अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’-पारिजात Parijat

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Parijat Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh'
पारिजात अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

प्रथम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

(1)
गेय गान
शार्दूल-विक्रीडित
आराधे भव-साधना सरल हो साधें सुधासिक्त हों।
सारी भाव-विभूति भूतपति की हो सिध्दियों से भरी।
पाता की अनुकूलता कलित हो धाता विधाता बने।
पाके मादकता-विहीन मधुता हो मोदिता मेदिनी॥1॥
 
सारे मानस-भाव इन्द्रधानु-से हो मुग्धता से भ।
देखे श्यामलता प्रमोद-मदिरा मेधा-मयूरी पिये।
न्यारी मानवता सुधा बरस के दे मोहिनी मंजुता।
भू को मेघ मनोज्ञ-मूर्ति कर दे माधुर्य-मुक्तामयी॥2॥
 
वसंत-तिलका
 
तो क्यों न लोकहित लालित हो सकेगा।
जो लालसा ललित भाव ललाम होगे।
तो क्यों अलौकिक अनेक कला न होगी।
जो कल्प-बेलि सम कामद कल्पना हो॥3॥
 
द्रुतविलम्बित
 
सुजनता जनता-हितकारिता।
मधुरता मृदुता यदि है भली।
मनुजता-रत सादर तो सुनें।
सुकवि की कलिता कवितावली॥4॥
 
विकल है करती यदि काल की।
कलि-विभूति-मयी विकरालता।
बहु समाहित हो बुध तो सुनें।
हितकरी 'हरिऔध'-पदावली॥5॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
है आलोकित लोक-लोक किसकी आलोक-माला मिले।
पाते हैं उसको सुरासुर कहाँ जो सत्य सर्वस्व है।
है संयोजक कौन सूर-राशि का, स्वर्गीय सम्पत्ति का।
कोई क्यों उसको असार समझे, संसार में सार है॥6॥
 
न्यारी शान्ति मिली कहीं विलसती, है क्रान्ति होती कहीं।
प्याला है रस का कहीं छलकता, है ज्वाल-माला कहीं।
है आहार, विहार, वैभव कहीं; संहार होता कहीं।
है अत्यन्त अकल्पनीय भव की क्रीड़ामयी कल्पना॥7॥
 
दिव्य दशमूर्ति
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
जय-जय जयति लोक-ललाम,
सकल मंगल-धाम।
 
भरत भू को देख अभिनव भाव से अभिभूत।
राममोहन रूप धर भ्रम-निधन-रत अविराम॥1॥
विविध नवल विचार-विचलित युवक-दल अवलोक।
रामकृष्ण स्वरूप में अवतरित बन विश्राम॥2॥
 
विपुल आकुल बाल-विधवा बहु विलाप विलोक।
विदित ईश्वरचन्द्र वपु धर स्ववश-कृत विधि वाम॥3॥
 
वेद-विहित प्रथित सनातन-पंथ मथित विचार।
दयानन्द शरीर धर शासन-निरत वसु याम॥4॥
 
पतन-प्राय समाज-शोधन की बताई नीति।
विहर रानाडे-हृदय में विदित कर परिणाम॥5॥
 
एक सत्ता मंत्र से दी धर्म्म को ध्रुव शक्ति।
रामतीर्थ स्वरूप धर उर-हार कर हरि-नाम॥6॥
 
दलित वंचित व्यथित महि में की अचिन्तित क्रान्ति।
बाल-गंगाधर तिलक बनकर अलौकिक काम॥7॥
 
राजनीति-विधन की विधि-हीनता की हीन।
गोखले गौरवित तन धर विरच सित मति श्याम॥8॥
 
तिमिर-पूरित भरत-भू में ज्योति भर दी भूरि।
मदनमोहन मूर्ति धर बनकर भुवन-अभिराम॥9॥
 
विविध बाधा मुक्ति-पथ की शमन की रह शान्त।
मंजु मोहन-चन्द में रम कर विहित संग्राम॥10॥
 
मातृ-महि-हित-रत क हर हृदय कुत्सित भाव।
द्रवित उर 'हरिऔध' गुंफित दिव्य जन गुणग्राम॥11॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
नाना कार्य-विधायिनी निपुणता नीतिज्ञता विज्ञता।
न्यारी जाति-हितैषिता सबलता निर्भीकता दक्षता।
 
सच्ची सज्जनता स्वधर्म-मतिता स्वच्छन्दता सत्यता।
दिव्यों की दर्शमूर्ति देश-जन को देती रहे दिव्यता॥
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(3)
कामना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
गीत
 
विधि-विधन हो मधुमय मृदुल मनोहर।
आलोकित हो लोक अधिकतर
हो काल विपुल अनुकूल सकल कलि-मल टले॥1॥
 
विमल विचार-विवेक-वलित हो मानस।
पाये तेज दलित हो तामस।
मंजुल-तम ज्ञान-प्रदीप हृदय-तल में बले॥2॥
 
हो सजीवता सर्व जनों में संचित।
क न कोमल प्रकृति प्रवंचित।
भावे भावुकता भूति भाव होवें भले॥3॥
 
कर न सके भयभीत किसी को भावी।
साहस बने सुधारस-स्रावी।
दिखलावे सबल समोद दुखित दल दुख दले॥4॥
 
मद-रज से हों मानस-मुकुर न मैले।
बंधु-भाव वसुधा में फैले।
मानवता का कर दलन न दानवता खले॥5॥
 
मर्म हृदय का हृदयवान् जन जाने।
ममता पर ममता पहचाने।
बन धर्म धुरंधर लोक-कर्म-पथ पर चले॥6॥
 
जगा जीवनी-ज्योति जातियाँ जागें।
अनुरंजन-रत हो अनुरागें।
भव-हित-पलने में देश-प्रेम प्रिय शिशु पले॥7॥
 
विपुल विनोदित बने सुखित हो पावे।
सुर-वांछित वैभव अपनावे।
पहुँचे पुनीत तम सुजन देव-पादप-तले॥8॥
 
द्रवित मोम सम पवि मानस हो जावे।
कूटनीति तृण-राशि जलावे।
होवे हित-पावक प्रखर प्रेम-पंखा झले॥9॥
 
छिले न कोई उर न क्षोभ छू जावे।
शान्ति-छटा छिटकी दिखलावे।
छल करके कोई छली न क्षिति-तल को छले॥10॥
 
सब विभेद तज भेद-साधना जाने।
महामंत्र भव-हित को माने।
अभिमत फल पाकर साधक जन फूले-फले॥11॥
 
शिखरिणी-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
दिवा-स्वामी होवे रुचिर रुचिकारी दिवस हो।
दिशाएँ दिव्या हों सरस सुखदायी समय हो।
मयंकाभा होवे सित-तम महा मंजु रजनी।
सुधा की धारा से धुल-धुल धरा हो धवलिता॥12॥
 
भले भावों से हो भरित भव भावी सबलता।
स्वभावों को भावें भुवन-भयहारी सदयता।
सदाचारों द्वारा सफलित बने चित्त-शुचिता।
सुधारों में होवे सुरसरि-सुधा-सी सरसता॥13॥
 
(4)
उमंग-भरे युवक
 
गीत
हैं भूतल-परिचालक प्रतिपालक ए।
तोयधि-तुंग-तरंग युवक-उमंग-भरे॥1॥
 
हैं भव-जन-भय भंजन मन-रंजन ए।
बंधन-मोचन-हेतु अवनि में अवतरे॥2॥
 
हैं अनुपम यश-अंकित अकलंकित ए।
लोक अलौकिक लाल मराल विरद वरे॥3॥
 
हैं दानव-दल-दण्डन खल-खंडन ए।
अरि-कुल-कंठ-कुठार अकुंठित व्रत धरे॥4॥
 
हैं नर-पुंगव नागर सुखसागर ए।
मनुज-वंश-अवतंस सरस रुचि सिर-धरे॥5॥
 
हैं जनता-संजीवन जग-जीवन ए।
पीड़ित-जन-परिताप-तप्त पथ पौसरे॥6॥
 
हैं समाज-सुख-साधक दुख-बाधक ए।
देश-प्रेम-प्रासाद प्रभावित फरहरे ॥7॥
 
हैं नवयुग-अधि प्रिय पायक ए।
वसुधा-विजयी वीर विजय-प्रद पैंतरे॥8॥
 
हैं सुविचार-प्रचारक परिचारक ए।
सब सुधार-आधार-धरा-पादक हरे॥9॥
 
हैं पविता-परिचायक शित शायक ए।
सब पदार्थ-सर्वस्व स्वार्थ-परता परे॥10॥
वंशस्थ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सदैव होवें समयानुगामिनी।
प्रसादिनी मानवतावलम्बिनी।
गरीयसी, गौरविता, महीयसी।
यवीयसी हो युवक-प्रवृत्तियाँ॥11॥
 
प्रफुल्ल हों, पीवर हो, प्रवीर हों।
प्रवीण हों, पावन हो, प्रबुध्द हों।
विनीत हों, वत्सलता-विभूति हों।
वसुंधरा-वैभव बाल-वृन्द हों॥12॥
 
वसंत-तिलका-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
भूलोक-भूति भवसिध्दि-मयी मनोज्ञा।
सारी धरा-विजयिनी कल-कीत्ति कान्ता।
सम्पत्तिदा जन-विपत्ति-विनाश-मूर्ति।
होवे पुनीत प्रतिपत्ति युवा जनों की॥13॥
 
धीरा प्रशान्त अति कान्त नितान्त दिव्या।
हिंसा-विहीन सरसा भव-वांछनीया।
संसार-शान्ति अवनी नवनी समाना।
हो पूत-भाव-जननी जनताभिलाषा॥14॥
 
हो उक्ति मंजु अनुरक्ति प्रवृत्ति पूत।
आसक्ति उच्च भव-भक्ति-विरक्ति-हीन।
बाधामयी विषमता क्षमता-विनाशी।
हो सिध्द-भूत समता ममता युवा की॥15॥
 
भूले न लोक-हित मंत्र-मदांध हो के।
पी के प्रसाद-मदिरा न बने प्रमादी।
पाके महान पद मानवता न खोवे।
होवे न मत्त बहु मान मिले मनस्वी॥16॥
 
दे दे विभा विहित नीति विभावरी को।
पाले कुमोदक-समान प्रजाजनों को।
सींचे सुधा बरस के अरसा रसा को।
सच्चा सुधाधर बने वसुधाधिकारी॥17॥
 
(5)
भारत-भूतल-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
शिखरिणी
 
सिता-सी साधें हो सुकथन सुधा से मधुर हो।
अछूते भावों से भर-भर बने भव्य प्रतिभा।
रसों से सिक्ता हो पुलकित क सूक्ति सबको।
विचारों की धारा सरस सरि-धारा-सदृश हो॥1॥
गीत
जय भव-वंदित भारत-भूतल।
शिर पर शोभित कलित क्रीट सम विलसित अचल हिमाचल॥1॥
 
कंठ-लग्न मुक्ता-माला-इव मंजुल सुर-सरि-धारा।
होता है विधौत पग पावन पूत पयोनिधि द्वारा॥2॥
 
मणि-गण-मंडित कान्त कलेवर तरु कोमल दल श्यामल।
सुधा-भरित नाना फल-संकुल सफलीकृत वसुधातल॥3॥
 
मधु-विकास-विकसित बहु सरसित शरद सितासित सुन्दर।
सुरभित मलय-समीर-सुसेवित सुखनिधि मंजुल मंदर॥4॥
 
नव-नव उषा-राग-आरंजित मन-रंजन घन-माली।
राका रजनी आयोजन रत लोकोत्तर छविशाली॥5॥
 
रुचिर पुरन्दर-चाप-विभूषित तारक-माला-सज्जित।
रविकर-निकर-कलित-आलोकित चन्द्र-चारुता-मज्जित॥6॥
 
नंदन-वन-समान उपवन-मय चन्दन-तरु-चयधारी।
लोक ललित लतिका कर-लालित ललामता अधिकारी॥7॥
 
खग-कुल-कलरव-कान्त कोकिला-आकुल-नाद-अलंकृत।
मुग्धकरी कुसुमावलि-पूरित अलि-झंकार-सुझंकृत॥8॥
 
मनभावन महान महिमामय पावन पद-परिचायक।
सुरपुर-सम सम्पन्न दिव्य-तम सप्तपुरी-अधिनायक॥9॥
 
सकल अमंगल-मूल-निकंदन भव-जन-मंगलकारी।
प्रेम-निलय 'हरिऔध' मधुर-तम मानस-सदन-विहारी॥10॥
 
द्रुतविलम्बित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
वृषभ-वाहन है शशि-मौलि है।
वर-विभूति-विराजित गात है।
सुर-तरंगिणि है शिर-मालिका।
भरत-भूतल ही भव-मूर्ति है॥11॥
 
सतत है अवनीतल-रंजिनी।
कमल-लोचन की कमनीयता।
भुवन-मोहन है तन-श्यामता।
भरत-भूमि रमापति-मूर्ति है॥12॥
 
मलिन लोचन की मल-मूलता।
विविध मायिकता मनुजात की।
हरण है करती मद-अंधता।
भरत-भूतल-श्याम-स्वरूपता॥13॥
वसंत-तिलका
है हंसवाहन चतुर्मुख चारु-मूर्ति।
है वेद-वैभव-विकासक बुध्दि-दाता।
सत्कर्म-धाम कमलासनताधिकारी।
नाना विधन-रत भारत है विधाता॥14॥
वंशस्थ
रमा समा है रमणीयता मिले।
उमा समा है वन-सिंह-वाहना।
गिरा समा है प्रतिभा-विभूषिता।
विचित्र है भारत की वसुंधरा॥15॥

द्वितीय सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

(1)
अकल्पनीय की कल्पना
शार्दूल-विक्रीडित
सोचे व्यापकता-विभूति प्रतिभा है पार पाती नहीं।
होती है चकिता विलोक विभुता विज्ञान की विज्ञता।
लोकातीत अचिन्तनीय पथ में है चूकती चेतना।
कोई व्यक्ति अकल्पनीय विभु की कैसे क कल्पना॥1॥
 
आती है सफरी समूह-उर में क्या सिंधु की सिंधुता?
क्या ज्ञाता खगवृन्द है गगन के विस्तार-व्यापार का?
पाती है न पिपीलका अवनि की सर्वाङग्ता का पता।
कैसे मानव तो महामहिम की सत्ता-महत्ता कहे॥2॥
 
ऐसा अंजन पा सका न जिससे होती तमो-हीनता।
कोई दे न सका उसे सदय हो स्वाभाविकी दिव्यता।
जाला दूर हुआ, न अंधा दृग का आलोक-माला मिली।
कैसे लोक विलोक लोकपति को लोकोपयोगी बने॥3॥
 
जो है अंत-विहीन अंत उसका कैसे किसी को मिले।
कैसे हो वह गीत गीत रच के जो देव गोतीत है।
कैसे चित्त सके विचार उसको जो चित्त का चित्त है।
कैसे लोचन लें विलोक, वह तो है लोचनों में छिपा॥4॥
 
वंशस्थ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
कहे उसे तो मत मानवीय क्यों।
बने न क्यों मूक त्रिकलोक की गिरा।
न वेद द्वारा यदि वेदनीय है।
अभेद के भेद, विभेद की कथा॥5॥
गीत
 
मूल-भूत मन-वचन-अगोचर भव-नियमन-व्रतधारी।
चिन्तन मनन मंत्र अवलंबन विनयन-रत अविकारी॥1॥
 
विभु है विश्व-विभूति-विधायक।
अपनी सकल अलौकिकता में लौकिकता-परिचायक॥2॥
 
उसका है अकुंठ पद, इससे है वैकुंठ-निवासी।
है वह सत्य-स्वरूप, इसलिए सत्य-लोक का वासी॥3॥
 
क्षीर पिलाकर है अनन्त जीवों का जीवन-दाता।
इसीलिए वह क्षीर-सिंधु का स्वामी है कहलाता॥4॥
 
जैसे किसी बीज में विटपी का विकास है बसता।
जैसे रवि के विपुल करों में है आलोक विलसता॥5॥
 
वैसे ही विलास से उसके लोक-लोक हैं बनते।
पलक मारते नभ-तल-जैसे वर वितान हैं तनते॥6॥
 
बहु सित भानु भानु उस वारिधिक के हैं विविध बलूले।
उस महान उपवन में तारक हैं प्रसून सम फूले॥7॥
 
तेज उसी के तेज-पुंज से तेज-बीज है बोता।
बिरच विपुल आलोक-पिंड को लोक-तिमिर है खोता॥8॥
 
वह समीर जीवन-प्रवाह बन जो प्रतिदिन है बहता।
उस अनन्त-जीवन के जीवन से है जीवित रहता॥9॥
 
सलिल की सलिलता उससे ही सहज सरसता पाती।
रसा उसी के रस-सेचन से है रसवती कहाती॥10॥
 
द्रुत-विलम्बित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विधु-प्रदीप-सुमौक्तिक-तारका-
लसित ले नभ थाल स्व-हस्त में।
किस महाप्रभु की अति प्रीति से
प्रकृति है करती नित आरती॥7॥
 
शार्दूल-विक्रीडित-
 
लोकों का लय हो गये प्रलय में भू लोप लीला हुए।
नाना भूत-प्रसूत वाष्प अणु के संसारव्यापी बने।
छाये कज्जल-से प्रगाढ़ तम के आये महाशर्वरी।
सोता है विभु शेप-भूत भव में, है शेषशायी अत:॥8॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
लोकपति का ललाम-तम लोक।
है अति लोकोत्तर लीलामय भरित ललित आलोक॥1॥
 
आलोकित उससे हैं नभ-तल के अगणित रवि-सोम।
विलसित हैं असंख्य तारक-चय, विदलित है तमतोम॥2॥
 
उसके उपवन हर लेते हैं नंदन-वन का गर्व।
कल्प-वेलि हैं सकल बेलियाँ, कल्पद्रुम दुरम सर्व॥3॥
 
विकच बने रहते जो सब दिन, जिनमें है रस-सार।
जिनके सौरभ से सुरभित होता सारा संसार॥4॥
उसमें सतत लसित मिलते हैं ऐसे सुमन अपार।
 
जिनपर विश्व वसंत-मधुप बन करता है गुंजार॥5॥
उसमें हैं अमोल फल ऐसे जो हैं सुधा-समान।
जिनसे मिली अमरता सुर को, रहा अमर-पद-मान॥6॥
 
होती सदा वहाँ ध्वनि ऐसी जो है सरस अपार।
जिससे ध्वनित हुआ करता है भव-उर-तंत्री-तार॥7॥
 
पारस-रचित वहाँ की भू है कामधेनु कमनीय।
है रज-राजि रुचिर चिन्तामणि रत्न-राशि रमणीय॥8॥
 
सुधा-भ हैं अमित सरोवर जो है सिंधु-समान।
परम सरसतामय सरिता बन करती है रस-दान॥9॥
 
वहाँ विलसते मूर्तिमन्त बन सब सुख हास-विलास।
सब चिन्मय हैं, सबमें करता है आनन्द निवास॥10॥
 
मूलभूत है पंचभूत का सब जग जीवन निजस्व।
वही सकल संसार-सार है सुरपुर का सर्वस्व॥11॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
नाना लोक समस्त भूतचय में सत्तामयी सृष्टि में।
सारी मूर्त्त अमूर्त्त ज्ञात अथवा अज्ञात उत्पत्ति में।
 
जो है व्यापक, क्या वही न विभु है, क्या है न कर्त्ता वही।
है संचालक कौन दिव्य कर से संसार के सूत्र का॥10॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विभु है भव-विभूति-अवलंबन।
सत-रज-तम कमनीय विकासक प्रकृति-हृदय-अभिनंदन।
उसके परिचालन-बल से ही जग परिचालित होता।
वही सकल संसृति-वसुधा में सृजन-बीज है बोता।
नील वितान तान उसमें है तेज-पुंज उपजाता।
नव-निर्मित तारक-चय से है त्रिभुवन-तिमिर भगाता।
पावन पवन विश्व-तन को है प्राण-दान कर पाता।
उसको आतप-तपे विश्व का है वर व्यंजन बनाता।
रस-संचय कर सकल लोक को परम सरस करता है।
उसमें जीव-निवास विधायक नव-जीवन भरता है।
हरी विविध बाधक बाधाएँ बनकर धरा-विधाता।
दे वह विभूतियाँ जिससे है भूत भव-विभव पाता।
उसके ही कर में है कृति-संचालन-सूत्र दिखाता।
नियति-नटी को दारु-योषिता सम है वही नचाता॥11॥
 
(7)
विभु-विभुता
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
चाहे हों फल, फूल, मूल, दल या छोटी-बड़ी डालियाँ।
चाहे हो उसकी सुचारु रचना या मुग्धकारी छटा।
जैसे हैं परिणाम अंग-तरु के सर्वांश में बीज के।
वैसे ही उस मूलभूत विभु का विस्तार संसार है॥12॥
 
जैसे दीपक-ज्योति से तिमिर का है नाश होता स्वत:।
जैसे वायु-प्रवाह से चलित है होती पताका स्वयं।
जैसे वे यह कार्य हैं न करते इच्छा-वशीभूत हो।
वैसे ही भव है विभूति-पति की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥13॥
 
जैसे है घटिका स्वतंत्र बजने या बोलने आदि में।
जैसे सूचक सूचिका समय को देती स्वयं सूचना।
निर्माता मति ज्यों निमित्त बन के है सिध्दिदात्री बनी।
सत्ता है उस भाँति ही विलसती सर्वेश की सृष्टि में॥14॥
 
जो सत्ता सब काल है विलसती सर्वत्र संसार में।
सा जीव-समूह-मध्य जगती जो जीवनी-ज्योति है।
व्यापी है वह व्योम से अधिक है तेजस्विनी तेज से।
पूता है पवमान से, सलिल से सिक्ता, रसा से रसा॥15॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
नभ-तल था कज्जल-पूरित
था परम निविड़ तम छाया।
जब था भविष्य-वैभव में
भव का आलोक समाया॥1॥
 
जब पता न था दिनमणि का
था नभ में एक न तारा।
जब विरचित हुआ न विधु था
कमनीय प्रकृति-कर द्वारा॥2॥
 
जब तिमिर तिमिरता-भय से
थी जग में ज्योति न आयी।
जब विश्व-व्यापिनी गति से।
थी वायु नहीं बह पाई॥3॥
 
अनुकूल काल जब पाकर।
था सलिल न सलिल कहाया।
परमाणु-पुंज-गत जब थी।
वसुधा-विभूतिमय काया॥4॥
 
नाना कल-केलि-कलामय।
जब लोक न थे बन पाये।
जब बहु विधिक प्रकृति-सृजन के।
वर वदन न थे दिखलाये॥5॥
 
जब स्तब्ध सुप्त अक्रिय हो।
था जड़ीभूत भव सारा।
तब किसके सत्ता-बल से।
सब जग का हुआ पसारा॥6॥
 
परमाणु- पुंज- मंदर से।
तम- तोम- महोदधिक मथकर।
तब किसने रत्न निकाले।
अभिव्यक्ति-मूठियों में भर॥7॥
 
क्यों जड़ को अजड़ बनाया।
क्यों तम में किया उजाला।
क्यों प्रकृति-कंठ में किसने।
डाली मणियों की माला॥8॥
 
उस बहु युग की रजनी ने।
जिसने विकास को रोका।
कैसे किसके बल-द्वारा।
उज्ज्वल दिन-मुख अवलोका॥9॥
 
