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सूफ़ियाना-कलाम (भाग-3) नज़ीर अकबराबादी
Sufiyana Kalam (Part-3) Nazeer Akbarabadi
31. दुनियाँ के मरातिब क़ाबिले ऐतबार नहीं - नज़ीर अकबराबादी
गर शाह सर पे रखकर अफ़सर हुआ, तो फिर क्या?
और बहरे सल्तनत का गौहर हुआ, तो फिर क्या?
माहीये, इल्म, मरातिव, पुर ज़र हुआ, तो फिर क्या?
नौबत, निशां, नक़ारा, दर पर हुआ तो फिर क्या?
क्या रख के फ़ौज लश्कर, की सल्तनत पनाही।
फेरी दुहाई अपनी, ले माह ता बा माही ।
जब आन कर फ़ना की, सर पर पड़ी तबाही।
फिर सर रहा न लश्कर, ने ताजे बादशाही।
दारा, अज़म, सिकन्दर, अकबर हुआ तो फिर क्या?
या ज़ात में कहाये, नामी असील, जाती।
जमशेद फ़र के पोते, नौशेरबाँ के नाती।
थे आप मिस्ल दूल्हा, और फ़ौज थी बराती।
जब चल बसे तो कोई, फिर संग था न साथी।
मुल्को, मकां, ख़जाना, लश्कर हुआ तो फिर क्या?
या राज बंसी होकर, दुनिया में राज पाया।
चित्तौर गढ़, सितारा, कालिंजर आ बनाया।
जब तोप ने अजल की आ मोर्चा लगाया।
सब उड़ गए हवा पर, कोई न काम आया।
गढ़, कोट, तोप, गोला, लश्कर हुआ, तो फिर क्या?
कितने दिनों यह गुल था, नव्वाब हैं यह खाँ हैं।
यह इब्न पंच हज़ारी, यह आली खानदां हैं।
जागीरो मालो मनसब, गो आज इनके हाँ हैं।
देखा तो एक घड़ी में, न नामो न निशां हैं।
दो दिन का शोर चर्चा, घर-घर हुआ, तो फिर क्या?
कहता था कोई देखो, यह हैं अमीर ख़ां जी।
और वह हैं खानख़ाना, और यह हैं मीर ख़ां जी।
पंजा उठा क़जा का, जब आके शेरखां जी।
फिर किसके मीर खां जी, किसके वज़ीर खां जी।
उम्दा, ग़नी, तवंगर, बाज़र हुआ, तो फिर क्या?
कहता था कोई घोड़ा, है नामदार ख़ां का।
यह पालकी यह हाथी, है जुल्फ़िक़ार ख़ां का।
आया क़दम अजल के, जब तीस मार ख़ां का।
ख़र भी कहीं न देखा, फिर शहसवार ख़ां का।
झप्पान, मेग, डम्बर दर पर हुआ तो फिर क्या?
कहता था कोई ड्योढ़ी, है ख़ान मेहेरबां की।
यह बाग यह हवेली, है महल दार ख़ां की।
जब राज ने क़ज़ा के करनी वसूली टांकी।
एक ईंट भी न पाई, हरगिज़ किसी मकां की।
रंगों महल, सुनहरा घर, दर हुआ, तो फिर क्या?
कितनों ने बादशाही, क्या क्या खि़ताब पाया।
मोहरें बड़ी खुदाई, सिक्का बड़ा बनाया।
जब आन कर फ़ना ने, नामों निशां मिटाया।
वह नाम और वह सिक्का, ढूंढ़ा कहीं न पाया।
दो दिन का मुहर, छापा, दर पर हुआ, तो फिर क्या?
जागीर में किसी ने, ज़र खेज़ मुल्क पाया।
कर बन्दोबस्त अपना, नज़्मो नसक़ बिठाया।
लेकर सनद, अजल की जब फ़ौजदार आया।
एक दिन में हुक्मों हासिल, सब हो गया पराया।
हांसी हिसार, ठट्टा, भक्कर हुआ तो फिर क्या?
कहता कोई यह लश्कर, है तुर्रे बाज़ ख़ां का।
यह ख़ेमा शामियाना, है शहनवाज़ ख़ां का।
आया कटक अजल के, जब यक्का ताज़ ख़ां का।
सर भी कहीं न पाया, फिर सरफ़राज ख़ां का।
सरदार, मीर, बख़्शी बढ़कर हुआ तो फिर क्या?
हाथी पे चढ़के निकले या ख़ासे घोड़े ऊपर।
या नालकी संभाली, या पालकी की झालर।
या ले सुराही, हुक्का दौड़े जलीब अन्दर।
जब आ अजल पुकारी, साहब रहा न नौकर।
आक़ा हुआ तो फिर क्या? नौकर हुआ तो फिर क्या?
या लेके एक क़लम दां और रख क़लम को सर पर।
जोड़े हिसाब लाखों, चेहरे लिखे सरासर।
जब उम्र की कचहरी, झांकी क़जा ने आकर।
फिर आप न क़लम दां, कागज़ रहा न दफ़्तर।
मुंशी, वकील, दीवां मर मर हुआ, तो फिर क्या?
या ले क़ज़ाकी खि़दमत, हो बैठे आप क़ाजी।
मेहज़र क़बाले लिखे, क़जिये चुकाये शरई।
ऐलान ले कज़ा का, जब आ फ़ना पुकारी।
फिर महकमा न झंगड़ा, क़ाजी रहा न मुफ़्ती।
कोड़ा लबेदा, दुर्रा दर पर हुआ, तो फिर क्या?
कुतवाल बनके बैठा, या सदर हो मुक़र्रर।
फ़ासिक डरें हज़ारों, और चोर कांपे थर थर।
आया क़जा का मरधा, जिस दम छुरी उठाकर।
कुतवाली और सदारत, सब उड़ गई हवा पर।
दो दिन का ख़ोफ़ो ख़तरा, और डर हुआ, तो फिर क्या?
कहते थे कितने हम तो हैं, जात में कलाँ जी।
हम शेख़, हम मुग़ल हैं, हम हैं पठान हां जी।
जिस दम क़ज़ा पुकारी, ‘अब उठ चलो मियां जी’।
फिर शेख़ जी न सैय्यद, मिर्जा रहे न ख़ां जी।
ज़ातो हस्ब नस्ब का, जौहर हुआ तो फिर क्या?
या लेके ज़र जहां में, करने लगे तिजारत।
या सेठ बनके बैठे, ख़ासी बना इमारत।
खोली क़ज़ा ने बहियाँ, जब करके इक इशारत।
सब कोठी और दुकानें, कर डालीं दम में ग़ारत।
मालो मकां, जवाहर, और ज़र हुआ तो फिर क्या?
या हो सिपाही बांका, तिरछा बड़ा कहाया।
बल दार बांध चीरा, तुर्रे को जगमगाया।
खेतों में जाके कूदा, लाखों तई भगाया।
जब मुंह अजल का देखा, फिर कुछ भी बन न आया।
यक्ता शुजा, बहादुर, सफ़दर हुआ तो फिर क्या?
घोड़ा उठा के डूबा फ़ौजों में हो दिलावर।
मारे तमंचे, भाले, खाई कटार, जमघर।
मारा क़ज़ा ने भाला, जिस दम फ़ना का आकर।
फिर मरदमी शुजाअत, सब हो गई बराबर।
खोद व कुलाह, चलता, बक्तर हुआ, तो फिर क्या?
या हो हकीम हाजिक़, करने लगे तबाबत।
मुर्दों तई जिलाया, ईसा की कर करामत।
खोये मरज हज़ारों, धोई हर एक जहमत।
जब आई सर पर अपने, फिर कुछ चली न हिकमत।
लुक़मान या फ़लातूं आकर हुआ, तो फिर क्या?
या हो नुजूमी कामिल, तारों को छान डाला।
सूरज गहन विचारे, चन्दर गहन निकाला।
बुर्ज़ो सितारे बांधे, अहकाम को संभाला।
जब वक्त अपना आया, उस वक्त को न टाला।
जोतिश, नुजूम, पण्डित, पढ़कर हुआ तो फिर क्या?
या पढ़के दो किताबें और करके इल्म हासिल।
या भूत, जिन उतारे, मशहूर होके आमिल।
जब देव का अजल के, साया हुआ मुकाबिल।
मुल्ला रहा न स्याना आलिम रहा न फ़ाजिल।
तावीज, फ़ाल, जादू, मंतर हुआ, तो फिर क्या?
माथे पे खीच टीका, या हाथ लेके माला।
पोथी बग़ल में दाबी, जुन्नार को संभाला।
पूजा कथा बखानी, गीता सबद निकाला।
कुछ बन सका न, आया जब जान लेने वाला।
वेदों पुरान पढ़कर मिस्सर हुआ तो फिर क्या?
या पीके मै किसी ने, की ऐशो कामयाबी।
लोटा नशे में हरजा कर दिल से बे हिजाबी।
जिस दम क़जा ने अपनी, झमकाई एक गुलाबी।
फिर मैं रही न मीना, न मस्त न शराबी।
एक दम लबों पे भभका, सागर हुआ तो फिर क्या?
हुस्नो जमाल पाकर, या खूबरू कहाया।
या इश्क में किसी ने, जी जान को घटाया।
आकर पड़ा सरों पर, जिस दम अजल का साया।
दीनों में फिर किसी को ढूंढ़ा कहीं न पाया।
आशिक़ हुआ तो फिर क्या? दिलबर हुआ तो फिर क्या?
या होके पीर जादे, करने लगे फ़कीरी।
करके मुरीद कितने, की उनकी दस्तगीरी।
जब पेरहन की कफ़नी, आकर अजल ने चीरी।
सब उड़ गई हवा पर, दम में मुरीदी पीरी।
मुर्शिद, हादी, रहबर हुआ तो फिर क्या?
या सर मुंडा के बैठे, आजाद हो नवेले।
या खुड़मुड़े कहाकर सौ रूप रंग खेले।
मेले किये हज़ारों मूंडे, फ़कीर चेले।
जब आ फ़ना पुकारी, जा सो रहे अकेले।
तकिया हुआ तो फिर क्या, बिस्तर हुआ तो फिर क्या?
