Hindi Kavita
हिंदी कविता
Parijat Ayodhya Singh Upadhyay ‘Hariaudh' 7-10 Sarg
पारिजात अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सप्तम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अन्तर्जगत्
मन
(1)
मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका।
विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका।
है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता।
मंद-मंद हँसनेवाला छवि-पुंज छलकता प्यारेला।
कौन कलानिधि के समान है रस बरसानेवाला।
मधु-सा मधुमय कुसुमित विलसित पुलकित कौन दिखाया।
नव रसाल पादप-सा किसको मंजु मंजरित पाया॥2॥
रंग-बिरंगी घटा-छटा से चित्त चुराये लेते।
नवल नील नीरद-सा किसको देखा जीवन देते।
प्रिय प्रभात-सी पावनता स्निग्धता किसे मिल पाई।
द्रवणशीलता द्रवित ओस-सी किसमें है दिखलाई॥3॥
उठ-उठकर तरंग-मालाएँ किसकी मिलीं सरसती।
सहज तरलता सरिता-सी है किसमें बहुत विलसती।
भले भाव से भूरि भरित है कौन बताया जाता।
मृग-शावक-सा भोलापन है किसका अधिक लुभाता॥4॥
किसकी लाली अवनी में अनुराग-बीज है बोती।
उषा सुन्दरी सी अनुरंजनता है किसमें होती।
परम सरलता सरल बालकों-सी है किसमें मिलती।
किसी अलौकिक कलिका-जैसी किसकी रुचि है खिलती॥5॥
दलगत ओस-बिन्दुओं तक की कान्ति बढ़ानेवाली।
रवि-प्रभात-किरणों की-सी है किसकी कला निराली।
मानव का अति अनुपम तन है किसका ताना-बाना।
मन-समान बहु मधुर विमोहक महि ने किसको माना॥6॥
मानस-महत्ता
(2)
जो कुसुमायुधा कुसुम-सायकों से है विध्द बनाता।
जिसका मोहन मंत्र त्रिकदेवों पर भी है चल पाता।
प्राणि-पुंज क्या, तृण तक में भी जो है रमा दिखाता।
अवनी-तल में जनन-सृष्टि का जो है जनक कहाता॥1॥
सुन्दरता है स्वयं बलाएँ सब दिन जिसकी लेती।
छटा निछावर हो जिसकी छवि को है निज छवि देती।
नारि-पुरुष के प्रेम-सम्मिलन का जो है निर्म्माता।
वह संसार-सूत्र-संचालक मनसिज है कहलाता॥2॥
जिसकी ज्वालाओं में जलते दिग्विजयी दिखलाये।
जिसने करके धवंस धूल में नाना नगर मिलाये।
लोक-लोक विकराल मूर्ति अवलोके हैं कँप जाते।
जिसके लाल-लाल लोचन हैं काल-गाल बन पाते॥3॥
जिसका सृजन आत्म-संरक्षण के निमित्त हो पाया।
जिसने कर भूर-भंग विश्व को प्रलय-दृश्य दिखलाया।
अति कराल-वदना काली जिसकी प्रतीक कहलाई।
उस दुर्वार क्रोधा ने किससे ऐसी क्षमता पाई॥4॥
जिसका उदधिक विशाल उदर है कभी नहीं भर पाता।
लोकपाल जिसकी लहरों में है बहता दिखलाता।
तीन लोक का राज्य अवनि-मण्डल की सारी माया।
पाने पर भी जिसे सर्वदा अति लालायित पाया॥5॥
कामधेनु-कामदता, सुर-तरु की सुर-तरुता न्यारी।
जिसे तृप्त कर सकीं न चिन्तामणि-चिन्ताएँ सारी।
धनद विपुल धन प्राप्त हुए भी जो है नहीं अघाता।
उस लोलुपता-भ लोभ का कौन कहाता धाता॥6॥
छूट-छूटकर जिसके बंधन में है भव बँधा जाता।
जुड़ा हुआ है जिसके द्वारा वसुन्धारा का नाता।
यह जन मेरा, यह धन मेरा, राज-पाट यह मेरा।
ममता की इस मायिकता ने है घर-घर को घेरा॥7॥
जिसने महाजाल फैलाकर लगा-लगाकर लासा।
बात क्या सकल दनुज-मनुज की, सुर-मुनि तक को फाँसा।
विधिक-विरचित नाना विभूतियाँ मूठी में हैं जिसकी।
उस विमोहमय मोह में भरित मिली भावना किसकी॥8॥
जो प्रसून के सदृश चाहता है तारक को चुनना।
जिसके लिए सुलभ है कर से सिता-वसन का बुनना।
सुधा सुधाकर की निचोड़ना हँसी-खेल है जिसको।
जो सुन्द्र का पद दे देता है सदैव जिस-तिसको॥9॥
जिसका तेज नहीं सह सकता दिनकर-सा तेजस्वी।
मान महीपों का हर जो है बनता महा यशस्वी।
जिसका पाँव चूमती रहती है वसुधा की माया।
ऐसा मद उस अहं-भाव ने किस मदांध से पाया॥10॥
जिसके शिर पर है गौरव-मणि-मण्डित मुकुट दिखाता।
जिसको विजय-दुंदुभी का रव है सब ओर सुनाता।
अन्तस्तल-विभूतियों का अधिकपति है कौन कहाता।
महामहिम मन के समान मन ही है माना जाता॥11॥
महामहिम मन-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(3)
उन विचित्र विभवों को जिनका प्रकृति-नटी से नाता है।
उन अपूर्व दृश्यावलियों को जिनको गगन दिखाता है।
उस छवि को भूतल सदैव जिसको स्वअंक में रखता है।
नयन न होते भी अनन्त नयनों से कौन निरखता है॥1॥
उस स्वर-लहरी को सदैव जो झंकृत होती रहती है।
सरस सुधा-धारा समस्त वसुधा पर जिससे बहती है।
प्राणि-पुंज जिसको सुन-सुन हो-हो विमुग्ध सिर धुनता है।
उसे कौन हो कान-रहित अगणित कानों से सुनता है॥2॥
उस सुगंध को जो मलयानिल को सुगन्धिकमय करता है।
रंग-बिरंगी कुसुमावलि में बहु सुवास जो भरता है।
मृग-मद-अगरु-चन्दनादिक को जो महँ-महँ महँकाता है।
उसे एक नासिका-हीन क्यों सूँघ नाक से पाता है॥3॥
कौन-कौन व्यंजन कैसा है, तुरत यह समझ जाता है।
मधुर फलों की मधुमयता का भी अनुभव कर पाता है।
जो जैसा है भला-बुरा उसको वैसा कह देता है।
रसनाहीन कौन बहु रसनाओं से सब रस लेता है॥4॥
मधुर लयों से बड़े मनोहर सुन्दर गीत सुनाता है।
बडे-बड़े ग्रंथों का कितना पढ़ा पाठ पढ़ जाता है।
बिना कंठ के कौन सदा अगणित कंठों से गाता है।
वाणी बिना कौन वक्ता बन वाणी का पद पाता है॥5॥
है कोमल-कठोर का अनुभव सर्द-गर्म का ज्ञाता है।
मलय-पवन से है सुख पाता, तप्त समीर तपाता है।
परसे कुसुम मुदित होता है, दवस्पर्श दुख देता है।
बिना त्वचा के कौन त्वचा के सकल कार्य कर लेता है॥6॥
सुन्दर मोती-से अक्षर लिख मोती कब न पिरोता है।
कनक-प्रसू वसुधातल को कर बीज विभव के बोता है।
चित्रा-विचित्र बेल-बूटे रच रंग अनूठे भरता है।
कर के बिना कौन बहु कर से काम अनेकों करता है॥7॥
जल में, थल में तथा गगन में पल में जाता-आता है।
उसकी चाल देखकर खगपति चकित बना दिखलाता है।
पवन-पूत क्या, स्वयं पवन कब गति में उसको पाता है।
पद के बिना विपुल पद से चल पदक कौन पा जाता है॥8॥
सकल इन्द्रियाँ बन विमूढ़ कर्तव्य नहीं कर पाती हैं।
जो सहयोग न मानस का हो तो असफल हो जाती हैं।
अन्तस्तल के मूलभूत भावों में वही समाया है।
मानव-तन में महाबली मन ही की सारी माया है॥9॥
मन से लिपटी ललनाएँ-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(4)
ऑंखें हँस-हँस सदा अनेकों अद्भुत दृश्य दिखाती हैं।
ला सामने छटाएँ क्षिति की कर संकेत बताती हैं।
जो हम होती नहीं, भरा भूतल में अंधियाला होता।
किसी हृदय में नहीं प्रेम-रस का बहता मिलता सोता॥1॥
खग-कलरव वीणा-निनाद मुरली-वादन का मंजुल स्वर।
सकल राग आलाप किसी गायक का गान विमोहित कर।
उन सरिताओं का कलकल जो मंथर गति से बहती हैं।
सुना-सुनाकर श्रुतियाँ सब दिन बहुत रिझाती रहती हैं॥2॥
अवनीतल कुसुमावलि-सौरभ से सुरभित शरीर-द्वारा।
केसर की कमनीय क्यारियों का लेकर सुवास सारा।
मृग-मद कस्तूरी कपूर की मधुर मनोज्ञ सुरभि से भर।
स्नेहमयी नासिका सदा रहती है सेवा में तत्पर॥3॥
विपुल व्यंजनों पकवानों का स्वाद बता सुख देती है।
चखा-चखाकर मीठे-मीठे फल मोहित कर लेती है।
नीरसता से निबट सरसता-धाराओं में बहती है।
रसिका रसना विविध रसों से रस उपजाती रहती है॥4॥
बड़ी मधुर बातें कहती है, गीत मनोहर गाती है।
मधुमय ध्वनि स्वर्गीय स्वरों से सरस सुधा बरसाती है।
परम रुचिर रचनाएँ पढ़-पढ़ बहुत विमुग्ध बनाती है।
वाणी की मनोज्ञतम वीणा वाणी सदा बजाती है॥5॥
है अनुराग-राग-अनुरंजित रस से भरी दिखाती है।
है सहृदयता-मूर्ति प्रिय-वदन देखे दिवस बिताती है।
बनती है वर विभा तिमिर में बहँके पथ बतलाती है।
है समता की नहीं कामना, मति ममता में माती है॥6॥
काम पड़े पर काम चलाना पड़ता है जैसे-तैसे।
क क्यों न लीलाएँ कितनी बचे बेचारा मन कैसे।
नहीं छोड़ती क्षण-भर भी, कर विविध कलाएँ चिमटी हैं।
एक-दो नहीं, आठ-आठ ललनाएँ मन से लिपटी हैं॥7॥
मन और अलबेली ऑंखें
(5)
जादू चलता ही रहता है, तिरछी ही वे रहती हैं।
चुप रहकर भी मचल-मचलकर सौ-सौ बातें कहती हैं।
कैसे भला न तड़पे कोई, करती रहती हैं वारें।
काट कब नहीं होती है, चलती रहती हैं तलवारें॥1॥
सीधो नहीं ताकते देखा, टेढ़ी हैं इनकी चालें।
कैसे पटे बलाएँ अपनी जो वे औरों पर डालें।
लोग छटपटायें तो क्या, वे छाती छेदा करती हैं।
छलनी बने कलेजा कोई, कब वे छल से डरती हैं॥2॥
मरनेवाले मरें, मरें, पर वे तो विष उगलेंगी ही।
चोखे-चोखे बान चलाकर जान किसी की लेंगी ही।
दिल को छीने लेती हैं, किस लिए भला वे दिल देंगी।
तन बिन जाय भले ही कोई, वे तो तेवर बदलेंगी॥3॥
कभी रस बरसती रहती हैं, हँसती कभी दिखाती हैं।
कभी लाल-पीली होती हैं, कभी काल बन जाती हैं।
कभी निकलती है चिनगारी, कभी बहुत ही जलती है।
बहँके किसी के कलेजे पर कभी मूँग वे दलती हैं॥4॥
फिरते देर नहीं होती, अकसर वे अड़ती रहती हैं।
बड़ी-बड़ी ऑंखों से जब देखो तब लड़ती रहती हैं।
उलझें, कड़ी पड़ें, भर जायें, बात-बात में रो देवे।
यही बान है ऑंख लग गये अपने को भी खो देवे॥5॥
हिली-मिली वे रहे भले ही, मगर उलट भी जाती हैं।
लगती हो टकटकी, पर कभी पलके नहीं उठाती हैं।
ऑंसू आते हैं उनमें, पर मकर-भ वे होते हैं।
वे पानी हैं, मगर आग औरों के घर में बोते हैं॥6॥
बूँदें वे मोती हैं जिनके पानेवाले रोते हैं।
अपना पानी रखकर जो औरों का पानी खोते हैं।
कभी धार बँधाती है तो बन जाते ऐसे सोते हैं।
जिनमें बहकर लोग हाथ सब अरमानों से धोते हैं॥7॥
चाह पीसने लग जाती है, आह बहुत तड़पाती है।
कभी टपकते हैं तो टपक फफोलों की बढ़ जाती है।
पागल बने नहीं मन कैसे जब कि हैं पहेली ऑंखें।
सिर पर उसके जब सवार हैं दो-दो अलबेली ऑंखें॥8॥
शार्दूल-विक्रीडित
(6)
होता है मधु स्वयं मुग्ध किसकी देखे मनोहारिता।
पाती है महि में कहाँ विकचता पुष्पावली ईदृशी।
ऐसी है कलिता द्रुमावलि कहाँ, कान्ता लता है कहाँ।
लोकों में नयनाभिराम मन-सा आराम है कौन-सा॥1॥
होती है बहु रत्न-राजि-रुचिरा मुक्तावली-मंडिता।
लीला मूर्तिमती अतीव ललिता उल्लासिता रंजिता।
नाना नर्त्तन-कला-केलि-कलिता आलोक-आलोकिता।
मंदादोलित सिंधु-तुल्य मन की कान्ता तरंगावली॥2॥
होती है शशि-कला-कान्त रवि की रम्यांशु-सी रंजिता।
ऊषा-सी अनुराग-राग-लसिता प्रात:प्रभोद्भासिता।
दिव्या तारक-मालिका-विलसिता नीलाभ्र-शोभांकिता।
रंगारंग छटा-निकेत मन की नाना तरंगावली॥3॥
जो हो पातक-मूर्ति जो भरित हो पापीयसी पूत्तिक से।
पाके ताप अतीव भूमि जिससे हो भूरि उत्ताकपिता।
जो हो दानवता विभूति जिसमें दुर्भावना हो भरी।
पूरी हो न प्रभो! कभी मनुज की ऐसी मनोकामना॥4॥
है चिन्तामणि चिन्तनीय विदिता है कौस्तुभी कल्पना।
है कल्पद्रुम-मर्म ज्ञात सुर-गो की गीतिका है सुनी।
है क्या पारस? है रहस्य समझा, बातें गढ़ी हैं गयी।
ये क्या हैं? मन के प्रतीक अथवा हैं मानसी प्रक्रिया॥5॥
कैसे तो मचले न क्यों न बहके कैसे सुनाई सुने।
कैसे तो बिगडे बने न कहके बातें बड़ी बेतुकी।
कैसे तो हठ ठान के न तमके सारी बुराई क।
ताने तो फिर क्यों भला न मन जो माने मनाये नहीं॥6॥
छूटी मादकता कभी न मद की, है दंभवाला बड़ा।
मानी है, इतना ममत्व-रत है, जो मान का है नहीं।
घूमा है करता प्रमाद-नभ में, उन्माद से है भरा।
प्राय: है बनता प्रमत्त मन की जाती नहीं मत्तता॥7॥
देखेंगे दृग रूप, देख न सकें तो दृष्टि का दोष है।
जिह्ना है रसकामुका रसनता चाहे बची ही न ही।
चाहेगी ललना ललाम, ललना चाहे न चाहे उसे।
है काया कस में न किन्तु मन की माया नहीं छूटती॥8॥
ऑंखें हैं कस में न, रूप-शशि की जो हैं चकोरी बनी।
हो जिह्ना रस-लुब्धा स्वाद-धन की जो है हुई चातकी।
भाता है विषयोपभोग उसको जो कंज के भृंगसा।
टूटेगा जग-जाल तो न, मन जो जंजाल में है फँसा॥9॥
देते हैं पादप प्रमोद हिलते प्यारे ह पत्रा-से।
लेती है कलिका लुभा विलस के हैं बेलियाँ मोहती।
रीझा है करता विलोक तृण की, दूर्वा-दलों की छटा।
होता मानस है प्रफुल्ल लख के उत्फुल्ल पुष्पावली॥10॥
मोरों का अवलोक नर्त्तन स्वयं है नाचता मत्त हो।
गाता है बहु गीत कंठ अपना गाते खगों से मिला।
होता है मन महा मुग्ध पिक की उन्मुक्त तानें सुने।
देखे रंग-बिरंग की विहरती नाना विहंगावली॥11॥
हो ऊँची, नत हो, कला-निरत हो, हैं नाचती मत्त हो।
देती हैं बहु दिव्य दृश्य दिखला हो भूरि उल्लासिता।
हैं मंदानिल-दोलिता सुलहरें, हैं भीतियों से भरी।
हैं कल्लोल-समान लोल मन की लीलामयी वृत्तिकयाँ॥12॥
कैसे व्यंजन-स्वाद जान सकती, क्यों रीझती खा उसे।
क्यों मीठे फल तो विमुग्ध करते, क्यों दुग्धाता मोहती।
कैसे तो रस के विभेद खुलते, क्यों ज्ञात होते किसे।
क्यों होती रसना रसज्ञ, मन जो होता रसीला नहीं॥13॥
क्यों तो चंचलता दिखा मचलते सीधो नहीं ताकते।
कैसे तो अड़ते कटाक्ष करते क्यों तीर देते चला।
क्यों चालें चलते बला-पर-बला लाते दिखाते फि।
जो मानी मन मानता नयन तो कैसे नहीं मानते॥14॥
जो पाये वन-फूल, फूल बन ले, काँटे न बोता फिर।
क्यों हो स्वार्थ-प्रवृत्तिक-बेलि बहुधा नेत्रकम्बु से सिंचिता।
होता आग्रह-अंधा है हित उसे तो सूझता ही नहीं।
क्यों है तू हठ ठानता मन-कही क्यों है नहीं मानता॥15॥
कोई है अपना न, स्वप्न सब है, संसार निस्सार है।
काया है किस काम की, जलद की छाया कही है गयी।
है सम्पत्तिक विपत्तिक, राज रज है, है भूति तो भूति ही।
क्यों यों है मन! तू उदास? विष है ऐसी उदासीनता॥16॥
जो काली अलकें विलोक ललकें लालायिता ही रहीं।
देखे लोचन लोच है ललचता जो हो महा लालची।
जो गोरा तन कंज मंजु मुखड़ा है मत्त देता बना।
कैसे तो मथता न काम मन को माया दिखा मन्मथी॥17॥
भाती है उतनी न भूति जितनी भावों भरी भामिनी।
प्यारी है उतनी न भक्ति जितनी भ्रू-भंगिमा-पंडिता।
मीठी है उतनी सुधा न जितनी है ओष्ठ की माधुरी।
क्यों हो गौरव-धाम, काम मन को है कामिनी काम से॥18॥
बेढंगे सिर उठा बात कहते बुल्ले बिलाते मिले।
पाये पक्ष पहाड़ जो न सँभले तो पक्ष काटे गये।
खाते हैं मुँह की सदैव बहके वे हैं बुझे जो बले।
ले दंभी मन सोच धवंस प्रिय क्यों विधवंस होगा नहीं॥19॥
दो क्या विंशति बाँह का वधा हुआ है स्वर्णलंका कहाँ।
हो गर्वान्धा सहस्रबाहु बिलटा उत्पीड़नों में पड़ा।
दंभी तू मन हो न भूलकर भी है दंभ तो दंभ ही।
होगा गर्व अवश्य खर्व, न रहा कंदर्प का दर्प भी॥20॥
आती है बहुधा विपत्तिक, वश क्या, क्यों धीरे तजे धीरता।
कोई चाल चले, चले, विचलते क्यों बुध्दिवाले रहें।
वैरी वैर क, क, विकल हो क्यों वीर की वीरता।
क्यों निश्चिन्त रहे न चित्त! नित तू, चिन्ता चिता-तुल्य है॥21॥
सोना है करती कुधातु अय को है सिध्दि सत्तामयी।
होती है उसकी विभूति-बल से पूरी मनोकामना।
जाती है बन दिव्य ज्योति तम में है मोहती मंजु हो।
है चिन्तामणि के समान रुचिरा चिन्ता चिता है नहीं॥22॥
हो पाई वश में नहीं सबल हो जो वासनाएँ बुरी।
हो-हो के कमनीय कान्त न बनी जो कामना काम की।
जो ऑंखें न खुलीं प्रबुध्द कहला जो हैं प्रपंची छिपे।
तो क्या चेतनता अचिन्त्य पटुता क्या चित्त की चातुरी॥23॥
रस्सी साँप बनी, सदैव तम में दीखे खड़े भूत ही।
पत्तो के खड़के भला कब नहीं हैं कान होते खड़े।
काँपा है करता, हुए हृदय में आतंक की कल्पना।
जाता त्राकस नहीं, सशंक मन की शंका नहीं छूटती॥24॥
सा प्रेत-प्रसंग भ्रान्तिमय हैं, हैं कल्पना से भ।
खोजे भी तरु के तले तिमिर में क्या हैं चुडैलें मिलीं।
देखा दृष्टि-विवेक ने, पर कहीं बैताल दीखे नहीं।
