अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’-फूल पत्ते Phool Patte -Ayodhya Singh

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Phool Patte Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
फूल पत्ते अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

1. पी कहाँ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

श्याम घन में है किसकी झलक।
कौन रहता है रस से भरा।
लुभा लेती है धरती किसे।
दुपट्टा ओढ़ ओढ़ कर हरा।1।
 
बड़ी अंधियारी रातों में।
बन बहुत आँखों के प्यारे।
बैठ कर खुले झरोखों में।
देखते हैं किसको तारे।2।
 
फाड़ कर नीले परदे को।
चन्द्रमा की किरणें बाँकी।
झाँकती हैं झुक झुक करके।
देखने को किसकी झाँकी।3।
 
तोड़ कर सन्नाटा जब तू।
बोलता है अपनी बोली।
लगन तब किसके माथे पर
लगाती है मंगल रोली।4।
 
कौन थल है बतला तू हमें।
नहीं वह दिखलाता है जहाँ।
पपीहा पागल बन बन बहक।
पूछता किससे है 'पी कहाँ'।5।

2. देखने वाली आँखें-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चाँद के हँसने में किसकी।
कला है बहुत लुभा पाती।
चैत की खिली चाँदनी में।
चमक किसकी है दिखलाती।1।
 
लाल जोड़ा किससे ले कर।
उषा है सदा रंग लाती।
महक प्यारी पाकर किससे।
हवा है हवा बाँधा जाती।2।
 
कौन रस वाले से रस ले।
रसीले फल बन जाते हैं।
रँग गये किसकी रंगत में।
हरापन पौधे पाते हैं।3।
 
निकल कोमल कोमल पत्ते।
पता किसका बतलाते हैं।
फबन किसकी फैली देखे।
फूल फूले न समाते हैं।4।
 
किसे अपना सिरमौर बना।
आम दिखलाता है मौरा।
भूल किसके भोलापन पर।
भाँवरें भरता है भौंरा।5।
 
रंगतें मनमानी किससे।
तितिलियों का तन लेता है।
कौन? जादू करने वाला।
कंठ कोयल को देता है।6।
 
लुभाने किसको आता है।
'लाल' सेमल फूलों से बन।
बहुत बेलमाता है किसको।
बेलियों का अलबेलापन।7।
 
झूमते हैं मतवालों से।
कौन से मद की पी प्याली।
हो गये लाल लाल महुए।
देख किस मुखड़े की लाली।8।
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लहलहाती क्यों दिखलाई।
उमंगें बन बन कर ऊबें।
हो गयी हरी भरी दुगुनी।
देख किसको दबकी दूबें।9।
 
बैठ कर मीठे कंठों में।
कब नहीं गीत सुनाता वह।
देखने वाली आँखें हों।
तो कहाँ नहीं दिखाता वह।10।

3. किसी का स्वागत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आज क्यों भोर है बहुत भाता।
क्यों खिली आसमान की लाली।
किस लिए है निकल रहा सूरज।
साथ रोली भरी लिये थाली।1।
 
इस तरह क्यों चहक उठीं चिड़ियाँ।
सुन जिसे है बड़ी उमंग होती।
ओस आ कर तमाम पत्तों पर।
क्यों गयी है बखेर यों मोती।2।
 
पेड़, क्यों हैं हरे भरे इतने।
किस लिए फूल हैं बहुत फूले।
इस तरह किसलिए खिलीं कलियाँ।
भौंर हैं किस उमंग में भूले।3।
 
क्यों हवा है सँभल सँभल चलती।
किसलिए है जहाँ तहाँ थमती।
सब जगह एक एक कोने में।
क्यों महक है पसारती फिरती।4।
 
लाल नीले सुफेद पत्तों में।
भर गये फूल बेलि बहली क्यों।
झील तालाब और नदियों में।
बिछ गईं चादरें सुनहली क्यों।5।
 
किसलिए ठाट बाट है ऐसा।
जी जिसे देख कर नहीं भरता।
किसलिए एक एक थल सज कर।
स्वर्ग की है बराबरी करता।6।
 
किसलिए है चहल पहल ऐसी।
किसलिए धूम धाम दिखलाई।
कौन सी चाह आज दिन किसकी।
आरती है उतारने आई।7।
 
देखते राह थक गईं आँखें।
क्या हुआ क्यों तुम्हें न पाते हैं।
आ अगर आज आ रहा है तू।
हम पलक पाँवड़े बिछाते हैं।8।

4. उठी आँखें-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रंग रह सका रंग बदले।
बन गयी बात, बात बिगड़े।
रहा पानी पानी खो कर।
मिटे सारे झगड़े, झगड़े।1।
 
बच गया गला, गला उतरे।
खुलीं आँखें, आँखें मूँदे।
हाथ के बिना हाथ मारा।
बिना पाँवों के ही कूदे।2।
 
बने अंधा सब कुछ देखा।
बने बहरा सब सुन पाया।
राख मिट्टी हो जाने पर।
मिली सोने की सी काया।3।
 
चेत आया अचेत हो कर।
चित खो चेतनता आई।
राह मिल गयी राह भूले।
सब गँवा सारी सिधा पाई।4।
 
सिर कटे हरे हुए पनपे।
फले फूले मिट्टी में मिल।
जल गये मिली जोत न्यारी।
हिले दिल गया फूल सा खिल।5।
 
घर गँवा कर के घर पाया।
बने सब के, बंधान टूटे।
किसी की लहर बहर में पड़े।
मोह की लहरों से छूटे।6।
 
चाँदनी, बिना चाँद निकली।
बिना सूरज किरणें फूटीं।
हवा में हवा बाँधा अपनी।
निराली फुलझड़ियाँ छूटीं।7।
 
अन्धेरें में सूरज निकला।
घरों में चाँद उतर आया।
जगमगाईं काली रातें।
हुई उजली मैली छाया।8।
 
नहीं जो दिखलाई देता।
उसे हमने देखा भाला।
फेंक कर के सारी कुंजी।
खोल पाया सच्चा ताला।9।
 
जी उठे मर जाने पर हम।
उठा नीचे गिर कर पारा।
बूँद में दरिया दिखलाया।
समाया तिल में जग सारा।10।

5. बटोही-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

सुनो ठहरो जाते हो कहाँ।
राह अटपट है काँटों भरी।
रात आई अँधियारा हुआ।
सामने है पहाड़ की दरी।1।
 
चोर फिरते हैं चारों ओर।
खड़े हैं जहाँ तहाँ बटपार।
मिलेगी कुछ आगे ही गये।
पहाड़ी नदियों की खर धार।2।
 
क्या सकोगे सारे दुख झेल।
क्या गिनोगे काँटों को फूल।
साँसतों के झूलों पर बैठ।
क्या सकोगे उमंग से झूल।3।
 
जहाँ अँधियारा होगा वहाँ।
जग सकोगे क्या बन कर जोत।
क्या बलाओं को दोगे टाल।
बारहा कर बहुतेरी ब्योंत।4।
 
जो पहाड़ों को सको उखेड़।
काल के सिर पर जो भी चढ़ो।
बना दो जो समुद्र को बूँद।
बटोही तो तुम आगे बढ़ो।5।
6. दिल के फफोले-2
फूल प्यारे हमने तोड़े।
या फफोले दिल के फोड़े।
या कि फूटे आईने के।
जमा कर हैं टुकड़े जोड़े।1।
 
कहें किससे अपने दुखड़े।
सुनेंगे क्या, वे, जो उखड़े।
नहीं किसको दुख देते हैं।
बहुत चिकने चुपड़े मुखड़े।2।
 
चाँद के टुकड़े होते हैं।
दुखों के बहते सोते हैं।
किसलिए बतला दे कोई।
फूट कर बादल रोते हैं।3।
 
सितारे चमकीले प्यारे।
नगीने कोई हैं न्यारे।
फूल हैं बिखरे या ये हैं।
किसी की आँखों के तारे।4।
 
सोचते हैं क्या मन मारे।
रंग दिखलाते हैं न्यारे।
राह किसकी हैं देख रहे।
अँधेरी रातों के तारे।5।
 
मचल जाता है मन मेरा।
देख करके मुखड़ा तेरा।
छिन गयी मेरी आँखों को।
न तेरी आँखों ने फेरा।6।
 
न फल, पत्तों में से छाँटे।
गये हैं फूल नहीं बाँटे।
ऐ हवा पगली यह बतला।
बखेरे, तूने क्यों काँटे।7।
 
लुभा आँखें क्यों हिलते हो।
तो महकते क्यों मिलते हो।
खिलाई जो न कली जी की।
फूल तो क्या तुम खिलते हो।8।
 
न तारों से कुछ है कहता।
साँसतें हैं कितनी सहता।
न जाने किस चाहत में पड़।
चाँद चक्कर में है रहता।9।
 
ढंग में कितने ढलते हैं।
मचल कर आँखें मलते हैं।
क्यों नहीं चालाकी छोड़ी।
चाल क्यों हमसे चलते हैं।10।
 
किसी कोठे में पैठे हैं।
या बहुत ही वे ऐंठे हैं।
क्यों नहीं जल बादल देते।
फूल मुँह खोले बैठे हैं।11।
 
लगाई क्यों सुन पाते हैं।
लाग में क्यों आ जाते हैं।
जला कर के औरों का जी।
लोग क्यों आग लगाते हैं।12।
 
हिले दिल चोटें खाते हैं।
जले दिल, सब जल जाते हैं।
खिले दिल आँखें हैं हँसती।
फूल मुँह से झड़ पाते हैं।13।
 
खले बातें घबराते हैं।
आँख में आँसू आते हैं।
जले दिल पानी है मिलता।
मले दिल मोती पाते हैं।14।
 
चोट पर चोटें सहते हैं।
चैन से कब हम रहते हैं।
कलेजा पिघला जाता है।
आँख से आँसू बहते हैं।15।

7. जी की कचट-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्या हो गया, समय क्यों, बे ढंग रंग लाया।
क्यों घर उजड़ रहा है, मेरा बसा बसाया।1।
 
सुन्दर सजे फबीले,
थे फूल जिस जगह पर।
अब किसलिए वहाँ पर काँटा गया बिछाया।2।
 
जो बेलि लह लही थी,
जो थी खिली चमेली।
क्यों किस हवा ने उनको बदरंग कर दिखाया।3।
 
क्यों प्रेम हार टूटा,
क्यों प्रीति गाँठ छूटी।
क्यों फूल से दिलों में छल कीट आ समाया।4।
 
सुन कर जिसे न थकते,
जो बात रस भरी थी।
किस बेदिली ने उसमें विष बेतरह मिलाया।5।
 
जो मुँह कि था अनूठा,
था फूल जिससे झड़ता।
अब आग का उगलना किसने उसे सिखाया।6।
 
जिस आँख में बराबर,
था प्यार ही छलकता।
दिल छीलना उसी को कैसे पसन्द आया।7।
क्यों लाग बन गयी वह,
जो थी लगन कहाती।
क्यों मोम सा कलेजा पत्थर गया बनाया।8।

8. आँखों का तारा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

फूल मैं लेने आई थी।
किसी को देख लुभाई क्यों।
हो गया क्या, कैसे कह दूँ।
किसी ने आँख मिलाई क्यों।1।
 
फूल कैसे क्या हैं बनते।
क्यों उन्हें हँसता पाती हूँ।
किसलिए उनकी न्यारी छबि।
देख फूली न समाती हूँ।2।
 
ललकती हूँ मैं क्यों इतना।
किसलिए जी ललचाया यों।
निराली रंगत में कोई।
रंग लाता दिखलाया क्यों।3।
 
बहुत ही भीनी भीनी महँक।
कहाँ से क्यों आती है चली।
किधर वह गया, खोज कर थकी।
क्यों नहीं मिलती उसकी गली।4।
 
फूल सब दिन फूले देखे।
आज क्यों इतने फूले हैं।
भूल में मैं ही पड़ती हूँ।
या किसी पर वे भूले हैं।5।
 
हवा इतनी कैसे महँकी।
क्या उसी को छू आई है।
चली आती है बढ़ती क्यों।
क्या सँदेसा कुछ लाई है।6।
 
बरस क्यों गया अनूठा रस।
पा गयी कैसे सुख सारा।
अचानक हमें मिला कैसे।
हमारी आँखों का तारा।7।

9. दिल का दर्द-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

नहीं दिन को पड़ता है चैन।
नहीं काटे कटती है रात।
बरसता है आँखों से नीर।
सूखता जाता है सब गात।1।
 
आज है कैसा उसका हाल।
भरी है उसमें कितनी पीर।
दिखाऊँ कैसे उसको आह।
कलेजा कैसे डालूँ चीर।2।
 
चित में है वैसी ही चाह।
उठे रहते हैं अब भी कान।
गये तुम क्यों अपनों को भूल।
आ सुना दो मुरली की तान।3।
 
जहाँ थी चहल पहल की धूम।
वहाँ अब रहता है सुनसान।
कलेजा कौन न लेगा थाम।
देख उजड़ा घर स्वर्ग समान।4।
 
कहाँ हैं हरे भरे अब पेड़।
नहीं मिलते हैं सुन्दर फूल।
कहाँ हो ऐ मेरे घनश्याम।
उड़ रही है कुंजों में धूल।5।

