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नज़ीर अकबराबादी की बरसात-गर्मी-सर्दी-रात पर कविताएँ
Nazeer Akbarabadi Poems on Rain-Summer-Winter-Night
1. बरसात और फ़िसलन - नज़ीर अकबराबादी
बरसात का जहान में लश्कर फिसल पड़ा।
बादल भी हर तरफ़ से हवा पर फिसल पड़ा।
झड़ियों का मेह भी आके सरासर फिसल पड़ा।
छज्जा किसी का शोर मचा कर फ़िसल पड़ा।
जिनके नये-नये थे मकां और महल सरा।
उनकी छतें टपकती हैं छलनी हो जा बजा।
दीवारें बैठती हैं छल्लो का गुल मचा।
लाठी को टेक कर जो सुतूं है खड़ा किया।
छज्जा गिरा मुंडेरी का पत्थर फिसल पड़ा॥2॥
झड़ियों ने इस तरह का दिया आके झड़ लगा।
सुनिये जिधर उधर है धड़ाके ही की सदा।
कोई पुकारे है मेरा दरवाज़ा गिर चला।
कोई कहे है "हाय" कहूं तुमसे अब मैं क्या?
"तुम दर को झींकते हो मेरा घर फिसल पड़ा॥3॥"
बारां जब आके पुख़्ता मकां के तईं हिलाय।
कच्चा मकां फिर उसकी भला क्योंकि ताव लाय।
हर झोपड़े में शोर है हर घर में हाय हाय।
कहते हैं "यारो, दौड़ियो, जल्दी से" वाय वाय।
पाखे पछीत सो गए छप्पर फिसल पड़ा॥4॥
आकर गिरा है आय किसी रंडी का जो मकां।
और उसके आशना की भी छत गिरती है जहां।
कहता है ठट्ठे बाज़ हर एक उनसे आके वां।
क्या बैठे छत को रोते हो तुम ऐ मियां यहां।
वां चित लगन का आपके सब घर फ़िसल पड़ा॥5॥
यां तक हर एक मकां के फिसलने की है ज़मीं।
निकले जो घर से उसको फिसलने का है यकीं।
मुफ़्लिस ग़रीब पर ही यह मौकू़फ़ कुछ कुछ नहीं।
क्या फ़ील का सवार है क्या पालकी नशीं ।
आया जो इस जमीन के ऊपर फिसल पड़ा॥6॥
देखो जिधर तिधर को यही गु़ल पुकार है।
कोई फंसा है और कोई कीचड़ में ख़्वार है।
प्यादा उठा जो मरके, तो पिछड़ा सवार है।
गिरने की धूमधाम यह कुछ बे शुमार है।
जो हाथी रपटा, ऊंट गिरा, ख़र फिसल पड़ा॥7॥
चिकनी ज़मीं पै यां कहीं कीचड़ है बेशुमार।
कैसा ही होशियार पै फिसले है एक बार।
नौकर का बस कुछ उसमें न आक़ा का इख़्तियार।
कूंचे गली में हमने तो देखा है कितनी बार।
आक़ा जो डगमगाए तो नौकर फिसल पड़ा॥8॥
कूंचे में कोई, और कोई बाज़ार में गिरा।
कोई गली में गिर के है कीचड़ में लोटता।
रस्ते के बीच पांव किसी का रपट गया।
उस सब जगह के गिरने से आया जो बच बचा।
वह अपने घर के सहन में आकर फिसल पड़ा॥9॥
दलदल जो हो रही है हर एक जा पै रसमसी।
मर मर उठा है मर्द तो औरत रही फंसी।
क्या सख़्त मुश्क्लिात हैं क्या सख़्त बेकसी।
उसकी बड़ी खराबी हुई और बड़ी हंसी।
जो अपने जा ज़रूर के अन्दर फिसल पड़ा॥10॥
करती है गरचे सबको फिसलनी ज़मीन ख़्वार।
आशिक़ को पर दिखाती है कुछ और ही बहार।
आया जो सामने कोई मेहबूब गुलइज़ार ।
गिरने का मक्र करके उछल कूद एक बार।
उस शोख़ गुलबदन से लिपट कर फ़िसल पड़ा॥11॥
कीचड़ से हर मकान की तो बचता बहुत फिरा।
पर जब दिखाई दी खुले बालों की एक घटा।
बिजली भी चमकी हुस्न की मेंह बरसा नाज़ का।
फिसलन जब ऐसी आई तो फिर कुछ न बस चला।
आखिर को वां 'नज़ीर' भी जाकर फिसल पड़ा॥12॥
(दर=दरवाज़ा, छल्लो=पक्की-कच्ची दीवार, सुतूं=
खम्भा, बारां=बरसात, पाखे=दीवार, पछीत=पीछे का,
मुफ़्लिस=गरीब, मौकू़फ़=निर्भर, फ़ील=हाथी, ख़र=
गधा,गुलइज़ार=फूल जैसे गालों वाला, मक्र=बहाना,
शोख़=चंचल)
2. बरसात का तमाशा - नज़ीर अकबराबादी
अहले सुखन को हैगा, एक बात का तमाशा।
और आरिफ़ों की ख़ातिर है ज़ात का तमाशा।
दुनियां के साहिबों को दिन रात का तमाशा।
हम आशिक़ों को हैगा, सब घात का तमाशा।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥1॥
खु़र्शीद गर्म होकर निकला है अपने घर से।
लता है मोल बादल कर कर तलाश ज़र से।
कोई हवा भी लेकर, बादल को हर नगर से।
आधे असाढ़ तो अब, दुश्मन के घर से बरसे।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥2॥
क़ासिक सबा के दौड़े, हरतरफ मुंह उठा कर।
हर कोहो-दश्त को भी, कहते हैं यूं सुनाकर।
हां सब्ज जोड़े पहनो, हर दम नहा नहा कर।
कोई दम को मेघ राजा, देखेगा सबको आकर।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥3॥
जब यह नवेद पहुंची, सहरा में एक बारी।
होने लगी वहां फिर, बरसात की तयारी।
चश्मों में कोह के भी, हुई सबकी इन्तिज़ारी।
मौसम के जानवर भी आते हैं बारी बारी।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥4॥
सावन के बादलों से फिर आ घटा जो छाई।
बिजली ने अपनी सूरत, फिर आन कर दिखाई।
हो मस्त राद गरजा, कोयल की कूक आई।
बदली ने क्या मजे़ की रिम झिम झड़ी लगाई।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥5॥
जिन साहिबों के दिल को कुछ ऐश से है बहरा।
वह इस हवा में जाकर, देखें हैं कोहो सहरा।
हर तरफ़ आब सब्ज़ा और गुल बदन सुनहरा।
जंगल में आज मंगल, किस किस तरह का लहरा।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥6॥
कोई अपने दिलरुबा से कहता है "देखें जंगला"।
"चीरे को तू गुलाबी", या गुल अनार रंग ला।
और साग़रो सुराही मै की तू अपने संग ला।
पी पी नशों में सैरें, देखें बनाके बंगला।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥7॥
हरगुलबदन के तन में पोशाक है इकहरी।
पगड़ी गुलाबी, हलकी, या गुल अनार गहरी।
सहने चमन में है जो, बारह दरी सुनहरी।
उसमें सभों की आकर है बज़्मे ऐश ठहरी।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥8॥
माशूक आशिक़ों में क्या बज़्म बानमक है।
शीशा, गुलाबी, साक़ी और ज़ाम और गज़क है।
झंकार ताल की है और तबले की खड़क है।
गौरी, मलार के साथ आवाज की गमक है।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥9॥
आकर कहीं मजे़ की नन्हीं फुहार बरसे।
चीरों का रंग छुटकर हुस्नो निगार बरसे।
एक तरफ औलती की, बाहम क़तार बरसे।
छाज़ो उमंड के पानी, मूसल की धार बरसे।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥10॥
हर कोह की कमर तक, सब्जा है लहलहाता।
बरसे है मेंह झड़झड़, पानी बहा है जाता।
बहशो-तयूर हर इक मल-मल के है नहाता।
गू गां करे हैं मेंढ़क, झींगुर है गु़ल मचाता।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥11॥
गुलशन में आ फिरे हैं, सब गुल बदन नुकीले।
साथ उनके लग रहे हैं, आशिक जो हैं रंगीले।
कहता कोई किसी से "ऐ दिलरुबा हटीले।
एक ही गुलाबी मै की हाथों से मेरे पीले"।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥12॥
काली घटा है हर दम बरसें है मेह की धारें।
और जिसमें उड़ रही हैं बगलों की सौ कतारें।
कोयल पपीहे कूकें, और कूक कर पुकारें।
