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हिंदी कविता
बसन्त बहार पर कविताएँ नज़ीर अकबराबादी
Poems on Basant Bahar Nazeer Akbarabadi
1. आलम में जब बहार की आकर लगंत हो - नज़ीर अकबराबादी
आलम में जब बहार की आकर लगंत हो।
दिल को नहीं लगन हो मजे की लगंत हो।
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो।
इशरत हो, सुख हो, ऐश हो और जी निश्चिंत हो।
अव्वल तो जाफ़रां से मकां ज़र्द ज़र्द हों।
सहरा ओ बागो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों।
जोड़े बसंतियों से निहां ज़र्द ज़र्द हों।
इकदम तो सब जमीनो जमां ज़र्द ज़र्द हों।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
मैदां हो सब्ज साफ चमकती भी रेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग।
महबूब गुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग।
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी ओ मुंहचंग।
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों।
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों।
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों।
पर्दे पड़े हों ज़र्द सुनहरी मकान हों।
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो।
कसरत से तायफ़ों की मची हो उलट पुलट।
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट।
बैठे हों बनके नाज़नीं परियों के ग़ट के ग़ट।
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥
वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह।
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह।
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह।
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह।
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥
2. फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत - नज़ीर अकबराबादी
फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तवायफ़ ने हरजाँ उठाई बसंत।
इधर औ’ उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर ख़ुदा ने दिखाई बसंत ॥1॥
मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बन खेत-सा।
वह नाज़ुक से हाथों से गड़ुवा उठा॥
अज़ब ढंग से मुझ पास लाई बसंत ॥2॥
वह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥
वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।
निकाला इसे और छिपाई बसंत ॥4॥
वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह ज़ो दर्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत ॥5॥
वह जोड़ा बसंती जो था ख़ुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आँख औ’ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि याँ हमको लेकर है आई बसंत ॥6॥
पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या-क्या जिगर में समाई बसंत ॥7॥
वह पोशाक ज़र्द और मुँह चांद-सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खींची सदा।
समाँ छा गया हर तरफ़ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत ॥8॥
बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उसदम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोंदर एक बार ॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत ॥9 ॥
यह देख उसके हुस्न और गाने की शां।
किया मैंने उससे यह हंसकर बयां॥
यह आलम तो बस खत्म है तुम पै यां।
किसी को नहीं बन पड़ी ऐसी जां॥
तुम्हें आज जैसी बन आई बसंत॥10॥
यह वह रुत है देखो जो हर को मियां।
बना है हर इक तख़्तए जअ़फिरां॥
कहीं ज़र, कहीं ज़र्द गेंदा अयां।
निकलते हैं जिधर बसंती तबां॥
पुकारे हैं ऐ वह है आई बसंत॥11॥
बहारे बसंती पै रखकर निगाह।
बुलाकर परीज़ादा और कज कुलाह॥
मै ओ मुतरिब व साक़ी रश्कमाह।
सहर से लगा शाम तक वाह वाह॥
'नज़ीर' आज हमने मनाई बसंत॥12॥
3. जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत - नज़ीर अकबराबादी
जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत॥
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत॥
अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत॥
जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले।
