नज़ीर अकबराबादी की शायरी-नज़्में (कविताएं) Poetry in Hindi Nazeer

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नज़ीर अकबराबादी की शायरी-नज़्में (कविताएं)
Poetry in Hindi Nazeer Akbarabadi

1. आदमी नामा - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया में पादशह है सो है वह भी आदमी
और मुफ़्लिसो-गदा है सो है वह भी आदमी
ज़रदार, बे-नवा है सो है वह भी आदमी
नेअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वह भी आदमी॥1॥

अब्दाल, कुत्ब, ग़ौस, वली आदमी हुए
मुनकिर भी आदमी हुए और कुफ़्र के भरे
क्या-क्या करिश्मे कश्फ़ो-करामात के लिए
हत्ता कि अपने जुहदो-रियाज़त के ज़ोर से
ख़ालिक से जा मिला है सो है वह भी आदमी॥2॥

फ़रऔन ने किया था जो दावा खुदाई का
शद्दाद भी बिहिश्त बनाकर खुदा हुआ
नमरूद भी खुदा ही कहाता था बरमला
यह बात है समझने की आगे कहूं मैं कया
यां तक जो हो चुका है सो है वह भी आदमी॥3॥

यां आदमी ही नार है और आदमी ही नूर
यां आदमी ही पास है और आदमी ही दूर
कुल आदमी का हुस्नो-कबह में है यां ज़हूर
शैतां भी आदमी है जो करता है मक़्रो-ज़ोर
और हादी रहनुमा है सो है वह भी आदमी॥4॥

मसजिद भी आदमी ने बनायी है यां मियां
बनते हैं आदमी ही इमाम और खुत्बा-ख़्वां
पढ़ते हैं आदमी ही कुरान और नमाज़ यां
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियां
जो उनको ताड़ता है सो है वह भी आदमी॥5॥

यां आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी॥6॥

नाचे है आदमी ही बजा तालियों को यार।
और आदमी ही डाले है अपने इज़ार उतार॥
नंगा खड़ा उछलता है होकर जलीलो ख़्वार।
सब आदमी ही हंसते हैं देख उसको बार-बार॥
और वह जो मसखरा है सो है वह भी आदमी॥7॥

azeer-Akbarabadi

चलता है आदमी ही मुसाफ़िर हो, ले के माल
और आदमी ही मारे है फांसी गले में डाल
यां आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल
सच्चा भी आदमी ही निकलता है, मेरे लाल !
और झूठ का भरा है सो है वह भी आदमी॥8॥

यां आदमी ही शादी है और आदमी विवाह
काज़ी, वकील आदमी और आदमी गवाह
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़ामख़ाह
दोड़े है आदमी ही तो मशअल जला के राह
और ब्याहने चढ़ा है सो है वह भी आदमी॥9॥

और आदमी नक़ीब सो बोले है बार-बार
और आदमी ही प्यादे है और आदमी सवार
हुक्का, सुराही, जूतियां दौड़ें बग़ल में मार
कांधे पे रख के पालकी हैं दौड़ते कहार
और उसमें जो पड़ा है सो है वह भी आदमी॥10॥

बैठे हैं आदमी ही दुकानें लगा-लगा
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे ख़्वांचा
कहता है कोई 'लो', कोई कहता है 'ला, रे ला'
किस-किस तरह की बेचें हैं चीज़ें बना-बना
और मोल ले रहा है सो है वह भी आदमी॥11॥

यां आदमी ही क़हर से लड़ते हैं घूर-घूर।
और आदमी ही देख उन्हें भागते हैं दूर॥
चाकर, गुलाम आदमी और आदमी मजूर।
यां तक कि आदमी ही उठाते हैं जा जरूर॥
और जिसने वह फिरा है सो है वह भी आदमी॥12॥

तबले, मजीरे, दायरे सारंगियां बजा
गाते हैं आदमी ही हर इक तरह जा-ब-जा
रंडी भी आदमी ही नचाते हैं गत लगा
और आदमी ही नाचे हैं और देख फिर मज़ा
जो नाच देखता है सो है वह भी आदमी॥13॥

यां आदमी ही लालो-जवाहर हैं बे-बहा
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है कि उलटा है ज्यूं तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा है चांद का
बदशक्ल बदनुमा है सो है वह भी आदमी॥14॥

इक आदमी हैं जिनके ये कुछ जर्क़-बर्क़ हैं
रूपे के जिनके पांव हैं सोने के फ़र्क हैं
झमके तमाम ग़र्ब से ले ता-ब-शर्क हैं
कमख़्वाब, ताश, शाल, दुशालों में ग़र्क हैं
और चीथड़ों लगा है सो है वह भी आदमी॥15॥

एक ऐसे हैं कि जिनके बिछे हैं नए पलंग।
फूलों की सेज उनपे झमकती है ताज़ा रंग॥
सोते हैं लिपटे छाती से माशूक शोखो संग।
सौ-सौ तरह से ऐश के करते हैं रंग ढंग॥
और ख़ाक में पड़ा है सो है वह भी आदमी॥16॥

हैरां हूं यारो देखो तो यह क्या सुआंग है
यां आदमी ही चोर है और आप ही थांग है
है छीना झपटी और कहीं बांग तांग है
देखा तो आदमी ही यहां मिस्ले-रांग है
फ़ौलाद से गढ़ा है सो है वह भी आदमी॥17॥

मरने पै आदमी ही क़फ़न करते हैं तैयार।
नहला धुला उठाते हैं कांधे पै कर सवार॥
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार।
सब आदमी ही करते हैं, मुर्दे के कारोबार॥
और वह जो मर गया है सो है वह भी आदमी॥18॥

अशराफ़ और कमीने से ले शाह-ता-वज़ीर
यह आदमी ही करते हैं सब कारे-दिल-पिज़ीर
यां आदमी मुरीद हैं और आदमी ही पीर
अच्छा भी आदमी ही कहाता है ऐ 'नज़ीर'
और सब में जो बुरा है सो है वह भी आदमी॥19॥
(पादशह=बादशाह, मुफ़्लिसो-गदा=फ़कीर और
निर्धन, ज़रदार=धनी, बे-नवा=निर्धन,
अब्दाल,कुत्ब,ग़ौस,वली= यह सभी सूफ़ियों के
ऊंचे दर्जे हैं, कश्फ़ो-करामात=चमत्कार,
हत्ता=यहाँ तक, जुहदो-रियाज़त=तपस्या,
बरमला=साफ़, नार=आग, हुस्नो-कबह=पाप-
पुण्य, ज़हूर=दिखाई देना, हादी,रहनुमा=
राह दिखाने वाला, इमाम=नमाज़ के नेता,
खुत्बा-ख़्वां=धार्मिक वक्ता, सैद=शिकार,
नक़ीब='हटो बचो' करने वाले प्यादे, जा-ब-जा=
हर जगह, बे-बहा=अमूल्य, जर्क़-बर्क़=भड़कीले
कपड़े, फ़र्क=माथे, ग़र्ब=पश्चिम, ता-ब-शर्क=पूर्व
तक, ग़र्क=डूबे हुए, थांग=चोरों को पता देने वाला,
अशराफ़=शरीफ़, कारे-दिल-पिज़ीर=अच्छे काम)

2. गुरू नानक शाह - नज़ीर अकबराबादी

हैं कहते नानक शाह जिन्हें वह पूरे हैं आगाह गुरू ।
वह कामिल रहबर जग में हैं यूँ रौशन जैसे माह गुरू ।
मक़्सूद मुराद, उम्मीद सभी, बर लाते हैं दिलख़्वाह गुरू ।
नित लुत्फ़ो करम से करते हैं हम लोगों का निरबाह गुरु ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।१।।

हर आन दिलों विच याँ अपने जो ध्यान गुरू का लाते हैं ।
और सेवक होकर उनके ही हर सूरत बीच कहाते हैं ।
गर अपनी लुत्फ़ो इनायत से सुख चैन उन्हें दिखलाते हैं ।
ख़ुश रखते हैं हर हाल उन्हें सब तन का काज बनाते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।२।।

जो आप गुरू ने बख़्शिश से इस ख़ूबी का इर्शाद किया ।
हर बात है वह इस ख़ूबी की तासीर ने जिस पर साद किया ।
याँ जिस-जिस ने उन बातों को है ध्यान लगाकर याद किया ।
हर आन गुरू ने दिल उनका ख़ुश वक़्त किया और शाद किया ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।३।।

दिन रात जिन्होंने याँ दिल बिच है यादे-गुरू से काम लिया ।
सब मनके मक़्सद भर पाए ख़ुश-वक़्ती का हंगाम लिया ।
दुख-दर्द में अपना ध्यान लगा जिस वक़्त गुरू का नाम लिया ।
पल बीच गुरू ने आन उन्हें ख़ुशहाल किया और थाम लिया ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।४।।

याँ जो-जो दिल की ख़्वाहिश की कुछ बात गुरू से कहते हैं ।
वह अपनी लुत्फ़ो शफ़क़त से नित हाथ उन्हीं के गहते हैं ।
अल्ताफ़ से उनके ख़ुश होकर सब ख़ूबी से यह कहते हैं ।
दुख दूर उन्हीं के होते हैं सौ सुख से जग में रहते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।५।।

जो हरदम उनसे ध्यान लगा उम्मीद करम की धरते हैं ।
वह उन पर लुत्फ़ो इनायत से हर आन तव्ज्जै करते हैं ।
असबाब ख़ुशी और ख़ूबी के घर बीच उन्हीं के भरते हैं ।
आनन्द इनायत करते हैं सब मन की चिन्ता हरते हैं ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।६।।

जो लुत्फ़ इनायत उनमें हैं कब वस्फ़ किसी से उनका हो ।
वह लुत्फ़ो करम जो करते हैं हर चार तरफ़ है ज़ाहिर वो ।
अल्ताफ़ जिन्हों पर हैं उनके सौ ख़ूबी हासिल हैं उनको ।
हर आन ’नज़ीर’ अब याँ तुम भी बाबा नानक शाह कहो ।
इस बख़्शिश के इस अज़मत के हैं बाबा नानक शाह गुरू ।
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू ।।७।।

(कामिल=मुक्म्मिल,सम्पूर्ण, रहबर=रास्ता दिखाने वाले, माह=
चाँद, मक़्सूद मुराद=दिल चाही इच्छा, अज़मत=बढ़ाई,शान,
इर्शाद=उपदेश दिया, तासीर=प्रभाव, मक़्सद=मनोरथ,इच्छा,
हंगाम=समय पर, शफ़क़त=मेहरबानी, गहते=पकड़ते, अल्ताफ़=
मेहरबानी, तवज्जै=ध्यान देना, वस्फ़=गुणगान)

3. बंजारानामा - नज़ीर अकबराबादी

टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियां, मत देस-बिदेस फिरे मारा
क़ज़्ज़ाक अजल का लूटे है दिन-रात बजाकर नक़्क़ारा
क्या बधिया, भैंसा, बैल, शुतुर क्या गौनें पल्ला सर भारा
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग, धुआं और अंगारा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥1॥

ग़र तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है
ऐ ग़ाफ़िल तुझसे भी चढ़ता इक और बड़ा ब्योपारी है
क्या शक्कर, मिसरी, क़ंद, गरी क्या सांभर मीठा-खारी है
क्या दाख़, मुनक़्क़ा, सोंठ, मिरच क्या केसर, लौंग, सुपारी है
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥2॥

तू बधिया लादे बैल भरे जो पूरब पच्छिम जावेगा
या सूद बढ़ाकर लावेगा या टोटा घाटा पावेगा
क़ज़्ज़ाक़ अजल का रस्ते में जब भाला मार गिरावेगा
धन-दौलत नाती-पोता क्या इक कुनबा काम न आवेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥3॥

हर मंजिल में अब साथ तेरे यह जितना डेरा डंडा है।
ज़र दाम दिरम का भांडा है, बन्दूक सिपर और खाँड़ा है।
जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों मुल्कों हांडा है।
फिर हांडा है न भांडा है, न हलवा है न मांडा है।
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा॥4॥

जब चलते-चलते रस्ते में ये गौन तेरी रह जावेगी
इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने पावेगी
ये खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बंट जावेगी
धी, पूत, जमाई, बेटा क्या, बंजारिन पास न आवेगी
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥5॥

ये खेप भरे जो जाता है, ये खेप मियां मत गिन अपनी
अब कोई घड़ी पल साअ़त में ये खेप बदन की है कफ़नी
क्या थाल कटोरी चांदी की क्या पीतल की डिबिया ढकनी
क्या बरतन सोने चांदी के क्या मिट्टी की हंडिया चपनी
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥6॥

ये धूम-धड़क्का साथ लिये क्यों फिरता है जंगल-जंगल
इक तिनका साथ न जावेगा मौक़ूफ़ हुआ जब अन्न और जल
घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा, नैनसुख और मलमल
क्या चिलमन, परदे, फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥7॥

कुछ काम न आवेगा तेरे ये लालो-ज़मर्रुद सीमो-ज़र
जब पूंजी बाट में बिखरेगी हर आन बनेगी जान ऊपर
नौबत, नक़्क़ारे, बान, निशां, दौलत, हशमत, फ़ौजें, लशकर
क्या मसनद, तकिया, मुल्क मकां, क्या चौकी, कुर्सी, तख़्त, छतर
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥8॥

क्यों जी पर बोझ उठाता है इन गौनों भारी-भारी के
जब मौत का डेरा आन पड़ा फिर दूने हैं ब्योपारी के
क्या साज़ जड़ाऊ, ज़र ज़ेवर क्या गोटे थान किनारी के
क्या घोड़े ज़ीन सुनहरी के, क्या हाथी लाल अंबारी के
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥9॥

मग़रूर न हो तलवारों पर मत भूल भरोसे ढालों के
सब पत्ता तोड़ के भागेंगे मुंह देख अजल के भालों के
क्या डिब्बे मोती हीरों के क्या ढेर ख़जाने मालों के
क्या बुक़चे ताश, मुशज्जर के क्या तख़ते शाल दुशालों के
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥10॥

क्या सख़्त मकां बनवाता है खंभ तेरे तन का है पोला
तू ऊंचे कोट उठाता है, वां गोर गढ़े ने मुंह खोला
क्या रैनी, खंदक़, रंद बड़े, क्या बुर्ज, कंगूरा अनमोला
गढ़, कोट, रहकला, तोप, क़िला, क्या शीशा दारू और गोला
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥11॥

हर आन नफ़े और टोटे में क्यों मरता फिरता है बन-बन
टुक ग़ाफ़िल दिल में सोच जरा है साथ लगा तेरे दुश्मन
क्या लौंडी, बांदी, दाई, दिदा क्या बन्दा, चेला नेक-चलन
क्या मस्जिद, मंदिर, ताल, कुआं क्या खेतीबाड़ी, फूल, चमन
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥12॥

जब मर्ग फिराकर चाबुक को ये बैल बदन का हांकेगा
कोई ताज समेटेगा तेरा कोई गौन सिए और टांकेगा
हो ढेर अकेला जंगल में तू ख़ाक लहद की फांकेगा
उस जंगल में फिर आह 'नज़ीर' इक तिनका आन न झांकेगा
सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा॥13॥
(हिर्सो-हवा=लालच, क़ज़्ज़ाक=डाकू, अजल=मौत,
लालो-ज़मर्रुद=लाल और पुखराज, सीमो-ज़र=चांदी,
सोना, मग़रूर=घमंडी, ताश=एक प्रकार का छपा
हुआ ज़री का रेशमी कपड़ा, मुशज्जर=वह कपड़ा
जिस पर पेड़ों के डिजाइन हो, गोर=क़ब्र, रैनी=किले
की छोटी दीवार, रंद=दीवारों के वह सूराख जिनमें
से बन्दूकों की मार की जाय, रहक़ला=गाड़ी जिस
पर रख कर तोप ले जाई जाती है, दाईदिदा=बूढ़ी
नौकरानी, मर्ग=मौत, लहद=क़ब्र, शुतुर=ऊंट,
ग़ाफ़िल=मूर्ख, क़ंद=खांड, सूद=ब्याज, नाती=दोहता)

