Hindi Kavita
हिंदी कविता
Aradhana Suryakant Tripathi Nirala
आराधना सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
1. गोरे अधर मुस्काई-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
गोरे अधर मुस्काई
हमारी वसन्त विदाई ।
अंग-अंग बलखाई
हमारी वसन्त विदाई ।
परिमल के निर्झर जो बहे ये,
नयन खुले कहते ही रहे ये-
जग के निष्ठुर घात सहे ये,
बात न कुछ बन पाई,
कहाँ से कहाँ चली आई ।
भाल लगा ऊषा का टीका,
चमका सहज संदेसा पी का,
छूटा भय-पतिपावन जी का,
फूटी तरुण अरुणाई,
कि छूट गई और सगाई ।
2. पद्मा के पद को पाकर हो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पद्मा के पद को पाकर हो
सविते, कविता को यह वर दो।
वारिज के दृग रवि के पदनख
निरख-निरखकर लहें अलख सुख;
चूर्ण-ऊर्मि-चेतन जीवन रख
हृदय-निकेतन स्वरमय कर दो।
एक दिवस के जीवन में जय,
जरा-मरण-क्षय हो निस्संशय,
जागे करुँणा, अक्षतपश्चय,
काल एक को सुकराकर हो।
मेरी अलक धूलिपग पोंछे,
श्रम शरीर का पलक अँगोछे,
उठें ऊर्ध्व मन से जो ओछे,
दुख के सुख जियो, पियो ज्वाला,
शंकर की स्मर-शर की हाला।
शाशि के लाञ्छन हो सुन्दरतर,
अभिशाप समुत्कल जीवन-वर
वाणी कल्याणी अविनश्वर
शरणों की जीवन-पण माला।
उद्वेल हो उठो भाटे से,
बढ़ जाओ घाटे-घाटे से।
ऐंठो कस आटे-आटे से,
भर दो जीकर छाला-छाला।
धाये धाराधर धावन हे !
गगन-गगन गाजे सावन हे !
प्यासे उत्पल के पलकों पर
बरसे जल धर-धर-धर-धर-धर,
शीकर – शीकर से श्रम पीकर;
नयन – नयन आये पावन हे !
श्याम दिगन्त दाम-छबि छायी,
बही अनुत्कुण्ठित पुरवाई,
शीतलता-शीतलता आयी,
प्रियतम जीवन-मन भावन हे !
आयीं कल जैसी पल
खिंचे-खिंचे रहे सकल।
स्यन्दन नभ से उतरा,
हुआ स्पन्द और खरा,
निखरी जो दृष्टि परा,
दिखे दिव्य नयनोत्पल।
काँपे दिग्वास तरुण,
लहरा निश्वास अरुण,
हुई धरा करुण-करुण,
जागा यौवन, मंगल।
कमल – कमल युगपदतल,
नील सरोवर जल, थल।
ऊर्मिल मृदु गन्ध हास,
भू पर फैला प्रकाश,
छाया दिड्मधुर वास,
प्रतिपल कलकल कलकल।
खुली हुई केशराशि,
दृष्टि राम-श्याम भासि,
जीवन की मरण-पाशि,
समाश्वासि काशी कल।
मरा हूँ हजार मरण
पायी तब चरण-शरण।
फैला जो तिमिर-जाल
कट-कटकर रहा काल,
आसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।
जल-कलकल-नाद बढ़ा,
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।
अरघान की फैल,
मैली हुई मालिनी की मृदुल शैल।
लाले पड़े हैं,
हजारों जवानों कि जानों लड़े हैं;
कहीं चोट खायी कि कोसों बढ़े हैं,
उड़ी आसमाँ को खुरीधूल की गैल-
अरघान की फैल।
काटे कट काटते ही रहे तो,
पड़े उम्रभर पाटते ही रहे तो,
अधूरी कथाओं,
कटारी व्याथाओं,
फिरा जीं जबानें कि ज्यों बाल में बैल।
रँग रँग से यह गागर भर दो,
निष्प्राणों को रसमय कर दो।
माँ, मानस के सित शतदल को
रेणु-गन्ध के पंख खिला दो,
जग को मंगल मंगल के पग
पार लगा दो, प्राण मिला दो;
तरु को तरुण पत्र-मर्मर दो।
खग को ज्योतिःपुञ्ज प्रात दो
जग-ठग को प्रेयसी रात दो,
मुझको कविता का प्रपात दो,
अविरत मारण-मरण हाथ दो,
बँधे परों के उड़ते वर दो !
