Hindi Kavita
हिंदी कविता
सूफ़ियाना-कलाम नज़ीर अकबराबादी
Sufiyana Kalam Nazeer Akbarabadi
1. बंजारानामा - नज़ीर अकबराबादी
टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लूटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा
ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥2॥
तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन-दौलत नाती-पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥3॥
हर मंजिल में अब साथ तेरे यह जितना डेरा डंडा है।
ज़र दाम दिरम का भांडा है, बन्दूक सिपर और खाँड़ा है।
जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों मुल्कों हांडा है।
फिर हांडा है न भांडा है, न हलवा है न मांडा है।
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥4॥
जब चलते-चलते रस्ते में ये गौन तेरी रह जावेगी
इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने पावेगी
ये खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बंट जावेगी
धी, पूत, जमाई, बेटा क्या, बंजारिन पास न आवेगी
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥5॥
ये खेप भरे जो जाता है, ये खेप मियां मत गिन अपनी
अब कोई घड़ी पल साअ़त में ये खेप बदन की है कफ़नी
क्या थाल कटोरी चांदी की क्या पीतल की डिबिया ढकनी
क्या बरतन सोने चांदी के क्या मिट्टी की हंडिया चपनी
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥6॥
ये धूम-धड़क्का साथ लिये क्यों फिरता है जंगल-जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल
घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा, नैनसुख और मलमल
क्या चिलमन, परदे, फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥7॥
कुछ काम न आवेगा तेरे ये लालो-ज़मर्रुद सीमो-ज़र
जब पूंजी बाट में बिखरेगी हर आन बनेगी जान ऊपर
नौबत, नक़्क़ारे, बान, निशां, दौलत, हशमत, फ़ौजें, लशकर
क्या मसनद, तकिया, मुल्क मकां, क्या चौकी, कुर्सी, तख़्त, छतर
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥8॥
क्यों जी पर बोझ उठाता है इन गौनों भारी-भारी के
जब मौत का डेरा आन पड़ा फिर दूने हैं ब्योपारी के
क्या साज़ जड़ाऊ, ज़र ज़ेवर क्या गोटे थान किनारी के
क्या घोड़े ज़ीन सुनहरी के, क्या हाथी लाल अंबारी के
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥9॥
मग़रूर न हो तलवारों पर मत भूल भरोसे ढालों के
सब पत्ता तोड़ के भागेंगे मुंह देख अजल के भालों के
क्या डिब्बे मोती हीरों के क्या ढेर ख़जाने मालों के
क्या बुक़चे ताश, मुशज्जर के क्या तख़ते शाल दुशालों के
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥10॥
क्या सख़्त मकां बनवाता है खंभ तेरे तन का है पोला
तू ऊंचे कोट उठाता है, वां गोर गढ़े ने मुंह खोला
क्या रैनी, खंदक़, रंद बड़े, क्या बुर्ज, कंगूरा अनमोला
गढ़, कोट, रहकला, तोप, क़िला, क्या शीशा दारू और गोला
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥11॥
हर आन नफ़े और टोटे में क्यों मरता फिरता है बन-बन
टुक ग़ाफ़िल दिल में सोच जरा है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, दिदा क्या बन्दा, चेला नेक-चलन
क्या मस्जिद, मंदिर, ताल, कुआं क्या खेतीबाड़ी, फूल, चमन
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥12॥
जब मर्ग फिराकर चाबुक को ये बैल बदन का हांकेगा
कोई ताज समेटेगा तेरा कोई गौन सिए और टांकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में तू ख़ाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर' इक तिनका आन न झांकेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥13॥
(हिर्सो-हवा=लालच, क़ज़्ज़ाक=डाकू, अजल=मौत,
लालो-ज़मर्रुद=लाल और पुखराज, सीमो-ज़र=चांदी,
सोना, मग़रूर=घमंडी, ताश=एक प्रकार का छपा
हुआ ज़री का रेशमी कपड़ा, मुशज्जर=वह कपड़ा
जिस पर पेड़ों के डिजाइन हो, गोर=क़ब्र, रैनी=किले
की छोटी दीवार, रंद=दीवारों के वह सूराख जिनमें
से बन्दूकों की मार की जाय, रहक़ला=गाड़ी जिस
पर रख कर तोप ले जाई जाती है, दाईदिदा=बूढ़ी
नौकरानी, मर्ग=मौत, लहद=क़ब्र, शुतुर=ऊंट,
ग़ाफ़िल=मूर्ख, क़ंद=खांड, सूद=ब्याज, नाती=दोहता)
2. आशिक़ों की भंग-1 - नज़ीर अकबराबादी
दुनिया के अमीरों में याँ किसका रहा डंका ।
बरबाद हुए लश्कर, फ़ौजों का थका डंका ।
आशिक़ तो यह समझे हैं, अब दिल में बना डंका ।
जो भंग पिएँ उनका बजता है सदा डंका ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।१।।
उल्फ़त के जमर्रुद की, यह खेत की बूटी है ।
पत्तों की चमक उसके कमख़्वाब की बूटी है ।
मुँह जिसके लगी उससे फिर काहे को छूटी है ।
यह तान टिकोरे की इस बात पे टूटी है ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।२।।
हर आन खड़ाके से, इस ढब का लगा रगड़ा ।
जो सुन के खड़क इसकी हो बंद सभी दगड़ा ।
चक़्कान चढ़ा गहरा, और बाँध हरा पगड़ा ।
क्या सैर की ठहरेगी टुक छोड़ के यह झगड़ा ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।३।।
एक प्याले के पीते ही, हो जावेगा मतवाला ।
आँखों में तेरी आकर खिल जाएगा गुल लाला ।
क्या क्या नज़र आवेगी हरियाली व हरियाला ।
आ मान कहा मेरा, ऐ शोख़ नए लाला ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।४।।
हैं मस्त वही पूरे, जो कूंडी के अन्दर हैं ।
दिल उनके बड़े दरिया, जी उनके समुन्दर हैं ।
बैठे हैं सनम बुत हो, और झूमते मन्दिर हैं ।
कहते हैं यही हँस-हँस, आशिक़ जो कलन्दर हैं ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।५।।
सब छोड़ नशा प्यारे, पीवे तू अगर सब्जी ।
कर जावे वही तेरी, ख़ातिर में असर सब्जी ।
हर बाग में हर जाँ में, आ जावे नज़र सब्जी ।
तेरी भी ’नज़ीर’ अब तो सब्जी में है सर सब्जी ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।६।।
(जमर्रुद=पन्ना,हरा रत्न, कमख़्वाब=
एक प्रकार का रेशमी वस्त्र, दगड़ा=
कच्ची सड़क, चक़्कान=गाढ़ी घुटी हुई
भंग)
3. आशिक़ों की भंग-2 - नज़ीर अकबराबादी
क्यूं अबस बैठा है, डाले कान में ग़फ़लत का तेल।
ख़ल्क में क्या-क्य मची है, सब्जियों की रेल-पेल।
खोल जुल्फ़े ऐश को और डाल बेले का फुलेल।
फिर चढ़ा दे आसमाने ऐश पर, इश्रत की बेल।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥1॥
सिद्क़ से ले नाम पहले लाल और शहबाज़ का।
मांग फिर चढ़ने को घोड़ा बाज़ हाथ ऊपर उठा।
और नशे की झांझ में, जो हाथ लग जावे सो खा।
भंगिया दर बाग़ रफ़्ता, बेर गुठली सब रबा।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥2॥
जिसने इस दुनिया में आकर एक दिन भी पी न भंग।
उसने सच पूछो तो क्या देखा जहां का आबो रंग।
गर तुझे कुछ देखने हैं, जिन्दगी के रंग-ढंग।
तो मंगा सब्जी को और सब दोस्तों को ले के संग।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥3॥
कल मुझे दरिया उपर ख्वाज़ा खि़ज्र जो मिल गये।
सब्ज पैराहन गले में हाथ में आसां लिए।
कम खुश्क और नातवानी के गले में जब गये।
तब तो वह मुंह देख, मेरा हंस के यूं कहने लगे।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥4॥