10. मसोस-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कलेजा मेरा जलता है।
याद में किसकी रोता हूँ।
अनूठे मोती के दाने।
किसलिए आज पिरोता हूँ।1।
 
फूल कितने मैंने तोड़े।
बनाता हूँ बैठा गजरा।
चल रहा है धीरे धीरे।
प्यार दरिया में दिल बजरा।2।
 
चुने कोमल कोमल पत्ते।
अछूते फल मैंने बीछे।
न जाने क्यों कितनी चाहें।
पड़ गयी हैं मेरे पीछे।3।
 
सामने हुए रंगरलियाँ।
रंगतें क्यों दिखलाता हूँ।
देख कर के खिलतीं कलियाँ।
किसलिए मैं खिल जाता हूँ।4।
 
चित हरने वाली छवि से।
पेड़ की हरियाली बिलसी।
बलाएँ किस की लेने को।
बेलि अलबेली है बिकसी।5।
 
फबन से बड़ी फबीली बन।
हँस रही है फूली क्यारी।
क्यों बहुत ही मीठे सुर से।
गा रही हैं चिड़ियाँ सारी।6।
 
लहक हैं रही सिंची दूबें।
हवा है महँक भरी बहती।
भँवर की गूँज कान में क्यों।
अनूठी बातें हैं कहती।7।
 
उमंगें छलकी पड़ती हैं।
दिन बहुत लगता है प्यारा।
जोहता है किसकी राहें।
जगमगा आँखों का तारा।8।
 
देखता सपना हूँ किसलिए।
भाग मेरा ऐसा है कहाँ।
सदा ऊसर ऊसर ही रहा।
मिली कब केसर क्यारी वहाँ।9।
 
कलेजा मेरा पत्थर है।
आँख का आँसू है पानी।
हवा बन जाती हैं आहें।
पीर क्यों जाये पहचानी।10।

11. दिल का छाला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

गईं चरने कितनी आँखें।
बँधी है बहुतों पर पट्टी।
अधखुली आँखें क्यों खुलतीं।
बनी हैं धोखे की टट्टी।1।
 
किसी से आँसू छनता है।
किसी में है सरसों फूली।
देख भोला भाला मुखड़ा।
आँख कितनी ही है भूली।2।
 
रही सब दिन कोई नीची।
नहीं ऊँची कोई होती।
आँख कोई अंगारा बन।
आग ही रहती है बोती।3।
 
मचलती मिलती है कितनी।
अंधेरा कितनी पर छाया।
दिखाई ऐसी भी आँखें।
पड़ा परदा जिन पर पाया।4।
 
नहीं मिलते आँखों वाले।
पड़ा अंधों से है पाला।
कलेजा किसने कब थामा।
देख छिलते दिल का छाला।5।

12. दुखड़े-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

ओढ़ काली चादर आई।
देख कर के मुझ को रोती।
पड़ी उस पर दुख की छाया।
रात कालापन क्यों खोती।1।
 
जान पड़ता है दर देखे।
निगलने को मुँह बाता है।
बहुत मेरा प्यारा जो था।
घर वही काटे खाता है।2।
 
करवटें बदला करती हूँ।
दुखों के लगते हैं चाँटे।
बिछौने से तन छिदता है।
बिछ गये क्यों इस पर काँटे।3।
 
जगाता है क्यों कोई आ।
आग क्यों जी में है जगती।
हो गयी इसे लाग किस से।
किसलिए आँख नहीं लगती।4।
 
बे तरह जलती रहती है।
नहीं कैसे वह डर जाती।
आँसुओं में बह जावेगी।
नींद क्यों आँखों में आती।5।

13. प्यार के पचड़े-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

उमंगें पीसे देती हैं।
चोट पहुँचाती हैं चाहें।
नहीं मन सुनता है मेरी।
भरी काँटों से हैं राहें।1।
 
बहुत जिससे दिल मलता है।
काम क्यों ऐसा करती हूँ।
नहीं कुछ परवा है जिसको।
उसी पर मैं क्यों मरती हूँ।2।
 
सुनेगा कब वह औरों की।
बात अपनी जो सुनता है।
महक से उसको मतलब क्या।
फूल जो मन के चुनता है।3।
 
देख कर उसकी करतूतें।
न कैसे आँसू मैं पीती।
न इतना भी जिसने जाना।
किसी के जी पर क्या बीती।4।
 
समझ यों क्यों हो मन मानी।
बहुत मन मेरा रोता है।
फूल बन मैं जिस पर बरसी।
आग वह कैसे बोता है।5।
 
निठुर बन बन करके वह क्यों।
कुचलता है मेरी ललकें।
पाँव के नीचे मैं जिसके।
बिछाती रहती हूँ पलकें।6।
 
हाथ मलते दिन जाता है।
कलपते रातें हैं बीती।
नहीं वह मुख दिखलाता क्यों।
देख मुँह जिसका हूँ जीती।7।
 
कलेजा नहीं पसीजा क्यों।
सूखता है रस का सोता।
चाह सोने की रखता है।
हाथ का पारस है खोता।8।
 
लुभाने वाली बातों का।
पड़ा है कानों को लाला।
रह गईं आँखें प्यासी ही।
कहाँ पाया रस का प्याला।9।
 
मिल गया क्या इससे उसको।
बला में उसने क्यों डाला।
फूल जैसे मेरे जी को।
मल गया क्यों मलने वाला।10।

14. चाहत के चोचले-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देख कर के मुझको रोती।
रो सके तो तू भी रो दे।
जलाता है क्यों तू इतना।
जलद जल देता है तो दे।1।
 
कह रही हूँ अपनी बातें।
क्यों नहीं उसको सुन पाता।
गिरा जाता है मेरा जी।
गरजता क्यों है तू आता।2।
 
टपकता है तुझको देखे।
कलेजे का मेरे छाला।
मिला जैसा काला तन है।
न कर तू दिल वैसा काला।3।
 
फेर में क्यों पड़ जाती हूँ।
बावली सी क्यों फिरती हूँ।
घिर रहा है तो तू घिर ले।
दुखों से मैं क्यों घिरती हूँ।4।
 
बरस, क्यों घड़ियाँ बनती हैं।
कलपता है क्यों मन मेरा।
बरसने लगती हैं आँखें।
क्यों बरसना देखे तेरा।5।
 
लाग क्या मुझ से है उसको।
जी जला कर क्या पाती है।
कौंधा कर के तुझ में बिजली।
किसलिए आग लगाती है।6।
 
आँख तुझ पर पड़ते ही क्यों।
आँख में कोई फिरता है।
देख कर के बूँदें गिरतीं।
किसलिए आँसू गिरता है।7।
 
कहाँ तो है तू रस वाला।
तरल क्यों है कहलाता तू।
तरसते मेरे तन मन को।
जो नहीं तर कर पाता तू।8।
 
हवा पर रहता है तो रह।
बे तरह काहें मुड़ता है।
उड़ रहा है तो तू उड़ ले।
किसी का जी क्यों उड़ता है।9।
 
रात है कितनी अँधियारी।
अँधेरा जी में है छाया।
न कर अंधेर मेघ तू भी।
किसलिए अंधापन भाया।10।

15. कली-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बच सकेगा नहीं भँवर से रस।
आ महक को हवा उड़ा लेगी।
पास पहुँच बनी ठनी तितली।
पंखड़ी को मसल दगा देगी।1।
 
छीन ले जायगी किरन छल से।
ओस की बूँद से मिला मोती।
फूलने का न नाम भी लेती।
जो कली भेद जानती होती।2।

16. फूल-1-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किस लिए तो रहे महँकते वे।
कुछ घड़ी में गई महँक जो छिन।
क्या खिले जो सदा खिले न रहे।
क्या हँसे फूल जो हँसे दो दिन।1।
 
पंखड़ी देख कर गिरी बिखरी।
हैं कलेजे न कौन से छिलते।
क्या गया भूल तब भ्रमर उन पर।
जब रहे फूल धूल में मिलते।2।
 
यह बताता हमें नहीं कोई।
क्या मिलेगा वहाँ जहाँ खोजें।
जो कि जी की कली खिलाता था।
आज उस फूल को कहाँ खोजें।3।
 
रंग है वह नहीं फबन है वह।
है नहीं वह महक नहीं वह रस।
अब कहाँ फूल का समाँ है वह।
धूल में पंखुड़ी पड़ी है बस।4।
 
रह गया फूल ही नहीं अब तो।
सज सकेंगी न पास की फलियाँ।
साथ किस के फबन दिखा अपनी।
रंगरलियाँ मनाएँगी कलियाँ।5।
 
रोज के सैकड़ों बखेड़ों में।
वे न जायें बुरी तरह फाँसे।
है खिलाती खुली हवा उनको।
फूल हैं ओस बूँद के प्यासे।6।
 
है न गोरा बदन पसंद उसे।
हैं न भाती कलाइयाँ न्यारी।
क्यों न उसमें भरे रहे काँटे।
हैं हरी डाल फूल को प्यारी।7।
 
फूल से पूछता अगर कोई।
तो बिहँस वह यही बात पाता।
काम के हैं महल न सोने के।
हैं हमें बन हरा भरा भाता।8।
 
हैं न गहने पसंद सोने के।
हैं न हीरे जड़े मुकुट भाते।
हैं लुभाते उन्हें हरे पत्ते।
हैं कली देख फूल खिल जाते।9।
 
चाह उसको न मंदिरों की है।
वह मठों से न रख सका नाते।
फूल का प्यार क्यारियों से है।
हैं बगीचे उसे बहुत भाते।10।
 
तितलियाँ नोचने लगीं कुढ़ कर।
तंग करने लगे भ्रमर भूले।
आ लगाने लगी हवा धौलें।
कौन फल फूल को मिला फूले।11।
 
है सताता समीप आ भौंरा।
तितलियों ने न कब सितम ढाया।
छेदता बेधता रहा माली।
फूल ने रंग रूप क्यों पाया।12।
 
पिंड छूटा कभी न भौंरों से।
बे तरह तन हवा लगे हिलता।
मालियों से मिला न छुटकारा।
है कहाँ चैन फूल को मिलता।13।
 
छेदता है घड़ी घड़ी माली।
गाँव घर किस तरह भला भावे।
कम बखेड़े न बाग बन में हैं।
क्या करे फूल औ कहाँ जावे।14।
 
है हवा चोर मतलबी माली।
क्या करे वह कि जी बचे जिससे।
भौंरे हैं ढीठ तितलियाँ हलकी।
फूल मुँह खोल क्या कहे किससे।15।

17. कलपता कलेजा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मैं ऊब ऊब उठती हूँ।
क्या ऊब नहीं तुम पाते।
आ कर के अपना मुखड़ा
क्यों मुझे नहीं दिखलाते।1।
 
मैं तड़प रही हूँ, जितना।
किस तरह तुम्हें बतलाऊँ।
यह मलता हुआ कलेजा।
कैसे निकाल दिखलाऊँ।2।
 
जो दर्द देखना चाहो।
तो मुझे याद कर रो लो।
अपने मोती से प्यारे।
मेरे मोती को तोलो।3।
 
मेरे सुख की राहों में।
दुखड़े काँटे बोते हैं।
बन गयी बावली इतनी।
बन के पत्ते रोते हैं।4।
 
आहें हैं बहुत सतातीं।
दम घुटता ही रहता है।
मेरी आँखों का आँसू।
लहू बन बन बहता है।5।
 
तब जी जाता है छितरा।
हैं सब अरमान कलपते।
ये मेरे दिल के छाले।
जब हैं बे तरह टपकते।6।
 
बे चैन बनी रहती हूँ।
मेरे तन मन हैं हारे।
दिन काट रही हूँ रो रो।
रातों में गिन गिन तारे।7।
 
है सोच सुन सकूँगी क्या।
वे मीठी मीठी बातें।
फिर दिन वैसे क्या होंगे।
आएँगी क्या वे रातें।8।

18. दुखता दिल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्यों नहीं बता दो प्यारे।
सुख की घड़ियाँ आती हैं।
क्यों तुम्हें तरसती आँखें।
अब देख नहीं पाती हैं।1।
 
हो गये महीने कितने।
पर मेरी याद न आई।
क्यों पिघला नहीं कलेजा।
क्यों आँख नहीं भर पाई।2।
 
मैं समझ नहीं सकती हूँ।
क्यों गया मुझे कलपाया।
जो नरम मोम जैसा था।
वह पत्थर क्यों बन पाया।3।
 
दिल उन्हें देख छिलता है।
है उनकी फबन न भाती।
मैं जिन फूलों को देखे।
थी फूली नहीं समाती।4।
 
बावली बनाना था ही।
तो क्यों हँस हँस कर बोले।
सब दिन जो फूला रहता।
उस दिल में पड़े फफोले।5।
 
जब मुझे याद आती हैं।
वे प्यार भरी सब बातें।
तब बीत नहीं दिन पाता।
काटे खाती हैं रोतें।6।
 
मैं भूल गयी हूँ कैसे।
यह मुझे बता दो प्यारे।
बस गये आँख में किस की।
मेरी आँखों के तारे।7।
 
मैं घिरी ऍंधोरे से हूँ।
है भरा रगों में दुखड़ा।
आकर मुझ को दिखला दो।
वह खिले चाँद सा मुखड़ा।8।