जोगी, अतीत, जंगम या सेवड़ा कहाया।
या खोल कर जटा को, या घोंट सर मुंडाया।
त्रिसूल ले क़ज़ा का, जब वक्त सर पर आया।
ने वालके को थामा, ने आपको बचाया।
नानक कबीर पंथी, भरथर हुआ, तो फिर क्या?
या नेक बन के बैठे, अच्छे लगे कहाने।
या होके बद हर एक के, दिल को लगे सताने।
आकर बजे अजल के, जब सर पे शादयाने।
थे नेको बद जहां तक, सब लग गए ठिकाने।
बेहतर हुआ तो फिर क्या? बदतर हुआ तो फिर क्या?
क्या हिन्दू, क्या मुसलमाँ, क्या रिंदो गवरो काफ़िर।
नक़्क़ाश क्या मुसव्विर, क्या खुश नवीस शायिर।
जितने, ‘नज़ीर’ हैं, यां, एक दम के हैं मुसाफिर।
रहना नहीं किसी को चलना है सबको आखि़र।
दो चार दिन की ख़ातिर, यां घर हुआ तो फिर क्या?
(गौहर=मोती, माहीये=मछली, मरातिव=औहदे,
पुर ज़र=मालदार, सरवर=मालिक, माह ता बा माही=
आकाश से पाताल तक, फ़ना=मौत, मिस्ल=तरह,
क़जा=मौत, तवंगर=मालदार, बाज़र=दौलतमंद,
झप्पान=पहाड़ों पर प्रयोग होने वाली छोटी पालकी,
ज़र खेज़=उपजाऊ, नसक़=इंतजाम, मेहज़र=संयुक्त
प्रमाणित दस्तावेज, क़बाले=बिक्री का कागज़, दुर्रा=
चमड़े का कोड़ा, फ़ासिक=पापी,गुनहगार, कलाँ=श्रेष्ठ,
नस्ब=खानदान, तुर्रे=टोपी का फूल, सफ़दर=बहादुर,
शुजाअत=बहादुरी, खोद व कुलाह=शिरस्त्राण और
ताज, बक्तर=कवच, हाजिक़=हकीम जिसके हाथ
में शफा हो, तबाबत=इलाज, जहमत=तकलीफ,
अहकाम=हुक्म, जुन्नार=जनेऊ, मिस्सर=मिश्र,
पंडित, हिजाबी=बेपर्दगी, खूबरू=सुन्दर, दस्तगीरी=
सहायता, पेरहन=कपड़ा, हादी=हिदायत करने
वाला, रहबर=मार्गदर्शक)
32. वज़्द-व-हाल - नज़ीर अकबराबादी
क्या इल्म उन्होंने सीख लिया, जो बिन लिक्खे बांचे हैं।
और बात नहीं मुंह से निकले बिन होंठ हिलाये जाचे हैं॥
दिल उनके तार सितारों के तन उनके तबल तमाचे हैं।
मुंह चंग ज़बां, दिल सारंगी, पा घुंघरू हाथ कमाचे हैं।
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥1॥
कुल बाजे बजकर टूट गए आवाज़ लगी जब भर्राने।
और छम-छम घुंघरू बंद हुए तब गत का अंत लगे पाने॥
संगीत नहीं यह संगत हैं नटवे भी जिससे नट मानें।
यह नाच कोई क्या पहचाने, इस नाच को नाचे सो जाने॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥2॥
जब हाथ को धोया हाथों से जब हाथ लगे थिरकाने को।
और पांव को खींचा पावों से, जब पांव लगे गत पाने को॥
जब आंख उठाई हंसने से, जब नैन लगे मटकाने को।
सब छाछ कछे, सब नाच नचे, उस रसिया छैल रिझाने को॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥3॥
जो आग जिगर में भड़की है, उस शोले की उजियाली है।
जो मुंह पर हुस्न की ज़र्दी है, उस ज़र्दी की सब लाली है॥
जिस गत पर उसका पांव पड़ा, उस गत की चाल निराली है।
जिस मजलिस में वह नाचे हैं, वह मजलिस सबसे खाली है॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥4॥
सब घटना बढ़ना फेंक अधर और ध्यान उधर धर मरते हैं।
बिन तारों तार मिलाते हैं, जब निरत निराला करते हैं॥
बिन गहने झमक दिखाते हैं, बिन जोड़े मन को हरते हैं।
बिन हाथों भाव बताते हैं, बिन पांव खड़े गत भरते हैं॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥5॥
था जिसका ख़ातिर नाच नचा, जब सूरत उनकी आय गई।
कहीं आप कहा, कहीं नाच किया और तान कहीं लहराय गई॥
जब छैल छबीले सुन्दर की, छबि नैनन अन्दर छाय गई।
एक मूर्छा गत सी आय गई, और जोत में जोत समाय गई॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥6॥
सब होश बदन का दूर हुआ, जब गत पर आ मरदंग बजी।
तन भंग हुआ, दिल दंग हुआ, सब आन गई बे आन सजी॥
यह नाचा कोई ‘नज़ीर’ अब यां औ किसने देखा नाच अजी।
जब बंद मिली जा दरिया में, इस तान का आखि़र निकला जी॥
हैं राग उन्हीं के रंग भरे और भाव उन्हीं के सांचे हैं।
जो बेगत, बे सुर ताल हुए, बिन ताल पखावज नाचे हैं॥7॥
33. पेट - नज़ीर अकबराबादी
किसी सूरत नहीं भरता ज़रा पेट, यह कुछ रखता है अब हर्सो हक।
अगर चोरी न करता चोर यारो, तो होता चाक कहो उसका भला पेट॥
चले हैं मार अशराफ़ों को धक्का, मियाँ जिस दम कमीने का भरा पेट।
नहीं चैन उसको इस क़ाफ़िर के हाथों, है छोटा जिसका अघसेरा बना पेट॥
ख़ुदा हाफिज़ है उन लोगों का यारो, कि जिनकी है बड़ी तोंद और बड़ा पेट।
सदा माशूक पेड़े मांगता है, मलाई सा वह आशिक को दिखा पेट॥
और आशिक़ का भी इसके देखने से, कभी मुतलिक नहीं भरा पेट।
गरीब आजिज़ तो हैं लाचार यारो! कि उनसे हर घड़ी है मांगता पेट॥
तसल्ली खूब उनको भी नहीं है कि घर दौलत से जिनके फट पड़ा पेट।
किसी का यह मुहिब न यार न दोस्त फ़क़त रोटी का है इकआश्ना पेट॥
भरे तो इस खुशी से फूल जावे कि गोया बाँझ के तई रह गया पेट।
जो खाली हो तो दिन को यों करे सुस्त किसी का जैसे दस्तों से चला पेट॥
बड़ा कोई नहीं दुनियां में यारो मगर कहिए तो सबसे बड़ा पेट।
हुए पूरे फ़क़ीरी में वही लोग जिन्होंने सब से अपना कसा पेट॥
लगा पूरब से लेकर ताबः पच्छिम लिए फिरता है सबको जा बजा पेट।
कई मन किया गया मज़मून का आटा ‘नज़ीर’ इस रेख्ते का है बड़ा पेट॥
34. आख़िर वही अल्लाह का एक नाम रहेगा - नज़ीर अकबराबादी
दुनियां में कोई ख़ास न कोई आम रहेगा।
न साहिबे मक़दूर न जाकाम रहेगा॥
ज़रदार न बेज़र न बद अंजाम रहेगा।
शादी न ग़मे गर्दिशे अय्याम रहेगा।
न ऐश न दुख दर्द न आराम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥1॥
यह चर्ख़ दिखाता है पड़ा गुंबदे अज़रक।
यह चांद यह सूरज, यह सितारे हैं मुअल्लक॥
लोहो क़लमो अर्शे बरीं, सावितो मुतलक़।
सब ठाठ यह एक आन में हो जावेगा हू हक़॥
आग़ाज किसी शै का न अंजाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥2॥
ले आलमे अर्वाह से ता आलमे जिन्नात।
इन्सान, परी, हूरो मलक जिन्नो खबीसात॥
क्या अब्रो-हवा, कोहो बहर अर्ज़ों समावात।
एक फूंक में उड़ जायेंगे जूं नक़्शे तिलिस्मात॥
हुशियार न पुख़्ता, न कोई ख़ाम रहेगा।
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥3॥
गर इल्मो हुनर से है कोई ख़ल्क़ में मशहूर।
या कश्फ़ो-करामात में है साहिबे मक़दूर॥
या एक का है नामो निशां ख़ल्क में मशहूर।
एकदम में पलक मारते हो जायेंगे सब दूर॥
मस्तूर न मशहूर, न गुमनाम रहेगा।
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥4॥
मुख़्तारी के ख़तरे से जो करते हैं सदा काम।
या जब्र से मजबूरी के रखते हैं कई दाम॥
जब आके फ़ना डालेगी एक गर्दिशे अय्याम।
एक आन में उड़ जायेगा सब चीज़ का इल्ज़ाम॥
मुख़्तार न मजबूर, न खुद काम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥5॥
अब दिल में बड़े अपने जो कहलाते हैं अय्यार।
सौ मक्रो-दग़ा करते हैं एक आन में तैयार॥
जब आके फ़ना डालेगी सर के ऊपर एक वार।
एक बार के लगते ही यह हो जावेंगे सब पार॥
ने मक्र, न हीला, न कोई दाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥6॥
करते हैं जो अब दिल से रियाज़ातो-इबादत।
या उम्र को खोते हैं बेरिंदीयो ख़राबात॥
जब आके फ़ना छोड़ेगी शमशीर का एक हात।
फिर साफ़ है दोनों की गुनाहगारियो ताआत॥
न रिंद न आबिद न मै आशाम रहेगा।
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥7॥
झगड़ा न करे मिल्लतो मज़हब का कोई यां।
जिस राह में जो आन पड़े खु़श रहे हर आं॥
जुन्नार गले या कि बग़ल बीच हो कु़रआं।
आशिक़ तो क़लंदर हैं न हिन्दू न मुसल्मां॥
काफ़िर न कोई, साहिबे इस्लाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥8॥
जो शाह कहाते हैं कोई उनसे यह पूछो।
दाराओ सिकन्दर वह गए आह किधर को॥
मग़रूर न हो शौकतो हश्मत पे, वज़ीरो।
इस दौलतो इक़बाल पे मत फूलो अमीरो॥
ने मुल्क, न दौलत, न सर अंजाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥9॥
व्योपार जो करते हैं हर एक चीज़ का ज़रदार।
आगे भी दुकानें थीं कई और कई बाज़ार॥
जिस तौर का अब चाहिए कर लीजिये व्योपार।
फिर जिन्स, न दल्लाल, न मालिक न ख़रीदार॥
न नक़्द, न कुछ कर्ज, न कुछ दाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥10॥
अब जितनी खड़ी देखो हो आलम में इमारात।
या झोंपड़े दो कौड़ी के या लाख के महलात॥
क्या पस्त मकां, क्या यह हवादार मकानात।
एक ईंट भी ढूंढ़े कहीं आने की नहीं हात॥
दालान न हुजरा, न दरो बाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥11॥
यह बागो चमन अब जो हर एक जा में रहे फूल।
यह शाख़ यह गुंचा, यह हरे पात यह फल फूल॥
आजावेगी जब वादे खि़जां उनके उपर भूल।
हर ख़ार की हर फूल की, उड़ जावेगी सब धूल॥
न ज़र्द, न सुर्ख, और न सियाहफ़ाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥12॥
मै ख़्वार भी कितने हुए याँ मै के मलाक़ी।
साक़ी भी कई हो गए महबूब वसाक़ी॥
ला जाम कोई भर के जो हो और भी बाकी।
फु़र्सत है गनीमत कोई दम को, अरे साक़ी॥
न मै न सुराही न तेरा जाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥13॥
यह आशि़की माशूक जो करते हैं बहम चाह।
आगे भी बहुत आशिको माशूक थे वल्लाह॥
वह शख़्स कहां जाते रहे, ऐ! मेरे अल्लाह!