4. ईद - नज़ीर अकबराबादी

यूँ लब से अपने निकले है अब बार-बार आह
करता है जिस तरह कि दिल-ए-बे-क़रार आह
हम ईद के भी दिन रहे उम्मीद-वार आह

हो जी में अपने ईद की फ़रहत से शाद-काम
ख़ूबाँ से अपने अपने लिए सब ने दिल के काम
दिल खोल खोल सब मिले आपस में ख़ास ओ आम
आग़ोश-ए-ख़ल्क़ गुल-बदनों से भरे तमाम
ख़ाली रहा पर एक हमारा कनार आह

क्या पूछते हो शोख़ से मिलने की अब ख़बर
कितना ही जुस्तुजू में फिरे हम इधर इधर
लेकिन मिला न हम से वो अय्यार फ़ित्नागर
मिलना तो इक तरफ़ है अज़ीज़ो कि भर-नज़र
पोशाक की भी हम ने न देखी बहार आह

रखते थे हम उमीद ये दिल में कि ईद को
क्या क्या गले लगावेंगे दिल-बर को शाद हो
सो तू वो आज भी न मिला शोख़-ए-हीला-जू
थी आस ईद की सो गई वो भी दोस्तो
अब देखें क्या करे दिल-ए-उम्मीद-वार आह

उस संग-दिल की हम ने ग़रज़ जब से चाह की
देखा न अपने दिल को कभी एक दम ख़ुशी
कुछ अब ही उस की जौर-ओ-तअद्दी नहीं नई
हर ईद में हमें तो सदा यास ही रही
काफ़िर कभी न हम से हुआ हम-कनार आह

इक़रार हम से था कई दिन आगे ईद से
यानी कि ईद-गाह को जावेंगे तुम को ले
आख़िर को हम को छोड़ गए साथ और के
हम हाथ मलते रह गए और राह देखते
हम हाथ मलते रह गए और राह देखते
क्या क्या ग़रज़ सहा सितम-ए-इंतिज़ार आह

क्यूँ कर लगें न दिल में मिरे हसरतों के तीर
दिन ईद के भी मुझ से हुआ वो कनारा-गीर
इस दर्द को वो समझे जो हो इश्क़ का असीर
जिस ईद में कि यार से मिलना न हो 'नज़ीर'
उस के उपर तो हैफ़ है और सद-हज़ार आह

5. बचपन - नज़ीर अकबराबादी

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।

दिल में किसी के हरगिज़ न शर्म न हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।

मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना ।।
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।

जो कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूँछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।

जो उनको दो सो खा लें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।

ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।

(सलोना =नमकीन, आलम=दुनिया)

6. रोटियाँ - नज़ीर अकबराबादी

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ ।
फूली नही बदन में समाती हैं रोटियाँ ।।
आँखें परीरुख़ों से लड़ाती हैं रोटियाँ ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ ।।
जितने मज़े हैं सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।1।।

रोटी से जिनका नाक तलक पेट है भरा ।
करता फिरे है क्या वह उछल-कूद जा बजा ।।
दीवार फ़ाँद कर कोई कोठा उछल गया ।
ठट्ठा हँसी शराब, सनम साक़ी, उस सिवा ।।
सौ-सौ तरह की धूम मचाती हैं रोटियाँ ।।2।।

जिस जा पे हाँडी चूल्हा तवा और तनूर है ।
ख़ालिक़ के कुदरतों का उसी जा ज़हूर है ।।
चूल्हे के आगे आँच जो जलती हुज़ूर है ।
जितने हैं नूर सब में यही ख़ास नूर है ।।
इस नूर के सबब नज़र आती हैं रोटियाँ ।।3।।

आवे तवे तनूर का जिस जा ज़ुबाँ पे नाम ।
या चक्की चूल्हे के जहाँ गुलज़ार हो तमाम ।।
वां सर झुका के कीजे दण्डवत और सलाम ।
इस वास्ते कि ख़ास ये रोटी के हैं मुक़ाम ।।
पहले इन्हीं मकानों में आती हैं रोटियाँ ।।4।।

इन रोटियों के नूर से सब दिल हैं पूर-पूर ।
आटा नहीं है छलनी से छन-छन गिरे है नूर ।।
पेड़ा हर एक उस का है बर्फ़ी या मोती चूर ।
हरगिज़ किसी तरह न बुझे पेट का तनूर ।।
इस आग को मगर यह बुझाती हैं रोटियाँ ।।5।।

पूछा किसी ने यह किसी कामिल फक़ीर से ।
ये मेह्र-ओ-माह हक़ ने बनाए हैं काहे के ।।
वो सुन के बोला, बाबा ख़ुदा तुझ को ख़ैर दे ।
हम तो न चाँद समझें, न सूरज हैं जानते ।।
बाबा हमें तो ये नज़र आती हैं रोटियाँ ।।6।।

फिर पूछा उस ने कहिए यह है दिल का नूर क्या ?
इस के मुशाहिर्द में है ख़िलता ज़हूर क्या ?
वो बोला सुन के तेरा गया है शऊर क्या ?
कश्फ़-उल-क़ुलूब और ये कश्फ़-उल-कुबूर क्या ?
जितने हैं कश्फ़ सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।7।।

रोटी जब आई पेट में सौ कन्द घुल गए ।
गुलज़ार फूले आँखों में और ऐश तुल गए ।।
दो तर निवाले पेट में जब आ के ढुल गए ।
चौदह तबक़ के जितने थे सब भेद खुल गए ।।
यह कश्फ़ यह कमाल दिखाती हैं रोटियाँ ।।8।।

रोटी न पेट में हो तो फिर कुछ जतन न हो ।
मेले की सैर ख़्वाहिश-ए-बाग़-ओ-चमन न हो ।।
भूके ग़रीब दिल की ख़ुदा से लगन न हो ।
सच है कहा किसी ने कि भूके भजन न हो ।।
अल्लाह की भी याद दिलाती हैं रोटियाँ ।।9।।

अब जिनके आगे मालपूए भर के थाल हैं ।
पूरे भगत उन्हें कहो, साहब के लाल हैं ।।
और जिन के आगे रोग़नी और शीरमाल हैं ।
आरिफ़ वही हैं और वही साहिब कमाल हैं ।।
पकी पकाई अब जिन्हें आती हैं रोटियाँ ।।10।।

कपड़े किसी के लाल हैं रोटी के वास्ते ।
लम्बे किसी के बाल हैं रोटी के वास्ते ।।
बाँधे कोई रुमाल है रोटी के वास्ते ।
सब कश्फ़ और कमाल हैं रोटी के वास्ते ।।
जितने हैं रूप सब ये दिखाती हैं रोटियाँ ।।11।।

रोटी से नाचे प्यादा क़वायद दिखा-दिखा ।
असवार नाचे घोड़े को कावा लगा-लगा ।।
घुँघरू को बाँधे पैक भी फिरता है जा बजा ।
और इस के सिवा ग़ौर से देखो तो जा बजा ।।
सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।

रोटी के नाच तो हैं सभी ख़ल्क में पड़े ।
कुछ भाँड भगतिए ये नहीं फिरते नाचते ।।
ये रण्डियाँ जो नाचें हैं घूँघट को मुँह पे ले ।
घूँघट न जानो दोस्तो ! तुम जिनहार इसे ।।
उस पर्दे में ये अपनी कमाती हैं रोटियाँ ।।13।।

वह जो नाचने में बताती हैं भाव-ताव ।
चितवन इशारतों से कहें हैं कि ’रोटी लाव’ ।।
रोटी के सब सिंगार हैं रोटी के राव-चाव ।
रंडी की ताब क्या करे जो करे इस कदर बनाव ।।
यह आन, यह झमक तो दिखाती हैं रोटियाँ ।।14।।

अशराफ़ों ने जो अपनी ये जातें छुपाई हैं ।
सच पूछिए, तो अपनी ये शानें बढ़ाई हैं ।।
कहिए उन्हीं की रोटियाँ कि किसने खाई हैं ।
अशराफ़ सब में कहिए, तो अब नानबाई हैं ।।
जिनकी दुकान से हर कहीं जाती हैं रोटियाँ ।।15।।

भटियारियाँ कहावें न अब क्योंकि रानियाँ ।
मेहतर खसम हैं उनके वे हैं मेहतरानियाँ ।।
ज़ातों में जितने और हैं क़िस्से कहानियाँ ।
सब में उन्हीं की ज़ात को ऊँची हैं बानियाँ ।।
किस वास्ते की सब ये पकाती हैं रोटियाँ ।।16।।

दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है ।
ना दुश्मनी ना दोस्ती ना तुन्दखोई है ।।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है ।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है ।।
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ ।।17।।

रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर ।
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर ।।
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर ।
गेहूँ, ज्वार, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘ ।।
हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।

(परीरुख़ों=परियों जैसी शक्ल सूरत वाली, ज़हूर=
प्रकट, कामिल=निपुण, मेह्र-ओ-माह=सूर्य-चाँद,
हक़=ख़ुदा, मुशाहिर्द=निरीक्षण, कश्फ़-उल-क़ुलूब=
मन की गुप्त जानकारी देना, कश्फ़-उल-कुबूर=क़ब्र की
गुप्त जानकारी देना, कश्फ़=गुप्त जानकारी, कन्द=शक्कर,
गुलज़ार=बाग़, पैक=पत्रवाहक, पुराने ज़माने में जिसके पैर
में या लाठी में घूँघरू बँधे होते थे, जिनहार=हरगिज,
अशराफ़=शरीफ़ का बहुवचन, निकोई=अच्छाई,
तुन्दखोई=बदमिजाज़ी, नफ़र=मज़दूर, फ़तीर=
गुंधे हुए आटे की लोई)

7. श्री कृष्ण जी की तारीफ़ में - नज़ीर अकबराबादी

है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला !
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इसरारे हक़ीक़त यों खोले ।
तौहीद के वह मोती रोले ।
सब कहने लगे ऐ सल्ले अला ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

सरसब्ज़ हुए वीरानए दिल ।
इस में हुआ जब तू दाखिल ।
गुलज़ार खिला सहरा-सहरा ।
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

फिर तुझसे तजल्ली ज़ार हुई ।
दुनिया कहती तीरो तार हुई ।
ऐ जल्वा फ़रोज़े बज़्मे-हुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मुट्ठी भर चावल के बदले ।
दुख दर्द सुदामा के दूर किए ।
पल भर में बना क़तरा दरिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

जब तुझसे मिला ख़ुद को भूला ।
हैरान हूँ मैं इंसा कि ख़ुदा ।
मैं यह भी हुआ, मैं वह भी हुआ ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

ख़ुर्शीद में जल्वा चाँद में भी ।
हर गुल में तेरे रुख़सार की बू ।
घूँघट जो खुला सखियों ने कहा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

दिलदार ग्वालों, बालों का ।
और सारे दुनियादारों का ।
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

इस हुस्ने अमल के सालिक ने ।
इस दस्तो जबलए के मालिक ने ।
कोहसार लिया उँगली पे उठा ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

मन मोहिनी सूरत वाला था ।
न गोरा था न काला था ।
जिस रंग में चाहा देख लिया ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

तालिब है तेरी रहमत का ।
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा ।
तू बहरे करम है नंद लला ।
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी ।

(ग़नी,=बेपरवाह, इसरार=भेद,
तौहीद=एक ईश्वर को मानना,
गुलज़ार=बाग़, सहरा-सहरा=
जंगल-जंगल, तजल्ली=नूर, ज़ार=
भरपूर, फ़रोज़े=रौशन करने वाले,
बज़्मे-हुदा=सत्य की महफिल,
ख़ुर्शीद=सूरज, रुख़सार=गाल,
नबी=पैग़म्बर, सीरत=स्वभाव,
अमल=काम, सालिक=साधक,
दसतो जबलए=जंगल और पहाड़,
कोहसार=पहाड़, तालिब=इच्छुक,
नाचीज़=तुच्छ, बहरे करम=दया,
का सागर)

8. इश्क़ की मस्ती - नज़ीर अकबराबादी

हैं आशिक़ और माशूक जहाँ वां शाह बज़ीरी है बाबा ।
नै रोना है नै धोना है नै दर्द असीरी है बाबा ।।
दिन-रात बहारें चुहलें हैं और इश्क़ सग़ीरी है बाबा ।
जो आशिक़ हैं सो जानें हैं यह भेड फ़क़ीरी है बाबा ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।१।।

है चाह फ़क़त एक दिलबर की फिर और किसी की चाह नहीं ।
एक राह उसी से रखते हैं फिर और किसी से राह नहीं ।
यां जितना रंजो तरद्दुद है हम एक से भी आगाह नहीं।
कुछ करने का सन्देह नहीं, कुछ जीने की परवाह नहीं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।२।।

कुछ ज़ुल्म नहीं, कुछ ज़ोर नहीं, कुछ दाद नहीं फ़रयाद नहीं।
कुछ क़ैद नहीं, कुछ बन्द नहीं, कुछ जब्र नहीं, आज़ाद नहीं ।।
शागिर्द नहीं, उस्ताद नहीं, वीरान नहीं, आबाद नहीं ।
हैं जितनी बातें दुनियां की सब भूल गए कुछ याद नहीं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।३।।

जिस सिम्त नज़र भर देखे हैं उस दिलबर की फुलवारी है ।
कहीं सब्ज़ी की हरियाली है, कहीं फूलों की गुलकारी है ।।
दिन-रात मगन ख़ुश बैठे हैं और आस उसी की भारी है ।
बस आप ही वह दातारी हैं और आप ही वह भंडारी हैं ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।४।।

नित इश्रत है, नित फ़रहत है, नित राहत है, नित शादी है ।
नित मेहरो करम है दिलबर का नित ख़ूबी ख़ूब मुरादी है ।।
जब उमड़ा दरिया उल्फ़त का हर चार तरफ़ आबादी है ।
हर रात नई एक शादी है हर रोज़ मुबारकबादी है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।५।।

है तन तो गुल के रंग बना और मुँह पर हरदम लाली है ।
जुज़ ऐशो तरब कुछ और नहीं जिस दिन से सुरत संभाली है ।।
होंठो में राग तमाशे का और गत पर बजती ताली है ।
हर रोज़ बसंत और होली है और हर इक रात दिवाली है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।६।।

हम चाकर जिसके हुस्न के हैं वह दिलबर सबसे आला है ।
उसने ही हमको जी बख़्शा उसने ही हमको पाला है ।।
दिल अपना भोला-भाला है और इश्क़ बड़ा मतवाला है ।
क्या कहिए और ’नज़ीर’ आगे अब कौन समझने वाला है ।।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी हर वक़्त अमीरी है बाबा ।
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए फिर क्या दिलगीरी है बाबा ।।७।।
(असीरी=तेज़, सग़ीरी=थोड़ा, दिलगीरी=दुख, तरद्दुद=सोच,
दाद=इंसाफ़, जब्र=ज़ुल्म, गुलकारी=बेल-बूटे बनाने का
काम, इश्रत=ख़ुशी, फ़रहत=ख़ुशी, करम=कृपा, तरब=आनंद)

9. पेट - नज़ीर अकबराबादी

किसी सूरत नहीं भरता ज़रा पेट, यह कुछ रखता है अब हर्सो हक ।
अगर चोरी न करता चोर यारो, तो होता चाक कहो उसका भला पेट ।।

चले हैं मार अशराफ़ों को धक्का, मियाँ जिस दम कमीने का भरा पेट ।
नहीं चैन उसको इस काफ़िर के हाथों, है छोटा जिसका अघसेरा बना पेट ।।

ख़ुदा हाफ़िज़ उन लोगों का यारो, कि जिनकी है बड़ी तोंद और बड़ा पेट ।
सदा माशूक पेड़े माँगता है, मलाई-सा वह आशिक़ को दिखा पेट ।।

और आशिक़ का भी इसके देखने से, कभी मुतलिक नहीं भरा पेट ।
ग़रीब आजिज तो है लाचार यारो ! कि उनसे हर घड़ी है माँगता पेट ।।