19. मिटना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रंग बू फूल नहीं रखता।
धूल में जब मिल जाता है।
सूख जाने पर पत्ते खो।
फल नहीं पौधा लाता है।1।
 
गँवाते हैं अपना पानी।
बिखर जब बादल जाते हैं।
गल गये दल रस के निचुड़े।
कमल पर भौंर न आते हैं।2।
 
नहीं जब सर में जल होता।
कहाँ तब वह लहराता है।
चाँद खो कर अपनी किरणें।
नहीं रस बरसा पाता है।3।
 
जोत किसने उस में पाई।
आँख जब अंधी है होती।
दिये की बुझी हुई बत्ती।
अँधेरा कभी नहीं खोती।4।
 
नहीं उसकी आँखें खुलतीं।
सूझ जिसकी सब दिन सोई।
रखा क्या मिट जाने में है।
किसलिए मिटाता है कोई।5।
 
सदा जल जल कर के दीया।
उँजाला करता रहता है।
भला औरों का करने को।
फूल छिदता सब सहता है।6।
 
बीज मिट्टी में मिल मिल कर।
अन्न कितने उपजाते हैं।
पेट लोगों का भरता है।
मगर फल कटते जाते हैं।7।
 
तब किसे नहीं पिलाती रस।
ऊख जब पेरी जाती है।
क्या नहीं देती है किस को।
ठोकरें धरती खाती है।8।
 
खिंचे ताने बाँधो टाँगे।
चाँदनी करती है साया।
सुख नहीं किसको पहुँचाती।
पाँव के नीचे पड़ छाया।9।
 
भलाई अगर नहीं भाती।
काम क्या आई तो काया।
नहीं उस को मरते देखा।
जिसे है मर मिटना आया।10।

20. मतवाला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बन गये फूलों से काँटे।
आम से मीठे कड़वे फल।
बलाएँ लगीं बला लेने।
चढ़ाई हमने वह बोतल।1।
 
मोल सारी दौलत ले ली।
कमाया हमने वह पैसा।
नहीं दम मार सका कोई।
लगाया हम ने दम ऐसा।2।
 
पहुँचता जहाँ नहीं कोई।
पहुँच कर वहाँ पलट आई।
तोड़ लाई तारों को उचक।
पिनक हमने ऐसी पाई।3।
 
बताएँ कैसे रस उस का।
बताते मुँह जाता है सी।
लगी जिस से ताड़ी शिव की।
हमीं ने वह ताड़ी पी ली।4।
 
उठाया आँखों का परदा।
भेद जिस ने सारा खोला।
न उतरा किसी गले से जो।
हमीं ने निगला वह गोला।5।
 
और की बिगड़ें तो बिगड़ें।
हमारी बातें हैं बनती।
किसी गाढ़े दिन के हित से।
हमारी गाढ़ी है छनती।6।
 
न खिंचने वाली जगहों में।
खिंच सकी है जिस की रेखा।
उसे अपनी आँखें मूँदे।
नशा की झोंकों में देखा।7।
 
नहीं जिनसे चढ़ जाता है।
काँखते हैं तो वे काँखें।
चढ़ गयी हैं सब से ऊँचे।
हमारी चढ़ी हुई आँखें।8।
 
सभी ने जागता ही पाया।
पर नहीं नींद कभी टूटी।
जड़ी बूटी कितनी देखी।
हमारी बूटी है बूटी।9।
 
न जिस को जान सका कोई।
बात वह हमने जानी है।
छू सकी जिसे नहीं दुनिया।
भंग वह हमने छानी है।10।
 
न जिस का नशा कभी उतरा।
पिया है हमने वह प्याला।
मस्त है रंगत में अपनी।
हमें कहते हैं मतवाला।11।

21. निजता-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हैं डराते न राजसी कपड़े।
क्यों रहे वह न चीथड़े पहने।
धूल से तन भरा भले ही हो।
हैं लुभाते न फूल के गहने।1।
 
है धानी तो धानी रहे कोई।
है उसे लाख पास का पैसा।
घूर पर बैठ दिन बिताती है।
सेज पर आँख डालना कैसा।2।
 
हों किसी के महल बड़े ऊँचे।
वह उन्हें देख ही नहीं पाती।
क्यों न होवे गिरी पड़ी टूटी।
झोंपड़ी है उसे बहुत भाती।3।
 
लोग खायें मिठाइयाँ मेवे।
घर में हो दूधा की नदी बहती।
है उसे साग पात से मतलब।
वह नहीं मुँह निहारती रहती।4।
 
बाल कर आसमान पर दीया।
क्यों किसी की न जोत हो जगती।
देख कर आँख और की मुँदती।
है गरीबी उसे भली लगती।5।
 
लोग सारी सवारियों पर चढ़।
नित फिरें क्यों न मूँछ फटकारे।
देख उन से अनेक को पिसते।
हैं उसे पाँव ही बहुत प्यारे।6।
 
पीसना पेरना नहीं भाता।
कब किसी को कहाँ सताती है।
क्यों बने लोग-बाग-वाली वह।
बे कसी ही उसे बसाती है।7।
 
क्यों ललाती रहे ललक में पड़।
किसलिए हो सुखी लहू गारे।
चींटियों सी चली न कब बच बच।
भिड़ नहीं है कि डंक वह मारे।8।
 
सादगी को पसंद करती है।
बेबसी देख है सुखी रहती।
साहबी क्यों न हो बड़ी सबसे।
वह उसे है लहू भरी कहती।9।
 
गोद में आन बान की सोई।
देखती है बडे बड़े सपने।
रोब की मानती नहीं निजता।
मस्त रहती है रंग में अपने।10।

22. निराले नाते-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रात मुख उजला क्यों होता।
जो न तारे गोदी भरते।
दिशा क्यों हँसती दिखलाती।
चंद घर अगर नहीं करते।1।
 
गगन मुख लाली क्यों रहती।
ललाई जो न रंग करती।
भोर सिर पर सेहरा बँधाते।
माँग ऊषा की है भरती।2।
 
चमकती चटकीली सुथरी।
चाँदनी उगी जो न रहती।
धूल को धो धो धरती पर।
दूध की धारा क्यों बहती।3।
 
जो न जुगनू होते तो क्यों।
अँधेरे खोंतों के टलते।
बड़ी अँधियारी रातों में।
करोड़ों दीये क्यों बलते।4।
 
सुनहला सजा ताज पहने।
किसलिए सूरज तो आते।
सब जगह कितनी ही आँखें।
वे अगर बिछी नहीं पाते।5।
 
जगमगाती न्यारी किरणें।
जो न छूकर करतीं टोना।
हरे पेड़ों पर पत्तों पर।
किस तरह लग जाता सोना।6।
 
ओस की बूँदों में कोई।
जोत जो जगी नहीं होती।
फूल फूले न समाते तो।
उन्हें कैसे मिलते मोती।7।
 
हवा से कान जो न फँकता।
किसी की आँखें क्यों खुलतीं।
दौड़ कर किसी रँगीले से।
तितलियाँ क्यों मिलती जुलतीं।8।
 
किसी के याद दिलाने से।
जो न दिल औरों के खिलते।
तो बड़े सुन्दर कंठों से।
पखेरू क्यों गाते मिलते।9।
 
कौन सा नाता है इन में।
एक से एक हिले क्यों हैं।
कहीं क्यों तारे छिटके हैं?
कहीं पर फूल खिले क्यों हैं?।10।

23. मनमाना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कभी है नया जाल बिछता।
कभी फंदे हैं पड़ जाते।
कभी कोई कमान खिंचती।
तीर पर तीर कभी खाते।1।
 
मोहनी कभी मोहती है।
कभी मनमोल लिया जाता।
कभी मोती जैसा आँसू।
पत्थरों को है पिघलाता।2।
 
कभी कुछ टोना होता है।
कभी जादू चल जाता है।
कभी छू मन्तर के बल से।
छलावा छल कहलाता है।3।
 
चोचले कर कर 'चालाकी'।
बे तरह नाच नचाती है।
'मचल' कितनी ही चालें चल।
न किस को चित कर पाती है।4।
 
चौकड़ी क्यों न भूल जाती।
क्यों न पड़ता धोखा खाना।
न कैसे लुट जाता कोई।
न कैसे होता मनमाना।5।

24. दुखदर्द-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

लगी है अगर आँख मेरी।
किसलिए आँख नहीं लगती।
किस तरह आते हैं सपने।
रात भर जब मैं हूँ जगती।1।
 
उजाला अंधा करता है।
मेंह में जलती रहती हूँ।
नहीं खुलता है मुँह खोले।
न जाने क्या क्या कहती हूँ।2।
 
आँख में फिरता है कोई।
मगर मैं देख नहीं पाती।
बिना छेदे ही औरों के।
बे तरह छिदती है छाती।3।
 
और की ओर देखती क्यों।
कहाती है जो सत धंधी।
लाख हा आँखों के होते।
बनी रहती है जो अंधी।4।
 
हो गया चूर चैन चित का।
चंद से अंगारे बरसे।
देह से चिनगारी निकली।
चाँदनी चंदन के परसे।5।
 
लगी जलने सारी दुनिया।
आग जी में लग जाने से।
हवा हो गया हमारा सुख।
घटा दुख की घिर आने से।6।
 
आस पर ओस पड़ी है तो।
आस क्यों फूल नहीं बनती।
क्यों नहीं काली छाया पर।
चाँदनी पत्तों से छनती।7।
 
मोतियों की लड़ियाँ टूटीं।
हाथ का पारस खोने से।
दिल जला बहने से पानी।
गुल खिला काँटा बोने से।8।

25. टूटे तार-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

उँगलियों से छिड़ते जिस काल।
सुधा की बूँदें पाते कान।
धुन सुने सिर धुनते थे लोग।
तान में पड़ जाती थी जान।1।
 
रगों में रम जाती थी रीझ।
कंठ का जब करते थे संग।
मीड़ जब बनते मिले मरोड़।
थिकरने लगती लोक उमंग।2।
 
निकलते थे इन में वे राग।
गलों के जो बनते थे हार।
सुरों में मिलती ऐसी लोच।
बरस जाती थी जो रस धार।3।
 
मनों को जो ले लेती मोल।
वह लहर इन से पाती बीन।
सितारों में भरते वह गूँज।
दिलों को जो लेती थी छीन।4।
 
बोल थे इन के बड़े अमोल।
कभी इन में भी थे झंकार।
करेगा प्यार इन्हें अब कौन।
आज तो हैं ये टूटे तार।5।

26. भेद की बातें-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

फूल के पास जायँगे कैसे।
देख काँटे उठे डरेंगे जो।
मिल सकेगा उन्हें न रस कैसे।
भौंर सा भाँवरें भरेंगे जो।1।
 
क्यों दिलों में न घर बना लेंगे।
जो निराली फबन दिखाते हैं।
वे सकेंगे न रंग रख कैसे।
फूल सा जो कि रंग लाते हैं।2।
 
वे किसे हाथ में नहीं करते।
प्यार कर के रहे परसते जो।
प्यार किस की नहीं बुझा पाते।
बादलों सा रहे बरसते जो।3।
 
फल मिलेगा भला नहीं कैसे।
डालियों सा झुका हुआ तो हो।
वह करेगा न जी हरा किसका।
पेड़ जैसा हरा भरा जो हो।4।
 
जो लगन जाय लग किसी जी को।
प्यार तो क्यों न जायगा पोसा।
उठ सकेगा न दर्द किस जी में।
जो पिहकता रहे पपीहों सा।5।
 
किस तरह चैन पा सकेंगे वे।
आँख जैसा भरे रहेंगे जो।
जी न किस का दुखी बनाएँगे।
आँसुओं की तरह बहेंगे जो।6।
 
नेह से रख सके न जो नाता।
प्यार वाले उसे न क्यों खलते।
क्यों जलाते न दूसरों को वे।
जो दिये की तरह रहे जलते।7।
 
वह किसे है लुभा नहीं लेता।
बालकों सा लुभावना जो है।
वह बसेगा न आँख में किसकी।
चाँद जैसा सुहावना जो है।8।
 
जो कली की तरह रहा खिलता।
कब नहीं वह खिला सका किसको।
बात उसकी नहीं सुनी किसने।
कोयलों सा गला मिला जिस को।9।
 
मान उन को कहाँ नहीं मिलता।
जो कहीं फूल सा महँकते हैं।
चाह उनकी किसे नहीं है जो।
बुलबुलों सा सदा चहकते हैं।10।

27. प्यार के लिए प्यार-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रो रहा है बहा बहा आँसू।
या कि है वह पिरो रहा मोती।
हित नहीं सूझता उसे अपना।
प्यार को आँख क्या नहीं होती?।1।
 
वे लगाये लगन लगी कैसे।
क्यों लहू घूँट लोग पीते हैं।
आँख जिस की कभी न उठ पाई।
क्यों उसे देख देख जीते हैं।2।
 
साँसतें अब सही नहीं जातीं।
किस तरह बार बार दुख झेलें।
हम बहुत तंग आ गये इससे।
किस तरह दिल बदल किसी से लें।3।
 
रात में चैन है नहीं आता।
साँसतें क्या कभी नहीं सोतीं।
चोट पर चोट हैं अगर खाती।
क्यों नहीं चूर चाहतें होतीं।4।
 