यह बात से मालूम हुआ अब तो यही आह॥
न इश्क न आशिक न दिल आराम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥14॥
टुक गौर करो अब हैं कहां मजनूं व फ़रहाद।
लैला कहां, शीरीं कहां, वह नाज़ वह वेदाद॥
जो फूल खिले, वाह, वह सब हो गए बरबाद।
हम तुम भी ग़नीमत हैं सुन, ओ यार परीज़ाद॥
वां हुस्न, न यां इश्क का हंगामा रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥15॥
महबूब बना जिसने, तुम्हें हुस्न दिया है।
उसने ही हमें आशिके़ जां बाज़ किया है।
मिलना है तो मिल लो, यही जीने का मज़ा है।
सब नाज़ो नियाज, आह, यह एक दम की हवा है॥
फिर हिज्र न कुछ वस्ल का पैगाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥16॥
मिलने से हमारे जो तुम्हें आता है इल्ज़ाम।
आने दो, पै तुम हमसे मिले जाओ, सहर शाम॥
फिर हुश्न कहां, अपने रखो काम से तुम काम।
झक मारते हैं, वह जो तुम्हें करते हैं बदनाम॥
तूफान, न भूतान, न इल्ज़ाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥17॥
यह शेरो ग़जल अब जो बनाते हैं ज़बानी।
आगे भी बहुत छोड़ गए अपनी निशानी॥
दीवान बनाया, कोई किस्सा कि कहानी।
कुछ बाक़ी ‘नज़ीर’ अब नहीं, सब चीज है फ़ानी॥
ख़म्सा न ग़जल, फ़र्द न ईहाम रहेगा॥
आखि़र वही अल्लाह का एक नाम रहेगा॥18॥
(ज़रदार=मालदार, बेज़र=गरीब, चर्ख़=आसमान,
अज़रक=नीला, अब्र=बादल, कश्फ़=गुप्त बातों का
ज्ञान, मस्तूर=छिपा हुआ,गुप्त, अय्यार=बहुत
अधिक चालाक, मक्रो-दग़ा=धोखा, रियाज़ात=
तपस्या, बेरिंदीयो ख़राबात=मस्ती, रिंद=शराबी,
आबिद=तपस्वी, आशाम=शराब पीने वाला,
जुन्नार=यज्ञोपवीत, क़लंदर=मस्त और आज़ाद
मनुष्य, सियाहफ़ाम=काले रंग का, मै ख़्वार=
शराब पीने वाले, वस्ल=मिलन, फ़ानी=मिटने
वाली, ख़म्सा=उर्दू की एक नज़्म जिसके हर
बन्द में पाँच मिस्रे होते हैं, ईहाम=एक
अर्थालंकार जिसमें ऐसा शब्द लाते हैं जिसके
दो अर्थ होते हैं और पास वाला अर्थ छोड़कर
दूरवाला अर्थ लगाते हैं)
35. तवक्कुलो तर्को तजरीद - नज़ीर अकबराबादी
जितने तू देखता है यह फल, फूल पात, बेल।
सब अपने अपने काम, की हैं कर रहे झमेल।
नाता है यां सो नाथ, जो रिश्ता है सो नकेल।
जो ग़म पड़े सो इसको तू अपने ही तन पे झेल।
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥1॥
यह सूरतें जो देखे हैं मत इनसे दिल लगा।
बर्रें यह सोतियां हैं इन्हें ऐ यार मत जगा।
शिजरा कुलाह फेंक उड़ादे झगा तगा।
आगे को छोड़ नाथ, न पीछे को रख पगा।
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥2॥
जब तू हुआ फ़क़ीर, तो नाता किसी से क्या।
छोड़ा कुटम, तो फिर रहा रिश्ता किसी से क्या।
मतलब भला फ़क़ीर को, बाबा किसी से क्या।
दिलबर को अपने छोड़ के, मिलना किसी से क्या।
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥3॥
तेरी न यह ज़मीं है न तेरा यह आस्मां।
तेरा न घर, न बार, न तेरा यह जिस्मोजां॥
उसके सिवा कि जिस पे हुआ तू फ़क़ीर यां।
कोई तेरा रफ़ीक़, न साथी, न मेहेरबां॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥4॥
देता है दिल को अपने तो दे उस किसी के हात।
जिस यार से कि हो तेरे जीते मुए का सात॥
और यह जो तुझसे करते हैं मिल मिल के मीठी बात।
मारा पड़ेगा देख, न खा उनके हात घात॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥5॥
यह उल्फतें कि साथ तेरे आठ पहर हैं।
यह उल्फतें नहीं हैं मेरी जान क़हर हैं॥
जितने यह शहर देखे हैं, जादू के शहर हैं।
जितनी मिठाइयां हैं, मेरी जान ज़हर हैं॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥6॥
खूबां के यह जो चांद से मुंह पर खुले हैं बाल।
मारा है तेरे वास्ते, सैयाद ने यह जाल॥
यह बाल, बाल अब है तेरी जान का बबाल।
फंसियो खुदा के वास्ते इसमें न देखभाल॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥7॥
जिसका तू है फ़क़ीर, उसी को समझ तू यार।
मांगे तो मांग उस से ही क्या नक़्द, क्या उधार॥
देवे तो ले वही, जो न देवे तो दम न मार।
उसके सिवा किसी से न रख अपना कारोबार॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥8॥
दुनियां इसे न जान, यह दरिया है कहरदार।
लाखों में इससे कोई उतर कर हुआ न पार॥
जब तू बहा तो फिर, न मिलेगा तुझे किनार।
मल्लाह यां, न नाव, न बल्ली है मेरे यार?
