछे सूरज डूब रहा है
और एक आदमी बैठा ऊब रहा है
तो शाम का समय और आदमी की उदासी
इसपर कविता लिखा कर दिखाओ
लम्बी नहीं, जरा सी
उसने कहा; अच्छा नमस्कार चलता हूँ
कल फिर लौट कर मिलता हूँ
मैंने सोचा
कविता लिखना कोई ऐसी-वैसी बात तो है नहीं
लेकिन वो तो अगले दिन फिर आ धमका
एक हाथ में डंडा और दूसरे में कागज़ चमका
बोला; सुनिए गुरूजी और देना शाबासी
कविता लम्बी नहीं जरा सी
शाम का समय और आदमी की उदासी
अब सिपाही कविता सुना रहा है;
कोतवाली के घंटे जैसा पीला-पीला सूरज
धीरे-धीरे एसपी के चेहरे सा गुलाबी हो गया
जी सिताबी हो गया
एक जेबकतरे की फोड़ी हुई खोपड़ी सा लाल हो गया
जी कमाल हो गया
हथकड़ियों की खनखनाहट
जैसी चिडियां चहचहाएं
मेढक के टर्राटों जैसे जूते ऐसे चरमराएँ
और ऐसे सिपाही की वर्दी में सूरज
दिन-दहाड़े सब के आगे
पहाडों के पीछे
तस्करों की तरह फरार हो गया
जी अन्धकार हो गया
ये शाम क्या हुई, सत्यानाश हो गया
और ऐसे में एक सिपाही जेबकतरे की
जेब खली मिलने से उदास हो गया
जी निराश हो गया
ये शाम क्या हुई सत्यानाश हो गया
बोला; कहिये गुरूजी
कैसी रही कविता
चेला जमता कि नहीं जमता
मैंने कहा; मान गए यार
तुम कवि भी उतने अच्छे हो, जितने अच्छे हवलदार
उसने कहा; फिर नारियल लाऊँ?
गंडा बांधू?
मैंने कहा; ये नारियल-वारियल सब बेकार है
तुम्हें शिष्य बनाना हमें स्वीकार है
जो देखो, वही लिखो, यही गुरुमंत्र है
वैसे तुम्हारी लेखनी स्वतंत्र है
कुछ भी लिखो, लेकिन मस्त लिखो
इतना कहकर मैंने उसे टरकाया
लेकिन साहब वो तो दूसरे दिन फिर आया
मैंने पूछा; क्या हुआ करतार?
वो बोले; गुरूजी गजब हो गया
मैंने पूछा; क्या हुआ?
बोला; एक आदमी का कतल हो गया
मैंने पूछा, किसका हुआ?
वो बोला; ;भगवान की दुआ
गजब हो गया, मैंने इसलिए नहीं कहा कि कतल हो गया
वो तो होते रहते हैं
लेकिन इस कतल के चक्कर में
अपनी नई कविता बन गई गुरूजी
मुकद्दर इसको कहते हैं
उसने एक और कविता ठेल दी
डंडे का जैसे ही काम ख़त्म हुआ था
मुजरिमों को पीट के निश्चिंत हुआ था
इतने में दरोगा ने बुला लिया मुझे
बोला, कत्ल हो गया है जाओ जल्दी से
दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
सस्पेंस देख रहे हैं गुरु जी क्या होता है?
तो दरवाजे पर औंधे मुंह एक लाश पडी थी
और लाश की कलाई में विदेशी घड़ी थी
गले में सोने की चेन, रस्सी के निशान
चार बार चाकू किया पीठ में प्रदान
हत्यारा भी कोई बुद्धिजीवी बड़ा था
एक भी निशान उसने नहीं छोड़ा था
फिर भी फोटो लिए, फोटोग्राफर ने उतारी
मैं भी खडा था, मेरी भी फोटो आ गई
तो कल जाकर फोटोग्राफर से एक कॉपी लाऊँगा
लाश को काटकर फ्रेम में लगाऊंगा
उसके बाद पंचनामा तैयार करवाया
फिंगरप्रिंट वाला जरा देर से आया
हमने मिलकर लाश को मॉर्ग में फेंका
हमने सबकी नज़रें बचाकर मौका एक देखा
पिछवाडे आया तो बेंच एक दिखी
बैठकर उस बेंच पर ये कविता लिखी
कहिये गुरूजी कैसी रही कविता?
मैं मौन था
मैंने कहा, जिस आदमी का कत्ल हुआ
वो कौन था?
वो बोला, अरे कोई न कोई तो होगा
ये सब तो पता करेगा दरोगा
मैंने कहा; दरोगा कि दुम,
बाहर निकल जाओ तुम
ये कविता है?
हाथ में विदेशी घड़ी, गले में सोने की चेन
ये कविता, या कविता की चिता है?