क्यों कहें रहस्य-उदर की।
कितनी लम्बी हैं ऑंतें।
हैं किसका भेद बताती।
ये भेद-भरी सब बातें॥10॥16॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
आती तो न सजीवता अवनि में जो वायु होती नहीं।
कैसे तो मिलती उसे सरसता जो वारि देता नहीं।
तो मीठे स्वर का अभाव खलता जो व्योम होता नहीं।
कैसे लोक विलोकनीय बनता आलोक पाता न जो॥17॥
वंशस्थ
सदन्न सद्रत्न सदौषधी तथा।
सुधातु सत्पुष्प सुपादपावली।
कभी न पाती जगती विभूतियाँ।
उसे न देती यदि मंजु मेदिनी॥18॥
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
संसार बन गया कैसे।
इसकी है अकथ कहानी।
थोड़ा बतला पाते हैं।
वसुधा-तल के विज्ञानी॥1॥
 
जो कहीं नहीं कुछ भी था।
तो कुछ कैसे बन पाया।
होते अभाव कारण का।
क्यों कार्य सामने आया॥2॥
 
परमाणु-पुंज तो जड़ थे।
कैसे उनमें गति आयी।
कैसे अजीव अणुओं में।
जीवन-धारा बह पाई॥3॥
 
हो पुंजीभूत विपुल अणु।
क्यों अंड बन गया ऐसा।
अबतक भव की ऑंखों ने।
अवलोक न पाया जैसा॥4॥
 
वह अपरिमेय ओकों में।
बन प्रगतिमान था फैला।
तारक-समूह मोहरों का।
वह था मंजुलतम थैला॥5॥
 
वह घूम रहा था बल से।
अतएव हुआ उद्भासित।
थी ज्योति फूटती जिसमें।
पल-पल नीली, पीली, सित॥6॥
 
आभा की अगणित लहरें।
नभ में थीं नर्तन करती।
लाखों कोसों में अपनी।
कमनीय कान्ति थीं भरती॥7॥
 
अगणित बरसों के दृग ने।
यह प्रभा-पुंज अवलोका।
फिर प्रकृति-यवनिका ने गिर।
इस दिव्य दृश्य को रोका॥8॥
 
संकेत काल का पाकर।
यह अंड अचानक टूटा।
तारक-चय मिष नभ-पट का।
बन गया दिव्यतम बूटा॥9॥
 
हैं किस विचित्र विभुवर के।
ये कौतुक परम निराले।
हैं जिसे विलोक न पाते।
विज्ञान-विलोचनवाले॥10॥19॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
कान्ता कुण्डलिनी अनन्त सरि की धारा समा क्यों बनी।
पाया क्यों धन श्वेतखंड उसने जो हैं सदाभा-भरे।
कैसे तारक-पुंज साथ उसको ब्रह्मांड-माला मिली।
है वैचित्रयमयी विभूति किसकी नीहारिका व्योम की॥20॥
 
आभा से तन की विभामय बना ब्रह्मांड-व्यापार को।
नाना लोक लिये अचिन्त्य गति से लोकाभिरामा बनी।
तारों के मिष कंठ-मध्य पहने मुक्तावली-मालिका।
जाती है बन केलि-कामुक कहाँ आकाश-गंगांगना॥21॥
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
जब ज्ञान-नयन को खोला।
अगणित ब्रह्मांड दिखाये।
प्रति ब्रह्म-अण्ड में हमने।
बहु विलसित ता पाये॥1॥
 
ये अखिल अंड विभुवर के।
तन-तरु के कतिपय दल हैं।
उस वारिद-से वपुधर के।
वपु से प्रसूत कुछ जल हैं॥2॥
 
बहु अंश विश्व का अब भी।
है क्रिया-विहीन अनवगत।
विज्ञान-निरत विबुधो का।
है माननीय-तम यह मत॥3॥
 
ब्रह्मांड क्या? गगन-तल के।
ये नयन-विमोहन ता।
कितने विचित्र अद्भुत हैं।
कितने हैं छवि में न्या॥4॥
 
यदि महि मृत्कण रवि घट है।
तो हैं बहु तारक ऐसे।
जिनके सम्मुख बनते हैं।
रवि से भी रजकण जैसे॥5॥
 
है जगत-ज्योति अवलंबन।
अनुरंजनता- दृग- प्यारे।
हैं कौतुक के कल केतन।
ये कान्ति-निकेतन ता॥6॥
 
नभ-तल-वितान में कितने।
हैं लाखों लाल लगाते।
कितने असंख्य हीरक-से।
उज्ज्वल हैं उसे बनाते॥7॥
 
लाखों पन्नों को कितने।
पथ में उछालते चलते।
कितने नीलम-मन्दिर में।
हैं मणि-दीपक-से बलते॥8॥
 
पीताभ मंजुता महि में।
हैं बीज विभा का बोते।
अगणित पीली मणियों से।
कितने मंडित हैं होते॥9॥
 
लेकर फुलझड़ी करोड़ों।
कितने हैं क्रीड़ा करते।
कितने अनन्त में अनुपम।
अंगारक-चय हैं भरते॥10॥
 
बहुतों को हमने देखा।
नाना रंगों में ढलते।
ऐसे अनेक अवलोके।
जो थे मशाल-से जलते॥11॥
 
आलात-चक्र-से कितने।
पल-पल फिरते दिखलाये।
क्या चार चाँद कितनों में।
हैं आठ चाँद लग पाये॥12॥
 
पारद-प्रवाह सम कितने।
हैं द्रवित प्रभा से भरते।
कितने प्रकाश-झरने बन।
हैं प्रतिपल झर-झर झरते॥13॥
 
हैं बुध्दि बावली बनती।
बुध-जन कैसे बतलायें।
हैं ललित ललिततम से भी।
लीलामय की लीलायें॥14॥32॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
व्यापी है जिसमें विभा वलय-सी नीलाभ श्वेतप्रभा।
होते हैं सित मेघ-खंड जिसमें कार्पास के पुंज-से।
सर्पाकार नितान्त दिव्य जिसमें नीहारिकाएँ मिलीं।
फैला है यह क्या पयोधिक-पय-सा सर्वत्र आकाश में॥33॥
 
क्या संसार-प्रसू विभूति यह है? क्षीराब्धिक क्या है यही?
क्या विस्तारित शेषनाग-तन है नीहारिका-रूप में?
क्या आभामय कान्ति श्याम वपु की है श्वेतता में लसी।
किम्बा है यह कौतुकी प्रकृति की कोई महा कल्पना॥34॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
सब विबुध अबुध हो बैठे।
बन विवश बुध्दि है हारी।
हैं अविदित अगम अगोचर।
विभु की विभूतियाँ सारी॥1॥
 
क्या नहीं ज्ञान है विभु का?
यह ज्ञान किन्तु है कितना।
उतना ही हो बूँदों को
वारिधिक-विभूति का जितना॥2॥
 
विभु क्या? अनन्त वैभव का ।
क्या अन्त कभी मिल पाया।
इन बहु विचित्र तारों का।
किसने विभेद बतलाया॥3॥
 
हैं अपरिमेय गतिवाले।
अनुपम आलोक सहा।
हैं केन्द्र अलौकिकता के।
ये ज्योति-बिन्दु-से ता॥4॥
 
है लाख-लाख कोसों का।
इनमें से कितनों का तन।
गति में है इन्हें न पाता।
बहु प्रगतिमान मानव-मन॥5॥
 
इनमें हैं कितने ऐसे।
जो हैं सुरपुर से सुन्दर।
जिनमें निवास करते हैं।
सुर-वृन्द-समेत पुरन्दर॥6॥
 
नाना तेजस तनवाले।
रज-गात गात अधिकारी।
इनमें ही हैं मिल पाते।
बहु वायवीय वपुधारी॥7॥
 
लाखों तज तेज बिखरकर।
हैं काल-गाल में जाते।
लाखों तम-तोम भगा के।
बहु ज्योति-पुंज हैं पाते॥8॥
 
भव में ऐसी लीलाएँ।
पल-पल होती रहती हैं।
जो ऑंख खोल कानों में।
यह कान्त बात कहती हैं॥9॥
 
क्यों बात अपरिमित विभु की।
कोई परिमित बतलाये।
जिसका है मनन न होता।
वह क्यों मन-मध्य समाये॥10॥
 
यह कोई नहीं बताता।
नभ-तल में क्यों हैं छाये।
ये व्योम-यान बहु-रंगी।
किसलिए कहाँ से आये॥11॥
 
नभ-तल क्या, भूतल ही की।
सब बातें किसने जानी।
सच यह है रज-कण की भी।
है विपुल विचित्र कहानी॥12॥
 
क्यों कहें दूसरी बातें।
जो है यह गात हमारा।
क्या जान सका है कोई।
उसका रहस्य ही सारा॥13॥
 
कुछ रत्न पा सके बुधजन।
बहुधा प्रयोग कर नाना॥
भव-ज्ञान-उदधिक तो अब भी।
है पड़ा हुआ बे-छाना॥14॥34॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
ऑंखें हैं बुध की विचित्र कितनी हैं, दूरबीनें बनी।
तो भी दिव्य कला-निकेत कितने नक्षत्र अज्ञात हैं।
कैसे जान सके मनुष्य उसको जो विश्व-सर्वस्व है।
जाने जा न सके अनन्त पथ के सारे सिता अभी॥35॥
 
क्या जाना करके प्रयत्न कितने या दूरबीनें लगा।
है दूरी कितनी, प्रसार कितना, है कान्ति कैसी कहाँ।
ऐसे ही कुछ बाहरी विषय का है बोध विज्ञान को।
पूरा ज्ञान कहाँ हुआ मनुज को तारों-भ व्योम का॥36॥
 
तारे हैं कितने सजीव, कितने निर्जीव हैं हो गये।
कैसे हैं तन रंग-रूप उनके हैं जीव जैसे जहाँ।
भू-सी है सुविभूति भूति सबमें या भिन्नता है भरी।
ये बातें बतला सके अवनि के विज्ञान-वेत्ता कहाँ॥37॥
 
नाना ग्रंथ रचे गये अवनि में विज्ञान-धारा बही।
चिन्ताशील हुए अनेक कितने विज्ञानवादी बने।
तो भी भेद मिला न भूत-पति का, सर्वज्ञता है कहाँ।
ज्ञाता-हीन बनी रही जगत में सर्वेश-सत्ता सदा॥38॥
 
पाती है वर विज्ञता विफलता मर्म्मज्ञता मूकता।
सच्चिन्ता-लहरी महाविषमता दैवज्ञता अज्ञता।
सोचे सर्व विधान सर्व-गत का, ज्ञाता बने विश्व का।
होती है बहुकुंठिता विबुधता सर्वज्ञता वंचिता॥39॥
 
सीखा ज्ञान, पढ़े पुराण श्रम से, वेदज्ञता लाभ की।
ऑंखें मूँद, लगा समाधि, समझा, की साधनाएँ सभी।
ज्ञाता की अनुभूत बात सुन ली, विज्ञानियों में बसे।
सौ-सौ यत्न किये, रहस्य न खुला संसार-सर्वस्व का॥40॥
 
दिव्या भूति अचिन्तनीय कृति की ब्रह्माण्ड-मालामयी।
तन्मात्रा-जननी ममत्व-प्रतिमा माता महत्तात्व की।
सारी सिध्दिमयी विभूति-भरिता संसार-संचालिका।
सत्ता है विभु की नितान्त गहना नाना रहस्यात्मिका॥41॥

तृतीय सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

दृश्य जगत्
आकाश
(1)
शार्दूल-विक्रीडित
सातों ऊपर के बड़े भुवन हों या सप्त पाताल हों।
चाहे नीलम-से मनोज्ञ नभ के ता महामंजु हों।
हो बैकुंठ अकुंठ ओक अथवा सर्वोच्च कैलास हो।
हैं लीलामय के ललाम तन से लीला-भ लोक ए॥1॥
 
वंशस्थ
 
अनन्त में है उसको अनन्तता।
&##160;विभा-विभा में असुशक्ति वायु में।
विभूति भू में रस में रसालता।
चराचरात्मा विभु विश्वरूप है॥2॥
(2)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
है रूप उसी विभु का ही।
यह जगत रूप है किसका।
है कौन दूसरा कारण।
यह विश्व कार्य्य है जिसका॥1॥
 
है प्रकृति-नटी लीला तो।
है कौन सूत्रधार उसका।
अति दिव्य दृष्टि से देखो।
भव-नाटक प्रकृति पुरुष का॥2॥
 
है दृष्टि जहाँ तक जाती।
नीलाभ गगन दिखलाता।
क्या है यह शीश उसी का।
जो व्योमकेश कहलाता॥3॥
 
वह प्रभु अनन्त-लोचन है।
जो हैं भव ज्योति सहा।
क्या हैं न विपुल तारक ये।
उन ऑंखों के ही ता॥4॥
 
जितने मयंक नभ में हैं।
वे उसके मंजुल मुख हैं।
जो सरस हैं सुधामय हैं।
जगती-जीवन के सुख हैं॥5॥
 
चाँदनी का निखर खिलना।
दामिनी का दमक जाना।
उस अखिल लोक-रंजन का।
है मंद-मंद मुसकाना॥6॥
 
उसके गभीरतम रव का।
सूचक है धन का निस्वन।
कोलाहल प्रबल पवन का।
अथवा समुद्र का गर्जन॥7॥
 
अपने कमनीय करों से।
बहु रवि शशि हैं तम खोते।
क्या हैं न हाथ ये विभु के।
जो ज्योति-बीज हैं बोते॥8॥
 
भव-केन्द्र हृदय है उसका।
नव - जीवन - रस - संचारी।
है उदर दिगन्त, समाईं।
जिसमें विभूतियाँ सारी॥9॥
 
हैं विपुल अस्थिचय उसके।
गौरवित विश्व के गिरिवर।
है नसें सरस सरिताएँ।
तन-लोम-सदृश हैं तरुवर॥10॥
 
जिसके अवलम्बन द्वारा।
है प्रगति विश्व में होती।
है वही अगति गति का पग।
जिसकी रति है अघ खोती॥11॥
 
है तेज-तेज उसका ही।
है श्वास समीर कहाता।
जीवन है जग का जीवन।
बहु सुधा-पयोधिक-विधाता॥12॥
 
रातें हैं हमें दिखातीं।
फिर रह वासर है आता।
यह है उसकी पलकों का।
उठना-गिरना कहलाता॥13॥
 
जिनसे बहु ललित कलित हो।
बनता है विश्व मनोहर।
उन सकल कलाओं का है।
विभु अति कमनीय कलाधर॥14॥
 
(3)
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
कोई है कहता, अनन्त नभ में ये दिव्य ता नहीं।
नाना हस्त-पद-प्रदीप्त नख हैं व्यापी विराटांग के।
कोई लोचन वन्दनीय विभु का है तीन को मानता।
राका-नायक को, दिवाधिकपति को, विभ्रद्विभावद्रि को॥1॥
 
वंशस्थ
 
असंख्य हैं शीश, असंख्य नेत्र हैं।
असंख्य ही हैं उसके पदादि भी।
कहें न कैसे यह भूत मात्र में।
निवास क्या, है न, जगन्निवास का॥2॥
 
(4)
 
गीत
 
सब काल कौन श्यामल तन।
है बहुविध वाद्य बजाता।
किसलिए सरस स्वर भर-भर।
है मधुमय गीत सुनाता॥1॥
 
है कर-विहीन कहलाता।
है नहीं उँगलियोंवाला।
पर सुन उसकी वीणाएँ।
भव बनता है मतवाला॥2॥
 
है बदन नहीं जब उसके।
तब अधर कहाँ से लाता।
पर बजा मुरलिका अपनी।
मन को है मत्त बनाता॥3॥
 
यद्यपि अकंठ है तो भी।
वह कुंठित नहीं दिखाता।
अगणित रागों को गा-गा।
है रस का स्रोत बहाता॥4॥
 
ऐसी लाखों वीणाएँ।
पल-पल हैं बजती रहती।
या विपुल वेणु-स्वर-लहरी।
रसमय बन-बन है बहती॥5॥
 
क्या बात वेणु वीणा की।
ऐसे ही अगणित बाजे।
बजते रहते हैं प्रति पल।
ध्वनि वैभव मध्य विराजे॥6॥
 
अनवरत सुधा बरसा कर।
जो गीत गीत हैं होते।
वे निधिक उन ध्वनियों के हैं।
निकले जिनसे रस-स्रोते॥7॥
 
भव कंठ रसीले सुन्दर।
बहु तरुवर मेरु गुहाएँ।
सब यंत्र अनेकों बाजे।
सागर सरवर सरिताएँ॥8॥
 
कैसे उसके साधन हैं।
वह कैसे क्या करता है।
कामना-हीन हो कैसे
बहु स्वर इनमें भरता है॥9॥
 
बतला न सकें हम जिसको।
कैसे उसको बतलायें।
जो उलझन सुलझ न पाई।
किस तरह उसे सुलझायें॥10॥
 
(5)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
कंठों का बन कंठ मूल कहला तानों लयों आदि का।
नादों में भर के निनाद स्वर के स्वारस्य का सूत्र हो।
दे नाना ध्वनि-पुंज को सरसता, आलाप को मुग्धता।
गाता है नित कौन गीत किसका बाजे करोड़ों बजा।
 
प्रभाकर
 
(1)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विहँसी प्राची दिशा प्रफुल्ल प्रभात दिखाया।
नभतल नव अनुराग-राग-रंजित बन पाया।
उदयाचल का खुला द्वार ललिताभा छाई।
लाल रंग में रँगी रँगीली ऊषा आयी॥1॥
 
चल बहु मोहक चाल प्रकृति प्रिय-अंक-विकासी।
लोक-नयन-आलोक अलौकिक ओक-निवासी।
आया दिनमणि अरुण बिम्ब में भरे उजाला।
पहन कंठ में कनक-वर्ण किरणों की माला॥2॥
 
ज्योति-पुंज का जलधिक जगमगा के लहराया।
मंजुल हीरक-जटित मुकुट हिमगिरि ने पाया।
मुक्ताओं से भरित हो गया उसका अंचल।
कनक-पत्रा से लसित हुआ गिरि-प्रान्त धरातल॥3॥
 
हरे-भरे सब विपिन बन गये रविकर आकर।
पादप प्रभा-निकेत हुए कनकाभा पाकर।
स्वर्णतार के मिले सकल दल दिव्य दिखाये।
विलसित हुए प्रसून प्रभूत विकचता पाये॥4॥
 
पहन सुनहला वसन ललित लतिकाएँ विलसीं।
कुसुमावलि के व्याज बहु विनोदित हो विकसीं।
जरतारी साड़ियाँ पैन्ह तितली से खेली।
विहँस-विहँस कर बेलि बनी बाला अलबेली॥5॥
 
लगे छलकने ज्योति-पुंज के बहु विधि प्यारे।
मिले जलाशय-व्याज धरा को मुकुर निराले।
कर किरणों से केलि दिखा उनकी लीलाएँ।
लगीं नाचने लोल लहर मिष सित सरिताएँ॥6॥
 
ज्योति-जाल का स्तंभ विरच कल्लोलों द्वारा।
मिला-मिला नीलाभ सलिल में विलसित पारा।
बना-बना मणि-सौध मरीचि मनोहर कर से।
लगा थिरकने सिंधु गान कर मधुमय स्वर से॥7॥
 
नगर-नगर के कलस चारुतामय बन चमके।
दमक मिले वे स्वयं अन्य दिनमणि-से दमके।
आलोकित छत हुई विभा प्रांगण ने पाई।
सदन-सदन में ज्योति जगमगाती दिखलाई॥8॥
 
सकल दिव्यता-सदन दिवस का बदन दिखाया।
तम के कर से छिना विलोचन भव ने पाया।
दिशा समुज्ज्वल हुई मरीचिमयी बन पाई।
सकल कमल-कुल-कान्त वनों में कमला आयी॥9॥
 
कल कलरव से लोक-लोक में बजी बधाई।
कुसुमावलि ने विकस विजय-माला पहनाई।
विहग-वृन्द ने उमग दिवापति-स्वागत गाया।
सकल जीव जग गये, जगत उत्फुल्ल दिखाया॥10॥
 
(2)
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
लेके मंजुल अंक में प्रथम दो धारें सदाभामयी।
पा के नूतन लालिमा फिर मिले प्यारी प्रभा भानु की।
ऐसा है वह कौन लोक जिसको है मोह लेती नहीं।
लीलाएँ कर मन्द-मन्द हँस के प्राची दिशा सुन्दरी॥1॥
 
है लालायित नेत्र प्रीति-जननी है लालिमा से लसी।
है लीला-सरि की ललाम लहरी प्रात:प्रभारंजिनी।
है प्राची-कर-पालिता प्रिय सुता है मूर्ति माधुर्य की।
ऊषा है अनुराग-राग-वलिता आलोक मालामयी॥2॥
 
(3)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विलसी हैं नभ-मंडल में।
आभामय दो धाराएँ।
गत होते तम में प्रकटीं।
या रवि-रथ-पथ-खाएँ॥1॥
 
अनुराग-रागमय प्राची।
कमनीय प्रकृति-कर पाली।
है राह देखती किसकी।
रख मंजुल मुख की लाली॥2॥
 
सिन्दूर माँग में भरकर।
पाकर लालिमा निराली।
क्यों लोहित-वसना आयी।
ले जन-रंजनता ताली॥3॥
 
क्यों हुईं दिशाएँ उज्ज्वल।
क्यों कान्ति मनोरम पाई।
उनकी मनमोहक आभा।
क्यों मंद-मंद मुसकाई॥4॥
 
अति रुचिकर चमर हिलाता।
बन सुरभित सरस सवाया।
क्यों मन्द-मन्द पद रखता।
शीतल समीर है आया॥5॥
 
क्यों गूँज रहा है नभतल।
क्यों उसमें स्वर भर पाया।
बहु उमग-उमग विहगों ने।
क्यों राग मनोहर गाया॥6॥
 
क्यों हैं फूली न समाती।
उनकी निखरी हरियाली।
क्यों खड़े हुए हैं तरुवर।
लेकर फूलों की डाली॥7॥
 
विकसित होती हैं पल-पल।
किसलिए कलित कलिकाएँ।
धारण कर मुक्ता-माला।
क्यों ललित बनीं लतिकाएँ॥8॥
 
अलि किसका गुण गाते हैं।
रच-रचकर निज कविताएँ।
क्यों हैं कल-कल रव करती।
सितभूत सकल सरिताएँ॥9॥
 
जगती - जीवन - अवलम्बन।
वसुधातल - ताप - विमोचन।
उदयाचल पर आता है।
क्या सकल लोक का लोचन॥10॥
 
(4)
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
साधे से सब सौर-मंडल सधा, बाँधे बँधीर शृंखला।
पाले से उसके पली वसुमती, टाले टली आपदा।
पाता है तृण-राजिका विटप का, त्राता लता-बेलि का।
धाता है रवि सर्व-भूत-हित का, है अन्नदाता पिता॥1॥
 
रत्नों की कमनीय कान्ति दिव को, वारीश को रम्यता।
आभा-सी सुविभूति भूत-दृग को, तेजस्विता दृष्टि को।
भू को वैभव, पुष्प को विकचता, सदूर्णता वस्तु को।
देता है रवि ज्योति-पुंज विधु को, हेमाद्रि को हेमता॥2॥
 
विधु-विभव
 
(1)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
जब मंद-मंद विधु हँसता।
नभ-मंडल में है आता।
तब कौन नयन है जिसमें।
वह सुधा नहीं बरसाता॥1॥
 
है वह वसुधा-अभिनंदन।
कुमुदों का परम सहारा।
सर्वस्व सरस भावों का।
रजनी-नयनों का तारा॥2॥
 
क्यों कला कला दिखलाकर।
बहु ज्योति तिमिर में भरती।
कमनीय कौमुदी कैसे।
रजनी का रंजन करती॥3॥
 