तसल्ली ख़ूब उनको भी नहीं है कि घर दौलत से जिनके फट पड़ा पेट ।
किसी तरह यह मुहिब न यार न दोस्त फ़क़त रोटी का है इकआश्ना पेट ।।

भरे तो इस ख़ुशी में फूल जावे कि गोया बाँझ के तई रह गया पेट ।
जो खाली हो तो दिन को यों करे सुस्त किसी का जैसे दस्तों से चला पेट ।।

बड़ा कोई नहीं दुनिया में यारो मगर कहिए तो सबसे बड़ा पेट ।
हुए पूरे फक़ीरी में वही लोग जिन्होंने सब्र से अपना कसा पेट ।।

लगा पूरब से लेकर ताबः पच्छिम लिए फिरता है सबको जा बजा पेट ।
कई मन किया गया मज़मून का आटा ’नज़ीर’ इस रेख्ते का है बड़ा पेट ।।

(अशराफ़=शरीफ़, फ़क्त=केवल, इकआश्ना=जानकार,)

10. शब-बरात - नज़ीर अकबराबादी

आलम के बीच जिस घड़ी आती है शब-बरात ।
क्या-क्या जहूरे नूर दिखाती है शब-बरात ।।

देखे है बन्दिगी में जिसे जागता तो फिर ।
फूली नहीं बदन में समाती है शब-बरात ।।

रोशन हैं दिल जिन्हों के इबादत के नूर से ।
उनको तमाम रात जगाती है शब-बरात ।।

बख्शिश ख़ुदा की राह में करते हैं जो मुहिब ।
बरकत हमेशा उनकी बढ़ाती है शब-बरात ।।

ख़ालिक की बन्दिगी करो और नेकियों के दम ।
यह बात हर किसी को सुनाती है शब-बरात ।।

गाफ़िल न बन्दिगी से हो और ख़ैर से ज़रा ।
हर लहज़ा ये सभों को जताती है शब-बरात ।।

हुस्ने अमल करके जो भला आक़िबत में हो ।
सबको यह नेक राह बताती है शब-बरात ।।

लेकर हमीर हमज़ा के हर बार नाम को ।
ख़ल्क़त को उनकी याद दिलाती है शब-बरात ।।

क्या-क्या मैं इस शब-बरात की खूंबी कहूँ ’नज़ीर’ ।
लाखों तरह की ख़ूबियाँ लाती है शब-बरात ।।

(जहूर=प्रकट करना, नूर=प्रकाश, मुहिब=प्रेमी,
ख़ालिक=ईश्वर, गाफ़िल=बेख़बर, लहज़ा=समय,
आक़िबत=यमलोक)

11. होली - नज़ीर अकबराबादी

हुआ जो आके निशाँ आश्कार होली का ।
बजा रबाब से मिलकर सितार होली का ।
सुरुद रक़्स हुआ बेशुमार होली का ।
हँसी-ख़ुशी में बढ़ा कारोबार होली का ।
ज़ुबाँ पे नाम हुआ बार-बार होली का ।।1।।

ख़ुशी की धूम से हर घर में रंग बनवाए ।
गुलाल अबीर के भर-भर के थाल रखवाए ।
नशों के जोश हुए राग-रंग ठहराए ।
झमकते रूप के बन-बन के स्वाँग दिखलाए ।
हुआ हुजूम अजब हर किनार होली का ।।2।।

गली में कूचे में ग़ुल शोर हो रहे अक्सर ।
छिड़कने रंग लगे यार हर घड़ी भर-भर ।
बदन में भीगे हैं कपड़े, गुलाल चेहरों पर ।
मची यह धूम तो अपने घरों से ख़ुश होकर ।
तमाशा देखने निकले निगार होली का ।।3।।

बहार छिड़कवाँ कपड़ों की जब नज़र आई ।
हर इश्क़ बाज़ ने दिल की मुराद भर पाई ।
निगाह लड़ाके पुकारा हर एक शैदाई ।
मियाँ ये तुमने जो पोशाक अपनी दिखलाई ।
ख़ुश आया अब हमें, नक़्शो-निगार होली का ।।4।।

तुम्हारे देख के मुँह पर गुलाल की लाली ।
हमारे दिल को हुई हर तरह की ख़ुशहाली ।
निगाह ने दी, मये गुल रंग की भरी प्याली ।
जो हँस के दो हमें प्यारे तुम इस घड़ी गाली ।
तो हम भी जानें कि ऐसा है प्यार होली का ।।5।।

जो की है तुमने यह होली की तरफ़ा तैयारी ।
जो हँस के देखो इधर को भी जान यक बारी ।
तुम्हारी आन बहुत हमको लगती है प्यारी ।
लगा दो हाथ से अपने जो एक पिचकारी ।
तो हम भी देखें बदन पे सिंगार होली का ।।6।।

तुम्हारे मिलने का रखकर हम अपने दिल में ध्यान ।
खड़े हैं आस लगाकर कि देख लें एक आन ।
यह ख़ुशदिल का जो ठहरा है आन कर सामान ।
गले में डाल कर बाहें ख़ुशी से तुम ऐ जान !
पिन्हाओ हम को भी एकदम यह हार होली का ।।7।।

उधर से रंग लिए आओ तुम इधर से हम ।
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके ख़ुश हर दम ।
ख़ुशी से बोलें हँसे होली खेल कर बाहम ।
बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की कसम ।
इसी उम्मीद में था इन्तिज़ार होली का ।।8।।

बुतों की गालियाँ हँस-हँस के कोई सहता है ।
गुलाल पड़ता है कपड़ों से रंग बहता है ।
लगा के ताक कोई मुँह को देख रहता है ।
’नज़ीर’ यार से अपने खड़ा ये कहता है ।
मज़ा दिखा हमें कुछ तू भी यार होली का ।।9।।

(आश्कार=ज़ाहिर, सुरुद=गाना, रक़्स=
नृत्य, अबीर=अभ्रक का चूर्ण, निगार=प्रेमी,
नक़्शो-निगार=बेल-बूटे, मय=शराब, बाहम=
आपस में)

12. होली - नज़ीर अकबराबादी

बुतों के ज़र्द पैराहन में इत्र चम्पा जब महका ।
हुआ नक़्शा अयाँ होली की क्या-क्या रस्म और रह का ।।१।।

गुलाल आलूदः गुलचहरों के वस्फ़े रुख में निकले हैं ।
मज़ा क्या-क्या ज़रीरे कल्क से बुलबुल की चह-चह का ।।२।।

गुलाबी आँखड़ियों के हर निगाह से जाम मिल पीकर ।
कोई खरखुश, कोई बेख़ुद, कोई लोटा, कोई बहका ।।३।।

खिडकवाँ रंग खूबाँ पर अज़ब शोखी दिखाता है ।
कभी कुछ ताज़गी वह, वह कभी अंदाज़ रह-रह का ।।४।।

भिगोया दिलवरों ने जब 'नज़ीर' अपने को होली में ।
तो क्या क्या तालियों का ग़ुल हुआ और शोर क़ह क़ह का ।।५।।

(पैराहन=वस्त्र, नक़्शा अयाँ=तस्वीर स्पष्ट हो गई,
रस्म और रह=तौर-तरीके, आलूदः=लगे हुए,
रुख=कपोल, कल्क=बेचैन, खरखुश=नशे में मस्त,
शोखी=चंचलता, ग़ुल=शोर)

13. होली - नज़ीर अकबराबादी

बजा लो तब्लो तरब इस्तमाल होली का ।
हुआ नुमूद में रंगो जमाल होली का ।।
भरा सदाओं में, रागो ख़़याल होली का ।
बढ़ा ख़ुशी के चमन में निहाल होली का ।।
अज़ब बहार में आया जमाल होली का ।।१।।

हर तरफ़ से लगे रंगो रूप कुछ सजने ।
चमक के हाथों में कुछ तालियाँ लगी बजने ।।
किया ज़हूर हँसी और ख़ुशी की सजधज ने ।
सितारो ढोलो मृदंग दफ़ लगे बजने ।।
धमक के तबले पै खटके है ताल होली का ।।२।।

जिधर को देखो उधर ऐशो चुहल के खटके ।
हैं भीगे रंग से दस्तारो जाम और पटके ।।
भरे हैं हौज कहीं रंग के कहीं मटके ।
कोई ख़ुशी से खड़ा थिरके और मटके ।।
यह रंग ढंग है रंगी खिसाल होली का ।।३।।

निशातो ऐश से चलत तमाशे झमकेरे ।
बदन में छिड़कवाँ जोड़े सुनहरे बहुतेरे ।
खड़े हैं रंग लिए कूच औ गली घेरे ।
पुकारते हैं कि भड़ुआ हो अब जो मुँह फेरे ।
यह कहके देते हैं झट रंग डाल होली का ।।४।।

ज़रूफ़ बादए गुलरंग से चमकते हैं ।
सुराही उछले है और जाम भी छलकते हैं ।।
नशों के जोश में महबूब भी झमकते हैं ।
इधर अबीर उधर रंग ला छिड़कते हैं ।।
उधर लगाते हैं भर-भर गुलाल होली का ।।५।।

जो रंग पड़ने से कपड़ों तईं छिपाते हैं ।
तो उनको दौड़ के अक्सर पकड़ के लाते हैं ।।
लिपट के उनपे घड़े रंग के झुकाते हैं ।
गुलाल मुँह पे लगा ग़ुलमचा सुनाते हैं ।।
यही है हुक्म अब ऐश इस्तमाल होली का ।।६।।

गुलाल चहरए ख़ूबाँ पै यों झमकता है ।
कि रश्क से गुले-ख़ुर्शीद उसको तकता है ।।
उधर अबीर भी अफ़शाँ नमित चमकता है ।
हरेक के ज़ुल्फ़ से रंग इस तरह टपकता है ।।
कि जिससे होता है ख़ुश्क बाल-बाल होली का ।।७।।

कहीं तो रंग छिड़क कर कहें कि होली है ।
कोई ख़ुशी से ललक कर कहें कि होली है ।
अबीर फेंकें हैं तक कर कहें की होली है ।
गुलाल मलके लपक कर कहें कि होली है ।
हरेक तरफ़ से है कुछ इत्तिसाल होली का ।।८।।

यह हुस्न होली के रंगीन अदाए मलियाँ हैं ।
जो गालियाँ हैं तो मिश्री की वह भी डलियाँ हैं ।।
चमन हैं कूचाँ सभी सहनो बाग गलियाँ हैं ।
तरब है ऐश है, चुहलें हैं , रंगरलियाँ हैं ।।

अजब 'नज़ीर' है फ़रखु़न्दा हाल होली का ।।९।।

(तब्लो तरब=ख़ुशी का ढोल, नुमूद=धूमधाम,
रंगो जमाल=सुन्दरता, ज़हूर=रौशन, दस्तारो
जाम=पगड़ी और चादर, खिसाल=आदत, निशातो
ऐश=आनंद और सुख, गुले-ख़ुर्शीद=सूरजमुखी,
इत्तिसाल=मेल-मिलाप, तरब=आनन्द, फ़रखु़न्दा=
ख़ुशी का)

14. होली पिचकारी - नज़ीर अकबराबादी

हाँ इधर को भी ऐ गुंचादहन पिचकारी ।
देखें कैसी है तेरी रंगबिरंग पिचकारी ।।१।।

तेरी पिचकारी की तक़दीद में ऐ गुल हर सुबह ।
साथ ले निकले है सूरज की किरण पिचकारी ।।२।।

जिस पे हो रंग फिशाँ उसको बना देती है ।
सर से ले पाँव तलक रश्के चमन पिचकारी ।।३।।

बात कुछ बस की नहीं वर्ना तेरे हाथों में ।
अभी आ बैठें यहीं बनकर हम तंग पिचकारी ।।४।।

हो न हो दिल ही किसी आशिके शैदा का 'नज़ीर' ।
पहुँचा है हाथ में उसके बनकर पिचकारी ।।५।।

(गुंचादहन=कली जैसे सुन्दर और छोटे मुँह वाली,
तक़दीद=स्वागत में, फिशाँ=रंग छिड़का हुआ)

15. होली  - नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की ।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की ।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की ।
ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की ।
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की ।।1।।

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे ।
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे ।
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे ।
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे ।
कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की ।।2।।

सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का ।
वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का ।
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का ।
इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का ।
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की ।।3।।

गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो ।
कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो ।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो ।
उस रंग भरी पिचकारी को, अँगिया पर तककर मारी हो ।
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की ।।4।।

इस रंग रंगीली मजलिस में, वह रंडी नाचने वाली हो ।
मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा हो औऱ आँख भी मय की प्याली हो ।
बदमस्त, बड़ी मतवाली हो, हर आन बजाती ताली हो ।
मयनोशी हो बेहोशी हो 'भड़ुए' की मुँह में गाली हो ।
भड़ुए भी भड़ुवा बकते हों, तब देख बहारें होली की ।।5।।

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के ।
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के ।
कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के ।
कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के ।
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की ।।6।।

यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो ।
उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो ।
माजून शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, कक्कड़ हो ।
लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला हो कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो ।
जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की ।।7।।

(ख़म=सुराही, छकते=मस्त, गुलरू=फूलों जैसे मुखड़े वाली,
आहंग=गान, इशरत=ख़ुशी, मतलूबों=इच्छुक, मयनोशी=शराबनोशी,
भड़ुए=वेश्याओं के साथ नकल करने वाले, भड़ुवा=मज़ाक, भवैयों=
भावपूर्ण ढंग से नाचने वाले, माजून=कुटी हुई दवाओं को शहद या
शंकर क़िवाम में मिलाकर बनाया हुआ अवलेह, टिकिया=चरस गांजे
वगैरह की टिकिया, सुलफ़ा=चरस)

16. ख़ुशामद - नज़ीर अकबराबादी

दिल ख़ुशामद से हर इक शख़्स का क्या राज़ी है
आदमी जिन परी ओ भूत बला राज़ी है
भाई फ़रज़ंद भी ख़ुश बाप चचा राज़ी है
शाद मसरूर ग़नी शाह ओ गदा राज़ी है
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

अपना मतलब हो तो मतलब की ख़ुशामद कीजे
और न हो काम तो उस ढब की ख़ुशामद कीजे
औलिया अंबिया और रब की ख़ुशामद कीजे
अपने मक़्दूर ग़रज़ सब की ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

चार दिन जिस को किया झुक के ख़ुशामद से सलाम
वो भी ख़ुश हो गया अपना भी हुआ काम में काम
बड़े आक़िल बड़े दाना ने निकाला है ये दाम
ख़ूब देखा तो ख़ुशामद ही की आमद है तमाम
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

बद बख़ील और सख़ी की भी ख़ुशामद कीजे
और जो शैतान हो तो उस की भी ख़ुशामद कीजे
गर वली हो तो वली की भी ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

प्यार से जोड़ दिए जिस की तरफ़ हाथ जो आह
वहीं ख़ुश हो गया करते ही वो हाथों पे निगाह
ग़ौर से हम ने जो इस बात को देखा वल्लाह
कुछ ख़ुशामद ही बड़ी चीज़ है अल्लाह अल्लाह
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

पीने और पहनने खाने की ख़ुशामद कीजे
हीजड़े भाँड ज़नाने की ख़ुशामद कीजे
मस्त ओ हुशियार दिवाने की ख़ुशामद कीजे
भोले नादान सियाने की ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

ऐश करते हैं वही जिन का ख़ुशामद का मिज़ाज
जो नहीं करते वो रहते हैं हमेशा मोहताज
हाथ आता है ख़ुशामद से मकाँ मुल्क और ताज
क्या ही तासीर की इस नुस्ख़े ने पाई है रिवाज
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

गर भला हो तो भले की भी ख़ुशामद कीजे
और बुरा हो तो बुरे की भी ख़ुशामद कीजे
पाक नापाक सिड़े की भी ख़ुशामद कीजे
कुत्ते बिल्ली ओ गधे की भी ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