फिर कहा मैं उनसे यूं, ऐ मेरे हादी रहनुमा।
मैंने कुछ देखा नहीं, दुनिया में आने का मज़ा।
जी भी रहता है उदास, और दिल भी रहता है ख़फ़ा।
सोच-सोच आखि़र उन्होंने फिर यही मुझसे कहा।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥5॥
मुर्शिदों मौला से पूछा मैंने ऐ पीरे ज़मन।
मेरी कुछ लगती नहीं, अल्लाह से दिल की लगन।
सुनके बोले वह बतादें हम तुझे इसका जतन।
जा शिताब और जल्द सब्जी लेके एक, दो, चार मन।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥6॥
ज़र है तेरे पास तो सब्जी का तू व्यौपार कर।
कोठियां, मटके, घड़े, कूजे, सुराही भर के धर।
टाट के बोरे सिला, खत्ते खुदा, कुएं भी भर।
बैठ घर में चैन से, दिन रात और श़ामो सहर।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥7॥
और तुझे खेती की कुदरत है तो सब्जी को बुआ।
बाग़ में, घर में, सहन में, पेड़ सब्जी के लगा।
घोंट सब्जी, छान सब्जी, और सब्जी में नहा।
देख भी सब्जी को और सब्जी ही पी, सब्जी ही खा।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥8॥
यह सुख़न तो सब नशे बाज़ों में अब हैगा मचा।
यानी सब्जी का नशा अब सब नशों का है चचा।
जोन से सुल्तान भंगड़ से तू पूछेगा बचा।
वह यही तुझको कहेगा खूब शोरो गुल मचा।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥9॥
यह वह सब्जी है जिसे पीते हैं यां आकर फ़कीर।
तिफ़्ल और बूढ़े को याकू़ती, जवां के हक़ में खीर।
गर तू चाहे अब सुख़न सर सब्ज हो और दिल पज़ीर।
तो कोई दो चार मन सब्जी मंगा कर ऐ "नज़ीर"।
कूंडी सोटे को बजा, और देख टुक कुदरत के खेल॥
छोड़ सब कामों को गाफ़िल, भंग पी और डंड पेल॥10॥
(अबस=अकारण,बेकार में, लाल और शहबाज़=लाल और
शहबाज़ दो बड़े बुजुर्ग हुए हैं। चरस और भंग पीने से
पहले उनमें विश्वास रखने वाले लोग प्रायः इनका नाम
लेते हैं, झांझ=तेजी,तरंग, भंगिया=भांग पीने वाला,
ख्वाज़ा खि़ज्र=भूले भटकों को मार्ग बताने वाले वन के
अधिकारी अमर पैगम्बर, पैराहन=वस्त्र, आसां=असा,हाथ
में पकड़ने की लकड़ी, नातवानी=निर्बलता, हादी,रहनुमा=
मुर्शिद=पीर,धर्म गुरू, पीरे ज़मन=संसार के गुरू, तिफ़्ल=
बच्चा, बचा=बच्चा, याकू़ती=एक यूनानी दवा जिसमें
याकू़त पड़ता है और जो दिल को ताकत देता है)
4. आशिक़ों की सब्ज़ी - नज़ीर अकबराबादी
जितने हैं इस जहां में सब्जी के इश्क वाले।
दिलशाद सुर्ख आँखें, सर सब्ज़ मुँह उजाले।
पीते हैं सब्ज़ तुर्रे, खाते हैं तर निवाले।
क्या देखता है बैठा, ओ यार हुस्न वाले।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥1॥
गै़रों की तूने अक्सर, माजून तो है खाई।
सुखऱी ज़रा भी तेरी, आँखों तलक न आई।
गर देखनी है तुझको, कुछ ऐश की चढ़ाई।
उछले दिवाल, पाखें भन्नावे चारपाई।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥2॥
घोले है पोस्त तेरी, खातिर रक़ीब झड़वा।
अब पोस्ती करेगा, तुझको वह चोर भड़वा।
देखेगा जब तू लेगा, तेरा उतार खड़वा।
गर सैर देखनी है, तो करके दिल को कड़वा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥3॥
खाकर अफ़ीम ज़ालिम मत हूजियो अफ़ीमी।
तन सूख कर खुजावे, आवाज़ होगी धीमी।
क्यों भिनभिना बना है, ऐ गुल अज़ार सीमी।
आशिक़ तो सब इसी के, मन मस्त हैं क़दीमी।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥4॥
ताड़ी व सेंधी बूजा, ज़ालिम अगर पियेगा।
फूलेगा पेट तेरा, या बैठ कै़ करेगा।
पीकर शराब नाहक, कीचड़ में गिर पड़ेगा।
और यह नशा तो कोठे, छज्जे प ले उड़ेगा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥5॥
गांजा पिये से होगा, तेरा शऊर हुर्रा।
और चर्स के पिये से, तुझको लगेगा खुर्रा।
चाहे अगर उड़ाना, अश्रत का बाज़ जुर्रा।
तो पहन हार बद्धी, और सर पे रख के तुर्रा।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥6॥
हैं इस नशे में ज़ालिम, सौ रंग के धड़ाके।
कूंडी की डगमगाहट, सोंटे के सौ खड़ाके।
गर देखने हैं तुझको, कुछ ऐश के झड़ाके।
तो झाड़ अपने पंजे, और सर को झड़ झङ़ाके।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥7॥
सब्जी का वह नशा है, उड़ ग़म की धूल जावे।
तैयार तन बदन हो, और दिल भी फूल जावे।
आंखों के आगे जाकर, सरसों सी फूल जावे।
इश्रत की लहरें आवें, दुख दर्द भूल जावे।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥8॥
पैसा हो पास यारों, या मुफ़्लिसी सहेंगे।
पर सब्ज़ियों के यां तो, दरिया वही बहेंगे।
कुंडी के उस तरफ़ को, या इस तरफ़ रहेंगे।
अब तो ‘नज़ीर’ प्यारे, हर दम यही कहेंगे।
पी आशि़कों में आकर, दो भंग के प्याले॥
जो एक दम में तेरा घर घूमे छप्पर हाले॥9॥
(दिलशाद=खुश, सुखऱी=नशे से चेहरे पर दमक=
माजून=अवलेह, गुल अज़ार=गुलाब जैसे सुकुमार
और कोमल गालों वाला, सीमी=चांदी, क़दीमी=
पुराने,पहले से ही, बूजा=जौ की शराब, इश्रत=
खुशी, मुफ़्लिसी=ग़रीबी)
5. इश्क़ की मस्ती - नज़ीर अकबराबादी
हैं आशिक़ और माशूक जहाँ वां शाह बज़ीरी है बाबा ।
नै रोना है नै धोना है नै दर्द असीरी है बाबा ।।
दिन-रात बहारें चुहलें हैं और इश्क़ सग़ीरी है बाबा ।
जो आशिक़ हैं सो जानें हैं यह भेड फ़क़ीरी है बाबा ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।१।।
है चाह फ़क़त एक दिलबर की फिर और किसी की चाह नहीं ।
एक राह उसी से रखते हैं फिर और किसी से राह नहीं ।
यां जितना रंजो तरद्दुद है हम एक से भी आगाह नहीं।
कुछ करने का सन्देह नहीं, कुछ जीने की परवाह नहीं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।२।।
कुछ ज़ुल्म नहीं, कुछ ज़ोर नहीं, कुछ दाद नहीं फ़रयाद नहीं।
कुछ क़ैद नहीं, कुछ बन्द नहीं, कुछ जब्र नहीं, आज़ाद नहीं ।।
शागिर्द नहीं, उस्ताद नहीं, वीरान नहीं, आबाद नहीं ।
हैं जितनी बातें दुनियां की सब भूल गए कुछ याद नहीं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।३।।
जिस सिम्त नज़र भर देखे हैं उस दिलबर की फुलवारी है ।
कहीं सब्ज़ी की हरियाली है, कहीं फूलों की गुलकारी है ।।
दिन-रात मगन ख़ुश बैठे हैं और आस उसी की भारी है ।
बस आप ही वह दातारी हैं और आप ही वह भंडारी हैं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।४।।
नित इश्रत है, नित फ़रहत है, नित राहत है, नित शादी है ।
नित मेहरो करम है दिलबर का नित ख़ूबी ख़ूब मुरादी है ।।
जब उमड़ा दरिया उल्फ़त का हर चार तरफ़ आबादी है ।
हर रात नई एक शादी है हर रोज़ मुबारकबादी है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।५।।
है तन तो गुल के रंग बना और मुँह पर हरदम लाली है ।
जुज़ ऐशो तरब कुछ और नहीं जिस दिन से सुरत संभाली है ।।
होंठो में राग तमाशे का और गत पर बजती ताली है ।
हर रोज़ बसंत और होली है और हर इक रात दिवाली है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।६।।
हम चाकर जिसके हुस्न के हैं वह दिलबर सबसे आला है ।
उसने ही हमको जी बख़्शा उसने ही हमको पाला है ।।
दिल अपना भोला-भाला है और इश्क़ बड़ा मतवाला है ।
क्या कहिए और ’नज़ीर’ आगे अब कौन समझने वाला है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।७।।
(असीरी=तेज़, सग़ीरी=थोड़ा, दिलगीरी=दुख, तरद्दुद=सोच,
