Hindi Kavita
हिंदी कविता
हिन्दी कविता - आलम शेख
Hindi Poetry/Shayari Aalam Sheikh
1. प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे - आलम शेख
प्रेमरंग-पगे जगमगे जगे जामिनी के,
जोवन की जोति जगी जोर उमगत हैं ।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं,
आलम सो नवल निकाई इन नैनन की,
पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं ।
चाहत हैं उडिबे को,देखत मयंक मुख,
जानत है रैनि तातें ताहि में रहत हैं ।
2. चंद्रिका चकोर देखै निसि दिन करै लेखै - आलम शेख
चंद्रिका (चंद को)चकोर देखै निसि दिन करै लेखै,
चंद बिन दिन दिन लागत अंधियारी है ।
आलम सुकवि कहै भले फल हेत गहे,
कांटे सी कटीली बेलि ऎसी प्रीति प्यारी है ।
कारो कान्ह कहत गंवार ऎसी लागत है,
मेरे वाकी श्यामताई अति ही उजारी है ।
मन की अटक तहां रूप को बिचार कैसो,
रीझिबे को पैड़ो अरु बूझ कछु न्यारी है ।।148।।
3. नव रसमय मूरति सदा - आलम शेख
नव रसमय मूरति सदा, जिन बरने नंदलाल ।
'आलम आलम बस कियो, दै निज कविता जाल ।
4. जा थल कीन्हें बिहार अनेकन - आलम शेख
जा थल कीन्हें बिहार अनेकन, ता थल काँकरी बैठि चुन्यो करैं ।
जा रसना सों करी बहु बातन, ता रसना सो चरित्र गुन्यो करैं ।
'आलम जौन से कुंजन में करी केलि, तहाँ अब सीस धुन्यो करैं ।
नैंनन में जो सदा रहते, तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करैं ।
5. कैधौं मोर सर तजि - आलम शेख
कैधौं मोर सोर तजि, गये री अनत भाजि,
कैधौं उत दादुर, न बोलत हैं ए दई ।
कैधौं पिक चातक, महीप का मारि डारे,
कैधौं बकपाँति, उत अंतगत ह्वै गई ।
'आलम कहै हो आली, अजँ न आये प्यारे,
कैधौं उत रीति बिपरीत बिधि नै ठई ।
मदन महीप की, दोहाई फिरिबे तें रही,
जूझि गये मेघ कैधौं दामिनी सती भई ।
6. रात के उनींदे अरसाते - आलम शेख
रात के उनींदे अरसाते, मदमाते राते
अति कजरारे दृग तेरे यों सुहात हैं ।
तीखी तीखी कोरनि करोरि लेत काढ़े जिउ,
केते भए घायल औ केते तफलात हैं ।
ज्यों ज्यों लै सलिल चख 'सेख' धोवै बार बार,
त्यों त्यों बल बुंदन के बार झुकि जात हैं ।
कैबर के भाले, कैधौं नाहर नहनवाले,
लोहू के पियासे कहूँ पानी तें आघात हैं ?
7. दाने की न पानी की - आलम शेख
दाने की न पानी की, न आवै सुध खाने की,
याँ गली महबूब की अराम खुसखाना है ।
रोज ही से है जो राजी यार की रजाय बीच,
नाज की नजर तेज तीर का निशाना है ।
सूरत चिराग रोशनाई आसनाई बीच,
बार बार बरै बलि जैसे परवाना है ।
दिल से दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हूजै,
बेखुद फकीर, वह आशिक दिवाना है ।
8. निधरक भई, अनुगवति है नंद घर - आलम शेख
निधरक भई, अनुगवति है नंद घर,
और ठौर कँ, टोहे न अहटाति है ।
पौरि पाखे पिछवारे, कौरे-कौरे लागी रहै,
ऑंगन देहली, याहि बीच मँडराति है ।
हरि-रस-राती, 'सेख' नैकँ न होइ हाती,
प्रेम मद-माती, न गनति दिन-राति है ।
जब-जब आवति है, तब कछू भूलि जाति,
भूल्यो लेन आवति है और भूलि जाति है ।
9. सौरभ सकेलि मेलि केलि ही की बेलि कीन्हीं - आलम शेख
सौरभ सकेलि मेलि केलि ही की बेलि कीन्हीं,
सोभा की सहेली सु अकेली करतार की ।
जित ढरकैहौ कान्ह, तितही ढरकि जाय,
साँचे ही सुढारी सब अंगनि सुढार की ।
तपनि हरति 'कवि आलम परस सीरो,
अति ही रसिक रीति जानै रस-चार की ।
ससिँ को रसु सानि सोने को सरूप लैके,
अति ही सरस सों सँवारी घनसार की ।
10. सुधा को समुद्र तामें, तुरे है नक्षत्र कैधों - आलम शेख
सुधा को समुद्र तामें, तुरे है नक्षत्र कैधों,
कुंद की कली की पाँति बीन बीन धरी है ।
'आलम' कहत ऐन, दामिनी के बीज बये,
बारिज के मध्य मानो मोतिन की लरी है ।
स्वाति ही के बुंद बिम्ब विद्रुम में बास लीन्हों,
ताकी छबि देख मति मोहन की हरी है ।
तेरे हँसे दसन की, ऐसी छवि राजति है,
हीरन की खानि मानों, ससी माँहिं करी है ।
11. कछु न सुहात पै उदास परबस बास - आलम शेख
कछु न सुहात पै उदास परबस बास,
जाके बस जै तासों जीतहँ पै हारिये ।
'आलम' कहै हो हम, दुह विध थकीं कान्ह,
अनदेखैं दुख देखैं धीरज न धारिये ।
कछु लै कहोगे कै, अबोले ही रहोगे लाल,
मन के मरोरे की मन ही मैं मारिये ।
मोह सों चितैबो कीजै, चितँ की चाहि कै,
जु मोहनी चितौनी प्यारे मो तन निवारिये ।।187।।
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