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले॥
गुलों ने डालियों के डाले बाग में झूले।
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले।
दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत॥
दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए॥
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजने आए॥
यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत॥
कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
तुन और कुसूम की ज़र्दी में कपड़े रंगते हैं॥
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
गरीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं॥
गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत॥
कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं॥
गरीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग में मजलिस बनाके बैठे हैं।
पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत॥
कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं॥
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
गरीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं॥
बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत॥
जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं॥
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं॥
हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत॥
तवायफों में है अब यह बसंत का आदर।
कि हर तरफ को बना गड़ुए रखके हाथों पर॥
गेहूं की बालियां और सरसों की डालियां लेकर।
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर घर॥
रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत॥
मियां बसंत के यां तक रंग गहरे हैं।
कि जिससे कूंचे और बाज़ार सब सुनहरे हैं॥
जो लड़के नाजनी और तन कुछ इकहरे हैं।
वह इस मजे के बसंती लिबास पहरे हैं॥
कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत॥
बहा है ज़ोर जहां में बसंत का दरिया।
किसी का जर्द है जोड़ा किसी का केसरिया॥
जिधर को देखो उधर जर्द पोश का रेला।
बने हैं कूच ओ बज़ार खेत सरसों का॥
बिखर रही है गरज आके बेशुमार बसंत॥
'नज़ीर' खल्क में यह रुत जो आन फिरती है।
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है॥
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है।
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है।
सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत॥
4. गुलशने-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार - नज़ीर अकबराबादी
गुलशने-आलम में जब तशरीफ़ लाती है बहार।
रंगो बू के हुस्न क्या क्या कुछ दिखाती है बहार॥
सुबह को लाकर नसीमे दिल कुशा हर शाख़ पर।
ताजा तर किस किस तरह के गुल खिलाती है बहार॥
नौनिहालों को दिखा कर दमबदम नशवो नुमा।
जिस्म में रूहो-रवाँ क्या क्या बढ़ाती है बहार॥
बुलबुलें चहकारती हैं शाखे़ गुल पर जा बजा।
बुलबुलें क्या फ़िलहक़ीकत चहचहाती है बहार॥
होजों, फ़व्वारों को देकर आबरू फिर लुत्फ़ से।
क्या मुतर्रा फ़र्श सब्जे को बिछाती है बहार॥
जुम्बिशे बादे-सबा से होके हमदोशे निशात।
साथ हर सब्जे के क्या-क्या लहलहाती है बहार॥
ख़ल्क़ को हर लहज़ा अपने हुस्न की रंगत दिखा।
बे तकल्लुफ़ क्या ही हर दिल में समाती है बहार॥
मजमऐ खू़बां हुजूम आशिक़ां और जोशे गुल।
देख इन रंगों को क्या क्या खिलखिलाती है बहार॥
गुल रुख़ों की देख कर गुल बाज़ियां हर दम 'नज़ीर'।
गुल उधर ख़न्दां, इधर धूमें मचाती है बहार॥
(गुलशने-आलम=दुनिया के बाग में, नसीम=शीतल
मंद समीर, दिल कुशा=दिल को खुश करने वाली,
नौनिहालों=नौ उम्र, रूहो-रवाँ=जान, जा बजा=
जगह-जगह, जुम्बिश=कंपन, बादे-सबा=सबेरे की
शीतल वायु, हमदोशे=बराबर-बराबर,मिल-जुलकर,
निशात=खुश, मजमऐ=भीड़, खू़बां=सुन्दर स्त्रियां,
हुजूम=भीड़, गुल रुख़ों=फूल जैसे सुन्दर, ख़न्दां=
खिले हुए)
5. मिलकर सनम से अपने हंगाम दिल कुशाई - नज़ीर अकबराबादी
मिलकर सनम से अपने हंगाम दिल कुशाई।
हंसकर कहा यह हमने ऐ जां! बसंत आई।
सुनते ही उस परी ने गुल गुल शगुफ़्ता होकर।
पोशाक ज़र फ़िशानी अपनी वोंही रंगाई।
जब रंग के आई उसकी पोशाक पुर नज़ाकत।