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥9॥
दुनियां न कह इसे, यह तिलिस्मात हैं मियां।
यह जानवर, यह बाग़, यह गुलज़ार यह मकां॥
शक्लें जो देखता है यह जादू की हैं अयां।
सब कुछ तेरे तई है, यह धोके की टट्टियां॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥10॥
क्या फ़ायदा? अगर तू हुआ नाम का फ़क़ीर।
होकर फ़क़ीर, तो भी रहा जाल में असीर॥
ऐसा ही था तो फ़क्र को नाहक़ किया हक़ीर।
हम तो इसी सखुन के हैं क़ायल मियां ‘नज़ीर’॥
गर है फ़क़ीर तू, तो न रख यां किसी से मेल।
यां तूंबड़ी, न बेल, पड़ा अपने सर पे खेल॥11॥
(शिजरा=वंशावली, कुलाह=टोपी,ताज, जिस्मोजां=
शरीर एवं जीव, रफ़ीक़=दोस्त, क़हर=प्रकोप, खूबां=
सुन्दर,सुकुमारियां, सैयाद=बहेलिया, फ़क्र=फ़कीरी,
हक़ीर=अपमानित)
36. कुदरत का गुलदस्ता - नज़ीर अकबराबादी
दुनियां का चमन यारो है खू़ब यह आरस्ता।
सरसब्ज रहे उसका हर सब्जा यह पैबस्ता।
हर फूल के आने का जारी है सदा रस्ता।
हर शाख़ मुकत्ता है हर बर्ग है बरजस्ता।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
या अर्जो-समा तारे जो आन के झूले हैं।
जिन देव परी आदम या बाद बबूले हैं।
सब वहशियो-ताइर हैं या घास के पूले हैं।
कुछ और नहीं यारो यह गुल वही फूले हैं।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
हर शहरोदही कस्बा सब फूलों की डलियां हैं।
कूंचे हैं सो तख़्ते हैं गलियां हैं सो कलियां हैं।
दीवारो दरो हुजरे सब क्यारियां ढलियां हैं।
ईंट ईंट से हर घर के क्या रंग हैं रलियां हैं।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
अम्बोह है गुंचों का और गुल की क़तारें हैं।
शाखों के तराकुम हैं बर्गो की बहारें हैं।
जो अपनी खड़े होकर खू़बी को संवारे हैं।
सब अपने ही आलम में हम हुस्न का मारे हैं।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
कहता है गुलाब हर दम मैं इत्र सरासर हूं।
और सेब यह कहती है मैं उससे मुअत्तर हूं।
बेला यह पुकारे है मैं चांद का पत्तर हूं।
गुल अशर्फी कहती है वह क्या है मैं बेहतर हूं।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
लाला यह सुनाता है मैं लाल का प्याला हूं।
सूरजमुखी कहती है मैं उसकी भी खाला हूं।
सदबर्ग यह कहता है सौ दर्जे में बाला हूं।
गुल जाफ़री कहती है मैं उससे भी आला हूं।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
नसरीनो समन शब्बू गुच्छा है सुरैया का।
नीलोफ़रो नाफ़र्मा है रूप कन्हैया का।
राबेल चमेली भी जलवा है डलैया का।
दम भरता है जन्नत से हर फूल कटैया का।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
कहता है कमल हर दम मैं पाक नमाज़ी हूं।
और मोंगरा कहता है मैं मर्द हूं ग़ाजी हूं॥
सौसन की जबां बोली मैं तुर्कियो ताज़ी।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
मधुमालती, नागेसर और मौलसिरी, करना।
दोपहरिया दाऊदी गुल चीन कटहल, बरना।
नरगिस भी पुकारे है मुझ पर यह नजर करना।
पीछे को सुहागिन के सौ इश्क़ के दम भरना।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
गुल केबड़ा कहता है क्या मुझको तराशा है।
और केतकी कहती है सन्दल का तराशा है।
और मोतिया शफ़तालू ज़र सीम का माशा है।
और रंगे हिना मख़मल जो है सो तमाशा है।
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
डेले व कनीज़ों की क्या पंखड़ी ढाली है।
चम्पा व मुचंपा है या मोती की बाली है॥
बगुले व मदन बान की कुछ बात निराली है।
गुल चांदनी कहती है मेरी ही उजाली है॥
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
दस्तार पे गुल तुर्रा क्या शान जमाता है।
कलगा भी उधर अपनी कलगी को हिलाता है॥
और फूल निवाड़े का बजरे को बढ़ाता है।
जो गुल है सो अपने ही जीवन को दिखाता है॥
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
बन आग़ तुरई टेसू क्या फूल रहे बन बन।
सरसों है अडू़सा है फिर और ही है सन बन॥
कहता है पिया बांसा है हुस्न मेरा सोसन।
दरसन यह पुकारे है आ देख ले सुखदरसन॥
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
कुदरत बनाई जिसने इस बाग़ की डाली है।
क्या बोलें ‘नज़ीर’ आगे क्या खू़ब वह माली है॥
क्या नख़्ल का डाला है क्या फूल की डाली है।
सबका वही वारिस है सबका वही वाली है॥
दुनियां न कहो इसको यह बाग़ है सरबस्ता।
क्या दस्त से कु़दरत के बांधा है यह गुलदस्ता॥
(आरस्ता=सुसज्जित, सजा हुआ, पैबस्ता=लगा
हुआ, मुकत्ता=छटी हुई, बर्ग=पत्ता, बरजस्ता=
फौरन,तुरन्त, अर्जो-समा=पृथ्वी-आकाश, वहशियो=
जंगली, ताइर=पक्षी, सदबर्ग=गेंदा,सौ दलों वाला,
समन=चमेली का फूल, शब्बू=रात में खिलने
वाला खुशबूदार फूल, सुरैया=रोशनी का झाड़,
नीलोफ़र=नील कमल, नाफ़र्मा=नटखट, ग़ाजी=
धर्मबीर, सौसन=एक नीला फूल जिसकी पंखुड़ी
जबान जैसी होती है। जवान के उपमान के
रूप में काव्य में प्रयोग किया जाता है, ताज़ी=
अरब की भाषा,अरबी, सन्दल=चंदन, दस्तार=
पगड़ी, वाली=मालिक)
37. तौहीद - नज़ीर अकबराबादी
तनहा न उसे अपने दिले तंग में पहचान।
हर बाग़ में, हर दश्त में, हर संग में पहचान॥
बे रंग में, बारंग में, नेरंग में पहचान।
मंज़िल में, मुक़ामात में, फरसंग में पहचान॥
नित रोम में और हिंद में और जंग में पहचान।
हर राह में हर साथ में, हर संग में पहचान॥
हर अज़्म में, हर आहंग में पहचान।
हर धूम में, हर सुलह में, हर अंग में पहचान॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥1॥
फल पात कहीं शाख, कहीं फूल, कहीं बेल।
नरगिस कहीं, सोसन कहीं, बेला कहीं राबेल॥
आज़ाद कोई सबसे, किसी का है कहीं मेल।
मलता है कोई राख, चंबेली का कोई तेल॥
करता है कोई जुल्म, तो लेता है कोई झेल।
बांधे कोई तलवार, उठाता है कोई सेल॥
अदना कोई, आला कोई, सूखा कोई, डंड पेल।
जब गौर से देखा, तो उसी के हैं यह सब खेल॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥2॥
गाता है कोई शौक़ में, करता है कोई हाल।
फांके है कोई ख़ाक, उड़ाता है कोई माल॥
हंसता है कोई शाद, किसी का है बुरा हाल।
रोता है कोई होके ग़मो दर्द में पामाल॥
नाचे है कोई शोख़, बजाता है कोई ताल।
पहने है कोई चीथड़े ओढ़े है कोई शाल॥
करता है कोई नाज, दिखाता है कोई बाल।
जब ग़ौर से देखा तो उसी की है यह सब चाल॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥3॥
जाता है हरम में, कोई कु़रआन बग़ल मार।
कहता है कोई दैर में पोथी के समाचार॥
पहुंचा है कोई पार, भटकता है कोई वार।
बैठा है कोई ऐश में, फिरता है कोई ज़ार॥
आजिज़ कोई, बेबस कोई, जालिम कोई लठमार।
मुफ़्लिस कोई नाचार तवांगर कोई जरदार॥
जख़्मी कोई, माँदा कोई, अच्छा कोई बदकार।
जब ग़ौर से देखा, तो उसी के हैं सब असरार॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥4॥
है कोई दिली दोस्त, कोई जान का दुश्मन।
बैठा है पहाड़ों में, कोई फिरता है बन बन॥
माला कोई जपता है, कोई शौक़ं में सुमिरन।
छोड़े है कोई माल समेटे है कोई धन॥
निकले हैं जवाहर के कोई पहन के अबरन।
लोटे है कोई ख़ाक में रो-रो के मिला तन॥
जोगी कोई, भोगी कोई, सोगी कोई, सोहगन।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं यह सब फ़न॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥5॥
सर्दी कहीं, गर्मी कहीं, जाड़ा कहीं, बरसात।
दोज़ख कहीं बैकुंठ कहीं बर्ज़ो-समावात॥
हूरें कहीं, गुल्मां कहीं, परियां कहीं जिन्नात।
ऊजड़ कहीं, बस्ती कहीं, जंगल कहीं देहात॥
सख़्ती कहीं, राहत कहीं, गर्दिश कहीं सकनात।
शादी कहीं, मातम, कहीं, नूर और कहीं जुल्मात॥
तारे कहीं सूरज कहीं बुर्ज और कहीं दिन-रात।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं तिलिस्मात॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥6॥
बेचे हैं जवाहर कोई ज़र सीमो तिला रांग।
मारे कोई पारे को बनाये कोई मिरगांग॥
देता है कोई हाथ से, लेता है कोई मांग।
मोहताज कोई कु़व्वत का, रखता है कोई दांग॥
ठहरा है कोई चोर, लगाता है कोई थांग।
