बालगोपाल-गोकुल लीला Bal Gopal-Gokul Leela Bhakt Surdas Ji

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Bal Gopal-Gokul Leela Bhakt Surdas Ji
बालगोपाल-गोकुल लीला

बालगोपाल - सूरदास

सोभित कर नवनीत लिए ।
घुटुरुनि चलत रेनु तन-मंडित, मुख दधि लेप किये ।
चारू कपोल , लोल लोचन, गोरोचन-तिलक दिये ।
लट-लटकनि मनु मधुप-गन मादक मधूहिं पिए ।
कठुला-कंठ, ब्रज केहरि-नख, राजत रुचिर हिए ।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए ॥1॥

किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत ।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ।
कबहुँ निरखि हरी आपु छाँह कौं, कर पकरन चाहत ।
किलकि हँसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि अवगाहत ।
कनक-भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा इन राजति ।
करि-करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति ।
बाल दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नन्द बुलावति ।
अँचरा तर लै ढ़ाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पियावति ॥2॥

सिखवति चलन जसोदा मैया ।
अरबराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरे पैया ।
कबहुँक सुंदर बदन विलोकति, उर आनंद भरि लेत बलैया ।
कबहुँक कुल देवता मनावति, चिरजीवहु मेरौ कुँवर कन्हैया ।
कबहुँक बल कौं टेरि बुलावति , इहिं आँगन खेलौ दोउ भैया ।
सूरदास स्वामी की लीला, अति प्रताप बिलसत नँदरैया ॥3॥

चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमकि-ठुमकि पग धरनी रेंगत, जननी देखि दिखावै ।
देहरि लौ चलि जात, बहुरि फिरि-फिरि इतहीं कौं आवै ।
गिरि-गिरि परत, बनत नहिं नाँघत सुर-मुनि सोच करावै ।
कोटि ब्रह्मांड करत छिन भीतर, हरत बिलंब न लावै ।
ताकौं लिए नंद की रानी, नाना खेल खिलावै ।
तब जसुमति कर टेकि स्याम की, क्रम-क्रम करि उतरावै ।
सूरदास प्रभु देखि देखि, सुर-नर-मुनि-बुद्धि भुलावै ।4॥

नंद जू के बारे कान्ह, छाँडि दै मथनियाँ ।
बार-बार कहति मातु जसुमति नंदरनियाँ ।
नैंकु रही माखन देउँ मेरे प्रान-धनियाँ ।
आरि जनि करौ, बलि जाउँ हौं निधनियाँ ।
जाकौ ध्यान धरैं सबै, सुर-नर-मुनि जनियाँ ।
ताकौ नँदरानी मुख चूमै लिए कनियाँ ।
सेष सहस आनन गुन गावत नहिं बनियाँ ।
सूर स्याम देखि सबै भूलीं गोप-धनियाँ ॥5॥

कहन लागे मोहन मैया-मैया ।
नंद महर सौं बाबा बाबा, अरु हलधर सौं भैया ।
ऊँचे चड़ी चढ़ी कहति जसोदा, लै लै नाम कन्हैया ।
दूरि खेलन जनि जाहु लला रे, मारैगी काहु की मैया ।
गोपी ग्वाल करत कौतूहल, घर घर बजति बधैया ।
सूरदास प्रभु तुम्हरें दरस कौं, चरननि की बलि जैया ॥6॥

गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी ।
माखन सहित देहि मेरी मैया,सुषक सुमंगल, मोटी ।
कत हौ आरि करत मेरे मोहन तुम आँगन मै लोटी ।
जौ चाहौ सो लेहु तुरतहीं, छाँड़ी यह मति खोटी ।
करि मनुहारि कलेऊ दीन्हौ, मुख चुपर्यौ अरु चोटी ।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ौ, हाथ लकुटिया छोटी ॥7॥

बरनौं बाल-बेष मुरारि ।
थकित जित-तित अमर-मुनि-गन, नंद-लाल निहारी ।
केस सिर बिन बपन के चहुँ दिसा छिटके झारि ।
सीस पर धरि जटा, मनु निसु रूप कियौ त्रिपुरारि ।
तिलक ललित ललाट केसरबिंदु सोभाकारि ।
रोष-अरुन तृतीय लोचन, रह्यौ जनु रिपु जारि ।
कंठ कठुला नील मनि, अंभोज-माल सँवारि ।
गरल ग्रीव, कपाल डर इहिं भाइ भए मदनारि ।
कुटिल हरि-नख हिऐँ हरि के हरषि निरखति नारि ।
ईस जनु रजनीस राख्यौ भाल तैं जु उतारि ।
सदन-रज स्याम सोभित, सुभग इहिं अनुहारि ।
मनहुँ अंग बिभूति-राजति संभु सो मधुहारि ।
त्रिदस-पति-पति असन कौं अति जननि सौं करै आरि ।
सूरदास विरंचि जाकौं जपत निज मुख चारि ॥8॥

मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी ?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी ।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढँत-गुहत न्हवावत जैहै नागिन सी भुइँ लोटी ।
काचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवी दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥9॥

हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौं नाचत , मनहिं मनहिं रिझावत ।
बाँह उठाइ काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ।
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ मैं, लौनी लिए खवावत ।
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत ॥10॥

जसुमति जबहि कह्यौ अन्हवावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौ लै आगै धरि, लालहिं चोटत पोटत री ।
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछै धरि राख्यौ छपाइ कै, उबटन-तेल-समाजैं री ।
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥11॥

ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं, हरिहिं लिए चंद दिखरावत ।
रोवत कत बलि जाउँ तुम्हारी, देखौं धौ भरि नैन जुड़ावत ।
चितै रहै तब आपुन ससि-तन अपने कर लै-लै जु बतावत ।
मीठौ लागत किधौं यह खाटौ, देखन अति सुन्दर मन भावत !
मनहीं मन हरि बुद्धि करत हैं माता सौं कहि ताहिं मँगावत ।
लागी भूख, चँद मैं खैहौं, देहि देहि रिस करि बिरुझावत ।
जसुमति कहति कहा मैं कीनौ, रोवत मोहन अति दुख पावत ।
सूर स्याम कौं जसुमति बोधति, गगन चिरैया उड़त दिखावत ॥12॥

सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी ।
कमल-नैन मन आनँद उपज्यौ, चतुर सिरोमनि देत हुँकारी ।
दसरथ नृपति हुतौ रघुबंसी, ताकै प्रगट भए सुत चारी ।
तिनमैं मुक्य राम जो कहियत, जनक सुता ताकी बर नारी ।
तात-बचन लगि राज तज्यौ तिन, अनुज धरनि सँग गए बनचारी ।
धावत कनक मृगा के पाछैं, राजिव लोचन परम उदारी ।
रावन हरन सिया कौ कीन्हौ, सुनि नँद-नंदन नींद निंवारी ।
चाप चाप करि उठे सूर प्रभु, लछिमन देहु, जननि भ्रम भारी ॥13॥

जागौ, जागौ हो गोपाल ।
नाहिंन इतौ सोइयत सुनि सुत ,प्रात परम सुचि काल ।
फिर-फिर जात निरखि मुख छिन छिन, सब गोपनि के बाल ।
बिन बिकसे कल कमल-कोष तैं मनु मधुपनि की माल ।
जो तुम मोहिं न पत्याहु सूर प्रभु, सुन्दर स्याम तमाल ।
तौ तुमहीं देखौ आपुन तजि निद्रा नैन बिसाल ॥14॥

कमल-नैन हरि करौ कलेवा ।
माखन-रोटी, सद्य जम्यौ दधि, भाँति-भाँति के मेवा ।
खारिक, दाख, चिरौंजी, किसमिस, उज्वल गरी बदाम ।
सफरी, सेव, छुहारे, पिस्ता, जे तरबूजा नाम ।
अरु मेवा बहु बाँति-भाँति हैं षटरस के मिष्ठान्न ।
सूरदास प्रभु करत कलेवा, रीझे स्याम सुजान ॥15॥

मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ ।
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात ।
गोरे नंद, जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात ।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हँसत सबै मुसकात ।
तू मोहीं कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ।
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई,जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥16॥

खेलन दूरि जात कत कान्हा ।
आजु सुन्यौ मैं हाऊ आयौ, तुम नहिं जानत नान्हा ।
इक लरिका अबहीं भजि आयौ, रोवत देख्यौ ताहि ।
कान तोरि वह लेत सबनि के, लरिका जानत जाहि ।
चलौ न, बेगि सबारै जैये, भाजि आपनें धाम ।
सूर स्याम यह बात सुनतही बोलि लिए बलराम ॥17॥

खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ ।
हरि हारे जीते श्रीदामा, बरबस हीं कत करत रिसैया ।
जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत यातै जातै अधिक तुम्हारै गैयाँ ।
रूहठि करै तासौं को खेलै, रहे बैठि जहँ-तहँ ग्वैयाँ ।
सूरदास प्रभु खैल्योइ चाहत, दाउँ दियौ करि नंद-दुहैयाँ ॥18॥

हर कौं टेरति है नंदरानी ।
बहुत अबार भई कहै खेलत रहे मेरे सारँग पानी ?
सुनतहिं टेर, दौरि तहँ आए, कब के निकसे लाल ।
जेंवत नहीं नंद तुम्हरै बिनु, बेगि चलौ, गोपाल ।
स्यामहिं ल्याई महरि जसोदा तुरतहिं पाइँ पखारे ।
सूरदास प्रभु संग नंद कैं बैठे हैं दोउ बारे ॥19॥

जेंवत कान्ह नंद इकठौरे ।
कछुक खात लपटात दोऊ कर बालकेलि अति भोरे ।
बरा कौर मेलत मुख भीतर, मिरिच दसन टकटौरे ।
तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे ।
फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाइ अँकोरे ।
सूर स्याम कीं मधुर कौर दै, कीन्हे तात निहोरे ॥20॥

मोहन काहें न उगिलौ माटी ।
बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिए साँटी ।
महतारी सौं मानत नाहीं, कपट-चतुरई ठाटी ।
बदन उघारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी ।
बड़ी बार भई लोचन उघरे, भरम-जवनिका फाटी ।
सूर निरख नँदरानि भ्रमित भई, कहति न मीठी-खाटी ॥21॥

नंद करत पूजा, हरि देखत ।
घंट बजाइ देव अन्हवायौ, दल चंदन लै भेटत ।
पट अंतर दै भोग लगायौ, आरति करी बनाइ ।
कहत कान्ह, बाबा तुम अरप्यौ, देव नहीं कछु खाइ ।
चितै रहे तब नंद महरि-मुख सुनहु कान्ह की बात ।
सूर स्याम देवनि कर जोरहु, कुसल रहै जिहिं गात ॥22॥

कहत नंद ,जसुमति सौं बात ।
कहा जानिए कह तै देख्यौं मेरैं कान्ह रिसात ।
पाँच बरष को मेरौ कन्हैया, अचरज तेरी बात ।
बिनहीं काज साँटि ले धावति, ता पाछै बिललात ।
कुसल रहैं बलराम स्याम दोउ, खेलत-खात--अन्हात ।
सूर स्याम कौं कहा लगावति, बालक कोमल गात ॥23॥

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