काठ है और है न पत्थर वह।
मास ही है उसे कहा जाता।
आँच कुछ प्यार में अगर होती।
तो कलेजा न क्यों पिघल पाता।5।
 
दिल अगर हाल जानता दिल का।
बेदिली आँख क्यों दिखाती तो।
वे हमें चाहते अगर होते।
चाह कैसे कुएँ झ्रकाती तो।6।
 
कर सके क्या उतर गया पानी।
गाँठ जी की खुली नहीं खोले।
हो बड़े मोल के मगर आँसू।
मोतियों से गये नहीं तोले।7।
 
मतलबों के न देखते सपने।
मौज के बीज जो न मन बोता।
बे तरह चाहतें सतातीं क्यों।
प्यार जो प्यार के लिए होता।8।

28. उलाहने-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्यास से सूख है रहा तालू।
दिल किसी का न इस तरह छीलो।
सामने है भरा हुआ पानी।
पर कहाँ यह कहा कि तुम पी लो।1।
 
चाहता एक बूँद ही जो है।
पीर उसकी गयी न पहचानी।
किसलिए तो बरस गये बादल।
जो पपीहा न पा सका पानी।2।
 
वह कभी आँख भर न देख सका।
आँख का जो गिना गया तारा।
चाँद को जो न चाहता होता।
क्यों चबाता चकोर अंगारा।3।
 
गर्म से गर्म क्यों न वह होवे।
हैं कलेजे कभी नहीं हिलते।
क्यों न मुँह फेरता रहे सूरज।
हैं उसे देख कर कमल खिलते।4।
 
क्यों बुरे से बुरा न वह होवे।
छोड़ उसको सुधा नहीं पीतीं।
जल इसे जान तक नहीं सकता।
मछलियाँ जल बिना नहीं जीतीं।5।
 
वह रहा मस्त रंग में अपने।
चैन इसको कभी नहीं आया।
कोयलें कूक कर हुईं पगली।
मुँह नहीं खुल बसंत का पाया।6।
 
सोच कर यह उमंग से आया।
रूप रस जायगा लिपट पीया।
जान पाया नहीं पतिंगा यह।
जान लेगा जला जला दीया।7।
 
है बेचारा हिरन बड़ा भोला।
भूल होगी बड़ी लहू गारे।
जो पसीजे न प्यार कर कोई।
तो सुना बीन बान क्यों मारे।8|
 
क्यों न काँटे लगे रहे छिदता।
और किस का उसे सहारा है।
तुम कमल रस कभी न दो या दो।
भौंर तो सब तरह तुम्हारा है।9।

29. बिखरे फूल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बिना छेदे बेधो बाँधो।
किसी ने कब गजरे पहने।
नहीं गोरेपन के भूखे।
क्यों बनें वे तन के गहने।1।
 
दूसरों का मन रखने को।
किसलिए बनें अनमने वे।
जिसे बनना हो वह बन ले।
गले का हार क्यों बनें वे।2।
 
जहाँ हैं पड़े वहीं रह कर।
रंग अपना दिखलावेंगे।
नहीं इसकी परवा उनको।
जो न सिर पर चढ़ पावेंगे।3।
 
फेर लो अपनी आँखों को।
बे तरह वे गड़ जावेंगे।
करोगे उन्हें उठा कर क्या।
हाथ मैले हो जावेंगे।4।
 
पास आते हैं क्यों भौंरे।
मना कर दो इन भूलों को।
पड़ा रहने दो मत छूओ।
हमारे बिखरे फूलों को।5।

30. मन का मोल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कह सका कौन पेट की बात।
भेद कोई भी सका न खोल।
कौन अपने मतलब को भूल।
किसी के जी को सका टटोल।1।
 
दिखाता कोई सुन्दर रूप।
सुनाता कोई धन की बात।
बोलियाँ मीठी मीठी बोल।
रिझाता था कोई दिन रात।2।
 
हाथ में करते थे कुछ लोग।
बड़ी आँखों का जादू डाल।
चला देता था कोई मूठ।
दिखा कर गोरा गोरा गाल।3।
 
मेघ से काले काले बाल।
देख कोई बनता था मोर।
चंद मुख ओर टकटकी बाँधा।
कहाता कोई 'चतुर' चकोर।4।
 
दिखा कर गठे हुए सब अंग।
चमकता मुखड़ा बड़ा सुडौल।
ऊब को अनबन को झकझोड़।
जमा देता था कोई धौल।5।
 
जवानी के मद में हो चूर।
किसी की चाहों भरी उमंग।
किया करती मन माने काम।
दिखा कर बड़े अनूठे रंग।6।
 
किसी की आँख न पाती देख।
किसी के पास नहीं था कान।
किसी की ऐंठ से गये ऊब।
उमड़ते कितने ही अरमान।7।
 
न चढ़ता देखे चोखा रंग।
बन गया कोई लापरवाह।
मिली भौंरे सी प्रीति विहीन।
किसी की रस लेने की चाह।8।
 
मिले कुछ ऐसे भी जो लोग।
दिखाते रहते झूठा प्यार।
पर रही यह झक उन पर रीझ।
दूसरा दे तन मन धन वार।9।
 
कई कितनी जगहों में घूम।
उमड़ते आते घन से पास।
पर नहीं था, उन में वह नीर।
बुझा देता जो जी की प्यास।10।
 
भला बदले में लेकर पोत।
कौन देता है मोती तोल।
महँगा हो गयी प्रेम की माँग।
नहीं मिल पाया मन का मोल।11।

31. मोती के दाने-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

हमारे मोती के दाने।
भला किसने हैं पहचाने।
लाख माँगें पर माँगें कब।
मोल मिलते हैं मनमाने।1।
 
किसी के दिल को क्यों छू दें।
किसी का मुँह कैसे मूँदें।
धूल में मिल जाने वाली।
गाल पर गिरतीं कुछ बँदें।2।
 
किसी का दिल क्यों जलता है।
बे तरह दुख क्यों खलता है।
जानते हैं कितने इसको।
किसी का दिल क्यों मलता है।3।
 
ऐंठ अपने को ठगती है।
रंग में हठ के रँगती है।
मानता है यह कोई नहीं।
आग पानी से लगती है।4।
 
कीच कमलों को जनता है।
आँख से आँसू छनता है।
रतन सीपी में हैं मिलते।
बूँद से मोती बनता है।5।
 
जान जो इसको जाते हैं।
पहुँच तह तक जो पाते हैं।
कहीं पर नहीं हमें ऐसे।
आँख वाले दिखलाते हैं।6।
 
टटोलें दिल आँखें खोलें।
समझ सारे भेदों को लें।
बहुत कम ऐसे दिखलाये।
ठीक मोती को जो तोलें।7।
 
जलन इनकी किसने जानी।
पीर किसने है पहचानी।
कौन पानी पानी होगा।
देख इन का जाता पानी।8।
 
कलपती हैं इनमें आहें।
सिसिकती हैं इनमें चाहें।
जान किसने पाया इनकी।
भरी काँटों से हैं राहें।9।
 
बे तरह बिखरे आते हैं।
कब नहीं मुँह की खाते हैं।
देख नीचा आँखों से गिर।
धूल में मिलते जाते हैं।10।
 
विपत में आड़े आते हैं।
पसीजे ही दिखलाते हैं।
बना देते हैं जी हलका।
पत्थरों को पिघलाते हैं।11।
 
भँवर में नावें खेते हैं।
सहारा दुख में देते हैं।
आँख में बसते हैं आकर।
दिलों में घर कर लेते हैं।12।
 
बड़े सादे कहलाते हैं।
पर भरे पाये जाते हैं।
बदलते रंग नहीं, लेकिन।
रंग बदला ही पाते हैं।13।
 
लोग क्यों हलका कहते हैं।
सिर पड़े ये सब सहते हैं।
पार करते हैं औरों को।
आप बहते ही रहते हैं।14।
 
न देखी हैं इतनी आँखें।
मिलीं इनको जितनी आँखें।
बोलते हैं चुप रहकर भी।
खोलते हैं कितनी आँखें।15।

32. आँसू-1-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बहुत ही हम घबराते हैं।
कलप कर के रह जाते हैं।
कलेजा जब दुख जाता है।
आँख में आँसू आते हैं।1।
 
बे तरह दुख से घिरते हैं।
आँख से तो क्यों गिरते हैं।
क्यों भरम खो करके अपना।
आँख में आँसू फिरते हैं।2।
 
दुखों पर दुख सहते देखे।
मुसीबत में रहते देखे।
कलेजा कभी नहीं पिघला।
बहुत आँसू बहते देखे।3।
 
कौन सुख की नींदों सोता।
किस तरह सारे दुख खोता।
आग जी की कैसे बुझती।
जो न आँखों का जल होता।4।
 
पसीजे ही दिखलाते हैं।
बरस अंगारे जाते हैं।
बहा करते हैं पानी बन।
मगर ये आग लगाते हैं।5।
 
बीज हित का बो देते हैं।
कसर कितनी खो देते हैं।
बहुत ही धीरे धीरे बह।
मैल जी का धो देते हैं।6।
 
डरे बहुतेरे मिलते हैं।
कलेजे कितने हिलते हैं।
फूँक देते हैं महलों को।
ये कभी आग उगिलते हैं।7।
 
कब नहीं दिखलाते हैं तर।
पर जलाते हैं लाखों घर।
बड़े हैं नरम मगर इन से।
मोम हो जाता है पत्थर।8।
 
साँसतें कितनी सहते हैं।
फिसलते गिरते रहते हैं।
न जाने किसका लहू कर।
लहू से भर भर बहते हैं।9।
 
हमारा चित उमगता है।
रंग में उन के रँगता है।
खबर कैसे न उन्हें होगी।
तार आँसू का लगता है।10।
 
नहीं कटतीं काटे घड़ियाँ
नहीं मिलतीं क्यों हित कड़ियाँ।
टूटती ही जाती हैं क्यों।
हमारी मोती की लड़ियाँ।11।
 
आँख से आँख मिला देखो।
चाह की थाह लगा देखो।
डूबता ही जाता है जी।
झड़ी आँसू की आ देखो।12।
 
नाम बिकता है तो बिक ले।
राह छिकती है तो छिक ले।
खोज में तेरी ही प्यारे।
आँख से आँसू हैं निकले।13।
 
कँपा तो जाय कलेजा कँप।
नपी तो गरदन जाये नप।
टकटकी लगी आज भी है।
टपकते हैं आँसू टप टप।14।
 
याद तेरी ही आती है।
छ टुकड़े होती छाती है।
बरस बन गये हमारे दिन।
आँख आँसू बरसाती है।15।

33. आँसुओं की माला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कलेजे मैंने देखे हैं।
टटोले जी मैंने कितने।
काम सबने रस से रक्खा।
मिले मिलने वाले जितने।1।
 
सुनी मीठी मीठी बातें।
चाव बहुतों में दिखलाया।
मिले सुन्दर मुखड़े वाले।
प्यार सच्चा किस में पाया।2।
 
सुखों की चाहें हैं सब में।
नहीं मतलब किस को प्यारा।
आँख में बसने वाले हैं।
कौन है आँखों का तारा।3।
 
रूप के भूखे दिखलाये।
मिला मुखड़ों का दीवाना।
किसी ने कब सच्चे जी से।
किसी के दुख को दुख माना।4।
 
इसे मैं किसको पहनाऊँ।
नहीं मिलता है दिल वाला।
आँसुओं का मोती ले ले।
बनाई क्यों मैंने माला।5।

34. दो बूँद-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

न उसको मोती की है चाह।
न उसको है कपूर से प्यार।
नहीं जी में है यह अरमान।
तू बरस दे उस पर जल धार।1।
 
स्वाति घन! घूम घूम सब ओर।
आँख अपनी तू मत ले मूँद।
बहुत प्यासा बन चोंच पसार।
चाहता है चातक दो बूँद।2।

35. कोकिल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बने रहते हो मतवाले।
कौन से मद से माते हो।
रात भर जाग जाग कर के।
कौन सा मंत्र जगाते हो।1।
 
आम की डालों पर बैठे।
बोलते नहीं अघाते हो।
बौर को देख देख कर के।
बावले क्यों बन जाते हो।2।
 
किस तरह से किस से सीखे।
गले में इतना रस आया।
कौन सा पाठ कंठ कर के।
गला इतना मीठा पाया।3।
 
बोलियाँ बोल बोल प्यारी।
कान में रस बरसाते हो।
गँवा कर तन की सुधि सारी।
गीत किसका तुम गाते हो।4।
 
कूकते हो जब कू कू कर।
याद किस की तब आती है।
किसी की छिपी हुई सूरत।
क्या झलक दिखला जाती है।5।
 
भोर के समय खोल कर दिल।
बोलने तुम क्यों लगते हो।
देख कर ऊषा की लाली।
कौन से रंग में रँगते हो।6।
 
किसी के कू कू करने से।
किसलिए तुम हो चिढ़ जाते।
लाग में क्यों आ जाते हो।
राग अपना गाते गाते।7।
 
स्वरों में भर भर कर जादू।
किसे तुम अपना हो लेते।
किस लिए बाँधा बाँधा कर धुन।
कलेजा हो निकाल देते।8।
 