ख़ूब देखा तो ख़ुशामद की बड़ी खेती है
ग़ैर की अपने ही घर बीच ये सुख देती है
माँ ख़ुशामद के सबब छाती लगा लेती है
नानी दादी भी ख़ुशामद से दुआ देती है
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

बी-बी कहती है मियाँ आ तिरे सदक़े जाऊँ
सास बोले कहीं मत जा तिरे सदक़े जाऊँ
ख़ाला कहती है कि कुछ खा तिरे सदक़े जाऊँ
साली कहती है कि भय्या तिरे सदक़े जाऊँ
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

आ पड़ा है जो ख़ुशामद से सरोकार उसे
ढूँडते फिरते हैं उल्फ़त के ख़रीदार उसे
आश्ना मिलते हैं और चाहे हैं सब यार उसे
अपने बेगाने ग़रज़ करते हैं सब प्यार उसे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

रूखी और रोग़नी आबी को ख़ुशामद कीजे
नान-बाई ओ कबाबी की ख़ुशामद कीजे
साक़ी ओ जाम शराबी की ख़ुशामद कीजे
पारसा रिंद ख़राबी की ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

जो कि करते हैं ख़ुशामद वो बड़े हैं इंसाँ
जो नहीं करते वो रहते हैं हमेशा हैराँ
हाथ आते हैं ख़ुशामद से हज़ारों सामाँ
जिस ने ये बात निकाली है मैं उस के क़ुर्बां
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

कौड़ी पैसे ओ टके ज़र की ख़ुशामद कीजे
लाल ओ नीलम दर ओ गौहर की ख़ुशामद कीजे
और जो पत्थर हो तो पत्थर की ख़ुशामद कीजे
नेक ओ बद जितने हैं यक-सर की ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

हम ने हर दिल की ख़ुशामद की मोहब्बत देखी
प्यार इख़्लास ओ करम मेहर मुरव्वत देखी
दिलबरों में भी ख़ुशामद ही की उल्फ़त देखी
आशिक़ों मैं भी ख़ुशामद ही की चाहत देखी
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

पारसा पीर है ज़ाहिद है मना जाती है
जुवारिया चोर दग़ाबाज़ ख़राबाती है
माह से माही तलक च्यूँटी है या हाथी है
ये ख़ुशामद तो मियाँ सब के तईं भाती है
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

गर न मीठी हो तो कड़वी भी ख़ुशामद कीजे
कुछ न हो पास तो ख़ाली भी ख़ुशामद कीजे
जानी दुश्मन हो तो उस की ख़ुशामद कीजे
सच अगर पूछो तो झूटी भी ख़ुशामद कीजे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

मर्द ओ ज़न तिफ़्ल ओ जवाँ ख़ुर्द ओ कलाँ पीर ओ फ़क़ीर
जितने आलम में हैं मोहताज ओ गदा शाह वज़ीर
सब के दिल होते हैं फंदे में ख़ुशामद के असीर
तो भी वल्लाह बड़ी बात ये कहता है 'नज़ीर'
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
हक़ तो ये है कि ख़ुशामद से ख़ुदा राज़ी है

17. दार-उल-मकाफ़ात-है दुनिया जिस का नाम मियाँ - नज़ीर अकबराबादी

है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है
जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है
याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है
गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले
जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले
नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले
जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे
जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे
जो याँ कारहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे
ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है
जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है
शम्शीर तीर बन्दूक़ सिना और नश्तर तीर नहरनी है
याँ जैसी जैसी करनी है, फिर वैसी वैसी भरनी है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो ऊँचा ऊपर बोल करे तो उसका बोल भी बाला है
और दे पटके तो उसको भी, कोई और पटकने वाला है
बेज़ुल्म ख़ता जिस ज़ालिम ने मज़लूम ज़िबह करडाला है
उस ज़ालिम के भी लूहू का फिर बहता नद्दी नाला है
कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है

जो और किसी को नाहक़ में कोई झूटी बात लगाता है
और कोई ग़रीब और बेचारा नाहक़ में लुट जाता है
वो आप भी लूटा जाता है औए लाठी-पाठी खाता है
जो जैसा जैसा करता है, वो वौसा वैसा पाता है
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

है खटका उसके हाथ लगा, जो और किसी को दे खटका
और ग़ैब से झटका खाता है, जो और किसी को दे झटका
चीरे के बीच में चीरा है, और टपके बीच जो है टपका
क्या कहिए और 'नज़ीर' आगे, है रोज़ तमाशा झटपट का
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है

18. जाड़े की बहारें - नज़ीर अकबराबादी

जब माह अघन का ढलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और हँस हँस पूस सँभलता हो तब देख बहारें जाड़े की
दिन जल्दी जल्दी चलता हो तब देख बहारें जाड़े की
और पाला बर्फ़ पिघलता हो तब देख बहारें जाड़े की
चिल्ला ग़म ठोंक उछलता हो तब देख बहारें जाड़े की

तन ठोकर मार पछाड़ा हो और दिल से होती हो कुश्ती सी
थर-थर का ज़ोर उखाड़ा हो बजती हो सब की बत्तीसी
हो शोर फफू हू-हू का और धूम हो सी-सी सी-सी की
कल्ले पे कल्ला लग लग कर चलती हो मुँह में चक्की सी
हर दाँत चने से दलता हो तब देख बहारें जाड़े की

हर एक मकाँ में सर्दी ने आ बाँध दिया हो ये चक्कर
जो हर दम कप-कप होती हो हर आन कड़ाकड़ और थर-थर
पैठी हो सर्दी रग रग में और बर्फ़ पिघलता हो पत्थर
झड़-बाँध महावट पड़ती हो और तिस पर लहरें ले ले कर
सन्नाटा बाव का चलता हो तब देख बहारें जाड़े की

हर चार तरफ़ से सर्दी हो और सेहन खुला हो कोठे का
और तन में नीमा शबनम का हो जिस में ख़स का इत्र लगा
छिड़काव हुआ हो पानी का और ख़ूब पलंग भी हो भीगा
हाथों में पियाला शर्बत का हो आगे इक फर्राश खड़ा
फर्राश भी पंखा झलता हो तब देख बहारें जाड़े की

जब ऐसी सर्दी हो ऐ दिल तब रोज़ मज़े की घातें हों
कुछ नर्म बिछौने मख़मल के कुछ ऐश की लम्बी रातें हों
महबूब गले से लिपटा हो और कुहनी, चुटकी, लातें हों
कुछ बोसे मिलते जाते हों कुछ मीठी मीठी बातें हों
दिल ऐश-ओ-तरब में पलता हो तब देख बहारें जाड़े की

हो फ़र्श बिछा ग़ालीचों का और पर्दे छोटे हों आ कर
इक गर्म अँगीठी जलती हो और शम्अ हो रौशन और तिस पर
वो दिलबर, शोख़, परी, चंचल, है धूम मची जिस की घर घर
रेशम की नर्म निहाली पर सौ नाज़-ओ-अदा से हँस हँस कर
पहलू के बीच मचलता हो तब देख बहारें जाड़े की

तरकीब बनी हो मज्लिस की और काफ़िर नाचने वाले हों
मुँह उन के चाँद के टुकड़े हों तन उन के रूई के गाले हों
पोशाकें नाज़ुक रंगों की और ओढ़े शाल दो-शाले हों
कुछ नाच और रंग की धूमें हों ऐश में हम मतवाले हों
प्याले पर प्याला चलता हो तब देख बहारें जाड़े की

हर एक मकाँ हो ख़ल्वत का और ऐश की सब तय्यारी हो
वो जान कि जिस से जी ग़श हो सौ नाज़ से आ झनकारी हो
दिल देख 'नज़ीर' उस की छब को हर आन अदा पर वारी हो
सब ऐश मुहय्या हो आ कर जिस जिस अरमान की बारी हो
जब सब अरमान निकलता हो तब देख बहारें जाड़े की

19. बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा - नज़ीर अकबराबादी

बटमार अजल का आ पहुँचा, टुक उसको देख डरो बाबा।
अब अश्क बहाओ आँखों से और आहें सर्द भरो बाबा।
दिल, हाथ उठा इस जीने से, बस मन मार, मरो बाबा।
जब बाप की ख़ातिर रोते थे, अब अपनी ख़ातिर रो बाबा।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

ये अस्प बहुत कूदा उछला अब कोड़ा मारो, ज़ेर करो।
जब माल इकट्ठा करते थे, अब तन का अपने ढेर करो।
गढ़ टूटा, लश्कर भाग चुका, अब म्यान में तुम शमशेर करो।
तुम साफ़ लड़ाई हार चुके, अब भागने में मत देर करो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

यह उम्र जिसे तुम समझे हो, यह हरदम तन को चुनती है।
जिस लकड़ी के बल बैठे हो, दिन-रात यह लकड़ी घुनती है।
तुम गठरी बांधो कपड़े की, और देख अजल सर धुनती है।
अब मौत कफ़न के कपड़े का याँ ताना-बाना बुनती है।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

घर बार, रुपए और पैसे में मत दिल को तुम ख़ुरसन्द करो।
या गोर बनाओ जंगल में, या जमुना पर आनन्द करो।
मौत आन लताड़ेगी आख़िर कुछ मक्र करो, या फ़न्द करो।
बस ख़ूब तमाशा देख चुके, अब आँखें अपनी बन्द करो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा ॥

व्यापार तो याँ का बहुत किया, अब वहाँ का भी कुछ सौदा लो।
जो खेप उधर को चढ़ती है, उस खेप को याँ से लदवा लो।
उस राह में जो कुछ खाते हैं, उस खाने को भी मंगवा लो।
सब साथी मंज़िल पर पहुँचे, अब तुम भी अपना रस्ता लो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा।
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

कुछ देर नहीं अब चलने में, क्या आज चलो या कल निकलो।
कुछ कपड़ा-लत्ता लेना हो, सो जल्दी बांध संभल निकलो।
अब शाम नहीं, अब सुब्‌ह हुई जूँ मोम पिघल कर ढल निकलो।
क्यों नाहक धूप चढ़ाते हो, बस ठंडे-ठंडे चल निकलो।
तन सूखा, कुबड़ी पीठ हुई, घोड़े पर ज़ीन धरो बाबा॥
अब मौत नक़ारा बाज चुका, चलने की फ़िक्र करो बाबा॥

20. फ़क़ीरों की सदा - नज़ीर अकबराबादी

ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जायेगी बाबा!
दुख उसमें तेरी रूह बहुत पायेगी बाबा!
हर खाने को, हर पीने को तरसायेगी बाबा!
दौलत जो तेरे याँ है न काम आयेगी बाबा!
फिर क्या तुझे अल्लाह से मिलवायेगी बाबा! ॥1॥

दाता की तो मुश्किल कोई अटकी नहीं रहती
चढ़ती है पहाड़ों के ऊपर नाव सख़ी की
और तूने बख़ीली से अगर जमा उसे की
तो याद यह रख बात कि जब आवेगी सख़्ती
ख़ुश्की में तेरी नाव यह डुबवायेगी बाबा! ॥2॥

यह तो न किसी पास रही है न रहेगी
जो और से करती रही वह तुझसे करेगी
कुछ शक नहीं इसमें जो बढ़ी है, सो घटेगी
जब तक तू जिएगा, यह तुझे चैन न देगी
और मरते हुए फिर यह ग़ज़ब लायेगी बाबा!॥3॥

जब मौत का होवेगा तुझे आन के धड़का
और निज़अ तेरी आन के दम देवेगी भड़का
जब इसमें तू अटकेगा, न दम निकलेगा फड़का
कुप्पों में रूपै डाल के जब देवेंगे खड़का
तब तन से तेरी जान निकल जायेगी बाबा! ॥4॥

तू लाख अगर माल के सन्दूक भरेगा
है ये तो यक़ीं, आख़िरश एक दिन तो मरेगा
फिर बाद तेरे उस पे जो कोई हाथ धरेगा
वह नाच मज़ा देखेगा और ऎश करेगा
और रुह तेरी क़ब्र में घबरावयेगी बाबा! ॥5॥

उसके तो वहाँ ढोलक औ मिरदंग बजेगी
और रूह तेरी क़ब्र में हसरत से जलेगी
वह खावेगा और तेरे तईं आग लगेगी
ता हश्र तेरी रूह को फिर कल न पड़ेगी
ऐसा यह तुझे गारे में तड़पायेगी बाबा! ॥6॥

गर होश है तुझ में तो बख़ीली का न कर काम
इस काम का आख़िर को बुरा होता है अन्जाम
थूकेगा कोई कह के, कोई देवेगा दुश्नाम
जनहार न लेगा कोई हर सुबह तेरा नाम
पैज़ारे तेरे नाम पे लगवायेगी बाबा!॥7॥

21. बसंत-आलम में जब बहार की आकर लगंत हो - नज़ीर अकबराबादी

आलम में जब बहार की आकर लगंत हो।
दिल को नहीं लगन हो मजे की लगंत हो।
महबूब दिलबरों से निगह की लड़ंत हो।
इशरत हो, सुख हो, ऐश हो और जी निश्चिंत हो।
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥

अव्वल तो जाफ़रां से मकां ज़र्द ज़र्द हों।
सहरा ओ बागो अहले जहां ज़र्द ज़र्द हों।
जोड़े बसंतियों से निहां ज़र्द ज़र्द हों।
इकदम तो सब जमीनो जमां ज़र्द ज़र्द हों।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

मैदां हो सब्ज साफ चमकती भी रेत हो।
साकी भी अपने जाम सुराही समेत हो।
कोई नशे में मस्त हो कोई सचेत हो।
दिलबर गले लिपटते हों सरसों का खेत हो।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

ऑंखों में छा रहे हों बहारों के आवो रंग।
महबूब गुलबदन हों खिंचे हो बगल में तंग।
बजते हों ताल ढोलक व सारंगी ओ मुंहचंग।
चलते हों जाम ऐश के होते हों रंग रंग।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों।
सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों।
बैठे हुए बगल में कई आह जान हों।
पर्दे पड़े हों ज़र्द सुनहरी मकान हों।
जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो।

कसरत से तायफ़ों की मची हो उलट पुलट।
चोली किसी की मसकी हो अंगिया रही हो कट।
बैठे हों बनके नाज़नीं परियों के ग़ट के ग़ट।
जाते हों दौड़-दौड़ गले से लिपट-लिपट।
जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो ॥

वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह।
जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह।
पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह।
इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह।
जब देखिए बसंत कि कैसी बसंत हो ॥

22. बसंत-फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत - नज़ीर अकबराबादी

फिर आलम में तशरीफ लाई बसंत।
हर एक गुलबदन ने मनाई बसंत॥
तवायफ़ ने हरजाँ उठाई बसंत।
इधर औ’ उधर जगमगाई बसंत॥
हमें फिर ख़ुदा ने दिखाई बसंत ॥1॥

मेरा दिल है जिस नाज़नी पर फ़िदा।
वह काफ़िर भी जोड़ा बसंती बना॥
सरापा वह सरसों का बन खेत-सा।
वह नाज़ुक से हाथों से गड़ुवा उठा॥
अज़ब ढंग से मुझ पास लाई बसंत ॥2॥

वह कुर्ती बसंती वह गेंदे के हार।
वह कमख़्वाब का ज़र्द काफ़िर इज़ार॥
दुपट्टा फिर ज़र्द संजगाफ़दार।
जो देखी मैं उसकी बसंती बहार॥
तो भूली मुझे याद आई बसंत॥3॥

वह कड़वा जो था उसके हाथों में फूल।
गया उसकी पोशाक को देख भूल॥
कि इस्लाम तू अल्लाह ने कर कबूल।
निकाला इसे और छिपाई बसंत ॥4॥

वह अंगिया जो थी ज़र्द और जालदार।
टँकी ज़र्द गोटे की जिस पर कतार॥
वह ज़ो दर्द लेमू को देख आश्कार।
ख़ुशी होके सीने में दिल एक बार॥
पुकारा कि अब मैंने पाई बसंत ॥5॥