होता है भयभीत व्यर्थ मन! तू, है भूत भू में कहाँ॥25॥
पेड़ों में भ्रमते फि तिमिर में बागों वनों में बसे।
रातें बीत गईं श्मशान-महि में शंका-स्थलों में रहे।
पाया भूत कहाँ, कहीं न फिरती देखी गयी भूतनी।
शिक्षा है अनुभूत भूत-भय की बातें वृथा भूत हैं॥26॥
है रोता, हँसता, प्रफुल्ल बनता, होता कभी मत्त है।
हो पाथोधिक-तरंगमान नभ के ता कभी, तोड़ता।
जाता है वन भूति भूतप कभी, पाता विधाता कभी।
कैसे तो न क प्रपंच मन! जो तू है प्रपंची महा॥27॥
भू में कौन अनर्थ अर्थवश हो तूने किया है नहीं।
तेरी पापप्रवृत्तिक ने प्रबल हो पीसा नहीं है किसे।
तेरा देख महाप्रकोप महि क्या होती नहीं कम्पिता।
जो है पातक-प्रेम-मूढ़ मन! तो तू है महा पातकी॥28॥
है गोलोक कहाँ, विभूति उसकी है दृष्टि आती नहीं।
है बैकुण्ठ कहाँ? कहाँ शिवपुरी? है स्वर्ग-भू भी कहाँ।
पाया है किसने कहाँ सुरगवी या नन्दनोद्यान को।
ये हैं कल्पक कान्त भूत मन की लोकोत्तारा भूतियाँ॥29॥
जो है संयमशील, वृत्तिक जिसकी है दिव्य ज्ञानात्मिका।
पापों को तज जो सदैव करता है पुण्य के कार्य ही।
जो है मुक्त प्रपंचजात रुज से, है मुक्त प्राणी वही।
क्या है मुक्ति? विकारबध्द मन की उन्मुक्ति ही मुक्ति है॥30॥
क्या है ब्रह्म? स्वरूप क्या प्रकृति का? क्या विश्व की है क्रिया।
क्या है ज्ञान, विवेक, बुध्दि अथवा क्या पाप या पुण्य है।
क्यों होता इनका विचार, इनको कैसे सुधी जानते।
जो होता मन ही न तो मनन क्यों होता किसी तत्तव का॥31॥
हैं नाना कृतियाँ विभूति उसकी हैं इंगिते नीतियाँ।
है विज्ञान विवेक मानसिकता है भक्ति कान्ता क्रिया।
है धाता रमणीयता मधुरता लोकोत्तारा प्रीति का।
दासी है भव-भूति मुक्त मन की, हैं सेविका मुक्तियाँ॥32॥
हैं सारी निधिकयाँ रता अनुगता, सम्पत्तिक है आश्रिता।
हैं ब्रह्मांड-विभूतियाँ सहचरी, हैं शासिता शक्तियाँ।
हैं संसार-पदार्थ हस्तगत-से, हैं वस्तुएँ स्वीकृता।
है सेवारत सिध्दि, सिध्द मन की हैं सिध्दियाँ सेविका॥33॥
ऊषा कान्त कपोल, भानु-किरणें आलोकिता रंजिता।
भू के रंग-बिरंग पुष्पतरु की श्यामाभिरामा छटा।
नागों की ललितांगता रुचिरता कैसे नहीं मोहती।
हैं रंगीन बने त्रिकलोक, मन की रंगीनियों से रँगे॥34॥
क्या हैं ज्ञान, विवेक, बुध्दिबल क्या, ये मानसोत्पन्न हैं।
क्या हैं चिन्तन-शक्तियाँ? मनन क्या? क्या तर्कनाएँ सभी।
जो हैं वे सब हैं विभूति उसकी या हैं उसी की क्रिया।
कैसे जाय कही महान मन की सत्ता-इयत्ताक कभी॥35॥
अष्टम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
अन्तर्जगत्
हृदय
(1)
मुग्धकर सुन्दर भावों का।
विधाता है उसमें बसता।
देखकर जिसकी लीलाएँ।
जगत है मंद-मंद हँसता॥1॥
रमा मन है उसमें रमता।
वह बहुत मुग्ध दिखाती है।
कलाएँ करके कलित ललित।
वह विलसती मुसकाती है॥2॥
साधना के बल से उसमें।
अलौकिक रूप विलोके हैं।
देखनेवाली ऑंखों ने।
दृश्य अद्भुत अवलोके हैं॥3॥
कभी उसमें दिखलाती है।
श्यामली मूर्ति मनोरम-तम।
किरीटी कल-कुण्डल-शोभी।
विभामय विपुल विभाकर सम॥4॥
बहु सरस नवल नीरधार-सी।
जगत-जन-जीवन-अवलम्बन।
योगियों की समाधिक की निधिक।
सिध्दजन-सकल-सिध्दि-साधन॥5॥
श्वास-प्रश्वासों में जिसकी।
अनाहत नाद सुनाता है।
अलौकिक भावों का अनुभव।
विश्व में जो भर पाता है॥6॥
अलौकिक जिसके स्वर-द्वारा।
सर्वदा हो-हो मंजु स्वरित।
ज्ञान-विज्ञानों के धाता।
वेद के मंत्र हुए उच्चरित॥7॥
कभी उसमें छवि पाती है।
मूर्ति केकी-कलकंठोपम।
मनोहर कोटि-काम-सुन्दर।
शरद के नील सरोरुह सम॥8॥
लाभ कर दिव्य ज्योति जिसकी।
जगमगाता है उर सारा।
चरित-बल से जो बन पाया।
जगत-जन-लोचन का तारा॥9॥
कभी उसमें नवघन-रुचि-तन।
मधुमयी मुरली-वादन-रत।
विलसता है बन बहु मोहक।
सुधा-रस बरसाकर अविरत॥10॥
गीत गाता है वह ऐसे।
द्रवित जिससे पवि होता है।
जो सरसता अन्तस्तल में।
बहाता दिवरस सोता है॥11॥
कभी उसमें शोभित देखी।
मूर्ति सित भानु सदृश सुन्दर।
सुरसरी-लसिता, दिग्वसना।
त्रिकलोचन, चन्द्रभाल, मणिधार॥12॥
अमंगल वेश भले ही हो।
किन्तु है मंगल-मूर्ति-जनक।
भूति-बल से वह करता है।
अयस को पल में कान्त कनक॥13॥
ज्योति उसमें वह जगती है।
न जैसी जग में जग पाई।
दिव्यता मूर्तिमती वैसी।
नहीं दिव में भी दिखलाई॥14॥
साधना-दृग-द्वारा जिनको।
साधाकों ने ही अवलोकी।
दमकती रहती हैं उसमें।
मूर्तियाँ दिव्य देवियों की॥15॥
मंजु मुखरित सुरभित मुकलित।
प्रफुल्लित वदन मंद विहँसित।
दिखाता है वसंत उसमें।
सुविकसितसुमनावलि-विलसित॥16॥
बिहरते बहुरंजन करते।
घहरते घिरते आते हैं।
सरसतम बन-बनकर उसमें।
वारिधार रस बरसाते हैं॥17॥
स्वर्ग-सुख-विलसित नरक-निलय।
दिव्यतम कलित ललित कल है।
सरस-से-सरस गरल-पूरित।
सुधा से भरित हृदय-तल है॥18॥
जनक है दिव-विभूतियों का।
सुअन उसका जग-अनुभव है।
अलौकिकता का है आलय।
हृदय में भरित भव-विभव है॥19॥
न कामद कामधेनु इतनी।
न सुफलद सुरतरु है वैसा।
नहीं चिन्तामणि है चित-सा।
स्वयं है हृदय हृदय-जैसा॥20॥
(2)
कभी वह छिलता रहता है।
कभी बेतरह मसलता है।
कभी उसको खिलता पाया।
कभी बल्लियों उछलता है॥1॥
खीजता है इतना, जितना।
खीज भी कभी न खीजेगी।
कभी इतना पसीजता है।
ओस जितना न पसीजेगी॥2॥
कभी इतना घबराता है।
भूल जाता है अपने को।
कभी वह खेल समझता है।
किसी के गरदन नपने को॥3॥
कभी वह आग-बबूला बन।
बहुत ही जलता-भुनता है।
कभी फूला न समाता है।
फूल काँटों में चुनता है॥4॥
नहीं परदा रहने देता।
बहुत परदों से छनता है।
कभी पानी-पानी होकर।
ऑंख का ऑंसू बनता है॥5॥
फिर नहीं उसे देख पाता।
जिस-किसी से वह फिरता है।
कभी पड़ गये प्यारे-जल में।
मछलियों-जैसा तिरता है॥6॥
लाग से लगती बातें कह।
आग वह कभी लगाता है।
कभी उसके हँस देने से।
फूल मुँह से झड़ पाता है॥7॥
कभी दिखलाता है नीरस।
कभी वह रस बरसाता है।
फूल-सा कभी मिला कोमल।
उर कभी पवि बन पाता है॥8॥
(3)
हो गया क्या, क्यों बतलाऊँ।
धाड़कती रहती है छाती।
बहुत बेचैनी रहती है।
रात-भर नींद नहीं आती॥1॥
लगाये कहीं नहीं लगता।
बहुत ही जी घबराता है।
किसी की पेशानी का बल।
बला क्यों मुझपर लाता है॥2॥
आप ही फँस जाऊँ जिसमें।
जाल क्यों ऐसा बुनता हूँ।
उन्हें लग गयी बुरी धुन तो।
किसलिए मैं सिर धुनता हूँ॥3॥
किसी का मन मे मन से।
मिलाये अगर नहीं मिलता।
मत मिले, पर तेवर बदले।
बेतरह दिल क्यों है हिलता॥4॥
कौन सुनता है कब किसकी।
कौन कब ढंग बदलता है।
मैल उसके जी में हो, हो।
हमारा दिल क्यों मलता है॥5॥
किसी की ओर किसी ने कब।
प्यारे की ऑंखों को फेरा।
किसी के तड़पाने से क्यों।
तड़प जाता है दिल मेरा॥6॥
कौन बतलायेगा मुझको।
सितम क्यों कोई सहता है।
आस पर ओस पड़ गयी क्यों।
दिल मसलता क्यों रहता है॥7॥
कहाँ उसकी ऑंखें भींगी।
कब बला उसकी सोती है।
टपक पड़ते हैं क्यों ऑंसू।
टपक क्यों दिल में होती है॥8॥
(4)
दुखों के लम्बे हाथों से।
सुखों की लुटती हैं मोटें।
चैन को चौपट करती हैं।
कलेजे पर चलती चोटें॥1॥
खिले कोमल कमलों का है।
सब सितम भौरों का सहना।
मसल जाना है फूलों का।
कलेजे का मलते रहना॥2॥
बड़ी ही कोमल कलियों का।
है कुचल जाना या सिलना।
छेद छाती में हो जाना।
या किसी के दिल का छिलना॥3॥
तड़पते कलपा करते हैं।
नहीं पल-भर कल पाते हैं।
न जाने कैसे तेवर से।
कलेजे कत जाते हैं॥4॥
टूट पड़ना है बिजली का।
हाथ जीने से है धाोना।
किसी पत्थर से टकराकर।
कलेजे के टुकड़े होना॥5॥
जायँ पड़ काँटे सीने में।
लहू का घूँट पड़े पीना।
नहीं जुड़ पाता है टूटे।
कलेजा है वह आईना॥6॥
भूल हमने की तो की ही।
न जाने ये क्यों हैं भूले।
मँह फुलाये जो वे हैं तो।
क्यों फफोले दिल के फूले॥7॥
बहुत ही छोटे हों, पर हैं।
छलकते हुए व्यथा-प्यारेले।
किसी के छिले कलेजे के।
छरछराने वाले छाले॥8॥
(5)
दूसरों के दुख का मुखड़ा।
नहीं उसको है दिखलाता।
किसी की ऑंखों का ऑंसू।
वह कभी देख नहीं पाता॥1॥
कौर जिन लोगों के मुँह का।
सदा ही छीना जाता है।
बहुत कुम्हलाया मुँह उनका।
कब उसे व्यथित बनाता है॥2॥
बनाकर बहु चंचल विचलित।
चैन चित का हर लेती है।
किसी पीड़ित की मुखमुद्रा।
कब उसे पीड़ा देती है॥3॥
साँसतें कर कितनी जिनको।
सबल जन सदा सताते हैं।
विकलता-भ नयन उनके।
कब उसे विकल बनाते हैं॥4॥
पिसे पर भी जो पिसता है।
सदा जो नोचा जाता है।
बहुत उतरा उसका चेहरा।
उसे कब दुख पहुँचाता है॥5॥
छली लोगों के छल में पड़।
कसकती जिनकी छाती है।
खिन्नता उनके आनन की।
उसे कब खिन्न बनाती है॥6॥
जातियाँ जो चहले में फँस।
ठोकरें अब भी खाती हैं।
जल बरसती उनकी ऑंखें।
कहाँ उसको कलपाती हैं॥7॥
डाल देता है ऑंखों पर।
अज्ञता का परदा काला।
बनाता है नर को अंधा।
हृदय में छाया ऍंधिकयाला॥8॥
(6)
चाल वे टेढ़ी चलते हैं।
लिपट जाते कब डरते हैं।
नहीं है उनका मुँह मुड़ता।
मारते हैं या मरते हैं॥1॥
भरा विष उसमें पाते हैं।
बात जो कोई कहते हैं।
पास होती हैं दो जीभें।
सदा डँसते ही रहते हैं॥2॥
जब कभी लड़ने लगते हैं।
खडे हो जान लड़ाते हैं।
जान मुशकिल से बचती है।
अगर वे दाँत गड़ाते हैं॥3॥
बहुत फुफकारा करते हैं।
नहीं टल पाते हैं टाले।
बु हैं काले साँपों से।
काल हैं काले दिलवाले॥4॥
(7)
अनिर्मल छिछली नदियों का।
सलिल क्यों लगता है प्यारा।
सरस ही नहीं, सरसतम है।
सुरसरी की पावन धारा॥1॥
चमकते रहते हैं ता।
ज्योतियों से जाते हैं भर।
सुधा बरसाता रहता है।
सुधाकर ही वसुधा-तल पर॥2॥
पास तालों तालाबों के।
वकों का दल ही जाता है।
हंस क्यों तजे मानसर को।
कहाँ वह मोती पाता है॥3॥
सफल कब हुए सुफल पाये।
न सेमल हैं उतने सुन्दर।
किसलिये मुग्ध नहीं होते।
रसालों की रसालता पर॥4॥
सुरा का सर में सौदा भर।
पी उसे बनकर मतवाला।
किसलिये ढलका दे कोई।
सुधा से भरा हुआ प्यारेला॥5॥
बड़े सुन्दर कमलों के ही।
क्यों नहीं बनते अलिमाला।
क्यों बना वे बुलबुल हमको।
रंगतें दिखा गुलेलाला॥6॥
उतारा गया किसलिये वह।
पहनकर कनइल की माला।
गले में सुन्दर फूलों का।
गया था जो गजरा डाला॥7॥
सुरुचि-कुंजी से खुलता है।
पूततम भावों का ताला।
मनुज है दिवि-विभूति पाता।
बन गये दिव्य हृदयवाला॥8॥
(8)
मैं फूल के लिए आयी।
पर फूल कहाँ चुन पाई॥1॥
सखि! था हो गया सवेरा।
लाली नभ में थी छाती।
ऊषा लग अरुणा-गले से।
थी अपना रंग दिखाती।
तरु पर थी बजी बधाई॥2॥
था खुला झरोखा रवि का।
थी किरण मंद मुसकाती।
इठलाती धीरे-धीरे।
थी वसुंधरा पर आती।
सब ओर छटा थी छायी॥3॥
मुँह खोल फूल थे हँसते।
कलियाँ थीं खिलती जाती।
उन पर के जल-बूँदों को।
थी मोती प्रकृति बनाती।
दिव ने थी ज्योति जगाई॥4॥
मतवाले भौं आ-आ।
फूलों को चूम रहे थे।
रस झूम-झूम थे पीते।
कुंजों में घूम रहे थे।
वंशी थी गई बजाई॥5॥
तितलियाँ निछावर हो-हो।
थीं उनको नृत्य दिखाती।
उनके रंगों में रँगकर।
थीं अपना रंग जमाती।
वे करती थीं मनभाई॥6॥
आ मृदुल समीरण उनसे।
था कलित केलियाँ करता।
अति मंजुल गति से चलकर।
फिरता था सुरभि वितरता।
थीं रंग लताएँ लाई॥7॥
सब ओर समा था छाया।
थीं ललकें देख ललकती।
भर-भर प्रभात-प्यारेले में।
थी छवि-पुंजता छलकती।
थी प्रफुल्लता उफनाई॥8॥
यह अनुपम दृश्य विलोके।
जब हुआ मुग्ध मन मेरा।
कोमल भावों ने उसको।
तब प्रेम-पूर्वक घेरा।
औ' यह प्रिय बात सुनाई॥9॥
ऐसे कमनीय समय में।
जब फूल विलस हैं हँसते।
कितनों को बहु सुख देते।
कितने हृदयों में बसते।
रुचि है जब बहुत लुभाई॥10॥
तब उनको चुन ले जाना।
कैसे सहृदयता होगी।
क्या सितम न होगा उन पर।
क्या यह न निठुरता होगी।
यह होगी क्या न बुराई॥11॥
छिन जाय किसी का सब सुख।
वह छिदे बिधो बँधा जाये।
मिल जाय धूल में नुचकर।
दलमल जाये कुम्हलाये।
गत उसकी जाय बनाई॥12॥
पर कोई इसे न समझे।
रच गहने अंग सजाये।
मालाएँ गज गूँथे।
पहने बाँटे पहनाये।
तो होगी यह न भलाई॥13॥
जब सुनीं दयामय बातें।
तब मेरा जी भर आया।
डालों पर ही फूलों का।
कुछ अजब समाँ दिखलाया।
मैं फूली नहीं समाई।
पर फूल कहाँ चुन पाई॥14॥
(9)
पहने मुक्तावलि-माला।
कोई अलबेली बाला॥1॥
है विहर रही उपवन में।
कोमलतम भावों में भर।
अनुराग रँगे नयनों से।
कर लाभ ललक लोकोत्तर।
पी-पी प्रमोद का प्यारेला॥2॥
थीं कान्त क्यारियाँ फैली।
थे उनमें सुमन विलसते।
पहने परिधन मनोहर।
वे मंद-मंद थे हँसते।
था उनका रंग निराला॥3॥
उनके समीप जा-जाकर।
थी कभी मुग्ध हो जाती।
अवलोक कभी मुसकाना।
थी फूली नहीं समाती।
मन बनता था मतवाला॥4॥
थी कभी चूमती उनको।
थी कभी बलाएँ लेती।
थी कभी उमगकर उनपर।
निज रीझ वार थी देती।
बन-बन सुरपुर-तरु-थाला॥5॥
पूछती कभी वह उनसे।
तुम क्यों हो हँसनेवाले।
जन-जन के मन नयनों में।
तुम क्यों हो बसनेवाले।
क्यों मुझपर जादू डाला॥6॥
फिर कहती, समझ गयी मैं।
तुम हो ढंगों में ढाले।
हो मस्त रंग में अपने।
हो सुन्दर भोले-भाले।
है भाव तुम्हारा आला॥7॥
फिर क्यों न सिरों पर चढ़ते।
औ' हार गले का बनते।
तो प्यारे न होता इतना।
जो नहीं महँक में सनते।
गुण ही है गौरववाला॥8॥
फल कैसे तरुवर पाते।
छवि क्यों मिलती औरों को।
तुम अगर नहीं होते तो।
तितलियों चपल भौंरों को।
पड़ जाता रस का लाला॥9॥
क्यों दिशा महँकती मिलती।
क्यों वायु सुरभि पा जाती।
क्यों कंठ विहग का खुलता।
क्यों लता कान्त हो पाती।
क्यों महि बनती रस-शाला॥10॥
हैं मुझे लुभाते खगरव।
हैं मत्त मयूर नचाते।
मधु-ऋतु के ह-भ तरु।
हैं मुझे विमुग्ध बनाते।
है मन हरती घन-माला॥11॥
हैं ललचाती लतिकाएँ।
लहरें उठ सरस सरों में।
हैं ता बहुत रिझाते।
है जिनके कान्त करों में।
नभतल का कुंजी-ताला॥12॥
पर तुम्हें देखकर जितना।
है चित्त प्रफुल्लित होता।
जो प्रेम-बीज मानस से।
है भाव तुम्हारा बोता।
वह है निजता में ढाला॥13॥
इसलिए कौन है तुम-सा।
जिसको जी सदा सराहे।
सब काल निछावर हो-हो।
चौगुनी चाह से चाहे।
कम गया न देखा-भाला॥14॥
(10)
भर धूल सब दिशाओं में।
उसमें ऑंधी आती है।
छा जाता है ऍंधिकयाला।
थरथर कँपती छाती है॥1॥
ऑंखें रजमय होती हैं।
हा-हा-ध्वनि सुन पड़ती है।
धुन उठते हैं कोमल दल।
तरु-सुमनावलि झड़ती है॥2॥
वह कभी मरुस्थल-जैसा।
है रस-विहीन बन जाता।
बालुका-पुंज रूखापन।
है नीरस उसे बताता॥3॥
उसको तमारि की आभा।
यद्यपि है कान्त बनाती।
पर बिना सरसता वह भी।
है अधिक तप्त कर पाती॥4॥
वह कभी वारिनिधिक-जैसा।
है गर्जन करता रहता।
उत्ताकल तरंगाकुल हो।
फेनिल बन-बन है बहता॥5॥
हो तरल सरल कोमलतम।
है पवि पविता का पाता।
वह सुधा-विधायक होते।
है बहुविध गरल-विधाता॥6॥
है दुरारोह गिरिवर-सा।
अति दुर्गम गह्नर-पूरित।
नाना विभीषिका-आकर।
विधिक सरल विधन विदूरित॥7॥
है तदपि उच्च वैसा ही।
वैसा ही बहु छविशाली।
वैसा ही गुरुता-गर्वित।
वैसा ही मणिगण-माली॥8॥
है शरद-व्योम-सा सुन्दर।
गुणगण तारकचय-मंडित।
कल कीत्तिक-कौमुदी-विलसित।
राकापति-कान्ति-अलंकृत॥9॥
उसके समान ही निर्मल।
अनुरंजनता से रंजित।
उसके समान ही उज्ज्वल।
नाना भावों से व्यंजित॥10॥
है प्रकृति-तुल्य ही वह भी।
नाना रहस्य अवलम्बन।
बहु भेद-भरा अति अद्भुत।
भव अविज्ञेय अन्तर्धान॥11॥
जग जान न पाया जिनको।
हैं उसमें ऐसे जल-थल।
जिसका न अन्त मिल पाया।
है अन्तस्तल वह नभ-तल॥12॥
कमलिनी
(11)
वही तुझे भा जाय भाँवरें जो भर जावे।
वही गले लग जाय जो मधुर गान सुनावे।
क्या है यह कमनीय काम तू सोच कमलिनी।
जो अलि चाहे वही रसिक बन रस ले जावे॥1॥