सरसों की शाख़ पुर गुल फिर जल्द एक मंगाई।
एक पंखुड़ी उठाकर नाजुक सी उंगलियों में।
रंगत फिर उसकी अपनी पोशाक से मिलाई।
जिस दम किया मुक़ाबिल कसवत से अपने उसको।
देखा तो उसकी रंगत उस पर हुई सवाई।
फिर तो बसद मुसर्रत और सौ नज़ाकतों से।
नाजुक बदन पर अपने पोशाक वह खपाई।
चम्पे का इत्र मलकर मोती से फिर खुशी हो।
सीमी कलाइयों में डाले कड़े तिलाई।
बन ठन के इस तरह से फिर राह ली चमन की।
देखी बहार गुलशन बहरे तरब फ़िज़ाई।
जिस जिस रविश के ऊपर जाकर हुआ नुमाया।
किस किस रविश से अपनी आनो अदा दिखाई।
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन-चमन में।
वह ज़र्द पोशी उसकी, वह तर्जे़ दिलरुबाई।
सदबर्ग ने सिफ़त की नरगिस ने बेतअम्मुल।
लिखने को वस्फ़ उसका अपनी क़लम उठाई।
फिर सहन में चमन के आया बहुस्नो-खू़बी।
और तरफ़ा तर बसंती एक अन्जुमन बनाई।
उस अन्जुमन में बैठा जब नाज़ो-तमकनत से।
गुलदस्ता उसके आगे हंस-हंस बसंत लाई।
की मुतरिबों ने खु़श खु़श आग़ाजे़ नग़मा साज़ी।
साक़ी ने जामे-ज़र्री भर भर के मै पिलाई।
देख उसको और महफ़िल उसकी 'नज़ीर' हरदम।
क्या-क्या बसंत आकर उस वक़्त जगमगाई॥
(हंगाम=कोलाहल, दिल कुशाई=दिल को आनन्द
देने वाला, गुल शगुफ़्ता=प्रसन्न, फूलों से सजकर,
ज़र फ़िशानी=सोना बिखेरने वाली सुनहरी किरणें,
बसद=सैकड़ों, मुसर्रत=खुशी, सीमी=चांदी जैसी,
तिलाई=सुनहरे रंग के, तरब=आनन्द, फ़िज़ाई=
बढ़ाने वाली, रविश=चाल,पद्धति, आनो-अदा=
हाव-भाव, सदबर्ग=सौ पत्तियों वाला गेंदा,
बेतअम्मुल=निःसंकोच,बेखटके, वस्फ़=गुण,
बहुस्नो=सुन्दरता के साथ, अन्जुमन=महफिल,
तमकनत=अभिमान,घमंड, गुलदस्ता=फूलों का
गुच्छा, मुतरिबों=गायक,रागी, जामे-ज़र्री=सुनहरा
मदिरा पात्र)
6. जब फूल का सरसों के हुआ आके खिलन्ता - नज़ीर अकबराबादी
जब फूल का सरसों के हुआ आके खिलन्ता।
और ऐश की नज़रों से निगाहों का लड़न्ता।
हमने भी दिल अपने के तईं करके पुखन्ता।
और हंस के कहा यार से ऐ लकड़ भवन्ता।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥1॥
एक फूल का गेंदों के मंगा यार से बजरा।
दस मन का लिया हार गुंधा, आठ का गजरा।
जब आंख से सूरज के ढला रात का कजरा।
जा यार से मिलकर यह कहा ऐ! मेरे रजरा।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥2॥
थे अपने गले में तो कई मन के पड़े हार।
और यार के गजरे भी थे एक धवन की मिक़दार।
आंखों में नशे मै के उबलते थे धुआँ धार।
जो सामने आता था यही कहते थे ललकार।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥3॥
पगड़ी में हमारी थे जो गेंदों के कई पेड़।
हर झोंक में लगती थी बसन्तों के तईं एड़।
साक़ी ने भी मटके से दिया मुंह के तईं भेड़।
हर बात में होती थी इसी बात की आ छेड़।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥4॥
फिर राग बसन्ती का हुआ आन के खटका।
धोंसे के बराबर वह लगा बाजने मटका।
दिल खेत में सरसों के हर एक फूल से अटका।
हर बात में होता था इसी बात का लटका।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥5॥
जब खेत पे सरसों के दिया जाके कदम गाड़।
सब खेत उठा सर के ऊपर रख लिया झंझाड़।
महबूब रंगीलों की भीा एक साथ लगी झाड़।
हर झाड़ से सरसों के भी कहती थी अभी झाड़।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥6॥
साथ लगा जब तो अ़जब ऐश का दहाड़ा।
जिस बाग़ में गेंदों के गए उसको उखाड़ा।
देखी कभी सरसों कभी नरगिस को उजाड़ा।
कहते थे इसी बात को बन, झाड़, पहाड़।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥7॥
खु़श बैठे हैं सब शाहो वजीर आज अहा हा!।
दिल शाद हैं अदनाओ फ़क़ीर आज अहा हा!।
बुलबुल की निकलती है सफ़ीर[1] आज अहा हा!।
कहता यही फिरता है 'नज़ीर' आज अहा हा!।
सबकी तो बसन्तें हैं पै यारों का बसन्ता॥8॥
7. जोशे निशातो ऐश है हर जा बसंत का - नज़ीर अकबराबादी
जोशे निशातो ऐश है हर जा बसंत का।
हर तरफ़ा रोज़गारे तरब जा बसंत का॥
बाग़ो में तुल्फ़ नश्बोनुमा की है कसरतें।
बज़्मों में नग़मा खु़श दिली अफ़्ज़ा बसंत का॥
फिरते हैं कर लिबास बसंती वह दिलबरां।
है जिनसे ज़र निगार सरापा बसंत का॥
जा दर पै यार के यह कहा हमने सुबह दम।
ऐ जान है अब तो हर कहीं चर्चा बसंत का॥
तशरीफ़ तुम न लाये जो कर कर बसंती पोश।
कहिये गुनाह हमने क्या किया बसंत का?