और मोर मस्त होकर जूं कोकिला चिंघारें।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥13॥
काली घटाएं आकर, हो मस्त तुल रही हैं।
दस्तारें सुर्ख़ उसमें, क्या खूब खुल रही हैं।
रुख़सारों पर बहारें, हर इक के ढुल रही हैं।
शबनम की बूंदे जैसे, हर गुल पे तुल रही हैं।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥14॥
सावन की काली रातें और बर्क़ के इशारे।
जुगनू चमकते फिरते, जूं आसमां पे तारे।
लिपटे गले से सोते, माशूक माह पारे।
गिरती है छत किसी की, कोई खड़ा पुकारे।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥15॥
हाथों में हैं हर इक के फूलों की लाल छड़ियां।
बिजली चमकती फिरती, और लग रही हैं झड़ियां।
कुल बूंदों के जो ऊपर बूंदे हैं मेंह की पड़ियां।
बरसें गोया हज़ारों अब मोतियों की लड़ियां।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥16॥
हर एक उनमें बेहतर महबूब गुल बदन है।
खू़बी में बर्ग गुल से बेहतर हर एक का तन है।
तिस पर यह अब्र बारां, और गुल है और चमन है।
आशिक़ के दिल से पूछो क्या ऐश का चलन है।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥17॥
शहरों के बीच हर जा, उम्दों के जो मकां हैं।
बारां के देखने की बामो-अटारियां हैं।
बैठे हुए बग़ल में, माशूक दिल सतां हैं।
हर रंग हर तरह की मै की गुलाबियां हैं।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥18॥
बंगले सभों ने हरजा, ऊंचे छवाए ज़र्दे ।
मेवे, मिठाई, अम्बा, अंगूर और सर्दे।
पकवान ताजे ताजे, ख़ासे पुलाव ज़र्दे।
बरसे है अब्र बारां, खुलवा दिये हैं पर्दे।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥19॥
अब शहर में जहां तक ओबाश पेशावर हैं।
बैठे दुकान ऊपर, बे खौफ़ो बे खतर हैं।
माशूक हैं बग़ल में, महबूब सीम बर है।
और सब ग़रीबो-गुरबा, दिलशाद अपने घर हैं।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥20॥
आगे दुकां के नाला है मौज मार चलता।
आलम तरह तरह का आगे से है निकलता।
कोई छपकता पानी और कोई है फिसलता।
ठट्ठा है और मज़ा है आबे-अनब है ढलता।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥21॥
मामूर हैं जहां की सब ताल और तलैयां।
सब भर रहा है पानी हो नहर या नहरियां।
और डालियां चमन की बूंदों से झुक हैं रहियां।
बादल भरे हैं जैसे माशूक हैं दो गनियां।
आ यार! चलके देखें, बरसात का तमाशा॥22॥
है जो "नज़ीर" जिसकी धूमें उकस्तियां हैं।
सबसे ज़्यादा उसको, अब ऐश मस्तियां हैं।
माशूक़ है बग़ल में, और मैं परस्तियां हैं।
शेरों से मोतियों की बूंदें बरस्तियां हैं।
आ यार! चलके देखें बरसात का तमाशा॥23॥
(आरिफ़=ज्ञानी, खु़र्शीद=सूरज, क़ासिक=दूत,
सबा=ठंडी हवा, कोहो-दश्त=पहाड़-जंगल,
नवेद=शुभ सूचना, सहरा=जंगल, चश्मों=
झरने, राद=बादलों का देवता, चीरे=पगड़ी,
औलती=औलाती छप्पर के नीचे का भाग,
बहशो-तयूर=जंगली जानवर-पक्षी, रुख़सार=
गाल, शबनम=ओस, बर्क़=बिजली, माह
पारे=चांद के टुकड़े, बर्ग गुल=गुलाब की
पंखुड़ी, अब्र बारां=बरसता हुआ बादल,
बामो-अटारियां=छत-अटारी, ओबाश=बदमाश,
सीम बर=चांदी जैसी गोरी, आबे-अनब=
अंगूरी शराब, मामूर=भरी हुई)
3. बरसात की बहारें - नज़ीर अकबराबादी
हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट, बाग़ात की बहारें।
बूँदों की झमझमाहट, क़तरात की बहारें।
हर बात के तमाशे, हर घात की बहारें।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥1॥
बादल हवा के ऊपर, हो मस्त छा रहे हैं।
झाड़ियों की मस्तियों से धूमें मचा रहे हैं।
पड़ते हैं पानी हर जा, जल थल बना रहे हैं।
गुलज़ार भीगते हैं सब्जे नहा रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥2॥
मारे हैं मौज डाबर, दरिया उमड़ रहे हैं।
मोरो पपीहे कोयल, क्या क्या रुमंड़ रहे हैं।
झड़ कर रही हैं झड़ियां नाले उमड़ रहे हैं।
बरसे हैं मेंह झड़ाझड़, बादल घुमंड रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥3॥
जंगल सब अपने तन पर, हरियाली सज रहे हैं।
गुल फूल झाड़ बूटे कर अपनी धज कर रहे हैं।
बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं।
अल्लाह के नक़ारे, नौबत के बज रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥4॥
बादल लगा टकोरें नौबत की गत लगावें।
झींगर झंगार अपनी सूरनाइयां बजावें।
कर शोर मोर बगले, झड़ियों का मुंह बुलावें।
पी पी करें पपीहे, मेंढ़क मल्हारें गावें।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥5॥
हर जा बिछा रहा है सब्ज़ा हरे बिछौने।
कु़दरत के बिछ रहे हैं, हर जा हरे बिछौने।
जंगलों में हो रहे हैं पैदा हरे बिछौने।
बिछवा दिये हैं हक़ ने क्या-क्या हरे बिछौने।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥6॥
सब्जों की लहलहाहट कुछ अब्र की सियाही।
और छा रही घटाएं, सुर्ख़ और सफ़ेद, काही।
सब भीगते हैं घर-घर, ले माह ताब माही ।
यह रंग कौन रंगे, तेरे सिवा इलाही।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥7॥
क्या-क्या रखे हैं या रब, सामान तेरी कु़दरत।
बदले हैं रंग क्या-क्या, हर आन तेरी कु़दरत।
सब मस्त हो रहे हैं, पहचान तेरी कु़दरत।
तीतर पुकारते हैं, "सुब्हान तेरी कु़दरत।"
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारे॥8॥
कोयल की कूक में भी, तेरा ही नाम हैगा।
और मोर की जटल में तेरा पयाम हैगा।
यह रंग सौ मजे़ का जो सुबहो शाम हैगा।
यह और का नहीं है तेरा ही काम हैगा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥9॥
बोले बये बटेरें, कु़मरी पुकारें कू कू।
पी पी करें पपीहा, बगुले पुकारें तू तू।
क्या हुदहुदों की हक़ हक़, क्या फ़ाख्तों की हू हू।
सब रट रहे हैं तुझको क्या पंख क्या पखेरू।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥10॥
जो मस्त हों उधर के कर शोर नाचते हैं।
प्यारे का नाम लेकर क्या ज़ोर नाचते हैं।
बादल हवा से गिर गिर, घनघोर नाचते हैं।
मेंढ़क उछल रहे हैं, और मोर नाचते हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥11॥
फूलों की सेज ऊपर सोते हैं कितने बन बन।
सोहैं गुलाबी जोड़े फूलों के हार अबरन।
कितनों को घर है खाता सूना लगे है आंगन।
कोने में पड़ रही हैं सर यूं लपेटे सोगन ।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥12॥
जो खु़श हैं वह खु़शी में काटें हैं रात सारी।
जो गम में हैं उन्हों पर, गुज़रे हैं रात सारी।
सीनों से लग रही हैं, जो हैं पिया की प्यारी।