वह जोड़ा बसंती जो था ख़ुश अदा।
झमक अपने आलम की उसमें दिखा॥
उठा आँख औ’ नाज़ से मुस्करा।
कहा लो मुबारक हो दिन आज का॥
कि याँ हमको लेकर है आई बसंत ॥6॥

पड़ी उस परी पर जो मेरी निगाह।
तो मैं हाथ उसके पकड़ ख़्वामख़्वाह॥
गले से लिपटा लिया करके चाह।
लगी ज़र्द अंगिया जो सीने से आह॥
तो क्या-क्या जिगर में समाई बसंत ॥7॥

वह पोशाक ज़र्द और मुँह चांद-सा।
वह भीगा हुआ हुस्न ज़र्दी मिला॥
फिर उसमें जो ले साज़ खींची सदा।
समाँ छा गया हर तरफ़ राग का॥
इस आलम से काफ़िर ने गाई बसंत ॥8॥

बंधा फिर वह राग बसंती का तार।
हर एक तान होने लगी दिल के पार॥
वह गाने की देख उसकी उसदम बहार।
हुई ज़र्द दीवारोंदर एक बार ॥
गरज़ उसकी आंखों में छाई बसंत ॥9 ॥

23. बसंत-जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत - नज़ीर अकबराबादी

जहां में फिर हुई ऐ ! यारो आश्कार बसंत।
हुई बहार के तौसन पै अब सवार बसंत॥
निकाल आयी खिजाओं को चमन से पार बसंत।
मची है ज़ोर हर यक जा वो हर कनार बसंत॥
अजब बहार से आयी है अबकी बार बसंत॥

जहां में आयी बहार और खिजां के दिन भूले।
चमन में गुल खिले और वन में राय वन फूले॥
गुलों ने डालियों के डाले बाग में झूले।
समाते फूल नहीं पैरहन में अब फूले।
दिखा रही है अजब तरह की बहार बसंत॥

दरख्त झाड़ हर इक पात झाड़ लहराए।
गुलों के सर पै पर बुलबुलों के मंडराए॥
चमन हरे हुए बागों में आम भी आए।
शगूफे खिल गए भौंरे भी गुंजने आए॥
यह कुछ बहार के लायी है वर्गों बार बसंत॥

कहीं तो केसर असली में कपड़े रंगते हैं।
तुन और कुसूम की ज़र्दी में कपड़े रंगते हैं॥
कहीं सिंगार की डंडी में कपड़े रंगते हैं।
गरीब दमड़ी की हल्दी में कपड़े रंगते हैं॥
गर्ज हरेक का बनाती है अब सिंगार बसंत॥

कहीं दुकान सुनहरी लगा के बैठे हैं।
बसंती जोड़े पहन और पहना के बैठे हैं॥
गरीब खेत में सरसों के जाके बैठे हैं।
चमन में बाग में मजलिस बनाके बैठे हैं।
पुकारते हैं अहा! हा! री ज़र निगार बसंत॥

कहीं बसंत गवा हुरकियों से सुनते हैं।
मजीरा तबला व सारंगियों से सुनते हैं॥
कहीं खाबी व मुंहचंगियों से सुनते हैं।
गरीब ठिल्लियों और तालियों से सुनते हैं॥
बंधा रही है समद का हर एक तार बसंत॥

जो गुलबदन हैं अजब सज के हंसते फिरते हैं।
बसंती जोड़ों में क्या-क्या चहकते फिरते हैं॥
सरों पै तुर्रे सुनहरे झमकते फिरते हैं।
गरीब फूल ही गेंदे के रखते फिरते हैं॥
हुई है सबके गले की गरज कि हार बसंत॥

तवायफों में है अब यह बसंत का आदर।
कि हर तरफ को बना गड़ुए रखके हाथों पर॥
गेहूं की बालियां और सरसों की डालियां लेकर।
फिरें उम्दों के कूंचे व कूंचे घर घर॥
रखे हैं आगे सबों के बना संवार बसंत॥

मियां बसंत के यां तक रंग गहरे हैं।
कि जिससे कूंचे और बाज़ार सब सुनहरे हैं॥
जो लड़के नाजनी और तन कुछ इकहरे हैं।
वह इस मजे के बसंती लिबास पहरे हैं॥
कि जिन पै होती है जी जान से निसार बसंत॥

बहा है ज़ोर जहां में बसंत का दरिया।
किसी का जर्द है जोड़ा किसी का केसरिया॥
जिधर को देखो उधर जर्द पोश का रेला।
बने हैं कूच ओ बज़ार खेत सरसों का॥
बिखर रही है गरज आके बेशुमार बसंत॥

'नज़ीर' खल्क में यह रुत जो आन फिरती है।
सुनहरे करती महल और दुकान फिरती है॥
दिखाती हुस्न सुनहरी की शान फिरती है।
गोया वही हुई सोने की कान फिरती है।
सबों को ऐश की रहती है यादगार बसंत॥

24. होली की बहार - नज़ीर अकबराबादी

हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार।
जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार।।

एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल।
जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार।।

जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब।
मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार।।

तू बगल में हो जो प्यारे, रंग में भीगा हुआ।
तब तो मुझको यार खुश आती है होली की बहार।।

और हो जो दूर या कुछ खफा हो हमसे मियां।
तो काफिर हो जिसे भाती है होली की बहार।।

नौ बहारों से तू होली खेलले इस दम 'नजीर'।
फिर बरस दिन के उपर है होली की बहार।।

(जांफिशानी=जान तोड़ कोशिश, जाफरानी=केसर
के रंग का,केसरी, केसर से बना हुआ)

25. बालपन-बाँसुरी बजैया का  - नज़ीर अकबराबादी

यारो सुनो ! ये दधि के लुटैया का बालपन ।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ।।
मोहन-सरूप निरत करैया का बालपन ।
बन-बन के ग्‍वाल गौएँ चरैया का बालपन ।।

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।1।।

ज़ाहिर में सुत वो नंद जसोदा के आप थे ।
वरना वह आप माई थे और आप बाप थे ।।
परदे में बालपन के यह उनके मिलाप थे ।
जोती सरूप कहिए जिन्‍हें सो वह आप थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।2।।

उनको तो बालपन से न था काम कुछ ज़रा ।
संसार की जो रीति थी उसको रखा बचा ।।
मालिक थे वो तो आपी उन्‍हें बालपन से क्‍या ।
वाँ बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक सा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।3।।

मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ याँ सरे ।
चाहे वह नंगे पाँव फिरे या मुकुट धरे ।।
सब रूप हैं उसी के वह जो चाहे सो करे ।
चाहे जवाँ हो, चाहे लड़कपन से मन हरे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।4।।

बाले हो ब्रज राज जो दुनियाँ में आ गए ।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गए ।।
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गए ।
इक यह भी लहर थी कि जहाँ को जता गए ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।5।।

यूँ बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला ।
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था ।।
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या ।
क्या जाने अपने खेलने आए थे क्या कला ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।6।।

राधारमन तो यारो अजब जायेगौर थे ।
लड़कों में वह कहाँ है, जो कुछ उनमें तौर थे ।।
आप ही वह प्रभू नाथ थे आप ही वह दौर थे ।
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।7।।

वह बालपन में देखते जिधर नज़र उठा ।
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा ।।
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ ।
दंडवत ही वह करता था माथा झुका झुका ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।8।।

परदा न बालपन का वह करते अगर ज़रा ।
क्‍या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता ।।
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका ।
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।9।।

मोहन, मदन, गोपाल, हरी, बंस, मन हरन ।
बलिहारी उनके नाम पै मेरा यह तन बदन ।।
गिरधारी, नंदलाल, हरि नाथ, गोवरधन ।
लाखों किए बनाव, हज़ारों किए जतन ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।10।।

पैदा तो मधु पुरी में हुए श्याम जी मुरार ।
गोकुल में आके नन्द के घर में लिया क़रार ।।
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार ।
माई जसोदा पीती थी पानी को वार वार ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।11।।

जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल ब्रज राज ।
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज ।।
सुन्दर जो नारियाँ थीं वे करती थीं कामो-काज ।
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिज़ाज ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।12।।

बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे ।
और ख़ूबरू को देखके हँस-हँस चिमटते थे ।।
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बँटते थे ।
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।13।।

अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयाँ करूँ ।
या मीठी बातें मुँह से निकलना बयाँ करूँ ।।
या बालकों में इस तरह से पलना बयाँ करूँ ।
या गोदियों में उनका मचलना बयाँ करूँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।14।।

पाटी पकड़ के चलने लगे जब मदन गोपाल ।
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल ।।
बासुक चरन छूने को चले छोड़ कर पताल ।
अकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।15।।

थी उनकी चाल की जो अ़जब, यारो चाल-ढाल ।
पाँवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल ।।
चलते ठुमक-ठुमक के जो वह डगमगाती चाल ।
थांबे कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।16।।

पहने झगा गले में जो वह दखिनी चीर का ।
गहने में भर रहा गोया लड़का अमीर का ।।
जाता था होश देख के शाही वज़ीर का ।
मैं किस तरह कहूँ इसे चॊरा अहीर का ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।17।।

जब पाँवों चलने लागे बिहारी न किशोर ।
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर ।।
मुँह हाथ दूध से भरे कपड़े भी शोर-बोर ।
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।18।।

करने लगे यह धूम, जो गिरधारी नन्द लाल ।
इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल बाल ।।
माखन दही चुराने लगे सबके देख भाल ।
की अपनी दधि की चोरी घर घर में धूम डाल ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।19।।

थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा ।
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा ।।
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया ।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।20।।

कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना ।
गोली में हो तो उसमें भी जा मुँह को बोरना ।।
ऊँचा हो तो भी कांधे पै चढ़ कर न छोड़ना ।
पहुँचा न हाथ तो उसे मुरली से फोड़ना ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।21।।

गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहाँ ।
और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले हाँ ।।
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियाँ ।
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूँटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।22।।

गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा ।
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूसे लगा-लगा ।।
चिल्लाते गाली देते, मचल जाते जा बजा ।
हर तरह वाँ से भाग निकलते उड़ा छुड़ा ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।23।।

ग़ुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर ।
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर ।।
जो आपी लाके धरती वह माखन कटोरी भर ।
ग़ुस्सा वह उनका आन में जाता वहीं उतर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।24।।

उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं ।
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं ।।
ज़ाहिर में उनके हाथ से वह ग़ुल मचाती थीं ।
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।25।।

कहतीं थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाएँगे ।
श्रीकिशन इसी बहाने हमें मुँह दिखाएँगे ।।
और जो हमारे घर में यह माखन न पाएँगे ।
तो उनको क्या गरज़ है यह काहे को आएँगे ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।26।।

सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर ।
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर ।।
देता है हमको गालियाँ फिर फाड़ता है चीर ।
छोड़े दही न दूध, न माखन, मही न खीर ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।27।।

माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियाँ ।
और कान्ह को डराती उठा बन की साँटियाँ ।।
जब कान्हा जी जसोदा से करते यही बयाँ ।
तुम सच न जानो माता, यह सारी हैं झूटियाँ ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।28।।

माता कभी यह मेरी छुंगलियाँ छुपाती हैं ।
जाता हूँ राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं ।।
आप ही मुझे रुठातीं हैं आपी मनाती हैं ।
मारो इन्हें ये मुझको बहुत सा सताती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।29।।

माता कभी यह मुझको पकड़ कर ले जाती हैं ।
गाने में अपने साथ मुझे भी गवाती हैं ।।
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं ।
आप ही तुम्हारे पास यह फ़रयादी आती हैं ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।30।।

एक रोज़ मुँह में कान्ह ने माखन झुका दिया ।
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुँह बना दिया ।।
मुँह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया ।
एक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया ।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।31।।

थे कान्ह जी तो नंद जसोदा के घर के माह ।
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह ।।
उनको जो देखता था सो कहता था वाह-वाह ।
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।32।।

सब मिलकर यारो किशन मुरारी की बोलो जै ।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै ।।
दधिचोर गोपी नाथ, बिहारी की बोलो जै ।
तुम भी ‘नज़ीर’ किशन बिहारी की बोलो जै ।।
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन ।।33।।
26. ईद उल फ़ितर
है आबिदों को त’अत-ओ-तजरीद की ख़ुशी
और ज़ाहिदों को ज़ुहद की तमहीद की ख़ुशी

रिंद आशिक़ों को है कई उम्मीद की ख़ुशी
कुछ दिलबरों के वल की कुछ दीद की ख़ुशी

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

पिछले पहर से उठ के नहाने की धूम है
शीर-ओ-शकर सिवईयाँ पकाने की धूम है

पीर-ओ-जवान को नेम’तें खाने की धूम है
लड़को को ईद-गाह के जाने की धूम है

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

कोई तो मस्त फिरता है जाम-ए-शराब से
कोई पुकरता है के छूटे अज़ाब से

कल्ला किसी का फूला है लड्डू की चाब से
चटकारें जी में भरते हैं नान-ओ-कबाब से

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

क्या हि मुआन्क़े की मची है उलट पलट
मिलते हैं दौड़ दौड़ के बाहम झपट झपट

फिरते हैं दिल-बरों के भी गलियों में ग़त के ग़त
आशिक़ मज़े उड़ाते हैं हर दम लिपट लिपट

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

काजल हिना ग़ज़ब मसी-ओ-पान की धड़ी
पिशवाज़ें सुर्ख़ सौसनी लाही की फुल-झड़ी

कुर्ती कभी दिखा कभी अन्गिया कसी कड़ी
कह “ईद ईद” लूटेन हैं दिल को घड़ी घड़ी

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

रोज़े की ख़ुश्कियों से जो हैं ज़र्द ज़र्द गाल
ख़ुश हो गये वो देखते ही ईद का हिलाल

पोशाकें तन में ज़र्द, सुनहरी सफ़ेद लाल
दिल क्या के हँस रहा है पड़ा तन का बाल बाल

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

जो जो के उन के हुस्न की रखते हैं दिल से चाह
जाते हैं उन के साथ ता बा-ईद-गाह

तोपों के शोर और दोगानों की रस्म-ओ-राह
मयाने, खिलोने, सैर, मज़े, ऐश, वाह-वाह

ऐसी न शब-ए-बरात न बक़्रीद की ख़ुशी
जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी

रोज़ों की सख़्तियों में न होते अगर अमीर
तो ऐसी ईद की न ख़ुशी होती दिल-पज़ीर

सब शाद हैं गदा से लगा शाह ता वज़ीर
देखा जो हम ने ख़ूब तो सच है मियाँ “नज़ीर”

(आबिद=श्रद्धालु, त'अत=श्रद्धा, ज़ाहिद=पूजा करने वाला,
ज़ुहद की तमहीद=धर्म की बात की शुरुआत, पीर=पुराना,
नेम'त=इनाम,दया, अज़ाब=यातना, कल्ला=गाल,
मुआनिक़=आलिंगन, ग़ट=भीड़, पिश्वाज़= कुरती,
हिलाल= ईद का चांद)

27. पैसा-पैसे ही का अमीर के दिल में खयाल है - नज़ीर अकबराबादी

पैसे ही का अमीर के दिल में खयाल है
पैसे ही का फ़कीर भी करता सवाल है

पैसा ही फौज पैसा ही जाहो जलाल है
पैसे ही का तमाम ये तंगो दवाल है

पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

पैसा जो होवे पास तो कुन्दन के हैं डले
पैसे बगैर मिट्टी के उस से डले भले

पैसे से चुन्नी लाख की इक लाल दे के ले
पैसा न हो तो कौड़ी को मोती कोई न ले

पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

पैसा जो हो तो देव की गर्दन को बाँध लाए
पैसा न हो तो मकड़ी के जाले से खौफ खाए

पैसे से लाला भैया जी और चौधरी कहाए
बिन पैसे साहूकार भी इक चोर-सा दिखाए

पसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

पैसा ही जस दिलाता है इन्साँ के हात को
पैसा ही जेब देता है ब्याह और बरात को

भाई सगा भी आन के पूछे न बात को
बिन पैसे यारो दूल्हा बने आधी रात को

पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

पैसे ने जिस मकाँ में बिछाया है अपना जाल
फंसते हैं उस मकां में फरिश्तों के पर ओ बाल