मलता है कोई पोस्त को, छाने है कोई भांग॥
घंटा है कहीं झांझ, कहीं संख कहीं बांग।
जब ग़ौर से देखा तो उसी के हैं यह सब स्वांग॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥7॥
नारी कोई बाँदी, कोई ख़ाकी कोई आबी।
सूफ़ी कोई जाहिद कोई मदमस्त शराबी॥
बातें कोई बैठा हुआ, करता है किताबी।
पीता है कोई कैफ़, कोई मै की गुलाबी॥
मारेहै ज़टल कोई कहीं जेब है दाबी।
सच्चा कोई झूठा है कोई रिंद ख़राबी॥
काला कोई गोरा, कोई पीला कोई आबी।
हैं उसकी ही कु़दरत के यह सब लाल गुलाबी॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥8॥
क्या हुस्न कहीं पाया है, अल्लाह ही अल्लाह!।
क्या इश्क़ कहीं छाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या रंग यह रंगवाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या नूर यह झमकाया है, अल्लाह ही अल्लाह!॥
क्या मेहर है क्या माया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
क्या ठाठ यह ठहराया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
क्या भेद "नज़ीर" आया है, अल्लाह ही अल्लाह॥
हर आन में हर बात में, हर ढंग में पहचान॥
आशिक़ है तो दिलबर को हर एक रंग में पहचान॥9॥
(तनहा=अकेला, दश्त=जंगल, बारंग=रंगीन, नेरंग=
विभिन्नता, फरसंग=लगभग छह मील का एक
माप, जंग=अफ्रीक़ा, अज़्म=श्रेष्ठ इरादा, आहंग=
आवाज़, हाल=सूफियों का मस्ती में नाचना,
पामाल=पददलित,दुखी, हरम=काबा,खुदा का
घर, दैर=मन्दिर, आजिज़=विवश, मुफ़्लिस=
गरीब, तवांगर=धनी, जरदार=धनी, असरार=
रहस्य, बर्ज़ो-समावात=जमीन-आसमान, गर्दिश=
घूमना,दुर्भाग्य, सकनात=ठहरना,चैन,
तिलिस्मात=जादू)
38. पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में ख़ुश हैं - नज़ीर अकबराबादी
जो फ़क्ऱ में पूरे हैं वह हर हाल में खुश हैं।
हर काम में हर दाम में, हर हाल में खुश हैं॥
गर माल दिया यार ने, तो माल में खुश हैं।
बे ज़र जो किया, तो उसी अहवाल में खुश हैं।
इफ़्लास में इदबार में, इक़्बाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥1॥
चेहरे पे मलामत, न जिगर में असरे ग़म।
माथे पे कहीं चैन, न अबरू में कहीं ख़म॥
शिकवा न जुबां, पर, न कभी चश्म हुई नम।
ग़म में भी वही ऐश, अलम में भी वही दम॥
हर बात हर औक़ात, हर अफ़आल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥2॥
गर यार की मर्ज़ी हुई सर जोड़ के बैठे।
घर बार छुड़ाया तो बहीं छोड़ के बैठे॥
मोड़ा उन्हें जिधर वहां मुंह मोड़ के बैठे।
गुदड़ी जो सिलाई तेा वही ओढ़ के बैठे॥
गर शाल उढ़ाई तो उसी शाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥3॥
गर उसने दिया ग़म तो उसी ग़म में रहे खुश।
और उसने जो मातम दिया, मातम में रहे खुश॥
खाने को मिला कम, तो उसी कम में रहे खुश।
जिस तौर कहा उसने उस आलम में रहे खुश॥
दुख दर्द में आफ़ात में जंजाल में खुश है।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥4॥
जीने का न अन्दोह न मरने का ज़रा ग़म।
यकसां है उन्हें ज़िन्दगी और मौत का आलम॥
वाक़िफ़ न बरस से, न महीने से वह एक दम।
ने शब की मुसीबत, न कभी रोज का मातम॥
दिन रात घड़ी, पहर में औ साल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥5॥
गर उसने उढ़ाया तो लिया ओढ़ दुशाला।
कम्बल जो दिया, तो वही कांधे पे संभाला॥
चादर जो उढ़ाई, तो वही हो गई बाला।
बंधवाई लंगोटी तो वहीं हंस के कहा ‘ला’॥
पोशाक में दस्तार में, रूमाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥6॥
गर खाट बिछाने को मिली खाट में सोये।
दूकां में सुलाया, तो वह जा हाट में सोये॥
रस्ते में कहा, सो, तो वह जा बाट में सोये।
ग़र टाट बिछाने को दिया, टाट में सोये॥
और खाल बिछा दी, तो उसी खाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥7॥
प्याले को दिया हाथ, तो हो निकले भिखारी।
बिठला के खिलाया, तो वहीं उम्र गुज़ारी॥
मियाने पे चढ़ाया, तो लगे करने सवारी।
और पांव चलाया, तो वही बात संवारी॥
जिस चाल में रक्खा, वह उसी चाल में खुश हैं॥
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥8॥
ग़र मोंठ मंगा दी तो वही चाब ली खुश हो।
और ज्वार भुना दी, तो वही चाब ली खुश हो॥
सूखी जो दिला दी, तो वही चाब ली खुश हो।
रूखी जो उठा दी, तो वही चाब ली खुश हो॥
और दाल खिलाई, तो उसी दाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥9॥
पानी जो मिला पी लिया, जिस तौर का पाया।
रोटी जो मिली तो किया रोटी में गुजारा॥
दी भूख अगर यार ने, तो भूख को मारा।
दिलशाद रहे, करके कड़ाके पे कड़ाका॥
और छाल चबाई, तो उसी छाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥10॥
गर उसने कहा सैर करो जाके जहां की।
तो फिरने लगे जंगलो बरमार के झांकी॥
कुछ दश्तो-वियावां से ख़बर तन की न जां की।
और फिर जो कहा, सैर करो, हुस्ने-बुतां की॥
तो चश्मो रूख़ो, जुल्फ़ो, ख़तो-ख़ाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥11॥
कश्के़ का हुआ हुक्म, तो क़श्क़ा वहीं ख़ींचा।
जुब्वे की रज़ा देखी, जो जुब्बा वहीं पहना॥
आज़ाद कहा हो तो वही सर को मुंड़ाया।
जो रंग कहा, उसने वही रंग रंगाया॥
क्या ज़र्द में, क्या सब्ज़ में, क्या लाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥12॥
चादर जो उढ़ाई तो जती हो गये यकबार।
बाहर को चले, फ़क्र की झोली को बग़ल मार॥
मुंह बांध के निकलो, तो वहीं हो गए तैयार।
सर घोंट मुंडाओं, तो किया फिर वही बिस्तार॥
सब पंथ में सब चाल में, सब ढाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥13॥
कुछ उनको तलब घर की न बाहर से उन्हें काम।
तकिये की न ख़्वाहिश है न बिस्तर से उन्हें काम॥
इस्थल की हवस दिल में, न मन्दिर से उन्हें काम।
मुफ़्लिस से न मतलब, न तवांगर से उन्हें काम॥
मैदान में बाजार में, चौपाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥14॥
उनके तो जहां में अजब आलम हैं, ‘नज़ीर’ आह!
अब ऐसे तो दुनिया में, वली कम हैं, ‘नज़ीर’ आह॥
क्या जाने फ़रिश्ते हैं, कि आदम है ‘नज़ीर’ आह!
हर वक़्त में हर आन में, खुर्रम हैं ‘नजीर’ आह॥
जिस ढाल में रखा, वह उसी ढाल में खुश हैं।
पूरे हैं वही मर्द, जो हर हाल में खुश हैं॥15॥
(फ़क्ऱ=साधुता, इफ़्लास=गरीबी,मुफलिसी,
इदबार=गरीबी, मलामत=निन्दा, अबरू=भोंह,
अफ़आल=कार्य, मियाने=एक प्रकार की
पालकी, दश्तो-वियावां=जंगल-मरुस्थल,
हुस्ने-बुतां=माशूका की सुन्दरता, चश्म=
आंख, रूख़=गाल,कपोल, ख़तो-ख़ाल=तिल-
बिन्दु, कश्के़=तिलक, जुब्वे=अंगरखा,चोगा)
39. दम ग़नीमत है - नज़ीर अकबराबादी
देख, टुक ग़ाफिल चमन को गुल फ़िशानी फिर कहां?
यह बहारें, ऐश, यह शोरे जवानी फिर कहां?
साकीयो मुतरिब, शराबे अर्ग़वानी फिर कहां?
ऐश कर खू़बां में, ऐ दिल शादमानी फिर कहां?
शादमानी गर हुई, तो ज़िन्दगानी फिर कहां?॥1॥
यह जो बांके गुल बदन मिलते हैं सौ-सौ घात से।
कुछ मजे़ कुछ लूट हिज़ इन गुल रुख़ों की ज़ात से॥
एक दम हरगिज़ जुदा मत हो, तू इनके सात से।
जिस क़दर पीना हो पी ले, पानी इनके हात से॥
आबे जन्नत तो बहुत होगा, यह पानी फिर कहां?॥2॥
यह जो कड़वे होके हमको अब झिड़कते हैं यहां।
इनकी तल्ख़ी में हज़ारों है भरी शीरीनियां॥
उठ सकें जब तक उठा ऐ! दिल तू इनकी सख़्तियां।
लज़्ज़तें जन्नत के मेवे की बहुत होंगी वहां॥
पर यह मीठी गालियां खूवां की खानी फिर कहां?॥3॥
यह तो फिरते हैं सुनहरी सब्ज पोशाकें किए।
ख़ाक हो तो भी लगा रह इनके तू दामान से॥
इनकी पोशाकों की रंगत को ग़नीमत जान ले।
वां तो हुल्ले हैं बले! यह जोड़े रंगारंग के॥
सोसनी, सोहनी, गुलाबी, जाफ़रानी फिर कहां॥4॥
रह वहीं ऐ दिल सदा महबूब रहते हैं जहां।
कर ले उनकी खि़दमतें हर दम दिलो जां से मियां॥
जो तुझे देवें सो ले ले और ग़नीमत इसको जां।
वां तो हां हूरों के गहने के बहुत होंगे निशां॥
इन परी ज़ादों के छल्लों की निशानी फिर कहां?॥5॥
मुंह जो दिखलाते हैं खूवां दम बदम अब तोड़ जोड़।
देख ग़ाफ़िल उनके तू जोरो जफ़ा से मुंह न मोड़॥