छाती फटे है उनकी, जो हैं बिरह की मारी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥13॥
जो वस्ल में हैं उनके जोड़े महक रहे हैं।
झूलों में झूलते हैं, गहने झमक रहे हैं।
जो दुख में हैं उनके सीने फड़क रहे हैं।
आहें निकल रही हैं, आंसू टपक रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥14॥
अब बिरहनों के ऊपर है सख़्त बेकरारी।
हर बूंद मारती है सीने उपर कटारी।
बदली की देख सूरत कहती है बारी बारी।
हैं हैं न ली पिया ने अबके भी सुध हमारी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥15॥
जब कोयल अपनी उनको आवाज है सुनाती।
सुनते ही ग़म के मारे छाती है उमड़ी आती।
पी पी की धुन को सुनकर बेकल है कहती जाती।
मत बोल ऐ पपीहे, फटती है मेरी छाती।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥16॥
है जिनकी सेज सूनी और खाली चारपाई।
रो रो उन्होंने हर दम, यह बात है सुनाई।
परदेशी ने हमारी अबके भी सुध भुलाई।
अबके भी छाबनी जा, परदेश में ही छाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥17॥
कितनों ने अपनी ग़म से अब है यह गत बनाई।
मैले कुचैले कपड़े, आंखें भी डबडबाई।
ने घर में झूला डाला, ने ओढ़नी रंगाई।
फूटा पड़ा है चूल्हा, टूटी पड़ी कढ़ाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥18॥
गाती है गीत कोई, झूले पे करके फेरा।
"मारू जी, आज कीजै यां रैन का बसेरा।"
है खुश कोई किसी को दर्दो-ग़म ने घेरा।
मुंह ज़र्द, बाल बिखरे, और आंखों में अंधेरा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥19॥
और जिनको अब मुहय्या, हुस्नों की ढे़रियां हैं।
सुर्ख़ और सुनहरे कपड़े, इश्रत की घेरियां हैं।
महबूब दिलबरों की जुल्फें बिखेरियां हैं।
जुगनू चमक रहे हैं, रातें अंधेरियां हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥20॥
कितने तो भंग पी पी, कपड़े भिगो रहे हैं।
बाहें गलों में डाले झूलों में सो रहे हैं।
कितने विरह के मारे, सुध अपनी खो रहे हैं।
झूले की देख सूरत, हर आन रो रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥21॥
बैठे हैं कितने खु़श हो, ऊंचे हवा के बंगले।
पीते हैं मै के प्याले, और देखते हैं जंगले।
कितने फिरे हैं बाहर, खू़बां को अपने संग ले।
सब शाद हो रहे हैं, उम्दा, ग़रीब, कंगले।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥22॥
कितनों को महलों अन्दर, है, ऐश का नज़ारा।
या सायबान सुथरा, या बांस का उसारा ।
करता है सैर कोई कोठे का ले सहारा।
मुफ़्लिस भी कर रहा है, पूले तले गुज़ारा।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥23॥
छत गिरने का किसी जा, गुल शोर हो रहा है।
दीवार का भी धड़का, कुछ होश खो रहा है।
डर डर हवेली वाला हर आन रो रहा है।
मुफ़्लिस सो झोंपड़े में दिल शाद हो रहा है।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥24॥
मुद्दत से हो रहा है, जिनका मकां पुराना।
उठके है उनको मेंह में, हर आन छत पे जाना।
कोई पुकारता है "टुक मोरी खोल आना"।
कोई कहे है चल भी क्यों हो गया दिवाना।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥25॥
कोई पुकारता है लो, यह मकान टपका।
गिरती है छत की मिट्टी और सायबान टपका।
छलनी हुई अटारी कोठी निदान टपका।
बाकी था एक उसारा, सो वह भी आन टपका।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥26॥
ऊंचा मकान जिसका है पच खनां सवाया।
ऊपर का खन टपक कर अब पानी नीचे आया।
उसने तो अपने घर में, है शोरो गुल मचाया।
मुफ़्लिस पुकारते हैं जाने हमारा जाया।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥27॥
सब्जों पे वीरबहूटी, टीलो ऊपर धतूरे।
पिस्सू से मच्छड़ों से, रोये कोई बिसूरे।
बिच्छू किसी को काटे, कीड़ा किसी को घूरे।
आंगन में कनसलाई, कोनों में कनखजूरे।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥28॥
फुंसी किसी के तन में, सर पर किसी के फोड़े।
छाती पे गर्मी दाने और पीठ में ददौड़े।
खा पूरियां किसी को हैं लग रहे मड़ोड़े।
आते हैं दस्त जैसे दौड़ें इराक़ी घोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥29॥
पतली जहां किसी ने दाल और कढ़ी पकाई।
मक्खी ने त्यूं ही बोली आ ऊंट की बुलाई।
कोई पुकारता है क्यूं खै़र तो है भाई।
ऐसे जो खांसते हों क्या काली मिर्च खाई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥30॥
जिस गुल बदन के तन में पोशाक सोसनी है।
सो वह परी तो ख़ासी काली घटा बनी है।
और जिस पे सुर्ख़ जोड़ा, या ऊदी ओढ़नी है।
उस पर तो सब घुलावट, बरसात की छनी है।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥31॥
बदनों में खप रहे हैं खू़बों के लाल जोड़े।
झमकें दिखा रहे हैं परियों के लाल जोड़े।
लहरें बना रहे हैं, लड़कों के लाल जोड़े।
आंखों में चुभ रहे हैं, प्यारों के लाल जोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥32॥
और जिस सनम के तन में, जोड़ा है जाफ़रानी।
गुलनार या गुलाबी या जर्द, सुर्ख़, धानी।
कुछ हुस्न की चढ़ाई और कुछ नई जवानी।
झूलों में झूलते हैं, ऊपर पड़े है पानी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥33॥
कोई तो झूलने में, झूले के डोर छोड़े।
या साथियों में अपने, पांवों से पांव जोड़े।
बादल खड़े हैं सर पर, बरसे हैं थोड़े-थोड़े।
बूंदों से भीगते हैं लाल और गुलाबी जोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥34॥
कितनों को हो रही है इस ऐश की निशानी।
सोते हैं साथ जिसके कहती है वह सियानी।
"इस वक्त तुम न जाओ ऐ मेरे यार जानी।
देखो तो किस मजे़ से बरसे है आज पानी"।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥35॥
कितने शराब पीकर हो मस्त छक रहे हैं।
मै के गुलाबी आगे प्याले छलक रहे हैं।
होता है नाच घर-घर घुंघरू झनक रहे हैं।
पड़ता है मेह झड़ाझड़ तबले खड़क रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥36॥
हैं जिनके तन मुलायम, मैदे की जैसे लोई।
वह इस हवा में खासी ओढ़े फिरें हैं लोई।
और जिनकी मुफ़्लिसी ने, शर्मो हया है खोई।
है उनके सर पे सिरकी या बोरिये की खोई।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥37॥
कितने फिरें हैं ओढ़े पानी में सुर्ख़ पट्टू।
जो देख सुर्ख़ बदली, होती है उनपे लट्टू।
कितनों के गाड़ी रथ हैं, कितनो के घोड़े टट्टू।
जिस पास कुछ नहीं है वह हमसा है निखट्टू।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥38॥