तन कितना है मंजु, रंग कितना है न्यारा।
बन जाता है खिले बहु मनोहर सर सारा।
कमल समान नितान्त कान्त पति तूने पाया।
क्यों कुरूप अलि बना कमलिनी! तेरा प्यारा॥2॥
कर लंपटता तनिक नहीं लज्जित दिखलाता।
काला कुटिल अकान्त चपल है पाया जाता।
अरी कमलिनी! कौन कलंकी है अलि-जैसा।
फिर वह कैसे वास हृदय-तल में है पाता॥3॥
खिली कली जो मिली उसी पर है मँड़लाता।
थम जाता है वहीं, जहाँ पर रस पा जाता।
कैसे जी से तुझे कमलिनी! वह चाहेगा
जिस अलि का रह सका नहीं अलिनी से नाता॥4॥
वह अवलोक न सका, नहीं अनुभव कर पाया।
इसीलिए क्या पति ने तुझसे धोखा खाया।
अलि को कर रस-दान और आलिंगन दे-दे।
क्यों कलंक का टीका सिर पर गया लगाया॥5॥
क्यों मर्यादा-पूत लोचनों में खलती है।
क्यों रस-लोलुप भ्रमर रंगतों में ढलती है।
विकसित तुझे विलोक प्रफुल्लित जो होता है।
क्यों तू ऐसे कमल को कमलिनी! छलती है॥6॥
रज के द्वारा उसे नहीं अंधा कर पाती।
चम्पक-कुसुम समान धाता है नहीं बताती।
जो न कमलिनी वेध सकी काँटों से अलि को।
कैसे तो है वदन कमल-कुल को दिखलाती॥7॥
रस-लोलुप है एक अपर रखती रस-प्यारेला।
दोनों ही का रंग-ढंग है बड़ा निराला।
मधुकर से क्यों नहीं कमलिनी की पट पाती।
है यह मधु-आगार और वह मधु-मतवाला॥8॥
मनोवेदना-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
(12)
चौपदे
थे ऐसे दिवस मनोहर।
जब सुख-वसंत को पाकर।
वह बहुत विलसती रहती।
लीलाएँ ललित दिखाकर॥1॥
आमोद कलानिधि सर से।
था तृप्ति-सुधा बरसाता।
आकर विलास-मलयानिल।
उसको बहु कान्त बनाता॥2॥
पा सुकृति सितासित रातें।
वह थी अति दिव्य दिखाती।
रस-सिक्त ओस की बूँदें।
उसपर मोती बरसाती॥3॥
अब ऐसे बिगड़ गये दिन।
जब है वह सूखी जाती।
रस की थोड़ी बूँदें भी।
हैं सरस नहीं कर पातीं॥4॥
बहु चिन्ताओं के कीड़े।
हैं नोच-नोचकर खाते।
घिरकर विपत्तिक के बादल।
हैं दुख-ओले बरसाते॥5॥
ऑंधियाँ वेदनाओं की।
उठ-उठ हैं बहुत कँपाती।
यह आशा-लता हमारी।
अब नहीं फूल-फल पाती॥6॥
अन्तर्नाद
(13)
चौपदे
करुणा का घन जब उठकर।
है बरस हृदय में जाता।
तब कौन पाप-रत मन में।
है सुरसरि-सलिल बहाता॥1॥
जब दया-भाव से भर-भर।
है चित्त पिघलता जाता।
तब कौन मुझे दुख-मरु का।
है सुधा-स्रोत कर पाता॥2॥
जब मेरा हृदय पसीजे।
ऑंखों में ऑंसू आता।
तब कौन पिपासित जन की।
मुझको है याद दिलाता॥3॥
जब मे अन्तस्तल में।
बहती है हित की धारा।
तब कौन बना देता है।
मुझको वसुधा का प्यारा॥4॥
पर-दुख-कातरता मेरी।
जब है बहु द्रवित दिखाती।
तब क्यों विभूतियाँ सारी।
सुरपुर की हैं पा जाती॥5॥
ताँबा सोना बन जाये।
जब जी में है यह आता।
तब कौन परसकर कर से।
है पारस मुझे बनाता॥6॥
जब सहज सदाशयता की।
वीणा उर में है बजती।
तब क्यों सुरपुर-बालाएँ।
हैं दिव्य आरती सजती॥7॥
जब मानवता की लहरें।
मानस में हैं उठ पाती।
तब दिव्य ज्योतियाँ कैसे।
जगती में हैं जग जाती॥8॥
पतिप्राण
(14)
चौपदे
क्या समझ नहीं सकती हूँ।
प्रियतम! मैं मर्म तुम्हारा।
पर व्यथित हृदय में बहती।
क्यों रुके प्रेम की धारा॥1॥
अवलोक दिव्य मुख-मण्डल।
थे ज्योति युगल दृग पाते।
अब वे अमंजु रजनी के।
वारिज बनते हैं जाते॥2॥
जब मंद-मंद तुम हँसते।
या मधुमय बन मुसकाते।
तब मम ललकित नयनों में।
थे सरस सुधा बरसाते॥3॥
जब कलित कंठ के द्वारा।
गंभीर गीत सुन पाती।
तब अनुपम रस की बूँदें।
कानों में थीं पड़ जाती॥4॥
जब वचन मनोहर प्यारे।
कमनीय अधर पर आते।
तब मे मोहित मन को।
थे परम विमुग्ध बनाते॥5॥
जब अमल कमल दल ऑंखें।
थीं पुलकित विपुल दिखाती।
तब इस वसुधा-तल को ही।
थीं सुरपुर सदृश बनाती॥6॥
क्यों है अमनोरम बनता।
अब सुख-नन्दन-वन मेरा।
कैसे विनोद-सितकर को।
दुख-दल-बादल ने घेरा॥7॥
उर में करुणा-घन उमड़े।
तुम बरस दयारस-धारा।
कितने संतप्त जनों के।
बनते थे परम सहारा॥8॥
कुछ भाव तुम्हा मन के।
जब कोमलतम बन पाते।
तब बहु कंटकित पथों में।
थे कुसुम-समूह बिछाते॥9॥
ऑंखों में आया पानी।
था कितनी प्यासे बुझाता।
उसकी बूँदों से जीवन।
था परम पिपासित पाता॥10॥
उस काल नहीं किस जन के।
मन के मल को था धोता।
जिस काल तुम्हारा मानस।
पावन तरंगमय होता॥11॥
वह अहित क्यों बने जिसने।
सीखा है परहित करना।
क्यों द्रवित नहीं हो पाता।
अनुराग-सलिल का झरना॥12॥
उपकार नहीं क्यों करता।
अवनीतल का उपकारी।
बन रवि-वियोगिनी कबतक।
कलपे नलिनी बेचारी॥13॥
मैं जीती हूँ प्रति दिन कर।
सा प्रिय कर्म तुम्हा।
तुम भूल गये क्यों मुझको।
मे नयनों के ता॥14॥
है यही कामना मेरी।
सेवा हो सफल तुम्हारी।
ललकित ऑंखें अवलोकें।
वह मूर्ति लोक-हितकारी॥15॥
पतिपरायणा
(15)
प्यारे मैं बहुत दुखी हूँ।
ऑंखें हैं आकुल रहती।
कैसे कह दूँ चिन्ताएँ।
कितनी ऑंचें हैं सहती॥1॥
मन बहलाने को प्राय:।
विधु को हूँ देखा करती।
पररूप-पिपासा मेरी।
है उसकी कान्ति न हरती॥2॥
शशि की कमनीय कलाएँ।
किसको हैं नहीं लुभाती।
किसके मानस में रस की।
लहरें हैं नहीं उठाती॥3॥
पर कान्त तुम्हारा आनन।
जब है आलोकित होता।
जिस काल कान्ति से अपनी।
मानस का तम है खोता॥4॥
उस काल मुग्ध कर मन को।
जो छवि उस पर छा जाती।
रजनी-रंजन में कब है।
वैसी रंजनता आती॥5॥
विधु है स-कलंक दिखाता।
मुख है अकलंक तुम्हारा।
फिर कैसे वह बन पाता।
मे प्राणों का प्यारा॥6॥
कितने कमलों को देखा।
नभ के ता अवलोके।
दिनमणि पर ऑंखें डालीं।
मैंने परमाकुल हो के॥7॥
पर नहीं किसी में मुख-सी।
महनीय कान्ति दिखलाई।
कमनीयतमों में भी तो।
मैंने कम कमी न पाई॥8॥
कैसे जुग फूटा मेरा।
प्रतिकूल पड़े क्यों पासे।
प्रियतम क्यों वदन विलोकें।
दृग रूप-सुधा के प्यासे॥9॥
रूप और गुण
(16)
अरविन्द-विनिन्दक मुखड़ा।
मन को है मधुप बनाता।
वह बन मयंक-सा मोहक।
है मोहन मंत्र जगाता॥1॥
लोकोपकार कर मुख पर।
जो ललित कान्ति है लसती।
उसमें भव-शान्ति-विधायक।
सुरपुर-विभूति है बसती॥2॥
अति सुन्दर सहज रसीले।
बहु लोच-भ जन-लोचन।
मधु हैं मानस में भरते।
कर कुसुमायुधा-मद-मोचन॥3॥
जो पर-दुख-कातरता-जल।
है जन-नयनों में आता।
वह व्यथा-भरित वसुधा को।
है सुधा-सिक्त कर पाता॥4॥
मद किसको नहीं पिलाता।
मादक ऑंखों का कोना।
है किसको नहीं नचाता।
तिरछी चितवन का टोना॥5॥
उससे भरती रहती है।
पावन रुचि की शुचि प्यारेली।
जिस दृग में है दिखलाती।
लोकानुराग की लाली॥6॥
जब आरंजित होठों पर।
है सरस हँसी छवि पाती।
तब नीरस मानस में भी।
है रस की सोत बहाती॥7॥
रहती है सुजन-अधर पर।
जो वर विनोद की धारा।
वह सिता-सदृश हरती है।
अपचिति रजनी-तम सारा॥8॥
है रूप विलास सदन धन।
बहुविध विनोद अवलम्बन।
जल-लोचन रुचिर रसायन।
संसार स्वर्ग नन्दन वन॥9॥
गुण है उदार संयत तम।
उत्सर्ग सलिल सुन्दर घन।
अन्तस्तल पूत उपायन।
सद्भाव सुमन चय उपवन॥10॥
है रूप मोहमय मोहक।
महि मादकता का प्यारेला।
लीनता ललाम-निकेतन।
कमनीय काम-तरु-थाला॥11॥
गुण है गौरव गरिमा-रत।
हित-निरत नीति का नागर।
मानवता उर अभिनन्दन।
सुख-निलय सुधा का सागर॥12॥
वह है भव-भाल कलाधर।
जो है कल कान्ति विधाता।
यह है शिव-शिर-सरि का जल।
जो है जग-जीवन-दाता॥13॥
पुलकित विलसित आलोकित।
है लोक-रूप से लालित।
गौरवित प्रभावित उपकृत।
भव है गुण से परिपालित॥14॥
ले रूप मुग्धता सम्बल।
करता है जन-अनुरंजन।
गुण है विवेक से बनता।
अज्ञान - अंधा - दृग - अंजन॥15॥
कान्त कल्पना
(17)
रंग गोरा हो या काला।
मुख बने, मन से मन भाये।
असुन्दर बनता है सुन्दर।
हृदय की सुन्दरता पाये॥1॥
असित अकलित लोहे जैसे।
वदन थे बने प्रकृति-कर से।
दमकते वे कुन्दन-से मिले।
मंजु-उर पारस के परसे॥2॥
जब रुचिरता अपनी रीझे।
रुचिर रुचि है उसमें भरती।
तब अमंजुलता आनन की।
लाभ मंजुलता है करती॥3॥
जब सदाशयता-सी उज्ज्वल।
विधु-विभा बनती है सजनी।
नयन-रंजन तब करती है।
कलित हो कुरूपता-रजनी॥4॥
जब अशोभनता तप-ऋतु पा।
रस-रहित बनता है आनन।
तब सरस उसको करता है।
बरस रस सदाचार-सा घन॥5॥
सजाता है उस मुख तरु को।
छिनी जिसकी छवि-हरियाली।
मंजुतम मानस-कुसुमाकर।
ले अमायिकता कुसुमाली॥6॥
उस कुमुख को कल करता है।
नहीं जिस पर सुषमा होती।
निकल करुणामय मानस से।
ऑंसुओं का मंजुल मोती॥7॥
कालिमा मुख की हरती है।
लालिमा लोहित चावों की।
कान्त कुवदन को करती है।
कान्ति कोमलतम भावों की॥8॥
निरीक्षण
(18)
दिव्यता पा जाती है कान्ति।
मिले विधुवदनी का मृदु हास।
बनाता है तन को कनकाभ।
कामिनी का कमनीय विलास॥1॥
गात-छवि-सरि का सरस प्रवाह।
रूप-सर का कर-विलसित आप।
मुख-कमल का है कान्तविकास।
कामिनीकुल का केलि-कलाप॥2॥
कामिनी-भौंहों को कर बंक।
तानता है कमनीय कमान।
बनाकर लोचन को बहु लोल।
मारता है कुसुमायुधा बान॥3॥
सुछवि-सरसी का है कलकंज।
किसी मोहक मुखड़े का भाव।
रूप-तरु का है सरस-वसंत।
अंगना का बहु रसमय हाव॥4॥
रसिकता में भर-भर-कर रीझ।
डालता है किस पर न प्रभाव।
मुग्धता को करता है मत्त।
भामिनी-मुखभंगी का भाव॥5॥
कला से हो जाता है मंजु।
लोक - रंजनता - रजनी - अंक।
बनाता है मुख-नभ को कान्त।
कामिनी-विभ्रम मंजु मयंक॥6॥
भाव में भर सुरलोक-विभूति।
बढ़ा मुख-मंजुलता का मोल।
दृगों में भरता है पीयूष।
किसी ललना का कान्त कलोल॥7॥
लोचनों में भर-भरकर लोच।
मुग्ध मन को मोती से तोल।
बहाती है रस सरस प्रवाह।
मृगदृगी लीलाओं से लोल॥8॥
मर्मवेधा
(19)
त्याग कैसे उससे होगा।
न जिसने रुचि-रस्सी तोड़ी।
खोजकर जोड़ी मनमानी।
गाँठ सुख से जिसने जोड़ी॥1॥
एकता-मंदिर में वह क्यों।
जलायेगी दीपक घी का।
कलंकित हुआ भाल जिसका।
लगा करके कलंक-टीका॥2॥
मोह-मदिरा पीकर जिसने।
लोक की मर्यादा टाली।
संगठन नाम न वह लेवे।
गठन की जो है मतवाली॥3॥
नहीं वसुधा का हित करती।
लालसा-लालित भावुकता।
लोक-हित ललक नहीं बनती।
किसी की इन्द्रिय-लोलुपता॥4॥
गले लग विजातीय जन के।
जाति-ममता है जो खोती।
कमर कस वह समाज-हित की।
राह में काँटे है बोती॥5॥
नाम ले विश्वबंधुता का।
विलासों को जिसने चाहा।
आप जल किसी अनल में वह।
सगों को करती है स्वाहा॥6॥
गीत समता के गा-गाकर।
विषमता जो है दिखलाती।
बहक यौवन-प्रमाद से वह।
जाति-कंटक है बन जाती॥7॥
बहाना कर सुधार का जो।
बीज मौजों के है बोती।
क्यों नहीं उसने यह समझा।
सुधा है सीधु नहीं होती॥8॥
किसी का हँसता मुखड़ा क्यों।
किस जी पर जादू डाले।
किसी का जीवन क्यों बिगड़े।
पड़े पापी मन के पाले॥9॥
लाज रख सकीं न यदि ऑंखें।
किसलिए उठ पाईं पलकें।
गँवा दें क्यों मुँह की लाली।
किसी कुल-ललना की ललकें॥10॥
मधुप
(20)
कर सका कामुक को न अकाम।
कमलिनी का कमनीय विकास।
कर सका नहीं वासना-हीन।
वासनामय को सुमन-सुवास॥1॥
विहँसता आता है ऋतुराज।
साथ में लिये प्रसून अनन्त।
हुआ अवनीतल में किस काल।
चटुल उपचित चाहों का अन्त॥2॥
फूल फल दल के प्यारेले मंजु।
दिखाते हैं रसमय सब ओर।
हुई कब तजकर लाभ अलोभ।
तृप्ति की ललक-भरी दृग-कोर॥3॥
कामनाओं की बढ़े विभूति।
चपलतर होता है चित-चाव।
प्रलोभन अवलम्बन अनुकूल।
ललाता है लालायित भाव॥4॥
मत्तता आकुलता का रूप।
लालसाओं का अललित ओक।
उदित होता है मानस मध्य।
मधुप की लोलुपता अवलोक॥5॥
समता-ममता
(21)
कालिमा मानस की छूटी।
हुआ परदा का मुँह काला।
टल गया घूँघट का बादल।
विधु-वदन ने जादू डाला॥1॥
पड़ा सब पचड़ों पर पाला।
बेबसी पर बिजली टूटी।
बेड़ियाँ कटीं बंधानों की।
गाँस की बँधी गाँठ छूटी॥2॥
बजी वीणा स्वतंत्रता की।
गुँधी हित-सुमनों की माला।
सुखों की बही सरस धारा।
छलकता है रस का प्यारेला॥3॥
रंगतें नई रंग लाईं।
हो गया सारा मन भाया।
धूप ने जैसा ही भूना।
मिल गयी वैसी ही छाया॥4॥
प्यारे से गले लगा करके।
चूमती है उसको क्षमता।
स्वर्ग-जैसा कर सुमनों को।
विहँसती है समता-ममता॥5॥
कौन
(22)
चाल चलते रहते हैं लोग।
चाह मैली धुलती ही नहीं।
खुटाई रग-रग में है भरी।
गाँठ दिल की खुलती ही नहीं॥1॥
न जाने क्या इसको हो गया।
फूल-जैसा खिलता ही नहीं।
खटकता रहता है दिन-रात।
दिल किसी से मिलता ही नहीं॥2॥
कम नहीं ठहराया यह गया।
पर ठहर पाया भूल न कहीं।
लाग किससे इसको हो गयी।
लगाये दिल लगता ही नहीं॥3॥
है सदा जहर उगलना काम।
कसर किसकी रहती है मौन।
गले मिलने की क्यों हो चाह।
खोलकर दिल मिलता है कौन॥4॥
स्वार्थी संसार
(23)
सुन लें बातें जिस-तिसकी।
कब किसने मानी किसकी॥1॥
है यही चाहती जगती।
वह हो जिसको माने मन।
औरों की इसके बदले।
नप जाय भले ही गरदन।
है उसे न परवा इसकी॥2॥
है चाह स्वार्थ में डूबी।
है उसे स्वार्थ ही प्यारा।
वह तो मतलब गाँठेगी।
कोई मिल गये सहारा।
अमृत हो चाहे ह्निसकी॥3॥
फूलों से कोमल दिल पर।
लगती सदमों की छड़ियाँ।
कब भला देख पाती हैं।
औरों के दुख की घड़ियाँ।
पथराई ऑंखें रिस की॥4॥
तब उतर गये लाखों सिर।
जब चलीं सितम-तलवारें।
बह गईं लहू की नदियाँ।
जब हुईं करारी वारें।
पर सुनी गयी कब सिसकी॥5॥
हैं मार डालती उनको।
हैं जिन्हें नेकियाँ कहते।
लेती हैं जानें उनकी।
जो नहीं साँसतें सहते।
ऐंठे हैं गाँठें बिस की॥6॥
कुल मेल जोल पर इसका।
है रंग चढ़ा दिखलाता।
मतलब को धीरे-धीरे।
सामने देखकर आता।
कब नहीं मुरौअत खिसकी॥7॥
कैसे वह यह सोचेगा।
है अपना या बे-गाना।
काँटा निकाल देना है।
ढूँढ़ेगा क्यों न बहाना।
चढ़ गईं भवें हैं जिसकी॥8॥
दिल के फफोले
(24)
क्यों टूट नहीं पाती हैं।
क्यों कड़ी पड़ गईं कड़ियाँ।
क्यों नहीं कट सकी बेड़ी।
क्यों खुलीं नहीं हथकड़ियाँ॥1॥
क्यों गड़-गड़ हैं दुख देती।
सुख-पाँवों में कंकड़ियाँ।
क्यों हैं बेतरह जलाती।
नभ-मंडल की फुलझड़ियाँ॥2॥
क्यों बिगड़ी ही रहती हैं।
मे घर की सब घड़ियाँ।
क्यों काट-काट हित-राहें।
ए बनती हैं लोमड़ियाँ॥3॥
क्यों बहुत तंग करती हैं।
मुझको कितनी खोपड़ियाँ।
क्या नहीं देख पाती है।
मेरी टूटी झोंपड़ियाँ॥4॥
हैं ओस-बिन्दु टपकाती।
क्या कमलों की पंखड़ियाँ।
ये हैं ऑंसू की बूँदें।
या हैं मोती की लड़ियाँ॥5॥
किसलिए छिला दिल मेरा।
क्यों लग जाती हैं छड़ियाँ।
क्यों बीत नहीं पाती हैं।
रोती रातों की घड़ियाँ॥6॥
मनो मोह
(25)
अब उर में किसलिए वह घटा नहीं उमड़ती आती।
सरस-सरस करके जो बहुधा मोती बरसा पाती।
वे मोती जिनसे बनती थी गिरा-कंठ की माला।
जिन्हें उक्ति मंजुल सीपी ने कांत अंक में पाला॥1॥
अब मानस में नहीं विलसते भाव-कंज वे फूले।
जिन पर रहते थे मिलिन्द-सम मधुलोलुप जन भूले।
बार-बार लीलाएँ दिखला नहीं विलस बल खाती।
अब भावुकता कल्पलता-सी कभी नहीं लहराती॥2॥
मन-नन्दन-वन अहह अब कहाँ वह प्रसून है पाता।
जिसका सौरभ सुरतरु सुमनों-सा था मुग्ध बनाता।
उदधिक-तरंगों-जैसी अब तो उठतीं नहीं तरंगें।
वैसी ही उल्लासमयी अब बनतीं नहीं उमंगें॥3॥
हो पुरहूत-चाप आरंजित जैसा रंजन करता।
जैसे उसमें रंग कान्त कर से है दिनकर भरता।
वैसी ही रंजिनी किसलिए नहीं कल्पना होती।
क्यों अनुरंजन-बीज अब नहीं कृति अवनी में बोती॥4॥
सरस विचार-वसंत क्यों नहीं बहु कमनीय बनाता।
हृदय-विपिन किसलिए नहीं अब वैसा वैभव पाता।
कैसे इस थोड़े जीवन में पडे सुखों के लाले।
रस-विहीन किसलिए बन गये मे रस के प्यारेले॥5॥
दुखिया के दुखड़े
(26)
बुलाये नींद नहीं आती।
रात-भर रहती हूँ जगती।
किसी से ऑंख लगाये क्यों।
लगाये ऑंख नहीं लगती॥1॥
रंग अपना बिगाड़कर क्यों।
रंग में उसके रँगती है।
लग नहीं जो लग पाता है।
लगन क्यों उससे लगती है॥2॥
निछावर क्यों होवें उसपर।
प्यारे करना उससे कैसा?