दाद=इंसाफ़, जब्र=ज़ुल्म, गुलकारी=बेल-बूटे बनाने का
काम, इश्रत=ख़ुशी, फ़रहत=ख़ुशी, करम=कृपा, तरब=आनंद)
6. है दुनिया जिस का नाम मियाँ-दार-उल-मकाफ़ात - नज़ीर अकबराबादी
है दुनियां जिसका नाम मियां, यह और तरह की बस्ती है।
जो महंगों को तो महंगी है, और सस्तों को यह सस्ती है।
यां हर दम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत बस्ती है।
गर मस्त करे तो मस्ती है, और पस्त करे तो पस्ती है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥1॥
जो और किसी का मन रक्खे तो उसको भी अरमान मिले।
जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नाम मिले॥
नुकसान करे नुकसान मिले, अहसान करे अहसान मिले।
जो जैसा जिसके साथ करे फिर वैसा उसको आन मिले॥
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥2॥
जो और किसी की जां बख़्शे, तो उसकी भी हक़ जान रखे।
जो और किसी की आन रक्खे, तो उसकी भी हक़ आन रखे।
जो यां का रहने वाला है, यह दिल में अपने जान रखे।
ये तुरत फुरत का नक़्शा है, इस नक्शे को पहचान रखे।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥3॥
जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है।
जो ग़र्क करे फिर उसको भी यां डुबकूं डुबकूं करनी है।
शमशीर, तबर, बन्दूक, सिनाँ और नश्तर तीर, नहरनी है।
यां जैसी-जैसी करनी है फिर वैसी-वैसी भरनी है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥4॥
जो और का ऊंचा बोल करे, तो उसका बोल भी बाला है।
और दे पटके तो उसको, कोई और पटकने वाला है।
बे जुल्मों ख़ता जिस ज़ालिम ने, मज़लूम जिबह कर डाला है।
उस ज़ालिम के भी लोहू का, फिर बहता नद्दी नाला है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥5॥
जो मिश्री और के मुँह में दे, फिर वह भी शक्कर खाता है।
जो और के तई अब टक्कर दे, फिर वह भी टक्कर खाता है।
जो और को डाले चक्कर में, फिर वह भी चक्कर खाता है।
जो और को ठोकर मार चले, फिर वह भी ठोकर खाता है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥6॥
जो और किसी को नाहक़ में, कोई झूठी बात लगाता है।
और कोई ग़रीब और बेचार, हक़ नाहक़ में लुट जाता है।
वह आप भी लूटा जाता है, और लाठी पाठी खाता है।
जो जैसा जैसा करता है फिर वैसा वैसा पाता है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥7॥
जो और की पगड़ी ले भागे, उसका भी और उचक्का है।
जो और पै चौकी बिठला दे, उस पर भी घौंस धड़क्का है।
यां पुश्ती में तो पुश्ती है, और धक्के में यां धक्का है।
क्या ज़ोर मजे़ का जमघट है, क्या ज़ोर यह भीड़ भड़क्का है।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥8॥
है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका।
और ग़ैव से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका।
चीरे के बीच में चीरा है, और पटके बीच जो है पटका।
क्या कहिये और "नज़ीर" आगे, है ज़ोर तमाशा झट पटका।
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ और अदल परस्ती है॥
इस हाथ करो उस हाथ मिले, यां सौदा दस्त ब दस्ती है॥9॥
(दस्त ब दस्ती=हाथ से हाथ का, शमशीर=तलवार,
तबर=एक प्रकार की कुल्हाड़ी,तबल, सिनाँ=नेजे़ और
तीर की नोंक, बे जुल्मों ख़ता=अत्याचार और गलती
के बिना, मज़लूम=जिस पर जुल्म किय गया हो,
पुश्ती=मदद, ग़ैव=परोक्ष,भाग्य)
7. दुनियाँ धोके की टट्टी है - नज़ीर अकबराबादी
यह पैंठ अजब है दुनियां की, और क्या क्या जिन्स इकट्ठी है।
यां माल किसी का मीठा है, और चीज़ किसी की खट्टी है।
कुछ पकता है कुछ भुनता है, पकवान मिठाई पट्टी है।
जब देखा खूब तो आखि़र को, न चूल्हा भाढ़ न भट्टी है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥1॥
कोई ताज ख़रीदे हंस-हंस कर, कोई तख़्त खड़ा बनवाता है।
कोई कपड़े रंगी पहने है, कोई गुदड़ी ओढ़े जाता है।
कोई भाई, बाप, चचा, नाना, कोई नाती पूत कहाता है।
जब देखा खूब तो आखि़र को, न रिश्ता है न नाता है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥2॥
कोई सेठ, महाजन, लाखपती, बज्जाज, कोई पंसारी है।
या बोझ किसी का हल्का है, और खेप किसी की भारी है।
क्या जाने कौन ख़रीदेगा, और किसने जिन्स उतारी है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को, दल्लाल न कोई व्योपारी है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥3॥
कोई फूल के बैठे मसनद पर, कोई रोये अपनी ज़िल्लत को।
कोई बोले अपना मुझसे लो, और मेरा हो सो मुझको दो।
कोई लड़ता है, कोई मरता है, कोई झगड़े हक़ पर नाहक़ को।
जब देखा खू़ब तो आखिर को कुछ लेना ए न देना दो॥
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥4॥
रम्माल, नुजूमी, आमिल है और फ़ाजिल, मुल्ला स्याना है।
कोई आक़िल कामिल दाना है, कोई मस्त पड़ा दीवाना है।
तावीज, फ़लीता, फ़ाल, फ़सूं और जादू मंतर लाना है।
जब देखा ख़ूब तो आखि़र को सब हीला मक्र बहाना है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥5॥
कोई लूटे कूंचे गलियों में, तैयार किसी का डेरा है।
कोई बाग़, कुआं बनवाना है और घेर किसी ने घेरा है।
नित क़िस्से झगड़े करते हैं, यह तेरा है यह मेरा है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को ना मेरा है ना तेरा है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥6॥
कहीं धूम मची है क़र्जों की, कहीं क़र्जों का दुख खेना है।
कोई हीरा पन्ना परखावे और बेचे कोई चैना है।
हर रोज़ तक़ाजा धरना है, दुख देना पैसा लेना है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को, कुछ लेना है न देना है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥7॥
कोई बनिया है कोई तेली है, कोई बेचे पान तमोली है।
कोई सर पर रख कर खींचे है, कोई बांधे फिरता झोली है।
कहीं गोन ढली है नाज़ों की, कहीं थैली थैला खोली है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को, एक दम की बोला ठोली है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥8॥
कोई टोपी पहने जाता है कोई बांध फिरे इमामा है।
कोई साफ़ बरहना फिरता है ना पगड़ी न पाजामा है।
कमख़्वाब, गज़ी और गाढ़े का, नित किस्सा है हंगामा है।
जब देखा खूब तो आखि़र को ना पगड़ी है ना जामा है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥9॥
कोई बाल बढ़ाये फिरता है, कोई सर को घोंट मुंडाता है।
कोई कपड़े रंगे पहने है, कोई नंगे मुंगे आता है।
कोई पूजा, कथा बखाने है, कोई छापा, तिलक लगाता है।
जब देखा ख़ूब तो आखि़र को सब छोड़ अकेला जाता है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥10॥
कोई रोता है, कोई हंसता है, कोई नाचे हैं कोई गाता है।
कोई छीने, झपटे, ले भागे, कोई घोंस धड़क्का लाता है।
कोई माल इकट्ठा करता है कोई कुंजी कु़फ़्ल लगाता है।
जब देखा खूब तो आखि़र को सब झगड़ा रगड़ा जाता है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥11॥
कोई बेचे भंग शराब, अफ़यू कहीं दूध दही की फेरी है।
कोई पल्ला सर पर लाता है, कोई लादे बैल मकेरी है।