पैसे के आगे क्या है ये महबूब खुश जमाल
पैसा परी को लाए परिस्तान से निकाल

पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

दुनिया में दीनदार कहाना भी नाम है
पैसा जहाँ के बीच वो कायम मुकाम है

पैसा ही जिस्मोजान है पैसा ही काम है
पैसे ही का नजीर ये आदम गुलाम है

पैसा ही रंग रूप है पैसा ही माल है
पैसा न हो तो आदमी चर्खे की माल है

28. बरसात की बहारें - नज़ीर अकबराबादी

हैं इस हवा में क्या-क्या बरसात की बहारें।
सब्जों की लहलहाहट ,बाग़ात की बहारें।
बूँदों की झमझमाहट, क़तरात की बहारें।
हर बात के तमाशे, हर घात की बहारे।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

बादल लगा टकोरें , नौबत की गत लगावें।
झींगर झंगार अपनी , सुरनाइयाँ बजावें।
कर शोर मोर बगले , झड़ियों का मुँह बुलावें।
पी -पी करें पपीहे , मेंढक मल्हारें गावें।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

क्या - क्या रखे हए है या रब सामान तेरी कुदरत।
बदले है रंग क्या- क्या हर आन तेरी कुदरत।
सब मस्त हो रहे हैं , पहचान तेरी कुदरत।
तीतर पुकारते है , 'सुबहान तेरी कुदरत'।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

जो मस्त हों उधर के , कर शोर नाचते हैं।
प्यारे का नाम लेकर ,क्या जोर नाचते हैं।
बादल हवा से गिर - गिर, घनघोर नाचते हैं।
मेंढक उछल रहे हैं ,और मोर नाचते हैं।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

कितनों तो कीचड़ों की, दलदल में फँस रहे हैं।
कपड़े तमाम गंदे , दलदल में बस रहे हैं।
इतने उठे हैं मर - मर, कितने उकस रहे हैं।
वह दुख में फँस रहे हैं, और लोग हँस रहे हैं।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

यह रुत वह है जिसमें , खुर्दो कबीर खुश हैं।
अदना गरीब मुफ्लिस, शाहो वजीर खुश हैं।
माशूक शादो खुर्रम , आशिक असीर खुश हैं।
जितने हैं अब जहाँ में, सब ऐ 'नज़ीर' खुश हैं।
क्या - क्या मची हैं यारो बरसात की बहारें।

(कबीर=बड़ा, शाद=खुश, खुर्रम=खुश,असीर=कैदी,बंदी)

29. राखी - नज़ीर अकबराबादी

चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी ।
सुनहरी, सब्ज़, रेशम, ज़र्द और गुलनार की राखी ।
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी ।
सलूनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी ।
न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी ।।1।।

अयाँ है अब तो राखी भी, चमन भी, गुल भी, शबनम भी ।
झमक जाता है मोती और झलक जाता है रेशम भी ।
तमाशा है अहा ! हा ! हा गनीमत है यह आलम भी ।
उठाना हाथ, प्यारे वाह वा टुक देख लें हम भी ।
तुम्हारी मोतियों की और ज़री के तार की राखी ।।2।।

मची है हर तरफ़ क्या क्या सलूनों की बहार अब तो ।
हर एक गुलरू फिरे है राखी बाँधे हाथ में ख़ुश हो ।
हवस जो दिल में गुज़रे है कहूँ क्या आह में तुमको ।
यही आता है जी में बनके बाम्हन आज तो यारो ।
मैं अपने हाथ से प्यारे के बाँधूँ प्यार की राखी ।।3।।

हुई है ज़ेबो ज़ीनत और ख़ूबाँ को तो राखी से ।
व लेकिन तुमसे अब जान और कुछ राखी के गुल फूले ।
दिवानी बुलबुलें हों देख गुल चुनने लगीं तिनके ।
तुम्हारे हाथ ने मेंहदी ने अंगुश्तों ने नाख़ुन ने ।
गुलिस्ताँ की, चमन की, बाग़ की गुलज़ार की राखी ।।4।।

अदा से हाथ उठने में गुले राखी जो हिलते हैं ।
कलेजे देखने वालों के क्या क्या आह छिलते हैं ।
कहाँ नाज़ुक यह पहुँचे और कहाँ यह रंग मिलते हैं ।
चमन में शाख़ पर कब इस तरह के फूल खिलते हैं ।
जो कुछ ख़ूबी में है उस शोख़ गुल रुख़सार की राखी ।।5।।

फिरें हैं राखियाँ बाँधे जो हर दम हुस्न के मारे ।
तो उनकी राखियों को देख ऐ ! जाँ ! चाव के मारे ।
पहन ज़ुन्नार और क़श्क़ः लगा माथे ऊपर बारे ।
’नज़ीर’ आया है बाम्हन बनके राखी बाँधने प्यारे ।
बँधा लो उससे तुम हँसकर अब इस त्यौहार की राखी ।।6।।

(गुलनार=अनार का फूल, नादिर=अद्भुत्त, अयाँ=प्रकट, शबनम=
ओस, ज़री=सोने चाँदी के तार, गुलरू=फूल जैसे सुंदर और सुकुमार
मुख, ज़ेबो ज़ीनत=शृंगार और सजावट, ख़ूबाँ=सुंदर स्त्रियाँ, अंगुश्तों=
उँगलियाँ, गुलिस्ताँ=बाग़, रुख़सार=कपोल, ज़ुन्नार=जनेऊ, क़श्क़ः=
तिलक)

30. आशिक़ों की भंग - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया के अमीरों में याँ किसका रहा डंका ।
बरबाद हुए लश्कर, फ़ौजों का थका डंका ।
आशिक़ तो यह समझे हैं, अब दिल में बना डंका ।
जो भंग पिएँ उनका बजता है सदा डंका ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।१।।

उल्फ़त के जमर्रुद की, यह खेत की बूटी है ।
पत्तों की चमक उसके कमख़्वाब की बूटी है ।
मुँह जिसके लगी उससे फिर काहे को छूटी है ।
यह तान टिकोरे की इस बात पे टूटी है ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।२।।

हर आन खड़ाके से, इस ढब का लगा रगड़ा ।
जो सुन के खड़क इसकी हो बंद सभी दगड़ा ।
चक़्कान चढ़ा गहरा, और बाँध हरा पगड़ा ।
क्या सैर की ठहरेगी टुक छोड़ के यह झगड़ा ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।३।।

एक प्याले के पीते ही, हो जावेगा मतवाला ।
आँखों में तेरी आकर खिल जाएगा गुल लाला ।
क्या क्या नज़र आवेगी हरियाली व हरियाला ।
आ मान कहा मेरा, ऐ शोख़ नए लाला ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।४।।

हैं मस्त वही पूरे, जो कूंडी के अन्दर हैं ।
दिल उनके बड़े दरिया, जी उनके समुन्दर हैं ।
बैठे हैं सनम बुत हो, और झूमते मन्दिर हैं ।
कहते हैं यही हँस-हँस, आशिक़ जो कलन्दर हैं ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।५।।

सब छोड़ नशा प्यारे, पीवे तू अगर सब्जी ।
कर जावे वही तेरी, ख़ातिर में असर सब्जी ।
हर बाग में हर जाँ में, आ जावे नज़र सब्जी ।
तेरी भी ’नज़ीर’ अब तो सब्जी में है सर सब्जी ।
कूंडी के नक़्क़ारे पर, ख़ुतके का लगा डंका ।।
नित भंग पी और आशिक़, दिन रात बजा डंका ।।६।।

(जमर्रुद=पन्ना,हरा रत्न, कमख़्वाब=
एक प्रकार का रेशमी वस्त्र, दगड़ा=
कच्ची सड़क, चक़्कान=गाढ़ी घुटी हुई
भंग)

31. दरसनाए पैग़म्बरे ख़ुदा - नज़ीर अकबराबादी

सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ।

तेरा दोस्त है वह जो ख़ेरुलवरा ।
मुहम्मद नबी मालिके दोसरा ।
कहाँ वस्फ़ हो मुझ से उसका अदा ।
व लेकिन है मेरी यही इल्तिजा ।
ज़बाँ ताबुवद दर दहाँ जाए गीर ।
सनाऐ मुहम्मद बुवद दिल पज़ीर ।

वह शाहे दो आलम अमीरे उमम ।
बने वास्ते जिसके लौहो-क़लम ।
सदा जिसके चूमें मलायक क़दम ।
करूँ उसका रुतबा मैं क्यूँकर रक़म ।
हबीबे ख़ुदा अशरफ़ुल अंम्बिया ।
कि अर्शे मजीदश बुवद मुत्तक़ा ।

अगर्चे यह पदा हुआ ख़ाक पर ।
गया ख़ाक से फिर वह इफ़लाक पर ।
मेरा जी फ़िदा उस तने पाक पर
तसद्दुक़ हूँ मैं उसके फ़ितराक पर ।
सवारे जहाँ गीर यकराँ बुराक़ ।
कि बगज़श्त अज़ करने नीली-ए-खाक़ ।

(सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम=अल्लाह का दुरुद
और सलाम आप पर हो, वस्फ़=प्रशंसा, लौहो-क़लम=
वह तख़्ती और लेखनी, जिनके द्वारा ईश्वर की आज्ञा से
भविष्य में होने वाली सब घटनाएँ लिखी हों, मलायक=
फ़रिश्ते, रक़म=लिखना, अर्शे मजीदश बुवद मुत्तक़ा=
रसूल जो ख़ुदा के महबूब हैं और नाबियों में जिनका
रुत्बा सबसे ज़्यादा है । जिनका निवासस्थान अर्श पर
बना, इफ़लाक=आकाश, तसद्दुक़=न्यौछावर, फ़ितराक=
वह डोरी जो घोड़े की ज़ीन में दोनों ओर लगाते हैं,
बगज़श्त अज़ करने नीली-ए-खाक़=वह व्यक्ति जो अकेले
बुराक़ घोड़े पर सवार होकर सारे ब्रह्माण्ड की सैर कर आए
जो कि इस नीले गुम्बद वाले महल से भी परे चले गए)

32. इश्क़ अल्लाह - नज़ीर अकबराबादी

ज़ाहिदो रौज़ए रिज़्वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।
आशिक़ो कूचए जानाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।

जिसकी आँखों ने किया बज़्मे दो आलम को ख़राब ।
कोई उस फ़ितनए दौराँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।।

यारो देखो जो कहीं उस गुले खन्दाँ का ज़माल ।
तो मेरे दीदए गिरयाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।।

हैं जो वह कुश्तए शमशीर निगाहे क़ातिल ।
जाके उस गंजे शहीदाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।।

आह के साथ मेरे सीने से निकले है धुआँ ।
ऐ बुताँ मुझ दिलबर जाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।।

याद में उसके रुख़ों ज़ुल्फ़ की हर आन ’नज़ीर’
रोज़ो शब सुंबुलो रेहाँ से कहो इश्क़ अल्लाह ।।

(ज़ाहिदो=साधु, रौज़ए रिज़्वाँ=स्वर्ग की वाटिका,
बज़्मे दो आलम=दुनिया की महफ़िल, फ़ितनए
दौराँ=ज़माने का उपद्रवी, गुले खन्दाँ=फूल की
मुस्कान, ज़माल=ख़ूबसूरती, दीदए गिरयाँ=
बहुमूल्य आँखें)

33. ईद - नज़ीर अकबराबादी

शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का ।
अब तो यक्साँ है हमें आना न जाना ईद का ।।

दिल का ख़ून होता है जब आता है अपना हमको याद ।
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का ।।

आँसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह ।
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का ।।

हश्र तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू ।
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का ।।

होंठ जब होते थे लाल, अब आँखें हो जाती हैं सुर्ख़ ।
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का ।।

दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद ।
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का ।।

गुल‍इज़ारों के मियाँ मिलने की ख़ातिर जब तो हम ।
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का ।।

अब तो यूँ छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई ।
तब बने फिरते थे हम आप ही निशाना ईद का ।।

नींद आती थी न हरगिज़, भूक लगती थी ज़रा ।
यह ख़ुशी होती थी जब होता था आना ईद का ।।

(हश्र=क़यामत,प्रलय, गुल‍इज़ारों=गुलाब जैसे
सुकुमार और कोमल गालों वाली)

34. पहुँची - नज़ीर अकबराबादी

क्यों न उसकी हो दिलरुबा पहुँची ।
जिसके पहुँचे पै हो किफ़ा पहुँची ।
ग़र पहुँच हो तो हम मलें आँखें ।
ऐसी इसकी है ख़ुशनुमा पहुँची ।
दिल को पहुँचे है रंज क्या-क्या वह ।
अपनी लेता है जब छिपा पहुँची ।
एक छड़ी गुल की भेजकर इसको ।
फ़िक्र थी वह न पहुँची या पहुँची ।
सुबह पूंछी रसीद जब तो ’नज़ीर’ ।
दी हमें शोख ने दिखा पहुँची ।।

35. आरसी - नज़ीर अकबराबादी

बनवा के एक आरसी हमने कहा कि लो ।
पकड़ी कलाई उसकी जो वह शाख़सार-सी ।
लेकर बड़े दिमाग और देख यक-ब-यक ।
त्योरी चढ़ा के नाज़ में कुछ करके आरसी ।
झुँझला के दूर फेंक दी और यूँ कहा चै ख़ुश ।
हम मारते हैं ऐसी अंगूठे पै आरसी ।
(शाख़सार=शाख़ जैसी कोमल)

36. ज़ुल्फ़ के फन्दे - नज़ीर अकबराबादी

चहरे पै स्याह नागिन छूटी है जो लहरा कर।
किस पेच से आई है रुख़सार पै बल खाकर॥
जिस काकुलेमुश्कीं में फंसते हैं मलक आकर।
उस जुल्फ़ के फन्दों ने रक्खा मुझे उलझाकर॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥1॥

जिस दिन से हुआ आकर उस जुल्फ का ज़न्दानो।
इक हो गई यह मेरी ख़ातिर की परेशानी॥
भर उम्र न जावेगी अब जी से पशेमानी।
अफ़सोस, कहूं किससे मैं अपनी यह नादानी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥2॥

जिस वक्त लिखी होवे क़िस्मत में गिरफ़्तारी।
कुछ काम नहीं आती फिर अक़्ल की हुशियारी॥
यह कै़द मेरे ऊपर ऐसी ही पड़ी भारी।
रोना मुझे आता है इस बात पै हर बारी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥3॥

उस जुल्फ़ के हबों ने लाखों के तईं मारा।
अल्लाह की ख़्वाहिश से बन्दे का नहीं चारा॥
कुछ बन नहीं आता है, ताक़त है न कुछ यारा।
अब काहे को होता है इस कै़द से छुटकारा॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥4॥

उस जुल्फ़ तलक मुझको काहे को रसाई थी।
क़िस्मत ने मेरी ख़ातिर जंजीर बनाई थी॥
तक़दीर मेरे आगे जिस दम उसे लाई थी।
शायद कि अजल मेरी बनकर वही आई थी॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥5॥

गर चाहे ज़नख़दाँ में मैं डूब के दुख पाता।
यूसुफ की तरह इक दिन आखि़र में निकल आता॥
उस जुल्फ़ की ज़न्दां से कुछ पेश नहीं जाता।
आखि़र यही कह कह कर फिरता हूं मैं घबड़ाता॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥6॥

इसको तो मेरे दिल के डसने की शिताबी है।
और जिसकी वह नागिन है वह मस्त शराबी है॥
इस ग़म से लहू रोकर पुर चश्मे गुलाबी है।
क्या तुर्फ़ा मुसीबत है, क्या सख़्त ख़राबी है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥7॥

हर बन्द मेरे तन का इस कै़द में गलता है।
सर पावों से जकड़ा हूं कुछ बस नहीं चलता है॥
जी सीने में तड़पे है, अश्क आंख से ढलता है।
हर वक़्त यही मिस्रा अब मुंह से निकलता है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥8॥