जिस घड़ी आकर फ़ना अपनी दिखावेगी मड़ोड़।
फिर तो इक दम में चला जावेगा तू इन सबको छोड़॥
यह हटीले दिलरुबा महबूब जानी फिर कहां॥6॥
हुस्ने खू़वां की जहां कुछ हो रही हो दास्तां।
कान रखकर सुन उसे और याद रख हरदम मियां॥
उनकी एक-एक बात का सुनना तुझे लाज़िम है जां।
वां तो किस्से हूरो गुल्मां के बहुत होंगे बयां॥
इनकी पुर जुल्फ़ो कमर की यह कहानी फिर कहां॥7॥
हो सके जिस तौर सुन ले दोस्तों की वारदात।
और बयां कर आगे उनके हों जो तुझ पर मुश्किलात॥
जिस घड़ी आई कज़ा कोई न फिर पूछेगा बात।
उल्फ़तों महरो मुहब्बत सब हैं जीते जी के सात॥
मेहरबां ही उठ गये यह मेहरबानी फिर कहां?॥8॥
अब जो आग़ाजे़ जवानी की बहारें हैं मियां।
ऐशो इश्रत में उड़ा ले ज़िदगी की खू़बियां॥
पी नशे, धूमें मचा, कर सैर बाग़ो बोस्तां।
वाजज़ो नासह बकें तो उनके कहने को न मान॥
दम ग़नीमत है मियां, यह नौजवानी फिर कहां?॥9॥
होके हर दम खूबरूओं की मुहब्बत में असीर।
खा निगाहे सुर्मा साकी नाविकों के दिल में तीर॥
वस्फ़ अब इनका जो करना है सो कर ले दिल पज़ीर।
जा पड़े चुप होके जब शहरे ख़मोशां में ‘नज़ीर’॥
यह ग़जल यह रेख़्ता, यह शेरख़्वानी फिर कहां?॥10॥
(फ़िशानी=फूल बरसाना, अर्ग़वानी=लाल रंग की,
शादमानी=खुशी, हिज़=मजे़, तल्ख़ी=कड़ुवापन,
खूवां=सुन्दरियां, हुल्ले=वह कपड़े जो स्वर्ग में
दिये जाते हैं, नासह=नसीहत करने वाले,
वस्फ़=तारीफ़)
40. चपाती - नज़ीर अकबराबादी
जब मिली रोटी हमें, सब नूरे हक़ रोशन हुए।
रात दिन, शम्सो क़मर शामो शफ़क़ रोशन हुए॥
ज़िन्दगी के थे जो कुछ, नज़्मो नस्क़ रोशन हुए।
अपने बेगानों के लाज़िम, थे जो हक़ रोशन हुए॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥1॥
वह जो अब खाते हैं बाक़र खानी, कुलचा शीरमाल।
हैं वह ख़ासुलख़ास, दरगाहे करीमे जुलजलाल॥
यह जो रोटी दाल का रखते हैं हम गर्दन में जाल।
जब मिली रोटी वहीं हम हो गए साहिबे कमाल॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥2॥
वह तो अब मर्दे ख़ुदा हैं, कुब्बत जिनका नूर है।
वह मलाइक हैं, वहां रोटी का क्या मज़कूर है॥
दिल हमारा तो फ़कत, रोटी का अब रंजूर है।
हम शिकम बन्दो का यारो, बस यही दस्तूर है॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥3॥
पेट में रोटी पड़ी, जब तक तो यारो खै़र है।
गर न हो फिर गै़र का अपने ही जी से बैर है॥
खाते ही दो तर निवाले आसमां पर पैर है।
आसमां क्या, फिर तो ख़ासे, ला मकां की सैर है॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥4॥
जब तलक रोटी का टुकड़ा हो न दस्तर ख़्वान पर।
ने नमाज़ों में लगे दिल, और न कुछ र्कुआन पर॥
रात दिन रोटी चढ़ी, रहती हैं सबके ध्यान पर।
क्या खु़दाका नूर बरसे हैं पड़ा हर नान पर॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥5॥
गर न हों दो रोटियां और एक प्याला दाल का।
खेल फिर बिगड़ा फिरे, यां हाल का और क़ाल का॥
गर न हो रोटी तो किसका पीर किसका बाल का।
बस्फ किस मुंह से करूं मैं नान के अह्वाल का॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥6॥
पेट में रोटी न थी जब तक दो आलम था स्याह।
जब पड़ी रोटी, तो पहुंची अर्श के ऊपर निगाह॥
खुल गए पर्दे थे जितने माही से ले ताबा माह।
क्या करामत है फ़क़त रोटी में यारो वाह, वाह॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥7॥
यूं चमकता है पड़ा हर आन गिरेव नान का।
जान आती है, लिये से नाम दस्तरख़्वान का॥
चांद का टुकड़ा कहूं मैं, या कि टुकड़ा जान का।
रूह नाचे है बदन में, नाम सुनकर ख़्वान का॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥8॥
हुस्न जितने हैं जहां में, सब भरे हैं नान में।
खूबियाँ जितनी हैं आकर सब भरी हैं ख़्वान में॥
आशिक़ो माशूक भी टिकिया के हैं दरम्यान में।
फंस रहे हैं, सबके दिल, रोटी के दस्तरख़्वान में॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥9॥
जो मुरीद अपना किसी दुरवेश को करता है पीर।
यानी कुछ देखे तजल्ली की करामत दिल पज़ीर॥
खाते ही दो रोटियां, दिल हो गया बदरे मुनीर।
कोई रोटी सा नहीं, अब पीरो मुर्शिद ऐ ‘नज़ीर’॥
दो चपाती के वरक़ में, सब वरक़ रोशन हुए॥
एक रकाबी में हमें, चौदह तबक़ रोशन हुए॥10॥
(नस्क़=इंतजाम,व्यवस्था, जुलजलाल=प्रताप वाला
दयालु और प्रताप वाले ईश्वर की दरगाह में वे ही
प्रमुख हैं, मलाइक=देवता,फरिश्ते, रंजूर=दुखी,रोगी,
बीमार, बस्फ=प्रशंसा,तारीफ़, गिरेव=ढेर,टीला)
41. पेट की फ़िलासफ़ी - नज़ीर अकबराबादी
करता है कोई ज़ोरो जफ़ा पेट के लिए।
सहता है कोई रंजो बला पेट के लिए॥
सीख़ा है कोई मक्रो दग़ा पेट के लिए।
फिरता है कोई वे सरो पा पेट के लिए॥
जो है सो हो रहा है फ़िदा पेट के लिए॥1॥
आज़िज़ हैं इसके वास्ते क्या शाह क्या वज़ीर।
मोहताज़ हैं इसी के लिए बख़्शियो अमीर॥
मुंशी, वकील, एलची, मुतसद्दियों, मुशीर।
चाकर, नफ़र, गुलाम, तवंगर, ग़नी, फ़क़ीर॥
सब कर रहे हैं फ़िक्र सदा पेट के लिए॥2॥
सर्राफ़, खु़र्दिये से लगा सेठ साहूकार।
दल्लाल, जौहरी और किनारी के पेशे वार॥
पंसारियो, बज़ाज़, अनाजों के कारोबार।
व्यापार लेन देन बनज कर्ज़ और उधार॥
है सबने ठकठका यह किया पेट के लिए॥3॥
अब ख़ल्क़ में हैं छोटे बड़े जितने पेशेवर।
सीखे उसी के वास्ते सब क़स्ब और हुनर॥
सहहाफ, जिल्दसाज़ पिलमची, कमान गर।
जींदोज, गुल फ़रोश, बिसाती, सफ़ाल गर॥
बैठे हैं सब दुकान लगा पेट के लिए॥4॥
बैठे हैं मस्जिदों में मुसल्ले बिछा बिछा।
जुव्वे पहन के, हाथ में तस्वीह को फिरा॥
वाइज के हर सुखन में है खाने का मुद्दआ।
आबिद भी दावतों की इबादत है कर रहा॥
ज़ाहिद भी मांगता है दुआ पेट के लिये॥5॥
क्या मीनेसाज़ काम के और क्या मुरस्सा कार।
हुक्काक क्या मुसव्विरो नक़्क़ाश ज़र निगार॥
देखा तो न सुनार कोई और न अब लुहार।
सब अपने अपने पेट के करते हैं कारोबार॥
पेशा हर एक ने सीख लिया पेट के लिए॥6॥
गन्धी के मग्ज़ में भी यही रच रही है बो।
खींचे हैं जब गुलाब निकाले हैं इत्र बो॥
शीशी किसी को, सींक के फोए किसी को दो।
हर दम छिड़क गुलाब लगा तन से इत्र को॥
लपटें हर एक ही को सुँघा पेट के लिए॥7॥
रंगरेज़ बैठे रंगते हैं, रंगत हज़ारियाँ।
सुर्खो, गुलाब, ज़र्द, स्याह, सब्ज धारियाँ॥
मख़मल है कोई कोई है मशरू कटारियाँ।
जंगल में जाके देखा तो इस जा भी न्यारियाँ॥
नित ख़ाक छानता है पड़ा पेट के लिए॥8॥
बदनाम है इसी के लिए खल्क़ में कलाल।
ज़व्वाह भी करे हैं इसी के लिए हलाल॥
सय्याद भी इसी के लिए ले चला है जाल।
ठग भी इसी के वास्ते फांसी गले में डाल॥
हर वक्त घोंटता है गला पेट के लिए॥9॥
नटखट, उचक्के, चोर, दग़ाबाज, राह मार।
अय्यार जेबकतरे, नज़रबाज़, होशियार॥
सब अपने-अपने पेट के करते हैं कारोबार।
कोई खु़दा के वास्ते करता नहीं शिकार॥
बिल्ली भी मारती है चूहा पेट के लिए॥10॥
बांका सिपाही खू़ब शुज़ाअत में बे ज़िगर।
वह भी इसी के वास्ते ले तेग़ और तबर॥
लड़ता है तोप, तीर, तुफंगों में आन कर।
खाता है जख़्म खून में होता है तरबतर॥
आखि़र को सर भी दे है कटा पेट के लिए॥11॥
फ़ाज़िल के फ़ज़्ल में भी इसी की है इल्तिजा।
आबिद नुजूमी का भी इसी पर है मुद्दआ॥
मुल्ला भी दिन गुज़ारे हैं लड़के पढ़ा-पढ़ा।
शायर भी देखिये तो क़सीदे बना बना॥
क्या-क्या करे है वस्फो सना पेट के लिए॥12॥
क़ाजी के हाल की भी यही बात है गवाह।
मुफ्ली के क़स्द की भी यह शाहिद है ख़्वाह मख्वाह॥
बैद और हकीम की भी इसी पर है अब निगाह।
अत्तार के भी दर्द को देखा तो वह भी आह॥
दिन रात कूटता है दवा पेट के लिए॥13॥
पढ़ते हैं अब कु़रान जो मुर्दों का लेके नाम।
फूलों में बैठ करते हैं पंज आयतें तमाम॥
दोजख़ में या बहिश्त में मुर्दे का हो मुकाम।
कुछ हो पर उनको हलवे व मांडे से अपने काम॥
खु़श हो गये जब उनको मिला पेट के लिए॥14॥
उल्फ़त किसी के दिल में, किसी में पड़ा है बैर।
माने कोई हरम को, कोई पूजता है दैर॥
खाने की सारी दोस्ती, खाने की सारी सैर।
कहता है अब फ़क़ीर भी देकर दुआये ख़ैर॥
बाबा कुछ आज मुझको दिला पेट के लिए॥15॥