उसने कहा; वही तो लिखा है, जो दिखता है
मैंने कहा; बस, तुझे यही सब दिखता है?
तुझे और कुछ नहीं दिखता है?
तुझे अपना देश नहीं दिखता?
तुझे अपना समाज नहीं दिखता?
तुझे अपना घर नहीं दिखता?
तू इन सब पर क्यों नहीं लिखता?
तो साहब, वो लौट गया
और जब आखिरी बार आया
तो कुछ उदास-उदास, मुरझाया-मुरझाया
मैंने पूछा; क्या हुआ करतार?
बोला; घर पर लिखी है इसबार
घर पर लिखी है इसबार
शीर्षक है हर बार
हर बार दमियल माँ की अंग्रेजी दवाई
हर बार आंटा, दाल, गुड की मंहगाई
हर बार बराबर की तनख्वाह खा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है
हर बार मकान-मालिक सिपाही से नहीं डरता है
हर बार राशन वाला इंतजार नहीं करता है
हर बार वर्दी धुलवाना मजबूरी है
हर बार जूते चमकाना मजबूरी है
लेकिन मुरझाये चेहरों पर चमक नहीं आती है
आफतों की काँटा-बेल घर पर छा जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है
हर बार चंपा की धोती रह जाती है
हर बार मुनिया स्लेट को रोती रह जाती है..हरबार
हर बार चंपा की धोती रह जाती है..हरबार
मैंने कहा; वाह करतार, बधाई है
इसबार तो तुने सचमुच कविता सुनाई है
और अब मैं गुरु और चेले की बात भूलूँ
तेरे चरण कहाँ हैं, ला छू लूँ
और ये सच है करतार
मेरे परम मित्र, मेरे यार
कि कविता लिखना कोई क्रीडा नहीं है
जिसमें मानवता की पीड़ा नहीं है
जिसमें जमाने का गर्द नहीं है
जिसमें इंसानियत का दर्द नहीं है
वो और कुछ हो सकती है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
कविता नहीं है
9. चट्टे मियां बट्टे मियां - अशोक चक्रधर
(लोकतंत्र का बड़ा रहस्यवादी
लोक है चुनाव-तंत्र)
थैली से निकलकर
चट्टे मियां ने चुनाव लड़ा,
थैली से ही निकलकर
बट्टे मियां ने भी चुनाव लड़ा।
चट्टे मियां जीत गए
थैली में आ गए,
बट्टे मियां हार गए
थैली में आ गए।
थैली मगर थैली थी
खुशियों में फैली थी|
बोली— मेरी ही बदौलत
ये सब हट्टे-कट्टे हैं,
और कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझ पर
कोई हारे या जीते
ये सब मेरे ही चट्टे-बट्टे हैं।
अगली बार चट्टे मियां और बट्टे मियां
फिर से मैदान में आए,
मूंछों में मुस्कुराए।
चट्टे बोला— देख बट्टे!
हमारे अनुभव
कभी मीठे कभी खट्टे रहे,
सुख दुख तो दोनों ने
बराबर ही सहे।
पर इस बार स्थिति मज़ेदार बड़ी है,
हम दोनों वोटर हैं
चुनाव में जनता खड़ी है।
बोलो कौन सी जनता लोगे?
मुझे कौन सी दोगे?
और बंधुओ,
कवि ने उस समय खोपड़ी धुन ली,
जब सुख, समृद्दि
और ख़ुशहाली के लिए
चट्टे और बट्टे ने
एक एक जनता चुन ली।
10. आलपिन कांड - अशोक चक्रधर
बंधुओ, उस बढ़ई ने
चक्कू तो ख़ैर नहीं लगाया
पर आलपिनें लगाने से
बाज़ नहीं आया।
ऊपर चिकनी-चिकनी रैग्ज़ीन
अंदर ढेर सारे आलपीन।
तैयार कुर्सी
नेताजी से पहले दफ़्तर में आ गई,
नेताजी आए
तो देखते ही भा गई।
और,
बैठने से पहले
एक ठसक, एक शान के साथ
मुस्कान बिखेरते हुए
उन्होंने टोपी संभालकर
मालाएं उतारीं,
गुलाब की कुछ पत्तियां भी
कुर्ते से झाड़ीं,
फिर गहरी उसांस लेकर
चैन की सांस लेकर
कुर्सी सरकाई
और भाई, बैठ गए।
बैठते ही ऐंठ गए।
दबी हुई चीख़ निकली, सह गए
पर बैठे-के-बैठे ही रह गए।
उठने की कोशिश की
तो साथ में कुर्सी उठ आई
उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई-
किसने बनाई है?
चपरासी ने पूछा- क्या?
क्या के बच्चे कुर्सी!
क्या तेरी शामत आई है?