इस कै़द की सख्ती में संभला हूं, न संभलूंगा।
इस काली बला से मैं जुज़ रंज के क्या लूंगा॥
इस मूज़ी के चंगुल से छूटा हूं न छूटूंगा।
आखि़र को यही कह कह इक रोज़ में जी दूंगा॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥9॥

यह कै़दे फ़रंग ऐसी दुनिया में बुरी शै है।
छूटा न असीर इसका इस कै़द की वह रै है॥
अब चश्म का साग़र है और खूने जिगर मै है।
कुछ बन नहीं आता है, कैसी फिक्र करूं ऐ है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥10॥

कहने को मेरे यारो मत दिल से भूला दीजो।
जं़जीर कोई लाकर पांवों में पिन्हा दीजो॥
मर जाऊं तो फिर मेरा आसार बना दीजो।
मरक़द पै यही मिस्रा तुम मेरे खुदा दीजो॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥11॥

उस जुल्फ़ के फंदे में यों कौन अटकता है।
ज्यों चोर किसी जागह रस्से में लटकता है॥
कांटे की तरह दिल में ग़म आके खटकता है।
यह कहके "नज़ीर" अपना सर ग़म से पटकता है॥
दिल बन्द हुआ, यारो! देखो तो कहां जाकर॥12॥

(काकुलेमुश्कीं=कस्तूरी केश, मलक=फरिश्ते,देवता,
ज़न्दानो=कै़दी, पशेमानी=लज्जा,पछतावा, हबों=साँग,
हथियार, ज़नख़दाँ=ठोड़ी का गड्ढा, आसार=निशान,
मरक़द=कब्र)

37. जब खेली होली नंद ललन - नज़ीर अकबराबादी

जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।

38. क्या कहें आलम में हम इन्सान या हैवान थे
क्या कहें आलम में हम इन्सान या हैवान थे
खाक थे क्या थे ग़रज़ इक आन के मेहमान थे

कर रहे थे अपन क़ब्ज़ा घेरों की इम्लाक पर
छीन ली उसने तो जाना की हम नादान थे

एक दिन एक उस्ख्वान पर जा पड़ा मेरा जो पाँव
क्या कहें उस वक़्त मेरे दिल में क्या-क्या ध्यान थे

पाँव पड़ते ही ग़रज़ उस उस्त्ख्वआं ने आह की
और कहा ज़ालिम कभी हम भी तो साहिब जान थे

दस्तो प् जानू शिरो-गर्दन शिकम पश्तो कमर
देखने को आँख ओ सुनने की खातिर कान थे

अब्रुओ बीनी जबीं नक्शों निगारे खालो रत
लाल मुरवार्रीद से बेहतर लबो दंदांन थे

रात को सोने को क्या क्या नर्मो नाज़ुक थे पलंग
दिन की खातिर बैठने को ताक और एवान थे

एक ही चक्कर अजल ने आन कर ऐसा दिया
न तो हम थे न वो सारे ऐश के सामान थे

ऐसी बेरहमी से मत रख कर पाँव हम पे ऐ "नजीर"
ओ मियां हम की कभी तेरी तरह इंसान थे

39. ईश्वर-वन्दना  - नज़ीर अकबराबादी

इलाही तू फ़य्याज़ और करीम
इलाही तू ग़फ़्फ़ार है और रहीम
मुकद्दस, मुअल्ला, मुनज़्ज़ा, अज़ीम
न तेरा शरीक और न तेरा सहीम
तेरी ज़ाते-बाला है सबसे क़दीम

तेरे हुस्ने-कुदरत ने या किर्दगार !
किये हैं जहां में वो नक़्शो-निगार
पहुंचती नहीं अक़्ल उन्हें ज़र्रा-वार
तहय्युर में हैं देखकर बार-बार
हैं जितने जहां में ज़हीनो-फ़हीम

ज़मी पर समावात गर्दां किये
नजूम उनमें क्या-क्या दरख़्शां किये
नबातात बेहद नुमायां किये
अयां बहर से दुर्रो-मरजां किये
हजर से जवाहर भी और ज़र्रो-सीम

शिगुफ़्ता किये गुल-ब-फ़स्ले-बहार
अनादिल भी और कुमरी-ओ-कब्कसार
बरो-बरगो-नख़्लो-शजर शाख़सार
तरावत से ख़ुशबू से हंगाम-कार
रवां की सबा हर तरफ़ और नसीम

बयां कब हो ख़िलकत की अनवाअ का
जो कुछ हस्र होते तो जावे कहा
खुसूसन बनी-आदमे-ख़ुश-लक़ा
शरफ़ उन सभी में इन्हीं को दिया
ये इस्लाम-ओ-ईमानो-दीने-क़दीम

अता की इन्हें दौलते-माअरिफ़त
इबादत इताअत निको-मंज़िलत
हया, हुस्नो-उल्फ़त, अदब, मस्लहत
तमीज़ो-सुख़न खुल्क ख़ुश-मक़मत
फ़रावां दिये और नाज़ो-नईम

तेरा शुक्रे-अहसां हो किससे अदा
हमें मेह्र से तूने पैदा किया
किये और अल्ताफ़ बे-इंतहा
''नज़ीर'' इस सिवा क्या कहे सर झुका
ये सब तेरे इकराम हैं, या करीम ।
(फ़य्याज़=दानी, करीम=कृपालु, ग़फ़्फ़ार=
क्षमाशील, रहीम=दयालु, मुकद्दस=
पवित्र, मुअल्ला=उच्च, मुनज़्ज़ा=पवित्र,
अज़ीम=उच्च, सहीम=हिस्सेदार, किर्दगार=
विधाता, ज़र्रा-वार=थोड़ी भी, तहय्युर=
हैरानी, ज़हीनो-फ़हीम=बुद्धिमान, समावात=
आकाश, गर्दां=घूमने वाले, नजूम=सितारे,
दरख़्शां=चमकने वाले, नबातात=वनस्पती,
अयां=प्रकट, बहर=समुद्र, दुर्रो-मरजां=
मोती-मूंगे, हजर=पत्थर, ज़र्रो-सीम=सोना-चांदी,
शिगुफ़्ता=प्रफुल्लित, अनादिल=बुलबुलें, कब्कसार=
तीतर, बरो-बर्गो-नख़्लो-शजर=फल,पत्ते,वृक्ष,पौधे,
हंगाम-कार=भरी, सबा=सुबह की हवा, नसीम=
ठंढी हवा, ख़िलक़त=सृष्टि, अनवाअ=किस्मों,
हस्र=सीमा, बनी-आदमे-ख़ुश-लक़ा=सुन्दर मानव
जाति, शरफ़=आदर, माअरिफ़त=ईश्वरीय-ज्ञान,
इबादत=पूजा, इताअत=आज्ञाकारिता,
निको-मंज़िलत=नेकी, खुल्क़=शिष्टाचार, ख़ुश-
मक़मत=दया की भावना, फ़रावां=बहुत ज़्यादा,
नाज़ो-नईम=ऐशो-इशरत, अल्ताफ़=मेहरबानियां)

40. शेख़ सलीम चिश्ती - नज़ीर अकबराबादी

हैं दो जहां के सुल्तां हज़रत सलीम चिश्ती
आलम के दीनो-ईमां हज़रत सलीम चिश्ती
सरदफ़्तरे-मुसलमां हज़रत सलीम चिश्ती
मकबूले-ख़ासे-यज़्दां हज़रत सलीम चिश्ती
सरदारे-मुल्के-इरफ़ां हज़रत सलीम चिश्ती॥1॥

बुर्जे़ असद की रौनक अर्शे बरी के तारे।
गुलज़ारे दीं के गुलबन अल्लाह के संवारे।
यह बात जानो दिल से कहते हैं सब पुकारे।
तुम वह वली हो बरहक़ जो फैज़ से तुम्हारे।
आलम है बाग़ो बुस्तां हज़रत सलीम चिश्ती॥2॥

शाहों के बादशा हो बा-ताज बा-लिवा हो
और किब्लए-सफ़ा हो और काबए-ज़िया हो
ख़िलक़त के रहनुमा हो, दुनिया के मुक़्तदा हो
तुम साहबे-सख़ा हो महबूबे-किब्रिया हो
है तुम से ज़ेबे-इमकां हज़रत सलीम चिश्ती॥3॥

शाहो-गदा हैं ताबेअ सब तेरी मुमलिकत के
लायक तुम्हीं हो शाहा इस कद्रो-मंज़िलत के
परवर्दा हैं तुम्हारे सब ख़्वाने-मक़मत के
शाहा शरफ तू बख़्शे ख़ालिक की सल्तनत के
और तुम हो मीरे-सामां हज़रत सलीम चिश्ती॥4॥

है नामे-पाक तेरा मशहूर शहरो-बन में
करती हैं याद तुमको ये जानें हैं जो तन में
है ख़ुल्क़ की तुम्हारे खुशबू गुलो-समन में
खिदमत में है तुम्हारी फ़िरदौस के चमन में
जन्नत के हूरो-ग़िल्मां, हज़रत सलीम चिश्ती॥5॥

काबा समझ के अपना मुश्ताक़ तेरे दर को।
करते हैं आ ज़ियारत दिल से झुकाके सर को।
औसाफ़ तेरे हर दम पाते हैं सीमो-ज़र को।
पढ़ते हैं मदह तेरी गुलशन में हर सहर को।
हो बुलबुले खु़शइलहाँ हज़रत सलीम चिश्ती॥6॥

है सल्तनत जहां की सब तेरे ज़ेरे-फ़रमां
चाकर हैं तेरे दर के फ़ग़फूर और खाक़ां
ख़्वाने-करम पे तेरे है ख़ल्क सारी मेहमां
हैं हुक्म में तुम्हारे जिन्नो-परी-ओ-इंसां
हो वक़्त के सुलेमां हज़रत सलीम चिश्ती॥7॥

तुम सबसे हो मुअज़्ज़म और सबसे हो मुकर्रम
ख़िलक़त हुई तुम्हारी सब नूर से मुजस्सम
और ख़ूबियां जहां की तुम पर हुई मुसल्लम
अब्रे-करम से तेरे दायम है सब्ज़ो-खुर्रम
आलम का सब गुलिस्तां हज़रत सलीम चिश्ती॥8॥

पुश्तो-पनाह हो तुम हर इक गदा-व-शह के
मुहताज है तुम्हारी इक लुत्फ़ की निगह के
मंजिल पे आके पहुंचे सालिक तुम्हारी रह के
ख़ाके-कदम तुम्हारी और चश्म मेहो-मह के
हो रोशनी के सामां हजरत सलीम चिश्ती॥9॥

चश्मो चिराग़ हो तुम अब जुम्ला मोमिनी के।
रौशन हैं तुमसे पर्दे सब आस्मां ज़मीं के।
बेशक ज़ियाये दिल हो हर साहिबे यक़ीं के।
ज़र्रा नहीं तफ़ावुत तुम आस्मां हो दीं के।
हो आफ़ताबे रख़्शां हज़रत सलीम चिश्ती॥10॥

आलम है सब मुअत्तर तेरे क़रम की बू से
हुरमत है दोस्तों को हज़रत तुम्हारे रू से
यह चाहता हूं अब मैं सौ दिल की आरज़ू से
रखियो ''नज़ीर'' को तुम दो जग में आबरू से
ऐ मूजिदे-हर-अहसां हज़रत सलीम चिश्ती॥11॥
(सरदफ़्तरे-मुसलमां=मुसलमानों के नायक,
मकबूले-ख़ासे-यज़्दां=ईश्वर के परम प्यारे,
बुर्जे़ असद=सिंह राशि, अर्शे बरी=ऊंचे
आसमान, गुलबन=गुलाब का पौधा,
बरहक़=सच, फैज़=उपकार, बुस्तां=बाग़,
इरफ़ां=ज्ञान के, बा-लिवा=झंडे वाले,
किब्लए-सफ़ा=पवित्रता के पूज्य, काबए-
ज़िया=प्रकाश के पूज्य, मुक़्तदा=राह
दिखाने वाले, सख़ा=दानी, महबूबे-किब्रिया=
रब के प्यारे, ज़ेबे-इमकां=दुनिया की रौनक,
कद्रो-मंज़िलत=आदर, परवर्दा=पाले हुए,
ख़्वाने-मक़मत=कृपा का दान, शरफ़=इज़्ज़त,
मीरे-सामां=संसार के नायक,ख़ुल्क=सदाचार,
गुलो-समन=गुलाब-चमेली, फ़िरदौस=स्वर्ग,
मुश्ताक़=अभिलाषी, ज़ियारत=मिलना,दर्शन
करना, औसाफ़=खूबियाँ, सीमो-ज़र=चांदी-
सोना, मदह=स्तुति, सहर=सुबह, खु़शइलहाँ=
अच्छे स्वर वाली, फ़ग़फूर=पुराने चीन के
बादशाह, खाकां=पुराने,तुर्क बादशाह, ख़ल्क़=
संसार, मुअज़्ज़म=महान, मुकर्रम=सम्मानित,
मुसल्लम=पूरा, अब्रे-करम=कृपा के बादल,
दायम=सदा, सब्ज़ो-खुर्रम=प्रसन्न और हरा,
पुश्तो-पनाह=सहारा, सालिक=चलने वाले,
चश्म=आँख, मेहो-मह=सूर्य-चाँद, जुम्ला=
समग्र, मोमिनी=ईमान वाले, ज़ियाये=
रोशनी, ज़र्रा=कण, तफ़ावुत=फ़र्क, आफ़ताबे
रख़्शां=चमकता हुआ सूरज, मुअत्तर=
सुगंधित, क़रम=कृपा, मूजिदे-हर-अहसां=हर
कृपा करने वाले)

41. दीवाली - नज़ीर अकबराबादी

हमें अदाएँ दीवाली की ज़ोर भाती हैं ।
कि लाखों झमकें हरएक घर में जगमगाती हैं ।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं ।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।1।

गुलाबी बर्फ़ियों के मुंह चमकते-फिरते हैं ।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं ।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं ।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।2।

मिठाईयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं ।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं ।
नबात, सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं ।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।3।

जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं ।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाए बैठे हैं ।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं ।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।4।

उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग ।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग ।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग ।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।5।

दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है ।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है ।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है ।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।6।

कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है ।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है ।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है ।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।7।

और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं ।
और हर सू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं ।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं ।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।8।

अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है ।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है ।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है ।
गरज़ मैं क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दीवाली है ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।9।

जो गुलाब-रू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ ।
निगाहें आशि‍कों की हार हो गले पड़ियाँ ।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।10।

क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है ।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है ।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है ।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।11।

कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं ।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं ।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं ।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।12।

किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है ।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है ।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है ।
अजब दीवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।13।

धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान ।
गोया दरख़्त से ही उड़कर हैं बैठे आन ।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान ।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।14।

कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है ।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है ।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है ।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।15।

‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा ।
फ़क़्त दीवाली की सब सैर है अहा हा ! हा ।
निषात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा ।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा ।

खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं ।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं ।16।

42. झोंपड़ा - नज़ीर अकबराबादी

ये तन जो है हर इक के उतारे का झोंपड़ा
इस से है अब भी सब के सहारे का झोंपड़ा
इस से है बादशह के नज़ारे का झोंपड़ा
इस में ही है फ़क़ीर बिचारे का झोंपड़ा
अपना न मोल है न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस में ही भोले-भाले इसी में सियाने हैं
इस में ही होशियार इसी में दिवाने हैं
इस में ही दुश्मन इस में ही अपने बेगाने हैं
शा-झोंपड़ा भी अपने इसी में नमाने हैं
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस में ही लोग इश्क़-ओ-मोहब्बत के मारे हैं
इस में ही शोख़ हुस्न के चाँद और सितारे हैं
इस में ही यार-दोस्त इसी में पियारे हैं
शा-झोंपड़ा भी अपने इसी में बिचारे हैं
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस में ही अहल-ए-दौलत-ओ-मुनइम अमीर हैं
इस में ही रहते सारे जहाँ के फ़क़ीर हैं
इस में ही शाह और इसी में वज़ीर हैं
इस में ही हैं सग़ीर इसी में कबीर हैं
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस में ही चोर-ठग हैं इसी में अमोल हैं
इस में ही रोनी शक्ल इसी में ढिढोल हैं
इस में ही बाजे और नक़ारे-ओ-ढोल हैं
शा-झोंपड़ा भी इस में ही करते कलोल हैं
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस में ही पारसा हैं इसी में लवंद हैं
बेदर्द भी इसी में है और दर्दमंद हैं
इस में ही सब परंद इसी में चरंद हैं
शा-झोंपड़ा भी अब इसी डर बे बंद हैं
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