आशिक़ के तई जो देखें हैं सौ नेमतों की जेट।
लड़के भी अपनी खोल के छाती दिखाके पेट॥
गोदी में बैठ जाते हैं हर दम बग़ल में लेट।
खाने की देख चाह लगावट की कर लपेट॥
क्या-क्या करें है नाज़ो अदा पेट के लिए॥16॥
हैं जिनके पास मनसबो जागीरो मालो जाह।
खूंबां भी उनके साथ करें हैं सदा निबाह॥
खाने की सारी दोस्ती खाने की सारी चाह।
देखा जो खू़ब गौर से हमने तो वाह-वाह॥
माशूक भी करें हैं वफ़ा पेट के लिए॥17॥
रंडी जो नाचती है परी ज़ाद फुलझड़ी।
सर पांव से तमाम जवाहर में है जड़ी॥
चितवन लगावटों की जताकर घड़ी-घड़ी।
ले शाम से सहर तई है नाचती खड़ी॥
सौ सौ तरह के भाव बता पेट के लिए॥18॥
लाखों में कोई ले है मुहब्बत से हक़ का नाम।
वर्ना सब अपने पेट के हैं कल्मे और कलाम॥
न आक़िबत की फ़िक्र न राहे खु़दा से काम।
समझे न कुछ हलाल न जाना कि कुछ हराम॥
जो जिससे हो सका सो किया पेट के लिए॥19॥
जितने हैं अब जहान में कम जात या असील।
सब अपने-अपने पेट की करते हैं क़ालो क़ील॥
शेरो पिलंग, कर्गो हिरन, च्यूंटी ओरफ़ील।
कौवा, बटेर, हंस लघड़बाज, गिद्धो चील॥
सब ढूंढ़ते फिरे हैं ग़िजा पेट के लिए॥20॥
जिसका शिक़म भरा है वह हंसता है मिस्ल फूल।
ख़ाली है जिसका पेट वह रोता है हो मलूल॥
जब तक न इस गढ़े में पड़े आके ख़ाक धूल।
सूझे धरम न दीन न अल्लाह न रसूल॥
जो-जो कोई करे सो बजा पेट के लिए॥21॥
ज़रदार, मालदार, गदा, शाह क्या वज़ीर।
सरदार क्या ग़रीब तवंगर हो या फ़क़ीर॥
हर दम सबों को देखा इसी हाल में असीर।
अपनी यही दुआ है शबो-रोज़ ऐ ‘नज़ीर’॥
दे शर्मो आबरू से खु़दा पेट के लिए॥22॥
(एलची=पत्रवाहक, राजदूत, मुतसद्दियो=
प्रबन्धक,पेशकार,लिपिक, मुशीर=सलाहकार,
नफ़र=नौकर, ग़नी=धनी, पिलमची=मुलम्मे
का काम करने वाला, पिलंग=तेंदुआ,
कर्गो=कर्गदन का लघु,गैंड़ा)
42. दुआए तन्दुरूस्ती - नज़ीर अकबराबादी
है मर्द अब वही, कि जिन्हों का है फन दुरुस्त।
हुर्मत उन्हों के वास्ते, जिनका चलन हुरुस्त॥
रहता नहीं किसी का, सदा माल धन दुरुस्त।
दौलत रही किसी की, न बाग़ो चमन दुरुस्त॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥1॥
दुनियां में अब उन्हों के तई, कहिये बादशाह।
जिनके बदन दुरुस्त हैं, दिन रात सालो माह॥
जिंस पास तुन्दुरुस्तीयो हुर्मत की हो सिपाह।
ऐसी फिर और कौन सी, दौलत है वाह, वाह॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥2॥
जो घर में अपने मीरी व हश्मत पनाही है।
बिन तन्दुरुस्ती सब, वह खराबी तबाही है॥
यह तन्दुरुस्ती यारो, बड़ी बादशाही है।
सच पूछिये तो ऐन, यह फ़ज़्ले इलाही है॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥3॥
गर दौलतों से उसका भरा है तमाम घर।
बीमार है तो ख़ाक से बदतर है सब वह ज़र॥
हो तन्दुरुस्त गरचे यह मुफ़्लिस है सर बसर।
फिर न किसी का ख़ौफ़, न हरगिज किसी का डर॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥4॥
आजिज़ हो या हक़ीर हो पर तन्दुरुस्त हो।
बे ज़र हो या अमीर हो पर तन्दुरुस्त हो॥
कै़दी हो या असीर हो पर तन्दुरुस्त हो,
मुफ़्लिस हो या फ़क़ीर हो पर तन्दुरुस्त हो॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥5॥
इसमें तमाम खत्म हैं, आम की खू़बियां।
हो तन्दुरुस्ती और, मिले हुर्मत से आबो ना॥
क़िस्मत से जब यह दोनों, मयस्सर हों फिर तो वां।
फिर ऐसी और कौन सी, नेंमत है मेरी जां॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥6॥
परवा नही अगरचे, लिखा या पढ़ा न हो।
मोहताज हक़ सिवा, पै किसी और का न हो॥
हुस्नो, जमालो, इल्मो, हुनर गो मिला न हो।
एक तन्दुरुस्ती चाहिए, कुछ होवे या न हो॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥7॥
बीमार गरचे लाख तरह से हो बादशाह।
तो उसको जानिये यह गदा से भी है तबाह॥
हम तो उसी को शाह कहें और जहां पनाह।
अब जिसका तन्दुरुस्त हो, हुर्मत से हो निवाह॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥8॥
हों गरचे लाख दौलतें, बीमार के कने।
और नेमतों के ढेर लगे हों, बने ठने॥
बेहतर हैं मुफ़्लिसी के मियां, चाबने चने।
जो तन्दुरुस्त हैं, वही दूल्हा हैं और बने॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥9॥
जब तन्दुरुस्तियों की, रहीं दिल में बस्तियां।
फिर सौ तरह के ऐश हैं और मै परस्तियां॥
खाने को नेमतें हों, व या फाक़ा मस्तियां।
सब ऐश और मजे़ हैं, जो हों तन्दुरुस्तियां॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥10॥
चाहा जो दिल नशे को तो वोही मंगा लिया।
मेहबूब दिल बरों को गले से लगा लिया॥
आया जो ऐश में, खुशी से उड़ा लिया।
जो मिल गया सो पी लिया, चाहा सो खा लिया॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥11॥
आया जो दिल में सैरे चमन को चले गये।
बाज़ार चौक, सैर तमाशे में खुश हुए॥
बैठे उठे खु़शी में, हर एक जा चले फिरे।
जागे मजे़ में रात को, या खुश हो सो रहे॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥12॥
कुदरत से यह जो तन की, बनी है हर एक कल।
जब तक यह कल बनी है, तो है आदमी को कल॥
गर हो खु़दा नख्वास्ता एक कल भी चल व चल।
फिर न खु़शी, ने ऐश, न कुछ जिन्दिगी का फल॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥13॥
अदना हो या ग़रीब, तवंगर हो या फ़क़ीर।
या बादशाह शहर का, या मुल्क का वज़ीर॥
है सबको तन्दुरुस्तियों हुर्मत ही दिल पज़ीर।
जो तूने अब कहा, सो यही सच है ऐ ‘नज़ीर’॥
जितने सुख़न हैं सब में, यही है सुख़न दुरुस्त॥
अल्लाह आबरू से रखे, और तन्दुरुस्त॥14॥
43. शुक्र तन्दुरूस्ती - नज़ीर अकबराबादी
दुख की दौलत हो तो उसको भी तबाही बूझिये।
सुख से रहना ख़ल्क में, खु़श दस्तगाही बूझिये॥
रोशनी को ग़म की हर जागह स्याही बूझिये।
सेहतो हुर्मत को, नित हश्मत पनाही बूझिये॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥1॥
सेहतो हुर्मत से, गर अल्लाह यां करदे निवाह।
इस बराबर कौन सा है, फिर जहां में इज़्ज़ो जाह॥
अब तो हम इस बात के, रुतबे को करते हैं निगाह।
क्या किसी आक़िल ने, यह नुक्ता कहा है वाह-वाह॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥2॥
उसके सब मोहताज हैं, अब शाह से ले ता गदा।
जिसके तन सालिम रहे, और पेट हुर्मत से भरा॥
आबरू और तन्दुरुस्ती जिसको हक़ ने की अता।
फिर जहां में उस सा यारो, कौन सा है बादशाह॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥3॥
दौलतें जितनी हैं सब, इन दौलतों से हैं तले।
आबरू अल्लाह रखे, और उम्र हुर्मत से कटे॥
इज्ज़तो हुर्मत बड़ी, दौलत है, अल्लाह सबको दे।
हर घड़ी हर आन, हर दम, ख़ल्क में प्यारे मेरे॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥4॥
आबरू दुनियां में यारो, मोती की सी आब है।
तन्दुरुस्ती और भी, फिर ऐश का असबाब है॥
जिस कने हैं यह, उसी का सब अदब आदाब है।
यह नहीं और जिन्दिगी, तो फिर खयालो ख़्वाब है॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥5॥
हैं जहां तक ख़ल्क़ में, पीरो, जवां ख़ुर्दो, कबीर।
आलिमो, फ़ाज़िल, गदाओ, बादशाह, मीरो वज़ीर॥
क्या तवंगर क्या ग़नी, क्या बेनवा और क्या फ़क़ीर।
सब जहां में हैं, इसी नुक्ते के क़ायल ऐ ‘नज़ीर॥
तन्दुरुस्ती को निपट, फ़ज़्ले इलाही बूझिये।
आबरू से जग में रहना, बादशाही बूझिये॥6॥
44. मज़म्मते अहले दुनियाँ - नज़ीर अकबराबादी
क्या-क्या फरेब कहिये दुनियां की फित्रतों का।
मक्रो, दग़ाओ, दुज़दी है काम अक्सरों का॥
जब दोस्त मिलके लूटें असबाब दोस्तों का।
फिर किस जु़बां से शिकवा अब कीजै दुश्मनों का॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥1॥
गर दिन को है उचक्का, तो चोर रात में हैं।
नटखट की कुछ न पूछो, हर बात-बात में हैं॥
इसकी बग़ल में गुप्ती, तेग़ उसके हात में हैं।
वह इसकी फ़िक्र में है, यह उसकी घात में हैं॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥2॥
देखे कोई है जिनका है गठ कटी वतीरा।
जामे पे खा रहा है, लुच्चे का दिल हरीरा॥
लठ मार ताकता है, हर आन सर का चीरा।