क्यों तुम्हें चैन नहीं मिलता।
बता दो किस पर मरते हो।
बोल कर के मीठी बोली।
किसे मूठी में करते हो।9।
 
कंठ पा जाते हैं सुन्दर।
सुरों में जादू भरते हैं।
क्या सभी काले तन वाले।
मोहनी डाला करते हैं।10।

36. प्रबोध-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसी की ही सुनता कैसे।
सभी की जो सुन पाता है।
एक का वह होगा कैसे।
जगत से जिसका नाता है।1।
 
उसे दो बूँदें दे देना।
भला कैसे भारी होता।
बहुत सा जल बरसा कर जो।
ताप धरती का है खोता।2।
 
समझ तू इतना सब पंखी।
जल दिया किसका पीते हैं।
पेड़ पौधो क्या पत्ते तक।
जिलाये किस के जीते हैं।3।
 
सदा तुझको प्यासा पाया।
जनम तेरा यों ही बीता।
कुआँ तालाबों नदियों का।
क्यों नहीं पानी तू पीता।4।
 
कौन जाने क्या बातें हैं।
कहाँ पर क्यों वे अड़ती हैं।
क्या नहीं स्वाती की बूँदें।
चोंच में तेरे पड़ती हैं।5।
 
चुप रहे पाती है मोती।
भली है तुझ से तो सीपी।
प्यास तुझ को है तो किससे।
तू कहा करता है पी पी।6।
 
सदा पिघला ही करता है।
मेघ की बातें हैं जानी।
और का पानी रखने को।
कौन होगा पानी पानी।7।
 
दूसरों का हित करने को।
कौन है, गलता ही जाता।
छोड़कर सरग के सुखों को।
कौन धरती पर है आता।8।
 
देख दुनिया का दुख कोई।
न उतना कलपा घन जितना।
कौन ऐसा पसीज पाया।
बहा किस को आँसू इतना।9।
 
बहुत व्याकुल बन पी पी रट।
पपीहा तू क्या पाता है।
तुझे वह क्यों भूलेगा जो।
सभी पर रस बरसाता है।10।

37. पपीहे की पिहक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

मर रहा है कोई मुझ पर।
कब भला यह जी में आया।
थक गये पी पी कहते हम।
पर कहाँ पी पसीज पाया।1।
 
बहुत जल हैं समुद्र पाते।
पहाड़ों को तर करता है।
न हम ने दो बूँदें पाईं।
भरे को वह भी भरता है।2।
 
कलपता कितना है प्यासा।
किस तरह के दुख सहता है।
इसे कैसे वह जानेगा।
जो भरा जल से रहता है।3।
 
गरज ले बिजली चमका ले।
मचा ले मनमाने ऊधम।
हमें वह सब दिन तरसा ले।
जिएँगे उसे देख कर हम।4।
 
जल मिले खुले भाग सब के।
हम अभागे ही हैं छँटते।
प्यास से चटक गया तालू।
लट गयी जीभ नाम रटते।5।
 
जल नहीं देता तो मत दे।
लेयँगे सह दुख भी सारे।
निछावर सदा हुए जिस पर।
वह हमें पत्थर क्यों मारे।6।
 
जिया जग जिसका पानी पी।
हमें वह क्यों है कलपाता।
सूखता जाता है सब तन।
जल नहीं आँखों में आता।7।
 
प्यास कब बनी जलन जी की।
बात यह सब की है जानी।
हमें है जलन मिली ऐसी।
बुझाता है जिसको पानी।8।
 
न देखेंगे मुँह औरों का।
पिएँगे हम विष की घूँटें।
टकटकी बाँधोंगे सब दिन।
क्यों न दोनों आँखें फूटें।9।
 
दाँव पर प्राणों को रख कर।
फेंकता रहता हूँ पासा।
दूसरा पानी क्यों पीऊँ।
स्वाति जल का मैं हूँ प्यासा।10।

38. फूल-2-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसलिए दिया सरग को छोड़।
हो गयी कैसे ऐसी भूल।
कह रहे हो क्या मुँह को खोल।
क्या बता दोगे हम को फूल।1।
 
रंग ला दिखलाते हो रंग।
दिलों को ले लेते हो मोल।
खींच कर जी को अपनी ओर।
कौन सा भेद रहे हो खोल।2।
 
मुसकरा जतलाते हो प्यार।
चुप सदा रह करते हो बात।
किसलिए कर के किस का मोह।
महँकते रहते हो दिन रात।3।
 
हुआ है किसका इतना मान।
मची कब किसकी इतनी धूम।
भाँवरें भर जाता है भौंर।
आ हवा मुँह लेती है चूम।4।
 
हो बड़े अलबेले अनमोल।
डालियों की गोदी के लाल।
सदा लेते हो आँखें छीन।
न जाने कैसा जादू डाल।5।
 
सुनहला पहनाता है ताज।
तुझे उगता सूरज कर प्यार।
वार देती है तुझ पर ओस।
निज गले का मोती का हार।6।
 
तू न होता तो खिल कर कौन।
बुझाता कितनों की रस प्यास।
बड़ी रंगीन साड़ियाँ पैन्ह।
तितलियाँ आतीं किसके पास।7।
 
फबीला तुम सा मिला न और।
रसीला याँ है ऐसा कौन।
खिल सका तुम सा कोई कहाँ।
हँस सका है तुम जैसा कौन।8।
 
बुरों का सब दिन करके साथ।
सका अपने को कौन सँभाल।
तुम्हीं काँटों में करके वास।
खिले ही मिलते हो सब काल।9।
 
प्यार कर कोई लेवे चूम।
दुखों में कोई देवे डाल।
भूल कर अपना सारा रंज।
कर सके सबको तुम्हीं निहाल।10।
39. हँसते फूल
बरस जाये बादल मोती।
या गिराये उन पर ओले।
कीच में उन्हें डाल दे या।
सुधा जैसे जल से धो ले।1।
 
हवा उन को चूमे आकर।
या मिला मिट्टी में देवे।
डाल दे उन्हें बलाओं में।
या बलाएँ उन की लेवे।2।
 
लुभाएँ गूँज गूँज भौंरा।
या नरम दल उन के मसले।
रसिकता दिखलाये दिन दिन।
या खिसक जाये सब रस ले।3।
 
तितलियाँ छटा दिखाएँ आ।
रंगतें या उनकी खोयें।
गलें मिल मिल कर के नाचें।
या दुखाएँ उनके रोयें।4।
 
रहें चुभते सब दिन काँटे।
या बनें उन के रखवाले।
ओस की बूँदों से विलसें।
या पड़ें कीटों के पाले।5।
 
सताएँ किरणें आकर या।
हार सोने का पहनाएँ।
बडे उजले दिखलाएँ दिन।
या अँधेरी रातें आएँ।6।
 
प्यार की आँखों से देखे।
या उन्हें चुन, भर ले डाली।
छिड़क कर पानी तर रक्खे।
या सुई से छेदे माली।7।
 
नहीं उनको इस की परवा।
एक रस रहने वाले हैं।
उन्हें किस ने रोते देखा।
फूल तो हँसने वाले हैं।8।

40. दिल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बरस पड़ते उन को देखा।
पड़ा था रस जिन के बाँटे।
खिले जो मिले गुलाबों से।
खटकते थे उन के काँटे।1।
 
भरी पाईं उन में भूलें।
दिखाये जो भोले भाले।
चाँद जैसे जो सुन्दर थे।
मिले उन में धब्बे काले।2।
 
रहे जो रुई के पहल से।
बिनौले कम न मिले उन में।
सदा वे करते मनमानी।
मस्त जो थे अपनी धुन में।3।
 
बहर जैसे जो गहरे थे।
बिपत उनकी लहरें ढातीं।
रहे जो हरे भरे बन से।
बलाएँ उन में दिखलातीं।4।
 
मिले जो कोमल फूलों से।
बात कहते वे कुम्हलाते।
हवा सा सुबुक जिन्हें पाया।
धूल से वे थे भर जाते।5।
 
उमड़ते जो बादल जैसा।
पिघल कर आँसू बरसाते।
गिराते थे वे ही ओले।
बे तरह बिजली चमकाते।6।
 
आप जल जल जो दीपक सा।
उँजाला थे घर में करते।
जले झुलसे उनसे कितने।
वे रहे काजल से भरते।7।
 
मिले जो जल जैसे ठंढे।
रहे जो सारा मल धोते।
उन्हें देखा नीचे गिरते।
आँच लग गये गर्म होते।8।
 
तेज सूरज सा था जिनका।
दूर करते जो अँधियारा।
नहीं उनके जैसा पाया।
आग का बरसाने वाला।9।
 
छिपे सौ परदों में जो थे।
गये वे भी तिल तिल देखे।
कसर के बिना किसे पाया।
खोल कर लाखों दिल देखे।10।

41. कसौटी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

साँवला कोई हो तो क्या।
अगर हो ढंगों में ढाला।
करेगा क्या गोरा मुखड़ा।
जो किसी का दिल हो काला।1।
 
बड़ी हों या होवें छोटी।
भले ही रहें न रस वाली।
चाहिए वे आँखें हमको।
प्यार की जिनमें हो लाली।2।
 
भरा होवे उनमें जादू।
न रक्खें वे अपना सानी।
क्या करें ऐसी आँखें ले।
गिर गया है जिनका पानी।3।
 
न जिसमें दर्द मिला, ऐसे।
आँख में आँसू क्यों आये।
हित महँक जो न मिल सकी तो।
फूल क्या मुँह से झड़ पाये।4।
 
क्या करे लेकर के कोई।
किसी का रूप रंग ऐसा।
फूल सा होकर के भी जो।
खटकता है काँटों जैसा।5।
 
आदमीयत जो खो अपनी।
काम रखते मतलब से हैं।
भले ही गोरे चिट्टे हों।
आबनूसी कुन्दे वे हैं।6।
 
न बिगड़े रंगत रंगत से।
न मन हो तन पर मतवाला।
भूल में हमको क्यों डाले।
किसी का मुख भोला भाला।7।
 
रूप के हाथ न बिक जाएँ।
न सुख देवें लेकर दुखड़ा।
काठ से अगर पड़ा पाला।
क्या करेगा सुडौल मुखड़ा।8।

42. लाल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

घिरा अँधियारा होवे दूर।
जाय बन उजली काली रात।
चाँद सा मुखड़ा जिसका देख।
जगमगाये तारों की पाँत।1।
 
जाय खुल बन्द हुई सब राह।
बसें फिर से उजड़े घर बार।
लग गये जिसका न्यारा हाथ।
देस का होवे बेड़ा पार।2।
 
जाय भर जी में नई उमंग।
हित भरी सुन कर जिसकी तान।
मंत्र सा जो कानों में फूँक।
डाल देवे जानों में जान।3।
 
रुके जिससे आँसू की धार।
जाय जुड़ जिससे टूटी आस।
दूर होवे भूखे की भूख।
बुझे जिससे प्यासों की प्यास।4।
 
जाति में जो भर देवे जोत।
दिया अंधी आँखों में बाल।
भरे जिससे माता की गोद।
मिलेगा कब हमको वह लाल।5।

43. फूल-3-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

फूल तुम हो सुहावने सरस।
नहीं प्यारे लगते हो किसे।
लुभा लेते हो किसको नहीं।
हो न किस की आँखों में बसे।1।
 
तुम्हारी चाह नहीं है कहाँ।
चढ़े हो किस के सिर पर नहीं।
न भोले भाले तुम से मिले।
न तुम से सुन्दर पाये कहीं।2।
 
भला करते ही देखे गये।
जब मिले तब हँसते ही मिले।
रंग लाते पत्तों में रहे।
दिखाये काँटों में भी खिले।3।
 
कभी तुम सिर का सेहरा बने।
कभी तुम बने गले का हार।
किसी कोमल कर कमलों के।
कभी तुम बने प्रेम उपहार।4।
 
मोल अनमोल मुकुट के हो।
तुम्हीं हो सब ताजों के ताज।
बहुत तुम से है मेरा प्यार।
मान लो इतनी बातें आज।5।
 
धूल से ही तुम हो जनमे।
और मैं हूँ पाँवों की धूल।
बरस जाओ इन सुजनों पर।
झड़ो तुम मेरे मुँह से फूल।6।

44. कामना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बन सकें, सब दिन उतना ही।
दिखाते हैं सब को जितना।
सभी जिससे नीचा देखे।
न माथा ऊँचा हो इतना।1।
 
वार पर वार न कर पाये।
न लहू पी कर हो सेरी।
न बन जाएँ तलवारों सी।
भवें टेढ़ी हो कर मेरी।2।
 
भरें दामन उन दुखियों का।
सदा जो दानों को तरसें।
ग़रीबों के गाँव के जो हों।
आँख से मोती वे बरसें।3।
 
सुने तो दुखियों के दुखड़े।
न भर देने से भर जाये।
आह को रहे कान करता।
कान जो खोले खुल पाये।4।
 
बने क्यों कोई जी खट्टा।
बात मीठी ही कह पाये।
रस भरा है जिस में उस पर।
जीभ क्यों राल न टपकाये।5।
 
गड़े क्यों सोच सोच कर यह।
नाम बिकता है तो बिक ले।
अनारों के दानों सा रस।
पिलाते रहें दाँत निकले।6।
 