दूस के जी को जिसने।
नहीं समझा निज जी-जैसा॥3॥
किसलिए उसके लिए अबस।
कलपता दुख सहता है जी।
चुरा करके मे जी को।
जो चुराता रहता है जी॥4॥
राह पर कभी न जो आया।
निहारें क्यों उसकी राहें।
हमें जो नहीं चाहता है।
चाहतें क्यों उसको चाहें॥5॥
भला उससे कैसे बनती।
बहुत जो बात बनाता है।
बसे वह कभी न ऑंखों में।
सदा जो ऑंख बचाता है॥6॥
याद कर किसी मनचले को।
न ऑंखों से ऑंसू बरसें।
तरस जो कभी नहीं खाता।
न उसके तरसाये तरसें॥7॥
मतलबी दुनिया होती है।
कराहें क्यों भर-भर ऑंखें।
प्यारे से प्यारे नहीं होता।
न दिल को दिल से हैं राहें॥8॥
पते की बात
(27)
मसलते हुए कलेजे से।
मसलते नहीं कलेजे जब।
तब किसी के दिखलाने को।
निकाले गये कलेजे कब॥1॥
राह दिल से ही है दिल को।
प्यारे ही प्यारे कराता है।
लगन ही लगन लगाती है।
जोड़ता नाता नाता है॥2॥
ऊबते की आहें
(28)
जो जी की कली खिला दे।
हैं भाव न उठते वैसे।
जब हँसी नहीं आती है।
तब हँसें तो हँसें कैसे॥1॥
ऑंखों में जो बस पाती।
सूखे न कभी वह क्यारी।
जिसमें थे फूल फबीले।
क्यों उजड़े वह फुलवारी॥2॥
क्यों उनको हवा उड़ाये।
फूटे न कभी उनका दल।
थे सरस बनाते सबको।
रस बरस-बरस जो बादल॥3॥
थे जिसे देख रीझे ही।
रहते थे जिनके ता।
उन प्यारे-भरी ऑंखों को।
किसलिए चाँदनी मा॥4॥
क्यों रहा नहीं वह अपना।
जो ऑंखों में बस पाता।
किसलिए आग वह बोवे।
जो चाँद सुधा बरसाता॥5॥
वे बनें पराये क्यों जो।
सब दिन अपने कहलाये।
कैसे तो हवा न बिगड़े।
जो हवा हवा बतलाये॥6॥
जिसको मैंने सींचा था।
जो था मीठे फल लाया।
अब वही आम का पौधा।
कैसे बबूल बन पाया॥7॥
जिसमें पड़ता रहता था।
सब स्वर्ग-सुखों का डेरा।
कैसे है उजड़ा जाता।
अब वन नन्दन-वन मेरा॥8॥
किसलिए धारा सुध-बुध खो।
है रत्न हाथ के खोती।
क्यों नहीं समुद्र-तरंगें।
अब हैं बिखेरती मोती॥9॥
क्या डूब जाएगा सचमुच।
निज तेज गँवाकर सारा।
नीचे गिरता जाता है।
क्यों मेरा भाग्य-सितारा॥10॥
मोह
(29)
किसने कैसा जादू डाला।
लोचन-हीन बन गया कैसे युगल विलोचनवाला।
किस प्रकार लग गया वचन-रचना-पटु मुख पर ताला।
क्यों कल कथन कान करते कानों को हुआ कसाला।
कैसे हरित-भूत खेती पर पड़ा अचानक पाला।
छिन्न हुई क्यों सुमति-कंठ-गत सुरुचि-सुमन की माला॥1॥
बना क्यों मन इतना मतवाला।
टपक रहा है बार-बार क्यों छिले हृदय का छाला।
पीते रहे कभी पुलकित बन सरस सुधा का प्यारेला।
आज कंठ हैं सींच न पाते पड़ा सलिल का लाला।
क्यों ऍंधिकयाला बढ़ा, छिना क्यों छिति-तल का उँजियाला।
किसने पेय मधुरतर पय में गरल तरलतम डाला॥2॥
शार्दूल-विक्रीडित
(30)
होता कम्पित था सुश जिनसे जो विश्व-आतंक थे।
थे वृन्दारक-वृन्द-वंद्य भव में जो भूति-सर्वस्व थे।
वे हैं आज कहाँ कृतान्त-मुख ही में हैं समाये सभी।
संसारी समझे, कहे, फिर क्यों संसार निस्सार है॥1॥
ता हैं पद चूमते, तरणि में है तेज मेरा भरा।
मैं हूँ विश्व-विभूति भूतपति भी है भीति से काँपता।
क्या हैं ए दिवि देव दिव्य मुझसे? मैं दिव्यता-नाथ हूँ।
मैं हूँ अन्तक का कृतान्त, मैं ही श्रीकान्त-सा कान्त हूँ॥2॥
खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, क्यों बन्द ऐसे हुए।
हा लोग जगा-जगा न, तब भी क्यों नींद है टूटती।
क्यों हैं आलस से भरे, न सुनते हैं दूसरों की कही।
खोके भी सुधिक देह गेह जन की हैं लोग क्यों सो रहे॥3॥
क्यों सोचूँ जब सोच हूँ न सकता, जाऊँ कहाँ, क्या करूँ।
काटे है कटता न बार बहुधा मैं हूँ महा ऊबता।
होती है गत रात तारक गिने, है नींद आती नहीं।
होते चेत, अचेत है चित हुआ, चिन्ता चिता है बनी॥4॥
धू-धू है जलती विपन्न करती है धूम की राशि से।
ऑंचें दे लपटें उठा हृदय में है आग बोती सदा।
देती है कर भस्म गात-सुख को, मज्जा लहू मांस को।
चेते, है जन-चेत में धधकती, है चित्त चिन्ता चिता॥5॥
पाती जो न प्रतीति प्राणपति में तो प्रीति होती नहीं।
जो होते रस-हीन तो सरसता क्यों साथ देती सदा।
जो होती उनमें नहीं सदयता होते द्रवीभूत क्यों।
जो होता उर ही न सिक्त, दृग में ऑंसू दिखाते नहीं॥6॥
लेती है वह लुभा लोभ-मन को, है मोह को मोहती।
जाती है बन कोप की सहचरी, है काम के काम की।
है पूरी करती अपूर्व कृति से वांछा अहंकार की।
कैसे तो न क प्रपंच जब है धीरे पंच-भूतात्मिका॥7॥
वे हैं भीत बलावलोक पर का, जो थे बडे ही बली।
देखे दर्पित सैन्य-व्यूह जिनका दिग्पाल थे काँपते।
वे हैं आज बचे हुए दशन के नीचे दबा दूब को।
जो तोड़ा करते दिगन्त दमके दिग्दन्ति के दंत को॥8॥
ऊँचे भाल विशाल दिव्य दृग में भ्रू-भंगिमा भूति में।
नासा-कुंचन में कपोल युग में लाली-भ होठ में।
नाना हास-विलास कंठ-रव में अन्यान्य शेषांग में।
बाला बालक चित्त की चपलता है चारुता अर्चिता॥9॥
बातें हैं उसको पसंद अपनी, क्यों दूस की सुने।
जो मैं हूँ कहता उसे न करके है भागती जी बचा।
है रूठा करती कभी झगड़ती है तान देती कभी।
थी मेरी मति तो नितान्त अचला यों चंचला क्यों हुई॥10॥
होता है पल में विकास, पल में है दृष्टि आती नहीं।
छू के है बहु जीव प्राण हरती, है नाचती नग्न हो।
कोई बात सुने सहस्र श्रवणों में है उसे डालती।
देखी है चपला समान चपला भू-दृष्टि ने क्या कहीं॥11॥
नेता हैं, पर नीति स्वार्थ-रत हैं, है कीत्तिक की कामना।
प्यारा है उनको स्वदेश, पर है बाना विदेशी बना।
वांछा है रँग जाय भारत-धारा योरोप के रंग में।
है सच्चा यदि देश-प्रेम यह तो है देश का द्रोह क्या॥12॥
है सत्कर्म-निकेत धर्म-रत है, है सत्यवक्ता सुधी।
है उच्चाशय कर्मवीर सुकृती सत्याग्रही संयमी।
है विद्या वर विज्ञता सदन, है धाता सदाचारिता।
तो होता दिवि देव जो मनुज में होती न मोहांधाता॥13॥
'मेरा' का महि में महान् पद है, 'मेरा' महामंत्र है।
देखे हैं सब राव-रंक किसका प्यारा 'हमारा' नहीं।
जादू है उनका सभी पर चला, हैं त्याग बातें सुनीं।
ऐसा मानव ही मिला न ममता-माया न मोहे जिसे॥14॥
व्यापी है विभु की विभूति भव में भू-भूति में भूत में।
तारों में, तृणपुंज में, तरणि में, राकेश में, णु में।
पाई व्यापक दिव्य दृष्टि जिसने धाता-कृपा-वृष्टि से।
पाता है वह पत्रा-पुष्प तक में सत्ता-महत्ता पता॥15॥
बातें क्यों करते कदापि मुँह भी तो खोल पाते नहीं।
कोई काम करें, परन्तु उनको है काम से काम क्या।
खायेंगे भर-पेट नींद-भर तो सोते रहेंगे न क्यों।
लेते हैं ऍंगड़ाइयाँ सुख मिले वे खाट हैं तोड़ते॥16॥
तो कैसे चल हाथ-पाँव सकते, चालें नहीं भूलते।
तो कैसे अंगड़ाइयाँ न अड़तीं, आती जम्हाई न क्यों।
तो वे टालमटोल क्यों न करते, हीले न क्यों ढूँढ़ते।
जो है आलस-चोर संग, श्रम से तो जी चुराते न क्यों॥17॥
थू-थू है करते विलोक रुचि को वे जो बड़े दान्त हैं।
छी-छी की ध्वनि है अजस्र पड़ती आ-आ उठे कान में।
देखे आनन को अभिज्ञ जनता है नेत्र को मूँदती।
रोती है मति, पाप-पंथ-रत को है ग्लानि होती नहीं॥18॥
पाते हैं तम में अड़ी दनुज की वक्रानना मूर्तियाँ।
होती हैं तरु के समीप निशि में नाना चुड़ैलें खड़ी।
बागों में विकटस्थलों विपिन में हैं भूत होते भरे।
है शंकामय सर्व सृष्टि बनती शंकालु शंका किये॥19॥
क्यों होवे तरु कम्पमान, लतिका म्लाना कभी क्यों बने।
क्यों वृन्दारक हो विपन्न, मलिना क्यों देवबाला लगे।
क्यों होवे अप्रफुल्ल कंज दलिता क्यों पुष्पमाला मिले।
आशंका मन को न हो, न मति को शंका क शंकिता॥20॥
है वैकुंठ-विलासिनी प्रियकरी, है कीत्तिक कान्ता समा।
हैं सारी जन-शक्तियाँ सहचरी, हैं भूतियाँ तद्गता।
है वांछा अनुगामिनी, सफलता है बुध्दिमत्तकश्रिता।
दासी है भव-ऋध्दि सत्य श्रम की, हैं सेविका सिध्दियाँ॥21॥
हैं साँसें यदि फूलती विकल हो, क्यों साँस लेने लगे।
क्यों हो आकुल हाथ-पाँव अपने ढीले क क्यों थके।
आयेगा जब कार्य, सिध्दि-पथ में पीछे हटेगा नहीं।
क्यों देखे श्रमबिन्दुपात, श्रम को क्यों त्याग देवे श्रमी॥22॥
लेते हैं यदि दून की, मत हँसो दूना कलेजा हुआ।
पृथ्वी थी वश में, परन्तु अब तो है हाथ में व्योम भी।
थे भूपाल तृणातितुच्छ अब हैं धाता विधाता स्वयं।
होंगे दो मद साथ तो न दुगुना होगा मदोन्माद क्यों॥23॥
भागेगा तम-तोम त्याग पद को, लेगी तमिस्रा बिदा।
होगी दूर कराल काल कर से दिग्व्यापिनी कालिमा।
आयेगी फिर मंद-मंद हँसती ऊषा-समा सुन्दरी।
होयेगा फिर सुप्रभात, वसुधा होगी प्रभा-मंडिता॥24॥
हो उत्पात, प्रवंचना प्रबल हो, होवें प्रपंची अड़े।
होवे आपद सामने, सफलता हो संकटों में पड़ी।
होता हो पविपात, तोप गरजें, गोले गिराती रहें।
क्यों तो धीर बने अधीर, उसकी धी क्यों तजे धीरता॥25॥
बाँधा था जिसने पयोधिक, जिसने अंभोधिक को था मथा।
पृथ्वी थी जिसने दुही, गगन में जो पक्षियों-सा उड़ी।
पाई थी जिसने अगम्य गिरि में रत्नावली-मालिका।
हा! धाता! वह आर्यजाति अब क्यों आपत्तिकयों में पड़ी॥26॥
है छाया वह जो सदैव तम में है रंग जाती दिखा।
होवे दिव्य अपूर्व, किन्तु वह तो है कल्पना मात्रा ही।
हों लालायित क्यों विलोक उसको जो हाथ आती नहीं।
है आपत्तिक यही किसे वह मिली जो स्वप्न-सम्पत्तिक है॥27॥
क्या सोचें, जब सोच हैं न सकते, है बात ही भेद की।
ऐसी है यह ग्रंथि-युक्ति, नख के खोले नहीं जो खुली।
है संसार विचित्र, चित्रा उसके वैचित्रय से हैं भ।
रोते हैं दुख को विलोक, सुख के या स्वप्न हैं देखते॥28॥
ऐसे हैं भव से अचेत, चित को है चेत होता नहीं।
होती है कम आयु नित्य, फिर भी तो हैं नहीं चौंकते।
देखा हैं करते विनाश, खुलती है ऑंख तो भी नहीं।
क्या जानें जग लोग हैं जग रहे या हैं पड़े सो रहे॥29॥
क्यों अज्ञान-महांधाकार टलता, क्यों बीत पाती तमा।
नाना पाप-प्रवृत्तिक-जात पशुता होती धारा-व्यापिनी।
द्रष्टा वैदिक मंत्र के, रचयिता भू के सदाचार के।
जो होते न जगे, न ज्योति जग में तो ज्ञान की जागती॥30॥
हैं उद्वेलित अब्धिक पैर सकती, हैं विश्व को जीतती।
लेती हैं गिरि को उठा, कुलिश को हैं पुष्प देती बना।
हैं लोकोत्तर कला-कीत्तिक-कलिता, हैं केशरी-वाहना।
हैं ता नभ से उतार सकती उत्साहिता शक्तियाँ॥31॥
रोकेगी तुझको स्वधर्म-दृढ़ता, धीरे पीट देगी तुझे।
तेरी सत्य प्रवृत्तिक पूत कर से होगी महा यातना।
होगा गर्व सदैव खर्व शुचिता की सात्तिवकी वृत्तिक से।
पावेगा फल महादर्प-तरु का ऐ पातकी पाप! तू॥32॥
होती है गतशक्ति प्राप्त प्रभुता आक्रान्त हो क्रान्ति से।
जाती है लुट दिव्य भूति, छिनता साम्राज्य है सर्वथा।
अत्याचार प्रकोप-वज्र बनता है वज्रियों के लिए।
होता है स्वयमेव खर्व पल में गर्वान्धा का गर्व भी॥33॥
तानें लें, पर ऐंठ-ऐंठ करके ताने न मारा करें।
गायें गीत, परंतु गीत अपने जी के न गाने लगें।
देते हैं यदि ताल तो मचल के देवें न ताली बजा।
वे हैं जो बनते, बनें, बिगड़ के बातें बनायें नहीं॥34॥
वे ही है हँसते न रीझ हँसना आता किसे है नहीं।
होता है कमनीय रंग उनका तो रंग हैं अन्य भी।
वे हैं कोमल, किन्तु कोमल वही माने गये हैं नहीं।
तो है भूल विलोक रूप अपना जो फूल हैं फूलते॥35॥
होता जो चित में न चोर, रहती तो ऑंख नीची नहीं।
होता जो मन में न मैल, दृग क्यों होते नहीं सामने।
जो टेढ़ापन चित्त में न बसता, सीधो न क्यों देखते।
जो आ के पति बीच में न पड़ती, ऑंसू न पीते कभी॥36॥
देता तो जल मैं निकाल दुखते होते नहीं हाथ जो।
तो धोता पग पूत क्यों न, लखते होते न जो दूर से।
कैसे आदर तो भला न करता है भाग्य ऐसा कहाँ।
मैं हूँ सेवक, किन्तु आज प्रभु की सेवा नहीं हो सकी॥37॥
क्यों हैं लोचन लाल रात-भर क्या मैं जागता था नहीं।
होते कम्पित क्यों न हस्त पग जो है आज जाड़ा बड़ा।
मैं हूँ हाँफ रहा, परंतु घर से हूँ दौड़ता आ रहा।
है इच्छा प्रतिशोधा की न मुझमें, मैं क्रोधा में हूँ नहीं॥38॥
काटे है कटती न रात, बकती हूँ, वेदना है बड़ी।
आशा से पथ-ओर हैं दृग लगे, क्यों देर है हो रही।
जाते हैं युग बने याम, व्यथिता हो हूँ व्यथा भोगती।
दौड़ो नाथ! बनो दयालु, दुखिता की दुर्दशा देख लो॥39॥
जी है ऊब रहा, उबार न हुआ, बाधा हुई बाधिकका।
मैं दौड़ी शत बार द्वार पर जा वांछा-विहीना बनी।
है मे मुँह से न बात कढ़ती, कैसे बताऊँ व्यथा।
ऑंखें भी पथरा गईं प्रिय पथी के पंथ को देखते॥40॥
थी जिनके बल से विशाल-विभवा संसार-सम्मानिता।
दिव्यांगा दिव-देव-भाव-भरिता लोकोत्तारा पूत-धी।
उत्कण्ठावश, हो विनम्र प्रभु से है प्रश्न मेरा यही।
पावेंगे फिर भारतीय जन क्या वे भारती भूतियाँ॥41॥
जो थोड़े उसके हितू मिल सके, वे नाम के हैं हितू।
या वे हैं अपवाद या कि उनमें है पालिसी पालिसी।
पाते हैं उसको नितान्त दलिता या दु:खिता पीड़िता।
कोई बन्धु बना न दीन जन का है दीनता दीनता॥42॥
खोया जो निज स्वर्गराज्य, दुख क्या, पाया मनोराज्य है।
कोई हो परतन्त्रा क्यों न, उनकी धी है स्वतन्त्राक बनी।
होवे संस्कृति धूल में मिल रही, वे संस्कृताधार हैं।
देखे भारत के सलज्ज सुत को निर्लज्ज लज्जा हुई॥43॥
जाती है बन सुधासिक्त वसुधा, है व्योम पाता प्रभा।
आती है अति दिव्यता प्रकृति में, है मोहती दिग्वधू।
होता है रस का प्रवाह छवि में संसार-सौन्दर्य में।
हो-हो मंजुल मन्द-मन्द उर में आनन्द-धारा बहे॥44॥
वे भू में नभ में अगम्य वन में निश्शंक हैं घूमते।
वे उत्ताकलतरंग वारिनिधिक में हैं पोत-सा पैरते।
वे हैं दुर्गम मार्ग में विहरते, हैं अग्नि में कूदते।
होते हैं अभिभूत वे न भय से, जो निर्भयों में पले॥45॥
जाते हैं बन भूत पेड़ तम में, है प्रेतगर्भा तमा।
होती है बहु भीति वक्र गति से या सर्प-फूत्कार से।
है हृत्कम्पकरी मसान अवनी है मृत्यु त्राकसात्मिका।
शंका है भय भाव भूति बनती है भीरुता भूतनी॥46॥
खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, है चेत आता नहीं।
जो कोई हित-बात है न सुनती, है चौंकती भी नहीं।
सा यत्न हुए निरर्थ, जिसकी दुर्बोधा हैं व्याधिकयाँ।
ऐसी जाति अवश्य मृत्यु-मुख में हो मूर्छिता है पड़ी॥47॥
खोजेगी वह कौन मार्ग, उसको त्राता मिलेगा कहाँ।
रोयेगी सिर पीट-पीट उसका उध्दार होगा नहीं।
जीयेगी वह कौन यत्न करके पीके सुधा कौन-सी।
जीने दे न कृतान्त-मूर्ति बनके जो जाति ही जाति को॥48॥
ऑंखें हैं, पर देख हैं न सकती, पा कान बे-कान है।
होते आनन बात है न कढ़ती है साँस लेती नहीं।
क्यों पाते चल हाथ-पाँव जब वे निर्जीव हैं हो गये।
फूँका जीवन-मन्त्रा, किन्तु जड़ता जाती नहीं जाति की॥49॥
हो उत्तोजित भाव मध्य पथ का होता पथी ही नहीं।
जाती है बन उक्ति ओज-भरिता तेजस्विता-पूरिता।
होता स्पंदन है विशेष उर तो क्यों स्फीत होगा नहीं।
है उद्वेग हुआ सदैव करता आवेग के वेग से॥50॥
होती है व्यथिता कभी विचलिता अत्यन्त भीता कभी।