जाओ फ़ौरन उस बढ़ई को बुलाओ।
बढ़ई बोला-
सर मेरी क्या ग़लती है
यहां तो ठेकेदार साब की चलती है।
उन्होंने कहा-
कुर्सियों में वेस्ट भर दो
सो भर दी
कुर्सी आलपिनों से लबरेज़ कर दी।
मैंने देखा कि आपके दफ़्तर में
काग़ज़ बिखरे पड़े रहते हैं
कोई भी उनमें
आलपिनें नहीं लगाता है
प्रत्येक बाबू
दिन में कम-से-कम
डेढ़ सौ आलपिनें नीचे गिराता है।
और बाबूजी,
नीचे गिरने के बाद तो
हर चीज़ वेस्ट हो जाती है
कुर्सियों में भरने के ही काम आती है।
तो हुज़ूर,
उसी को सज़ा दें
जिसका हो कुसूर।
ठेकेदार साब को बुलाएं
वे ही आपको समझाएं।
अब ठेकेदार बुलवाया गया,
सारा माजरा समझाया गया।
ठेकेदार बोला-
बढ़ई इज़ सेइंग वैरी करैक्ट सर!
हिज़ ड्यूटी इज़ ऐब्सोल्यूटली
परफ़ैक्ट सर!
सरकारी आदेश है
कि सरकारी सम्पत्ति का सदुपयोग करो
इसीलिए हम बढ़ई को बोला
कि वेस्ट भरो।
ब्लंडर मिस्टेक तो आलपिन कंपनी के
प्रोपराइटर का है
जिसने वेस्ट जैसा चीज़ को
इतना नुकीली बनाया
और आपको
धरातल पे कष्ट पहुंचाया।
वैरी वैरी सॉरी सर।
अब बुलवाया गया
आलपिन कंपनी का प्रोपराइटर
पहले तो वो घबराया
समझ गया तो मुस्कुराया।
बोला-
श्रीमान,
मशीन अगर इंडियन होती
तो आपकी हालत ढीली न होती,
क्योंकि
पिन इतनी नुकीली न होती।
पर हमारी मशीनें तो
अमरीका से आती हैं
और वे आलपिनों को
बहुत ही नुकीला बनाती हैं।
अचानक आलपिन कंपनी के
मालिक ने सोचा
अब ये अमरीका से
किसे बुलवाएंगे
ज़ाहिर है मेरी ही
चटनी बनवाएंगे।
इसलिए बात बदल दी और
अमरीका से भिलाई की तरफ
डायवर्ट कर दी-
11. देर कर दी - अशोक चक्रधर
नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रहकर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली।
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।
12. घपला-घपला है सर बहुत घपला है - अशोक चक्रधर
(आर्थिक घपलों के साथ सांस्कृतिक-स्वार्थिक
घपलों पर होली की एक ठिठोली।)
एक इंस्पैक्टर
पुल निर्माण कार्य की
जांच करने आया,
नदी पर तो नहीं लेकिन
ठेकेदार और इंजीनियर के बीच
उसने पुल बना पाया।
और पुल!
पुल भी बेहद मज़बूत
न कहीं टूट-फूट न कहीं दरार,
खुश इंजीनियर खुश ठेकेदार।
शाम के समय
जब इंस्पैक्टर कार्यालय पहुंचा
तो ऑफ़ीसर ने पूछा-
क्या समाचार लाए?
बड़ी जल्दी लौट आए।
इंस्पैक्टर बोला-
सर, हालात का क्या कहना है,
पुल नदी पर नहीं
ठेकेदार और इंजीनियर के बीच
बना है।
घपला है सर बहुत घपला है
और मेरा अध्ययन तो ये बताता है,
कि सामान इधर से उधर जाता है।
ऑफ़ीसर ने पूछा- इसका प्रमाण?
इंस्पैक्टर बोला-
प्रमाण के रूप में
इनकी जीती-जागती संतान।
सर, घपला है इस बात की ख़बर
इनकी संतानों से ही मिलती है,
क्योंकि ठेकेदार के बेटे की श़क्ल
इंजीनियर से
और इंजीनियर के बेटे की श़क्ल
ठेकेदार से मिलती है।
13. अपनी-अपनी प्रार्थना - अशोक चक्रधर
(तुम अपनी प्रार्थना करो
मैं अपनी प्रार्थना करूंगा!)
मंदिर में श्रीमानजी
प्रार्थना कर रहे थे—
ओ भगवान! ओ भगवान!!
रोटी दे दो,
कपड़ा दे दो,
दे दो एक मकान!
ओ भगवान! ओ भगवान!!
इतने में
मोटी तोंद वाला
एक पुजारी आया,
और सुनते ही चिल्लाया—
ओ जिजमान! ओ जिजमान!!
क्या करता है
क्या बकता है
नहीं तुझे कुछ ध्यान?