जो इस हवा में यारो दौलत में कुछ बड़े हैं।
हैं उनके सर पर छतरी, हाथी ऊपर चढ़े हैं।
हमसे ग़रीब गुरबा कीचड़ में गिर पड़े हैं।
हाथों में जूतियां हैं और पांयचे चढ़े हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥39॥
है जिन कने मुहैया पक्का पकाया खाना।
उनको पलंग पे बैठे झाड़ियों का हिज़ उड़ाना।
है जिनको अपने घर का यां नोन तेल लाना।
है सर पै उनके पंखा, या छाज है पुराना।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥40॥
कितने खु़शी से बैठे, खाते हैं खु़श महल में।
कितने चले हैं लेने, बनिये से कर्ज़ पल में।
कांधे पै दाल, आटा, हल्दी गिरह की बल में।
हाथों में घी की प्याली और लकड़ियां बग़ल में।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥41॥
कोई रात को पुकारे "प्यारे मैं भीगती हूं"।
"क्या तेरी उल्फ़तों की मारी मैं भीगती हूं"।
"आई हूं तेरी ख़ातिर आ रे मैं भीगती हूं"।
"कुछ तो तरस तू मेरा खारे में भीगती हूं"।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥42॥
कोई पुकारती है "दिल सख़्त भीगती हूं।"
"कांपे है मेरी छाती, यकलख़्त भीगती हूं।"
"कपड़े भी तर बतर हैं और सख़्त भीगती हूं।"
"जल्दी बुला ले मुझको कमबख़्त भीगती हूं।"
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥43॥
कोई पुकारती है "क्या क्या मुझे भिगोया।"
कोई पुकारती है "कैसा मुझे भिगोया।"
"नाहक़ क़रार करके, झूठा, मुझे भिगोया।"
"यूं दूर से बुलाकर, अच्छा मुझे भिगोया।"
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥44॥
जिन दिलबरों की ख़ातिर, भीगे हैं जिनके जोड़े।
वह देख उनकी उल्फ़त होते हैं थोड़े-थोड़े।
ले उनके भीगे कपड़े हाथों में धर निचोड़े।
चीरा कोई सुखावे, जामा कोई निचोड़े।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥45॥
कीचड़ से हो रही है, जिस जा ज़मीं फिसलनी।
मुश्किल हुई है वां से हर एक को राह चलनी।
फिसला जो पांव पगड़ी मुश्किल है फिर संभलनी।
जूती गड़ी तो वाँ से क्या ताब फिर निकलनी।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥46॥
कितने तो कीचड़ों की दलदल में फंस रहे हैं।
कपड़े तमाम गंदे दलदल में बस रहे हैं।
कितने उठे हैं मर-मर, कितने उकस रहे हैं।
वह दुःख में फंस रहे हैं और लोग हंस रहे हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥47॥
कहता है कोई गिर कर, यह ऐ खु़दाए लीजो।
कोई डगमगा के हर दम कहता है बाये लीजो।
कोई हाथ उठा पुकारे मुझको भी हाय लीजो।
कोई शोर कर पुकारे गिरने न पाये लीजो।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥48॥
गिर कर किसी के कपड़े दलदल में हैं मुअ़त्तर ।
फिसला कोई किसी का कीचड़ में मुंह गया भर।
एक दो नहीं फिसलते, कुछ इसमें जान अक्सर।
होते हैं सैकड़ों के सर नीचे पांव ऊपर।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥49॥
यह रुत वह है कि जिसमें खुर्दो-कबीर खु़श हैं।
अदना, गरीब, मुफ़्लिस, शाहो वजीर खु़श हैं।
माशूक शादो-खु़र्रम आशिक असीर खुश हैं।
जितने हैं अब जहां में, सब ऐ "नज़ीर" खुश हैं।
क्या-क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें॥50॥
(अब्र=बादल,माहताब=चांद, माही=मछली,
माहताब-माही=आकाश से पाताल तक, जटल=
आवाज, सोगन=शोक में डूबी हुई, ज़र्द=पीला,
खू़बां=सुन्दरियों, शाद=खुश, उसारा=बरामदे का
छाजन,छप्पर, पूले=फूस-मूंज आदि का बंधा
हुआ मुट्ठा, मुफ़्लिस=गरीब, गुलनार=अनार के
फूल के रंग जैसे, हिज़=आनन्द,सुख, मुअ़त्तर=
खुर्दो-कबीर=छोटे-बड़े, शादो-खु़र्रम=प्रसन्न,खुश,
असीर=बंदी,कैदी)
4. बरसात की उमस - नज़ीर अकबराबादी
क्या अब्र की गर्मी में घड़ी पहर है उमस।
गर्मी के बढ़ाने की अज़ब लहर है उमस।
पानी से पसीनों की बड़ी नहर है उमस।
हर बाग में हर दश्त में हर शहर में उमस।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥1॥
कितने तो इस उमस के तई कहते हैं गरमाव।
यानी कि घिरा अब्र हो और आके रुके बाव ।
उस वक़्त तो पड़ता है गज़ब जान में घबराव।
दिल सीने में बेकल हो यही कहता है खा ताव।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥2॥
बदली के जो घिर आने से होती है हवा बंद।
फिर बंद सी गर्मी वह ग़जब पड़ती है यकचंद।
पंखे कोई पकड़े, कोई खोले है खड़ा बंद।
दम रुक के घुला जाता है गर्मी से हर एक बंद।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥3॥
ईधर तो पसीनों से पड़ी भीगें हैं खाटें।
गर्मी से उधर मैल की कुछ च्यूंटियां काटें।
कपड़ा जो पहनिये तो पसीने उसे आटें।
नंगा जो बदन रखिये तो फिर मक्खियां चाटें।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥4॥
रुकने से हवा के, जो बुरा होता है अहवाल।
पंखा कोई आंचल, कोई दामन, कोई रुमाल।
दम धोंकने लगता है लुहारों की गोया खाल।
कुछ रूह को बेताबियाँ, कुछ जान को जंजाल।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥5॥
घबरा के दम आता है, कभी जाता है फूला।
आराम जो दिल का है, सभी जाता है भूला।
आता है कभी होश, कभी जाता है भूला।
कपड़े भी बुरे लगते हैं, जी जाता है भूला।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥6॥
होती है उमस जो कभी एक रात को आकर।
कर डालती है फिर तो क़यामत ही मुक़र्रर।
ईधर तो हवा बंद उधर पिस्सुओं मच्छर।
पानी कोई पीवे तो वह अदहन से भी बदतर।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥7॥
जिस वक़्त हवा बंद हो और आके घटा छाये।
फिर कहिये दिल उस गर्मी में किस तरह न घबराये।
ओढ़ो तो पसीना जो न ओढ़ो तो ग़ज़ब आये।
पिस्सू कभी, मच्छर कभी, खटमल ही लिपट जाये।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥8॥
गर इसमें हवा खुल गई और पानी भी लाई।
तो जी में जी और जान में कुछ जान सी आई।
और इसमें जो फिर हो गई उमस की चढ़ाई।
तो फिर वही रोना, वही गुल शोर, दुहाई।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥9॥
उमस में तो लाज़िम है न पंखा न हवा हो।
एक कोठरी हो जिसमें धुंआ आके भरा हो।
और मक्खियों के वास्ते गुड़ तन से मला हो।
उस वक़्त मज़ा देखिए उमस का कि क्या हो।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥10॥
इस रुत में बल्लाह अ़जब ऐश है दिलख़्वाह।
मेंह बरसे है और सर्द हवा आती है हरगाह।
जंगल भी हरे, गुल भी खिले, सब्ज चरागाह।
उमस ही मगर दिल की सताती है "नज़ीर" आह।
बरसात के मौसम में निपट ज़हर है उमस।