रोती है वह कभी याद करके लोकोत्तारा कीत्तिकयाँ।
पुत्रों को अवलोक है विहँसती या दग्धा होती कभी।
हो कर्तव्यविमूढ़ जाति अब तो उन्मादिनी है बनी॥51॥
होता है मन, देख जीभ चलती, जो हो, उसे खींच लूँ।
पीटूँ क्यों न उसे तुरन्त कहता है बात जो बेतुकी।
जाता है चिढ़ चित्त चाल चलते चालाक को देख के।
जो ऑंखें निकलें निकाल उनको लूँ क्यों न तत्काल मैं॥52॥
हैं संतप्त अनेक चित्त बहुश: काया महारुग्न है।
भू सा उपसर्ग व्योम तक में हैं भूरिता से भ।
पीड़ा से सुर भी बचे न भव में है द्रास भी मृत्यु भी।
सारी संसृति आधिक से मथित है, है व्याधिक-बाधावृता॥53॥
देती हैं तन को कँपा अति व्यथा, होती अनाहूत हैं।
हैं हा-हा ध्वनि का प्रसार करती, हो भूरि उत्ताकपिता।
देता है बहु कष्ट वेग उनका उत्पात-मात्राक बढ़ा।
अंधाधुंधा मचा सदैव बनती हैं व्याधिकयाँ ऑंधिकयाँ॥54॥
है काँपा करती कभी तड़पती है चोट खाती कभी।
प्राय: है वह वज्रपात सहती हो-हो महा दग्धिकता।
हो उद्वेजित अब्धिक से, बदन से है फेंकती फेन भी।
हा धाता! किस पाप से वसुमती है भूरि उत्पीड़िता॥55॥
नवम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सांसारिकता
(1)
स्वभाव
गोद में ले रखता है प्यारे।
सरस बन रहता है अनुकूल।
मुदित हो करती है मधुदान।
भ्रमर से क्या पाता है फूल॥1॥
धारा कर प्रबल पवन का संग।
भरा करती है नभ में धूल।
गगन बरसाता है वर वारि।
बनाकर वारिद को अनुकूल॥2॥
सदा दे-दे सुन्दर फल-फूल।
विटप करता है छाया-दान।
वृथा कोमल पत्तों को तोड़।
पथिक करता है तरु-अपमान॥3॥
ओस की बूँदों को ले रात।
सजाती है तरु को कर प्यारे।
दिवस लेकर किरणों को साथ।
छीन लेता है मुक्ता-हार॥4॥
प्यारे से भर विलोक प्रियकान्ति।
पास आता है मत्त पतंग।
जलाकर कर देता है राख।
स्नेहमय दीपक भरित-उमंग॥5॥
बोल तक सका नहीं मुँह खोल।
दूर ही रहा सब दिनों सूर।
रागमय ऊषा कर अनुराग।
माँग में भरती है सिन्दूर॥6॥
पपीहा तज वसुधा का वारि।
ताकता है जलधार की ओर।
बरसकर बहुधा उपल-समूह।
डराता है घन कर रव घोर॥7॥
पला सब दिन कोकिल का वंश।
काक के कुल का पाकर प्यारे।
आज तक कोकिल-कुल-संभूत।
कर सका कौन काक उपकार॥8॥
(2)
विचित्र विधन
मिला जिससे जीवन का दान।
सतत कर उसी तेल का नाश।
निज प्रिया बत्ती को कर दग्धा।
दीप पाता है परम प्रकाश॥1॥
जी सके जिनसे पा रवि ज्योति।
उन्हीं पत्रों के हो प्रतिकूल।
विटप बनते हैं बहु छविधाम।
लाभ कर नूतन दल-फल-फूल॥2॥
हुआ है जिससे जिसका जन्म।
जो बना जीवन शान्ति-निकुंज।
धूल में उसी बीज को मिला।
अंकुरित होता है तरुपुंज॥3॥
छीनकर तारक-चय की कांति।
भव भरित तम पर कर पविपात।
सहस कर से हर विधु का तेज।
भानु पाता है प्रिय अवदात॥4॥
कुमुद-कुल को कर कान्ति-विहीन।
कौमुदी-उर पर कर आघात।
हरण कर रजनी का सर्वस्व।
प्रभा पाता है दिव्य प्रभात॥5॥
वायु की शीतलता को छीन।
आपको देकर बहु संताप।
दिशाओं में भर पावक पुंज।
प्रबल बनता है तप उत्ताकप॥6॥
अवनि में नभतल में भर धूल।
द्रुमावलि को दे-दे बहु दंड।
हरण करके अगणित प्रिय प्राण।
वात बनता है परम प्रचंड॥7॥
दमन करके दल दुर्दमनीय।
विपुल नृप-भुज-बल का बन काल।
लोक में भर प्रभूत आतंक।
प्रबलतम बनता है भूपाल॥8॥
(3)
राजसत्ता
मुकुट होता है शोणित-सिक्त।
राज-पद नर-कपाल का ओक।
घरों में भरता है तमपुंज।
राजसिंहासन का आलोक॥1॥
बंधुओं का कर शोणित-पान।
नहीं उसको होता है क्षोभ।
पिता का करता है बलिदान।
किसी का राज्य-लाभ का लोभ॥2॥
झूमता चलता है जिस काल।
काँपता है अचला सब अंग।
मसलता है जन-मानस-पाल
र्श्नि
दमन का बरसे ज्वलदंगार।
मनुज-कुल का होता है लोप।
धारातल को करता है भस्म।
प्रलय-पावक-समान नृप-कोप॥4॥
भंग करके सद्भाव समेत।
मनुजता का अनुपम-तम अंग।
नर-रुधिकर से रहता है सिक्त।
सुरंजित राजतिलक का रंग॥5॥
बना बहु प्रान्तों को मरुभूमि।
विविध सुख-सदनों का बन काल।
जनपदों का करता है धवंस।
राजभय प्रबल भूत-भूचाल॥6॥
लोक में भरती हैं आतंक।
लालसाओं की लहरें लोल।
भग्न करते हैं भवहित-पोत।
राज्य-अधिकार-उदधिक-कल्लोल॥7॥
गर्व-गोलों से कर पवि-पात।
अरि-अनी का करती है लोप।
कँपाती है महि को कर नाद।
राज्य-विस्तार-वृत्तिक की तोप॥8॥
(4)
सेमल की सदोषता
पाकर लाल कुसुम सेमल-तरु रखता है मुँह की लाली।
रहती है सब काल लोक-अनुरंजन-रत उसकी डाली।
नभतल नील वितान-तले जब उसके सुमन विलसते हैं।
तब कितने ही ललक-निकेतन जन-नयनों में बसते हैं॥1॥
मंद-मंद चल मलय-मरुत जब केलि-निरत दिखलाता है।
तब लालिमा-लसित कुसुमों का कान्त केतु फहराता है।
लोहित-वसना उषा विलस जब उसे अंक में लेती है।
सरस प्रकृति जब द्रवीभूत हो मुक्तावलि दे देती है॥2॥
तब वह फूला नहीं समाता, आरंजित बन जाता है।
सहृदय जन के मधुर हृदय में रस का स्रोत बहाता है।
हरित नवल दल उसके कुसुमों में जब शोभा पाते हैं।
जब उसपर पड़ दिनकर के कर कनक-कान्ति फैलाते हैं॥3॥
जब कोकिल को ले स्वअंक में वह काकली सुनाता है।
जब उस पर बैठा विहंग-कुल मीठे स्वर से गाता है।
तब वह किसको नहीं रिझाता, किसको नहीं लुभाता है।
किसको नहीं स्वरित हो-होकर विपुल विमुग्ध बनाता है॥4॥
अति चमकीली चारु मक्खियाँ तथा तितलियाँ छविवाली।
रंग-बिरंगे सुन्दुर-सुन्दर बहु पतंग शोभाशाली।
जब प्रसून का रस पी उड़-उड़ मंजु भाँवरें भरते हैं।
तब क्या नहीं मुग्धकारी निधिक उसको वितरण करते हैं॥5॥
तो भी कितने हृदयहीन जन वंचक उसे बनाते हैं।
कितने नीरस फल विलोक उसको असरस बतलाते हैं।
पर विचित्रता क्या है इसमें, भूतल को यह भाता है।
धारती में प्राय: पर का अवगुण ही देखा जाता है॥6॥
(5)
दुरंगी दुनिया
अजब है रंगत दुनिया की।
बदलती रहती है तेवर।
किसी पर सेहरा बँधाता है।
उतर जाता है कोई सर॥1॥
किसी का पाँव नहीं उठता।
किसी को लग जाते हैं पर।
धूल में मिलता है कोई।
बरसता फूल है किसी पर॥2॥
(6)
निर्मम संसार
वायु के मिस भर-भरकर आह।
ओस-मिस बहा नयन-जलधार।
इधार रोती रहती है रात।
छिन गये मणि-मुक्ता का हार॥1॥
उधार रवि आ पसार कर कान्त।
उषा का करता है शृंगार।
प्रकृति है कितनी करुणा-मूर्ति।
देख लो कैसा है संसार॥2॥
(7)
उत्थान
अहह लुट गया ओस का कोष।
हो गया तम का काम तमाम।
कुमुद-कुल बना विनोद-विहीन।
छिना तरु-दल-गत मुक्ता-दाम॥1॥
हर गया रजनी का सर्वस्व।
छिपा रजनी-रंजन बन म्लान।
हुआ तारक-समूह का लोप।
दिवाकर! यह कैसा उत्थान॥2॥
(8)
फल-लाभ
चुन लिये जाते हैं लाखों।
अनेकों नुचते रहते हैं।
करोड़ों वायु-वेग से झड़।
विपद-धारा में बहते हैं॥1॥
धूल में मिलते हैं कितने।
बहुत-से विकस न पाते हैं।
सभी का भाग्य नहीं जगता।
सब कुसुम कब फल लाते हैं॥2॥
(9)
मन की मनमानी
अड़े, बखेड़े खड़े हो गये।
पीछे पड़े, न किसे पछाड़ा।
डटे, बताई डाँट न किसको।
झझके, बड़े-बड़ों को झाड़ा॥1॥
उलझे, किसे नहीं उलझाया।
सुलझ न पाता है सुलझाये।
तिनके, बना बना तिनकों से।
फूँक से गये लोग उड़ाये॥2॥
आग-बगूले बने, कब नहीं।
किसके दिल में पड़े फफोले।
खिचें खिंच गयी हैं तलवारें।
बमके, चलते हैं बमगोले॥3॥
चिढ़े, सताता है वह इतना।
जिसे देखकर कौन न दहला।
ऐंठे, किससे लिया न लोहा।
दिया लहू से किसे न नहला॥4॥
बहँके, बला पर बला लाया।
कुढ़े, विपद ढाये देता है।
तमके, किसका कँपा कलेजा।
नहीं वह निकाले लेता है॥5॥
खीज, लहू पीती रहती है।
डाह, दूह लेती है पोटी।
तेवर बदले, कितनों ही की।
नुच जाती है बोटी-बोटी॥6॥
बिगड़े, बहुतों की बिगड़ी है।
अकड़े, लुटते लाखों घर हैं।
सनके, खालें है खिंच जाती।
झगड़े, कटे करोड़ों सर हैं॥7॥
रह जाती हैं, मति की बातें।
बनकर पानी पर की खा!
जब देखा तब नर के मन को।
मनमानी ही करते देखा॥8॥
(10)
स्वार्थ
कौन किसी का होता है।
स्वार्थसिध्दि के सरस खेत में प्यारे-बीज नर बोता है।
सब छूटे वह हथकंडों से हाथ भला कब धोता है।
पोत दूसरों को दे मोती अपने लिए पिरोता है।
सग से भी सग को दुख देते तनिक नहीं मन रोता है।
मोह ऍंधोरी रुचि-रजनी में सुख की नींदों सोता है।
जिससे पड़े स्वार्थ में बाधा जो वैभव को खोता है।
वह प्रिय सुत भी ऑंख फोड़नेवाला बनता तोता है।
सुख-सरवर के लिए नहीं बन पाता जो रस-सोता है।
है ऐसा उर कौन कि जिसमें काँटे नहीं चुभोता है।
हुई न परवा पर-मन को निज मन की रोटी पोता है।
निज सुख-साधा-तरंगों में पर-सुख का पोत डुबोता है।
स्वार्थ-भाव से ही उजड़ा दिव-भाव-विहंगम-खोता है।
उसके कर ने मसि मानवता रुचिर चित्रा पर पोता है॥1॥
(11)
रक्तपात
रक्तरंजित है भव-इतिहास।
रुधिकर-पान के बिना नहीं बुझ पाती है वसुधा की प्यासे।
है विकराल काल कापालिक क्रीडा-रत ले विपुल कपाल।
काली बहुत किलकिलाती है मुंडमालिनी बन सब काल।
जो शिवशंकर कहलाते हैं कार्य उन्हीं का है संहार।
शव-वाहना प्रिया है, उनका सिंह-वाहना से है प्यारे।
दुर्गा-दानव-रण में इतना हुआ रक्त-प्लावित भूअंक।
एक पिपासित खग ने गिरि पर बैठे रुधिकर पिया निश्शंक।
राम और रावण आहव में उतना हुआ न रक्त-प्रवाह।
फिर भी खग ने मेरु से उतर पूरी की थी शोणित-चाह।
कहाँ हुआ, कब हुआ, हुआ किससे, भारत-सा युध्द महान।
रक्तपान की बात क्या, विहँग सका नहीं इतना भी जान।
यद्यपि यह प्रतिपादित करता है यह कल्पित समर-प्रसंग।
अतिशय पशुता-निर्दयता-पूरित था आदिम युध्द-उमंग।
किसी अंश में विबुध विवेचक मति सकती है इसको मान।
किन्तु सत्य है यह, दानव मानव दोनों हैं एक समान।
अवसर पर दानवता करते कब मानवता हुई सशंक।
लाखों घर लुट गये, करोड़ों कटे-पिटे होते भूर बंक।
कभी राज्य-विस्तार-लालसा ले कठोर कर में करवाल।
लाख-लाख लोगों का लोहू करती है कर ऑंखें लाल।
कभी आत्म-रक्षण-निमित्त अथवा आतंक-प्रसारण-हेतु।
प्रबल प्रताप किसी का बनता है जग-जन-उत्पीड़न-केतु।
निरपराध हैं पिसे करोड़ों, अरबों दिये गये हैं भून।
अनायास नुच गये कोटिश: सुन्दर-सुन्दर खिले प्रसून।
क्यों? इसलिए कि किसी नराधाम नृप के ये थे प्यारे खेल।
अथवा किसी पिशाच-प्रकृति का चिढ़ से उठ पाया था शेल।
लाखों के लोहू से गारा बन-बन हुए हरम तैयार।
धार्मान्तर के लिए करोड़ों शिर उत, चमकी तलवार।
वैज्ञानिक बहु अस्त्रा-शस्त्रा अब जितने करते हैं उत्पात।
विधवंसक रणपोत आदि से होते हैं जितने अपघात।
वायुयान-गोला-वर्षण से होता है जो हा-हाकार।
देखे नगर-धवंसिनी तोपों की वसुधातल में भरमार।
कैसे कह सकता है कोई, दानव-युग था महादुरन्त।
सच तो यह है, दुर्जनता का होता नहीं दिखाता अंत।
अधिक सभ्य अमरीका योरप को सब लोग रहे हैं मान।
आज इन्हीं को प्राप्त हो गये हैं वसुधा के सब सम्मान।
किन्तु इन्हीं देशों में अब है सा कल-बल-छल का राज।
स्वार्थसिध्दि के रचे गये हैं नाना साधन कर बहु ब्याज।
इसीलिए रणचंडी की है वहाँ गर्जना परम प्रचंड।
होता है यह ज्ञात युध्द से कम्पित होवेगा भूखंड।
क्या है यही विधन प्रकृति का, क्या है शिव का यही स्वरूप।
क्या विकराल काल काली के तांडव का ही है यह रूप।
जो हो, किन्तु देखकर सारी घटनाएँ होता है ज्ञात।
शाक्तिवृध्दि औ स्वार्थसिध्दि का मूल मंत्र है शोणित-पात॥1॥
(12)
मतवाली ममता
मानव-ममता है मतवाली।
अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली।
अपनी ही रंगत में रँगकर रखती है मुँह-लाली।
ऐसे ढंग कहाँ वह जैसे ढंगों में है ढाली।
धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर ऑंखें डाली।
अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखीभाली।
अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली।
फूल बखे देती है औरों पर उसकी गाली।
भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली।
कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोलीभाली॥1॥
(13)
बल
विश्व में है बल ही बलवान।
कौन पूछता है अबलों को, सबलों का है सकल जहान।
जल में, थल में, विशद गगन में एकछत्रा है उनका राज।
सफल सुसेवित सम्मानित है उनका उन्नत प्रबल समाज।
होते हैं विलोप पल-भर में अगणित ताराओं के ओक।
प्रभा-हीन बनता है शशधार रवि का तेज:-पुंज विलोक।
विभावरी तजती है विभुता, उज्ज्वल हो जाता है व्योम।
दिनमणि का प्रताप-बल देखे विदलित होता है तमतोम।
हुई धारा शासित सबलों से, नभ में उड़े विजय के केतु।
किसी सबल कर के द्वारा ही बाँधा गया सिन्धु में सेतु।
दुर्बल छोटे जीव बड़े सबलों के बनते हैं आहार।
दिखलाते हैं जल में थल में प्रतिदिन ऐसे दृश्य अपार।
तनबल जनबल धनबल विद्याबुध्दिबलादिक का सम्मान।
कहाँ नहीं कब हुआ, सब जगह ए ही माने गये महान।
जीवनमय है सबल पुरुष, जीवन-विहीन है निर्बल लोक।
निर्बलता है तिमिर, सबलता है वसुधातल का आलोक॥1॥
(14)
अनर्थ-मूल स्वार्थ
स्वार्थ ही है अनर्थ का मूल।
औरों का सर्वस्व-हरण कर कब उसको होती है शूल।
तबतक सुत सुत है वनिता वनिता है उनसे है बहु प्यारे।
स्वार्थदेव का उनके द्वारा जबतक होता है सत्कार।
अन्तर पड़े चली दारा सुत की ग्रीवा पर भी तलवार।
कटी भाइयों की भी बोटी, हुई पिता पर भी है वार।
अवलोकन के लिए अन्य का दुख वह होता है जन्मांधा।
तोड़ा करता है उसका हठ-प्लावन नीति-नियम का बाँधा।
कोई कटे पिटे लुट जावे छिने किसी के मुँह का कौर।
किसी का कलेजा निकले या जाय रंक बन जन-सिरमौर।
मसल जाय लालसा किसी की, किसी शीश पर हो पविपात।
किसी लोकपूजित के उर में लगे किसी पामर की लात।
इन बातों की कुछ भी परवा उसने किसी काल में की न।
तड़प-तड़पकर कोई चाहे बने बिना पानी का मीन।
सौ परदों में छिपकर भी करता रहता है अपना काम।
अवसर पर सब सद्भावों से वह बदला करता है नाम।
छल-प्रपंच का वह पुतला है, वह पामरता की है, मूर्ति।
अधाम कौन उसके समान है, वह है सब पापों की पूत्तिक।
किन्तु जगत के प्राणिमात्रा के उर पर है उसका अधिकार।
हो असार संसार पर वही है सा सारों का सार।
बड़े-बड़े त्यागी अवलोके, देखा बहुत बड़ों का त्याग।
ऐसे मिले महाजन जिनमें हरि का था सच्चा अनुराग।
किन्तु स्वार्थ उनमें भी पाया, हाँ, बहु परवर्तित था रूप।
सरस सुधा से सिक्त हुआ था संसारी का नीरस पूप।
जीवन का सर्वस्व स्वार्थ है, बिना स्वार्थ का क्या संसार।
इसीलिए है प्राणिमात्रा पर उसका बहुत बड़ा अधिकार।
किन्तु मानवी दुर्बलता का हुआ न उससे सद्व्यवहार।
इसी हेतु वह बना हुआ है अत्याचारों का आधार।
जिसका सृजन हुआ करने को सा जीवों का उपकार।
बहुत दिनों से बना हुआ है वही अनर्थों का आगार।
प्रकृति-क्रियाएँ हैं रहस्यमय, अद्भुत है भव-पारावार।
मनुज पार पा सका न उसका यद्यपि हुआ प्रयत्न अपार।
(15)
स्वार्थपरता
स्वार्थपरता है पामरता।
यह है सत्य तो कहेंगे हम किसे कार्य-तत्परता।
नाना बाधाएँ हैं सम्मुख, भय-संकुल है धारती।
विविध असुविधाएँ आ-आकर सुविधाएँ हैं हरती।