क्यों चारु चाँदनी भू पर।
सित चादर सदा बिछाती।
कैसे विलसित कुसमों पर।
छवि लोट-पोट हो जाती॥4॥
 
कैसे दिगन्त में बहता।
बहु दिव्य रसों का सोता।
क्यों निधिक उमंग में आता।
जो नहीं कलानिधि होता॥5॥
 
जो नहीं निकलती होती।
विधु-कर से प्रिय रस-धारा।
तो बड़े चाव से कैसे।
खाता चकोर अंगारा॥6॥
 
पाकर मयंक-सा मोहक।
जो नहीं मधुर मुसकाती।
जगती-जन का अनुरंजन।
कैसे रजनी कर पाती॥7॥
 
हिमकर है सुधा-निकेतन।
वसुधा-हित जलधिक-विलासी।
है इसीलिए विभु-मानस।
शिव - शंकर - शीश - निवासी॥8॥
 
दोनों के दोनों हित हैं।
है छिका अहित-पथ-नाका।
राकापति राका-पति है।
राकेश-रंजिनी राका॥9॥
 
विधु कान्त प्रकृति-कर-शोभी।
है रजत-रचित रस-प्यारेला।
जो छलक-छलक करता है।
क्षितितल को बहु छवि वाला॥10॥
 
वह है सुख सुन्दर मुखड़ा।
आनन्द - कल्पतरु - थाला।
है मुग्धकारिता-मंडन।
दिनकर कोमल कर पाला॥11॥
 
नवनी समान मृदु मंजुल।
अवनीतल - विरति - विभंजन!
है चन्द्र, लोक-पति-लोचन।
तम-मोचन रजनी-रंजन॥12॥
 
(2)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
है राकापति, मंजुता-सदन है, माधुर्य-अंभोधि है।
है लावण्य-सुमेरु-शृंग, जिसको आलोक-माला मिली।
पाती हैं उपमा सदैव जिसकी सत्कान्ति की कीत्तियाँ।
जो है शंकर-भाल-अंक उसको कैसे कलंकी कहें॥1॥
 
दे दे मंजु सुधा लता विटप को है सींचता सर्वदा।
नाना कंद समूह को सरस हो है सिक्त देता बना।
पुष्पों को खिलता विलोक हँसता स्नेहाम्बुधारा बहा।
न्यारा है वह चारु चन्द्र जिसकी है प्रेमिका चन्द्रिका॥2॥
 
पाता है सुकुमारता-सदन का, है स्निग्धता का पिता।
धाता है रस का, महा सरस का सौन्दर्य का है सखा।
दाता है कमनीय कान्ति-निधि का, माधुर्य का है धुरा।
छाता है विधु एक क्षत्रपति का संदीप्त-रत्नच्छटा॥3॥
 
है आभा कमनीय पुंज, महि का साथी, सिता का धनी।
नाना औषध-मूल-भूत, प्रतिभू पीयूष-पाथोधिका।
है धाता प्रतिभा प्रसूत, रवि का स्नेही, सुरों का सखा।
कान्तात्मा कवि के कला-निलय का आलोक राकेश है॥4॥
 
शृंगों के हिम-पुंज का सुछवि का प्रासाद की दीप्तिका।
पुष्पों पल्लव आदि के विभव का आभामयी वीचिका।
भू की अन्य विभूति का, प्रकृति के संसिक्त सौन्दर्य का।
है आधार मयंक वारिनिधि के उन्मुक्त उल्लास का॥5॥
 
तारकावली
 
(1)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
हैं सौर-मंडलाधिकप के।
अधिकार में अमित ता।
जो हैं सुन्दर मन-मोहन।
बहु रंग रूप में न्यारे॥1॥
 
शिर के ऊपर रजनी में।
जो लाल रंग का तारा।
है जगमग-जगमग करता।
वह है मंगल महि-प्यारा॥2॥
 
भूतल की कुछ बातों से।
मिलती हैं उसकी बातें।
उसके दिन हैं चमकीले।
सुन्दर हैं उसकी रातें॥3॥
 
प्रात: या संध्या वेला।
यों ही या यंत्रों द्वारा।
है क्षितिज पर उगा मिलता।
छोटा-सा एक सितारा॥4॥
 
बुध उसको ही कहते हैं।
वह है हरिदाभ दिखाता।
क्षिति-तल पर अपनी किरणें।
है छटा साथ छिटकाता॥5॥
 
बहु काल मध्य नभतल में।
पीताभ एक उङु-पुंगव।
लोचन-गोचर होता है।
कर वहन बहु विभा-वैभव॥6॥
 
द्विजराज आठ अनुगत बन।
उसके वश में रहते हैं।
अतएव सकल विज्ञानी।
सुर-गुरु उसको कहते हैं॥7॥
 
प्राची अथवा पश्चिम में।
जो श्वेत समुज्ज्वल तारा।
देखा जाता है प्राय:।
है शुक्र वही दृग-प्यारा॥8॥
 
रवि-विधु तजकर, ऑंखों से।
जितने उङु हैं दिखलाते।
उन सब में बड़ा यही है।
बहु दिव्य इसी को पाते॥9॥
 
जो वलयवान तारक है।
जो मंद-मंद चलता है।
जो नील गगन-मंडल के।
नीलापन में ढलता है॥10॥
 
शनि वही कहा जाता है।
कुछ-कुछ है वह मटमैला।
वह नीलम-जैसा है तो।
है वलय-रजत का थैला॥11॥
 
इस मंडल में इन-से ही।
दो ग्रह हैं और दिखाते।
है एक और मिल पाया।
अब यह भी हैं सुन पाते॥12॥
 
मंगल एवं सुर-गुरु की।
कक्षाओं का मध्यस्थल।
यों उङु-पूरित है जैसे।
मालाओं में मुक्ता-फल॥13॥
 
इसमें हैं पुच्छल ता।
जिनकी गति नहीं जनाती।
झड़ बाँध-बाँध उल्काएँ।
हैं अद्भुत दृश्य दिखाती॥14॥
 
इस एक सौर-मंडल की।
इतनी विचित्र हैं बातें।
कर सकीं नहीं हल जिनको।
लाखों वर्षों की रातें॥15॥
 
तब अमित सौर-मंडल की।
गाथाएँ क्यों बतलायें।
बुध-जन हैं बूँदों-जैसे।
क्यों पता जलधि का पायें॥16॥
 
(2)
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
होता ज्ञात नहीं रहस्य इनका, ये हैं अविज्ञात से।
कोई पा न सका पता प्रगति का विस्तार निस्तार का।
कैसे देख इन्हें न चित्त दहले, कैसे न उत्कंठ हो।
हैं ये केतु विचित्र, पुच्छ जिनके हैं कोटिश: कोस के॥1॥
 
क्रीड़ाएँ अवलोक लीं अनल की, देखी कला की कला।
ज्योतिर्भूति विलोक ली, पर कहाँ ऐसी छटाएँ मिलीं।
ऐसे लोचन कौन हैं वह जिन्हें देती नहीं मुग्धता।
उल्का की कलकेलि व्योम-तल की है दिव्य दृश्यावली॥2॥
 
प्रभात
(1)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
प्रकृति-वधू ने असित वसन बदला सित पहना।
तन से दिया उतार तारकावलि का गहना।
उसका नव अनुराग नील नभतल पर छाया।
हुई रागमय दिशा, निशा ने वदन छिपाया॥1॥
 
आरंजित हो उषा-सुन्दरी ने सुख माना।
लोहित आभा-वलित वितान अधर में ताना।
नियति-करों से छिनी छपाकर की छवि सारी।
उठी धरा पर पड़ी सिता सित चादर न्यारी॥2॥
 
ओस-बिन्दु ने द्रवित हृदय को सरस बनाया।
अवनी-तल पर विलस-विलस मोती बरसाया।
खुले कंठ कमनीय गिरा ने बीन बजाई।
विहग-वृन्द ने उमग मधुर रागिनी सुनाई॥3॥
 
शीतल बहा समीर, हुईं विकसित कलिकाएँ।
तरुदल विलसें, बनीं ललिततम सब लतिकाएँ।
सर में खिले सरोज, हो गईं सित सरिताएँ।
सुरभित हुआ दिगन्त, चल पड़ीं अलि-मालाएँ॥4॥
 
हुआ बाल-रवि उदय, कनक-निभ किरणें फूटीं!
भरित तिमिर पर परम प्रभामय बनकर टूटीं।
जगत जगमगा उठा, विभा वसुधा में फैली।
खुली अलौकिक ज्योति-पुंज की मंजुल थैली॥5॥
 
बने दिव्य गिरि-शिखर मुकुट मणि-मंडित पाये।
कनकाभा पा गये कलित झरने दिखलाये।
मिले सुनहली कान्ति लसी सुमनावलि सारी।
दमक उठीं बेलियाँ लाभ कर द्युति अति प्यारी॥6॥
 
स्वर्णतार से रचे चारुतम चादर द्वारा।
सकल जलाशय लसे बनी उज्ज्वल जल-धारा।
दिखा-दिखाकर तरल उरों की दिव्य उमंगें।
ले-लेकर रवि-बिम्ब खेलने लगीं तरंगें॥7॥
 
हीरक-कण हरिदाभ तृणों पर गया उछाला।
बनी दूब रमणीय पहनकर मुक्ता-माला।
मिले कान्तिमय किरण लसे बालू के टीले।
सा रज-कण बने रजत-कण-से चमकीले॥8॥
 
जिस जगती को असित कर सकी थी तम-छाया।
रवि-विकास ने विलस उसे बहुरंग बनाया।
कहीं हुईं हरिदाभ, कहीं आरक्त दिर्खाईं।
कहीं पीत छवि कान्त श्वेत किरणें बन पाईं॥9॥
 
हुआ जागरित लोक, रात्रिकगत जड़ता भागी।
बहा कर्म्म का स्रोत, प्रकृति ने निद्रा त्यागी।
विजित तमोगुण हुआ, सतोगुण सितता छाई।
कला अलौकिक कला-निकेतन की दिखलाई॥10॥
 
पहने कंचन-कलित क्रीट मुक्तावलि-माला।
विकच कुसुम का हार विभाकर-कर का पाला।
प्राची के कमनीय अंक में लसित दिखाया।
लिये करों में कमल प्रभात विहँसता आया॥11॥
 
(2)
वंशस्थ
 
अनन्त में भूतल में दिगन्त में।
नितान्त थी कान्त वनान्त भाग में।
प्रभाकराभा-गरिमा-प्रभाव से।
प्रभावित दिव्य प्रभा प्रभात की।
 
(3)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
हैं मुक्तामय-कारिणी अवनि की, हैं स्वर्ण-आभामयी।
हैं कान्ता कुसुमालि की प्रिय सखी, है वीचियों की विभा।
शोभा है अनुरंजिनी प्रकृति की क्रीड़ामयी कान्ति की।
दूती हैं दिव की प्रभात-किरणें, हैं दिव्य देवांगना।
 
घन-पटल
( 1)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
घिर-घिरकर नभ-मंडल में।
हैं घूम-घूम घन आते।
दिखता श्यामलता अपनी।
हैं विपुल विमुग्ध बनाते॥1॥
 
ये द्रवणशील बन-बनकर।
हैं दिव्य वारि बरसाते।
पाकर इनको सब प्यासे।
हैं अपनी प्यासे बुझाते॥2॥
 
इनमें जैसी करुणा है।
किसमें वैसी दिखलाई।
किसकी ऑंखों में ऐसी।
ऑंसू की झड़ी लगाई॥3॥
 
देखे पसीजनेवाली।
पर ऐसा कौन पसीजा।
है कौन धूल में मिलता।
औरों के लिए कहीं जा॥4॥
 
ऐसा सहृदय जगती में।
है अन्य नहीं दिखलाया।
घन ही पानी रखने को।
पानी-पानी हो पाया॥5॥
 
सब काल पिघलते रहना।
जो जलद को नहीं भाता।
तब कौन सुधा बरसाकर।
वसुधा को सरस बनाता ॥६॥
 
बहता न पयोद हृदय में।
जो दया-वारि का सोता।
तो कैसे मरु-महि सिंचती।
क्यों ऊसर रसमय होता॥7॥
 
जो नहीं नील नीरद में।
सच्ची शीतलता होती।
किस तरह ताप निज तन का।
तपती वसुंधरा खोती॥8॥
 
जो जीवन-दान न करता।
क्यों नाम सुधाधर पाता।
यदि परहित-निरत न होता।
कैसे परजन्य कहाता॥9॥
 
वह सरस है सरस से भी।
वह है रस का निर्माता।
वह है जीवन का जीवन।
घन है जग-जीवन-दाता॥10॥
 
(2)
शार्दूल-विक्रीडित
 
केले के दल को प्रदान करके बूँदें विभा-वाहिनी।
सीपी का कमनीय अंक भरके, दे सिंधु को सिंधुता।
शोभा-धाम बना लता-विटप को सद्वारि के बिन्दु से।
आते हैं बन मुक्त व्योम-पथ में मुक्ता-भरे मेघ ये॥1॥
 
शृंगों से मिल मेरु में विचरते प्राय: झड़ी बाँधते।
बागों में वन में विहार करते नाना दिखाते छटा।
मोरों का मन मोहते, विलसते शोभामयी कुंज में।
आते हैं घन घूमते घहरते पायोधि को घेरते॥2॥
 
कैसे तो सर अंक में विलसते, क्यों प्राप्त होती सरी।
कैसे पादप-पुंज लाभ करती हो शस्य से श्यामला।
कैसे तो मिलते प्रसून, लसती कैसे लता-बेलि से।
जो पाती न धारा अधीर भव में धाराधरी-धारता॥3॥
 
कैसे तो लसती प्रशान्त रहती, क्यों दूर होती तृषा।
कैसे पाकर जीव-जन्तु बनती श्यामायमाना मही।
होते जो न पयोद, जो न उनमें होती महाआर्द्रता।
रक्षा हो सकती न अन्य कर से तो चातकी वृत्ति की॥4॥
 
गाती है गुण, साथ सर्व सरि के सानंद सारी धरा।
प्रेमी हैं जग-जीवमात्रा उसके, हैं चातकों से व्रती।
क्यों पाता न पयोद मान भव में, होता यशस्वी न क्यों।
है स्नेही उसका समीर, उसकी है दामिनी कामिनी॥5॥
 
मीठा है करता पयोद विधिक से वारीश के वारि को।
देता है रस-सी सुवस्तु सबको, है सींचता सृष्टि को।
नेत्रों का, असिताम्बरा अवनि का, काली कुहू रात्रि का।
खोता है तम दामिनी-दमक की दे दिव्य दीपावली॥6॥
 
नीले, लाल, अश्वेत, पीत, उजले, ऊदे, हरे, बैंगनी।
रंगों से रँग, सांध्य भानु-कर की सत्कान्ति से कान्त हो।
नाना रूप धरे विहार करते हैं घूमते-झूमते।
होगा कौन न मुग्ध देख नभ में ऐसे घनों की छटा॥7॥
 
हैं ऊँचे उठते, सुधा बरसते, हैं घेरते घूमते।
बूँदों से भरते, फुहार बनते या हैं हवा बाँधते।
दौरा हैं करते घिरे घहरते हैं रंग लाते नये।
क्या-क्या हैं करते नहीं गगन में ये मेघ छाये हुए॥8॥
 
कैसे तो पुरहूत-चाप मिलता, क्यों दामिनी नाचती।
क्यों खद्योत-समूह-से विलसती काली बनी यामिनी।
होते जो न पयोद, गोद भरती कैसे हरी भूमि की।
आभा-मंडित साड़ियाँ सतरँगी क्यों पैन्हतीं दिग्वधू॥9॥
 
मेघों को करते प्रसन्न खग हैं मीठा स्वगाना सुना।
हैं नाना तरु-वृन्द प्रीति करते उत्फुल्लताएँ दिखा।
आशा है अनुरागिनी जलद की, है प्रेमिका शर्वरी।
सारी वीर-बहूटियाँ अवनि की रागात्मिका मूर्ति हैं॥10॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(3)
 
जो तरस न आता कैसे।
ऑंखों में ऑंसू भरता।
वह क्यों बनता है नीरस।
जो बरस सरस है करता॥1॥
 
चातक ने आकुल हो-हो।
पी-पी कह बहुत पुकारा।
पर गरज-तड़पकर घन ने।
उसको पत्थर से मारा॥2॥
 
पौधा था एक फबीला।
सुन्दर फल-फूलोंवाला।
टूटी बिजली ने उसको।
टुकड़े-टुकड़े कर डाला॥3॥
 
सब खेत लहलहाते थे।
भू ने था समा दिखाया।
वारिद ने ओले बरसा।
मरु-भूतल उसे बनाया॥4॥
 
जब अधिक वृष्टि होती है।
पुर ग्राम नगर हैं बहते।
उस काल करोड़ों प्राणी।
हैं महा यातना सहते॥5॥
 
जब चपला-असि चमकाकर।
है महाघोर रव करता।
तब कौन हृदय है जिसमें।
घन नहीं भूरि भय भरता॥6॥
 
अवलोक क्रियाएँ उसकी।
क्यों कहें जलद है कैसा।
यदि माखन-सा कोमल है।
तो है कठोर पवि-जैसा॥7॥
 
है विषम गरल गुणवाला।
तो भी है सुधा पिलाता।
घन उपल सृजन करता है।
मुक्ता भी है बन जाता॥8॥
 
कोई न कहीं पर घन-सा।
है तरल-हृदय दिखलाता।
वह हो हिमपात-विधायक।
पर है जग-जीवन-दाता॥9॥
 
है थकित-भ्रमित चित होता।
कैसे रहस्य बतलायें।
हैं चकित बनाती भव की।
गुण-दोषमयी लीलाएँ॥10॥
 
(4)
शार्दूल-विक्रीडित
 
क्या सातों किरणें दिवाधिकपति की हैं दृश्यमाना हुईं।
किम्वा वन्दनवार द्वार पर है बाँधी गयी स्वर्ग के।
या हैं सुन्दर साड़ियाँ प्रकृति की आकाश में सूखती।
किम्वा वारिद-अंक में विलसता है चाप स्वर्गेश का।
 
सरस समीर
( 1)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विकसित करता अरविन्द-वृन्द।
बहता है ले मंजुल मरन्द।
मानस को करता मोद-धाम।
आता समीर है मन्द-मन्द॥1॥
 
है कभी बजाता मंजु वेणु।
कीचक-छिद्रों में कर प्रवेश।
है कभी सुनाता सरस गान।
दे खग-कुल-कंठों को निदेश॥2॥
 
है कभी कँपाता जा समीप।
विकसित लतिका का मृदुल गात।
ले कभी कुसुम-कुल की सुगंध।
वह बन जाता है मलय-वात॥3॥
 
ले-लेकर उज्ज्वल ओस-बिन्दु।
जब वह करता है वर विहार।
तब बरसाता है हो विमुग्ध।
तरुदल-गत मुक्ता-मणि अपार॥4॥
 
वह करता है कमनीय केलि।
आ-आकर सुमन-समूह पास।
बहु घूम-घूम मुख चूम-चूम।
कलियों को वितरण कर विकास॥5॥
 
बहु लोभनीय लीला-निकेत।
सरि-लहरों को कर अधिक लोल।
भरता है उनमें लय ललाम।
कर-कर कल कलरव से कलोल॥6॥
 
पाकर विस्तृत तृण-राजि ओक।
वह जब जाता है पंथ भूल।
तब उड़ता है बन परम कान्त।
वन-भूमि-बधूटी का दुकूल॥7॥
 
मिल अलिमाला से प्रेम-साथ।
तितली से करता है विनोद।
बनती है उससे सुमनवान।
छाया की बहु छबिमयी गोद॥8॥
 
करके कितने आवरण दूर।
निज मंजुल गति का बढ़ा मोल।
दिखलाता है बहु दिव्य दृश्य।
वह हटा प्रकृति-मुख का निचोल॥9॥
 
वह फिरता है बन सुधा-सिक्त।
सब ओर सरस सौरभ पसार।
वनदेवी को दे परम दिव्य।
विकसित कुसुमों का कण्ठहार॥10॥
 
(2)
वंशस्थ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
विभूति-आवास अनन्त-अंक का।
विकास है व्यापक तेज-पुंज का।
विधान है जीवन-भूत वारि का।
समीर है प्राण धरा-शरीर का॥1॥
 
सदा रही चित्त विराम-दायिनी।
विनोदिनी सर्व वसुंधरांक की।
सुगंधिकता है करती दिगन्त को।
विमोहिनी धीरे समीर धीरता॥2॥
 
रजनी सुन्दरी
(1)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
घूँघट से बदन छिपाये।
काले कपड़ों को पहने।
आती है रजनी तन पर।
धारण कर उडुगण गहने॥1॥
 
पाकर मयंक-सा प्रियतम।
सहचरी चाँदनी ऐसी।
वह कभी विलस पाती है।
सुरलोक सुन्दरी जैसी॥2॥
 
पर कभी पड़ा मिलता है।
उस पर वह परदा काला।
जिसको माना जाता है।
भव अंधा-भूत अंधियाला॥3॥
 
नव राग-रंजिता सन्धया।
तारक-चय-मण्डित नभ-तल।
बहु लोक विपुल आलोकित।
हैं रजनी-सुख के सम्बल॥4॥
 
कमनीय अंक में उसके।
जन-कोलाहल सोता है।
भव कार्य बहुलता का श्रम।
उसका विराम खोता है॥5॥
 
जो शान्ति-दायिनी निद्रा।
जन श्रान्ति क्लान्ति हरती है।
तो शिथिल रगों में बिजली।
रजनी-बल से भरती है॥6॥
 
पा अर्ध्दरात्रि-नीरवता।
जब त्याग सचलता सारी।
सब जगत पड़ा सोता है।
अवलोक प्रकृति-गति न्यारी॥7॥
 
चल दबे पाँव से मारुत।
जब है ऊँघता दिखाता।
जब पादप का पत्ता भी।
हिल-डोल नहीं है पाता॥8॥
 
उस काल निबिड़ता तम की।
वह चादर है बन जाती।
जिससे जगती तन ढँक कर।
सुख अनुभव है कर पाती॥9॥
 
रजनी-उर हित की लहरें।
जब हैं रस-वाष्प उठाती।
तब ओस-बूँद बन-बनकर।
मोती-सा हैं बरसाती॥10॥
 
यामिनी मिले सन्नाटा।
जब साँय-साँय करती है।
उस काल वसुमती सुख के।
साधन का दम भरती है॥11॥
 
वह प्रति दिन उन पापों पर।
परदे डाला करती है।
अवलोक विकटता जिनकी।
कम्पित होती धरती है॥12॥
 
खंबों पर विलसित बिजली।
क्यों तारक-चय मद खोती।
क्यों अगणित दीपक बलते।
जो नहीं यामिनी होती॥13॥
 
तम-भरित सकल ओकों में।
अनुभूत ज्योति भरती है।
श्रम-भंजन कर जन-जन का।
रजनी रंजन करती है॥14॥
 
(2)
शार्दूल-विक्रीडित
 
है लीला करती, ललाम बनती, है मुग्ध होती महा।
है उल्लास-विलास से विलसती, पीती सुधा सर्वदा।
होके हासमयी विकास भरती, है मोहती विश्व को।
पा राकेश-समान कान्त मुदिता राका निशा सुन्दरी।
 
वंशस्थ
 
असंख्य में से उडु एक भी जिसे।
कभी नहीं कान्तिमयी बना सका।
अभागिनी भीति-भरी तमोमयी।
कहाँ मिली अन्यतमा अमा समा।
 