कोई झगड़े अपनी जगह पर यह मेरी है यह तेरी है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को न तेरी है न मेरी है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥12॥
कहीं बल्ली टेवकी, थूनी है, कहीं घास करब कीं पूली है।
कहीं छलनी, छाज, पिटारे हैं, कहीं चूल्हा, चक्की, चूली है।
तरकारी बैंगन, साग, बड़ा, गुड़, गांडा, गाजर, मूली है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को सब छू यह देखत भूली है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥13॥
कहीं बान, अटेरी, टाट कड़ी कहीं दमरख, चमरख़, तकला है।
कहीं रोक रुपैया खुर्दा है कहीं कौड़ी पैसा धेला है।
कहीं ढाँच पलंग बिकता है, कहीं छींका रस्सी रस्सा है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को न पीढ़ी खाट न चरख़ा है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥14॥
कोई शकरा बाज़ उड़ाता है, कोई रक्खे हाथ पे तितली है।
शाबाश कोई ले बैठा है, और दोड़ किसी ने दुत ली है।
है तार किसी के हाथों में, और नाचती फिरती पुतली है।
जब देखा खू़ब तो आखि़र को, न रेशम सूत न सुतली है।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥15॥
अब किसका रंग बुरा कहिये, और किसका रूप भला कहिए।
एक दम की पैठ लगी है यह, अम्बोह मज़ा चर्चा कहिए।
यह सैर तमाशे देख "नज़ीर", अब जा कहिए बेजा कहिए।
कुछ बात नहीं बन आती है चुपचाप पहेली क्या कहिए।
गु़ल शोर बबूला आग हवा और कीचड़ पानी मट्टी है।
हम देख चुके इस दुनियां को, यह धोके की सी टट्टी है॥16॥
(रम्माल=नुक्तों, शून्यों के आधार पर भविष्य की बातों को
बताने की विद्या जानने वाला, नुजूमी=ज्योतिषी, आमिल=
भूत प्रेत उतारने वाला, फ़ाजिल=जिसने पूरी विद्या पढ़ ली
हो,स्नातक, कामिल=निपुण,दक्ष, दाना=बुद्धिमान, फ़ाल=शकुन,
फ़सूं=जादू मंत्र, चैना=एक साधारण चावल जैसा अनाज,
गोन=गधे पर लादने का बोरा, बरहना=नंगा, कु़फ़्ल=ताला,
अफ़यू=अफ़ीम, अम्बोह=झुंड)
8. कल जुग - नज़ीर अकबराबादी
दुनिया अज़ब बाज़ार है, कुछ जिन्स यां की सात ले।
नेकी का बदला नेक है, बदसे बदी की बात ले॥
मेवा खिला, मेवा मिले, फल फूल दे फल पात ले।
आराम दे आराम ले, दुख दर्द दे, आफ़ात ले॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥1॥
कांटा किसी के मत लगा गौ मिस्ले गुल फूला है तू।
वह तेरे हक़ में तीर है, किस बात पर भूला है तू॥
मत आग में डाल और फिर एक घास का पूला है तू।
सुन रख यह नुक़्ता बे ख़बर किस बात पर फूला है तू॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥2॥
शोख़ी शरारत मक्रोफ़न सबका बसेखा है यहां।
जो जो दिखाया और को, वह खुद भी देखा है यहां॥
खोटी खरी जो कुछ कहे, तिसका परेखा है यहां।
जो जो पड़ा तुलता है दिल, तिल तिल का लेखा है यहां॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥3॥
जो और की बस्ती रखे उसका भी बसता है पुरा।
जो और के मारे छुरी, उसके भी लगता है छुरा॥
जो और की तोड़े धुरी उसका भी टूटे है धुरा।
जो और की चीते बदी, उसका भी होता है बुरा॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥4॥
जो और को फल देवेगा, वह भी सदा फल पावेगा।
गेहूं से गेहूं, जौ से जौ, चावल से चावल पावेगा॥
जो आज देवेगा यहां, वैसा ही वह कल पावेगा।
कल देवेगा, कल पावेगा, कल पावेगा, कल पावेगा॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥5॥
जो चाहे ले चल इस घड़ी, सब जिन्स यां तैयार है।
आराम में आराम है, आज़ार में आज़ार है॥
दुनिया न जान इसको मियाँ, दरिया की यह मझधार है।
औरों का बेड़ा पार कर, तेरा भी बेड़ा पार है॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥6॥
तू और की तारीफ़ कर, तुझको सनाख़्वानी मिले।
कर मुश्किल आसाँ और की, तुझको भी आसानी मिले॥
तू और को मेहमान कर, तुझको भी मेहमानी मिले।
रोटी खिला, रोटी मिले, पानी पिला, पानी मिले॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥7॥
जो गुल खिलावे और का, उसका ही गुल खिलता भी है।
जो और का कीले है मुंह, उसका ही मुंह किलता भी है॥
जो और का छीलै जिगर उसका जिगर छिलता भी है।
जो और को देवे कपट, उसको कपट मिलता भी है॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥8॥
कर चुक जो कुछ करना हो अब, यह दम तो कोई आन है।
नुक़्सान में नुक़्सान है, एहसान में एहसान है॥
तोहमत में यां तोहमत लगे, तूफान में तूफान है।
रहमान को रहमान है, शैतान को शैतान है॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥9॥
यां ज़हर दे तो ज़हर ले, शक्कर में शक्कर देख ले।
नेकों को नेकी का मज़ा, मूजी को टक्कर देख ले॥
मोती जो दे मोती मिले, पत्थर में पत्थर देख ले।
गर तुझको यह बावर नहीं, तो तू भी कर-कर देख ले॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥10॥
अपने नफ़ा के वास्ते मत और का नुक़्सान कर।
तेरा भी नुक़्सां होवेगा, इस बात पर तू ध्यान कर॥
खाना जो खा तू देखकर, पानी पिये तो छान कर।
यां पांव को रख फूंक कर, और ख़ौफ से गुज़रान कर॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥11॥
गफ़लत की यह जागह नहीं, यां साहिबे इदराक रह।
दिलशाद रख, दिल शाद रह, ग़मनाक रख, ग़मनाक रह॥
हर हाल में तू भी "नज़ीर", अब हर क़दम की ख़ाक रह।
यह वह मकां है ओ मियां! यां पाक रह बेबाक रह॥
कल जुग नहीं, कर जुग है यह, यां दिन को दे और रात ले।
क्या खू़ब सौदा नक़्द है, इस हात दे उस हात ले॥12॥
(जिन्स=वस्तु,गल्ला, मिस्ले गुल=फूल के समान,
मक्रोफ़न=धोखा,चालाकी का काम, सनाख़्वानी=तारीफ,
बावर=विश्वास, इदराक=अक्लमंद, दिलशाद=खुश,
ग़मनाक=दुखी)
9. दुनियाँ भी क्या तमाशा है - नज़ीर अकबराबादी
यह जितना ख़ल्क में अब जाबजा तमाशा है।
जो ग़ौर की तो यह सब एक का तमाशा है॥
न जानो कम इसे, यारो बड़ा तमाशा है।
जिधर को देखो उधर एक नया तमाशा है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥1॥
मेरे यह देख तमाशे, नहीं हैं होश बजा।
किसे बताऊं मैं सीधा, किसे कहूं उल्टा॥
जो हो तिलिस्म हक़ीकी, वह जावे कब समझा।
अजब बहार की एक सैर है अहा! हा-हा!॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥2॥
नहीं है ज़ोर ज़िन्हों में, वह कुश्ती लड़ते हैं।
जो ज़ोर वाले हैं, वह आप से पिछड़ते हैं॥
झपट के अंधे बटेरों तई पकड़ते हैं।
निकाले छातियां कुबड़े अकड़ते फिरते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥3॥
जिन्होंके पर हैं, वह पांव से चलते फिरते हैं।
जो बिन परों के हैं वह पंखे झलते फिरते हैं॥
मिसाल रूह के लुँजै भी चलते फिरते हैं।
हिरन की तरह से लंगड़े उछलते फिरते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥4॥
बना के न्यारिया ज़र की दुकान बैठा है।
जो हुंडी वाला था वह ख़ाक छान बैठा है॥
जो चोर था सो वह हो पासबान बैठा है।
ज़मीन फिरती है, और आसमान बैठा है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥5॥
चकोरें घिसती हैं और गिद्ध घुग्गू बढ़ते हैं।
पतिंगे बंद हैं, मच्छर फ़लक पे चढ़ते हैं॥
किताबें खोल चुग़द बैठे साया करते हैं।
नमाज़ बुलबुलें, तोते कु़रान पढ़ते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥6॥
इराक़ी फूस ठठेरे खड़े चबाते हैं।