जो उनका प्रतिकार न होगा, कार्य सिध्द क्यों होगा।
यत्न ज्ञात हो तो कोई दुख क्यों जायगा भोगा।
दुरुपयोग है बुरा सदा, है सदुपयोग उपकारी।
कुपथ त्यागकर सतत सुपथ का बने मनुज अधिकारी।
स्वार्थ रहेगा जबतक समुचित निन्द्य बनेगा कैसे।
पर न कनक-मुद्रा कहलायेंगे ताँबे के पैसे॥1॥
(16)
दानव
पापी है वह माना जाता।
कर अपकार कुपथ पर चल जो पाप-परायणता है पाता।
जो है विविध प्रपंच-विधाता जो है मूर्तिमान मायावी।
जिसकी मति है लोक-धवंसिनी, जिसका मद है शोणित-स्रोवी।
अहंभाव जिसका है यम-सा, जिसके कौशल हैं पवि-जैसे।
नीति नागिनी-सी है जिसकी उसमें है मानवता कैसे।
कौन उसे मानव मानेगा जिसे काल कहती है जनता।
दानव अन्य है न, दानवता कर मानव है दानव बनता॥1॥
(17)
नरता और पशुता
उस नरता से पशुता भली।
विधिक-विडम्बना से जो पामरता पलने में पली।
पशुता ने कब नरता की-सी टेढ़ी चालें चली।
कब उसके समान ही वह कुत्सित ढंगों में ढली।
नरता दुर्मति-ज्वालाओं में जैसी जनता जली।
उसके भय से पड़ी जनपदों में जैसी खलबली।
जैसी उसने रोकी भयभीतों की रक्षित गली।
वैसी की है कब पशुता ने, वह कब भव को खली।
नरता लाई बला लोक पर दे-दे मिसरी-डली।
पशुता से यों भोली जनता कहाँ गयी कब छली।
पशुता में वह शक्ति कहाँ, हों पास भले ही बली।
नरता-दर्पों से वसुन्धारा गयी नहीं कब दली॥1॥
(18)
जीव का जीवन जीव
जीवों का जीवन है जीव।
यह जीवन-संग्राम जगत का है कौतूहल-जनक अतीव।
जल-थल-अनल-अनिल में नभ में होता रहता है दिन-रात।
कोटि-कोटि जीवों का पल-पल कोटि-कोटि जीवों से घात।
छोटे-छोटे कीट बड़े कीटों के बनते हैं आहार।
बड़े-बड़े कीटों को खाते रहते हैं खग-वृन्द अपार।
निर्बल खग को पकड़-पकड़कर पलते हैं सब सबल सचान।
पशु-समूह में भी मिलता है विधिक का यही विचित्र विधन।
बड़ी मछलियाँ छोटी मछली को खा जाती हैं तत्काल।
बड़ी मछलियों को लेता है मकर उदर में अपने डाल।
ऐसे अद्भुत दृश्य अनेकों दिखलाता है वारिधिक-अंक।
वह सब काल बना रहता है महाकाल का प्रिय पर्यंक।
बड़े-बड़े विकराल जीव का होता है पल-भर में लोप।
उसको उदरसात करता है किसी प्रबल का महाप्रकोप।
मनुज-उदर है किसी पयोनिधिक से भी बृहत् और गम्भीर।
जिसमें समा सके हैं जग के सभी जीव धार विविध शरीर।
स्वजातीय को भी पामर नर खा जाता है सर्प-समान।
इतर प्राणियों-सा है वह भी, बने भले ही ज्ञान-निधन।
बलवानों की है वसुन्धारा, बलवानों का है संसार।
निर्बल मिटते हैं, होती है सदा सबल की जय-जयकार।
प्रकृति-नटी के रंगमंच के सकल दृश्य हैं बड़े विचित्र।
कोई नहीं समझ पाता है उसके चित्रिकत चित्रा चरित्रा॥1॥
(19)
जगत-जंजाल
हैं भव-जाल जगत-जंजाल।
भूलभुलैयाँ की-सी उसकी भूल-भरी है चाल।
नाना अवसर विविध परिस्थिति बाधाएँ विकराल।
सदा समाने ला देती हैं परम अवांछित काल।
विविध प्रकृतियों के मानव देते हैं झंझट डाल।
कोप न होगा क्यों वैरी को देख बजाते गाल।
है वह पामर जो न सके अपना सर्वस्व सँभाल।
सबसे अधिक विचारणीय है भव में भूति-सवाल।
होगा वह न अकण्टक जो पथ-कंटक सका न टाल।
वह असि-वार सहेगा जिसके पास न होगी ढाल।
विधिक-प्रपंच-कृत गरल-सुधामय है वसुधा का थाल।
जटिल क्या, जटिलतम है जग के जंजालों का हाल॥1॥
(20)
शार्दूल-विक्रीडित
व्याली-सी विष से भरी विषमता आपूरिता क्रोधाना।
अन्धाकधुन्धा-परायणा कुटिलता की मूर्ति व्याघ्रानना।
है अत्यन्त कठोर उग्र अधामा, है लोक-संहारिणी।
है दुर्दान्त नितान्त वज्र-हृदया स्वार्थान्धाता-दानवी॥1॥
होती है मधुरा सुधा-सरसता से सिंचिता शोभना।
नाना केलि-निकेतना सुवसना शांता मनोज्ञा महा।
लीला लोल तरंगिता उदधिक-सी चिन्तांकिता आकुला।
है सांसारिकता महान गहना मोहान्धाता-आवृता॥2॥
कांक्षा है अनुरक्त भक्त जन को सद्भक्ति या मुक्ति की।
ज्ञानी को बहु ज्ञान की, विबुध को लोकोत्तारा बुध्दि की।
त्यागी को अनुभूत त्याग-सुख की, योगीन्द्र को सिध्दि की।
है सांसारिकता न स्वार्थ-रहिता, निस्स्वार्थता है कहाँ॥3॥
मैं हूँ ब्रह्म-समान व्याप्त सबमें, हूँ सर्वलोकेश्वरी।
हूँ अद्भुत समस्त भूति खनि, हूँ सर्वार्थ की साधिकका।
हूँ सारी वसुधा-विभूति-जननी, हूँ शक्ति-संचारिणी।
है सांसारिका पुकार कहती, मैं स्वार्थसर्वस्व हूँ॥4॥
होती है सुख-कामनातिप्रबला है लालसा-लोलुपा।
प्यारे हैं भव-भोग, मुग्ध करती हैं भूयसी भूतियाँ।
तो भी है वह प्रेम, प्रेम? जिसमें है इन्द्रियासक्तता।
तो क्या हैं हितपूर्तियाँ यदि बनीं वे स्वार्थ की मूर्तियाँ॥5॥
सा धर्म-समाज भूमितल के जो दंभसर्वस्व हैं।
पाते हैं जिनमें महाविषमता जो द्वेष-उन्मेष हैं।
जो हैं गौरव गर्व ईति जिनमें है वृत्तिक-उन्मत्ताता।
क्या वे हैं परमार्थ-मूर्ति जिनमें स्वार्थान्धाता है भरी॥6॥
उत्फुल्ला सरसा नितान्त मधुरा शान्ता मनोज्ञा महा।
नाना भाव-निकेतना विविधता आधारिता व्यंजिता।
हो अम्भोधिक-समान वैभवमयी हो व्योम-सी विस्तृता।
है सांसारिकता विहार करती सर्वत्र संसार में॥7॥
बातें हों मन की मिले सफलता सम्पत्तिक स्वायत्ता हो।
पूरी हो प्रिय कामना, सुगमता से सिध्दियाँ प्राप्त हों।
बाधाएँ सब काल बाधिकत बनें, हो वैरिता वंचिता।
ए हैं मानव की नितान्त रुचिरा स्वाभाविकी वृत्तिकयाँ॥8॥
क्या खाये-पहने क स्वहित क्यों मुद्रा कमाये न जो।
जायेगा लुट जो न बुध्दि-बल से टाले बलाएँ टलीं।
होगा रक्षित भी न ईति अथवा दुर्नीतियों से दबे।
संसारी फिर क्यों न जन्म जग में ले स्वार्थ-सर्वस्व हो॥9॥
वे हैं धान्य परार्थ त्याग करते जो लोग हैं स्वार्थ का।
ऐसे हैं कितने, परन्तु उनका तो त्याग ही स्वार्थ है।
होता है परमार्थ पूत उसमें है भूरि स्वर्गीयता।
तो भी क्या परमार्थ सार्थक नहीं जो अर्थ है स्वार्थ में॥10॥
कोई है जग में भला न, यह तो कोई कहेगा नहीं।
संसारी फिर भी प्रमत्त रहता है स्वार्थ की सिध्दि में।
कच्चे काम पड़े सगे बन गये, सच्चे न सच्चे रहे।
देखा जो दृग खोल बोल सुन के तो ढोल में पोल थी॥11॥
हैं ऐसे जन भी हुए जगत में जो त्याग-सर्वस्व थे।
देवों से अति पूत दिव्य जिनकी हैं मानवी कीत्तिकयाँ।
जाँचा तो उनकी असंख्य जन में संख्या गिनी ही मिली।
लाखों में कुछ लोग पुण्यबल से माने महात्मा गये॥12॥
ज्ञाता वैदिक मन्त्रा के प्रथमत:, धाता धारा-धर्म के।
नाना मान्य महर्षि विज्ञ मुनि से मन्वादि से दिव्य-धीरे।
मेधावी कपिलादि से विबुधता-सर्वस्व व्यासादि से।
पृथ्वी ने कितने जने सुअन हैं उद्बुध्द सिध्दार्थ-से॥13॥
मूसा-से जरदश्त-से अरब के नामी नबी-से सुधी।
शिंटो धर्मधुरीण-से कुछ गिने चीनादि के सिध्द-से।
ऐसे ही कुछ अन्य धर्मगुरु-से धार्माग्र्रणी व्यक्ति से।
हैं अत्यल्प हुए सदैव महि में ईसादि-से सद्व्रती॥14॥
है अधयात्म महा पुनीत, तम में है तेज के पुंज-सा।
है विज्ञान विकासमान नभ का पीयूषवर्षी शशी।
है स्वार्थान्धा-विलोचनांजन तथा सद्भाव-अंभोधिक है।
है आधार त्रिकलोक-शान्ति-सुख का सद्बोधा-सर्वस्व है॥15॥
होती है जब पाप-पूरित धारा सद्वृत्तिक उत्पीड़िता।
पाती है पशुता प्रसार बनती स्वार्थान्धाता है कशा।
होता है जब नग्न नृत्य दनुजों के दानवी कृत्य का।
आता है तब मही-मध्य बहुधा कोई महा-दिव्य-धी॥16॥
होता है वह देश-काल प्रतिभू सत्याग्रही संयमी।
देता है बहु दिव्य ज्योति जगती के प्राणियों में जगा।
लेता है बिगड़ी सुधार, करता उध्दार है धर्म का।
पाती है वसुधा अलौकिक सुधा सद्बोधा-सर्वस्व से॥17॥
कोई हो अवतार दिव्य जन हो या हो महा सात्तिवकी।
शिक्षा हो उसकी महा हितकरी, हो उक्ति लोकोत्तारा।
होंगे क्या तब भी सभी रुचिरधीरे, त्यागी, तपस्वी, यती।
क्या होगी तब भी समस्त वसुधा हो शान्त स्वर्गोपमा॥18॥
है स्वाभाविक कामना स्वहित की, है वित्ता-वांछा बली।
प्राणी की सुख-लालसा सहज है, है चित्त स्वार्थी बड़ा।
पंजे में इनके सदा जग रहा, कैसे भला छूटता।
वे हैं विश्वजनीन भूति यदि ए संसार-सर्वस्व हैं॥19॥
क्या है मुक्ति? यथार्थ ज्ञान इसका है प्राणियों को कहाँ।
कोई मानव हो रहस्य इसका है जान पाता कभी।
चिन्ता है किसको नहीं उदर की है जीविका जीवनी।
प्यारी है उतनी न मुक्ति जितनी है भुक्ति भू की प्रिया॥20॥
ऑंखें हैं छवि-कांक्षिणी, श्रवण है लोभी सदालाप का।
जिह्ना है रस-लोलुपा, सुरभि की है कामुका नासिका।
सारी प्रेय विभूति को विषय को हैं इन्द्रियाँ चाहती।
जाता है बन योग रोग, किसको है भोग भाता नहीं॥21॥
तो है कौन विचित्र बात मन में जो है भरी मत्तता।
है आश्चर्य नहीं मनुष्य बनता जो स्वार्थ-सर्वस्व है।
जो है जीव ममत्व से भरित तो क्या है हुआ अन्यथा।
क्या है भौतिकता न भूत-चय की स्वाभाविकी प्रक्रिया॥22॥
होती है तम-मज्जिता मलिनता-आपूरिता ज्यों तमा।
त्यों ही मानव की प्रवृत्तिक रहती है स्वार्थ से आवृता।
जैसे तारक से मयंक-कर से पाती निशा है प्रभा।
त्यों ही है वर बोध से नृमति भी है दिव्य होती कमी॥23॥
आचार्यों महिमा-महान पुरुषों से प्राप्त सद्वृत्तिकयाँ।
होती हैं उपकारिका हितकरी सद्बोधा-उत्पादिका।
वे हैं आकर यथाकाल करते उद्बुध्द संसार को।
तो भी स्वार्थ-प्रवृत्तिक-वृत्तिक जनता है त्याग पाती नहीं॥24॥
है आवश्यक वस्तु व्यस्त रखती देती व्यथा है क्षुधा।
बाधा है सब काल व्याधिक बनती है वैरिता बेधाती।
है दोनाकर बाँधाती विवशता, है व्यर्थता बाँट में।
प्राणी स्वार्थनिबध्दा दृष्टि-सुपथों में विस्तृता क्यों बने॥25॥
ऐसे हैं महि में मिले सुजन भी जो त्याग की मूर्ति थे।
लोगों का हित था निजस्व जिनका जो थे परार्थी बड़े।
ए लोकोत्तर धर्मप्राण जन ही भू दिव्य आदर्श हैं।
होते हैं अपवाद, लोक कितने ऐसे मिले लोक में॥26॥
औरों का मुँह-कौर छीन, भरते हैं पेट भूखे हुए।
लोगों की विविध विभूति हरते हैं, भीति होती नहीं।
होते हैं बहु लोग तृप्त बहुधा पीके सगों का लहूँ।
होवे क्यों न अधर्म, स्वार्थ इतना है धर्म प्यारा किसे॥27॥
माता हैं महि देवता, पर हुए भीता कलंकांक से।
हाथों से अपने अबोध सुत का है घोंट देती गला।
जो थे देव-समान, संकट पड़े, वे दानवों-से बने।
कोई हो उपलब्धा आत्महित को है त्याग पाता नहीं॥28॥
वेदों की भव-वन्दनीय श्रुति को शास्त्राकदि के मर्म को।
सन्तों की शुचि उक्ति को जगत के सध्दार्म के मन्त्रा को।
जाती है तब भूल भक्ति-पथ को विज्ञान की वृत्तिक को।
होती है जब मत्त आत्मरति की वांछा बलीयान हो॥29॥
कानों ने कलिकाल के कब सुनी ऐसी महागर्जना।
हो पाई कब यों कठोर रव से शब्दायमाना दिशा।
हो पाया किस देश मध्य उतना कोलाहलों को बढ़ा।
होता है अब वज्रघोष जितना भू में अहंभाव का॥30॥
सा भूतल में समुद्र-जल में युध्दाग्नि-ज्वाला जगा।
ओले से नभ-यान से दव-भ गोले गिरा प्रायश:।
नाना दानवता-प्रपद्बच-वलिता दुर्वृत्तिकयों को बढ़ा।
है भूलोक-विलोक-साधन-व्रती लिप्सा अहंभाव की॥31॥
नाना नूतन अस्त्रा-शस्त्रा तुपकें गोले बड़े विप्लवी।
हैं संहारक कोटि-कोटि जन के कल्पान्त के अर्क-से।
होते हैं उनसे विनष्ट नगरों के वृन्द तत्काल ही।
है विज्ञान-विभूति आज वसुधा-उद्भूति-विधवंसिनी॥32॥
छाये हैं बहु व्योमयान नभ में जो काल-से क्रूर हैं।
हो-हो हुंकृत ओत-प्रोत निधिक हैं संग्राम के पोत से।
पृथ्वी में उन्मादपूर्ण बजती है द्वंद्व की दुन्दुभी।
प्राय: है अब भ्रान्ति क्रांति बनती, भूशान्ति भागे कहाँ॥33॥
अत्याचार-रता कठोर-हृदया है रक्तपानोत्सुका।
है संहार-परायणा पवि-समा मांसाशिनी पापिनी।
नाना मानव-वंश-धवंस-निरता निन्द्या कृतान्तोपमा।
है कृत्या सम कूटनीति-कटुता-आपूरिता मेदिनी॥34॥
है पाथोधिक विभूति दान करता स्वायत्ता है सिंधुजा।
पृथ्वी है वर्शवत्तिकनी अनुगता है दामिनी शासिता।
पंखा है झलता समीर, मुसका देता सुधा है शशी।
फूला है बन भाव-मत्त, भव को, भूला अहंभाव है॥35॥
होवे जो हित पाप से वह उसे तो पुण्य है मानता।
अत्याचार किये मिले यदि धारा तो क्या सदाचार है।
जो हो लाभ किये कुवृत्तिक तब क्यों सद्वृत्तिक सद्वृत्तिक है।
है सांसारिकता न ईश्वर-रता, है स्वार्थसिध्दिप्रदा॥36॥
ज्ञाता होकर विश्वव्याप्त विभु के जो हैं बने पातकी।
ऑंखें जो नर की बचा प्रभु-दृगों में धूल हैं झोंकते।
जो हो आस्तिक मूर्तिमान बनते हैं नास्तिकों के चचा।
वे हैं ईश्वर मानते, मन भला क्यों मान लेगा इसे॥37॥
होती है कब भीति लोकपति की काटे करोड़ों गले।
आता है कब धयान पूत प्रभु का संसार को पीसते।
काँपा कौन नृशंस सर्वगत के सर्वाश्रितों को सता।
हारी ईश्वरसिध्दि कर्मपथ में आस्वार्थ की सिध्दि से॥38॥
हृद्या ईश्वरता हुई न इतनी हो मुक्ति से मंडिता।
पाके दिव्य मनोज्ञ मूर्ति जितनी भाई अहंमन्यता।
प्यारी हैं उतनी कभी न लगती आधयात्मिकी वृत्तिकयाँ।
भाती है जितनी विभूति-रत को भू भौतिकी प्रक्रिया॥39॥
प्राणी है अनुरक्त भक्त जितना संसार-सम्पत्तिक का।
प्यारी है उतनी उसे न तपसा-सम्बन्धिकनी साधना।
भोगेच्छा जितनी रुची, प्रिय लगी वांछा सुखों की यथा।
वैसी ही कब त्यागवृत्तिक नर की आकांक्षिता हो सकी॥40॥
होता है पर-कार्य पूत, जनता का श्रेय सत्कर्म है।
तो भी त्राकण-निमित्त आत्महित का उद्बोधा ही मुख्य है।
होवे मुक्ति महा विभूति, फिर भी है भुक्ति ही जीवनी।
सच्चा हो परलोक, किन्तु मिलता आलोक है लोक में॥41॥
होता देख महा अनर्थ बनता कोई परार्थी नहीं।
होते भी अपकार कौन करता सत्कार है अन्य का।
मर्यादा प्रिय है किसे न, किसको है नाम प्यारा नहीं।
सत्ता है किसकी न भूति, किसको भाती महत्ता नहीं॥42॥
बाधा की हरती अबाधा गति है धीरे धीरता से भरी।
वैरी के बल को विलोप करती हैं वीरता-वृत्तिकयाँ।
देती है कर छिन्न-भिन्न उसको सत्ता-महत्ता दिखा।
दुष्टों की पशुता-प्रवृत्तिक सहती है शक्तिमत्तक नहीं॥43॥
जोड़े क्यों हित क्रुध्द क्रूर नर से पा प्रार्थिता शक्तियाँ।
मोड़े क्यों मुख, रुष्ट दुष्ट जन को कोड़े लगाये न क्यों।
छोड़े क्यों छल-छ-र्सि र्खंल को दे क्यों न धुर्रे उड़ा।
तोडे क्यों न कृतान्त-तुल्य बन के दुर्दान्त के दन्त को॥44॥
जैसी है त्रिकगुणात्मिका त्रिकगुण से है वैसि ही शासिता।
धू-धू है जलती प्रफुल्ल बनती होती सुधासिक्त है।
है दिव्या मधुरा महान सरसा स्वार्थान्धाता से भरी।
है सांसारिकता रहस्य-भरिता वैचित्रय से आवृता॥45॥
दशम सर्ग-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
स्वर्ग
सुरपुर
(1)
स्वर्ग है उर-अंभोज-दिनेश।
भाव-सिंहासन का अवनीप।
सदाशा-रजनी मंजु मयंक।
निराशा-निशा प्रदीप्त प्रदीप॥1॥
यदि मरण है तम-तोम समान।
स्वर्ग तो है अनुपम आलोक।
प्रकाशित उससे हुआ सदैव।
हृदय-तल परम मनोरम ओक॥2॥
उरों में भर बहु कोमल भाव।
सजाती है व्यंजन के थाल।
कराती है कितने प्रिय कर्म।
कामना सुरपुर की सब काल॥3॥