(3)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
हैं सरस ओस की बूँदें।
या हैं ये मंजुल मोती।
या ढाल-ढालकर ऑंसू।
प्रति दिन रजनी है रोती॥1॥
 
क्यों ओस कलेजा पिघला।
वह क्यों बूँदें बन पाई।
किसलिए दया-परवश हो।
वह द्रवीभूत दिखलाई॥2॥
 
अवलोक अंधेरा जग में।
क्या रवि-वियोगिनी-छाया।
है घूम-घूमकर रोती।
इतना जी है भर आया॥3॥
 
हो विकल कालिमाओं से।
रजनी है अश्रु बहाती।
या विविध तामसिक बातें।
उसको हैं अधिक रुलाती॥4॥
 
अथवा विधु-से वल्लभ को।
क्षय-रुज-कवलित अवलोके।
है रुदन-रता वह अबतक।
ऑंसू रुक सके न रोके॥5॥
 
अथवा अतीत गौरव की।
कर याद व्यथा रोती है।
अपनी अन्तर-ज्वालाएँ।
दृग-जल-बल से खोती है॥6॥
 
या प्रकृति-स्नेह की धारा।
जल की बूँदें बन-बनकर।
तरुदल को सींच रही हैं।
कर लता-बेलियों को तर॥7॥
 
या ता तरल-हृदय बन।
हो दया से द्रवित भू पर।
बरसाते हैं नित मोती।
कमनीय करों में भरकर॥8॥
 
अवलोक तपन को आते।
सहृदयता दिखलाती है।
या सरस ओस अवनी पर।
सित सुधा छिड़क जाती है॥9॥
 
या रवि कोमल किरणों को।
अवलोक धारा पर आती।
तरुदल-थालों में भर-भर।
मोती है ओस लुटाती॥10॥
 
(4)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
हो नाना खग-वृन्द-नाद-मुखरा प्रात:प्रभा-पूरिता।
हो के पुण्य विकास से विकसिता सद्गंधा से गंधिकता।
ऊषा से बन रंजिता विलसिता हो शोभिता अंशु से।
होती है महि कान्त ओस-कर से पा मंजु मुक्तावली॥1॥
 
है प्राची प्रिय लालिमा सहचरी सिन्दूर-आरंजिता।
सोने-सी कमनीय कान्ति-जननी है दिव्यता भानु की।
है आलोक-प्रसू प्रभात-सुषमा है मण्डिता दिग्वधू।
ऊषा है अनुराग-राग-निरता, है ओस मुक्तामयी॥2॥

चतुर्थ सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

दृश्य जगत्
हिमाचल
(1)
गीत
अवलोकनीय अनुपम।
कमनीयता- निकेतन।
है भूमि में हिमाचल।
विभु-कीत्तिक कान्त केतन॥1॥
 
है हिम-समूह-मंडित।
हिमकर-समान शोभन।
सुन्दर किरीट-धारी।
ललितांग लोक-मोहन॥2॥
 
उसकी विशालता है।
वसुधा-विनोद- सम्बल।
उसको विलोकता है।
बन मुग्ध देव-मंडल॥3॥
 
सुन्दर सुडौल ऊँचे।
उसके समस्त तरुवर।
नन्दन-विपिन-विटप से।
शोभा-सदन मनोहर॥4॥
 
कर लाभ फूल, फल, दल।
जब हैं बहुत विलसते।
तब कौन-से नयन में।
वे रस नहीं बरसते॥5॥
 
पा स्वर्ग-छवि न कैसे।
सुर-सुन्दरी कहायें।
किसको नहीं लुभातीं।
उसकी ललित लताएँ॥6॥
 
उसकी जड़ी व बूटी।
बन कल्प-बेलि के सम।
बहुरूप दिव्य दलमय।
कामद फलद मनोरम॥7॥
 
करती विविध क्रिया हैं।
दिखला विचित्रताएँ।
हैं रात में दमकती।
बन दीप की शिखाएँ॥8॥
 
बन वाष्प घूमते हैं।
घन वारि हैं बरसते।
अन्तिम मिहिर-किरण ले।
या हैं बहुत विलसते॥9॥
 
हैं द्वार पर दरी के।
परदे रुचिर लगाते।
अथवा वहीं बिखर कर।
हैं जालियाँ बनाते॥10॥
 
घुसकर किसी सदन में।
हैं बहु वसन भिंगोते।
या हो तरल अधिकतर
हैं भित्तिक-चित्रा धोते ॥11॥
 
धार कर स्वरूप कितने।
हैं बहु विहार करते।
मुक्ता-समूह उसमें।
हैं वारिवाह भरते॥12॥
 
हिम से हिला-मिला-सा।
है सानु पर दिखाता।
या सिक्त घाटियों को।
है घन-पटल बनाता॥13॥
 
है नीर पान करता।
धुरवा धुरीण बनकर।
या डाल-डाल झूला।
है झूलता शिखर पर॥14॥
 
बूँदें बड़ी गिराकर।
जल-वाद्य है बजाता।
कर नाद वसु-पदों को।
पर्जन्य है खिजाता॥15॥
 
जब गैरिकादि को है।
निज वारि में मिलाता।
तब मेघ मेरु को है।
बहुरंग पट पिन्हाता॥16॥
 
मृगनाभि से सुगंधिकत।
वह है सदैव रहता।
उसमें सरस समीरण।
है मन्द-मन्द बहता॥17॥
 
कर रव, सुधा श्रवण में।
जल-स्रोत डालते हैं।
झरने उछल-उछलकर।
मोती उछालते हैं॥18॥
 
कल अंक मध्य उसके।
छवि रत्न-राजि की है।
खा बनी रजत की।
सरिता विराजती है॥19॥
 
ऐसा त्रिकलोक-सुन्दर।
किस ऑंख में समाया।
महि ने न दूसरा गिरि।
हिमगिरि-समान पाया॥20॥

(2)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
चोटी है लसती मिले कलस-सी ज्योतिर्मयी मंजुता।
होती है उसमें कला-प्रचुरता स्वाभाविकी स्वच्छता।
नाना साधन, हेतु-भूत बन के हैं सिध्दि देते उसे।
है देवालय के समान गिरि के सर्वांग में दिव्यता॥1॥
 
शिक्षा का शुचि केन्द्र, शान्त मठ है संसार की शान्ति का।
पूजा का प्रिय पीठ, कान्त थल है विज्ञप्ति के पाठ का।
है ज्ञानार्जन-धाम ओक भव के विज्ञान-विस्तार का।
पाता है गिरि भू-विभूति-चय का, धाता विभा-कीत्तिक का॥।2॥
 
होता है अभिषेक वारिधार के पीयूष से वारि से।
नाना पादप हैं प्रसून-चय से प्रात: उसे पूजते।
सारी ही नदियाँ सभक्ति बन के होती द्रवीभूत हैं।
गाते हैं गुण सर्व उत्स गिरि का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥3॥
 
ऐसा है हरिताभ वस्त्रा किसका पुष्पावली से सजा।
नाना कान्ति-निकेत रत्न किसके सर्वांग में हैं लसे।
आभावान असंख्य हीरक जड़ा आलोक के पुंज-सा।
पाया है हिम का किरीट किसने हेमाद्रि-जैसा कहाँ॥4॥
 
पक्षी रंग-विरंग के विहरते या मंजु हैं बोलते।
क्रीड़ा हैं करते कुरंग कितने, गोवत्स हैं कूदते।
नाना वानर हैं विनोद करते, हैं गर्जते केशरी।
मातंगी-दल के समेत गिरि में मातंग हैं घूमते॥5॥
 
ऊषा-रागमयी दिशा विहँसती लोकोत्तारा लालिमा।
कान्ता चन्द्रकला कलिन्द्र किरणें रम्यांक राका निशा।
नाना तारक-मालिका छविमयी कादम्बिनी दामिनी।
देती हैं दिवि की विभूति गिरि को दिव्यांग देवांगना॥6॥
 
गा-गा गीत विहंग-वृन्द दिखला केकी कला नृत्य की।
नाना कीट, पतंग, भृंग करके क्रीड़ा मनोहारिणी।
देते हैं अभिराम-भूत गिरि की सौन्दर्य-मात्राक बढ़ा।
सीधो सुन्दर मंजु पुच्छ मृग के सर्वांग शोभा-भ॥7॥
 
है कैलाश कहाँ, किसे मिल सका काश्मीर-भू-स्वर्ग-सा।
पाया है कब स्वर्ण-मेरु किसने, देवापगा-सी सरी।
मुक्ता-हंस-निकेत मानस किसे है कान्त देता बना।
कैसे हो न हिमाद्रि उच्च सबसे, क्यों देवतात्मा न हो॥8॥
 
दे पुष्पादि 'उदार वृत्तिक' तरु की शाखा बताती मिली।
सा निर्झर हैं अजस्र कहते स्नेहार्द्रता मेरु की।
ऊँचे शृंग उठा स्वशीश करते हैं कीत्तिक की घोषणा।
गाती है गुण सर्वदा गिरि-गुहा शब्दायमाना बनी॥9॥
 
गाते हैं गंधार्व किन्नर कहीं, हैं नाचती अप्सरा।
वीणा है बजती, मृदंग-रव है होता कहीं प्रायश:।
दे-दे दिव्य विभूति व्योम-पथ में हैं देवते घूमते।
ऐसा है गिरि कौन स्वर्ग-सुषमा है प्राप्त होती जिसे॥10॥
 
(3)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
जो था मनु वंश-विटप का।
वसुधातल में आदिम फल।
उसके लालन-पालन का।
पलना है अचल हिमाचल॥1॥
 
हो सका बहु सरस जिससे।
भव अनुभव भूतल सारा।
बह सकी प्रथम हिमगिरि में।
वह मानवता-रस-धारा॥2॥
 
जिसके मधु पर हैं मोहित।
महि विबुध-वृन्द मंजुल अलि।
विकसी हिमाद्रि में ही वह।
वैदिक संस्कृति-कुसुमावलि॥3॥
 
जिसकी कामदता देखे।
सुर-वृन्द सदैव लुभाया।
मिल सकी हिमालय में ही।
वह सुख-सुरतरु की छाया॥4॥
 
है कहाँ कान्त कनकाचल।
बहु दिव विभूति विलसित घन।
मुक्तामय मान-सरोवर।
नन्दन-वन जैसा उपवन॥5॥
 
कमनीय कंठ में पहने।
मंदार मंजुतम माला।
हैं कहाँ विहरती फिरती।
अलका-विलासिनी बाला॥6॥
 
जिनकी अद्भुत तानों से।
रस की धारा-सी फूटी।
हैं कहाँ सुधा बरसाती।
गा-गाकर विबुध-बधूटी॥7॥
 
कैलास कहाँ है जिसपर।
है वह विभूति तनवाला।
बन गयी मौलि की जिसके।
सुरसरी मालती-माला॥8॥
 
है पली अंक में किसके।
वह सिंह-वाहना बाला।
जिसने दानवी दलों को।
मशकों समान मल डाला॥9॥
 
है कहाँ शान्ति का मन्दिर।
भव - जन - विश्राम - निकेतन।
उड़ सका शिखर पर किसके।
वसुधा-विमुक्ति का केतन॥10॥
 
जी सकीं देख मुख जिसका।
शुचिता की ऑंखें प्यारेसी।
वे सिध्द कहाँ थे जिनकी।
थीं सकल सिध्दियाँ दासी॥11॥
 
भर विभु-विभुता-वैभव से।
है कहाँ कुसुम-कुल हँसता।
बहु काल ललित-तम वन के।
है कहाँ वसन्त विलसता॥12॥
 
वे वन-विभूतियाँ जिनमें।
हैं कलित कलाएँ खिलतीं।
वे दृश्य अलौकिक जिनमें।
है प्रकृति-दिव्यता मिलती॥13॥
 
किसने है ऐसी पाई।
है कौन मंजुतम इतना।
अब तक भव समझ न पाया।
उसमें रहस्य है कितना॥14॥
 
विधिक लोकोत्तर कर-लालित।
लौकिक ललामता-सम्बल।
सिर-मौर मेरुओं का है।
अचला मणि-मुकुट हिमाचल॥15॥
 
विपिन
(1)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
शोभाधाम ललाम मंजुरुत की नाना विहंगावली।
लीला-लोल लता-समूह बहुश: सत्पुष्प सुश्री बड़े।
पाये हैं किसने असंख्य विटपी स्वर्लोक-संभूत-से।
रम्योपान्त नितान्त कान्त महि में है कौन कान्तार-सा॥1॥
 
नाना मंजुल कुंज से विलसिता भृंगावली-भूषिता।
छायावान लता-वितान-वलिता पाथोज-पुंजावृत्ताक।
गुंजा-माल-अलंकृता तृणगता मुक्तावली-मंडिता।
है दूर्वादल-संकुला विपिन की श्यामायमाना मही॥2॥
 
वंशस्थ
 
तृणावली तारक-राजि व्योम है।
पतंग है दीधिकत पुष्पराशि का।
प्रशस्त कान्तार विशाल सिंधु है।
तरंग-माला तरु-पुंज-पंक्ति का।
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
पेड़ों में वन की बड़ी विविधता उत्फुल्लता उच्चता।
पत्तों में फल में महा सरसता आमोदिनी मंजुता।
नाना पुष्प-समूह में विकचता सच्ची मनोहारिता।
पाते हैं कमनीयता मृदुलता कान्ता लता-पुंज में॥1॥
 
व्यापी मंजु हरीतिमा विटप की कादम्बिनी-सी लसी।
शाखा पल्लव-पूरिता विकसिता पुष्पावली-सज्जिता।
लेती है कर मुग्ध वारि-निधिक-सी हो ऊर्मिमालामयी।
नाना गुल्म-लतावती विपिन को नीलाम्बरा मेदिनी॥2॥
 
की है कानन मध्य सिध्दि जन ने प्यारी तप:साधना।
पूता है वन की महा गहनता स्वर्गीय सम्पत्तिक से।
व्यापी निर्जनता विराग-निरता एकान्त आधारिता।
होती है महनीय शान्ति-भरिता कान्तार-गंभीरता॥3॥
 
उल्लू का विकराल नाद बहुधा, शार्दूल की गर्जना।
देता है न किसे प्रकंपित बना चीत्कार मातंग का।
देखे हिंसक भीमकाय पशु की आतंककारी क्रिया।
सन्नाटा वन का विलोक किसको हृत्कंप होता नहीं॥4॥
 
नाना व्याल-विभीषिका विकटता भू कंटकाकीर्ण की।
हिंसा पाशव वृत्तिक हिंस्र पशु की चीत्कारमग्ना दिशा।
ज्वाला-भाल-निपीड़ता तरु-लता धामांधाकारावृता।
होती है भयपूरिता विपिन की कृत्या समा प्रक्रिया॥5॥
 
पा के दानव के समान वपुता एवं कदाकारता।
हो के चालित चंड वायु-गति से आतंक-मात्राक बढ़ा।
नाना काक उलूक आदि रव से हो प्रायश: पूरिता।
देती है वन को भयावह बना दुर्वीक्ष्य वृक्षावली॥6॥
 
वंशस्थ
 
बनी हुई मूर्ति विभीषिका।
वृकोदरा श्वापद-वृन्द-शासिता।
किसे नहीं है करती प्रकंपिता।
करालकाया वन की वसुंधरा।
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
जो है हिंसकता-निकेत जिसमें है भीति-सत्ता भरी।
जो है भूरि विभीषिका-विचलिता उत्पात-आलोड़िता।
जो है कंटकिता नितान्त गहना आतंक-आपूरिता।
तो कैसे वन-मेदिनी, विकटता-आक्रान्त होगी नहीं॥1॥
 
गीत
 
(2)
 
है कौन विलसता सब दिन।
परिधन हरित-तम पहने।
हैं सबसे सुन्दर किसके।
कमनीय कुसुम के गहने॥1॥
 
हरिताभ मंजुतम अनुपम।
है किसका अंक निराला।
है पड़ी कंठ में किसके।
मरकत-मणि-मंजुल माला॥2॥
 
इतना अनुरंजित ऊषा।
कब किसको है कर पाती।
इतनी मुक्ता-मालाएँ।
रजनी है किसे पिन्हाती॥3॥
 
बहु प्रभावान प्रति वासर।
है किसे प्रभात बनाता।
किसको दिन-मणि निज कर से।
है स्वर्ण-मुकुट पहनाता॥4॥
 
हैं किसे ललिततम करती।
हिल-हिल अनंत लतिकाएँ।
किसमें विलसित रहती हैं।
खिल-खिल अगणित कलिकाएँ॥5॥

लेकर विहंगमों का दल।
है गीत मनोहर गाता।
निज कोटि-कोटि कंठों से।
है कलरव कौन सुनाता॥6॥
 
वारिधिक-समान संचालित।
किसको समीर है करता।
किसके सौरभ को ले-ले।
वह है दिगन्त में भरता॥7॥
 
कर लाभ सुमनता किसकी।
हैं सरस सुमन से भरते।
लेकर असंख्य तरु-फल-दल।
किसका पूजन हैं करते॥8॥
 
नित प्रकृति की छटा किसमें।
नर्त्तन करती मिलती है।
मधु की मधुता किसको पा।
छगुनी छवि से खिलती है॥9॥
 
नयनाभिराम बहु मोहक।
आमोदक परम मनोरम।
वसुधा में कौन दिखाया।
बन के समान मंजुलतम॥10॥
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(3)
 
कहाँ हरित पट प्रकृति-गात का है बहु कान्त दिखाता।
कहाँ थिरकती हरियाली का घूँघट है खुल पाता।
कहाँ उठा शिर विटपावलि हैं नभ से बातें करती।
कहाँ माँग अपनी लतिकाएँ मोती से हैं भरती॥1॥
 
कोटि-कोटि कीचक हैं अपनी मुरली कहाँ बजाते।
कहाँ विविध गायक तरु गा-गा हैं बहु गीत सुनाते।
ले बहु सूखे फल समीर है कहाँ सुवाद्य बजाता।
मोरों का दल कहाँ मंजुतम नर्त्तन है कर पाता॥2॥
 
ऐसी कुंजें कहाँ जहाँ दृग कुंठित हैं हो जाते।
जिसकी छाया को सहस्र-कर कभी नहीं छू पाते।
कहाँ विलसती हरियाली में कुसुमावलि है वैसी।
नभ-नीलिमा तारकावलि में छवि मिलती है जैसी॥3॥
 
कहाँ उठे हैं विपुल महातरु श्यामल महि में ऐसे।
उठती हैं उत्ताकल तरंगें तोयधिक-तन में जैसे।
धानी साड़ी धारा-सुन्दरी को है कौन पिन्हाती।
कोसों तक तृणराजि कहाँ पर है राजती दिखाती॥4॥
 
विपुल कुसुम-कुल के गुच्छों से जो मंजुल हैं बनते।
कहाँ बेलियों के विभवों से हैं वितान बहु तनते।
कहाँ वनश्री की लेती हैं पुलकित बनी बलाएँ।
नीली लाल हरित दलवाली लाखों ललित लताएँ॥5॥
 
रंजित बनती हैं रजनी की जिनसे तामस घड़ियाँ।
दीपक-जैसी कहाँ जगमगाती मिलती हैं जड़ियाँ।
लता-वेलि-तरु-चय पत्तों में हैं प्रसून-से खिलते।
पावस में अनंत जुगनू हैं कहाँ चमकते मिलते॥6॥
 
श्याम रंग में रँगे झूमते बहु क्रीड़ाएँ करते।
कहाँ करोड़ों भौं हैं सब ओर भाँवरें भरते।
रंग-बिरंगी बड़ी छबीली कुसुम-मंजुरस-माती।
कहाँ असंख्य तितलियाँ फिरती हैं रंगतें दिखाती॥7॥
 
चित्रा-विचित्र परों से अपने विचित्रता फैलाते।
कभी मेदिनी, कभी डालियों पर बैठे दिखलाते।
हो कलोल-रत कलित कंठ से गीत मनोहर गाते।
झुंड बाँधाकर कहाँ करोड़ों खग हैं आते-जाते॥8॥
 
कभी अति चपल मृदुल-काय शावक-समूह से घिरते।
कभी चौंकते, कभी उछलते, कभी कूदते फिरते।
भोले-भाले भाव दृगों में भर कोमल तृण चरते।
कहाँ यूथ-से-यूथ मृग मिले भूरि छलाँगें भरते॥9॥
 
उठती हैं मानव-मानस में विविध विनोद-तरंगें।
तृप्ति-लाभ करती हैं कितनी उर में उठी उमंगें।
दृष्टि मिले का फल पाते हैं बहु विमुग्ध दृग हो के।
बनती है अनुभूति सहचरी विपिन-विभूति विलोके॥10॥
 
उद्यान
(1)
 
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
हरित तृणराजि-विराजित भूमि।
बनी रहती है बहु छबि-धाम।
विहँस जिसपर प्रति दिवस प्रभात।
बरस जाता है मुक्ता-दाम॥1॥
 
पहन कमनीय कुसुम का हार।
पवन से करती है कल केलि।
उड़े मंजुल दल-पुंज-दुकूल।
विलसती है अलबेली बेलि॥2॥
 
क्यारियों का पाकर प्रिय अंक।
आप ही अपनी छवि पर भूल।
लुटाकर सौरभ का संभार।
खिले हैं सुन्दर-सुन्दर फूल॥3॥
 
छँटी मेहँदी के छोटे पेड़।
लगे रविशों के दोनों ओर।
मिले घन-जैसा श्याम शरीर।
नचाते हैं जन-मानस मोर॥4॥
 
खोल मुँह हँसता उनको देख।
विलोके उनका तन सुकुमार।
प्यारे करता है हो बहु मुग्ध।
दिवाकर कर कमनीय पसार॥5॥
 
खड़े हैं पंक्ति बाँधा तरु-वृन्द।
ललित दल से बन बहु अभिराम।
लोचनों को लेते हैं मोल।
डालियों के फल-फूल ललाम॥6॥
 
प्रकृति-कर से बन कोमल-कान्त।
लताओं का अति ललित वितान।
बुलाता है सब काल समीप।
कलित कुंजों का छाया-दान॥7॥
 
लाल दलवाले लघुतम पेड़।
लालिमा से बन मंजु महान।
दृगों को कर देते हैं मत्त।
छलकते छवि-प्यारेले कर पान॥8॥
 
बहुत बल खाती कर कल नाद।
नालियाँ बहती हैं जिस काल।
रसिक मानव-मानस के मध्य।
सरस बन रस देती हैं ढाल॥9॥
 
कहीं मधु पीकर हो मदमत्त।
अलि-अवलि करती है गुंजार।
कहीं पर दिखलाती है नृत्य।
रँगीली तितली कर शृंगार॥10॥
 
पढ़ाता है प्रिय रुचि का पाठ।
कहीं पर पारावत हो प्रीत।
कहीं पर गाता है कलकंठ।
प्रकृति-छवि का उन्मादक गीत॥11॥
 
सुने पुलकित बनता है चित्त।
पपीहा की उन्मत्ता पुकार।
कहीं पर स्वर भरता है मोर।
छेड़कर उर-तंत्री के तार॥12॥
 
कहीं क्षिति बनती है छविमान।
लाभ कर विलसे थल-अरविन्द।
कहीं दिखलाते हैं दे मोद।
तरु-निचय पर बैठे शुक-वृन्द॥13॥
 
मंजु गति से आ मंद समीर।
क्यारियों में कुंजों में घूम।
छबीली लतिकाओं को छेड़।
कुसुम-कुल को लेता है चूम॥14॥
 
कगा किसको नहीं विमुग्ध।
सरसता-वलित ललिततम ओक।
न होगा विकसित मानस कौन।
लसित कुसुमित उद्यान विलोक॥15॥
 