सब चीज़ तो अच्छी है पर एक क़हर है उमस॥11॥
(दश्त=जंगल, अब्र=बादल, बाव=वायु,हवा,
यकचंद=थोड़ा,किंचित् अदहन=खूब खौलता
हुआ पानी)
5. शबे-ऐश (झड़ी) - नज़ीर अकबराबादी
रात लगी थी वाह वाह क्या ही बहार की झड़ी।
मौसम खु़श बहार था अब्रो-हवा की धूम थी।
शमओ-चिराग, गुल बदन, बारह दरी थी बाग की।
यार बग़ल में गुंचा लब, रात अंधेरी झुक रही।
मेंह के मजे, हवा के गुल, मै के नशे घड़ी-घड़ी।
इसमें कहीं से है सितम, ऐसी एक आ पवन चली।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदे थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥1॥
शब को हुई अहा अहा! ज़ोर मज़ों की मस्तियां।
बिजली की शक्ले हस्तियां बूंदे पड़ी बरस्तियां।
सब्ज दिलों की बस्तियां जिन्स खुशी की सस्तियां।
धूम जियों में बस्तियां, चुहलें निराली उकस्तियां।
इसमें फ़लक ने यक बयक, लूटीं दिलों की बस्तियां।
सारे नशे वह लुट गए खो गई मै परस्तियां।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदे थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥2॥
बरसे थी क्या ही झूम-झूम रात घटाऐं कालियां।
कोयलें बोलीं कालियां, वह चले नाले नालियां।
बिजलियों की उजालियां, बारह दरी की जालियां।
ऐश की झूमीं डालियां, बाहें गलों में डालियां।
चलती थी मै की प्यालियां, मुंह पे नशों की लालियां।
इसमें फ़लक ने दौड़कर सब वह हवाएं खालियां।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदें थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥3॥
अब्रो-हवा के वाह वाह, शब को अजब ही ज़ोर थे।
भीग रहा था सब चमन, मेंह के झड़ाके ज़ोर थे।
ग़ोक पपीहे मोर थे, झींगरों के भी शोर थे।
बादा कशी के दौर थे, ऐशो तरब के छोर थे।
बाग़ से ताबा बाग़बां, जितने थे शोर बोर थे।
आ पड़े इसमें नागहां, यह जो खु़शी के चोर थे।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदें थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥4॥
चार तरफ़ से अब्र की वाह उठी थी क्या घटा।
बिजली की जगमगाहटें राद रहा था गड़गड़ा।
बरसे था मेह भी झूम-झूम, छाजों उमंड़ उमंड़ पड़ा।
झोके हवा के चल रहे, यार बग़ल में लोटता।
हम भी हवा की लहर में पीते थे मै बढ़ा बढ़ा।
देख हमें इस ऐश में, सीना फलक का फट गया।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदें थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥5॥
ज़ोर मज़ों से रात को बरसे था मेह झमक-झमक।
बूंदें पड़ी टपक-टपक पानी पड़े झपक-झपक।
जाम रहे छलक-छलक शीशे रहे भबक-भबक।
यार बग़ल में बानमक ऐशो तरब थे बेधड़क।
हम भी नशों में खू़ब छक लोटते थे बहक-बहक।
क्या ही समां था ऐश का, इतने में आह यक बयक।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदें थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥6॥
क्या ही मज़ा था वाह वाह, अब्रो हवा का यारो कल।
बरसे था मेंह संभल-संभल, आगे रही थी शम अजल।
ऐशो-निशात बरमहल, बारह दरी का था महल।
शोख़ से भर रही बग़ल, दिल में क़रार जी में कल।
पीते थे मै मचल-मचल, लेते थे बोसे पल व पल।
इसमें "नज़ीर" यक बयक, आके ये मच गए ख़लल।
अब्र खुला, हवा घुटी, बूंदें थमीं, सहर हुई।
पहलू से यार उठ गया, सब वह बहार बह गई॥7॥
(अब्र=बादल, गुल बदन=कली जैसी कोमल,
जिन्स=चीजे़ं, ग़ोक=दादुर,मेंढक, बादा कशी=
शराब पीना, नागहां=अकस्मात, राद=बादलों का
देवता, बानमक=मजे़दार, ऐशो-निशात=आराम-खुशी,
बरमहल=ठीक मौके पर)
6. आशिक़ का झूला - नज़ीर अकबराबादी
आलम में अयां अब तो है बरसात का झूला।
बाग़ों में दरख़्तों का मकानात का झूला॥
बदली का है हर जां पै अयानात का झूला।
सावन में तो पड़ता है यों हर जात का झूला॥
पर गुलबदनों का है अ़जब घात का झूला॥1॥
इस अब्र में रोने का मेरे शोर है घर-घर।
बिजली भी जली आह से बदली भी हुई तर॥
ज़ालिम मेरी आंखों की तरफ़ कुछ तो नज़र कर।
झूले है मेरा शामो सहर दिल तेरे ऊपर॥
है मुझको तेरे ग़म में यह दिन रात का झूला॥2॥
तुझको तो मैं ज़ालिम न किसी हाल में भूलूं।
झूले का हो मौसम तो मैं झूले में न झूलूं॥
खू़बां तो हैं क्या चीज़ जो जो मैं उनको कु़बलूं।
परियों के भी ऐ जाना! कभी साथ न झूलूं॥
गर मुझको पता होवे तेरे साथ का झूला॥3॥
झूले में तो रहता हूं तेरे पास मैं हर आँ।
पर खू़ब निकलता नहीं दिल का मेरे अरमाँ॥
सुथरा सा मकां हो और ऐश का सामां।
झूले की बहारें तो मची हों उस घड़ी ऐ जां!॥
जब मेरे गले में हो तेरे हाथ का झूला॥4॥
इस रुत में मेरी जान न किसी गै़र के झूलो।
यह रक़ काा हाथी मेरे सीने पै न हूलो॥
हर्गिज़ मेरे कहने को तुम ऐ जान! न भूलो।
झूलो तो अकेले ही मेरे सामने झूलो॥
सूना है क्या अबके यह बरसात का झूला॥5॥
रेशम की भी डोरी का अजब रंग है गहरा।
मुक़्कै़श के बानों से खटोला रहा लहरा॥
गुच्छा कहीं मोती का है दुहरा व इकहरा।
जैसा तेरा झूला है रुपहरा व सुनहरा॥
ऐसा तो न परियों का न जिन्नात का झूला॥6॥
करता है हर इक पैग में बातें यह हवा से।
बदली के तईं मारे है रातें यह हवा से॥
इश्रत की दिखाता है बरातें यह हवा से।
बिन झोटे के करता है जो बातें यह हवा से॥
झूलों में तेरा है यह करामात का झूला॥7॥
जैसा कि है झूले में तू अब झूलने वाला।
ऐसा है न कोई शख़्श न झूला कोई ऐसा॥
जिसने कि तुझे झूले पै अब झूलते देखा।
झूला हो किया पर यह दिवाना हो सरापा॥
डाल अपने तसब्बुर में खयालात का झूला॥8॥
आया जो ज़रा शब को मेरे पास वह दिलख़्वाह।
झूला ही किया साथ मेरे ता ब सहरगाह॥
क्या ऐश मयस्सर हुए हैं अल्लाह ही अल्लाह।
झूला हूं बहुत यो तो मैं आगे भी "नज़ीर" आह॥
पर यार न भूलेगा मुझे इस रात का झूला॥9॥
7. आंधी - नज़ीर अकबराबादी
न हो क्यूंकर जहां यारो, ज़बर और जे़र आंधी में।
कि होकर बावले फिरते हैं, बनके शेर आंधी में।
लगा लेते जो कल दामन हवा का घेर आंधी में।
बगूले उठा चले थे, और न थी कुछ देर आंधी में।
कि हमसे यार से आ हो गई मुठभेड़ आंधी में॥1॥
कहा मैंने अजी कुछ खैर है जाते हो तुम किधर।
हवा पर भी तुम्हें कुछ है नज़र ऐ नाज़नीं दिलबर।
चलो भागो, शिताबी, वर्ना आंधी आ गई सिर पर।
जता कर ख़ाक का उड़ना दिखाकर गर्द का चक्कर।
वहीं हम ले चले उस गुल बदन को घेर आंधी में॥2॥
यह सुनते ही फिरी डर कर वह चंचच नाज़नीं गुलरो।
चली इस चाल से उस दम कि मेरा जी गया ग़श हो।
कि इसमें आके एक झोंका, अंधेरा कर गया यारो।
रक़ीबों ने जो देखा, यह उड़ाकर ले चला उसको।
पुकारे "हाय" यह कैसा हुआ अंधेर आंधी में॥3॥