पुष्पवर्षण होता है ज्ञात।
अस्त्राशस्त्राों का प्रबल प्रहार।
बनाता है रण-भू को कान्त।
वीर का स्वर्गलाभ-संस्कार॥4॥
खुदे सरवर बन सरस नितान्त।
प्रकट करते हैं किसकी प्यासे।
कलस मन्दिर के कान्ति-निकेत।
स्वर्ग-रुचि के हैं रुचिर विकास॥5॥
नहीं जो होता जग को ज्ञात।
मंजुतम स्वर्गवास का मर्म।
बाँधाता क्यों कृतज्ञता पाश।
न हो पाते पितरों के कर्म॥6॥
जो नहीं होती उसकी चाह।
सुकृति की क्यों होती उत्पत्ति।
बनाती किसे नहीं उत्कंठ।
अलौकिक स्वर्गलोक-सम्पत्तिक॥7॥
हुआ कब किसी काल में म्लान।
सका भ्रम-भौंरा उसको छू न।
सौरभित है उससे संसार।
स्वर्ग है परम प्रफुल्ल प्रसून॥8॥
(2)
सुख गले लगता रहता है।
फूल सिर पर बरसाता है।
देवतों को अभिमत देते।
मोद फूला न समाता है॥1॥
नहीं चिन्ता चिन्तित करती।
चित्त चिन्तामणि बनता है।
नहीं ऑंसू आते, लोचन।
प्रेम-मुक्ताफल जनता है॥2॥
जरा है पास नहीं आती।
सदा ही रहता है यौवन।
दमकता ही दिखलाता है।
देवतों का कुन्दन-सा तन॥3॥
किसी को रोग नहीं लगता।
दुख नहीं मुख दिखलाता है।
अमर तो अमर कहाते हैं।
मर नहीं कोई पाता है॥4॥
असुविधा कान्त कर्मपथ में।
भला कैसे काँटा बोती।
सर्व निधिकयों के निधिक सुर हैं।
सिध्दि है करतल-गत होती॥5॥
जीविका के जंजालों में।
नहीं उनका जीवन फँसता।
हुन बरसता है सदनों में।
करों में पारस है बसता॥6॥
कामना पूरी होती है।
रुचिर रुचि हो-हो खिलती है।
कल्पतरु-फल वे खाते हैं।
सुधा पीने को मिलती है॥7॥
चारु पावक द्वारा विरचित।
देवतों का है पावन तन।
पूत भावों से प्रतिबिम्बित।
परम उज्ज्वल मणि-सा है मन॥8॥
महीनों भूख नहीं लगती।
अनुगता निद्रा रहती है।
वासना में उनकी सरसा।
सुरसरी-धारा बहती है॥9॥
स्वर्ग पर ही अवलम्बित है।
सुरगणों का गौरव सारा।
देव-कुल दिव्य भूतिबल से।
स्वर्ग है भूतल से न्यारा॥10॥
(3)
कहाँ सदा उत्ताकल तरंगित सुख-पयोधिक दिखलाता है।
महाशान्ति-रत्नावलि-माला जिससे सुरपति पाता है।
कहाँ प्रमोद-प्रसून-पुंज इतना प्रफुल्ल बन जाता है।
जिसे विलोक मानसर-विलसित विकच सरोज लजाता है॥1॥
कहाँ अप्सरा दमक दिखाकर द्युति दिगन्त में भरती है।
स्वरलहरी से मुग्ध बनाकर किसका हृदय न हरती है।
उसकी तानें राग-रागिनी को करती हैं मूर्तिमती।
जहाँ-तहाँ नर्त्तन-रत रह जो बन जाती हैं अरुन्धती॥2॥
कहाँ बजाकर वीणा तुम्बुरु सुधा प्रवाहित करता है।
कहाँ गान कर हाहा हूहू ध्वनि में गौरव भरता है।
उनके तालों स्वरों लयों से जो विमुग्धता होती है।
परमानन्द-बीज वह अभिरुचि शुचि अवनी में बोती है॥3॥
जिसकी हरियाली नीलम के मुँह की लाली रखती हैं।
नभ-नीलिमा देखकर जिसको निज कल कान्ति परखती है।
जिसके कुसुम नहीं कुम्हलाते, म्लान नहीं दल होता है।
कहाँ विलस वह फलद कल्पतरु बीज विभव का बोता है॥4॥
जिसका दर्शन सकल दिव्यता-दर्शन का फल देता है।
जिसका स्पर्श पुण्य पथ को बहु बाधाएँ हर लेता है।
विविध सिध्दि-साधना-सहचरी जिसकी पयमय छाती है।
कहाँ सर्वदा वह चिर-कामद कामधेनु मिल पाती है॥5॥
जिसकी कुसुमावलि कुसुमाकर का भी चित्त चुराती है।
जिसकी ललित लता ललामता मूर्तिमती कहलाती है।
वृन्दारक तरुवृन्द देख जिसके फूले न समाते हैं।
कहाँ लोक-अभिनन्दन नन्दन-वन-जैसा बन पाते हैं॥6॥
जो है प्रकृति कान्त कर-लालित, छवि जिसका पद धोती है।
जिसके कलित अंक में विलसे उज्ज्वलतम 'मणि' होती है।
सकल विश्व सौन्दर्य सदा जिसकी विभूति का है सेवी।
अमरावती-समान कहाँ पर देखी दिव्य मूर्ति देवी॥7॥
भरित अलौकिक बातों से है, स्वरित उच्चतम स्वर से है।
दमक रहा है परम दिव्य बन ललितभूत लोकोत्तर है।
जगतीतल-शरीर का उर है भव-विभूतियों से पुर है।
ऐसा कौन सरस सुन्दर है, सुरपुर-जैसा सुरपुर है॥8॥
(4)
है जहाँ सुखों का डेरा।
किस तरह वहाँ दुख ठहरें।
करती हैं विपुल विनोदित।
उठ-उठ विनोद की लहरें॥1॥
हैं लोग विहँसते हँसते।
या मंद-मंद मुसकाते।
है कोई खिन्न न होता।
सब हैं प्रसन्न दिखलाते॥2॥
औरों का विभव विलोके।
जी जाता है किसका जल।
है क्रोधा कौन कर पाता।
है कहाँ कलह-कोलाहल॥3॥
जो वचन कहे जाते हैं।
वे सब होते हैं तोले।
दिल में कड़वी बातों से।
पड़ पाते नहीं फफोले॥4॥
हैं नहीं बखेड़े उठते।
है नहीं झगड़ता कोई।
हैं नहीं जगाई जाती।
जी की बुराइयाँ सोई॥5॥
है अन्धाकधुन्धा न मचता।
है किसे न प्यारा धान्धाक।
पर मोह नहीं कर पाता।
परहित ऑंखों को अंधा॥6॥
ख्रिच एँच-पेंच भँवरों से।
चक्करें नहीं खाता है।
पड़ लोभ-सिंधु में परहित।
बेड़ा न डूब जाता है॥7॥
छल दम्भ द्रोह मद मत्सर।
सामने नहीं आते हैं।
दुर्भाव दिव्य भावों को।
मुख नहीं दिखा पाते हैं॥8॥
कब अहंमन्यता ममता।
मायामय है बन जाती।
उनकी मननीय महत्ता।
सात्तिवक सत्ता है पाती॥9॥
दुख से कराहता कोई।
है कहीं नहीं दिखलाता।
हो विकल वेदनाओं से।
दृग वारि नहीं बरसाता॥10॥
है काल नहीं कलपाता।
हैं त्रिकविधा ताप न तपाते।
ऑंसू आने से लोचन।
आरक्त नहीं बन पाते॥11॥
चित चोट नहीं खाते हैं।
मुँह नहीं किसी के सिलते।
चुभती लगती बातों से।
हैं नहीं कलेजे छिलते॥12॥
कमनीय कीत्तिक या कृति को।
है उज्ज्वलतम जिसका तन।
है मलिन नहीं कर पाता।
मैलेपन का मैलापन॥13॥
सुर है सद्वृत्तिक-विधाता।
सद्भाव-सदन के केतन।
सुरपुर है सहज समुज्ज्वल।
सात्तिवकता कान्त निकेतन॥14॥
अमरावती
(5)
मणि-जटित स्वर्ण के मंदिर।
विधिक को मोहे लेते हैं।
विधु को हैं कान्त बनाते।
दिव को आभा देते हैं॥1॥
हैं कनकाचल-से उन्नत।
परमोज्ज्वल त्रिकभुवन-सुन्दर।
हैं विविध विभूति-विभूषित।
दिव्यता-मूर्ति लोकोत्तर॥2॥
उनके कल कलश अनेकों।
हैं दिनमणि से द्युतिवाले।
आलोक-पुंज पादप के।
हैं विपुल विभामय थाले॥3॥
चामीकर-दण्ड-विमण्डित।
उड़त उतुंग धवजाएँ।
हैं कीत्तिक उक्ति-कान्ता की।
बहु लोलभूत रसनाएँ॥4॥
सब हैं समान ही ऊँचे।
हैं एक पंक्ति में सा।
नवज्योति-लाभ करते हैं।
अवलोके लोचन-ता॥5॥
वे सब हैं स्वयंप्रकाशित।
हैं स्वयं स्वच्छता-साधन।
देखे उनकी पावनता।
पावन हो जाते हैं मन॥6॥
हैं लगे यंत्र वे उनमें।
जो हैं बहु काम बनाते।
या मधुर स्वरों से गा-गा।
श्रुति को हैं सुधा पिलाते॥7॥
मंजुल मणियों के गहने।
पहने मौक्तिक-मालाएँ।
देवतों सहित लसती हैं।
उनमें दिव की बालाएँ॥8॥
चाँदी-विरचित सब सड़कें।
हैं चारों ओर चमकती।
चाँदनी-चारुता में थी।
दामिनी समान दमकती॥9॥
है हाट हाटकालंकृत।
है विपणि रत्नचय-भरिता।
जिसमें बहती रहती है।
पावन प्रमोदमय सरिता॥10॥
था कहीं नहीं मैलापन।
थी नहीं मलिनता मिलती।
सब समय स्वच्छता सित हो।
थी वहाँ सिता-सी खिलती॥11॥
बन सुधा-धावल रह निर्मल।
हैं सकल सदन छवि पाते।
होकर भी परम पुरातन।
नूतनतम थे दिखलाते॥12॥
थे दिव्य दिव्य से भी दिन।
थी विभावरी दिवसोपम।
दिव में प्रवेश-साहस कर।
तम बनता था उज्ज्वलतम॥13॥
तज प्रचंडता बन संयत।
मृदु स्वर भर-भर कुछ कहता।
चल मंद-मंद हो सुरभित।
शीतल समीर है बहता॥14॥
सित भानु भानु की किरणें।
हैं यथासमय आ जाती।
मिल कान्त तारकावलि से।
हैं दिव्य दृश्य दिखलाती॥15॥
घन किसी समय जो घिरता।
तो सरस सुधा बरसाता।
मुक्ता करके ओलों को।
पद अलौकिकों का पाता॥16॥
जब मंद-मंद रव करके।
अति मधुर मृदंग बजाता।
तब केलिमयी चपला का।
नर्त्तन था समाँ दिखाता॥17॥
घन-अंक त्याग, आ नीचे।
है मणिमाला बन जाती।
या बिजली दिव-सदनों में।
मंजुल झालरें लगाती॥18॥
थी प्रकृति परम अनुकूला।
प्रतिकूल नहीं होती थी।
पवि को प्रसून थी करती।
हिम से रचती मोती थी॥19॥
सब ओर स्फूत्तिक थी फैली।
थी मोद-मग्नता लसती।
बहती विनोद-धारा थी।
थी उत्फुल्लता विहँसती॥20॥
अप्रतिहत - गति - अधिकारी।
निज वेग-वारि-निधिक-मज्जित।
नभ-जल-थल-यान अनेकों।
अति आरंजित बहु सज्जित॥21॥
जब उड़ते तिरते चलते।
किसको न चकित थे करते।
श्रुतिमधुर मनोहर मंजुल।
रव थे दिगंत में भरते॥22॥
अवलोक अमरता-आनन।
था चित्त उल्लसित होता।
सहजात निरुजता का बल।
था बीज श्रेय का बोता॥23॥
आनन्द-तरंगें उर में।
थीं शोक-विमुक्ति उठाती।
चिन्ता-विहीनता मन को।
थी वारिज विकच बनाती॥24॥
हैं राग-रंग की उठती।
किस जगह अपूर्व तरंगें।
हैं कहाँ उमड़ती आती।
बादलों समान उमंगें॥25॥
बहु हास-विलास कहाँ पर।
है निज उल्लास दिखाता।
आमोद-प्रमोद कहाँ आ।
परियों का परा जमाता॥26॥
कर कान्त कलाएँ कितनी।
है मंद-मंद मुसकाती।
किस जगह देव-बालाएँ।
हैं दिव-दिव्यता दिखाती॥27॥
भर पूत भावनाओं से।
आनन्द मनाती खिलती।
किस जगह देवताओं की।
हैं दिव्य मूर्तियाँ मिलती॥28॥
हैं जहाँ न द्वन्द्व सताते।
है जहाँ दुख विमुख रहता।
क्यों वहाँ न रस रह पाता।
है जहाँ सुधारस बहता॥29॥
लौकिक होके सब किसकी।
कह सके अलौकिक सत्ता।
अनुपम मन-वचन-अगोचर।
है अमरावती-महत्ता॥30॥
नन्दन-वन
(6)
विविध रंग के विटप खड़े थे ऊँचा शीश उठाये।
पहने प्रिय परिधन मनोहर नाना वेश बनाये।
लाल-लाल दल लसित सकल तरु बड़े ललित थे लगते।
ललकित लोचन-चय को थे अनुराग-राग में रँगते॥1॥
हरित दलों वाले पादप थे जी को हरा बनाते।
याद दिलाकर श्यामल-तन की मोहन मंत्र जगाते।
पीला था नीला बन जाता, नीला बनता पीला।
रंग-बिरंगे तरुओं की थी रंग-बिरंगी लीला॥2॥
ह-भ सर्वदा दिखाते, सदा रहे फल लाते।
सुन्दर सुरभित सुमनावलि से वे थे गौरव पाते।
छवि विलोक कुसुमाकर इतना अधिक रीझ जाता है।
जिससे उनका साथ कभी वह त्याग नहीं पाता है॥3॥
कितने हैं कल-गान सुनाते, कितने वाद्य बजाते।
कितने पवन साथ क्रीड़ा कर कौतुक हैं दिखलाते।
कितने चमक-चमक बनते हैं ज्योति-पुंज के पुतले।
कितने प्रकृति-अंक के कहलाते हैं बालक तुतले॥4॥
कभी डालियाँ उनकी ऐसे प्रिय फल हैं टपकाती।
जिनको चख बरसों अमरों को भूख नहीं लग पाती।
उनके गि प्रसून गले का हार सदा बनते हैं।
ले-ले विमल वारि की बूँदें वे मोती जनते हैं॥5॥
लता लहलहाती ललामता मुखडे क़ी है लाली।
अपने पास लोक-मोहन की रखती है प्रिय ताली।
सदा प्रफुल्ल बनी रहती है, कभी नहीं कुम्हलाती।
उसकी कलित कीत्तिक सब दिन सुर-ललनाएँ हैं गाती॥6॥
उसकी लचक लोच कोमलता है कमाल कर देती।
मचल-मचलकर उसका हिलना है मन छीने लेती।
लपटी देख उसे तरुवर से सुरपुर की बालाएँ।
तल्लीनता कण्ठ की बनती हैं मंजुल मालाएँ॥7॥
सुमनस नन्दन-वन-सुमनों की है महिमा मनहारी।
कमनीयता मधुरता उनकी है त्रिकभुवन से न्यारी।
किसी समय जब सुन्दरता का है प्रसंग छिड़ जाता।
सबसे पहले नाम सुमन का तब मुख पर है आता॥8॥
धारा-कुसुम-कुल के देखे जब हुई धारणा ऐसी।
तब सोचे, नन्दन-वन की कुसुमावलि होगी कैसी।
उनका रूप देख करके है रूप रूप पा जाता।
उनकी छाया में 'वसुन्धारा-कुसुम' कान्ति है पाता॥9॥
तरह-तरह के कुसुमों की हैं अमित क्यारियाँ लसती।
निज सजधाज-सम्मुख जो अवनी-सजधाज पर हैं हँसती।
किसी कुसुम का अलबेलापन है बहु मुग्ध बनाता।
किसी कुसुम की कलित रंगतों में है मन रँग जाता॥10॥
ए हैं वे प्रसून जो खिलकर म्लान नहीं होते हैं।
सौरभ-बीज जगत में जो सुरभित हो-हो बोते हैं।
आदर पाकर जो हैं सुरपति-शीश-मुकुट पर चढ़ते।
जो खिल-खिलकर भव-प्रमोद का पाठ सदा हैं पढ़ते॥11॥
देवपुरी उनके विकास से है विकसित हो पाती।
उनकी छटा देवबाला-तन की है छटा बढ़ाती।
वे हैं अनुरंजन-व्रत-रत रह दिवपति परम दुला।
वे हैं सुरसमूह के वल्लभ, सुरबाला के प्यारे॥12॥
आनन्दित रह स्वयं और को हैं आनन्दित करते।
भीनी-भीनी महँक सदा वे त्रिकभुवन में है भरते।
उनके द्वारा सद्भावों का व्यंजन हैं कर पाते।
वन्दित जन पर वृन्दारक हैं सदा फूल बरसाते॥13॥
जड़ी-बूटियाँ ज्योतिमयी हैं सदा जगमगाती हैं।
तेज:पुंज कलेवर द्वारा तेजस्विता जताती हैं।
पा करके विचित्र फल-दल हैं अद्भुत दृश्य दिखाती।
दिव्य लोक में कर निवास हैं अधिक दिव्यता पाती॥14॥
खिलीं अधाखिली मिलीं तनिक-सा खिलीं खेल दिखलाये।
बदल रूप ललना से लालन हुईं मन्द मुसकाये।
बन-बन कलित विकास क्रिया की कोमलतम पलिकाएँ।
कला दिखाती ही रहती हैं कलामयी कलिकाएँ॥15॥
है कल्पना कल्पपादप की कल्पलता की न्यारी।
पर उनके पाने का नन्दन-वन ही है अधिकारी।
जिसमें नहीं अलौकिकता हो, जिसमें हो न महत्ता।
क्यों है वह स्वर्गीय न जिसमें हो सुरपुर की सत्ता॥16॥
वह सदैव मुखरित रहता है खग-कुल-कलरव द्वारा।
कोमल मधुर स्वरों से बहती रहती है रस-धारा।
बहुरंगी विहंग जब उड़-उड़ स्वर्गिक गान सुनाते।
मोदमत्त बन तरु-तृण तक तब थे झूमते दिखाते॥17॥
बजती कान्त करों से वीणा सुधामयी स्वर-लहरी।
नृत्य-गान अप्सरा-वृन्द का लय-तालों पर ठहरी।
सुर-समूह का वर विहार सुरबाला की क्रीड़ाएँ।
सकल विश्व-मानस-विमोहिनी भावमयी व्रीडाएँ॥18॥
कूजित विहंग रंगीली तितली गुंजित अलि-मालाएँ।
कुंजों बीच बनी सोने की बड़ी दिव्य शालाएँ।
सुन्दर से सुन्दर विहार-थल दृश्य नितान्त मनोहर।
प्रकृति-रम्यता समय-सरसता लीलाएँ लोकोत्तर॥19॥
हो-हो स्वर्ग-विभूति-विभूषित, हो दिव्यता-निमज्जित।
हो अनुमोदनीय सुख के सब सामानों से सज्जित।
बतलाती हैं उड़ा-उड़ा के कान्त कीत्तिक के केतन।
वास्तव में सुविदित नन्दन-वन है आनन्द-निकेतन॥20॥
विबुध-वृन्द
(7)
जिसकी विजय-दुंदुभी का रव भव को कंपित करता है।
प्रकृत तेज जिसका दिगन्त के तिमिर-पुंज को हरता है।
वारिवाह जिसके निदेश से जग को जीवन देता है।
सप्त-रंग-रंजित निज धानु से जो विमुग्ध कर लेता है॥1॥
दिव्य अलौकिक बहु मणियों से मंडित मुकुट मनोहारी।
सकल मुकुटधार-शासन का है जिसे बनाता अधिकारी।
श्वेतवर्ण ऐरावत-सा मदमत्त गजेन्द्र-मंद-गामी।
सबसे ऊँचे सिंहासन का जिसे बनाता है स्वामी॥2॥
चार चक्षु है नहीं स्वयं जो है सहस्र लोचनवाला।
सारी जगती का रहस्य सब है जिसका देखाभाला।
आ यमराज सामने जिसके धर्मराज बन जाता है।
वह है सुरपति कर के पवि से जो लोकों का पाता है॥3॥
जिसकी ज्योति गगनतल में भी परमोज्ज्वल दिखलाती है।
सब भावों का सदुपयोग जिसकी शिक्षा सिखलाती है।
धूमधाम से बहती जिसकी धर्म-धुरंधरता-धारा।
है सुरपति सर्वस्व विपथ-गत सुर-समूह का धुरव तारा॥4॥
कहाँ नहीं उस सकल लोक-पालक की कला दिखाती है।
एक-एक फूलों में उसकी सुछवि छलक-सी जाती है।
एक-एक पत्तो पर उसका पता लिखा-सा मिलता है।
खुल जाता है ज्ञान-नयन जब मंद-मंद वह हिलता है॥5॥
ऐसे भेद बतानेवाली जिसकी कृपा निराली है।
जिसके कर में सकल लोक-हित-कामुकता की ताली है।
जो है त्रिकभुवन-शांति-विधाता, सुरपुर का हितकारी है।
वह है सुरगुरु जिसकी गुरुता नीति-निपुणता न्यारी है॥6॥
जिसकी तंत्री सुने विश्वहृत्तांत्री बजने लगती है।
जिसकी भावमयी स्वर-लहरी भक्ति-रंग में रँगती है।
जिसका कल आलाप श्रवण में सुधा-बिन्दु टपकाता है।
आलबाल उर लसित प्रेमतरु जिससे तरु हो पाता है॥7॥
जिसकी महिमामयी मूर्ति मन को रसमत्त बनाती है।