फूल से हैं तो सुख देवें।
फूल जैसा खिल खिल करके।
न दहलाएँ औरों का दिल।
होठ मेरे हिल हिल करके।7।
 
चाँदनी जलतों पर छिड़के।
सोत रस की ही कहलावे।
हँसा देवे जो रोतों को।
हँसी वह होठों पर आवे।8।
 
निकाले दिल की कसरों को।
भूल जाये मेरा तेरा।
खोल दे जी की गाँठों को।
खुले जो खोले मुँह मेरा।9।
 
प्यार के हाथों से गुँथा कर।
गलों में गजरे बनकर पड़ें।
खिला दें जी की कलियों को।
फूल जो मेरे मुँह से झड़ें।10।

45. नोक झोंक-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

न मेरी बात सुनते हैं
न अपनी वे सुनाते हैं।
न जाने चाहते क्या हैं।
न जाने क्यों सताते हैं।1।
 
कलेजा जल गया तो जाय।
जले पर क्यों जले आँसू।
न जाने किसलिए वे आग।
पानी में लगाते हैं।2।
 
अगर मुँह है बिगड़ता, बात।
तो कैसे न बिगड़ेगी।
बने तब बात क्यों जब।
बेतरह बातें बनाते हैं।3।
 
किसी भी काम की तो हैं।
नहीं रंगीनियाँ उनकी।
न रख कर रंग औरों का।
अगर वे रंग लाते हैं।4।
 
बदलते हम नहीं उनका।
बदलना आँख का देखो।
हमारी आँख में रह वे।
हमें आँखें दिखाते हैं।5।
 
बता यह भेद कोई दे।
समझ हम तो नहीं पाते।
वे कैसे आँख के ही।
सामने आँखें चुराते हैं।6।
 
खुलीं आँखें नहीं खोले।
मगर खुलकर कहेंगे हम।
तुम्हारी राह में आँखें।
हमीं अपनी बिछाते हैं।7।
 
बता दें बात यह हमको।
बड़े वे आँख वाले हैं।
छिपाते आँख हैं तो आँख।
में कैसे समाते हैं।8।
 
गया जी जल तो आँखों से।
न क्यों चिनगारियाँ निकलें।
लगाते आग हैं तो।
किसलिए आँखें लगाते हैं।9।
 
खटकते आँख में हैं आँख।
के काँटे बने हैं हम।
मिलाएँ किस तरह से आँख।
वे आँखें बचाते हैं।10।

46. पार है-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बीन में तेरी भरी झनकार है।
बज रहा मेरी रगों का तार है।1।
 
यों भवें क्यों हैं नचाई जा रहीं।
आज किस पर चल रही तलवार है।2।
 
जायगी मेरी खबर उन तक पहुँच।
लग गया अब आँसुओं का तार है।3।
 
फूल मुँह से किसलिए झड़ते नहीं।
वह बना मेरे गले का हार है।4।
 
किस तरह वे आँख भर तब देखते।
आँख जब होती नहीं दो चार है।5।
 
वह लगाता है किसी से आँख क्यों।
आँख में जिसका कि बसता प्यार है।6।
 
था बरस पड़ना बरस पड़ते न क्यों।
बेतरह क्यों हो रही बौछार है।7।
 
लड़ गईं आँखें बला से लड़ गईं।
दो दिलों में क्यों मची तकरार है।8।
 
आँख में घर कर रहे हो तो करो।
क्यों हमारा लुट रहा घर बार है।9।
 
मतलबों के रंग में सब है रँगे।
कौन किसका दोस्त किसका यार है।10।
 
पार तूने है नहीं किसको किया।
क्यों हुआ मेरा न बेड़ा पार है।11।
 
वह बिचारी हैट से कब तक भिड़े।
छोड़ कर सिर को भगी दस्तार है।12।
 
किसलिए बेकार तब कोई रहे।
इन दिनों जब कार की भरमार है।13।
 
टाट वह कैसे उलट देता नहीं।
है टके का, जो टके का यार है।14।

47. देख भाल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

टल सकी किस की मुसीबत की घड़ी।
है बला किस के नहीं सिर पर खड़ी।1।
 
आदमी जिससे कि जीता ही रहे।
मिल सकी कोई नहीं ऐसी जड़ी।2।
 
दिल छिले, उस के लगे, साटे पड़े।
हो भले ही फूल की कोई छड़ी।3।
 
जब लड़ी है मोतियों की टूटती।
आँख से तब आँख कोई क्या लड़ी।4।
 
बेतरह दिल भर अगर आता नहीं।
आँसुओं की किस तरह लगती झड़ी।5।
 
किसलिए दिल खोल कर मिलते न तो।
गाँठ जो होती नहीं जी में पड़ी।6।
 
पीस देती पाँतियाँ हैं दाँत की।
किस तरह वे मोतियों की हैं लड़ी।7।
 
जाति ही है तंग करती जाति को।
जब गड़ी तब आँख आंखों में गड़ी।8।
 
भाग वाले का चमकता भाग है।
हर अंगूठी है कहाँ हीरे जड़ी।9।
 
तीन काने की करें परवा न तो।
आन कर बाजी अगर पौ पर अड़ी।10।
 
कर दिखाएँ काम वे कैसे बड़ा।
है बड़ों की बात ही होती बड़ी।11।
 
आंख से चिनगारियाँ निकलें न क्यों।
हैं कलेजे से सही आंचें कड़ी।12।
 
जब किसी जी में भरी है गन्दगी।
क्यों न मुँह से बात तब निकले सड़ी।13।
 
हेकड़ी वह काम की होती नहीं।
हाथ में पड़ जाय जिससे हथकड़ी।14।
 
देख रंगत किसलिए है फूलती।
जब कि मिलती धूल में है पंखुड़ी।15।

48. लेखनी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कमाती रहती है पैसे।
दूर की कौड़ी लाती है।
बात कह लाख टके की भी।
चाम के दाम चलाती है।1।
 
रंग औरों का रखती है।
आप कौवे सी है काली।
बना कर अपना मुँह काला।
मुँहों की रखती है लाली।2।
 
चाह में डूबी रहती है।
चोट पर चोट चलाती है।
बहुत आंखों में है गड़ती।
दिलों में चुभती जाती है।3।
 
सिर कटाने वाली जब है।
बला तब जाती क्यों टाली।
न कैसे नागिन सी डँसती।
जब कि है दो जीभों वाली।4।
 
धारदारों से भी तीखी।
धार दिखलाती है किस में।
नोक किस की ऐसी पाई।
भरी हो नोक झोंक जिस में।5।
 
आप ही बदला लेती है।
बेचारी ताके मुँह किस का।
न छाती वह कैसे छेदे।
कलेजा छिदता है जिसका।6।
 
रंग लाते उसको देखा।
रंगतें भी वह खोती है।
नहीं काली ही बनती है।
लाल पीली भी होती है।7।
 
कलेजा तर रख कर के भी।
बहुत ही जलती भुनती है।
गुल खिलाती है ऊसर में।
फूल काँटों में चुनती है।8।
 
बहाती है रस के सोते।
भला कब आग नहीं बोती।
सियाही से भर कर के भी।
पिरोती रहती है मोती।9।
 
ढंग उस के कुछ पन्नों में।
निराले हीरे जड़ते हैं।
न जिनको कुँभलाते देखा।
फूल वे मुँह से झड़ते हैं।10।

49. छल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

टटोले गये सैकड़ों दिल।
बहुत हम ने देखा भाला।
प्यार सच्चा पाया किस में।
याँ सभी है मतलब वाला।1।
 
विहँस किरणों को फूलों ने।
गोद में अपनी बैठाला।
न जाना था बेचारों ने।
छिनेगी मोती की माला।2।

50. हँसी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रँगीली तितली पर, जिसको।
रंग दिखलाना भाता है।
घूमने वाले भौंरों पर।
भाँवरे जो भर जाता है।1।
 
चिटख जाते दिखलाते हो।
या कि आवाज कसते हो।
सको बतला तो बतला दो।
फूल तुम किस पर हँसते हो।2।

51. मातम-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बनों में जिस से रही बहार।
बाग का जो था सुन्दर साज।
मसल क्यों उस को देवे पाँव।
सजे थे जिससे सर के ताज।1।
 
बनी जिस से अलबेली बेलि।
फबन जिससे पाते थे रूख।
धूल में उसको मिलता देख।
सकेगा कैसे आँसू सूख।2।
 
महँक से जो लेता था मोह।
तर हुई जिसको देखे आँख।
न लेगा कौन कलेजा थाम।
देख कर उड़ती उसकी राख।3।
 
चूमता था जिसको कर प्यार।
भाँवरें भर भर करके भौंर।
उठे उस पर क्यों उसका हाथ।
कहाता है जो जग सिर मौर।4।
 
राह में देवें उन्हें न डाल।
न जी से देवें उन्हें उतार।
भरी थी जिन से कितनी गोद।
बने जो किसी गले का हार।5।
 
किया था जिसको जी से प्यार।
दिया क्यों उसे बला में डाल।
बना किसलिए काल का कौर।
रहा जो किसी कोख का लाल।6।
 
दिया क्यों उसे धूल पर फेंक।
बने क्यों उससे बे परवाह।
खिंचे थे जिसकी रंगत देख।
कभी थी जिसकी चित में चाह।7।
 
न उनकी पंखुड़ियाँ लें नोच।
उन्हें दे गलियों में न बखेर।
नहीं जिनकी छवि पाते भूल।
सके हम आँख न जिनसे फेर।8।
 
कम न उनका कर देवें मोल।
किसलिए उन्हें करें पामाल।
मेलियों से करते हैं मेल।
गले में जिन का गजरा डाल।9।
 
कलेजे जिस से खाएँ चोट।
किसी से हो क्यों ऐसी भूल।
किसलिए नुचे बने बद रंग।
हाथ में आया कोई फूल।10।

52. दुख दर्द-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रही वह प्यारी रंगत नहीं।
जहाँ रस था अब रज है वहाँ।
किसलिए भौंरे आवें पास।
बास अब फूलों में है कहाँ।1।
 
धूल में कुम्हलाया है पड़ा।
चाहती थीं वे जी से जिसे।
साड़ियाँ बड़ी सजीली पैन्ह।
तितलियाँ नाच दिखाएँ किसे।2।
 
देख कर जिसकी प्यारी फबन।
नहीं अंखें सकती थीं घूम।
नहीं मिलता है अब वह कहीं।
हवा किसका मुँह लेवे चूम।3।
 
लिपटती थी जिस से जी खोल।
नहीं मिलता उसका वह माल।
बे तरह बिखर बिखर सब ओर।
क्यों न फैले किरणों का जाल।4।
 
पिरोती मोती जिस के लिए।
मानती जी में जिस का पोस।
पा सकी आज न उस की खोज।
क्यों न रोती दिखलाती ओस।5।

53. वह फूल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

धूल सिर पर उड़ा उड़ा कर के।
है उसे वायु खोजती फिरती।
है कभी साँस ले रही ठंढी।
है कभी आह ऊब कर भरती।1।
 
हो गयी गोद बेलि की सूनी।
है न वह रंग बू न तन है वह।
बे तरह हैं खटक रहे काँटे।
पत्तियों में कहाँ फबन है वह।2।
 
इस तरह फिर रही तितलियाँ हैं।
हों किसी के लिए दुखी जैसे।
है ललक वह न ढंग ही है वह।
हैं न भौंरे उमंग में वैसे।3।
 
है किरण आसमान से उतरी।
पर कहाँ आज रंग लाती है।
मिल गले खेलती रही जिससे।
अब उसे देख ही न पाती है।4।
 
बाग जिस फूल के मिले महँका।
फूल वह तोड़ ले गया कोई।
ओस आँसू बहा बहा करके।
रात उसके लिए बहुत रोई।5।

54. खिली कली-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

किसलिए आई दुनिया में।
बला जो टली नहीं टाले।
दुखों से गला जो न छूटा।
सुखों के पडे रहे लाले।1।
 
किसलिए दिखलाई रंगत।
रंग जो सदा न रह पाया।
धूल में जो मिल जाना था।
फूल कर तो क्या फल पाया।2।
 
गोद में हरी डालियों की।
बैठ कर के क्या तू बहँकी।
पड़ा जो कीड़ों से पाला।
किसलिए तो मह मह महँकी।3।
 
प्यार दिखला के भौंरों से।
किसलिए जोड़ी हित कड़ियाँ।
दो दिनों में ही जब बिखरीं।
फबीली तेरी पंखड़ियाँ।4।
 
आँसुओं की ए बूँदें हैं।
ओस कह ले इनको कोई।
खिली तब क्यों जब कुम्हलाई।
हँसी तब क्यों जब तू रोई।5।

55. कसकते काँटे-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बुरे रंगों में जो रँग दें।
न जी में उठें तरंगें वे।
भरी बदबू से जो होवें।
धूल में मिलें उमंगें वे।1।
 
दिखाते बने न जिससे मुँह।
न होवे ऐसी मनमानी।
क्यों उठें वे लहरें जी में।
उतर जाय जिससे पानी।2।
 
मान अपने जी की बातें।
बाप के दिल को क्यों मसले।
नागिनों सी बल खा खा कर।
आँख की पुतली क्यों डँस ले।3।
 