(2)
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
माली के उर की अपार ममता उन्मत्ताता भृंग की।
पेड़ों की छवि-पुंजता रुचिरता छायामयी कुंज की।
पुष्पों की कमनीयता विकचता उत्फुल्लता बेलि की।
देती है खग-वृन्द की मुखरता उद्यान को मंजुता॥1॥
 
कान्ता कंज-दृगी सरोज-वदना भृंगावली-कुंतला।
सुश्री कोकिल-कंठिनी भुज-लता-लालित्य-आंदोलिता।
पुष्पाभूषण-भूषिता सुरभिता आरक्त बिम्बाधारा।
दूर्वा श्यामल साटिका विलसिता है वाटिका सुन्दरी॥2॥
 
द्रुतविलम्बित
 
सहज सुन्दर भूति-निकेत क्यों।
बन सके नर-निर्मित वाटिका।
विपिन में दृग हैं अवलोकते।
प्रकृति की कृति की कमनीयता॥3॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
कोई पा बहुरंग की विविधता आधार पुष्पावली।
कोई है ले लाल फूल लसिता शृंगारिता रंजिता।
क्या हैं सुन्दर नारियाँ विलसती पैन्हे रँगी साड़ियाँ।
या हैं कान्त प्रसून-पुंज-कलिता उद्यान की क्यारियाँ॥4॥
 
पा आभा दिन में दिनेश-कर से हो-हो सिता से सिता।
ले-ले कान्ति सुधांशु-कान्त-कर से हो दिव्य आभामयी।
पा के वारिद-वृन्द से सरसता वृन्दारकों से छटा।
होती है रस-सिंचिता विलसिता उल्लसिता वाटिका॥5॥
 
हो आभामय मंद-मंद हँस के फूली लता-व्याज से।
मुक्ता से लसिता तृणावलि मिले हो दिव्य नीलाम्बरा।
ऑंखों को अनुराग-सिक्त, मन को है मुग्ध देती बना।
पैन्हे मंजुल मालिका सुमन की उद्यान की मेदिनी॥6॥
 
सरिता
(1)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
ताटक
किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली॥1॥
 
क्यों दिन-रात अधीर बनी-सी।
पड़ी धारा पर रहती हो।
दु:सह आपत शीत-वात सब
दिनों किसलिए सहती हो॥2॥
 
कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग-भंग कर-कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो॥3॥
 
कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती हैं॥4॥
 
बहुत दूर जाना है तुमको।
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं॥5॥
 
पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो॥6॥
 
ऊषा का अवलोक वदन।
किसलिए लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े-टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो॥7॥
 
क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हा।
तन पर पड़ता है छाला॥8॥
 
क्यों यह दिखलाती रहती हो।
भव के सुख-वैभव सा।
दुखिया को दुख ही देते हैं।
उसे नहीं लगते प्यारे॥9॥
 
सदा तुम्हारी धारा में क्यों।
पड़ती भँवर दिखाती है।
क्या वह जी में पड़ी गाँठ का।
भेद हमें बतलाती है॥10॥
 
क्यों नीचे-ऊपर होती हो।
गिरती-पड़ती आती हो।
पानी-पानी होकर भी क्यों।
पानी नहीं बचाती हो॥11॥
 
जीवनमय होने पर भी क्यों।
जीवन-हीन दिखाती हो।
कल-विरहित होकर के कैसे।
कल-कल नाद सुनाती हो॥12॥
 
उस नीरव निशीथिनी में जब।
सकल धारातल सोता है।
पवनसहित जब सारा नभ-तल।
शब्दहीन-सा होता है॥13॥
 
तब भी क्रन्दन की ध्वनि क्यों।
कानों में पड़ती रहती है।
कौन व्यथा की कथा तरल-हृदये।
वह किससे कहती है॥14॥
 
होती हैं साँसतें पंथ में।
जल बन जाता है खारा।
सरिते, इतना अधिक तुम्हें क्यों।
अंक उदधिक का है प्यारा॥15॥
 
किन्तु देखता हूँ भव में है।
प्रेम-पंथ ऐसा न्यारा।
जिसमें पवि प्रसून होता है।
विधिक बनती है असिधारा॥16॥
 
(2)
 
पाकर किस प्रिय तनया को।
गिरिवर गौरवित कहाया।
किसने पवि-गठित हृदय में।
रस अनुपम स्रोत बहाया॥1॥
 
हर अकलित सब करतूतें।
कर दूर अपर अपभय को।
बन सकी कौन रस-धारा।
कर द्रवीभूत हिम-चय को॥2॥
 
प्रस्तर-खंडों पेड़ों में।
सब काल कौन अलबेली।
कमनीय छलाँगें भर-भर।
कर-कर अठखेली खेली॥3॥
 
करके अपार कोलाहल।
है बड़े वेग से बहता।
किसका प्रवाह पत्थर से।
है टक्कर लेता रहता॥4॥
 
सह बड़ी-बड़ी बाधाएँ।
चट्टानों से टकराती।
अन्तर को कौन द्रवित कर।
प्रान्तर में है आ जाती॥5॥
 
लहराती हरित धारा में।
कानन की छटा बढ़ाती।
बन कौन मंदगति महिला।
रस से है भरी दिखाती॥6॥
 
उछली-कूदी बहु छलकी।
लीं शिर पर बड़ी बलाएँ।
गिरि-कान्त-अंक में किसने।
कीं कितनी कलित कलाएँ॥7॥
 
मोती उछालती फिरती।
दरियों में कौन दिखाई।
किसने रख हरित तृणों को।
पत्थर पर दूब जमाई॥8॥
 
कल-कल छल-छल पल-पलकर।
है कौन मचलती रहती।
जल बने कौन ढल-ढल के।
बल खा-खाकर है बहती॥9॥
 
चंचला बालिकाओं-सी।
है थिरक-थिरक छवि पाती।
करि केलि किलक उठती हैं।
किसकी लहरें लहराती॥10॥
 
हैं हवा बाँधते अपनी।
कैसे जाते हैं खिल-से।
किसके जल में दिखलाये।
बुल्ले प्रसून-से विलसे॥11॥
 
किसके बल से रहती है।
हरियाली-मुँह की लाली।
किसके जल ने अवनी की।
श्यामलता है प्रतिपाली॥12॥
 
रस किसमें मिला छलकता।
है कौन सदा रस-भरिता।
किसमें है रस की धारा।
सरिता-समान है सरिता॥13॥
 
(3)
 
दृग कौन विमुग्ध न होगा।
अवलोकनीय छवि-द्वारा।
है सदा लुभाती रहती।
सरिता की सुन्दर धारा॥1॥
 
ऊषा की जब आती है।
रंजित करने की बारी।
किसके तन पर लसती है।
तब लाल रंग की सारी॥2॥
 
है मिला किसे रवि-कर से।
सुरपुर का ओप निराला।
किरणें किसको देती हैं।
मंजुल रत्नों की माला॥3॥
 
संगी प्रभात के किसको।
हैं प्रभा-रंग में रँगते।
किसकी रंजित सारी में।
हैं तार सुनहले लगते॥4॥
 
भरकर प्रकाश किसको है।
दर्पण-सा दिव्य बनाता।
दिन किसकी लहर-लहर में।
दिनमणि को है दमकाता॥5॥
 
चाँदनी चाहकर किसको।
है रजत-मयी कर पाती।
किसपर मयंक की ममता।
है मंजु सुधा बरसाती॥6॥
 
जगमग-जगमग करती है।
किसमें ज्योतिर्मय काया।
है किसे बनाती छविमय।
तारक-समेत नभ-छाया॥7॥
 
जब जलद-विलम्बित नभ में।
पुरहूत-चाप छवि पाता।
तब रंग-बिरंगे कपड़े।
पावस है किसे पिन्हाता॥8॥
 
पावस में श्यामल बादल।
जब नभ में हैं घिर आते।
तब रुचिर अंक में किसके।
घन रुचितन हैं मिल जाते॥9॥
 
हैं किसे कान्त कर देते।
बन-बन अन्तस्तल-मंडन।
रवि अंतिम कर से शोभित।
सित पीत लाल श्यामल घन॥10॥
 
जब मंजुलतम किरणों से।
घन विलसित है बन जाता।
तब किसे वसन बहु सुन्दर।
है सांध्य गगन पहनाता॥11॥
 
जब रीझ-रीझ सितता की।
है सिता बलाएँ लेती।
तब किसे रंजिनी आभा।
राका रजनी है देती॥12॥
 
(4)
 
शार्दूल-विक्रीडित-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
पाता है रस जीव-मात्रा किससे सर्वत्र सद्भाव से।
धारा है रस की अबाधा किसके सर्वांग में व्यापिता।
हो-हो के सब काल सिक्त किससे होती रसा है रसा।
पृथ्वी में सरि-सी रसाल-हृदया है कौन-सी सुन्दरी॥1॥
 
पाता है कमनीय अंक उसका राकेन्दु-सी मंजुता।
देती है अति दिव्य कान्ति उसको दीपावली व्योम की।
हो कैसे न विभूतिमान सरिता, हो क्यों न आलोकिता।
होती हैं रवि-बिम्ब-कान्त उसकी क्रीड़ामयी वीचियाँ॥2॥
 
आभापूत प्रभूत मंजु रस से हो सर्वदा सिंचिता।
नाना कूल-द्रुमावली कुसुम से हो शोभिता सज्जिता।
लीला-आकलिता नितान्त कलिता उल्लासिता रंजिता।
भू में कौन सरी समान लसिता है दूसरी सुन्दरी॥3॥
 
कैसे तो कितनी अनुर्वर धारा होती महा उर्वरा।
पाती क्यों फल-फूल ऊसर मही हो शस्य से श्यामला।
क्यों हो प्रान्तर कान्त लाभ करते उद्यान-सी मंजुता।
होती जो सरला सरी न सिकता सिक्ता कहाती न तो॥4॥
 
है कान्ता रवि कान्त भूत कर से है ऊर्मि अंगच्छटा।
हैं शैवाल मनोज्ञ केश उसके जो पुष्प से हैं लसे।
पा के मंजु मयंक-बिम्ब बनती है चारु-चन्द्रानना।
तो हैं क्यों बहु-लोचना न सफरी से है भरी जो सरी॥5॥
 
वंशस्थ
 
उठा-उठा के लहरें विनोद की।
किसे नहीं है करती विनोदिता।
उमंगिता मंजुलता-विमोहिता।
तरंग-माला-लसिता तरंगिणी॥6॥
 
कभी नचा के रवि को मयंक को।
कभी खेला के उनको स्व-अंक में।
न मोह ले क्यों निज रंगतें दिखा।
तरंगिणी क्या बहुरंगिणी नहीं॥7॥
 
बना-बना स्पंदित मन्दिरादि की।
द्रुमावली की प्रतिबिम्ब-पंक्ति को।
समीर से खेल नचा मयंक को।
तरंगिणी है बनती तरंगिणी॥8॥
 
(5)
सरोवर
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
ऑंसू बहा-बहा यों छविमान कौन छीजा।
किसका करुण हृदय है इतना अधिक पसीजा।
हैं बार-बार करती किसको व्यथित व्यथाएँ।
बनती सलिलमयी हैं किसकी कसक-कथाएँ॥1॥
 
पावस मिले उमड़कर तन में न जो समाया।
क्यों क्षीण हो चली यों उसकी पुनीत काया।
प्रिय बंधु का विरह क्या अब है उसे सताता।
क्या प्रेम वारिधार का वह है न भूल पाता॥2॥
 
जो कर प्रभात-रवि का कमनीयता-निकेतन।
उसपर वितान देता दिव दिव्य कान्ति का तन।
जो मंजु वीचियों को मणि-माल था पिन्हाता।
सर ज्योति-जाल जिसका अवलोक जगमगाता॥3॥
 
पावक उपेत बन जब तप में वही तपाता।
तब था पयोद बनता उसका प्रमोद-दाता।
वह घेर रवि-करों का था पंथ रोक लेता।
बनकर फुहार उसको था बहु विनोद देता॥4॥
 
मंजुल मृदंग की-सी मृदु मंद ध्वनि सुनाता।
वह दामिनी-दमक-मिस हँस-हँस उसे रिझाता।
आतप हुए प्रखर जब उत्ताकप था बढ़ाता।
छाया-प्रदान कर तब उसको सुखित बनाता॥5॥
 
जब अंशु-जाल फैला तनता दिनेश ताना।
तब सांध्य व्योम-तल में धारकर स्वरूप नाना।
वह था तरंग-संकुल जलराशि को लसाता।
उसको सुलैस विलसित बहु वस्त्रा था पिन्हाता॥6॥
 
प्रतिदिन विलोक तन को जीवन-विहीन होते।
आश्रित उदक चरों को सुखमय विभूति खोते।
जिस काल सर बहुत ही कृशगात था दिखाता।
संजीवनी सुधा तब धन था उसे पिलाता॥7॥
 
जिसके समान जीवन-दाता न अन्य पाया।
हो-हो दयालु द्रवता जो सब दिनों दिखाया।
हो याद क्यों न उसकी जो रस-भरित कहाया।
जिसने बरस-बरस रस सर को सरस बनाया॥8॥
 
(6)
गीत-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
 
लोचनों को ललचाते हो।
बहुत हृदयों में बसते हो।
चुरा लेते हो जन-मानस।
खिले कमलों से लसते हो॥1॥
 
कमल-मिस खोल विपुल ऑंखें।
भव-विभव को विलोकते हो।
या कलित कोमल कर फैला।
ललित-तम भूति लोकते हो॥2॥
 
छटा-कामिनी कान्त-शिर के।
छलकते रस के कलसे हैं।
या कमल-पग कमलापति के।
सरस-तम उर में बिलसे हैं॥3॥
 
तुम्हा तरल अंक में लस।
केलिरत हो छवि पाती हैं।
लोकहित से लालायित हो।
ललित लहरें लहराती हैं॥4॥
 
क्यों न कर अंगा उगलें।
क्यों न जाये रवि आग बरस।
एकरस रह रस रखते हो।
कभी तुम बने नहीं असरस॥5॥
 
सुगंधिकत हो-हो धीरे चल।
समीरण तुम्हें परसता है।
चाँदनी रातों में तुम पर।
सुधाकर सुधा बरसता है॥6॥
 
तुम्हें क्या परवा, घन जल दे।
या गरज ओले बरसाये।
धूल डाले आकर ऑंधीरे।
या पवन पंखा झल जाये॥7॥
 
बोलते नहीं किसी से तुम।
लोग खीजें या यश गावें।
ललक लड़के छिछली खेलें।
या तमक ढेले बरसावें॥8॥
 
बिके हो सबके हाथों तुम।
मोल कब किससे लेते हो।
प्यासे हरते हो प्यारेसों की।
सदा रस सबको देते हो॥9॥
 
बुरा तुमने किससे माना।
बला ले या कि बला ला दे।
तपाये चाहे आतप आ।
चाँदनी चाहे चमका दे॥10॥
 
बहुत ही प्यारे लगते हो।
दिखाते हो सुन्दर कितने।
बता दो हमें सरोवर यह।
किसलिए हो रसमय इतने॥11॥
 
(7)
वंशस्थ
 
न चित्त होगा सुप्रफुल्ल कौन-सा।
न प्राप्त होगी किसको मिलिन्दता।
वसुंधरा के सरसी-समूह में।
विलोक शोभा अरविन्द-वृन्द की॥1॥
 
लगे हुए दर्पण हैं जहाँ-तहाँ।
विलोकने को दिव-लोक-दिव्यता।
जमा हुआ सद्बिचत नेत्र-वारि या।
वसुंधरा में सर हैं विराजते॥2॥
 
द्रुतविलम्बित
 
भरत-भूमि-समान न भूमि है।
अचल हैं न हिमाचल-से बड़े।
सुरसरी-सम हैं न कहीं सरी।
सर न मान-सरोवर-सा मिला॥3॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
मोती पा न सके मराल उसमें हैं कंज वैसे कहाँ।
है वैसी कमनीयता सरसता औ दिव्यता भी नहीं।
वैसा निर्मल काँच-तुल्य जल भी है प्राप्त होता नहीं।
कैसे तो सर अन्य, मानसर-सा, पाता महत्ता कभी॥4॥
 
है तेरा उर सिक्त, तू तरल है, क्यों मान लूँ मैं इसे।
तू है धीरेर, गँभीर है, सरस है, ऐसा तुझे क्यों कहूँ।
रोते या करते विलाप उनकी है यामिनी बीतती।
कोकी-कोक-मिलाप रोक सर तू क्यों शोक-धाता बना॥5॥
 
दूर्वा-श्यामल भूमि-मध्य सरसी है आरसी-सी लसी।
पाते हैं उसके सुसिक्त तन में एकान्तता वारि की।
शोभा है जलराशि में विलसते उत्फुल्ल अंभोज की।
होती है प्रिय सपरिचय में पर्तरिंसना की प्रभा॥6॥
 
वंशस्थ
 
मराल-माला यदि है सदाशया।
कुकर्म में तो रत है वकावली।
सपूत भी है कुल में कपूत भी।
सरोज भी है सर में सेवार भी॥7॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
है प्राय: पर खोल-खोल उड़ती या तोय में तैरती।
या बैठी सर-कान्त-कूल पर है शृंगारती गात को।
है पीती जल या कलोल करती है लोल हो डोलती।
बोली बोल अमोल केलि-रत हो नाना विहंगावली॥8॥
 
वंशस्थ
 
विनोदिता है सरसी विभूति से।
अतीव उत्फुल्ल सरोज-पुंज है।
विकासिका है सरसी सरोज की।
सरोज से है सरसी सुशोभिता॥9॥
 
द्रुतविलम्बित
 
छलक हैं भरती छवि वारि में।
सर मनोहरता अलबेलियाँ।
उछलती छिछिली खुल खेलती।
मछलियाँ करती अठखेलियाँ॥10॥
 
जलद है, पर वारिद है नहीं।
सरस हो बनता रस-हीन है।
सर-प्रसंग विचित्र प्रसंग है।
रह सजीवन जीवन-शून्य है॥11॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
पैन्हे वस्त्रा ह खड़े विटप हैं दृश्यावली देखते।
धीरे है घन का मृदंग बजता, है ताल देती दिशा।
यंत्रों -सा सर को निनादित बना हैं बूँदियाँ छूटती।
गाते भृंग विहंग है, कर उठा हैं नाचती वीचियाँ12॥
 
कान्ता-केश-कलाप-से विलसते शैवाल की मंजुता।
मीनों का बहु लोल भाव सर की लीलामयी व्यंजना।
होगा कौन नहीं विमुग्ध किसमें होगी न उत्फुल्लता।
देखे रंग-बिरंग कंज-कलिता न्यारी तरंगावली॥13॥
 
है आती तितली दिखाती छटा, गाती विहंगावली।
है माती फिरती मिलिंद-अवली पा कंज से मत्तता।
आ के है बहुधा हवा सुरभिता अंभोज से खेलती।
हैं न्हाती मिलती समोद सर में दिव्यांगनाएँ कहीं॥14॥
 
द्रुतविलम्बित
 
विकसिता लसिता अनुरंजिता।
रसमयी कब थी न सरोजिनी।
मधुरता रसिका कब थी नहीं।
मधु-रता, मधु की मधुपावली॥15॥
 
(8)
प्रपात
गीत
(1)
 
निम्न गति खलती रहती है।
या पतन बहु कलपाता है।
या किसी प्रियतम का चिंतन।
दृग-सलिल बन दिखलाता है॥1॥
 
बहु विपुल वाष्प गिरि-हृदय में।
सर्वदा भरता रहता है।
वही क्या तरल तोय हो-हो।
उत्स बन-बन कर बहता है॥२॥
 
गिरि-शिखर पर बहुधा वारिद।
विहरता पाया जाता है।
स्वेद क्या उसके अंगों का।
सिमिट प्रस्रवण कहाता है॥3॥
 
पर कटे कटे किन्तु अब भी।
पड़ा करता है पवि शिर पर।
इसी से सदा उत्स मिस क्या।
गिराता है ऑंसू गिरिवर॥4॥
 
उत्स है उत्स या तपन के।
तापमय कर अवलोकन कर।
कलेजा गिरि का द्रवता है।
पसीजा करता है पत्थर॥5॥
 
रुदन-रत किसी व्यथित चित्त का।
निज व्यथा जो यों हरता है।
गि हैं झर-झर ऑंसू या।
नीर निर्झर का झरता है॥6॥
 
दलित दूबों का मुक्ता-फल।
छीनते हैं सहस्रकर-कर।
देख यह दशा मेरु रो-रो।
क्या बनाते हैं बहु निर्झर॥7॥
 
परम शीतल शिर-मंडन हिम।
ताप से तप जाता है गल।
प्रकट करता है क्या यह दुख।
उत्स मिस मेरु बहा दृग-जल॥8॥
 
नित्य होती पशु-हिंसा से।
क्या मथित हृदय कलपता है।
देख बहु करुणा दृश्य क्या गिरि।
उत्स के व्याज बिलपता है॥9॥
 
कौन-सी पीड़ा होती है।
किन दुखों से वे भरते हैं।
सदा झरनों के नयनों से।
किसलिए ऑंसू झरते हैं॥10॥
 
(9)
(2)
 
किस वियोगिनी के ऑंसू हो।
किस दुखिया के हो दृग-जल।
किस वेदनामयी बाला की।
मर्म-वेदना के हो फल॥1॥
 
निकले हो किस व्यथित हृदय से।
हो किस द्रव मानस के रस।
क्या वियोग की घटा गयी है।
आकुलतामय वारि बरस॥2॥
 
किस धुन में यों निकल पड़े हो।
जाते हो तुम कहाँ चले।
गिरिवर है पवि-हृदय, किस तरह।
उसमें तुम, हो सरस, पले॥3॥
 
क्यों पछाड़ खाते रहते हो।
क्यों सिर पटका करते हो।
क्या इस भाँति किसी बहुदग्धाक।
व्यथिता का दम भरते हो॥4॥
 
या यह दिखलाते रहते हो।
पड़े प्रबल दुख से पाला।
बार-बार व्याकुल हो-हो क्या।
करती है व्यथिता बाला॥5॥
 
उठे हुए उद्गार-वाष्प जो।
अन्तस्तल में भरते हैं।
धू म-पुंज-सम हृदय-गगन में।
वे जिस भाँति विचरते है॥6॥
 
उड़ा-उड़ा छींटे बल खा-खा।
क्या वह दृश्य दिखाते हो।
मचल-मचल गिर-गिर उठ-उठ।
क्या उनकी गति बतलाते हो॥7॥
 
कल-विहीन हो कल-कल करते।
किन ढंगों में ढलते हो।
दृग-जल के समान छल-छलकर।
उछल-उछल क्यों चलते हो॥8॥
 
क्या वियोग के कितने भावों।
का यों अनुभव करते हो।
अथवा संगति के प्रभाव से।
भावुकता से भरते हो॥9॥
 
बहुत मचाते हो कोलाहल।
पर यह नहीं बताते हो।
किस वियोगिनी या व्यथिता।
बंधन में बँधो दिखाते हो॥10॥
 
ऐसी विश्व-व्यापिनी किसकी।
पीड़ा और व्यथाएँ हैं।
अकथनीय किस दृग ऑंसू की।
दुख से भरी कथाएँ हैं॥11॥
 
है वह कौन कामिनी जिसका।
गया सकल सुख यों कीला।
अथवा प्रकृति-वधाटी की है।
यह रहस्य-पूरित लीला॥12॥
 
(10)
(3)
 