छेड़ दे तार तू पुनर्वार
फिर हो अरण्य में चरणचार।
फिर घाटी-घाटी से बँधकर
वातुल घूमें झूमकर भँवर,
प्राणों की पावनता भरकर
खोले स्वर की सुन्दर विचार।
जङ्गम को जड़, जड़ को जङ्गम
कर दे, भर दे सम और विषम,
उठते गिरते स्वर के निरुपम
सरिगम तोड़ें दुर्दम चहार।
आज मन पावन हुआ है,
जेठ में सावन हुआ है।
अभी तक दृग बन्द थे ये,
खुले उर के छन्द थे ये,
सुजल होकर बन्द थे ये,
राम अहिरावण हुआ है।
कटा था जो पटा रहकर,
फटा था जो सटा रहकर,
डटा था जो हटा रहकर,
अचल था, धावन हुआ है।
सुख के दिन भी याद तुम्हारी
की है, ली है राह उतारी।
उपवन में यौवन के निरलस
बैठी थी, तनमन विरस-विरस,
आये लाख बार बासे, बस
हुई दशा सारी की सारी।
मेरे मानस को उभारकर
अन्तर्धान हो गये सत्वर,
उठी अचानक मैं जैसे स्वर,
कोकिल की काकली सँवारी।
कृष्ण कृष्ण राम राम,
जपे हैं हज़ार नाम।
जीवन के लड़े समर,
डटे रहे, हारे स्तर,
स्मर के शर के मर्मर,
गये, पुनः जिते धाम।
ऐसे उत्थान-पतन,
भरा हुआ है उपवन,
प्राणों का गमागमन,
हैं प्रमाण से प्रणाम।
दिखे दित्य सभी लोक
शोकहर विटप अशोक,
नैश चन्द्र और कोक,
आकर्षण या विराम।
उर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र,
माझ मान मेष मन्द्र।
क्षण-क्षण विद्युत प्रकाश,
गुरु गर्जन मधुर भास,
कुज्झटिका अट्टहास,
अन्तर्दृग विनिस्तन्द्र।
विश्व अखिल मुकुल-बन्ध,
जैसे यतिहीन छन्द,
सुख की गति और मन्द,
भरे एक-एक रन्ध्र।
3. यह संसार सभी बदला है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
ऊँट-बैल का साथ हुआ है;
कुत्ता पकड़े हुए जुआ है।
यह संसार सभी बदला है;
फिर भी नीर वही गदला है,
जिससे सिंचकर ठण्डा हो तन,
उस चित-जल का नहीं सुआ है।
रूखा होकर ठिठुर गया है;
जीवन लकड़ी का लड़का है,
खोले कोंपल, फले फूलकर
तरु-तल वैसा नहीं कुआँ है।
(15 दिसम्बर, 1952)
4. दुख भी सुख का बन्धु बना-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
दुख भी सुख का बन्धु बना
पहले की बदली रचना ।
परम प्रेयसी आज श्रेयसी,
भीति अचानक गीति गेय की,
हेय हुई जो उपादेय थी,
कठिन, कमल-कोमल वचना ।
ऊँचा स्तर नीचे आया है,
तरु के तल फैली छाया है,
ऊपर उपवन फल लाया है,
छल से छुट कर मन अपना ।
(7 दिसम्बर, 1952)
5. सीधी राह मुझे चलने दो-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सीधी राह मुझे चलने दो।
अपने ही जीवन फलने दो।
जो उत्पात, घात आए हैं,
और निम्न मुझको लाए हैं,
अपने ही उत्ताप बुरे फल,
उठे फफोलों से गलने दो।
जहाँ चिन्त्य हैं जीवन के क्षण,
कहाँ निरामयता, संचेतन?
अपने रोग, भोग से रहकर,
निर्यातन के कर मलने दो।
(7 दिसम्बर, 1952)
6. मरा हूँ हजार मरण-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मरा हूँ हजार मरण
पाई तब चरण-शरण ।
फैला जो तिमिर जाल
कट-कटकर रहा काल,
आँसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण ।
जल-कलकल-नाद बढ़ा
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण ।
7. अरघान की फैल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
अरघान की फैल,
मैली हुई मालिनी की मृदुल शैल।
लाले पड़े हैं,
हजारों जवानों कि जानों लड़े हैं;
कहीं चोट खाई कि कोसों बढ़े हैं,
उड़ी आसमाँ को खुरीधूल की गैल-
अरघान की फैल।
काटे कटी काटते ही रहे तो,
पड़े उम्रभर पाटते ही रहे तो,
अधूरी कथाओं,
करारी व्यथाओं,
फिरा दीं जबानें कि ज्यों बाल में बैल।
8. दुखता रहता है अब जीवन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
दुखता रहता है अब जीवन;
पतझड़ का जैसा वन-उपवन ।
झर-झर कर जितने पत्र नवल
कर गए रिक्त तनु का तरुदल,
हैं चिह्न शेष केवल सम्बल,
जिनसे लहराया था कानन ।
डालियाँ बहुत-सी सूख गईं,
उनकी न पत्रता हुई नई,
आधे से ज़्यादा घटा विटप,
बीज जो चला है ज्यों क्षण-क्षण ।
यह वायु वसन्ती आई है
कोयल कुछ क्षण कुछ गाई है,
स्वर में क्या भरी बुढ़ाई है,
दोनों ढलते जाते उन्मन ।
9. सुख का दिन डूबे डूब जाए-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
सुख का दिन डूबे डूब जाए ।
तुमसे न सहज मन ऊब जाए ।
खुल जाए न मिली गाँठ मन की,
लुट जाए न उठी राशि धन की,
धुल जाए न आन शुभानन की,
सारा जग रूठे रूठ जाए ।
उलटी गति सीधी हो न भले,
प्रति जन की दाल गले न गले,
टाले न बान यह कभी टले,
यह जान जाए तो ख़ूब जाए ।
10. हे मानस के सकाल-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
हे मानस के सकाल !