प्यार से पाली पोसी क्यों।
बला जैसी सिर पर टूटे।
कोख को कोस कोस कर माँ।
क्यों कलेजा अपना कूटे।4।
 
हतक क्यों ऐसी हो जिससे।
जाय तन बिन मरजादा तन।
सुन जिसे लोग कान मूँदें।
जाति की नीची हो गरदन।5।
 
किसलिए लगे लगन ऐसी।
भरे होवें जिसमें चसके।
किसी परिवार कलेजे में।
सदा जो काँटों सा कसके।6।
 
अछूता क्यों न उसे छोड़ें।
जवानी की छिछली छूतें।
हिला दें क्यों समाज का दिल।
किसी की काली करतूतें।7।
 
रँग रलियों में जो डूबी।
जायँ जल ऐसी सुख चाहें।
लगा दें आग देश में जो।
खुलें क्यों ऐसी रस राहें।8।
 
पड़े जिस पर भद्दे धब्बे।
वह चलन चादर चिथड़े हो।
बनें जिससे पड़ोस गन्दे।
क्यों न वह तन सौ टुकड़े हो।9।
 
मन उड़ा उड़ा फिरे जिससे।
जाय जिससे तन में लग घुन।
उमंगों भरे किसी जी में।
समा जाये क्यों ऐसी धुन।10।
 
धुनों पर क्यों मतवाली हो।
क्यों न सुर तालों को जाँचें।
किसी बे सुरे राग पर क्यों।
चाहतें नंगी हो नाचें।11।

56. उड़ती छींटें-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कम नहीं है किसी कसाई से।
जो गला और का रहे कसते।
किस तरह जान बच सके उनसे।
जो कि हैं साँप की तरह डँसते।1।
 
वे करेंगे न लाल किसका मुँह।
जो सदा मारते रहे चाँटे।
वे चुभेंगे भला नहीं कैसे।
राह के जो बने रहे काँटे।2।
 
छीलती जो रहें कलेजों को।
क्यों लिखी जायँगी न वे सतरें।
है कतर ब्योंत ही जिन्हें प्यारा।
क्यों किसी का न कान वे कतरें।3।
 
वे भला क्यों न नोच खाएँगे।
खुल गये आँख टूटते जो हैं।
क्यों सकें देख और का दुख वे।
मूँद कर आँख लूटते जो हैं।4।
 
दिन बहुत ही उसे डराता है।
क्यों न बोली डरावनी बोले।
है अँधेरा पसंद उल्लू को।
किसलिए रात में न पर खोले।5।
 
है उन्हें फूट ही बहुत प्यारा।
क्यों न फट जाय पेट ककड़ी सा।
है जिन्हें मक्खियाँ फँसाना वे।
क्यों बुनेंगे न जाल मकड़ी सा।6।
 
क्यों न मर जाय या जिये कोई।
पेट अपना उन्हें तो भरना है।
तब चलें क्यों न चाल बगलों सी।
जब किसी का शिकार करना है।7।
 
क्यों चलें भाग वे न खरहों सा।
जो कहीं पर छिपे पड़े होंगे।
चौंकते बात बात में हैं जो।
कान उनके न क्यों खड़े होंगे।8।
 
कूदते फाँदते उछलते हैं।
कर खुटाई बहुत सटकते हैं।
मार उन पर न क्यों पड़ेगी जो।
बन्दरों की तरह मटकते हैं।9।
 
निज फटे पेट को दिखा करके।
लोग मिलते जहाँ तहाँ रोते।
तो किसे छोड़ते बिना मारे।
जो गधो सींग पा गये होते।10।
 
क्यों लगे हों न ढेर रत्नों के।
मानते जायँगे उन्हें ढूहे।
मोल वे जान ही नहीं सकते।
जो बिलों के बने रहे चूहे।11।
 
चापलूसी बुरी कचाई है।
हैं बुरे सब दिये गये बुत्तो।
पूँछ अपनी हिला हिला करके।
पेट पालें न पेट के कुत्तो।12।

57. चेतावनी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है समझ आज घर बसा न रही।
राह पर है हमें लगा न रही।1।
 
जागते क्यों नहीं जगाने से।
जाति क्या है हमें जगा न रही।2।
 
तब भला क्यों हवा न हो जाते।
जब हमारी बँधी हवा न रही।3।
 
बे तरह हो रहे दुखी क्यों हैं।
क्या दुखों की कोई दवा न रही।4।
 
रंगतें यों बिगाड़ कर मेरी।
रंग लाती कभी बला न रही।5।
 
जाय वह हार क्यों गले का बन।
कब भला काहिली ववा न रही।6।
 
बेबसी बे तरह फँसा कर के।
यों कभी फाँसती गला न रही।7।
 
क्यों लहू पर है पड़ गया पाला।
चाट क्या चोट है चला न रही।8।
 
बेहयापन पसन्द क्यों आया।
किसलिए आँख में हया न रही।9।
 
कब तलक यों फटे रहेंगे हम।
क्या गला फूट है दबा न रही।10।

58. नशा-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पीना नशा बुरा है पीये नशा न कोई।
है आग इस बला ने लाखों घरों में बोई।1।
 
उसका रहा न पानी।
जिसने कि भंग छानी।
क्यों लाख बार जाये वह दूध से न धोई।2।
 
चंड की चाह से भर।
किस का न फिर गया सर।
पी कर शराब किसने है आबरू न खोई।3।
 
चसका लगे चरस का।
रहता है कौन कस का।
चुरटों की चाट ने कब लुटिया नहीं डुबोई।4।
 
क्या रस है ऊँघने में।
सुँघनी के सूँघने में।
उसने कभी न सिर पर गठरी सुरति की ढोई।5।
 
लगती नहीं किसे वह।
ठगती नहीं किसे वह।
सुरती बिगाड़ती है लीपी पुती रसोई।6।
 
अफयून है बनाती।
छलनी समान छाती।
यह देख बेबसी कब मुँह मूँद कर न सोई।7।
 
जी देख कर सनकता।
घुन देख तन में लगता।
कब सुधा गँजेड़ियों की सर पीट कर न रोई।8।

59. कड़वा घूँट-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जब कि पटरी ही नहीं है बैठती।
तब पटाये जाति से कैसे पटे।
वे चले हैं कान सबका काटने।
देस की है नाक कटती तो कटे।1।
 
मुँह बना रखते रहेंगे बात वे।
जाति मुँह की खा रही है खाय तो।
वे उचक तारे रहेंगे तोड़ते।
देस जाता है रसातल जाय तो।2।
 
डूब कर पानी अगर पीते नहीं।
जाति का बेड़ा डुबोते किस तरह।
जब निकल जी का नहीं काँटा सका।
देस में काँटे न बोते किस तरह।3।
 
लीडरी की जड़ न हिलनी चाहिए।
जाति का दिल हिल रहा है तो हिले।
हिन्दुओं की तो उड़ेगी धूल ही।
देस मिलता धूल में है तो मिले।4।
 
है कलेजे को पहुँच ठंढक रही।
क्या करें वे, जल रहे हैं जो सगे।
आग ही वे हैं उगलना चाहते।
देस में है आग लगती तो लगे।5।

60. ताड़ झाड़-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बे तुके किस तरह कहाएँगे।
बे तुकी जो नहीं सुनाएँगे।1।
 
तो कहे जाएँगे जले तन क्यों।
आग घर में न जो लगाएँगे।2।
 
है बढ़ाना समाज को आगे।
पाँव पीछे न क्यों हटाएँगे।3।
 
हैं बड़े, नाम है बड़प्पन में।
लाल अपने न क्यों लुटाएँगे।4।
 
बीर हैं, आँख में लहू उतरे।
क्यों न सगे का लहू बहाएँगे।5।
 
हैं दुखी, हो गयी जलन दूनी।
लड़कियों को न क्यों जलाएँगे।6।
 
जब बड़े आन बान वाले हैं।
अनबनों को न क्यों बढ़ाएँगे।7।
 
लीडरी किस तरह सकेगी बच।
फूट की जड़ न जो जमाएँगे।8।
 
देस को पार जब लगाना है।
जाति को क्यों न तो डुबाएँगे।9।
 
क्यों मिलेगा स्वराज, सब हिन्दू।
जो न नाकों चने चबाएँगे।10।

61. मुँह काला-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

भरी नटखटी रग रग में है।
एक एक रोआँ है ऐंठा।
उस के जी में सब पाजीपन।
पाँव तोड़ कर के है बैठा।1।
 
वह कमीनपन का पुतला है।
ढीठ, ऊधमी बैठा ठाला।
झूठा, नीच, कान का पतला।
बड़ा निघरघट मद मतवाला।2।
 
छली छिछोरा जी का ओछा।
कुन्दा है बे छीला छाला।
छिछला बरतन घड़ा अधभरा।
अंधा है हो आँखों वाला।3।
 
है छटाँक पर मन बनता है।
कितनी आँखों का है काँटा।
रँगा सियार काठ का उल्लू।
छँटे हुए लोगों में छाँटा।4।
 
सधा उचक्का पक्का ढोंगी।
काला साँप जहर का प्याला।
किस के हित का काल नहीं है।
काले दिन वाला मुँह काला।5।

62. काला दिल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चितवन क्या तो भोली भाली।
पड़ा कलेजे में जो छाला।
आँखों से तो क्या रस बरसा।
पीना पड़ा अगर विष प्याला।1।
 
आग सी लगाते हैं जी में।
जब थोड़ा आगे हैं बढ़ते।
होठ क्या रँगें लाल रंग में।
बोल बड़े कड़वे हैं कढ़ते।2।
 
लगा कहाँ तब रस का चसका।
जब नीरस बातें कहती है।
जीभ किसी की तब क्या सँभली।
जब काँटा बोती रहती है।3।
 
हँसी उस हँसी को न कहेंगे।
लगी गले में जिस से फाँसी।
मीठी बात रही क्या मीठी।
चुभी कलेजे में जो गाँसी।4।
 
अंधकार का जो है पुतला।
उसमें कैसे मिले उँजाला।
गोरे मुखड़े से क्या होगा।
अगर किसी का दिल है काला।5।

63. अपने दुखड़े-1-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बात अपनी किसे बताएँगे।
हाल घर का किसे सुनाएँगे।1।
 
जो सके सुन न आप दुख मेरा।
क्यों कलेजा निकाल पाएँगे।2।
 
जब कि हम आँख देख लेवेंगे।
लोग आँखें न क्यों दिखाएँगे।3।
 
जब गयी आँख तब नहीं क्यों हम।
आँख की पुतलियाँ गँवाएँगे।4।
 
बे तरह जब कि आज हैं बिगड़े।
तब बड़ों को न क्यों बनाएँगे।5।
 
काटना कान है सपूतों का।
नाक अपनी न क्यों कटाएँगे।6।
 
पड़ गयी मार, पर मिले टुकड़े।
पूँछ कैसे नहीं हिलाएँगे।7।
 
क्यों दिखाएँगे नीच को नीचा।
आँख ऊँची अगर उठाएँगे।8।
 
हैं अगर बे हिसाब मुँह बाते।
किस तरह तो न मुँह की खाएँगे।9।
 
जाति को तो जिला नहीं सकते।
जान पर खेल जो न जाएँगे।10।

64. डाँट डपट-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

रंग लाते नये नये क्यों हैं।
किसलिए हैं उमंग में आते।
जो दिलों में पड़े हुए छाले।
छातियाँ छेद ही नहीं पाते।1।
 
किसलिए साँस फूलती है तो।
जो सितम की जड़ें नहीं खनतीं।
एक बे पीर के लिए साँसत।
जो नहीं काल साँपिनी बनती।2।
 
दून की ले, बना बना बातें।
बीज क्यों आन बान का बोएँ।
वेधा देते नहीं कलेजों को।
जो हमारे कलप रहे रोएँ।3।
 
तो बँधी धक धूल मिट्टी है।
और है सब चटक मटक फीकी।
चूसने की तमाम चाटों को।
कर गयी चट न जो कचट जी की।4।
 
बात लगती अगर नहीं लगती।
तो कहाएँ न क्यों गये बीते।
निज दुखों का न क्यों पिएँ लहू।
हैं लहू घूँट हम अगर पीते।5।
 
क्यों न बिन बाल-बाल जाएगा।
बल रहा जो बवाल मुँह तकता।
रंज क्यों जायँगे न पहुँचाये।
रंज जो बन बला नहीं सकता।6।
 
तो न करते रहें अबस फूँ फूँ
आज हैं फँक से अगर उड़ते।
कढ़ रही गर्म गर्म आहों से।
हैं अंगारे अगर नहीं झड़ते।7।
 
किसलिए तो बनें जले तन हम।
जल रही हैं अगर नहीं माखें।
आग जो हैं बरस नहीं पातीं।
आँसुओं से भरी हुई आँखें।8।

65. भिखारिणी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

उमगती हँसती आती हूँ।
अनूठा गजरा लाती हूँ।
भरा आँखों में हो आँसू मगर मोती बरसाती हूँ।1।
 
बाल हों बुरी तरह फैले।
अंग होवें मेरे मैले।
फटे सारे कपड़े होवें मगर फूली न समाती हूँ।2।
 