गधे पुलाब तई लात मार जाते हैं॥
जो शेर हैं उन्हें गीदड़ खड़े चिढ़ाते हैं।
पढ़न तो नाचे हैं मेंढ़क मलार गाते हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥7॥
बतों की लम्बी दुमें, मोर सब लंड्रे हैं।
सफ़ेद कौवे हैं, चीलों के रंग भूरे हैं॥
जो साधु सन्त हैं पूरे सो वह अधूरे हैं।
कपट की नद्दी पै बगले, भगत के पूरे हैं॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥8॥
जुबां है जिसके इशारत से वह पुकारे है।
जो गूंगा है वह खड़ा फ़ारसी बघारे है।
कुलाह हंस की कौआ खड़ा उतारे है।
उछल के मेंढ़की हाथी के लात मारे है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥9॥
जो है नजीब नस्ब के वह बन्दे चेले हैं।
कमीने अपनी बड़ी ज़ात के नवेले हैं।
जो बाज़ शकरे हैं पापड़ खड़ें वह बेले हैं।
लंगड़ तो मर गये उल्लू शिकार खेले हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥10॥
चमन हैं खु़श्क बनों बीच आब जारी है।
ख़राब फूल है कांटों की गुल इज़ारी है॥
स्याह गोश को पिदड़ी ने लात मारी है।
दुबकते फिरते हैं, चीते हिरन शिकारी है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥11॥
जिन्होंके दाढ़ी है, उनकी तो बा तबाही है।
जो दाढ़ी मुंडे हैं उनकी सनद गवाही है॥
स्याह रोशनी और रोशनी स्याही है।
उजाड़ शहर में मुर्दों की बादशाही है॥
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥12॥
जिन्हों में अक़्ल नहीं वह बड़े सियाने हैं।
जो अक़्ल रखते हैं, वह बावले दिवाने हैं।
जनाने शौक़ से मर्दों के पहने बाने हैं।
जो मर्द हैं वह निरे हीजड़े जनाने हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥13॥
जिन्हों के कान नहीं, दूर की वह सुनते हैं।
जो कान वाले हैं, बैठे सर को धुनते हैं।
धुँए बरसते हैं और अब्र तिनके चुनते हैं।
कबाब भूनते हैं, और कबाबी भुनते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥14॥
चिमगादड़ दिन के तई रतजगा मनाती है।
छछूंदर और भी घी के दिये जलाती है।
जो चुहिया ढोल बजाती है घूंस गाती है।
गिलहरी बैठी हुई गुलगुले पकाती है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥15॥
पहन के रीछनी पोशाक जब दिखाती है।
गधों से हंसती है, कुत्तों से मुस्कराती है।
परी तो कौड़ी की मिस्सी को दाग़ खाती है।
चुड़ैल पान के बीड़े खड़ी चबाती हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥16॥
ख़बीस देव, पलीद, आ हर एक से लड़ते हैं।
जो आदमी हैं वह उन सबके पांव पड़ते हैं।
बलायें लिपटाँ हैं और भूत जिन झगड़ते हैं।
यह क़हर देखो कि ज़िन्दों से मुर्दे लड़ते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥17॥
गधा लड़ाई में, हाथी के तई लताड़े है।
शुतुर के घर के तई लोमड़ी उजाड़े है।
हुमा को बूम हर एक वक़्त मारे धाड़े है।
ग़ज़ब है पोदना सारस का पर उखाड़े है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥18॥
खिले हैं आक के फूल और गुलाब झड़ते हैं।
बिनौले पकते हैं अंगूर, आम सड़ते हैं।
सखी करीम पड़े एड़ियां रगड़ते हैं।
बख़ील मोतियों को मूसलों से छरते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥19॥
शकर के ग़म में शकर ख़ोरी ख़ाक उड़ाती है।
जलेबी, पेड़ों ऊपर मक्खी भिनभिनाती है।
उड़ें हैं मछलियां, मुर्गी खड़ी नहाती है।
जंगल की रेत में मुर्ग़ाबी गोता खाती है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥20॥
जो ठग थे अपनी वह ठग विद्या से छूटे हैं।
मुसाफ़िर उनके गले फांसी डाल घूटे हैं।
अंधेरी रात में घर चोरटों के फूटे हैं।
सभों को दिन के तई साहूकार लूटे हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥21॥
तज़रू रोते हैं और ज़ाग़ खिलखिलाते हैं।
ख़मोश बुलबुलें और भुनगे चहचहाते हैं।
चिड़े अटारियां और पिद्दे बंगले छाते हैं।
बिलों को छोड़ के चूहे महल उठाते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥22॥
चरिंद जितने हैं पर झाड़-झाड़ उड़ते हैं।
परिंद गिरते हैं, और बूटी झाड़ उड़ते हैं।
पड़ी है बस्तियां वीरां, उजाड़ उड़ते हैं।
अटल हो बैठे हैं रोड़े, पहाड़ उड़ते हैं।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥23॥
सुलेमां भूके हैं च्यूटीं के पास ढेरी है।
कुलंग बुज्जे की चिड़िया ने राह घेरी है।
अजब अँधेरे उजाले की फेरा फेरी है।
घड़ी में चांदनी है और घड़ी अंधेरी है।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥24॥
अज़ीज़ थे जो हुए चश्म में सभों की हक़ीर।
हक़ीर थे सो हुए सब साहिबे तौक़ीर।
अज़ब तरह की हवाऐं हैं और अजब तासीर।
अचंभे खल्क़ के क्या-क्या करूं बयां मैं "नज़ीर"।
ग़रज मैं क्या कहूं दुनियां भी क्या तमाशा है॥25॥
(न्यारिया=भट्टी की राख में मिले हुए सोने-चांदी के
कणों को छानकर अलग करके जीविका कमाने
वाला, पासबान=निगरानी करने वाला, पढ़न=एक
प्रकार की मछली, बतों=बतख, कुलाह=टोपी,ताज,
नजीब नस्ब=शुद्ध वंश, गुल इज़ारी=फूल जैसे सुन्दर,
स्याह गोश=कुत्ते के बराबर एक जानवर जिससे
शेर डरता है, घूंस=चूहे के वर्ग का एक बड़ा जन्तु,
ख़बीस=प्रेत, शुतुर=ऊंट, हुमा=फारसी और उर्दू
साहित्य में वर्णित एक कल्पित पक्षी जिसकी
छाया पड़ जाने से मनुष्य राजा हो जाता है,
वह पक्षी केवल हड्डियां खाता है, बूम=उल्लू,
सखी करीम=उदार और दयालु, बख़ील=कंजूस,
तज़रू=बहुत सुन्दर रंग का जंगली मुर्ग, ज़ाग़=
कौए, चरिंद=चौपाये, कुलंगएक पहाड़ी मौसमी
पक्षी जिस के पेट में मोती निकलते हैं, बुज्जे=
श्वेत-श्याम रंग का एक जल-पक्षी, चश्म=आंख,
हक़ीर=तुच्छ,छोटे, तौक़ीर=प्रतिष्ठा वाले, तासीर=
प्रभाव)
10. ख़ुदा की बातें ख़ुदा ही जाने - नज़ीर अकबराबादी
जहां में क्या क्या, खु़दी के अपनी, हर एक बजाता है शादयाने।
कोई हकीम और कोई महंदस, कोई हो पण्डित कथा बखाने।
कोई है आक़िल, कोई है फ़ाज़िल, कोई नुजूमी लगा कहाने।
जो चाहो कोई यह भेद खोले, यह सब हैं हीले यह सब बहाने।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥1॥
हवा के ऊपर जो आस्मां का, बे चोबा ख़ेमा यह तन रहा है।
न उसके मेंखें, न हैं तनाबें न उसके चोबें अघर खड़ा है।
इधर है चांद और उधर है सूरज, इधर सितारे उधर हवा है।
किसी को मुतलक़ ख़बर नहीं है, कि कब बना है और काहे का है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥2॥
फ़लक तो कहने को दूर हैगा, जमीं का अब जो यह बिस्तरा है।
खड़े हैं लाखों पहाड़ जिस पर, फ़लक से सिर जिनका जा लगा है।
हज़ारों हिकमत का बिछौना, यह पानी ऊपर जो बिछ रहा है।
बहुत हकीमों ने ख़ाक छानी, कोई न समझा यह भेद क्या है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥3॥
ज़मीं से लेकर आस्मां तक, भरी हैं लाखों तरह की ख़ल्क़त।
कहीं है हाथी, कीं है च्यूंटी, कहीं है राई कहीं है पर्वत।
यह जितने जलवे दिखा रही है, खु़दा की सनअत खु़दा की हिकमत।
जो चाहे खोले यह भेद उसके, किसी को इतनी नहीं है कु़दरत।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥4॥
कोई जो पूछे किसी से जाकर ‘यह मुल्क क्या है और कब बना है?’
जो जानता हो तो कुछ बतावे, न जाने सो क्या, कहे कि क्या है?