यह कहकर खड़खड़ा, तेगोसिपर और मिल के सब दौड़े।
पुकारे ले चलो जाने न पावे इसको जल्दी से।
कहां का दौड़ना और किसका लेना, हम जो धर भागे।
वह दौड़े तो बहुत, लेकिन उन्हें आंधी में क्या सूझे।
जबसे हम उस परी को लाये घर में घेर आंधी में॥4॥
चले उसमें हवा के फिर तो आकर और सन्नाटे।
अंधेरा हो गया यकसर मनों ख़ाकें लगीं उड़ने।
उन्हीं झोकों में हमने उस परी चंचल को जल्दी से।
चढ़ा कोठे पे, दरवाजे को मूंद, और खोलकर पर्दे।
लगा छाती, लिये बोसे, किया हथफेर आंधी में॥5॥
इधर तो आके आंधी से अंधेरा हो गया हरसू।
खबर किसको किसी की, मैं कहां हूं और कहां है तू।
अहा! हा! हा! अजब इश्रत की इसदम बह गई इक जू।
वह कोठे का मकां, वह काली आंधी, वह सनम गुलरू।
अजब रंगों की ठहरी आके हेराफेर आंधी में॥6॥
उसी आंधी ने गुलशन कर दिया यारो मेरे घर को।
बिछाया शाद हो मैंने पलंग पर झाड़ बिस्तर को।
सुराही की ख़बर ली, और संभाला जाके सागर को।
उठाकर ताक़ से शीशा लगा छाती से दिलबर को।
नशों में ऐश के क्या! क्या! किया दिल शेर आंधी में॥7॥
चमन सा खिल गया यारो! मेरे कोठे के ज़ीने पर।
हुई पंखों की मारामार गमीं के पसीने पर।
लगे फिर ऐशो इश्रत जब तो होने इस करीने पर।
कभी बोसा, कभी अंगिया पे हाथ और गाह सीने पर॥
लगे लुटने मजे़ के संतरे और बेर आंधी में॥8॥
यह ठहरा जब तो फिर वां ऐश के बादल लगे घिरने।
जो डूबी हस्रतें थीं दिल में सब उस दम लगीं तरने।
लिपट की ठहरी और भी हाथ सीने पर लगे फिरने।
मजे़ ऐशो तरब, लज़्ज़त लगे यों लौटकर करने।
कि जैसे टूट कर मेवों के फैले ढेर आंधी में॥9॥
उस आंधी में अहा! हा! हा! अजब हमने मजे़ मारे।
फलक पर ऐशो इश्रत के दिखाई दे गए तारे।
रक़ीबों की मै अब ख़्वारी, ख़राबी क्या लिखूं बारे।
तले कोठे के बैठे अट गए सब गर्द के मारे।
भरी नथनों में उनके खाक दस-दस सेर आंधी में॥10॥
किसी ने भाग कर जल्दी से, जा घर का लिया आंगन।
गिरा कोई गढ़े में और कोई भागा कहीं दुश्मन।
किसी के छिन गए कपड़े उचक्कों की गई वां बन।
किसी की उड़ गई पगड़ी किसी का फट गया दामन।
गई ढाल और किसी की गिर पड़ी शमशेर आंधी में॥11॥
यह दिन आंधी के यारो! यूं तो सबके होश खोते हैं।
जिन्हें हैं ऐश वह आंधी में मोती से पिराते हैं।
मज़ा है जिनको हंसते हैं जिन्हें ग़म है सो रोते हैं।
"नज़ीर" आंधी में कहते हैं कि अक्सर देव होते हैं।
मियां! हमको तो ले जाती हैं परियां घेर आंधी में में॥12॥
(ज़बर और जे़र=ऊँच-नीच, नाज़नीं=नाजुक,कोमल,
शिताबी=शीघ्रता से, गुलरो=फूल जैसे सुन्दर मुख
वाली, तेगोसिपर=तलवार-ढाल, हरसू=हर तरफ़,
फलक=आकाश)
8. जाड़े की बहारें - नज़ीर अकबराबादी
जब माह अगहन का ढलता हो, तब देख बहारें जाड़े की।
और हँस हँस पूस संभलता हो, तब देख बहारे जाड़े की।
दिन जल्दी जल्दी चलता हो, तब देख बहारे जाड़े की।
पाला भी बर्फ़ पिघलता हो, तब देख बहारे जाड़े की।
चिल्ला ख़म ठोंक उछलता हो, तब देख बहारें जाड़े की॥1॥
तन ठोकर मार पछाड़ा हो, दिल से होती हो कुश्ती सी।
थर-थर का ज़ोर अखाड़ा हो, बजती हो सबकी बत्तीसी।
हो शोर पफू हू-हू-हू का, और धूम हो सी-सी-सी-सी की।
कल्ले पे कल्ला लग लग कर, चलती हो मुंह में चक्की सी।
हर दांत चने से दलता हो, तब देख बहारें जाड़े की॥2॥
हर एक मकां में सर्दी ने, आ बांध दिया हो यह चक्कर।
जो हर दम कप-कप होती हो, हर आन कड़ाकड़ और थर-थर।
पैठी हो सर्दी रग रग में, और बर्फ़ पिघलता हो पत्थर।
झड़ बांध महावट पड़ती हो, और तिस पर लहरें ले लेकर।
सन्नाटा वायु का चलता हो, तब देख बहारें जाड़े की॥3॥
तरकीब बनी हो मजलिस की, और काफ़िर नाचने वाले हों।
मुंह उनके चांद के टुकड़े हों, तन उनके रुई के गाले हों।
पोशाकें नाजुक रंगों की और ओढ़े शाल दुशाले हों।
कुछ नाच और रंग की धूमें हो, कुछ ऐश में हम मतवाले हों।
प्याले पर प्याला चलता हो, तब देख बहारें जाड़े की॥4॥
हर चार तरफ़ से सर्दी हो और सहन खुला हो कोठे का।
और तन में नीमा शबनम का हो जिसमें ख़स का इत्र लगा।
छिड़काव हुआ हो पानी का और खू़ब पलंग भी हो भीगा।
हाथों में प्याला शर्बत का हो आगे एक फ़र्राश खड़ा।
फ़र्राश भी पंखा झलता हो तब देख बहारें जाड़े की॥5॥
जब ऐसी सर्दी हो ऐ दिल! तब ज़ोर मजे़ की घातें हों।
कुछ नर्म बिछौने मख़मल के कुछ ऐश की लम्बी रातें हों।
महबूब गले से लिपटा हो, और कोहनी, चुटकी लाते हों।
कुछ बोसे मिलते जाते हों कुछ मीठी-मीठी बातें हों।
दिल ऐशो तरब में पलता हो तब देख बहारें जाड़े की॥6॥
हो फ़र्श बिछा गालीचों का और पर्दे छूटे हों आकर।
एक गर्म अंगीठी जलती हो और शमा हो रौशन तिस पर।
वह दिलबर शोख़ परी चंचल, है धूम मची जिसकी घर-घर।
रेशम की नर्म निहाली पर सौ नाज़ो अदा से हंस-हंस कर।
पहलू के बीच मचलता हो तब देख बहारें जाड़े की॥7॥
हर एक मकां हो खि़ल्वत का और ऐश की सब तैयारी हो।
वह जान कि जिस पर जी गश हो सौ नाज़ से आ झनकारी हो।
दिल देख "नज़ीर" उसकी छवि को, हर आन सदा पर बारी हो।
सब ऐश मुहैया हों आकर जिस जिस अरमान की बारी हो।
जब सब अरमान निकलता हो, तब देख बहारें जाड़े की॥8॥
(कल्ला=जबड़ा, जाड़े=सर्दी)
9. जाड़े के मौसम में तिल के लड्डू - नज़ीर अकबराबादी
जाड़े में फिर खु़दा ने खिलवाए तिल के लड्डू।
हर एक खोंमचे में दिखलाए तिल के लड्डू।
कूचे गली में हर जा, बिकवाए तिल के लड्डू।
हमको भी हैगे दिल से, खुश आये तिल के लड्डू।
जीते रहे तो यारो, फिर खाये तिल के लड्डू॥1॥
उम्दों ने सौ तरह की, याकू़तियां बनाई।
लौंगों में दारचीनी, श्क्कर भी ले मिलाई।
सर्दी में दौलतों की, सौ गर्म चीजे़ं खाई।
औरों ने डाल मिश्री गर पेड़ियां बनाई।
हमने भी गुड़ मंगाकर, बंधवाए तिल के लड्डू॥2॥
रख खोमंचे को सर पर पैकार यों पुकारा।
बादाम भूना चाबो और कुरकुरा छुहारा।
जाड़ा लगे तो इसका करता हूं मैं इजारा।
जिसका कलेजा यारो, सर्दी ने होवे मारा।
नौ दाम के वह मुझसे, ले जाये तिल के लड्डू॥3॥
जाड़ा तो अपने दिल में था पहलवां झझाड़ा।
पर एक तिल ने उसको रग-रंग से उखाड़ा।
जिस दम दिलो जिगर को, सर्दी ने आ लताड़ा।
ख़म ठोंक बोहीं हमने जाड़े को धर पछाड़ा।
तन फेर ऐसा भबका, जब खाये तिल के लड्डू॥4॥
कल यार से जो अपने, मिलने के तईं गए हम।
कुछ पेड़े उसकी खातिर खाने को ले गए हम।
महबूब हंस के बोला, हैरत में हो रहे हम।
पेड़ों को देख दिल में ऐसे खुशी हुए हम।
गोया हमारी ख़ातिर तुम लाये तिल के लड्डू॥5॥
जब उस सनम के मुझको जाड़े पे ध्यान आया।
सब सौदा थोड़ा थोड़ा बाज़ार से मंगाया।
आगे जो लाके रक्खा कुछ उसको खु़श न आया।