जूती को तक रहा है, हर दम उठाई गीरा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥3॥
अय्यार और छिछोरा नित अपने कार में है।
और सुबह खे़जया भी, अपनी बहार में है॥
क़ज़्ज़ाक़ जिस मकां पर फ़िक्रे सवार में है।
प्यादा ग़रीब, उस जा, फिर किस शुमार में है॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥4॥
इस राह में जो आया असवार गह के घोड़ा।
ठग से बचा तो आगे, क़ज़्ज़ाक ने न छोड़ा॥
सोया सरा में जाके, तो चोर ने झंझोड़ा।
तेग़ा रहा न भाला, घोड़ा रहा न कोड़ा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥5॥
नादान को पिलाकर, एक भंग का प्याला।
कपड़े बग़ल में मारे, और ले लिया दुशाला॥
दाना मिला, तो उसमें, घोला धतूरा काला।
होते ही गाफ़िल उसको, फांसी में खींच डाला॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥6॥
पैसे, रूपे, अशर्फ़ी या सीमो ज़र का पुतरा।
भर जेब घर में लावे, है कौन ऐसा चतुरा॥
स्याना भी चूक खाये यह फ़न है वह धतूरा।
कतरे है जेब चढ़कर हाथी पे जेब कतरा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥7॥
चिड़ियां ने देख ग़ाफ़िल, कपड़ा उधर घसीटा।
कौए ने वक़्त पाकर, चिड़िया का पर घसीटा॥
चीलों ने मार पंजे, कौए का सर घसीटा।
जो जिसके हाथ आया वह उसने धर घसीटा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥8॥
सैयाद चाहता है हो सैद का गुजारा।
और सैद चाहे दाना, खाकर करे किनारा॥
काबू चढ़ा तो उसका दाना वह खा सिधारा।
और कुछ भी चाल चूका, तो वोही जाल मारा॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥9॥
निकला है शेर घर से, गीदड़ का गोश्त खाने।
गीदड़ की धुन लगावे, खुद शेर को ठिकाने॥
क्या-क्या करें है बाहम, मक्रो, दग़ा बहाने।
यां वह बचा ‘नज़ीर’ अब जिसको रखा खु़दा ने॥
हुशियार, यार जानी, यह दश्त है ठगों का।
यां टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का॥10॥
(खे़जया=तड़के उठने की आदत वाला, क़ज़्ज़ाक़=
लुटेरा, सैयाद=शिकार करने वाला, सैद=शिकार
का जानवर)
45. ख़ुशामद - नज़ीर अकबराबादी
दिल खु़शामद से, हर एक शख़्स का क्या राज़ी है।
आदमी, जिन्नो, परी, भूत, बला, राज़ी है॥
माई, फ़र्ज़ंद भी खुश, बाप, चचा राज़ी है।
शाह मसरूर, ग़नी शाद गदा राज़ी है॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे सदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥1॥
अपना मतलब हो तो मतलब की खु़शामद कीजिये।
और न हो काम, तो उस ढब की खु़शामद कीजिये॥
औलिया अम्बिया और रब की खु़शामद कीजिये।
अपने मक़दूर ग़रज सबकी खु़शामद कीजिये॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥2॥
चार दिन जिसको खु़शामद से किया झुक के सलाम।
वह भी खु़श हो गया अपना भी हुआ काम में काम॥
बड़े आक़िल बड़े दाना ने निकाला है यह दाम।
खू़ब देखा तो खु़शामद ही की आमद है तमाम॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥3॥
मुफ़्लिस अदनाओ सख़ी की भी खु़शामद कीजिये।
बख़ील और सख़ी की भी खु़शामद कीजिये॥
और जो शैतां हो तो उसकी भी खु़शामद कीजिये।
गर वली हो तो वली की भी खु़शामद कीजिये॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥4॥
प्यार से जोड़ दिये हाथ तरफ जिसके आह।
वहीं खु़श हो गया करते ही वह हाथों पे निगाह॥
ग़ौर से हमने जो इस बात को देखा वल्लाह।
कुछ खु़शामद ही बड़ी चीज़ है अल्लाह-अल्लाह॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥5॥
पीने और पहनने, खाने की खु़शामद कीजिये।
हीजड़े, भांड, ज़नाने की खु़शामद कीजिये॥
मस्ती हुशियार, दिवाने की खु़शामद कीजिये।
भोले नादान, सियाने की खु़शामद कीजिये॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥6॥
ऐश करते हैं वही, है जिनका खु़शामद का मिज़ाज।
जो नहीं करते वह रहते हैं हमेशा मोहताज॥
हाथ आता है खु़शामद से मकां, मुल्क और ताज।
क्या ही तासीर की इस नुस्खे़ ने पाई है रिवाज॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥7॥
गर भला हो तो भले की भी खु़शामद कीजिये।
और बुरा हो तो बुरे की भी खु़शामद कीजिये॥
पाक, नापाक, सड़े की भी खु़शामद कीजिये।
कुत्ते बिल्ली व गधे की भी खु़शामद कीजिये॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥8॥
खू़ब देखा तो खु़शामद की बड़ी खेती है।
गैर क्या अपने ही घर बीच यह सुख देती है॥
मां खु़शामद के सबब छाती लगा लेती है।
नानी दादी भी खु़शामद से दुआ देती है॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥9॥
बी बी कहती है मियां आ तेरे मैं सदके़ जाऊं।
सास बोले कहीं मत जा मेरे सदके़ जाऊं॥
खाला कहती है कि कुछ खा तेरे सदक़े जाऊं।
साली कहती है कि भैया तेरे सदक़े जाऊं॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥10॥
आ पड़ा है जो खु़शामद से सरौकार उसे।
ढूंढ़ते फिरते हैं उल्फ़त के ख़रीदार उसे॥
आश्ना मिलते हैं और चाहे हैं सब यार उसे।
अपने बेग़ाने ग़रज़ करते हैं सब प्यार उसे॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥11॥
रूखी और रोग़नी आबी की खु़शामद कीजिए।
नानबाई व कबावी की खु़शामद कीजिये॥
साक़ीयो जाम शराबी की खु़शामद कीजिये।
पारसा, रिन्द, ख़राबी की खु़शामद कीजिए॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥12॥
जो कि करते हैं खु़शामद वह बड़े हैं इंसान।
जो नहीं करते वह रहते हैं हमेशा हैरान॥
हाथ आते हैं खु़शामद से हज़ारों सामान।
जिसने यह बात निकाली है मैं उसके कुर्बान॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥13॥
कौड़ी, पैसे व टके, ज़र की खु़शामद कीजिए।
लालो, नीलम, दुरो गौहर की खु़शामद कीजिए॥
और जो पत्थर हो तो पत्थर की खु़शामद कीजिए।
नेकोबद जितने हैं, यक्सर की खु़शामद कीजिए॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥14॥
हमने हर दिल में खु़शामद की मुहब्बत देखी ।
प्यार, इख़्लासो करम, मेहरो मुरब्बत देखी॥
दिलबरों में भी खु़शामद ही की उल्फ़त देखी।
आशिक़ो में भी खु़शामद ही की चाहत देखी॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥15॥
पारसा पीर है, जाहिद है, मुनाजाती है।
ज्वारिया, चोर, दग़ाबाज़, खरावाती है॥
माह से माही तलक, च्यूंटी है या हाथी है।
यह खु़शामद तो, मियां सबके तई भाती है॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥16॥
गर न मीठा हो तो कड़वी भी खु़शामद कीजिए।
कुछ न हो पास तो खाली भी खु़शामद कीजिए॥
जानी दुश्मन हो तो उसकी भी खु़शामद कीजिए।
सच अगर पूछो तो झूटी भी खु़शामद कीजिए॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥17॥
मर्दोज़न, तिफ़्लो जवां, खुर्दोकलाँ, पीरो फ़क़ीर।
जितने आलम में हैं, मोहताजो गदा, शाहो वज़ीर॥
सबके दिल होते हैं फन्दे में खु़शामद के असीर।
तू भी वल्लाह बड़ी बात यह कहता है ‘नज़ीर’॥
जो खु़शामद करे ख़ल्क़ उससे ख़ुदा राज़ी है।
सच तो यह है कि खु़शामद से खु़दा राज़ी है॥18॥
(फ़र्ज़ंद=पुत्र, शाह=शासक, मसरूर=प्रसन्न,आनन्दित,
ग़नी=धनवान, शाद=प्रसन्न, गदा=निर्धन,भिखारी,
ख़ल्क़=संसार, औलिया=वली गण, अम्बिया=नवीगण,
मक़दूर=सामर्थ्य, दाम=फंदा, आमद=आमदनी, मुफ़्लिस=
निर्धन, अदना=तुच्छ, सख़ी=दानी, बख़ील=कंजूस, मिज़ाज=
स्वभाव, तासीर=विशेषता, सबब=कारण, सरौकार=सम्बन्ध,
आश्ना=मित्र,जानने वाले, रोग़नी=घी की रोटी, आबी=पानी
के हाथ की बिना पलेथन की रोटी, नानबाई=नान,तन्दूर
में बनी रोटी बनाने वाला, कबाबी=कबाब बनाने और बेचने
वाला, नेकोबद=भले-बुरे, यक्सर=एक जैसी, इख़्लास=सच्चा
और निष्कपट प्रेम, करम=कृपा, मेहर=कृपा, जाहिद=साधक,
मुनाजाती=प्रार्थना करने वाला, खरावाती=मदिरा पान करने
वाला, माह से माही तलक=आकाश से पाताल तक, मर्दोज़न=
पुरुष-नारी, तिफ़्ल=बच्चे, खुर्दोकलाँ=छोटे-बड़े, आलम=संसार,
गदा=भिखारी, असीर=बंदी, वल्लाह=वास्तव में)
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Nazeer Akbarabadi) #icon=(link) #color=(#2339bd)