अरस्तू, लुक़मां और फ़लातूं, हर एक सर को पटक गया है।
यह वह तिलिस्मात हैं कि जिनकी, न इब्तिदा है न इन्तिहा है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥5॥
कोई है हंसता, कोई है रोता, कहीं है शादी, कहीं गमी है।
कहीं तरक़्की, कहीं तनज़्जु़ल, कहीं गुमां और कहीं यकीं हैं।
कोई घिसटता जमीं के ऊपर, कोई खुशी से फ़लक नशीं है।
यह भेद अपना वह आप जाने, किसी को हरगिज़ ख़बर नहीं है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥6॥
अजब तरह की यह रंगीं चौपड़ गरज़ बिछाई हैं अब खु़दा ने।
कोइ है फुटकल किसी का जुग है फिरे हैं नर्दे भी ख़ाने ख़ाने॥
जो पासा फेंके बना बना कर और दांव कितने ही दिल में ठाने।
जो चाहता हो अठारह आवें, तो उसके पड़ते हैं तीन काने॥
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥7॥
अजब यह शतरंज का सा नक़्शा, बिछा है दिन और रात इस जा।
जो मात चाहे करे किसी को, न आवे बुर्द उसके हात इस जा।
हज़ारों मंसूबे बांधे दिल में बनावे चालों की घात इस जा।
नहीं है इक चार चौक क़ायम, सभों की बाज़ी है मात इस जा।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥8॥
अज़ब तरह के वरक़ बने हैं, कोई मुकद्दर कोई सफा है।
किसी के सर पर है ताजशाही, किसी पे शमशीर पुर जफ़ा है।
कोई अमीर और कोई वज़ीर है कोई फ़कीरी में दिल ख़फा है।
सभों को इस जा ख़याल आया, यह हक़ की कु़दरत का गंजफ़ा है।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥9॥
यह कौन जाने कि कल किया क्या और आज मालिक वह क्या करेगा।
किसे बिगाड़े किसे संवारे, किसे लुटावे किसे भरेगा।
किसी के घर कौन होगा पैदा, किसी के घर कौन सा मरेगा।
किसी को हरगिज़ ख़बर नहीं है कि क्या किया और वह क्या करेगा॥
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥10॥
अजब तरह का यह जाल हैगा कमंद कहिये व या कमन्दा।
न छूटे च्यूंटी न छूटे हाथी, न कोई बहशी न कोई परिन्दा॥
सभी की गर्दन फंसी है इसमें, किसी का टूटा न एक फंदा।
‘नज़ीर’ इतनी मजाल किसकी, कहां खु़दा और कहाँ यह बंदा।
पड़े भटकते हैं लाखों दाना, करोड़ों पण्डित हज़ारो स्याने॥
जो खूब देखा तो यार आखि़र, खु़दा की बातें खु़दा ही जाने॥11॥
(शादयाने=बधाई,खुशी के समय बजने वाला गाना, फ़ाज़िल=
पूरा विद्वान, नुजूमी=ज्योतिषी, दाना=योग्य व्यक्ति, हिकमत=
कारीगरी, सनअत=बुद्धिमत्ता, इब्तिदा=प्रारम्भ, इन्तिहा=अन्त,
तनज़्जु़ल=पतन, फ़लक नशीं=आसमान पर बैठने वाला ऊँचा,
चौपड़=खेल जो बिसात पर चार रंगों की गोटियों से खेला
जाता है,चौसर, फुटकल=अकेला, जुग=जोड़ा, नर्दे=चौपड़ की
गोट, पासा=हाथी दांत या हड्डी के छह पहले टुकड़े जिनके
पहलों पर बिन्दियां बनी होती हैं और जिनसे चौपड़ खेलते हैं,
बुर्द=शतरंज की वह बाजी जिसमें आधी मात मानी जाती है
और जिसमें हारने वाले के पास बादशाह के सिवा कोई मोहरा
नहीं रहता, वरक़=पृष्ठ, मुकद्दर=मैला,गंदा, जफ़ा=अत्याचार से
भरी हुई, कमंद=फंदा पाश,एक लम्बी रस्सी जिसके एक सिरे
पर गोह बंधी रहती थी, उसके द्वारा ऊँची-ऊँची दीवारों पर
चढ़ा जा सकता था, गोह जहां चिपक जाती है फिर कितना
ही ज़ोर किया जाय वहां से नहीं छूटती, बहशी=जंगली पशु)
11. मौत की फ़िलासफ़ी - नज़ीर अकबराबादी
जो मरना-मरना कहते हैं वह मरना क्या बतलाये कोई।
वां ज़ाहिर बाहें खोल मिले सब अपनी अपनी छोड़ दुई।
सीं डाली आंख दो रंगी की जब यक रंगी ने मार सुई।
नामर्दों का गु़लशोर रहा ना औरत की कुछ आह उई।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥1॥
नक़्क़ारा धूं धूं बजता था और क्या-क्या थी आवाज़ बड़ी।
जब फूट गया, फिर देखो तो आवाज़ सब उसकी कहां गई।
नर मादा दोनों एक हुए जब आन भरम की खाल फटी।
न नर का कुछ निर मोल रहा न मादा की पहचान रही।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥2॥
हर चार तरफ़ उजियाली थी उस तेल सकोरी पानी की।
वह जोत न थी उस दिये की थी और किसी की उजियारी।
सब घर के बीच उजाला था क्या नेक बदी थी नूर भरी।
जब दीवा बुझ कर सर्द हुआ फिर हाय गई कुल अंधियारी।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥3॥
था जब तक ख़ासा दूध बना थी क्या-क्या उसमें चीज़ धरी।
बुर्राक़, मलाई, माखन था और खोया गाढ़ा और तरी।
जब फटकर टुकड़े दूध हुआ फिर कहाँ गई वह चिकनाई।
न दूध रहा, न दही रहा न रौग़न मसका छाछ मही।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥4॥
यह बात न समझे, और सुनो जो लकड़ी में थी आग लगी।
जब बुझ कर ठंडी राख हुई फिर उसकी आँच कहाँ पहुंची।
यां एक तरफ़ को दूल्हा था और एक तरफ़ को दुल्हन थी।
जब दोनों मिलकर एक हुए फिर बात रही क्या पर्दे की।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥5॥
यह बात न समझे, और सुनो जो मटकी डाली पानी में।
और रस्ते में जब फूट गई हाथों की नोचा तानी में।
न राजा का सन्देह रहा, न भेद रहा कुछ रानी में।
जा घेरे मिल गए घेरों में, और पानी मिल गया पानी में।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥6॥
यह बात न समझे, और सुनो जो कपड़ा पानी भीगा था।
जब सूखा धूप के अन्दर वह फिर पानी उसका कहां गया।
सब मुर्दा-मुर्दा बोल उठे वां और किसी ने रंग बदला।
न भरम रहा नर मादा का न धोका हाथी, च्यूंटी का।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥7॥
यां जिनको जीना मरना है ऐ यार! उन्हीं को डरना है।
जब दोनों दुख सुख दूर हुए फिर जीना है न मरना है।
इस भूल भुलैया चक्कर में टुक रस्ता पैदा करना है।
सब छोड़ भरम की बातों को इस बात उपर दिल धरना है।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥8॥
हक़ नाहक़ उनसे कौन लड़े जो मरना समझें जीने को।
जीने का रहना नाम रखें, और जीना खाने पीने को।
जो मर गए आगे मरने से, वह जाने भेद क़रीने को।
हो ख़ासी दुलहन जा लिपटी उस लाल बने रंग भीने को।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥9॥
क्या सूरत लोग लुगाई की क्या नक़्शा नारी नरपत का।
क्या रंग बने क्या रूप हुए क्या स्वांग बनाया गत-गत का।
जो समझे उनको आसाँ है नहीं फ़र्क है राई पर्वत का।
बस और ‘नज़ीर’ अब क्या कहिये है ज़ोर तमाशा कु़दरत का।
माटी की माटी, आग अगन, जल नीर, पवन की पवन हुई।
अब किससे पूछे कौन मुआ? और किससे कहिये कौन मुई॥10॥
12. फ़कीरों की सदा-1 - नज़ीर अकबराबादी
ज़र की जो मुहब्बत, तुझे पड़ जायेगी, बाबा।
दुःख उसमें तेरी रूह, बहुत पायेगी बाबा।
हर खाने को हर पीने को तरसाएगी बाबा।
दौलत जो तेरे यां है न काम आयेगी बाबा।
फिर क्या तुझे अल्लाह से मिलवाएगी बाबा॥1॥
दौलत जो तेरे पास है रख याद तू यह बात।
खा तू भी और अल्लाह की कर राह में ख़ैरात।
देने से रहे उसके तेरा ऊंचा सदा हात।
और यां भी तेरी गुजरेगी सौ ऐश से औक़ात।