चीजें़ तो वह बहुत थीं, पर उसने कुछ न खाया।
जब खु़श हुआ वह उसने जब पाये तिल के लड्डू॥6॥
जाड़े मंे जिसको हर दम पेशाब है सताता।
उट्ठे तो जाड़ा लिपटे नहीं पेशाब निकला जाता।
उनकी दवा भी कोई, पूछो हकीम से जा।
बतलाए कितने नुस्खे़, पर एक बन न आया।
आखि़र इलाज उसका ठहराए तिल के लड्डू॥7॥
जाड़े में अब जो यारो यह तिल गए हैं भूने।
महबूबों के भी तिल से इनके मजे़ हैं दूने।
दिल ले लिया हमारा, तिल शकरियों की रू ने।
यह भी "नज़ीर" लड्डू ऐसे बनाए तूने।
सुन-सुन के जिसकी लज़्ज़त, घबराए तिल के लड्डू॥8॥
10. रात - नज़ीर अकबराबादी
खींच कर उस माह रू को आज यां लाई है रात।
यह खु़दा ने मुद्दतों में हमको दिखलाई है रात॥
चांदनी है रात है खि़ल्वत है सहने बाग़ है।
जाम भर साक़ी कि यह क़िस्मत से हाथ आई है रात॥
बे हिजाब और बे तकल्लुफ़ होके मिलने के लिए।
वह तो ठहराते थे दिन पर हमने ठहराई है रात॥
जब मैं कहता हूं "किसी शब को तू काफ़िर यां भी आ"।
हंस के कहता है "मियां हां वह भी बनवाई है रात"॥
क्या मज़ा हो हाथ में जुल्फे़ हों और यूं पूछिये।
ऐ! मेरी जां! सच कहो तो कितनी अब आई है रात॥
जब नशे को लहर में बाल उस परी के खुल गए।
सुबह तक फिर तो चमन में क्या ही लहराई है रात॥
दौर में हुस्ने बयां के हमने देखा बारहा।
रूख़ से घबराया है दिन, जुल्फ़ों से घबराई है रात॥
है शबे वस्ल आज तो दिल भर के सोवेगा "नज़ीर"।
उसने यह कितने दिनों में ऐश की पाई है रात॥
11. अन्धेरी रात - नज़ीर अकबराबादी
लाती है जब अपनी यह शुरूआत अंधेरी।
करती है उज़ाले के तई मात अंधेरी।
देती है ग़रीबों को मुकाफ़ात अंधेरी।
दिखलाती है खूबां की मुलाकात अंधेरी।
हर ऐश की करती है इनायात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥1॥
जिस वक़्त हुई रात अंधेरे से धुआं धार।
जो शोख़ मिला, शौक़ से, जा भिड़ गए ललकार।
गर इसमें कहीं शोर या गुल हुआ एक बार।
इधर से उधर हो गए दो चार क़दम मार।
पर लाती है इस ढब की मुहिम्मात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥2॥
जब यार चला ओढ़ के काला सा दुशाला।
कम्बल को इधर हमने भी कांधे पै संभाला।
जा मिल गए और दिल का भी अरमान निकाला।
मुंह उसके रक़ीबों का किया खू़ब सा काला।
क्या वस्ल की रखती है करामात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥3॥
कल यार ने और हमने जो पी मै भी गुलाबी।
और ऐश लगे करने जो हो, हो के शराबी।
इतने में रक़ीब आ गया, बू सूंघ शिताबी।
गर चांदनी होती तो बड़ी होती ख़राबी।
टाले है सब आई हुई आफ़ात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥4॥
सोते थे जो हम इसमें सुने गैर के खटके।
छुप-छुप गए उठ दोनों वहीं नीचे पलंग के।
हम हंसते रहे उसने ढबक ढब्बे जो मारे।
कितना ही टटोला जो उजाला हो तो पावे।
चोरी की भी रख लेती है क्या बात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥5॥
मामूल है जब चांद का छुपता है उजाला।
होता है अजब खेल परी रू से दोबाला।
महबूब परी शक्ल सुराही व प्याला।
ने रोकने वाला न कोई टोकने वाला।
इस लूट की करती है मदारात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥6॥
जिस कूँचे में चाहा वहीं करने लगे फेरी।
बैठे कहीं उठ्ठे, कहीं जल्दी, कहीं देरी।
और इसमें कहीं मिल गई गर हुस्न की ढेरी।
फिर जब तू न कह मेरी, न मैं कुछ कहूं तेरी।
काम ऐश के लाती है लगा साथ अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥7॥
था शोख़ से कल रात अजब सैर का खटका।
बोसों की मुदारात का सीनों की लिपट का।
आया जो चुग़ल ख़ोर तों बंदा वहीं सटका।
वह टक्करें खाता हुआ, फिरता रहा भटका।
रद करती है सब सर की बल्लियात् अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥8॥
थी शब को अंधेरी तो अजब ढब की "नज़ीर" आह।
सौ ऐशो तरब से थे हम उस यार के हमराह।
निकले थे हमें ढूँढ़ने उस दम कई बदख़्वाह।
मिल-मिल भी गए तो भी न देखा हमें वल्लाह।
क्या ऐश की रखती है तिलस्मात अंधेरी।
काम आती है आशिक़ के बहुत रात अंधेरी॥9॥
(मुकाफ़ात=गुनाह की सजा, इनायात=कृपा,
मुहिम्मात=बड़े-बड़े काम, रक़ीबों=किसी स्त्री
से प्रेम करने वाले दो व्यक्ति आपस में रक़ीब
होते हैं, आफ़ात=आफतें,मुसीबतें, मामूल=नियम,
परी रू=परी की तरह सुन्दर, मुदारात=आवभगत,
बल्लियात्=आपदाएं)
12. चांदनी रात - नज़ीर अकबराबादी
जिस दम चमन में चांद की हों खु़श जमालियां।
और झूमती हों बाग़ में फूलों की डालियां॥
बहती हों मै के जोश से इश्रत की नालियां।
कानों में नाज़नीं के झलकती हों बालियां॥
ऐशो तरब की धूम नशों की बहालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥1॥
बैठी हो चांदनी सी वह जो सुखऱ् गुलइज़ार।
और बादले का तन में झलकता है तार-तार॥
हाथों में गजरा, कान में गुच्छे, गले में हार।
हर दम नशे में प्यार से हंस-हंस के बार-बार॥
हम छेड़ते हों उसको वह देती हो गालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥2॥
ऐसी ही चांदनी की बनाकर वह फवन।
चम्पाकली जड़ाऊ वह हीरे का नौ रतन।
गहने से चांदनी के झमकता हो गुल बदन।
और चांद की झलक से वह गोरा सा उसका तन॥
दिखला रहा हो कुर्ता औ अंगिया की जालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥3॥
दी हो इधर तो चांद ने और चांदनी बिछा।
उधर वह चांदनी सा जो वह सुर्ख़ महलक़ा॥
मै की गुलाबियां भी झलकती हों जा बजा।
और नाज़नीं नशे में सुराही उठा-उठा॥
देती हो अपने हाथ से भर-भर के प्यालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥4॥
वह गुलबदन कि हुस्न का जिसके मचा हो शोर।
करती हो बैठी नाज़ से सौ चांदनी पे ज़ोर॥
छल्ले भी उँगलियों में झलकते हों पोर-पोर।
हम भी हों पास शोख़ के ज्यों चांद और चकोर॥
दोनों गले में प्यार से बाहें हों डालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥5॥
गुलशन में बिछ रहा हो रुपहला सा इक पलंग।
होती हो उस पलंग उपर उल्फ़तों की जंग॥
उस वक्त ऐसे होते हों ऐशो तरब के रंग।
जो चांदनी में देखके इश्रत के रंग ढंग॥
मै से भी झमकें ऐश की हों दिल में डालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥6॥
ईधर तो हुस्ने बाग़ उधर चांद की झलक।
ऊधर वह नाज़नीं भी नशे में रही चहक॥
देती हो बोसा प्यार से हरदम चहक-चहक।
हर आन बैठती हो बग़ल में सरक-सरक॥
मुंह पै नशों की सुर्खि़यां आंखों में लालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥7॥
निखरा हो चांद नूर में ढलती चली हो रात?