छाया के अन्तराल !
रवि के, शशि के प्रकाश,
अम्बर के नील भास,
शारदा घन गहन-हास,
जगती के अंशुमाल ।
मानव के रूप सुघर,
मन के अतिरेक अमर,
निःस्व विश्व के सुन्दर,
माया के तमोजाल ।
11. नील नयन, नील पलक-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
नील नयन, नील पलक;
नील वदन, नील झलक ।
नील-कमल-अमल-हास
केवल रवि-रजत भास
नील-नील आस-पास
वारिद नव-नील छलक ।
नील-नीर-पान-निरत,
जगती के जन अविरत,
नील नाल से आनत,
तिर्यक-अति-नील अलक ।
12. हारता है मेरा मन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
हारता है मेरा मन विश्व के समर में जब
कलरव में मौन ज्यों
शान्ति के लिए, त्यों ही
हार बन रही हूँ प्रिय, गले की तुम्हारी मैं,
विभूति की, गन्ध की, तृप्ति की, निशा की ।
जानती हूँ तुममें ही
शेष है दान--मेरा अस्तित्व सब
दूसरा प्रभात जब फैलेगा विश्व में
कुछ न रह जाएगा तुझमें तब देने को ।
किन्तु आजीवन तुम एक तत्त्व समझोगे--
और क्या अधिकतर विश्व में शोभन है,
अधिक प्राणों के पास, अधिक आनन्द मय,
अधिक कहने के लिए प्रगति सार्थकता ।
13. भग्न तन, रुग्ण मन-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
भग्न तन, रुग्ण मन,
जीवन विषण्ण वन ।
क्षीण क्षण-क्षण देह,
जीर्ण सज्जित गेह,
घिर गए हैं मेह,
प्रलय के प्रवर्षण ।
चलता नहीं हाथ,
कोई नहीं साथ,
उन्नत, विनत माथ,
दो शरण, दोषरण ।
14. अशरण-शरण राम-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
अशरण-शरण राम,
काम के छवि-धाम ।
ऋषि-मुनि-मनोहंस,
रवि-वंश-अवतंस,
कर्मरत निश्शंस,
पूरो मनस्काम ।
जानकी-मनोरम,
नायक सुचारुतम,
प्राण के समुद्यम,
धर्म धारण श्याम ।
15. ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
ऊर्ध्व चन्द्र, अधर चन्द्र,
माझ मान मेघ मन्द्र ।
क्षण-क्षण विद्युत प्रकाश,
गुरु गर्जन मधुर भास,
कुज्झटिका अट्टहास,
अन्तर्दृग विनिस्तन्द्र ।
विश्व अखिल मुकुल-बन्ध
जैसे यतिहीन छन्द,
सुख की गति और मन्द,
भरे एक-एक रन्ध्र ।
16. रहते दिन दीन शरण भज ले-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
रहते दिन दीन शरण भज ले ।
जो तारक सत वह पद-रज ले ।
दे चित अपने ऊपर के हित
अंतर के बाहर के अवसित
उसको जो तेरे नहीं सहित
यों सज तू, कर सत की धज ले ।
जब फले न फल तू हो न विकल,
करके ढब करतब को कर कल;
इस जग के मग तू ऐसे चल,
नूपुर जैसे उर में बज ले ।
17. बात न की तो क्या बन आती-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बात न की तो क्या बन आती ।
नूपुर की कब रिन-रन आती ।
बन्द हुई जब उर की भाषा,
समर विजय की तब क्या आशा,
बढ़ी नित्यप्रति और निराशा,
बिना डाल कलि क्या तन आती ?
बली वारिद के बिना जुआ है,
मुख न रहा तो असुख मुआ है,
कलप-कलप कर कलुष हुआ है,
दो नहीं मिले क्या ठन आती ?
18. पार-पारावार जो है-सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पार-पारावार जो है
स्नेह से मुझको दिखा दो,
रीति क्या, कैसे नियम,
निर्देश कर करके सिखा दो ।
कौन से जन, कौन जीवन,
कौन से गृह, कौन आंगन,
किन तनों की छांह के तन,
मान मानस में लिखा दो ।
पठित या निष्पठित वे नर,
देव या गंधर्व किन्नर,
लाल, पीले, कृष्ण धूसर,
भजन क्या भोजन चखा दो ।
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