और वां भी तुझे, सैर यह दिखलाएगी बाबा॥2॥
दौलत की यही खू़बी है, सौ नेमतें खा डाल।
कमख़्वाब पहन, बादला ओढ़ और बना डाल।
बाग़ो चमनो होज़ो इमारात बना डाल।
एक दम तो भला, खल्क़ में दरिया सा बहा डाल।
फिर वर्ना तुझे सैर, यह दिखलाएगी बाबा॥3॥
दाता की तो मुश्किल कोई अटकी नहीं रहती।
चढ़ती है पहाड़ों के ऊपर नाव सख़ी की।
और तूने बख़ीली से, अगर जमा उसे की।
तो याद रख बात कि जब आवेगी सख्ती।
खुश्की में तेरी नाव यह डुबवाएगी बाबा॥4॥
दौलत जो तेरे घर में यह अब फूली है जूं फूल।
मरदूद भी करती है यह और करती है मक़बूल।
जो चाहे तेरे साथ, चले यां से यह मजहूल।
जनहार खबरदार हो इस बात पै मत भूल।
यह खन्दी तेरे साथ नहीं जाएगी बाबा॥5॥
क़स्बी यह पुरानी है न आ इसके तू छल में।
आज इसकी बग़ल में हैतो कल उसकी बग़ल में।
ठंडक नहीं पड़ने की कभी इसके तो झल में।
जब तन से तेरी जान निकल जावेगी पल में।
तू जावेगा और यह यहीं रह जाएगी बाबा॥6॥
गर नेक कहाता है, कर इस जाय कुछ एहसान।
हिन्दू को खिला पूरी, मुसलमां को खिला नान।
खा तू भी इसे शौक़ से, और ऐश पे रख ध्यान।
तू इसको न खावेगा, तो यह बात यकीं जान।
एक रोज़ यह खन्दी, तुझे खा जाएगी बाबा॥7॥
इससे यही बेहतर है तू ही अब इसे खा जा।
बेटों को, रफ़ीकों को अज़ीज़ों को खिला जा।
सब रूबरू अपने इसे इश्ररत में उड़ा जा।
फिर शौक़ से हंसता हुआ, जन्नत को चला जा।
वर्ना तुझे हर दुःख में, यह फंसवाएगी बाबा॥8॥
गर आवेगा हाकिम कोई ज़ालिम तो मेरी जान।
और तेरी सुनेगा वह बख़ीली की सी गुजरान।
जब खींच बुलावेगा लगाकर कोई तूफान।
तू जी से जिसे दोस्त समझता है यह सर आन।
यह दोस्त ही दुश्मन, तेरी हो जाएगी बाबा॥9॥
कोई कहेगा उसके तई बांध के लटका।
कोई कहेगा तूंबड़ा मुंह इसके में चढ़वा।
कोई कहेगा कपड़े भी सब इसके उतरवा।
सौ ज़िल्लतो ख़्बारी से तुझे देखके फिरता।
बंधवायेगी, और मार भी खिलवाएगी बाबा॥10॥
और जो कभी हाक़िम ने न पूछा तेरा अहवाल।
तो चोर चुरा लेवेगा, या डाका कोई डाल।
गाड़ेगा जमीं बीच, तो फिर होवेगा यह हाल।
क़िस्मत से तेरी, जब कभी आजावेगा भूचाल।
फिर नीचे ही नीचे, यह सरक जाएगी बाबा॥11॥
यह तो न किसी पास रही है, न रहेगी।
जो और से करती रही, वह तुझ से करेगी।
कुछ शक नहीं इसमें जो बढ़ी है सो घटेगी।
जब तक तू जियेगा, तुझे यह चैन न देगी।
और मरते हुए फिर यह ग़जब लाएगी बाबा॥12॥
जब मौत का होवेगा तुझे आनके धड़का।
और निज़अ तेरी आन के, दम देवेगी भड़का।
जब इसमें तू अटकेगा, न दम निकलेगा फड़का।
कुप्पां में रूपे डाल के जब देवेंगे खड़का।
जब तन से तेरे, जान निकल जाएगी बाबा॥13॥
तू लाख अगर माल के सन्दूक़ भरेगा।
है यह तो यकीं, आखिरश एक दिन तो मरेगा।
फिर बाद तेरे इस पै जो कोई हाथ धरेगा।
वह नाच, मज़ा देखेगा और ऐश करेगा।
और रूह तेरी, कब्र में घबराएगी बाबा॥14॥
उसके तो वहां ढोलको-मरदंग बजेगी।
और रूह तेरी, क़ब्र में हस्रत से जलेगी।
वह खावेगा और तेरे तई आग लगेगी।
ताहश्र तेरी रूह को, फिर कल न पड़ेगी।
ऐसा यह तुझे गोर में तड़पाएगी बाबा॥15॥
जूं जूं वह तेरे माल से इश्रत में पड़ेगा।
तू क़ब्र में रह-रह कफ़े अफ़सोस मलेगा।
जो चाहे कोई बोले तो फिर बस न चलेगा।
बेबस तू पड़ा क़ब्र में हस्रत से जलेगा।
दिन रात तेरी छाती को, कुढ़वाएगी बाबा॥16॥
जावेगा तेरी गोर की जानिब तो वह नागाह।
साक़ीयो सुराहीयो परी ज़ाद के हमराह।
रोना मुझे आता है तेरे हाल पे वल्लाह।
जब देखेगा सौ ऐश में तू उसके तई आह।
क्या-क्या तेरी छाती पे यह लहरायेगी बाबा॥17॥
तू भूत हो छाती पे अगर आन चढ़ेगा।
तो वां भी तेरे वास्ते, आमिल कोई बुलवा।
शीशे में उतरवा के तुझे देवेगे गड़वा।
या खू़ब सा सुलगा के कोई हाय, फ़तीहा।
धूनी भी तेरी नाक़ में दिलवाएगी बाबा॥18॥
गर होश है तुझ में तो बख़ीली का न कर काम।
इस काम का आखि़र को, बुरा होता है अंजाम।
थूकेगा कोई कहके, कोई देवेगा दुश्नाम।
जनहार न लेगा कोई हर सुबह तेरा नाम।
पैजारे तेरे नाम पै लगवाएगी बाबा॥19॥
कहता है "नज़ीर" अब तो यह बातें तुझे हर आन।
गर मर्द है आक़िल तो इसे झूठ तू मत जान।
टुक ग़ौर से कर गंज पे कारूं के ज़रा ध्यान।
जैसा ही उसे उसने किया खू़ब परेशान।
वैसा ही मज़ा तुझको भी दिखलाएगी बाबा॥20॥
(सख़ी=दानी, बख़ीली=कंजूसी, मरदूद=छोटे,खराब,
मक़बूल=प्रिय, खन्दी=बदचलन, क़स्बी=रंडी, निज़अ=
मौत का समय, आखिरश=अन्त में, हस्रत=इच्छा,
ताहश्र=रोजे कयामत तक, गोर=क़ब्र, नागाह=अचानक,
आमिल=अमल करने वाला,झाड़ फूंक करने वाला,
दुश्नाम=गाली, गंज=खजाना)
13. फ़कीरों की सदा-2-बटमार अजल का आ पहुँचा - नज़ीर अकबराबादी
बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
अब जीने को तुम रुख़सत दो मरने को मेहमान करो।
खैरात करो एहसान करो, या पुन्न करो या दान करो।
या पूड़ी लड्डू बनवाओ, या ख़ासा हलुवा नान करो।
कुछ लुत्फ़ नहीं अब जीने का, अब चलने का सामान करो।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
दिल को तो उबाओ जीने से अब और गले को मत काटो।
अब चाह फ़ना की टुक चक्खो और खू़न किसी का मत चाटो।
धुन छोड़ो हिस्से बख़रे की और भाजी अपनी तुम बाटो।
नाकंद बछेड़े कूद चुके अब और दुलत्ती मत छांटो।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
सर कांपा, चांदी बाल हुए, मुंह पोला, पलकें अपन झुकीं।
कद टेढ़ा, कान हुए बहरे और आंखें भी चुंधियाय गयीं।
सुख नींद गई और भूख घटी, दिल सुस्त हुआ आवाज़ महीं।
जो होनी थी सो हो गुजरी, अब चलने में कुछ देर नहीं।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
या पांव घिसट कर चलने से, मत रस्ते को हैरान करो।
और पोपले मुंह से रोटी को मत मल-मल कर हलकान करो।
अब आप हुए तुम पानी से मत पानी का नुकसान करो।
कुछ लाभ नहीं है जीने में अब मरने से पहचान करो।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
गर अच्छी करनी नेक अमल, तुम दुनियां से ले जाओगे।
तो घर अच्छा सा पाओगे और सुख से बैठे खाओगे।
और ऐसी दौलत छोड़ के तुम जो खाली हाथों जाओगे।
फिर कुछ भी नहीं बन आवेगी, घबराओगे, पछताओगे।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥
यह ऊंट किराये का यारो, सन्दूक, जनाजा, अर्थी है।
जब हो उस पर असवार चले फिर घोड़ा है ने हस्ती है।
किस नींद पड़े तुम सोते हो, यह बोझ तुम्हारा भारी है।
कुछ देर नहीं अब आह ‘नज़ीर’ तैयार खड़ी असवारी है।
तन सूखा कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥
(बटमार=रास्ते में लूट लेने वाला,वटपरा, अजल=मौत)
14. मरातिब दुनियाँ महज़ बेसबात है - नज़ीर अकबराबादी
गर बादशाह होकर अमल मुल्को हुआ तो क्या हुआ?
दो दिन का नरसिंगा बजा, भौं-भौं हुआ तो क्या हुआ?
गुल शोर मुल्को माल का कोसों हुआ, तो क्या हुआ?
या हो फ़क़ीर आज़ाद के रंगूं हुआ तो क्या हुआ?