सुनते ही इस बहार से निकला कि जिसके तईं।
दिल देखते ही हो गया शैदा बसंत का॥
अपना वह खु़श लिबास बसंती दिखा 'नज़ीर'।
चमकाया हुस्न यार ने क्या-क्या बसंत का॥
8. निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो - नज़ीर अकबराबादी
निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द पोश हो।
जिसकी नवेद पहुंची है रंगे बसंत को।
दी बर में अब लिबास बसंती को जैसे जा।
ऐसे ही तुम हमारे भी सीने से जा लगो।
गर हम नशे में 'बोसा' कहें, दो तो लुत्फ़ से।
तुम पास मुंह को लाके यह हंस कर कहो कि 'लो।
बैठो चमन में, नर्गिसों सदबर्ग की तरफ़।
नज़्ज़ारा करके ऐशो मुसर्रत की दाद दो'।
सुनकर बसंत मुतरिब ज़रीं लिबास से।
भर भर के जाम फिर मयेगुल रंग के पियो।
कुछ कु़मारियों के नग़्मे को दो सामए में राह।
कुछ बुलबुलों का जमज़मए दिल कुशा सुनो।
मतलब है यह 'नज़ीर' का यूं देखकर बसंत।
हो तुम भी शाद दिल को हमारे भी ख़ुश करो।
9. करके बसंती लिबास सबसे बरस दिन के दिन - नज़ीर अकबराबादी
करके बसंती लिबास सबसे बरस दिन के दिन।
यार मिला आन कर हमसे बरस दिन के दिन।
खेत पै सरसों के जा, जाम सुराही मगा।
दिल की निकाली मियां! हमने हविस दिन के दिन।
सबकी निगाहों में दी ऐश की सरसों खिला।
साक़ी ने क्या ही लिया वाह यह जस दिन के दिन।
ख़ल्क में शोरे बसन्त यों तो बहुत दिन से था।
हमने तो लूटी बहार ऐश की बस दिन के दिन।
आगे तो फिरता रहा ग़ैरों में ही ज़र्द पोश।
हमसे मिला पर वह शोख खाके तरस दिन के दिन।
गर्चे यह त्यौहार की पहली ख़ुशी है जयादः।
ऐन जो रस है सो वह निकले है रस दिन के दिन।
लूटेगा फिर साल भर गुलबदनों की बहार।
यार से मिलले ‘नज़ीर’ आज बरस दिन के दिन॥
10. आने को आज घूम इधर है बसंत की - नज़ीर अकबराबादी
आने को आज घूम इधर है बसंत की।
कुछ तुमको मेरी जान खबर है बसंत की॥
होते हैं जिससे ज़र्द ज़मीं ओ ज़मां तमाम।
लचके है ज़र्द जामा में खूबां की जो कमर।
उसकी कमर नहीं यह कमर है बसंत की॥
जोड़ा बसंती तुमको सुहाता नहीं ज़रा।
मेरी नज़र में है वह नज़र है बसंत की॥
आता है यार तेरा वह होके बसंत रू।
तुझको भी कुछ 'नज़ीर' खबर है बसंत की॥
11. चम्पे का इत्र मलकर मौके़ से फिर खुशी हो - नज़ीर अकबराबादी
चम्पे का इत्र मलकर मौके़ से फिर खुशी हो।
सीमी कलाइयों में, डाले कड़े तिलाई।
बन ठनके इस तरह से, फिर राह ली चमन की।
देखी बहारे गुलशन, बहरे-तरबफ़िज़ाई।
जिस जिस रविश के ऊपर, जाकर हुआ नुमाया।
किस किस रविश से अपनी आनो अदा दिखाई।
क्या क्या बयां हो जैसे चमकी चमन चमन में।
वह ज़र्द पोशी उसकी वह तजेऱ् दिल रुबाई।
सद बर्ग ने सिफ़त की, नरगिस ने बेतअम्मुल।
लिखने को वस्फ़ उसका, अपनी कलम उठाई।
फिर सहन में चमन के, आया बहुस्नो खू़बी।
और तरफ़ा तर बसंती, एक अंजुमन बनाई।
उस अंजुमन में बैठा, जब नाजो तमकुनत से।
गुलदस्ता उसके आगे, हंस हंस बसंत लाई।
की मुतरिबों ने खु़श हो आग़ाजे नग़मा साज़ी।
साक़ी ने जाम ज़र्री, भर भर के मै पिलाई।
देख उसको और महफिल, उसकी 'नज़ीर' हर दम।
क्या-क्या बसंत आकर उस वक़्त जगमगाई॥
(मौके़=अवसर, सीमी=चांदी जैसी, तिलाई=
सोने की, बहरे=लिए,वास्ते, तरबफ़िज़ाई=
आनन्दमय वातावरण, ज़र्द पोशी=पीले वस्त्र,
बसंती आवरण, बेतअम्मुल=निःसंकोच, वस्फ़=
विशेषता, सहन=आँगन, बहुस्नो=सौन्दर्यपूर्ण,
अंजुमन=सभा, तमकुनत=गर्व, मुतरिब=गायक,
आग़ाजे=आरम्भ)
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