शार्दूल-विक्रीडित
 
जो जाता पटका नहीं न पिटता, भाती न जो नीचता।
जो ऊँचे चढ़के न उत्स गिरता तो चोट खाता नहीं।
तो होगा उसका नहीं पतन क्यों जो निम्नगामी बना।
तो चाँटे लगते नहीं मरुत के, छींटे उड़ाता न जो॥1॥
 
क्यों धोते मल अंक का न मिलते सोते सहस्रों उन्हें।
क्यों बोते रस-बीज केलि-थल में, पाते निकुंजें कहाँ।
कैसे पादप-पुंज से विलसते हो के फलीभूत वे।
तो खोते गिरि-गात की सरसता, जो उत्स होते नहीं॥2॥
 
कैसे तो मिलते विचित्र विटपी लोकाभिरामा लता।
कैसे तो कुसुमालि लाभ करती हो शस्य से श्यामला।
क्यों पाती बहुरंजिता विलसिता आलोकिता बूटियाँ।
पाके उत्स-समूह जो न रहती उत्साहिता अद्रिभू॥3॥
 
आता है सुरलोक से सलिल या धारा सुधा की बही।
होता है रव वारि के पतन का या केलि-कल्लोल है।
है उद्वेलित उत्स या प्रकृति का आनन्द-उल्लास है।
छींटे हैं उड़ते कि हैं बिखरते मोती उछाले हुए॥4॥
 
हो-हो वारि वियोग से व्यथित क्या है सिक्त स्नेहाम्बु से।
या प्यारेसा अवलोक प्राणिचय को होता द्रवीभूत है।
या है भूरि पसीजता विकलता देखे दयापात्रा की।
रोता है जड़ता विलोक गिरि की या उत्स ऑंसू बहा॥5॥
 
होता है जल-पात-नाद अथवा है शब्द उन्माद का।
या हो आकुल है सदैव कहती कोई कथा दिग्वधू।
या दैवी सरिता-प्रवाह-रव है आकाश से आ रहा।
या गाता गुण उत्स है प्रकृति का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥6॥
 
चिल्लाते रहते, नहीं सँभलते, बातें नहीं मानते।
हो सीधो चलते नहीं, बिचलते पाये गये प्रायश:।
क्या कोई तुमसे कहे, बहकना है उत्स होता बुरा।
पानी क्या रखते सदैव तुम तो पानी गँवाते मिले॥7॥
 
प्यासे की धन-प्यासे है न बुझती कोई पिसे तो पिसे।
लोभी-लोक विभूति-लाभ कर भी लोभी बना ही रहा।
बेचारा हिम बार-बार गल के पानी-प्रदाता रहा।
दे-दे वारि विलीन वारिद हुए, क्या उत्स तो भी भरा॥8॥
 
नाना कीट-पतंग पी जल जिये, पक्षी करोड़ों पले।
हो-हो सिक्त हुई प्रसन्न जनता तो क्या उसे दे सकी।
होती है उपकार-वृत्तिक सहजा लोभोपनीता नहीं।
लाखों पेड़ सिंचे, परन्तु किससे क्या उत्स पाता रहा॥9॥
 
सिक्ता शीतलतामयी तरलता आधारिता शब्दिता।
नाना केलि-निकेतना सरसता-सम्पत्तिक-उल्लासिता।
शोभा-आकलिता अतीव ललिता लीलांक में लालिता।
उत्कंठा वर व्यंजना विलसिता है उत्स की उत्सता॥10॥
 
है सींचा करता, असंख्य तरुओं नाना तृणों को सदा।
देता है जल बार-बार बहुश: भृंगों मृगों आदि को।
सोतों का सरितादि का जनक है भू-जीवनाधार है।
तो हो वर्ध्दित क्यों न उत्स वह तो उत्साह की मूर्ति है॥11॥
 
ऊषा क्यों न उसे प्रदान करती आभा मनोरंजिनी।
क्यों देता न दिनेश दिव्य कर से संदीपिनी दिव्यता।
कैसे तो उससे गले न मिलती राका-निशा-सुन्दरी।
होता है गतिशील उत्स फिर क्यों उत्कर्ष पाता नहीं॥12॥
 
क्यों लेते गिरि गोद में न उसको देते नहीं मान क्यों।
कैसे आकर वायु पास उसके पंखा हिलाती नहीं।
क्यों पाता न विकास भानु-कर से राकेन्दु से मंजुता।
जो है जीवनवान उत्स उसका उत्थान होता न क्यों॥13॥
 
जो हैं रोग वियोग सोग फल या संताप में हैं पगे।
यो हैं भावुकता-विभूति अथवा सद्भाव में हैं सने।
या हैं आकुलता-प्रसूत भय या उन्माद के हैं सगे।
या हैं नीर भीगे नयन से या निर्झरों से झरे॥14॥

पंचम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

दृश्य जगत्
समुद्र
रोला
(1)
वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये।
रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये।
अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया।
किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥
 
शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई।
ललित लता-तृण मिले परम अनुपम छवि पाई।
विकसित-वदना रही पहन कुसुमावलि-माला।
किसको पाकर धारा हो सकी दिव की बाला॥2॥
 
ह-भ फल-भार नये नव दल से विलसे।
खड़े विविध तरु-निचय खेलते मृदुल अनिल से।
मिले सरसता-हीन अवनि को किसके द्वारा।
मरु को किसने सदय-हृदय बन दी जल-धारा॥3॥
 
बीज दाघ का जब निदाघ भव में बोता है।
तपन-ताप से तप्त धारातल जब होता है।
दु:ख-वाष्प तब किसके उर में भर जाता है।
ऊपर उठकर नील नीरधार बन पाता है॥4॥
 
कौन नीर-धार? वह, जो है जग-जीवन-दाता।
एक-एक रजकरण को जो है सिक्त बनाता।
जिससे गिरि, तर, परम सरस तरुवर बनता है।
अति कमनीय वितान गगन में जो तनता है॥5॥
 
जब सुन्द्र ने परम कुपित हो वज्र उठाया।
काट-काटकर पक्ष पर्वतों को कलपाया।
परम द्रवित उस काल हृदय किसका हो पाया।
किसने बहुतों को स्वअंक में छिपा बचाया॥6॥
 
किसने अपनी सुता को बना हरि की दारा।
अयुत-वदन अहि-विष से महि को सदा उबारा।
निम्न-गामिनी नदियों को किसने अपनाया।
सुर-समूह ने सुधा सुधाकर किससे पाया॥7॥
 
गरल-कंठ बन सके गरल के यदि अनुरागी।
तो हो दग्धा नहीं दयालुता निधिक ने त्यागी।
जलते बड़वानल ने किससे जीवन पाया।
कौन सुधानिधिक-सा वसुधा में सरस दिखाया॥8॥
 
समुद्र की सामयिक मूर्ति
(2)
 
जलनिधिक प्रभात होते ही।
है बहुत दिव्य दिखलाता।
अवलोक दिवस को आता।
है फूला नहीं समाता॥1॥
 
स्वागत-निमित्त दिन-पति के।
है पट पाँवड़े बिछाता।
या रागमयी ऊषा की।
रंगत में है रँग जाता॥2॥
 
या प्रकृति-सुन्दरी हँसती।
सिन्दूर-भरी है आती।
अपना अनुराग उदधिक के।
अंतर में है भर जाती॥3॥
 
या रमा समा अभिरामा।
रमणी है रंग दिखाती।
जग निज ललामता-लाली।
आलय में है फैलाती॥4॥
 
कुछ काल बाद वारिधिक में।
है कनक-कान्ति भर जाती।
उर मध्य लालिमा लसती।
है विभामयी बन पाती॥5॥
 
दिनमणि सहस्र कर से क्या।
निधिक को है कान्त बनाता।
अनुराग-रँगा अन्तर या।
है दिव्य ज्योति पा जाता॥6॥
 
इस काल कूल का तरुवर।
है प्रभा-पुंज से भरता।
रवि-किरणों पर मुक्तावलि।
है निखर निछावर करता॥7॥
 
बालुका विलसकर हँसकर।
है बहुत जगमगा जाती।
मिल किरणावलि से लहरें।
हैं मंद-मंद मुसकाती॥8॥
 
चट्टानें चमक-चमककर।
चमकीली हैं दिखलाती।
अवलोक वदन दिनमणि का।
हैं अन्तर-ज्योति जगाती॥9॥
 
इतने में दूर कहीं पर।
कुहरा उठता दिखलाता।
फिर नीले नभ में फिरता।
सित जलद-खंड आ जाता॥10॥
 
थी जगी अयुत-मुख अहि की।
प्रश्वास-प्रक्रिया सोई।
या किसी जलधिक के रिस का।
यह पूर्व रूप था कोई॥11॥
 
फिर नील-कलेवर होकर
उसने नीलाम्बर पहना।
बन गया वारिनिधिक-तन का।
दिव-ज्योति-पुंज वर गहना॥12॥
 
इस काल मध्य नभ में आ।
रवि था चौगुना चमकता।
उठती तरंग-माला में।
था बन बहु दिव्य दमकता॥13॥
 
दिन ढले अचानक नभ में।
है घन-समूह घिर आता।
है वायुवेग से बहती।
भय भू में है भर जाता॥14॥
 
हैं विटप विधूनित होते।
है छिपता पुलिन दिखाता।
पत्तों पर बूँद पतन का।
है टपटप नाद सुनाता॥15॥
 
इस समय कँपाता उर है।
गंभीर सिंधु का गर्जन।
अमितावदात अंतस्तल।
उत्ताकल-तरंगाकुल तन॥16॥
 
विकराल रूप धारण कर।
उत्पातों से लड़ता है।
या प्रबल प्रभंजन पर वह।
बन प्रबल टूट पड़ता है॥17॥
 
दिवसान्त देखकर फिर वह।
बनता है कान्त कलेवर।
कर लाभ नीलिमा नभ-सी।
बन रवि-कर से बहु सुन्दर॥18॥
 
शारद सुनील नभतल ज्यों।
पा ज्योति जगमगाता है।
दामिनी-दमक से जैसे
श्यामल घन छवि पाता है॥19॥
 
कमनीय कान्ति से त्यों ही।
कुछ काल अलंकृत होकर।
निधिक धामिल है बन जाता।
बहु धाम-पुंज से भर-भर॥20॥
 
दिव-मण्डन दिनमणि को खो।
क्या वह आहें भरता है।
कर वाष्प-समूह-विसर्जन।
या हृदय-व्यथा हरता है॥21॥
 
दुख-सुख हैं मिले दिखाते।
महि परिवर्तन-शीला है।
है कौन द्वंद्व से छूटा।
भव की विचित्र लीला है॥22॥
 
रवि छिपे निशामुख-कर ने।
भव-ग्रंथ-पृष्ठ को उलटा।
संकेत समय का पाकर।
पट प्रकृति-नटी ने पलटा॥23॥
 
रत्नाकर की रत्नाकरता
(3)
 
वह कमल कहाँ पर मिलता।
जो धाता का है धाता।
पाता वह वास कहाँ पर।
जो सब जग का है पाता॥1॥
 
भव-विजयी रव-परिपूरित।
प्रिय कंबु कहाँ पा जाते।
रमणी रमणीय रमापति।
कौस्तुभ-मणि किससे पाते॥2॥
 
जिससे शिव-शक्ति-महत्ता।
बुध भव को हैं बतलाते।
वह गरल भयंकर किससे।
कैसे अभयंकर पाते॥3॥
 
जिसकी अनुपम सितता से।
सित घन विलसित बन जाते।
वृन्दारक-वन्दित किससे।
ऐरावत-सा गज पाते॥4॥
 
है अरुण अरुणता-द्वारा।
जिसकी कनकाभा साजी।
दिनपति कैसे पा सकते।
वह अप्रतिहत-गति वाजी॥5॥
 
जिसके कर वसुधा पर भी।
हैं सदा सुधा बरसाते।
शिव-सहित सर्व सुर किससे।
उस सुधा-सदन को पाते॥6॥
 
है सदा छलकता रहता।
किसके यौवन का प्यारेला।
सब सुर कैसे पा सकते।
रंभा-सी सुरपुर-बाला॥7॥
 
प्रति-दिन किसमें मिल पाता।
पुरहूत-चाप छविवाला।
पावस - तन - रत्न - विभूषण।
घन-कंठ मंजु मणि-माला॥8॥
 
भव - सदाचार - सुमनावलि।
जिसको पाकर है खिलती।
जो सुर को सुर है करती।
वह सुरा कहाँ पर मिलती॥9॥
 
कामना सदा रहती है।
जिसके प्रिय पय की प्यारेसी।
उस कामधेनु को पाते।
क्यों अमरावती-निवासी॥10॥
 
मन-वांछित फल पाते हैं।
सुर-वृन्द सर्वदा जिससे।
नन्दन-कानन को मिलता।
वह कलित कल्पतरु किससे॥11॥
 
सुर-असुर-निकर को कैसे।
मोहनी मूर्ति दिखलाती।
सब अमर-वृन्द को किससे।
अभिलषित सुधा मिल पाती॥12॥
 
होता निदान रोगों का।
क्यों भोगों के मुख खिलते।
किसके सुअंक से भव को।
धान्वन्तरि-से सुत मिलते॥13॥
 
क्यों महि का पानी रहता।
कैसे बहता रस-सोता।
तो जीवन जीव न पाते।
जो जग में जलधिक न होता॥14॥
 
समुद्र का संताप
(4)
 
क्यों धारती पर पड़े हुए तुम।
सदा तड़पते रहते हो।
क्यों रह-रहकर चिल्लाते हो।
क्यों आकुल बन बहते हो॥1॥
 
बतला दो क्यों चल दलदल-सा।
हृदय तुम्हारा हिलता है।
बार-बार कँपने से क्यों।
छुटकारा तुम्हें न मिलता है॥2॥
 
डूब-डूब करके ऑंसू में।
क्यों तुम कलपा करते हो।
वाष्प-समूह-विमोचन कर
क्यों प्रति-दिन आहें भरते हो॥3॥
 
कौन-सी जलन है वह जिससे।
जलते सदा दिखाते हो।
बहुत क्षुभित होते हो तुम।
क्यों परम कुपित बन पाते हो॥4॥
 
छिने चतुर्दश रत्न इसी से।
विपुल व्यथा क्या होती है।
उसकी सुधिक वेदनामयी बन।
बिलख-बिलख क्या रोती है॥5॥
 
हो मर्यादाशील; किन्तु है।
प्रलयंकरी प्रबल धारा।
कलित ललित लीलामय हो; पर
सलिल तुम्हारा है खारा॥6॥
 
कला-कान्त है परम प्रिय सुअन।
किन्तु नितान्त कलंकित है।
क्षय-रुज-ग्रसित प्रचंड राहु से।
त्रासित प्रवंचित शंकित है॥7॥
 
सकल-लोकपति-अंक-शायिनी।
रमा-समा दुहिता प्यारी।
है चंचला उलूक-वाहना।
विपुल विलासमयी नारी॥8॥
 
जिस घन के तुम पूज्य पिता हो।
जिसने सरस हृदय पाया।
जिससे सलिल मिले रहती है।
हरी-भरी महि की काया॥9॥
 
एक-एक रजकण तक जिससे।
सतत सिक्त हो पाता है।
वह बहुधा कर पवि-प्रहार।
तुम पर ओले बरसाता है॥10॥
 
क्या ये सारी मर्म-वेधिकनी।
बातें व्यथित बनाती हैं।
विविध रूप धारकर तुमको।
दुख देतीं, बहुत सताती हैं॥11॥
 
सदा तुम्हा अन्तस्तल में।
हैं विपत्तिक-भंजन रहते।
नहीं समझ में आता कैसे।
तब विपत्तिक वे हैं सहते॥12॥
 
लाखों बरस कमल-दल पर।
तुमने कमलासन को पाला।
अहह उन्होंने तुमको कैसे।
ऐसे संकट में डाला॥13॥
 
नहीं सोच सकता कुछ कोई।
क्यों न विबुध हो कैसा ही।
यह संसार रहा रहस्यमय।
सदा रहेगा ऐसा ही॥14॥
 
सागर की सागरता
(5)
 
फूल पत्तो जिससे पाये।
मिली जिससे मंजुल छाया।
मधुरता से विमुग्ध हो-हो।
मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥
 
जो सहज अनुरंजनता से।
नयन-रंजन करता आया।
काट उस ह-भ तरु को।
जन-दृगों में कब जल आया॥2॥
 
धारातल-अंक में विलसती।
लता कल कोमल दलवाली।
कलित कुसुमावलि से जिसकी।
सुछवि मुख की रहती लाली॥3॥
 
वहन करके सौरभ जिसका।
सौरभित था मारुत होता।
कुचलकर उसे राह चलते।
क्या कभी जन-मन है रोता॥4॥
 
किसी सुन्दर तरु पर बैठी।
निरखता निखरी हरियाली।
छटा अवलोक प्रसूनों की।
मत्तता कर की सुन ताली॥5॥
 
मुग्ध हो परम मधुर स्वर से।
गीत जो अपने गाता है।
वेधाकर उस निरीह खग को।
मनुज-मन क्या बिंधा पाता है॥6॥
 
'सहज अलबेलापन' छवि लख।
जाल में जिसकी फँसता है।
बड़ा ही अनुपम भोलापन।
ऑंख में जिसकी बसता है॥7॥
 
घास खा, वन में रह, जो मृग।
बिताता है अपना जीवन।
बेधाकर उसको बाणों से।
क्या कलपता है मानव-मन॥8॥
 
फूल-जैसे लाखों बालक।
पाँव से उसने मसले हैं।
लुट गयी अगणित ललनाएँ।
कभी जो तेवर बदले हैं॥9॥
 
लोभ की लहरों में उसकी।
करोड़ों कलप-कलप डूबे।
न बेड़ा पार हुआ उनका।
भले थे जिनके मनसूबे॥10॥
 
लहू की प्यासे न बुझ पाई।
बीतती जाती हैं सदियाँ।
उतरते ही जाते हैं सिर।
रुधिकर की बहती हैं नदियाँ॥11॥
 
आज तक सके न उतने बस।
उजाडे ग़ये सदन जितने।
सकेगा समय भी न बतला।
उता गये गले कितने॥12॥
 
पिसे उसके कर से सुरपति।
लुट गया धनपति का सब धन।
नगर सुरपुर-जैसे उजड़े।
मरु बने लाखों नन्दन-वन॥13॥
 
पर नहीं मनु-सुत के सिर पर।
पड़ सकी सुरतरु की छाया।
सदा उर बना रहा पवि-सा।
कलेजा मुँह को कब आया॥14॥
 
देख निर्ममता मानव की।
प्रकृति कब नहीं बहुत रोई।
जमा है यह उसका ऑंसू।
नहीं है यह सागर कोई॥15॥

शार्दूल-विक्रीडित
(6)
 
कैसे तो अवलोकता निज छटा तारों-भरी रात में।
कैसे नर्त्तन देखता सलिल में लाखों निशानाथ का।
होती वारिधिक-मध्य दृष्टिगत क्यों ज्योतिर्मयी भूतियाँ।
आईना मिलता न जो गगन को दिव्याभ अंभोधिक-सा॥1॥
 
संध्याकाल हुए व्यतीत भव में आये-अमा यामिनी।
सन्नाटा सब ओर पूरित हुए, छाये महा कालिमा।
नीचे-ऊपर अंक में उदधिक के सर्वत्र भू में भ।
तो देखें तमपुंज को प्रलय का जो दृश्य हो देखना॥2॥
 
क्या धान्वन्तरि के समान सुकृति, क्या दिव्य मुक्तावली।
क्या आरंजित मंजु इन्द्रधानु, क्या रंभा-समा सुन्दरी।
सा रत्न-समूह भव्य भव के अंभोधिक-संभूत हैं।
क्या कल्पद्रुम, क्या सुधा, सुरगवी, क्या इन्दु, क्या इन्दिरा॥3॥
 
होता है सित दिव्यक्षीर निधिक-सा राका सिता से लसे।
पाता है बहते हिमोपल भ कल्लोल से भव्यता।
जाता है बन कान्त मत्स्य-कुल की आलोक-माला मिले।
देखी है किसने कहाँ उदधिक-सी स्वर्गीय दृश्यावली॥4॥
 
आभा से भर के सतोगुण हुआ सर्वांग में व्याप्त है।
या सारा जल हो गया सित बने क्षीराब्धिक के दुग्धा-सा।
या भू में, नभ में, समुद्र-तन में है कीत्तिक श्री की भरी।
या राका-रजनी-विभूति-बल से वारीश है राजता॥5॥
 
है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली।
किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के।
किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता।
किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥
 
जैसे हैं तमपुंज भूरि भरते पाथोधिक के अंक में।
वैसे ही बहु दिव्य मीन विधिक ने अंभोधिक को हैं दिये।
आये मूर्तिमती मसी सम निशा घोरांधाकारावृता।
विद्युद्दीप-समान है दमकती वारीश-मत्स्यावली॥7॥
 
ऊषा-से अनुराग-राग-लसिता शोभा मनोरंजिनी।
स्वर्णाभा रवि के सहस्र कर से राका निशा से सिता।
भू से भूरि विभूति पूत विधु से सच्ची सुधा-सिक्ता।
पाता है रस-धाम वारि-धार से वारीश-मुक्तावली॥8॥
 
आये घोर विभावरी उदधिक में तेजस्विता है भरी।
या आलोक-निकेत मीन-कुल हैं कल्लोल में डोलते।
किंवा मंथन से पयोधिक-पय के विद्युद्विभा है जगी।
या व्यापी वडवाग्नि-दीप्ति-बल से दीपावली है बली॥9॥
 
नीले व्योम-समान है विलसता, है मोहता कान्त हो।
है आर्वत-समूह से थिरकता, है नाचता मत्त हो।
है पाता रवि से अलौकिक विभा, राकेश से दिव्यता।
है शोभामय सिंधु की सलिलता लावण्यलीलामयी॥10॥
 
होती है गुरु गर्जनाति-विकटा विद्युन्निपाताधिकका।
देखे तुंग तरंग-भंग भरती है भीति सर्वांग में।
होते हैं बहु पोत भग्न पल में आर्वत गर्त में।
भू में भूरि विभीषिका भरित है अंभोधिक अंभोधिक-सा॥11॥
 
है सर्वाधिकक वारि-लाभ करता पाथोधिक पर्जन्य से।
सारा तोय-समूह सर्व नदियाँ देतीं उसे सर्वदा।
तो भी है वह अल्प भी न बढ़ता, सीमा नहीं त्यागता।
पाते हैं किसमें रसाधिकपति-सी गंभीरता धीरेरता॥12॥
 
पानी है रखता, गँभीर रहता, है धीरेरता से भरा।
जाती पास नहीं कदापि कटुता अस्निग्धता क्षुद्रता।
देखी नीरसता कभी न उसमें, पाई नहीं शुष्कता।
है मर्यादित कौन नीरनिधिक-सा संसार में दूसरा॥13॥
 
 
पाई श्री हरि ने, तुरंग रवि ने, मातंग देवेन्द्र ने।
सा उत्ताम रत्न कल्पतरु से वृन्दारकों ने लिये।
देखो मन्थन में अगाधा निधिक के क्या दानवों को मिला।
होती है वर बुध्दि ही जगत में सर्वार्थ की साधिकका॥14॥
 
टाली भीति नृलोक की, गरलता पाथोधिक की दूर की।
थोड़ा लेकर वक्र अंश शशि का राकेशता दी उसे।
क्या पाया शिव ने सिवा गरल के दे दी सुरों को सुधा।
होते हैं महनीय कीत्तिक महि में माहात्म्य की मूर्तियाँ॥15॥
 