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ?॥1॥
दो दिन तो यह चर्चा रहा घोड़ा मिला हाथी मिला।
बैठा अगर हौदे ऊपर, या पालकी में जा चढ़ा।
आगे को नक़्कारे, निशां, पीछे को फ़ौजों का परा।
देखा तो फिर एक आन में, हाथी न घोड़ा ना गधा।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥2॥
या दौलतो इक़बाल है, पहना ज़री और बादला।
मसनद सुनहरी दी बिठा, कमख़ाब के तकिये लगा।
आखि़र न वह दौलत रही, न आप ने वह घर रहा।
मसनद कहीं जाती रही, तकिया कहीं फिरता फिरा।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥3॥
या इश्रतों के ठाठ थे और ऐश के असवाब थे।
साकी, सुराही, गुलबदन, जामे शराबे नाब थे।
या बेकसी के दर्द से, बेहाल थे बेताब थे।
आखि़र जो देखा दोस्तों सब कुछ ख़यालों ख़्वाब थे।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥4॥
था एक दिन वह धूम का, निकले था जब असवार हो।
हर दम पुकारे था नक़ीब आगे बढ़ो पीछे रहो।
या एक दिन देखा उसे, तनहा पड़ा फिरता है वह।
बस क्या खु़शी, क्या ना खुशी, यक्सां हैं सब ऐ दोस्तो।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥5॥
जब हश्मतों की शान में करता था क्या-क्या शेखियां।
हर दम तकब्बुर के सुख़न, हर आन में मग़रूरियां।
और उड़ गई दौलत, यह फिर असबाब के तख़्ते कहां।
आकर फ़ना हाज़िर हुई, सब मिट गए नामों निशां।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥6॥
या नेमतें खाता रहा, दौलत के दस्तख़्वान पर।
मेवे, मिठाई वा मजे, हल्वाये तर शीरो शकर।
या बांध झोली भीख की, टुकड़ों के ऊपर धर नज़र।
होकर गदा फिरने लगा टुकड़ों की ख़ातिर दरबदर।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥7॥
या दौलतों का सामने, आकर था यक दरिया बहा।
लेकर जमीं ता आस्मां, दौलत में फिरता था पड़ा।
या होके मुफ़्लिस बेनवा, फिरता है दाने मांगता।
जब आ गई सर पर अजल, एक दम में सब कुछ मिट गया।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥8॥
गर नाज़ो नेमत में रहा, यानी कि वह ज़रदार था।
या मुफ़्लिसी के हाथ से, मोहताज हो दर-दर फिरा।
जब वक़्त चलने का हुआ, न यह रहा, न वह रहा।
आया था जिस अह्बाल से, वैसा ही आखि़र चल बसा।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥9॥
गर एक मुसीबत में रहा और दूसरा दिलशाद है।
वां ऐश इश्रतके मजे, यां नाला-ओ-फर्याद है।
या लज़्ज़तें या राहतें, या जुल्म या बेदाद है।
कुछ रह नहीं जाता, मियां आखि़र को सब बरबाद हैं।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥10॥
जो इश्रतें आकर मिलें तो वह भी कर जाना मियां।
जो दर्द दुःख आकर पड़ें, तो वह भी भर जाना मियां।
या सुख में या दुख में, ग़रज यां से गुज़र जाना मियां।
यां चार दिन की ज़िन्दगी, आखि़र को मर जाना मियां।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥11॥
अब देख किसको शाद हो और किस पे आंखें नम करे।
यह दिल बिचारा एक है, किस-किसका अब मातम करे।
या दिल को रोवे बैठकर या दर्द दुख को कम करे।
यां का यही तूफान है अब किसकी जूती ग़म करे।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥12॥
गर तू ‘नज़ीर’ अब मर्द है हर हाल में भी शाद हो।
दस्तार में भी हो खुशी, रूमाल में भी शाद हो।
आज़ादगी भी देख ले, जंजाल में भी शाद हो।
गर यूं हुआ तो क्या हुआ? और वूं हुआ तो क्या हुआ॥13॥
(नक़ीब=वह व्यक्ति जो किसी राजा महाराजा की सवारी
के समय आगे आवाज़ लगाता चलता है,चौबदार,
तकब्बुर=घमंड, मग़रूरियां=घमंड, ज़रदार=दौलतमंद,
नाला=आह भरना, बेदाद=असहयोग)
15. अजल का पयाम - नज़ीर अकबराबादी
दुनियां के बीच में जो कोई ख़ासो आम है।
क्या शाह क्या वज़ीर मियां क्या गुलाम है॥
गर्दन के बीच मौत का अब सबके दाम है।
हम दम का आना जाना जो अब सुबहो शाम है॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥1॥
जिस रोज़ उसकी ज़ात पे हस्ती का आया नाम।
उस दिन से नेस्ती तो उसे कर चुकी सलाम॥
हर वक़्त उसको मौत का जाने लगा सलाम।
यह जो निकल बक़ा ने फ़ना में किया मुक़ाम॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥2॥
हस्ती के जब से नाम पे उसकी क़लम चली।
हस्ती के है ज़मी से लगी साथ नेस्ती॥
कुछ बात हस्तो नेस्त की जाती नहीं कही।
ग़फ़लत से अपनी यह यों ही जाती है ज़िन्दगी॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥3॥
रोटी से खून, खून से नुत्फ़े जहां बना।
हालात भी जब ही से लगी होने फिर फ़ना॥
जबीं हो गई ग़रवाल में छिना।
आखिर जब उसकी मां ने ज़मीं के उपर जना॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥4॥
पैदा हुआ तो करने लगा रोके ‘हाव’ ‘हाव’।
जो बेस्ती थी सो वह हुई हस्ती उसके भाव॥
फिर घुटनों से चलने लगा फिरने पांव पांव।
माँ ने पिलाया दूध तो बावा ने रखा नांव॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥5॥
तन में जब उसके आ के दाखिल हुआ बढ़ाव।
जाना बढ़ाव उसने व लेकिन था वह घटाव॥
सो सो तरह के दिल में लगे होने राव चाव।
जो ऐन था लगाव वह सूझा उसे बनाव॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥6॥
दस पन्द्रह वर्ष हो गए जब उम्र सेरवाँ।
फिर ऐशो इश्रतों की हविस आई दरमियां॥
फूला यह दिल में मां जी हुआ अब मैं जबां।
इसकी जवानी का मैं करूं ज़िक्र क्या क्या॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥7॥
जब आए उसके तन बदन जवानी के बबूले।
मां बाप निस्वत करके उसे ब्याहने चले॥
जब ब्याह लाये करके बहुत चाव चौचले।
यह खुश हुआ मैं लाया दुलहिन ब्याह कर चले॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥8॥
लज़्ज़त मिली जो फिर उसे ऐशो तमाअ की।
दिन रात उस मजे़ में न फिर कल उसे पड़ी॥
जब कसरत जमाअ से मनी घटी।
जो ऐश ज़िन्दगी थी वही सब निकल गई॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥9॥
शुहवत में उसका खूब सा जिसदम लहू चुआ।
इस खू़न का शिकम में बंधा आनकर थुआ॥
फिर बाद नो महीने के बेटा जहां हुआ।
बेटा वह क्या हुआ कि हुआ बाप अधमुआ॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥10॥
जब तक जवां रहें इश्रत की थी नमूद।
और जब ढली जवानी तो ग़म का हुआ वजूद॥
दाढ़ी के बाल थे निहायत स्याह कबूद।
जब उस स्याही में वह सफ़ेदी हुई नमूद॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥11॥
दो चार लड़के उसमें हुए जबकि उनके हां।
फिर उनके घर में पैदा हुए लड़के लड़कियां॥
या ‘बाबा’ ‘बाबा’ कहते थे सब उनको हर ज़मां।
या ‘नाना’ ‘दादा’ नाम हुआ उनका फिर वहां॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥12॥
जबसे सफेद हो गए जो बाल थे स्याह।
फिर वह तो खासे मौत के आकर हुए गवाह॥
उसमें घटी जो उनकी आंखों की फिर निगाह।
उन कम निगाहियों का बयां क्या करूं मैं आह॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥13॥
कानों पे उनके जिस घड़ी आ हादसा पड़ा।
गफलत कीनींद तो भी न उनकी गई ज़रा॥
हंस हंस के मुंह से दांत भी उसके हुए जुदा।
रोटी लगे निगलने, मसूड़ों से पुल पुला॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥14॥
जिस वक़्त उनके नूर हुआ कम निगाह का।
ऐनक को रख के नाक पै फिर देखने लगा॥
कानों के बीच उसमें कम आने लगी सदा।
खासे बहिश्ती बहरे हुए फिर तो वाह! वाह!॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥15॥
फिर नीदो भूक उनको में आकर हुई कमी।
गर्दन हिली कमर झुकी और दिल हुआ हजी॥
उनकी तो यहां से चलने की तैयारियां हुई।
क़द झुक गया फिर उनको खबर तो भी कुछ नहीं॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥16॥
जैसे कि हंसते फिरते थे यारों के साथ में।
वैसे ही बूढ़े होके पड़े मुश्किलात में॥
ताकत क़मर की कम हुई, असा आया हाथ में।
रोना फिर उनको आने लगा बात बात में॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥17॥
था गोश्त उनके जिस्म का वह किस कदर कड़ा।
वैसा ही आखि़रश को हुआ नरम पुल पुला॥
दाना के सामने तो न परवा कोई रहा।
उसमें मरीज़ होके जो खाने लगे दवा॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥18॥
जाती रही जवानी वह होशो हवास आह।
और तन भी उसका सूत हुआ मिस्ल घास आह॥
जो भी दवा दी उसको वह आई न रास आह।
मुर्दे की तन से आने लगी उसके बास आह॥
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥19॥
आए फिर उसको वजअ में हसरत के बलबले।
दो हिचकियां लीं और यह दुनिया से चल लिये॥
नाहक़ अदम से आके हम इस जाल में फंसे।
समझे कोई तो यह भी अजल का पयाम है॥20॥
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Nazeer Akbarabadi) #icon=(link) #color=(#2339bd)