फूलों की बास आती हो हरदम हवा के साथ॥
वह नाज़नीं कि चांद भी होता है जिससे मात।
बैठी हो सौ बनाव से डाले गले में हाथ॥
गाती हो और नशे में बजाती हो तालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥8॥
आकर इधर तो चांदनी छिटकी हो दिल पज़ीर।
और उस तरफ बग़ल में जो हो अचपली शरीर॥
दिल उस परी के नाज़ो अदा बीच हो असीर।
ले शाम से सहर तईं ऐश हो "नज़ीर"॥
सब दिल की हस्रतें हों खुशी से निकालियां।
जब चांदनी की देखिए! रातें उजालियां॥9॥
13. चांदनी - नज़ीर अकबराबादी
सहन चमन में वाह! वाह! ज़ोर बिछी थी चांदनी।
चांद हिलोरे लेता था, और खिली थी चांदनी।
आया था यार गुल बदन पहन के बादला ज़री।
चमके थी तार तार में, मै की झलक ज़री ज़री।
बोसो किनार जामो मै ऐशो-तरब हंसी खु़शी।
इसमें कहीं से यक बयक, मुर्गे-सहर ने बांग दी।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥1॥
क्या ही मज़ों से ऐश की रात थी कामयाबियां।
छूटें थी माहताब की नहरो में माहताबियां।
आगे चुनीं थीं सफ़ व सफ़ मै की कई गुलाबियां।
हमको नशों की मस्तियां, यार को नीम ख़्वाबियां।
सीनों में इज़तराबियां आंखों में बे हिजाबियां।
इसमें फ़लक ने रश्क से डाली यह कुछ ख़राबियां।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥2॥
शव को दिलों में वाह वाह ज़ोर मज़ों के तार थे।
हमसे दो चार यार था, यार से हम दो चार थे।
दोनों दिलों में प्यार थे, दोनों गलों में हार थे।
वस्ल से बेक़रार थे, ऐश के कारोबार थे।
सीने में आसमान के, तीर हसद के पार थे।
एक पलक में नागहां, सब वह मजे़ फ़रार थे।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥3॥
चांदनी वाह चांदनी, करती थी क्या झलक झलक।
चहक रही थी बुलबुलें, बाग़ रहा था सब महक।
जाम के लब से हर घड़ी, निकले थी मै छलक छलक।
यार बगल में गुंचा लब, बोसों की सू लपक झपक।
एशो तरब की लज़्ज़तें होने लगी जो यक बयक।
ऐसे मजे़ में ऐश में आह कहीं से हक न धक।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥4॥
एक तरफ तो नूर में माह रहा था जगमगा।
एक तरफ वह रश्के-मह मेरी बग़ल में था पड़ा।
दोनों दिलों में लज़्ज़तें दोनों जियो में ऐश था।
मै थी गुलाबी हाथ में आंखों में छा रहा नशा।
होठों से होंठ लग रहे सीने से सीना मिल रहा।
इतने में आह यक बयक क्या ही ग़जब यह हो गया।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥5॥
वाह हुई थी रात क्या चांदनी की उजालियां।
झूम रहीं बाग़ में सुम्बुल व गुल की डालियां।
शोख़ बग़ल में नाज़ से खोले था जुल्फ़े कालियां।
खु़श हो गले लिपट लिपट देता था मीठी गालियां।
हम भी नशे में मस्त थे साक़ी की पीके प्यालियां।
जल के फ़लक ने इसमें हा आफ़तें ला यह डालियां।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥6॥
क्या ही चमन में शब को वाह बरसी थी नूर की झड़ी।
तार नशों के थे बंधे लोटी थी चांदनी पड़ी।
गुंचा दहन था बेख़बर ली थी जो मै कड़ी-कड़ी।
देता था बोसे प्यार के सीने से मिल घड़ी-घड़ी।
चश्म ये चश्म, लब से लब, छाती से छाती जब लड़ी।
क्या ही घड़ी थी ऐश की उसमें बला यह आ पड़ी।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥7॥
बाग़ था या कि खिल्द वह, या कि बहिश्त या इरम।
यार था कि हूर था, या कि परी वह, या सनम।
चांदनी थी वह चांदनी, चांदी की रंग जिससे कम।
पीते थे मैं घड़ी घड़ी, लेते थे बोसे दम बदम।
दोनों नशों में मस्त हो, सोये पलंग पे जबकि हम।
ऐन मज़ा था वस्ल था उसमें "नज़ीर" है सितम।
सुबह हुई गजर बजा, फूल खिले हवा चली।
यार बगल से उठ गया, जी ही की जी में रह गई॥8॥
(बादला=सोने या चांदी जैसे तारों से बना हुआ
कपड़ा, ज़री=सुनहरा कपड़ा, बोसो=चुंबन, ऐशो-तरब=
आनन्द उल्लास, मुर्गे-सहर=सबेरे बोलने वाले पक्षी,
माहताब=चांद, माहताबियां=चांद की किरणें, सफ़=
पंक्ति, नीम ख़्वाबियां=कच्ची नींद से जागने की
दशा, इज़तराबियां=बेचैनी, बे हिजाबियां=बेपर्दगी,
घूंघट उठा देना, हसद=ईर्ष्या, नागहां=अकस्मात,
गुंचा लब=कली जैसे कोमल गुलाबी होंठ वाली,
सू=ओर,तरफ, रश्के-मह=चांद को तिरस्कृत करने
वाली,वाला, खिल्द=जन्नत,स्वर्ग, इरम=स्वर्ग)
(getButton) #text=(Jane Mane Kavi) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Hindi Kavita) #icon=(link) #color=(#2339bd) (getButton) #text=(Nazeer Akbarabadi) #icon=(link) #color=(#2339bd)