नाना क्रूर प्रचंड जन्तु कुल के उत्पीडनोत्पात से।
आता है बहु झाग सिंधु-मुख से क्या क्षुब्धाता के बढे।
किंवा सात्तिवक भाव क्रुध्द उर से उत्क्षिप्त है हो रहा।
होता फेनिल है समुद्र बहुधा या शेष फूत्कार से॥16॥
 
बारंबार सुना विकम्पिकरी अत्युत्कटा गर्जना।
नाना दृश्य दिखा-दिखा प्रलय के आर्वत-माला मिले।
होती है विकराल मूर्ति निधिक की अत्यन्त त्राकसप्रसू।
हो आन्दोलित चंड वायुबल से, कल्लोल से लोल हो॥17॥
 
छोटे हैं बनते विशाल, लघुता पाते महाद्वीप हैं।
डूबे देश कई, बनी मरु मही भू शस्य से श्यामला।
कैसी है यह नीति सिंधु! तुममें क्या है महत्ता नहीं।
होते हैं जल-मग्न वे नगर जो थे स्वर्र्ग-जैसे लसे॥18॥
 
खाते हैं लघु को बड़े रिपु बने हैं निर्बलों के बली।
नाना आश्रित व्यर्थ कष्ट कितने हैं भोगते सर्वदा।
हो ऐसे ममता-विहीन निधिक क्यों हो के महाविक्रमी।
सा जंतु-समूह मत्स्य-कुल के हो जन्मदाता तुम्हीं॥19॥
 
तो क्या हैं गिरि-तुल्य तुंग लहरें क्या है महागर्जना।
है रत्नाकरतातितुच्छ विभुता है व्यर्थ आर्वत की।
तो है हेय अगाधाता सरसता गंभीरता सिंधु की।
कष्टों से बहु आत्ता मत्स्य-कुल जो है त्राकण पाता नहीं॥20॥
 
पोतों को कर मग्न भग्न कब है होती समुद्विग्नता।
लाखों का कर प्राण-नाश उसको रोमांच होता नहीं।
लाती है अवसन्नता न उसमें संहार-दृश्यावली।
जैसा निर्दयता-निकेत निधिक है, है वज्र वैसा कहाँ॥21॥
 
हो सम्मानित भव्य भाव प्रतिभू हो भूतियों से भरा।
पापों का फल पा सका सब सदा दुर्वृत्तिकयाँ हैं बुरी।
सा रत्न छिने, विलोड़ित हुआ, है दग्धा होता महा।
पी डाला मुनि ने, तिरस्कृत बना, पाथोधिक बाँधा गया॥22॥
 
कैसे मान सकें तुझे सरस, तू संताप-सन्देह है।
जो तू है पवि-सा, तुझे तरलता-सर्वस्व कैसे कहे।
हों ऊँची उठती, परन्तु निधिक! हैं तेरी तरंगें बुरी।
होते हैं बहु पोत भग्न जिनसे, है मग्न होती तरी॥23॥
 
हैं नाना विकराल जन्तु उसमें, आपत्तिकयाँ हैं भरी।
है संहारक, मूर्तिमन्त यम है, आतंक का केन्द्र है।
तो भी है यह बात सत्य भव का कोई यशस्वी सुधीरे।
पारावार अपार दिव्य गुण का है पार पाता नहीं॥24॥
 
होती है विभुता-विभूति विदिता सद्रत्न-माला मिले।
देती है बतला सदैव गुरुता गंभीरता गर्जना।
गाती है गुण-मालिका सरव हो सारी तरंगावली।
राका रम्य निशा सिता जलधिक को र्सत्कीत्तिक की मूर्ति है॥25॥

षष्ठ सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

दृश्यजगत्
वसुन्धरा
(1)
प्रकृति-बधूटी केलि-निरत थी काल अंक था कलित हुआ।
तिमिर कलेवर बदल रहा था, लोकालय था ललित हुआ।
ज्योतिर्मण्डित पिंड अनेकों नभ-मंडल में फिरते थे।
सृजन वारिनिधिक-मध्य बुद्बुदों के समूह-से तिरते थे॥1॥
 
लाख-लाख कोसों में फैले रंग-बिरंगे बहु गोले।
जाते थे छवि-दिव्य-तुला पर कल कौतुक-कर से तोले।
उछल-उछल थे छटा दिखाते कान्तिमयी किरणों को ले।
फिरते थे आलात-चक्र-से विस्फुलिंग छिटकाते थे।
कभी टूटकर हो सहस्रधा नाना लोक बनाते थे॥2॥
 
लीला-निलय सकल नभतल था नव-नव ज्योति-निकेतन था।
नीहारिका अनन्त करों में दिव-पिंडों का केतन था।
काल अलौकिक कृति-स्वरूपिणी भूतिमयी बहु बालाएँ।
डाल रही थीं कला-कंठ में उडु-अवली की मालाएँ॥3॥
 
होती थी जिस काल यह क्रिया किसी कल्प में उसी समय।
प्रकृति-अंक में दिखलाई दी वसुधा विपुल विभूति-निलय।
निधिक के लघुतम एक लहर-सी नभ में उसकी सत्ता थी।
परम विशाल विश्व-वट-तरु की वह अतीव लघु पत्ताक थी॥4॥
 
बहुत दिनों तक तिमिर-पुंज में उसने कई खेल खेले।
कीं कितनी कमनीय कलाएँ कान्तिमयी किरणें ले-ले।
अजब छटा उस काल दिखाती थीं अति दिव्य दिशाएँ बन।
विविध रत्न से खचित हुआ था उनका कनकाभांकित तन॥5॥
 
बहुत काल तक उसके चारों ओर घोर तम था छाया।
पुंजीभूत तिमिर-दानव-तन में अन्तर्हित थी काया।
जिस दिन तिमिर-पटल का घूँघट गया प्रकृति-कर से टाला।
ज्योति-पुंज ने जिस दिन उसपर था अपना जादू डाला॥6॥
 
उसी दिव्य वासर को उसकी मिली दिव्यता थी ऐसी।
धीरे-धीरे सकल तारकावलि ने पाई थी जैसी।
हीरक के विलसित गोलक-सी वह उस काल दिखाती थी।
निर्मल नील गगन-तल में निज छटा दिखा छवि पाती थी॥7॥
 
फिर भी इतनी जलती थी, जल ठहर न उसमें पाता था।
उसके तन को छूते ही वह वाष्प-पुंज बन जाता था।
घूम-घूमकर काले-काले घन आ-आ घहराते थे।
बड़ी-बड़ी बूँदों से उसपर विपुल वारि बरसाते थे॥8॥
 
किन्तु बात कहते सारा जल छूमन्तर हो जाता था।
तप्त तवा के तोय-बिन्दु-सा अद्भुत दृश्य दिखाता था।
था उन दिनों मरुस्थल से भी नीरस सारा भू-मंडल।
परम अकान्त, अनुर्वर, धू-धू करता, पूरित बहु कश्मल॥9॥
यथा-काल फिर भू के तन में वांछित शीतलता आयी।
धीरे-धीरे सजला सुफला शस्य-श्यामला बन पायी॥10॥
 
उसके महाविशाल अंक में जलधिक विलसता दिखलाया।
जिसको अगम अगाधा सहस्रों कोसों में फैला पाया।
रत्न-राजि उत्ताकल तरंगें उसको अर्पित करती थीं।
माँग वसुमती-सी देवी की मुक्ताओं से भरती थीं॥11॥
 
नाना गिरि-समूह से कितने निर्झर थे झर-झर झरते।
दिखा विचित्र दृश्य नयनों को वे थे बहुत चकित करते।
होता था यह ज्ञात, बन गयी छलनी गिरि की काया है।
उससे जल पाताल का निकल धारा सींचने आया है॥12॥
 
बहुश: सरिताएँ दिखलाईं, मंद-मंद जो बहती थीं।
कर्ण-रसायन कल-कल रव कर मुग्ध बनाती रहती थीं।
वे विस्तृत भू-भाग लाभ कर फूली नहीं समाती थीं।
वसुधा को नाचती, थिरकती, गा-गा गीत रिझाती थीं॥13॥
 
हरी-भरी तृण-राजि मिल गये बनी हरितवसना बाला।
विपिनावलि से हुए भूषिता पाई उसने वन-माला।
नभ-तल-चुम्बी फल-दल-शोभी विविध पादपों के पाये।
विपुल पुलकिता हुई मेदिनी लतिकाओं के लहराये॥14॥
 
वह जिस काल त्रिकलोक-रंजिनी कुसुमावलि पाकर विलसी।
रंग-बिरंगी कलिकाओं को खिलते देख गयी खिल-सी।
पहनी उसने कलित कण्ठ में जब सुमनों की मालाएँ।
उसकी छटा देखने आयीं सारी सुरपुर-बालाएँ॥15॥
 
जिस दिन जल के जन्तु जन्म ले कलित केलि-रत दिखलाये।
जिस दिन गीत मछलियों के गौरव के साथ गये गाये।
जिस दिन जल के जीवों ने जगती-तल की रंगत बदली।
उसी दिवस से हुई विकसिता सजीवता की कान्त कली॥16॥
 
कभी नाचते, कभी कहीं करते कलोल पाये जाते।
कभी फुदकते, कभी बोलते, कभी कुतरकर कुछ खाते।
कभी विटप-डाली पर बैठे राग मनोहर थे गाते।
कभी विहंगम रंग-रंग के नभ में उड़ते दिखलाते॥17॥
 
वनचारी अनेक बन-बनकर वन में थे विहार करते।
गिरि की गोद बड़े गौरव से सा गिरिवासी भरते।
इने-गिने थे कहीं, कहीं पर बहुधा तन से तन छिलते।
जल में, थल में, जहाँ देखिये वहाँ जीव अब थे मिलते॥18॥
 
रचना हुए सकल जीवों की एक मूर्ति सम्मुख आयी।
अपने साथ अलौकिक प्रतिभा जो भूतल में थी लाई।
था कपाल उसका जगती-तल के कमाल तरु का थाला।
उसका हृदय मनोज्ञ भावना सरस सुधा का था प्यारेला॥19॥
 
उसने परम रुचिर रचना कर भू को स्वर्ग बनाया है।
अमरावती-समान मनोहर सुन्दर नगर बसाया है।
है उसका साहस असीम उसकी करतूत निराली है।
वसुधा-तल-वैभव-ताला की उसके कर में ताली है॥20॥
 
मानव ने ऐसे महान अद्भुत मन्दिर हैं रच डाले।
ऐसे कार्य किये हैं जो हैं परम चकित करनेवाले।
ऐसे-ऐसे दिव्य बीज वह विज्ञानों के बोता है।
देख सहस्र दृगों से जिनको सुरपति विस्मित होता है॥21॥
 
आज बहु विमोहिनी धारा है वारिधिक-वारि-विलसिता है।
विपिन-राजि-राजिता कुसुमिता आलोकिता विकसिता है।
नगरावली विभूति-शोभिता कान्त कला-आकलिता है।
जन-कोलाहलमयी लोक की लीलाओं से ललिता है॥22॥
 
दिन है दिव्य, रात आलोकित, दिशा दमकती रहती है।
रस की धारा बड़े वेग से उमड़-उमड़कर बहती है।
सुख नर्त्तन करता रहता है मत्त विनोद दिखाता है।
आती हैं झूमती उमंगें, मन पारस बन पाता है॥23॥
 
आज हुन बरसता है, छूते मिट्टी सोना बनती है।
जन-जीवनदायिनी जीवनी-धारा मरु-महि जनती है।
नभ-मंडल में उड़ पाते हैं घन-माला दम भरती है।
बनी कामिनी-सी गृहदासी कहा दामिनी करती है॥24॥
 
अवसर पाकर के वसंत अपना वैभव दिखलाता है।
फूल-फूल में हँसता कलियों को विकसाता आता है।
दिन में आ करके सहस्र-कर निज दिव्यता दिखाता है।
रजनी में रजनी-रंजन हँस सरस सुधा बरसाता है॥25॥
 
महनीया महि
(2)
 
वसुंधा! बतला दो हमको, क्यों चक्कर में रहती हो।
नहीं साँस लेने पाती हो, बहुत साँसतें सहती हो।
कौन-सी लगन तुम्हें लग गयी या कि लाग में आयी हो।
किसने तुम्हें बेतरह फाँसा, किससे गयी सताई हो॥1॥
 
ऑंख जो नहीं लग पाई तो ऑंख क्यों न लग पाती है।
रात-रात-भर कौन वेदना तुमको जाग जगाती है।
नहीं पास जाने पाती हो, सदा दूर ही रहती हो।
खींच-तान में पड़कर फिर क्यों दुख-धारा में बहती हो॥2॥
 
रवि तुमको प्रकाश देता है, किरणें कान्त बनाती हैं।
जीवन-दान किया करती हैं, रस तुमपर बरसाती हैं।
प्यारे सुअन तुम्हा तरु हैं, दुहिताएँ लतिकाएँ हैं।
सा तृण वीरुधा तुमने ही करके यत्न जिलाएँ हैं॥3॥
 
किन्तु हाथ है इसमें रवि का, ये सब उसके हैं पाले।
होते जो न दिवाकर के कर, पड़ते जीवन के लाले।
जो मयंक अपना मंजुल मुख रजनी में दिखलाता है।
विहँस-विहँसकर कर पसार जो सदा सुधा बरसाता है॥4॥
 
जिसकी चारु चाँदनी तुमको महाचारुता देती है।
लिपट-लिपट जो सदा तुम्हा तापों को हर लेती है।
उसने भी कलनीय निज कला कमलबंधु से पाई है।
इसीलिए क्या रवि! कृतज्ञता तुममें अधिक समाई है॥5॥
 
ऐ कृतज्ञ-हृदय! परिक्रमा जो यों रवि की करती हो।
तो हो धान्य अपार कीत्तिक सा भुवनों में भरती हो।
यद्यपि रवि को इन बातों की थोड़ी भी परवाह नहीं।
जो तुम करती हो रत्ताी-भर उसकी उसको चाह नहीं॥।6॥
 
वह महान है, बड़े-बड़े ग्रह उससे उपकृत होते हैं।
कविगुरु-जैसे उज्ज्वलतम बन अपने तम को खोते हैं।
वह है जनक सौरमंडल का उसका प्रकृत विधाता है।
उसके तिमिर-भ अन्तर की दिव्य ज्योति का दाता है॥7॥
 
वह सहस्र-कर रज-कण तक को किरणों से चमकाता है।
स्वार्थ-रहित हो तरुवर क्या तृण तक का जीवन-दाता है।
जड-जंगम का उपकारक है, तारकचय का पाता है।
सर्वभूत का हित-चिन्तक है, उसका सबसे नाता है॥8॥
 
करता है चुपचाप कौन हित, निस्पृह कौन दिखाता है।
ढँपा हुआ उपकार खोल करके दिखलाया जाता है।
उचित जानकर उचित हुआ कब उचित न उचित पिपासाहै।
है संसार स्वार्थ का पुतला, प्रेम प्रेम का प्यारेसा है॥9॥
 
सह साँसत कर्तव्य-बुध्दि से बँधा कृतज्ञता-बंधन में।
दिन-मणि की अज्ञात दशा में कोई स्वार्थ न रख मन में।
जो करती हो उसे देख यह कहती है मति कमनीया।
हों रवि महामहिम वसुंधा! पर तुम भी हो महनीया॥10॥
 
विचित्र वसुमती
(3)
 
मणि-मंडित मुकुटावलि-शोभित अचल हिमाचल-से गिरिचय।
किसपर हैं प्रति वासर लसते बनकर विविध विभूति-निलय।
किस पर नभ-सा वर वितान सब काल तना दिखलाता है।
जिसको रजनी में रजनीपति बहुरंजित कर पाता है॥1॥
 
खिलती आकर अरुण-कान में बात अनूठी कहती है।
प्रात:काल रंगिणी ऊषा किसको रँगती रहती है।
अगणित सरिता-सर-समूह में मंजुल मणियाँ भरती हैं।
किसमें प्रति दिन रवि अनन्त किरणें क्रीड़ाएँ करती हैं॥2॥
 
किसके सब जलाशयों में पड़ घन श्यामल तन की छाया।
यों लसती है क्षीरसिंधु में ज्यों कमलापति की काया।
हरित छटा अवलोक सरस बन घि घूमते आते हैं।
साधा-भरों की सुधा कर किसपर जलद सुधा बरसाते हैं॥3॥
 
दिन में किसका रवि सहस्र कर से आलिंगन करता है।
निशा में निशा-नायक किसकी नस-नस में रस भरता है।
ऑंखें फाड़-फाड़ किसको अवलोकन करते हैं ता।
करके जीवन-दान वारिधार बनते हैं किसके प्यारे॥4॥
 
सदा समीर प्यारे से किसको पंखा झलता रहता है।
हिला-हिला लतिका-समूह को सुरभित बनकर बहता है।
कीचक-छिद्रों में प्रवेश कर गीत मनोहर गाता है।
विकसित कर अनन्त कलियों को किसको बहुत रिझाता है॥5॥
 
किसके बहु श्यामायमान वन बन-ठन छटा दिखाते हैं।
नन्दन-वन-समान सब उपवन किसकी बात बनाते हैं।
किसके ह-भ ऊँचे तरु नभ से बातें करते हैं।
कलित किसलयों से लसते हैं, भूरि फलों से भरते है॥6॥
 
किसकी कलित-भूत लतिकाएँ करती कान्त कलाएँ हैं।
खिला-खिला करके दिल किसकी खिल उठती कलिकाएँ हैं।
किसके सुमन-समूह विकसकर सुमनस-मन को हरते हैं।
सरस सुरभि से भर-भरकर सुरभित दिगन्त को करते हैं॥7॥
 
आ करके वसंत किसको अनुपम हरियाली देता है।
जन-जन के मन तरु-तन तक को बहु रसमय कर लेता है।
डाल कंठ में विपुल प्रफुल्ल प्रसूनों की मंजुल माला।
किसे पिलाता है सुरपुर की पूत सुरा-पूरित प्यारेला॥8॥
 
शस्यश्यामला कौन कहाई, रत्न-भरा है किसका तन।
किसमें गड़ा हुआ है वसुधा के अनेक धनदों का धन।
किसकी रज में परम अकिंचन जन कद्बचन पा जाते हैं।
किसके मलिन कारबन कानों में ही मिल पाते हैं॥9॥
 
सुन्दर तल पर रजत-लीक-सी पल-पल खींचा करती हैं।
किसको सदा सहस्रों नदियाँ जल से सींचा करती हैं।
हैं हीरक-नग-जटित बनाते किसके तन को सब सरवर।
हैं मुक्ता-समूह बरसाते किसपर प्रति वासर निर्झर॥10॥
 
किसमें कनक-समान कान्तिमय कितने धातु विलसते हैं।
जो कमनीय कामिनी-से ही मानव-मन में बसते हैं।
पारद-सी अपार उपकारक तथा डियम-सी न्यारी।
किसमें है विभूति दिखलाती चित्रा-विचित्र चकितकारी॥11॥
 
आठ पहर जिनमें सब दिन सोना ही बरसा करता है।
अवलोके जिनकी विभूतियाँ सुरपति तरसा करता है।
रजनी में बहु बिजली-दीपक जिनको दिव्य बनाते हैं।
ऐसे अमरावती-विमोहक नगर कहाँ हम पाते हैं॥12॥
 
जो है विपुल विभूति-निकेतन रत्नाकर कहलाता है।
नर्त्तन करता है विमुग्ध बन कल-कल नाद सुनाता है।
जो है बहु विचित्रता-संकुल दिव्य दृश्य का धाता है।
किसपर वह उत्ताकल-तरंगाकुल समुद्र लहराता है॥13॥
 
किसकी हैं विभूतियाँ ऐसी, किसके वैभव ऐसे हैं।
क्यों बतालाऊँ किसी सिध्दि के साधन उसके कैसे हैं।
किसके दिव्य दिवस हैं इतने, इतनी सुन्दर रातें हैं।
बहु विचित्रताओं से विलसित वसुंधरा की बातें हैं॥14॥
 
क्षमामयी क्षमा
(4)
 
हैं अनेक गुण तुममें वसुधो! किन्तु क्षमा-गुण है ऐसा।
समय-नयन ने कहीं नहीं अवलोकन कर पाया जैसा।
पद-प्रहार सहती रहती हो, बहु अपमानित होती हो।
नाना दुख भोगती सदा हो, सुख से कभी न सोती हो॥1॥
 
तुमपर वज्रपात होता है, पत्थर हैं पड़ते रहते।
अग्निदेव भी गात तुम्हारा प्राय: हैं दहते रहते।
सदा पीटते हैं दंडों से, सब दिन खोदा करते हैं।
अवसर पाये तुम्हें बेधा देते जन, अल्प न डरते हैं॥2॥
 
पेट चीरकर लोग तुम्हा अन्तर्धान को हरते हैं।
सा जीव-जन्तु निज मल से मलिन पूत तन करते हैं।
नींव डालकर, नहर खोद, नर नित्य वेदना देते हैं।
खानें बना-बनाकर गहरी, दिव्य रत्न हर लेते हैं॥3॥
 
बड़े-बड़े बहु विवर तुम्हा तन में साँप बनाते हैं।
माँद विरचकर मंद जीव अपनी मंदता दिखाते हैं।
बहुधा उर विदारकर बहु वापिका सरोवर बनते हैं।
छेद-छेदकर तव छाती नर कूप सहस्रों खनते हैं॥4॥
 
बेधा-बेधाकर हृदय बहुत लाइनें निकाली जाती हैं।
दलती मूँग तुम्हारी छाती पर लें दिखलाती हैं।
काले क्वैले के निमित्त बहु गत्ता बनाये जाते हैं।
जिनसे मीलों अंग तुम्हा कालिख-पुते दिखाते हैं॥5॥
 
ह-भ कुसुमित फल-विलसित नयन-विमोहन बहु-सुन्दर।
नव तृण श्यामल शस्य सरसतम लतिकाएँ अनुपम तरुवर।
जिनका बड़े प्रेम से प्रति दिन तुम प्रतिपालन करती हो।
जिनके तन में, दल में, फल में पल-पल प्रिय रस भरती हो॥6॥
 
वे हैं अनुदिन नोचे जाते, कटते-पिटते रहते हैं।
निर्दय मानव के हाथों से बड़ी यातना सहते हैं।
फिर भी कभी तुम्हा तेवर बदले नहीं दिखाते हैं।
देती हो तुम त्राकण सभी को, सब तुमसे सुख पाते हैं॥7॥
 
वे अति सुन्दर नगर जहाँ सुषमाएँ नर्त्तन करती हैं।
जहाँ रमा वैकुण्ठ छोड़कर प्रमुदित बनी विचरती हैं।
सकल स्वर्ग-सुख पाँव तोड़कर बैठे जहाँ दिखाते हैं।
जिनको धन-जनपूर्ण स्वर्ण-मन्दिर से सज्जित पाते हैं॥8॥
 
ज्वालामुखी उगल ज्वालाएँ उन्हें भस्म कर देता है।
उनको बना भूतिमय उनकी वर विभूति हर लेता है।
पलक मारते तव तन-भूषण मिट्टी में मिल जाते हैं।
फिर भी ये विधवंसक तुममे धाँसते नहीं दिखाते हैं॥9॥
 
बड़े-बड़े बहु धन-जन-संकुल सुन्दर-सुन्दर देश कई।
जो थे भूति-निकेतन, सुरपुर तक थी जिनकी कीत्तिक गयी।
जो चिरकाल तुम्हा पावन-भूत अंक में पल पाये।
तुम्हें गौरवित करके गौरव-गीत गये जिनके गाये॥10॥
 