किसे नहीं जिसकी तदीयता तदीयता दे पाती है।
सुर-सदनों में जिसका प्रेम-प्रवाह प्रवाहित रहता है।
वह है वह आनन्द-मग्न देवर्षि जिसे जग कहता है॥8॥
रमा चंचला हों; पर अचला जिसके यहाँ दिखाती हैं।
ऋध्दि-सिध्दियाँ जिसकी सेवा कर फूली न समाती हैं।
नव निधिकयाँ निधिक के समान जिसकी निधिक में लहराती हैं।
जिसके महाकोष में अगाणित मणियाँ शोभा पाती हैं॥9॥
जो त्रिकभुवन के घन-समूह का धाता माना जाता है।
जिसकी कृपा हुए लक्षाधिकप महारंक बन पाता है।
सदा भरापूरा जिसका अक्षय भांडार कहाता है।
वह कुबेर है जिसका वैभव कूत न कोई पाता है॥10॥
जिसके तरल हृदय की महिमा जलधिक-तरंगें गाती हैं।
कल-कल रव करके सरिताएँ जिसकी कीत्तिक सुनाती हैं।
सकल जलाशय जिसके करुणामय आशय के आलय हैं।
पा जिसका संकेत पयोधार सदा बरस पाते पय हैं॥11॥
करके जीवन-दान सर्वदा जो जग-जीवनदाता है।
एक-एक तरु-तृण से जिसका जलसिंचन का नाता है।
वाष्परूप में परिणत हो जो पूत्तिक व्याप्ति की करता है।
वह है वरुण असरसों में भी जो सदैव रस भरता है॥12॥
जिसकी ज्योति सदा जगतीतल में जगती दिखलाती है।
भर-भर तारक-चय में जिसकी भूरि विभा छवि पाती है।
बसकर जो विद्युत-प्रवाह में कान्त कलाएँ करता है।
जिसका तेज:पुंज तमा के तिमिर पुंज को हरता है॥13॥
जो है दीप्ति विभूतिमान जो विश्व-विलोचन-तारा है।
आलोकिता प्रकृति की कृति को जिसका प्रबल सहारा है।
जो कर रत्नराजि को रंजित मणि को कान्त बनाता है।
वह पावक है दिव भी जिससे परम दिव्यता पाता है॥14॥
उठा-उठा उत्ताकल तरंगें निधिक को कंपित करता है।
जो दिगन्त में महाघोर रव गरज-गरजकर भरता है।
ले तुरंग का काम छिन्न घन से तरंग में आता है।
जो प्रवेश कर कीचक-रन्धारों में वर वेणु बजाता है॥15॥
खिला-खिला करके कलियों को हँसा-हँसाकर फूलों को।
उड़ा-उड़ाकर वन-विभूतियों के बहुरंग दुकूलों को।
जो बहता है सुरभित हो, नर्त्तन कर मुग्ध बनाता है।
वह समीर है जो सारी संसृति का प्राण कहाता है॥16॥
यह संसार व्याधिक-मन्दिर है बहु तापों से तपता है।
उसका गला विविध पीड़ाओं द्वारा बहुधा नपता है।
इनका शमन हाथ में जिन विबुधों के रहता आया है।
रस-रसायनो द्वारा निर्मित जिनकी अद्भुत काया है॥17॥
जड़ी-बूटियों में प्रभाव जिनका परिपूरित रहता है।
स्रोत निरुजता का ओषधिक में जिनके बल में बहता है।
स्वयं अगद रह सगदों को जो अगद सदैव बनाते हैं।
वे पीयूषपाणि-पुंगव अश्विनीकुमार कहाते हैं॥18॥
जिसका आगम अरुण दिखा अरुणाभा सूचित करता है।
जो सिन्दूर उषा-रमणी की मंजु माँग में भरता है।
जिससे पावनतम प्रभात नित प्रभा-पुंज पा जाता है।
जिसके कान्ति-निकेतन कर से जगत कान्त बन पाता है॥19॥
जो है जागृति मूर्तिमन्त, जो दिव्य दिवस का धाता है।
सतरंगी किरणें धारण कर जो सप्ताश्व कहाता है।
जो विभिन्न रूपों से सा भव में व्याप्त दिखाता है।
वह दिनमणि है जो त्रिकलोकपति-लोचन माना जाता है॥20॥
जो रजनी का रंजन कर रजनी-रंजन कहलाता है।
जो नभतल में विलस-विलस हँस-हँसकर रस बरसाता है।
दिखा तेज तारक-चय में जो तारापति-पद पाता है।
जो है सिता-सुन्दरी का पति सिन्धुसुता का भ्राता है॥21॥
जो शिव के विशाल मस्तक पर बहु विलसित दिखलाता है।
सुन्दर से सुन्दर भव-आनन जिसका पटतर पाता है।
मिले अलौकिक रूप-माधुरी जो बनता जग-जेता है।
वह मयंक है जो संसृति को सुधासिक्त कर देता है॥22॥
जिनकी ब्रह्मपुरी में वाणी वीणा बजती रहती है।
जिसकी ध्वनि ब्रह्माण्डमयी बन, पाती महिमा महती है।
प्राणिमात्रा-कंठों में उसकी झंकृत छटा दिखाती है।
विविध स्वरों ध्वनियों में परिणत हो वह मुग्ध बनाती है॥23॥
जिनके चारों वदन वेद हैं जो भव-भेद बताते हैं।
सृष्टि-सृजन की सकल अलौकिक बातें जिनमें पाते हैं।
जिनकी रचना के चरित्रा अति ही विचित्र दिखलाते हैं।
वे हैं ब्रह्मा पलक मारते जो ब्रह्मांड बनाते हैं॥24॥
दो क्या, चार भुजाओं से जो जग का पालन करते हैं।
चींटी हो या हो गजेन्द्र जो उदर सभी का भरते हैं।
स्तनपायी प्राणीसमूह को जो पय सदा पिलाते हैं।
प्रस्तर-भ कीटकों को जो दे-दे अन्न जिलाते हैं॥25॥
जो है कर्म-सूत्र-संचालक विविध विधन-विधाता है।
जो हैं कुत्सित पात्रा नियामक सत्पात्रों के पाता है।
हैं संसार-चक्र-परिचालक जो वैकुंठ-निवासी हैं।
वे हैं अखिल लोक के नायक वे ही रमा-विलासी हैं॥26॥
मंगर्लमूर्ति सुअन हैं जिनके जिनको मोदक प्यारे हैं
सुर-सेनापति श्याम-र्कात्तिकक जिनके बड़े दुला हैं।
सिंहवाहिनी प्रिया सुरसरी-धारा जिनकी प्यारी है।
भाल-विराजित चन्द्रकला से जिसकी मुख-छवि न्यारी है॥27॥
जिनके तन की वर विभूति सारी विभूतियाँ देती हैं।
जिनकी कृपादृष्टि रंकों को भी सुरपति कर लेती है।
है कैलास धाम जिनका जिनको मति समझ न पाती है।
वे शिव हैं जिनकी कुटिला भूर प्रलयंकरी कहाती है॥28॥
दैवी कला सकल लोकों ओकों में कान्त दिखाती है।
सा ब्रह्मांडों में सुरगण-सत्ता सबल जनाती है।
सबमें सकल सुसंगत बातें सहज भाव से भरते हैं।
सारी संसृति का नियमन नियमानुसार वे करते हैं॥29॥
ब्रह्मलोक में है विशेषता है बैकुंठ-विभवशाली।
बाते हैं गौरव-उपेत कैलास-धाम गरिमावाली।
पर न भ्रान्तिवश उनके वासस्थल को स्वर्ग बताते हैं।
क्या 'त्रिकदेव' चतुरानन कमलापति शिव कहे न जाते हैं॥30॥
स्वर्ग की कल्पना
(8)
अच्छा होता, दुख न कभी होता, सुख होता।
सब होते उत्फुल्ल, न मिलता कोई रोता।
उठती रहतीं सदा हृदय में सरस तरंगें।
कुचली जातीं नहीं किसी की कभी उमंगें॥1॥
बजते होते घर-घर में आनन्द-बधावे।
निरानन्द मिलते न धूम से करते धावे।
सदा विहँसता जन-जन-चद्रानन दिखलाता।
किसी काल में कहीं न कोई मुख कुम्हलाता॥2॥
बहती मिलती सकल मानसों में रस-धारा।
छिदता बिंधाता नहीं हृदय वेदन-शर द्वारा।
होते जगती-जीव मंजु भोगों के भोगी।
करने पर भी खोज न मिलता कोई रोगी॥3॥
होती मन की बात, तोड़ते सब नभ-ता।
बैठा मिलता कहीं नहीं कोई मन मा।
होते सब स्वच्छन्द धर्मरत पर-उपकारी।
कहीं न मिलते पाप-ताप-तापित अपकारी॥4॥
सदन-सदन में रमा रमण करती दिखलाती।
नहीं धाड़कती पेट के लिए कोई छाती।
जहाँ-तहाँ सब ओर नित बरसता हुन होता।
कहीं न कोई कभी गाँठ की पूँजी खोता॥5॥
नवयौवन से सदा लसित होते नर-नारी।
आती जरा कभी न, न जाती ऑंखें मारी।
मिले अमरता कभी नहीं मानव मर पाता।
सरस सुधा कर पान न अपना प्राण गँवाता॥6॥
नहीं किसी का जीवन-सा पारस खो जाता।
सोने का संसार न मिट्टी में मिल पाता।
सब सदनों में परम हर्ष-कोलाहल होता।
खोकर अपने रत्न न कोई रोता-धोता॥7॥
चिरजीवन कर लाभ लोक फूला न समाता।
नहीं काल विकराल किसी का हृदय कँपाता।
द्वारों चौबारों पर मिलती नौबत झड़ती।
किसी कान में कभी नहीं क्रन्दन-ध्वनि पड़ती॥8॥
दिव्य नारि-नर-वृन्द गा-बजा रीझ रिझाते।
कर-कर हास-विलास उल्लसित लसित दिखाते।
सब उद्वेजक भाव सामने सहम न आते।
सा नीरस व्यसन विषय तन परस न पाते॥9॥
हभ तरुवृन्द फलों से भ दिखाते।
पर हो-हो कंटकित न औरों को उलझाते।
फूल-फूलकर फूल फबीले बन मुसकाते।
पर रज से अंधो न रसिक भौं बन पाते॥10॥
घनरुचि तन की छटा दिखा नभ में घन आते।
सरस वारि कर दान रसा को रसा बनाते।
पर कभी न वे कर्ण-विदारी नाद सुनाते।
न तो गिराते विज्जु, न तो ओले बरसाते॥11॥
बहता रहे समीर महँकता शीतल करता।
पर ऑंधी बन रहे न नयनों में रज भरता।
लतिका से कर केलि बने जीवन-संचारी।
पेड़ न टूटे धवंस न हो फूली फुलवारी॥12॥
ऐसी ही कामना सदा मानव करते हैं।
कुछ ऐसे ही भाव भावुकों में भरते हैं।
भव का द्वन्द्व विलोक मनुज भावित होता है।
देख काल-मुख आठ-आठ ऑंसू रोता है॥13॥
इस विचार ने बुध जन को है बहुत सताया।
कैसे होगी अजर अमर मानव की काया।
क्या लोकों में लोक नहीं है ऐसा न्यारा।
जिसे मिला हो भू-उपद्रवों से छुटकारा॥14॥
देख चित्त की वृत्तिक समा है गया दिखाया।
मिला रंग में रंग, रंग है गया जमाया।
कहते हैं कुछ विबुध, पता कब गया बताया।
है सुरपुर-कल्पना किसी कल्पक की माया॥15॥
स्वर्ग की वास्तवता
(9)
नीलाम्बर में बड़े अनूठे रत्न जड़े हैं।
भव-वारिधिक में विपुल विद्युत-स्तंभ खड़े हैं।
ता हैं अद्भुत विचित्र अत्यंत निराले।
परम दिव्य आलोक निलय कौतुक तरु थाले॥1॥
यदि स्वकीय विज्ञात सौर-मंडल को ले लें।
चिन्ता-नौका को विचार-वारिधिक में खे लें।
तो होगा यह ज्ञात एक उसके ही ता।
हैं मन-वचन-अगोचर मति-अवगति से न्या॥2॥
फिर अनन्त तारक-समूह की सारी बातें।
कैसे हैं उनके दिन या कैसी हैं रातें।
क्या रहस्य हैं उनके, क्या है उनकी सत्ता।
क्या है उनका बल विवेक अधिकार महत्ता॥3॥
किसी काल में बता सकेगा कोई कैसे।
बड़े विज्ञ भी कह न सकेंगे, वे हैं ऐसे।
दिनमणि से सौगुने बड़े नभ में है ता।
जो हैं दिव दिव्यता-करों से गये सँवा॥4॥
ऐसे तारक-चय की भी है कथा सुनाई।
जिनकी किरणें अब तक हैं न धारा पर आयी।
वे हैं द्युतिसर्वस्व अलौकिक गुणगणशाली।
है उनकी विभुता अचिन्त्य, दिव्यता निराली॥5॥
क्या इनमें से कोई भी सर्वोत्ताम तारा।
स्वर्ग नाम से जा सकता है नहीं पुकारा।
हैं तारक के सिवा सौर-मंडल कितने ही।
क्या हैं बहु विख्यात अलौकिक स्वर्ग न वे ही॥6॥
क्या न सौर-मंडल हमलोगों का है अनुपम।
क्या न हमा सूर्यदेव हैं प्रकृत दिव्यतम।
रविमंडल विस्तृत वसुधा से बहुत बड़ा है।
जो अवनी है मटर तो द्युमणि-बिम्ब घड़ा है॥7॥
अग्नि-शरीरी वृन्दारक हैं माने जाते।
तरणि-बिम्ब-वासी भी हैं आग्नेय कहाते।
हैं सुरगुरु विधु सहित सौर-मंडल में रहते।
क्या होगा अयथार्थ उसे जो दिव हैं कहते॥8॥
बुध्ददेव में है अनात्मवादिता दिखाती।
ईश-विषय में नहीं जीभ उनकी खुल पाती।
पर वे भी हैं स्वर्गलोक-सत्ता बतलाते।
जैन-धर्म के ग्रंथ स्वर्गगुणगण हैं गाते॥9॥
हैं बिहिश्त के दिव्य गान जनदश्त सुनाते।
स्वर्ग-दृश्य देखे मूसा-दृग हैं खुल जाते।
ईसा हैं स्वर्गीय पिता के पुत्रा कहाते।
पैगम्बर जन्नत-पैगामों को हैं लाते॥10॥
फिर कैसे यह कहें स्वर्ग-संबंधी बातें।
हैं झूठी, हैं गढ़ी, हैं तिमिर-पूरित रातें।
मरने पर मानव-तन हैं रज में मिल जाता।
किसी दूसरी जगह नहीं है जाता-आता॥11॥
जा करके परलोक पलटता कौन दिखाया।
है उसका वह पंथ जन जिसे खोज न पाया।
इसीलिए परलोक स्वर्ग आदिक की बातें।
जँचतीं नहीं, जान पड़ती हैं उतरी ताँतें॥12॥
हैं अनात्मवादिता इन विचारों में पाते।
ज्ञान-नयन किसलिए नहीं हैं खोले जाते।
है शरीर से भिन्न 'जीव' यह कभी न भूले।
क्यों अबोध लोहा न बोध पारस को छू ले॥13॥
करके तन का त्याग कहाँ है आत्मा जाती।
यह जिज्ञासा विबुधो है यही बताती।
कर्मभूमि में जीव कर्म का फल पाता है।
उच्च कर्म कर उच्च लोक में वह जाता है॥14॥
विबुधों का वर बोध अबुधता का बाधक है।
यह विचार भी स्वर्गसिध्दि का ही साधक है।
तर्क-वितर्क विवाद और है बहुत अल्पमत।
स्वर्गलोक-अस्तित्व है विपुल बुध-जन-सम्मत॥15॥
शार्दूल-विक्रीडित
(10)
है ऐरावत-सा गजेन्द्र न कहीं, है कौन देवेन्द्र-सा।
है कान्ता न शची समान अपरा देवापगा है कहाँ।
श्री जैसी गिरिजा गिरा सम नहीं देखी कहीं देवियाँ।
पाई कल्पलतोपमा न लतिका, है स्वर्ग ही स्वर्ग-सा॥1॥
शोभा-संकलिता नितान्त ललिता कान्ता कलालंकृता।
लीला-लोल सदैव यौवनवती सद्वेश-वस्त्राकवृता।
नाना गौरव-गर्विता गुणमयी उल्लासिता संस्कृता।
होती है दिव-दिव्यता-विलसिता स्वर्गांगना सुन्दरी॥2॥
शुध्दा सिध्दि-विधायिनी अमरता आधारिता निर्जरा।
सारी आधिक-उपाधिक-व्याधिक-रहिता बाधादि से वर्जिता।
कान्ता कान्ति-निकेतनातिसरसा दिव्या सुधासिंचिता।
नाना भूति विभूति मूर्ति महती है स्वर्ग स्वर्गीयता॥3॥
जो होती न विराजमान उसमें दिव्यांग देवांगना।
जो देते न उसे प्रभूत विभुता देवेश या देवते।
नाना दिव्य गुणावली-सदन जो होती नहीं स्वर्गभू।
तो पाती न महान भूति महती होती महत्ता नहीं॥4॥
होते म्लान नहीं प्रसून, रहते उत्फुल्ल हैं सर्वदा।
पाके दिव्य हरीतिमा विलसती है कान्त वृक्षावली।
पत्तो हैं परिणाम रम्य फल हैं होते सुधा से भ।
है उद्यान न अन्य, स्वर्ग-अवनी के नन्दनोद्यान-सा॥5॥
जो हो स्वथ्य शरीर, भाग्य जगता, पद्मासना की कृपा।
जो हो पुत्रा विनीत, बुध्दि विमला, हो बंधु में बंधुता।
जो हो मानवता विवेक-सफला, हों सात्तिवकी वृत्तिकयाँ।
हो कान्ता मृदुभाषिणी अनुगता तो स्वर्ग है सद्म ही॥6॥
होती है विकरालता जगत की जाते जहाँ कम्पिता।
आता काल नहीं समीप जिसके आरक्त ऑंखें किये।
होता है भय आप भीत जिसकी निर्भीकता भूति से।
जा पाते यमदूत हैं न जिसमें है स्वर्ग-सा स्वर्ग ही॥7॥
होता क्रन्दन है नहीं, न मिलता है आत्ता कोई कहीं।
हाहाकार हुआ कभी न, उसने आहें सुनीं भी नहीं।
देखा दृश्य न मृत्यु का, न दव से दग्धाक विलोकी चिता।
है आनन्द-निधन स्वर्ग-विभुता उत्फुल्लता-मूर्ति है॥8॥
गाती है वह गीत, पूत जिससे होती मनोवृत्तिक है।
लेती है वह तान रीझ जिससे है रीझ जाती स्वयं।
ऐसी है कलकंठता कलित जो है मोहती विश्व को।
है संगीत सजीव मूर्ति दिव की लोकोत्तारा अप्सरा॥9॥
सारी मोहन-मंत्र-सिध्दि स्वर में, आलाप में मुग्धता।
तालों में लय में महामधुरता, शब्दावली में सुधा।
भावों में वर भावना सरसता उत्कंठता कंठ में।
देती है भर भूतप्रीतिध्वनि में गंधार्व गंधार्वता॥10॥
जागे सात्तिवक भाव भूति टलती हैं तामसी वृत्तिकयाँ।
देखे दिव्य दिवा-विकास छिपती है भीतभूता तमा।
जाती है मिट ज्ञान भानु-कर से अज्ञान की कालिमा।
पाते हैं द्युति लोक लोक दिव की आलोकमाला मिले॥11॥
पाते हैं बहुदीप्ति देवगण से दिव्यांगना-वृन्द से।
होते झंकृत हैं सदैव बजते वीणादि झंकार से।
हो आरंजित रत्न से विलसते हैं मोहते लोक को।
ऑंखों में बसते सदा विहँसते आवास हैं स्वर्ग के॥12॥
हो-हो नृत्य-कला-निमग्न दिखला अत्यन्त तल्लीनता।
पाँवों के वर नूपुरादि ध्वनि से संसार को मोहती।
ले-ले तान महान मंजु रव से धारा सुधा की बहा।
नाना भाव-भरी परी सहित गा है नाचती किन्नरी॥13॥
नाना रोग-वियोग-दु:ख-दल से जो द्वंद्व से है बचा।
सारी ऋध्दि प्रसिध्द सिध्दि निधिक पा जो भूति से है भरा।
जो है मृत्यु-प्रपंच-हीन जिसमें हैं जीवनी ज्योतियाँ।
तो क्या है अपवर्ग-पुण्य बल से जो स्वर्ग ऐसा मिले॥14॥
सारी संसृति है विभूति उसकी, है भूत-सत्ता वही।
प्यारा है वह लोक लोकपति का है लोक प्यारा उसे।
जो हो जाय अनन्यता जगत में तो अन्यता है कहाँ।
तो क्या है अपवर्ग-प्राप्ति-गरिमा, तो स्वर्ग ससर्ग क्या॥15॥
जो माने न उसे असार, समझे संसार की सारता।
जो देखे तृण से त्रिकदेव तक में दिव्यांग की दिव्यता।
जो ऑंखें अवलोक लें अखिल में आत्मीयता का समा।
जो मानव का हो महान मन तो क्या साहिबी स्वर्ग की॥16॥
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