ठोकरें पर ठोकर खाऊँ।
निकाली घर घर से जाऊँ।
गालियाँ सुनूँ लगें धक्के रंग में अपने माती हूँ।3।
 
बन्द होवें सुख की राहें।
धूल में मिल जाएँ चाहें।
उमंगें हों मेरी पिसती गीत मन माने गाती हूँ।4।
 
यहाँ हैं कहाँ आँख वाले।
लोग हैं अंधो मतवाले।
मतलबों के कीड़े सब हैं भेद यह मैं बतलाती हूँ।5।
 
नाम की चाह किसी को है।
काम की चाह किसी को है।
चाम पर भूला है कोई भला मैं किस को भाती हूँ।6।
 
कौड़ियाले घर घर पाये।
लहू के प्यासे दिखलाये।
कलेजा खाते हैं कितने कब न मैं मुँह की खाती हूँ।7।
 
दया किसमें दिखलाती है।
पिघलती किसकी छाती है।
किसी को मिट्टी का पुतला किसी को पत्थर पाती हूँ।8।
 
दुखों से घिरती रहती हूँ।
बुरी आँचें मैं सहती हूँ।
बे तरह जलती भुनती हूँ कहाँ मैं आग लगाती हूँ।9।
 
किसी का दिल न दुखाती हूँ।
सभी का भला मनाती हूँ।
किसी पर फूल बखेरे हैं किसी को हार पिन्हाती हूँ।10।

66. एक भिखारी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

चाल चल चल कर के कितनी।
मैं नहीं माल मूसता हूँ।
घिनाये क्यों मुझसे कोई।
मैं नहीं लहू चूसता हूँ।1।
 
फटे कपड़े मेरे होवें।
भाग मेरा होवे फूटा।
बता दो लोट पोट कर कब।
किसी का घर मैंने लूटा।2।
 
दाँत मेरे निकले होवें।
पर कभी नहीं उखड़ता हूँ।
मिले कौड़ी न, कौड़ियों को।
दाँत से नहीं पकड़ता हूँ।3।
 
पेट मैं दिखलाता होऊँ।
पर न है पेट पाप-थैला।
भले ही तन मैला होवे।
नहीं है मन मेरा मैला।4।
 
आँख नीची मैं रखता हूँ
गिने है सबको ऊँचा मन।
नहीं दिखलाता हूँ नीचा।
आँख ऊँची कर ऊँचा बन।5।
 
आप मैं पिसता रहता हूँ।
बहुत गत बनती है मेरी।
मगर कब मेरे हाथों से।
गयी जनता पिसी पेरी।6।
 
ठोकरें खाता फिरता हूँ।
सिसिकती रहती हैं माँखें।
लहू कब किस का करती हैं।
लहू बन बन मेरी आँखें।7।
 
बुरी सूरत होवे मेरी।
धूल से भर जाता हो तन।
कभी मन मेरा फूँ फँ कर।
नहीं बन सका साँप का फन।8।
 
कलेजा मेरा छिलता है।
गत बनी आँखों के तिल की।
कहाँ मेरे मुँह से निकली।
सड़ी बू सड़े हुए दिल की।9।
 
सदा मैं भूखों मरता हूँ।
पर कहाँ दिल में है कीना।
दुही मैंने किस की पोटी।
कौर किस के मुँह का छीना।10।

67. बेतुकी बातें-1-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जब लगा तार तार ही टूटा।
और झनकार फूट कर रोई।
जब कि बोली न बोल की तूती।
किसलिए बीन तब बजी कोई।1।
 
जो निछावर हुई नहीं तितली।
जो न भर भाँवरें भँवर भूला।
रंग बू है अगर नहीं रखता।
तो कहीं फूल किसलिए फूला।2।
 
सुन उसे सिर धुना अगर धुन ने।
और खट राग राग को भाया।
सुर अगर बे सुरे बने सारे।
किसलिए गीत तो गया गाया।3।
 
एक पत्ता हरा न हो पाया।
पर गये सब खिले गुलाब झुलस।
देखिए ये उठे हुए बादल।
किस तरह का बरस रहे हैं रस।4।
 
क्यों गँवाएँ न हाथ के हीरे।
भूल पर भूल है अगर होती।
किसलिए लोग मूँद कर आँखें।
पोत को हैं बता रहे मोती।5।
 
हैं न वैसे हरे भरे पौधे।
फूल में हैं न रंगतें वैसी।
है कहाँ वह बहार बागों में।
आज है बह रही हवा कैसी।6।
 
देख करके जमाव कौओं का।
पत्तियों में न क्यों छिपे जाते।
है मचा काँव काँव कुछ ऐसा।
पिक कहीं कूकने नहीं पाते।7।
 
देख उनकी लुभावनी चालें।
हो गये खीज खीज कर पगले।
चोंच अपनी चला चला करके।
हंस को नोच हैं रहे बगुले।8।
 
इस तरह क्यों उठा रहे हो सिर।
किसलिए हो बहुत बढ़े जाते।
जो तुम्हें पालती नहीं मिट्टी।
पेड़ तो तुम पनप नहीं पाते।9।
 
भूल है मत हँसी करो उसकी।
रूप औ रंग मिल सके जिस से।
धूल की धूल क्यों उड़ाते हो।
पा सके फूल तुम महँक किससे।10।

68. फूल-पत्ते-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है जिन्हें तोड़ना भले ही वे।
तोड़ लें आसमान के तारे।
ये फबीले इधर उधर फैले।
फूल ही हैं हमें बहुत प्यारे।1।
 
दिन अँधेरा भरा नहीं होता।
जगमगातीं नहीं सभी रातें।
है खुला दिल खुली हुई आँखें।
फिर कहें क्यों न हम खुली बातें।2।
 
बाँधने से हवा नहीं बँधती।
हो सकेंगे कभी न सच सपने।
दूसरे रंग लें जमा, हम तो।
मस्त रहते हैं रंग में अपने।3।
 
सूझ कर सूझता नहीं जिन को।
सूझ वाले कहीं न हों ऐसे।
कब कहाँ कौन पा सका पारस।
दे सके काम पास के पैसे।4।
 
क्यों टटोला करें अँधेरे में।
सींक सा क्यों हवा लगे डोलें।
क्यों बुनें जाल उलझनें डालें।
आँख अपनी न किसलिए खोलें।5।
 
जो हमें भेज दे रसातल को।
यों हवा में कभी नहीं मुड़ते।
चींटियों का लगा लगा के पर।
हम नहीं आसमान पर उड़ते।6।
 
सूझता है नहीं अँधेरे में।
जोत में ही सदा रहेंगे हम।
क्यों किसी आँख में करें उँगली।
बात देखी सुनी कहेंगे हम।7।
 
हों हमारे कलाम क्यों मीठे।
वे शहद से भरे न छत्ते हैं।
किस तरह हम उन्हें अमोल कहें।
पास मेरे तो फूल पत्ते हैं।8।

69. पागल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बाल को साँप समझते हैं।
तनी भौंहों को तलवारें।
तीर कहते हैं आँखों को।
भले ही वे उनको मारें।1।
 
नाक उड़ जाये पर वे तो।
नाक को कीर बताएँगे।
कान मल दे कोई पर वे।
कान को सीप बनाएँगे।2।
 
इस उपज की है बलिहारी।
क्यों न हो कितनी ही खोटी।
डँस लिया उसने कब किस को।
बन गयी क्यों नागिन चोटी।3।
 
गिरे आँसू की बूँदों में।
क्यों न हों पीड़ाएँ सोती।
उतर जाएँ पानी पर वे।
बताएँगे उनको मोती।4।
 
दाँत कितने ही हों दीखें।
वे उन्हें कुन्द बनाते हैं।
हँसी से गिरती है बिजली।
सुधा उसमें बतलाते हैं।5।
 
लाल वे उनको कहते हैं।
घर नहीं जिनसे पाते बस।
चाटते रहे होठ सब दिन।
पर भरा होठों में है रस।6।
 
ठिकाने जिसका जी हो, वह।
बहँकता कब दिखलाता है।
कंठ जो कोकिल का सा है।
क्यों कबूतर कहलाता है।7।
 
जिन्हें फल बतलाया उनसे।
बूँद पय की कैसे टपकी।
कमर को सिंह कहा, पर वह।
बता दो कब किस पर लपकी।8।
 
बात जो आती है मुँह पर।
किसी की बड़ है बन जाती।
न जाने क्यों अंधियारे में।
ज्योति छिपती है दिखलाती।9।
 
गान नीरव रह गाते हैं।
मौन में सुनते हैं कल कल।
बजाते हैं टूटी वीणा।
कहें हम क्यों कवि हैं पागल।10।

70. दिल के फफोले-1-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जिसे सूझ कर भी नहीं सूझ पाता।
नहीं बात बिगड़ी हुई जो बनाता।
फिसल कर सँभलना जिसे है न आता।
नहीं पाँव उखड़ा हुआ जो जमाता।
पड़ेगा सुखों का उसे क्यों न लाला।
सदा ही सहेगा न वह क्यों कसाला।1।
 
रँगा जो नहीं रंगतों में समय की।
नहीं राह काँटों भरी जिसने तय की।
बहुत है कँपाती जिसे बात भय की।
नहीं तान जिसने सुनी नीति नय की।
गला बेतरह क्यों न उसका फँसेगा।
उजड़ता हुआ घर न उसका बसेगा।2।
 
नहीं देखता जो कि क्या हो रहा है।
न अब भी जगा, जो पड़ा सो रहा है।
बुरे बीज, अपने लिए बो रहा है।
बचा मान जो दिन बदिन खो रहा है।
भला ठोकरें खायगा वह न कैसे।
रसातल चला, जायगा वह न कैसे।3।
 
बढ़े जाँय आगे पड़ोसी हमारे।
चढे ज़ाँय ऊँचे चलन के सहारे।
समय देख करके करें काम सारे।
सँभाले सँभल जाँय सुधारें सुधारें।
मगर हम रहें करवटें ही बदलते।
सबेरा हुए भी रहें आँख मलते।4।
 
भला किस तरह तो न पीछे पड़ेंगे।
सभी दुख न क्यों सामने आ अड़ेंगे।
हमें बेतरह क्यों न काँटे गड़ेंगे।
चपत लोग कैसे न हम को जड़ेंगे।
लगातार तो हम लटेंगे न कैसे।
पिसेंगे लुटेंगे पिटेंगे न कैसे।5।
 
घटी हो रही है घटे जा रहे हैं।
बहुत जातियों में बँटे जा रहे हैं।
लगातार पीछे हटे जा रहे हैं।
जथे बाँधा करके जटे जा रहे हैं।
गला फँस गया है बला में पड़े हैं।
मगर कान तब भी न होते खड़े हैं।6।
 
न हम अनबनों से भगाये भगेंगे।
न हम एकता रंगतों में रँगेंगे।
नहीं काम में हम लगाये लगेंगे।
जगाये गये पर नहीं हम जगेंगे।
भला धूल में तो मिलेंगे न कैसे।
हमारे खुले मुँह सिलेंगे न कैसे।7।
 
न हित की सुनेंगे न हित की कहेंगे।
जहाँ बोलना है वहाँ चुप रहेंगे।
सहेंगे सभी की न घर की सहेंगे।
अगर कुछ महेंगे तो पानी महेंगे।
बुरा हाल है बेतरह आँख फूटी।
मगर फूट की बात अब भी न छूटी।8।
 
भली बात हम को ने लगती भली है।
बुरी से बुरी चाल हम ने चली है।
गयी भूल हम को भलाई गली है।
हमीं से पड़ी जाति में खलबली है।
मगर ढंग बदला न तब भी हमारा।
हितों से हमीं कर रहे हैं किनारा।9।
 
लड़ेंगे अगर तो सगों से लड़ेंगे।
बला बन गले दूसरों के पड़ेंगे।
न अड़ना जहाँ चाहिए वाँ अड़ेंगे।
बुरी राह में, संग बनकर गड़ेंगे।
चमक किस तरह तो सकेगा सितारा।
न क्यों जायगा डूब बेड़ा हमारा।10।

71. अपने दुखड़े-2-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

देश को जिस ने जगाया जगे सोने न दिया।
आग घर घर में बुरी फूट को बोने न दिया।1।
 
है वही बीर पिया दूध उसी ने माँ का।
जाति को जिसने जिगर थाम के रोने न दिया।2।
 
बन गये भोले बहुत, अपनी भलाई भूली।
है इसी भूल ने अब तक भला होने न दिया।3।
 
बार से कैसे दुखों के न भला दब जाते।
ऐब अपना हमें अदबार ने खोने न दिया।4।
 
किस तरह बात बने क्यों न दबा अनबन ले।
प्यार का बोझ बनावट ने तो ढोने न दिया।5।
 
हो सके मेल क्यों हम कैसे गले मिल पावें।
मैल जी का बुरे मैलान ने खोने न दिया।6।
 
तो किसी काम की रंगत न रही जो उसने।
भाव रंगों में उमंगों को भिगोने न दिया।7।
 
लाल माई का हमें लोग कहेंगे कैसे।
प्रेम आँसू ने अगर मोती पिरोने न दिया।8।
 

(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Ayodhya Singh Upadhyay) #icon=(link) #color=(#2339bd)

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