वे हैं कहाँ, उदधिक कितनों को प्राय: निगला करता है।
उसका पेट, पेट में ऐसे देशों को रख, भरता है।
फिर भी जलधिक तुम्हा तन पर वैसा ही लहराता है।
कहाँ कुपित तुम हो पाती हो, कौन दंड वह पाता है॥11॥
 
तप से रीझ देवता बनता है वांछित फल का दाता।
अपराधी का भी हित करते तुमको है देखा जाता।
इसीलिए है क्षमा तुम्हारा नाम और तुम हो भारी।
धा! कहाँ तक कहें तुम्हारी क्षमाशीलता है न्यारी॥12॥
 
विकंपित वसुंधरा
(5)
 
वसुंधरा! यह बतला दो तुम, क्यों तन कम्पित होता है।
क्यों अनर्थ का बीज लोक में कोप तुम्हारा बोता है।
माता कहलाती हो तो किसलिए विमाता बनती हो।
पूत पूत है, सब पूतों को तुम्हीं क्या नहीं जनती हो॥1॥
 
पूत कुपूत बने, पर माता नहीं कुमाता होती है।
अवलोकन कर व्यथा सुतों की बिलख-बिलख वह रोती है।
फिर किसलिए कुपित होकर तुम महा गर्जना करती हो।
भूरि भीति किसलिए भयातुर प्राणिपुंज में भरती हो॥2॥
 
क्यों पल में अपार क्रन्दन-रव घर-घर-में भर जाता है।
कोलाहल होने लगता है, हा-हाकार सुनाता है।
दीवारें गिरने लगती हैं, सदन भू-पतित होते हैं।
गेहदशा अवलोक सैकड़ों दुखी खड़े दुख-रोते हैं॥3॥
 
कितने छत के टूट पड़े अपने प्रिय प्राण गँवाते हैं।
कितने दबकर, कितने पिसकर मिट्टी में मिल जाते हैं।
अंग भंग हो गये अनेकों आहें भरते मिलते हैं।
भय से हो अभिभूत सैकड़ों चल दल-दल-से हिलते हैं॥4॥
 
कितने भाग खड़े होते हैं, तो भी प्राण न बचते हैं।
कितने अपनी चिता बहँक अपने हाथों से रचते हैं।
कितने धन के, कितने जन के लिए कलपते फिरते हैं।
कितने सब-कुछ गँवा प्रबलतम दुख-समूह से घिरते हैं॥5॥
 
कितने चले रसातल जाते हैं, कितने धाँसे जाते हैं।
कितने निकली सबल सलिल-धारा में बहे दिखाते हैं।
बनते हैं धन-जन-विहीन वांछित विभूतियाँ खोते हैं।
नगर-निकर हैं नगर न रहते,धवंस ग्राम पुर होते हैं॥6॥
 
जल से थल, थल से जल बन बहु परिर्वत्तन हो जाते हैं।
कतिपय पल में ही ये सा प्रलय-दृश्य दिखलाते हैं।
कैसी है यह वज्र-हृदयता? क्यों तुम इतनी निर्मम हो।
क्यों संहार मुर्ति धारण कर बनती तुम कृतान्त-सम हो॥7॥
 
क्यों इतनी दुरन्तता-प्रिय हो, क्या न क्षमा कहलाती हो।
क्या तुम किसी महान शक्ति-बल से विवशा बन जाती हो।
यह सुनते हैं, शेषनाग के शिर पर वास तुम्हारा है।
क्या उसके विकराल विष-वमन का प्रपंच यह सारा है॥8॥
 
या सहस्र-फण-फूत्कार से जब बहु कम्पित होती हो।
तब सुधा-बुध खोकर विपत्तिक के बीज अचानक बोती हो।
या पुराण ने जिसकी गौरवमय गुणावली गाई है।
उस कच्छप की कठिन पीठ से तुम्हें मिली कठिनाई है॥9॥
 
या जिसके अतुलित बल से दानवता दलित दिखाती है।
उस वाराह-दशन से तुमको दंशनता मिल पाती है।
या भगवति वसुंधा! भव में वैसी ही तव लीला है।
जैसी प्रकृति अकोमल-कोमल अकरुण करुणाशीला है॥10॥
 
विभूतिमयी वसुधा
(6)
जब सहस्रकर छ महिने का दिवस दिखा छिप जाता है।
तब आरंजित क्षितिज अलौकिक दृश्य सामने लाता है।
उसकी ललित लालिमा संध्या-कलित-करों से लालित हो।
प्रगतिशील पल-पल बन-बन कनकाभा से प्रतिपालित हो॥1॥
 
रंग-बिरंगे लाल नील सित पीत बैंगनी बहु गोले।
है उछालने लगती क्षण-क्षण क्षिति-विमोहिनी छवि को ले।
उधार गगन में तरह-तरह के ता रंग दिखाते हैं।
बार-बार जगमगा-जगमगा अपनी ज्योति जगाते हैं॥2॥
 
इधार क्षितिज से निकले गोले ऊपर उठ-उठ खिलते हैं।
उल्कापात-समान विभाएँ भू में भरते मिलते हैं।
यों छ मास का तम करके कमनीय कलाएँ खोती है।
धारुव-प्रदेश की रजनी अतिशय मनोरंजिनी होती है॥3॥
 
हरे-भरे मैदान कनाडा के मीलों में फैले हैं।
जो हरियाली-छटा-वधू के परम छबीले छैले हैं।
जिनकी शस्य-विभूति सहज श्यामलता की पत रखती है।
जिनमें प्रकृति बैठ प्राय: निज उत्फुल्लता परखती है॥4॥
 
रंग-बिरंगे तृण-समूह से सज वे जैसे लसते हैं।
विपुल सुविकसित कुसुमावलि के मिस वे जैसे हँसते हैं।
वायु मिले वे हरीतिमा के जैसे नृत्य दिखाते हैं।
वैसे दृश्य कहाँ पर लोचन अवलोकन कर पाते हैं॥5॥
 
अमरीका है परम मनोहर, स्वर्ग-लोक-सा सुन्दर है।
जिसकी विपुल विभूति विलोके बनता चकित पुरन्दर है।
उसके विद्युद्दीप-विमण्डित नगर दिव्य द्युतिवाले हैं।
जिनके गगन-विचुम्बी सत्तार खन के सदन निराले हैं॥6॥
 
उनके कलित कलस दिनमणि को भी मलीन कर देते हैं।
दिखा-दिखा निज छटा क्षपाकर की छवि छीने लेते हैं।
उसका एक प्रताप जल-पतन का वह समाँ दिखाता है।
जिसपर मत्त प्रमोद रीझ मुक्तावलि सदा लुटाता है॥7॥
 
उसके विविध अलौकिक कल कुछ ऐसी कला दिखाते हैं।
जिन्हें विलोक विश्वकर्मा के कौशल भूले जाते हैं।
कितने आविष्कार हुए हैं उसमें ऐसे लोकोत्तर।
जिससे सारा देश गया है बहु अमूल्य मणियों से भर॥8॥
 
यूरप में अति रम्य रमा की मूर्ति रमी दिखलाती है।
विलस अंक में उसके विभुता मंद-मंद मुसकाती है।
प्राय: श्वेत गात के मानव उसमें लसते मिलते हैं।
सुन्दरता की कलित कुंज में ललित कुसुम-से खिलते हैं॥9॥
 
पारसता पैरिस-समान नगरों में पाई जाती है।
लंदन में नन्दनवन-सी अभिनन्दनता छवि पाती है।
प्रकृति-सुन्दरी सदा जहाँ निज प्रकृत रूप दिखलाती है।
स्विटजरलैण्ड-मेदिनी वैसी प्रमोदिनी कहलाती है॥10॥
 
विविध भाँति की बहु विद्याएँ श्रम-संकलित कलाएँ कुल।
हैं उसको गौरवित बनाते कौशल-वलित अनेकों पुल।
सुर-समूह को कीत्तिक-कथाएँ उड़ नभ-यान सुनाते हैं।
विहर-विहर जलयान जलधिक में गौरव-गाथा गाते हैं॥11॥
 
अफरीका के नाना कानन कौतुक-सदन निराले हैं।
उसने अपनी पशुशाला में बहु विचित्र पशु पाले हैं।
जैसे अद्भुत जीव-जन्तु खग-मृग उसमें दिखलाते हैं।
वैसे कहाँ दूस देशों के विपिनों में पाते हैं॥12॥
 
शीतल मधुर सलिल से विलसित कल-कल रव करनेवाली।
विपुल मंजु जलयान-वाहिनी बहु मनोहरा मतवाली।
ह-भ रस-सिक्त कूल के कान्त अंक में लहराई।
नील-समान सरसतम सुन्दर सरिता है उसने पाई॥13॥
 
जिनमें कई सहस्र साल के शव रक्षित दिखलाते हैं।
ज्यों-के-त्यों सउपस्कर जिनको देख दिल दहल जाते हैं।
जिनकी बहु विशाल रचना-विधिक बुधजन समझ न पाते हैं।
परम विचित्र पिरामिड उसके किसे न चकित बनाते हैं॥14॥
 
क्या हैं ये उत्तांग पिरामिड, कैसे गये बनाये हैं।
गिरि-से प्रस्तर-खंड किस तरह ऊपर गये उठाये हैं।
किस महान कौशल के बल से विरचित उनकी काया है।
क्या यह मायिक मिश्र-नगर के मय-दानव की माया है॥15॥
 
वह सभ्यता, पिरामिड पर हैं जिसकी छाप लगी पाते।
वह पदार्थ जिससे सहस्र वत्सर तक हैं शव रह जाते।
कब थी? मिला कहाँ पर कैसे? कौन इसे बतलावेगा।
कोई विबुध कभी इस मसले को क्या हल कर पावेगा॥16॥
 
है एशिया महा महिमामय उसमें भरी महत्ता है।
वन्दनीय वेदों से उसको मिली सात्तिवकी सत्ता है।
महा तिमिर जिस काल सकल अवनी-मंडल में छाया था।
मिले ज्ञान-आलोक तभी वह आलोकित हो पाया था॥17॥
 
भारत ही ने प्रथम भारती की आरती उतारी है।
उसने ही उर-अंधकार में अवगति-ज्योति पसारी है।
वह है वह सर जिससे निकले सब धर्मों के सोते हैं।
वह है वह जल जिसके बल से सकल पाप मल धोते हैं॥18॥
 
कहाँ हिमाचल-मलयाचल-से अद्भुत अचल दिखाते हैं।
पतित-पावनी सुर-सरिता-सी सरिता कहीं न पाते हैं।
नयन-रसायन कान्त-कलेवर कुसुमित कुसुमाकर प्यारा।
है कश्मीर अपर सुर-उपवन सुधासिक्त छवि नभ-तारा॥19॥
 
मानसरोवर के समान सर किसे कहाँ मिल पाया है।
जिसका शतदल अमल कमल जातीय पुष्प कहलाया है।
नीर-क्षीर-सुविवेक-निपुण बहु हंस जहाँ मिल पाते हैं।
मचल-मचल मोती चुगते हैं, चल-चल चित्त चुराते हैं॥20॥
 
जिसके कनक-विमंडित मठ हैं, जिसमें भूति विलसती है।
रमा जहाँ के लामाओं के वदन विलोक विहँसती है।
जिसके गिरि का हिम-समूह बन हेम बहुत छवि पाता है।
उस तिब्बत के वैभव-सा किसका वैभव दिखलाता है॥21॥
 
चीन बहुत प्राचीन काल से चिन्तनीय बन पाया है।
उसकी भूतल-भूति भित्तिक का भूरि प्रभाव दिखाया है।
उसका बहु विस्तार बहुलता अवलोके जनसंख्या की।
है विचित्र संसार-मूर्ति की दिखलाती अद्भुत झाँकी॥22॥
 
है एशिया-खंड का उपवन कुसुमावलि से विलसित है।
राका-राशि से कान्त नृपति की कीत्तिक-कौमुदी से सित है।
रसिक जनों का वृन्दावन है, बुधजन-वृन्द बनारस है।
फारस का भू-भाग गौरवित आर्र्य-वंश का पारस है॥23॥
 
जिसने अंधकारमय अवनी को आलोकित कर डाला।
जिसने तन का, मन का, जन-जन के नयनों का तम टाला।
जो पच्चीस करोड़ मुसलमानों का भाग्य-विधाता है।
अरब-धारा उस परम पुरुष के पैगम्बर की माता है॥24॥
 
काकेशस-प्रदेश की सारी सुषमा सुन्दरता न्यारी।
कुस्तुनतुनिया का वैभव वर मसजिद की पच्चीकारी।
टरकी की वीरता-धीरता परिवर्त्तन-गति की बातें।
हैं रंजिनी बनी हैं जिनसे उज्ज्वलतम काली रातें॥25॥
 
जिसके दिव्य अंक में जनमा वह मरियम का सुत प्यारा।
जिसकी ज्योति लाभ करके जगमगा उठा योरप सारा।
दे-दे ख्याति कीत्तिक-मंदिर में उसकी मूर्ति बिठाती हैं।
फिलस्तीन की बातें उसको महिमामय बतलती हैं॥26॥
 
देश-प्रदेश प्रायद्वीपों द्वीपों से भरी दिखाती है।
नगर-निकर नाना विभूति-वैभव से बहु छवि पाती है।
खेल-खेल वारिधिक-तरंग से रंग दिखाती बहुधा है।
चित्रिकत विविध चरित्रा-चित्रा से विचित्रतामय वसुधा है॥27॥
 
शार्दूल-विक्रीडित
(7)
 
कोई पावन पंथ का पथिक हो या हो महा पातकी।
कोई हो बुध वन्दनीय अथवा हो निन्दनीयाग्रणी।
कोई हो बहु आर्द्रचित्त अथवा संहार की मूर्ति हो।
योग्यायोग्य-विवेक है न रखती, है वीरभोग्या धारा॥1॥
 
जो देखे इतिहास-ग्रंथ कितने, बातें पुरानी सुनीं।
सा भारत के रहस्य समझे, रासो पढ़े सैकड़ों।
तो पाया कहते सहस्र मुख से संग्राम-मर्मज्ञ को।
वे थे भू-अनुरक्त हाथ जिनके आरक्त थे रक्त से॥2॥
 
भूलेगा धन से भ भवन को भाये हुए भोग को।
भ्राता को, सुत को, पिता प्रभृति को, भामा-मुखाम्भोज को।
भावों की अनुभूति को, विभव को, भूतेश की भक्ति को।
भू-स्वामी सब भूल जाय उसको, भू भूल पाती नहीं॥3॥
 
आरक्ता कलिकाल-मूर्ति कुटिला काली करालानना।
भूखी मानव-मांस की भय-भरी आतंक-आपूरिता।
उन्मत्ताक करुणा-दया-विरहिता अत्यन्त उत्तोजिता।
लोहू से रह लाल है लपकती भू-लाभ की लालसा॥4॥
 
देशों की, पुर-ग्राम की, नगर की देखे बड़ी दुर्दशा।
पाते हैं उसको महा पुलकिता काटे गला कोटिश:।
लीलाएँ अवलोक के प्रलय की है हर्ष होता उसे।
पी-पी प्राणिसमूह-रक्त महि की है दूर होती तृषा॥5॥
 
हैं सा पुर ग्राम धाम जलते, हैं दग्धा होते गृही।
है नाना नगरी विभूति बनती वर्षा हुए अग्नि की।
भू! ते अविवेक का कुफल है या है क्षमाशीलता।
जो ज्वाला बन काल है निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से॥6॥
 
जो निर्जीव बनी समस्त जनता हो मज्जिता राख में।
सा वैभव से भ नगर जो ज्वालामुखी से जले।
तो क्या हैं सर के समूह सरिता में है कहाँ सिक्तता।
तो है सागर में कहाँ सरसता, कैसे रसा है रसा॥7॥
 
हो-हो दग्धा बनी विशाल नगरी दावाग्नि-क्रीड़ास्थली।
लाखों लोग जले-भुने, भवन की भीतें चिता-सी बलीं।
भू! ते अवलोकते प्रलय क्यों ज्वालामुखी यों की ।
क्यों होते जल-राशि पास जगती यों ज्वालमाला रहे॥8॥
 
दोषों को क्षम सर्वदा जगत में जो है कहाती क्षमा।
क्यों हो-हो वह कम्पिता प्रलय की दृश्यावली दे दिखा।
कैसे सो वसुधा विरक्त बन दे ज्वालामुखी से जला।
जो पाले सुजला तथैव सुफला हो शस्य से श्यामला॥9॥
 
नाना दानवता दुरन्त नर की, ज्वालामुखी-यंत्रणा।
ओलों का, पवि का प्रहार, रवि के उत्ताकप की उग्रता।
तो कैसे सहती समुद्र-शठता दुर्वृत्तिक दावाग्नि की।
तो होती महती न, जो न क्षिति में होती क्षमाशीलता॥10॥
 
होती है हरिता हरापन मिले न्या ह पेड़ का।
काली है करती अमा, अरुणता देती ऊषा है उसे।
प्राय: है करती विमुग्ध मन को हो शस्य से श्यामला।
पाके दिव्य सिता विभूति बनती है दुग्धा-धाता धारा॥11॥
 
आराधया बुध-वृन्द की विबुधता आधारिता वन्दिता।
है विज्ञान-विभूति भूति भव की सद्भाव से भाविता।
है सद्बुध्दि-विधायिनी गुण-भरी है सर्व-विद्यामयी।
है पात्राी प्रतिपत्तिक की प्रगति की है सिध्दि:दात्री धारा॥12॥
 
पाता गौरव है पयोधिक पहना मुक्तावली-मालिका।
गाती है कल कीत्तिक कान्त स्वर से सारी विहंगावली।
देते हैं उपहार पादप खडे नाना फलों को लिए।
पूजा करती है सदैव महि की उत्फुल्ल पुष्पावली॥13॥
 
आ-आ के घन हैं सुधा बरसते, हैं भानु देते विभा।
होती है वन-भूति धान्य दिखला सर्वांग दृश्यावली।
पाता है कमनीय अंक गिरि से दिव्याभ रत्नावली।
पाये शुभ्र सिता सदैव बनती है भूमि दिव्याम्बरा॥14॥
 
पाती है कमनीय कान्ति विधु से, उत्फुल्लता पुष्प से।
देता चन्दन है सुवास तन को, है चाँदनी चूमती।
लेती है मधु से महा मधुरिमा मानी मनोहारिता।
होती है सरसा सदैव रस से भींगे रसा सुन्दरी॥15॥
 
भू में हैं जनमे, विभूति-बल से भू के बली हो सके।
जागे भाग अनेक भोग भव के भू-भाग ही से मिले।
आये काल भगे कहीं न भर के भू-अंक में हैं पड़े।
भू से भूप पले सदैव कब भू भूपाल पाले पली॥16॥
 
देता है यदि भौम साथ तज तो साथी मिला सोम-सा।
होता है यदि वज्रपात बहुधा तो है क्षमा में क्षमा।
जो है भू सरसा, सहस्रकर के उत्ताकप को क्यों सहे।
जो है पास सुधा, सहस्र-फन से क्यों हो धारा शंकिता॥17॥
 
लाखों पाप मिले समाधिक-रज में या हैं चिता में जले।
आयी मौत, बला मनुष्य सिर की है प्रायश: टालती।
लेती है तन ही मिला न तन में या राख में राख ही।
भूलों की बहु भूल-चूक पर भी भू धूल है डालती॥18॥
 
संसिक्ता सरसा सरोज-वदना उल्लासिता उर्वरा।
नाना पादप-पुंज-पंक्ति-लसिता पुष्पावली-पूरिता।
लीला-आकलिता नितान्त ललिता संभार से सज्जिता।
है मुक्तावलिमंडिता मणियुता आमोदिता मेदिनी॥19॥
 
था सिंहासन रत्नकान्त जिनका, कान्तार में वे म।
थे जो स्वर्गविभूति, गात उनके हैं भूमिशायी हुए।
वे सोये तम में पसार पग जो अलोक थे लोक के।
वे आये मर तीन हाथ महि में भू में समाये न जो॥20॥
 
है अंगारक-सा कुमार उसका तेजस्विता से भरा।
सेवा है करता मयंक, सितता देती सिता है उसे।
है रत्नाकर अंक-रत्न, दिव है देता उसे दिव्यता।
है नाना स्वर्गीय भूतिभरिता है भाग्यमाना मही॥21॥
 
दी है भूधार ने उमासम सुता दिव्यांग देवांगना।
पाई है उसने पयोधिक-पय से लोकाभिरामा रमा।
मिट्टी से उसको मिली पति-रता सीता समाना सती।
है मान्या महिमामयी मति-मती धान्या वदान्या धारा॥22॥
 
हो पाते यदि भद्र, भूत-हित को जो भूल जाते नहीं।
जो भाते भव भले भाव उनको, जो भागती भीरुता।
जो होतीं उनमें नहीं कुमति की दुर्भावनाएँ भरी।
तो भारी बनते उभार जन के भू-भार होते नहीं॥23॥
 
लाखों भूप हुए महा प्रबल हो डूबे अहंभाव में।
भू के इन्द्र बने, तपे तपन-से, डंका बजा विश्व में।
तो भी छूट सके न काल-कर से, काया मिली धूल में।
हो पाई किसकी विभूति यह भू? भू है भयों से भरी॥24॥
 
ऑंखें हैं मुँदती, मुँदें, अवनि तो होगी सदा सज्जिता।
कोई है मरता, मरे, पर मही होगी प्रसन्नानना।
साँसें हैं चलती, चलें, वसुमती यों ही रहेगी खिली।
अन्यों का दुख, हीन हो हृदय से कैसे धारा जानती॥25॥
 
जायेगी मुँद ऑंख एक दिन, हो शोभामयी मेदिनी।
छूटेगी यह देह हो अवनि में संजीवनी-सी जड़ी।
होगा नाश अवश्यमेव, महि में हो स्वर्ग की ही सुधा।
होना है तज भूति-भूति नर को, हो भूति से भू भरी॥26॥
 
डूबे क्यों न पयोधिक में, उदर में ते समाये न क्यों।
टूटा क्यों न पहाड़, क्यों न मुख में ज्वालामुखी के पड़े।
कैसा है यह चाव, भाव इनके क्यों हैं सहे जा रहे।
होता है दुख देख, भूमि! तुझमें भू-भार ही हैं भ॥27॥
 
तो होता सर सिंधु, शान्त बनता ज्वालामुखी सिक्त हो।
होते सर्व प्रपंच तो न दव के आतीं न आपत्तिकयाँ।
कोई क्यों जलता, न वारिनिधिक में कोई कहीं डूबता।
जो होती जड़ता न, भाव अपना जो भूल पाती न भू॥28॥
 
क्या पूछँ, पर मानता मन नहीं पूछे बिना, क्या करूँ।
क्या ऑंधी, बहु वात-चक्र, वसुधो! ते दुरुच्छ्वास हैं।
क्या पाथोधिक-प्रकोप कोप तव है, है गर्जना भर्त्सना।
है ज्वाला वह कौन जो धारणि है ज्वालामुखी में भरी॥29॥
 
संतापाग्नि सदैव है, निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से।
आहें हैं पवमान कोप, निधिक का उन्माद उद्वेग है।
भूपों की पशुता-प्रवृत्तिक, मनुजों की दानवी वृत्तिक से।
होती है गुरु पाप-भार-पवि से कम्पायमाना मही॥30॥
 
माता-सी है दिव्य मूर्ति उसकी नाना महत्तामयी।
सारी ऋध्दि समृध्दि सिध्दि उससे है प्राप्त होती सदा।
क्या प्राणी, तरु क्या, तृणादि तक की है अन्नपूर्णा वही।
है सत्कर्मपरायणा हितरता, है धर्मशीला धारा॥31॥
 
 

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