वस्तुत:, प्रार्थना करना
तुझे नहीं आता है,
तात, इतना भी नहीं ज्ञात
कि भगवान से
क्या मांगा जाता है?
सुन, ईश्वर से तनिक डर,
प्रार्थना मेरी तरह कर—
हे प्रभो तुम ज्ञान दो
मन-बुद्धि शुद्ध-पवित्र दो,
सत्य दो,
ईमानदारी और उच्च-चरित्र दो।
श्रीमानजी बोले—
पुजारी जी,
मैं तुमसे बिल्कुल नहीं डरूंगा,
तुम अपनी प्रार्थना करो
मैं अपनी करूंगा!
और इस बात को तो
हर कोई जानता है,
कि जिस पर
जो चीज़ नहीं होती
वही मांगता है।
14. गुर्गादास - अशोक चक्रधर
(चुनाव-सुधार का पहला चरण है
पार्टियों द्वारा सही प्रत्याशी का चयन)
गुर्गादास, दिखे कुछ उदास-उदास।
श्रीमानजी बोले— कष्ट क्या है ज़ाहिर हो?
वे बोले— आजकल उल्लू टेढ़ा चल रहा है।
—लेकिन तुम तो उसे
सीधा करने में माहिर हो!
साफ़-साफ़ बताओ कि क्या चाहिए?
वे बोले— टिकट दिलवाइए।
—कहां का? दिल्ली का, मुंबई का,
या उज्जैन, उन्नाव का?
वे बोले— नहीं, नहीं, चुनाव का।!
—अभी तो तुम्हें एक पार्टी ने निकाला है,
अब दिल में किस पार्टी का उजाला है?
वे बोले— पार्टी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
पड़ता है अंटी के पैसे और इलाक़े से।
श्रीमानजी ने पूछा— सो कैसे?
—वह सब छोड़िए पर चुनाव के अलावा
हमारे आगे कोई रास्ता नहीं है,
अपनी राजनीति का
नैतिकता से कोई वास्ता नहीं है।
एक व्यवसाय, जिसकी बेशुमार आय,
जीतने वाले के पौ-बारह
तो हारने वाला पौ-तेरह पाय!
मुद्दा कमल हल करे या साइकिल
लालटेन करे या लट्टू
घड़ी करे या झोंपड़ी
हाथी करे या हाथ का पंजा,
बस एक बार कस जाए शिकंजा।
श्रीमानजी बोले— गुर्गादास!
तुम जिस दल में जाओगे
उसका करोगे सत्यानास!!
हमारी शुभकामना है कि
माल खाते रहो हराम का,
टिकिट तो मिले पर स्वर्गधाम का।
15. एकसंख्यक - अशोक चक्रधर
(कोई नहीं सोचता, कोई नहीं देखता
कि क्या होती है धर्मनिरपेक्षता)
अचानक पाया कि मैं बाहर की दुनिया में
कुछ इस क़दर बह गया हूं,
कि अपने, ख़ास अपने घर के अंदर
मैं अल्पसंख्यक तो क्या
सिर्फ़ एकसंख्यक रह गया हूं।
दोनों बच्चे मां की मानते हैं,
आदर के नाम पर
दादी-बाबा नानी-नाना को जानते हैं।
फिर सोचता हूं बहुसंख्यक
है ही कौन इस देश में?
सभी अल्पसंख्यक है अपने परिवेश में।
मुसलमान, सिख, ईसाई
जैन, बौद्ध, आदिवासी, कबीलाई
बंगाली, मराठी, गुजराती
कश्मीरी, अनुसूचित, आर्यसमाजी
तमिल, द्रविड़, सनातनी,
और फिर इनके भी फ़िरके-दर-फ़िरके
और उनकी तनातनी।
गूजर अहीर जाट बामन और बनिए
इनमें भी अलग गोत्र अलग वंश चुनिए।
श्वेताम्बरी दिगम्बरी निरंकारी अकाली
शिया और सुन्नी
अलग लोटा अलग थाली।
ऊंची जात का छोटी जात को खा रहा है,
आदमी आदमी का ख़ून बहा रहा है।
कोई नहीं सोचता कोई नहीं देखता,
इसको कहते हैं— धर्म निरपेक्षता।
संप्रदाय की खाइयां हैं धर्म की खंदक हैं,
लोग संकीर्णताओं के बंधक हैं।
सच पूछिए तो बहुसंख्यक कोई नहीं है
इस देश में हैं तो सिर्फ़ अल्पसंख्यक हैं।
सोचता हूं घर में एकसंख्यक होना
अच्छी बात नहीं है,
आदमी अकेलेपन में खो सकता है,
क्या मेरा देश पूरी दुनिया की नज़रों में
एकसंख्यक हो सकता है?
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ashok Chakradhar) #icon=(link) #color=(#2339bd)