इस झोंपड़े में रहते हैं सब शाह और वज़ीर
इस में वकील बख़्शी ओ मुतसद्दी और अमीर
इस में ही सब ग़रीब हैं इस में ही सब फ़क़ीर
शा-झोंपड़ा जो कहते हैं सच है मियाँ 'नज़ीर'
अपना न मोल का न इजारे का झोंपड़ा
बाबा ये तन है दम के गुज़ारे का झोंपड़ा

43. पैसा - नज़ीर अकबराबादी

नक़्श याँ जिस के मियाँ हाथ लगा पैसे का
उस ने तय्यार हर इक ठाठ किया पैसे का
घर भी पाकीज़ा इमारत से बना पैसे का
खाना आराम से खाने को मिला पैसे का
कपड़ा तन का भी मिला ज़ेब-फ़ज़ा पैसे का॥1॥

जब हुआ पैसे का ऐ दोस्तो आ कर संजोग
इशरतें पास हुईं दूर हुए मन के रोग
खाए जब माल-पूए दूध दही मोहन-भोग
दिल को आनंद हुए भाग गए रोग और धोग
ऐसी ख़ूबी है जहाँ आना हुआ पैसे का॥2॥

साथ इक दोस्त के इक दिन जो मैं गुलशन में गया
वाँ के सर्व-ओ-सुमन-ओ-लाला-ओ-गुल को देखा
पूछा उस से कि ये है बाग़ बताओ किस का
उस ने तब गुल की तरह हँस दिया और मुझ से कहा
मेहरबाँ मुझ से ये तुम पूछा हो क्या पैसे का॥3॥

ये तो क्या और जो हैं इस से बड़े बाग़-ओ-चमन
हैं खिले कियारियों में नर्गिस-ओ-नसरीन-ओ-समन
हौज़ फ़व्वारे हैं बंगलों में भी पर्दे चलवन
जा-ब-जा क़ुमरी-ओ-बुलबुल की सदा शोर-अफ़्गन
वाँ भी देखा तो फ़क़त गुल है खिला पैसे का॥4॥

वाँ कोई आया लिए एक मुरस्सा पिंजङ़ा
लाल दस्तार-ओ-दुपट्टा भी हरा जूँ-तोता
इस में इक बैठी वो मैना कि हो बुलबुल भी फ़िदा
मैं ने पूछा ये तुम्हारा है रहा वो चुपका
निकली मिन्क़ार से मैना के सदा पैसे का॥5॥

वाँ से निकला तो मकाँ इक नज़र आया ऐसा
दर-ओ-दीवार से चमके था पड़ा आब-ए-तला
सीम चूने की जगह उस की था ईंटों में लगा
वाह-वा कर के कहा मैं ने ये होगा किस का
अक़्ल ने जब मुझे चुपके से कहा पैसे का॥6॥

रूठा आशिक़ से जो माशूक़ कोई हट का भरा
और वो मिन्नत से किसी तौर नहीं है मनता
ख़ूबियाँ पैसे की ऐ यारो कहूँ मैं क्या क्या
दिल अगर संग से भी उस का ज़ियादा था कड़ा
मोम-सा हो गया जब नाम सुना पैसे का॥7॥

जिस घड़ी होती है ऐ दोस्तो पैसे की नुमूद
हर तरह होती है ख़ुश-वक़्ती-ओ-ख़ूबी बहबूद
ख़ुश-दिली ताज़गी और ख़ुर्मी करती है दुरूद
जो ख़ुशी चाहिए होती है वहीं आ मौजूद
देखा यारो तो ये है ऐश-ओ-मज़ा पैसे का॥8॥

पैसे वाले ने अगर बैठ के लोगों में कहा
जैसा चाहूँ तो मकाँ वैसा ही डालूँ बनवा
हर्फ़-ए-तकरार किसी की जो ज़बाँ पर आया
उस ने बनवा के दिया जल्दी से वैसा ही दिखा
उस का ये काम है ऐ दोस्तो या पैसे का॥9॥

नाच और राग की भी ख़ूब-सी तय्यारी है
हुस्न है नाज़ है ख़ूबी है तरह-दारी है
रब्त है प्यार है और दोस्ती है यारी है
ग़ौर से देखा तो सब ऐश की बिस्यारी है
रूप जिस वक़्त हुआ जल्वा-नुमा पैसे का॥11॥

दाम में दाम के यारो जो मिरा दिल है असीर
इस लिए होती है ये मेरी ज़बाँ से तक़रीर
जी में ख़ुश रहता है और दिल भी बहुत ऐश-पज़ीर
जिस क़दर हो सका मैं ने किया तहरीर 'नज़ीर'
वस्फ़ आगे मैं लिखूँ ता-ब-कुजा पैसे का॥12॥
(नक़्श=ताबीज़, जे़ब फ़िज़ा=सुन्दरता बढ़ाने वाला,
इश्रतें=खुशियां, कु़मरीयो=सफेद पक्षी, सदा=आवाज़,
मुरस्सा=जड़ाऊ, आबे-तिला=सोने का पानी, सीम=
चांदी, संग=पत्थर, नुमूद=आमद,बढ़ोतरी, खुर्रमी=
प्रसन्नता, वरूद=आगमन, तकरार=वाद-विवाद,
रब्त=लगाव-सम्बन्ध, दाम=फंदा,बंधन, असीर=
कैदी,बंदी, बस्फ़=प्रशंसा,तारीफ़, कुंजा=कहां तक,
कब तक)

44. फ़ना - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया में कोई शाद कोई दर्द-नाक है
या ख़ुश है या अलम के सबब सीना-चाक है
हर एक दम से जान का हर-दम तपाक है
नापाक तन पलीद नजिस या कि पाक है
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

है आदमी की ज़ात का उस जा बड़ा ज़ुहूर
ले अर्श ता-ब-फ़र्श चमकता है जिस का नूर
गुज़रे है उन की क़ब्र पे जब वहश और तुयूर
रो रो यही कहे है हर इक क़ब्र के हुज़ूर
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

दुनिया से जब कि अंबिया और औलिया उठे
अज्साम-ए-पाक उन के इसी ख़ाक में रहे
रूहें हैं ख़ूब जान में रूहों के हैं मज़े
पर जिस्म से तो अब यही साबित हुआ मुझे
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

वो शख़्स थे जो सात विलायत के बादशाह
हशमत में जिन की अर्श से ऊँची थी बारगाह
मरते ही उन के तन हुए गलियों की ख़ाक-ए-राह
अब उन के हाल की भी यही बात है गवाह
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

किस किस तरह के हो गए महबूब-ए-कज-कुलाह
तन जिन के मिस्ल-ए-फूल थे और मुँह भी रश्क-ए-माह
जाती है उन की क़ब्र पे जिस-दम मिरी निगाह
रोता हूँ जब तो मैं यही कह कह के दिल में आह
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

वो गोरे गोरे तन कि जिन्हों की थी दिल में जाए
होते थे मैले उन के कोई हाथ गर लगाए
सो वैसे तन को ख़ाक बना कर हवा उड़ाए
रोना मुझे तो आता है अब क्या कहूँ मैं हाए
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

उम्दों के तन को ताँबे के संदूक़ में धरा
मुफ़्लिस का तन पड़ा रहा माटी-उपर पड़ा
क़ाएम यहाँ ये और न साबित वो वाँ रहा
दोनों को ख़ाक खा गई यारो कहूँ में क्या
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

गर एक को हज़ार रूपे का मिला कफ़न
और एक यूँ पड़ा रहा है बे-कस बरहना-तन
कीड़े मकोड़े खा गए दोनों के तन-बदन
देखा जो हम ने आह तो सच है यही सुख़न
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

जितने जहाँ में नाज हैं कंगनी से ता-गेहूँ
और जितने मेवा-जात हैं तर ख़ुश्क गूना-गूं
कपड़े जहाँ तलक हैं सपीदा ओ सियह नुमूं
किम-ख़्वाब ताश बादिला किस किस का नाम लूँ
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

जितने दरख़्त देखो हो बूटे से ता-ब-झाड़
बड़ पीपल आँब नीब छुआरा खजूर ताड़
सब ख़ाक होंगे जब कि फ़ना डालेगी उखाड़
क्या बूटें डेढ़ पात के क्या झाड़ क्या पहाड़
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

जितना ये ख़ाक का है तिलिस्मात बन रहा
फिर ख़ाक उस को होता है यारो जुदा जुदा
तरकारी साग पात ज़हर अमृत और दवा
ज़र सीम कौड़ी लाल ज़मुर्रद और इन सवा
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

गढ़ कोट तोप रहकला तेग़ ओ कमान-ओ-तीर
बाग़-ओ-चमन महल्ल-ओ-मकानात दिल-पज़ीर
होना है सब को आह इसी ख़ाक में ख़मीर
मेरी ज़बाँ पे अब तो यही बात है 'नज़ीर'
जो ख़ाक से बना है वो आख़िर को ख़ाक है

45. मुफ़्लिसी - नज़ीर अकबराबादी

जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़्लिसी
किस किस तरह से इस को सताती है मुफ़्लिसी
प्यासा तमाम रोज़ बिड़ाती है मुफ़्लिसी
भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़्लिसी
ये दुख वो जाने जिस पे कि आती है मुफ़्लिसी

कहिए तो अब हकीम की सब से बड़ी है शाँ
ताज़ीम जिस की करते हैं तो अब और ख़ाँ
मुफ़्लिस हुए तो हज़रत-ए-लुक़्माँ किया है याँ
ईसा भी हो तो कोई नहीं पूछता मियाँ
हिकमत हकीम की भी ढुबाती है मुफ़्लिसी

जो अहल-ए-फ़ज़्ल आलिम ओ फ़ाज़िल कहाते हैं
मुफ़्लिस हुए तो कलमा तलक भूल जाते हैं
वो जो ग़रीब-ग़ुरबा के लड़के पढ़ाते हैं
उन की तो उम्र भर नहीं जाती है मुफ़्लिसी

मुफ़्लिस करे जो आन के महफ़िल के बीच हाल
सब जानें रोटियों का ये डाला है इस ने जाल
गिर गिर पड़े तो कोई न लिए उसे सँभाल
मुफ़्लिस में होवें लाख अगर इल्म और कमाल
सब ख़ाक बीच आ के मिलाती है मुफ़्लिसी

जब रोटियों के बटने का आकर पड़े शुमार
मुफ़्लिस को देवें एक तवंगर को चार चार
गर और माँगे वो तो उसे झिड़कें बार बार
मुफ़्लिस का हाल आह बयाँ क्या करूँ मैं यार
मुफ़्लिस को इस जगह भी चबाती है मुफ़्लिसी

मुफ़्लिस की कुछ नज़र नहीं रहती है आन पर
देता है अपनी जान वो एक एक नान पर
हर आन टूट पड़ता है रोटी के ख़्वान पर
जिस तरह कुत्ते लड़ते हैं इक उस्तुख़्वान पर
वैसा ही मुफ़्लिसों को लड़ाती है मुफ़्लिसी

करता नहीं हया से जो कोई वो काम आह
मुफ़्लिस करे है उस के तईं इंसिराम आह
समझे न कुछ हलाल न जाने हराम आह
कहते हैं जिस को शर्म-ओ-हया नंग-ओ-नाम आह
वो सब हया-ओ-शर्म उड़ाती है मुफ़्लिसी

ये मुफ़्लिसी वो शय है कि जिस घर में भर गई
फिर जितने घर थे सब में उसी घर के दर गई
ज़न बच्चे रोते हैं गोया नानी गुज़र गई
हम-साया पूछते हैं कि क्या दादी मर गई
बिन मुर्दे घर में शोर मचाती है मुफ़्लिसी

लाज़िम है गर ग़मी में कोई शोर-ग़ुल मचाए
मुफ़्लिस बग़ैर ग़म के ही करता है हाए हाए
मर जावे गर कोई तो कहाँ से उसे उठाए
इस मुफ़्लिसी की ख़्वारियाँ क्या क्या कहूँ मैं हाए
मुर्दे को बे कफ़न के गड़ाती है मुफ़्लिसी

क्या क्या मुफ़्लिसी की कहूँ ख़्वारी फकड़ियाँ
झाड़ू बग़ैर घर में बिखरती हैं झकड़ियाँ
कोने में जाले लपटे हैं छप्पर में मकड़ियाँ
पैसा न होवे जिन के जलाने को लकड़ियाँ
दरिया में उन के मुर्दे बहाती है मुफ़्लिसी

बी-बी की नथ न लड़कों के हाथों कड़े रहे
कपड़े मियाँ के बनिए के घर में पड़े रहे
जब कड़ियाँ बिक गईं तो खंडर में पड़े रहे
ज़ंजीर ने किवाड़ न पत्थर गड़े रहे
आख़िर को ईंट ईंट खुदाती है मुफ़्लिसी

नक़्क़ाश पर भी ज़ोर जब आ मुफ़्लिसी करे
सब रंग दम में कर दे मुसव्विर के किर्किरे
सूरत भी उस की देख के मुँह खिंच रहे परे
तस्वीर और नक़्श में क्या रंग वो भरे
उस के तो मुँह का रंग उड़ाती है मुफ़्लिसी

जब ख़ूब-रू पे आन के पड़ता है दिन सियाह
फिरता है बोसे देता है हर इक को ख़्वाह-मख़ाह
हरगिज़ किसी के दिल को नहीं होती उस की चाह
गर हुस्न हो हज़ार रूपे का तो उस को आह
क्या कौड़ियों के मोल बिकाती है मुफ़्लिसी

उस ख़ूब-रू को कौन दे अब दाम और दिरम
जो कौड़ी कौड़ी बोसे को राज़ी हो दम-ब-दम
टोपी पुरानी दो तो वो जाने कुलाह-ए-जिस्म
क्यूँकर न जी को उस चमन-ए-हुस्न के हो ग़म
जिस की बहार मुफ़्त लुटाती है मुफ़्लिसी

आशिक़ के हाल पर भी जब आ मुफ़्लिसी पड़े
माशूक़ अपने पास न दे उस को बैठने
आवे जो रात को तो निकाले वहीं उसे
इस डर से यानी रात ओ धन्ना कहीं न दे
तोहमत ये आशिक़ों को लगाती है मुफ़्लिसी

कैसे ही धूम-धाम की रंडी हो ख़ुश-जमाल
जब मुफ़्लिसी हो कान पड़े सर पे उस के जाल
देते हैं उस के नाच को ढट्ढे के बीच डाल
नाचे है वो तो फ़र्श के ऊपर क़दम सँभाल
और उस को उँगलियों पे नचाती है मुफ़्लिसी

उस का तो दिल ठिकाने नहीं भाव क्या बताए
जब हो फटा दुपट्टा तो काहे से मुँह छुपाए
ले शाम से वो सुब्ह तलक गो कि नाचे गाए
औरों को आठ सात तो वो दो टके ही पाए
इस लाज से इसे भी लजाती है मुफ़्लिसी

जिस कसबी रंडी का हो हलाकत से दिल हज़ीं
रखता है उस को जब कोई आ कर तमाश-बीं
इक पौन पैसे तक भी वो करती नहीं नहीं
ये दुख उसी से पूछिए अब आह जिस के तईं
सोहबत में सारी रात जगाती है मुफ़्लिसी

वो तो ये समझे दिल में कि ढेला जो पाऊँगी
दमड़ी के पान दमड़ी के मिस्सी मँगाऊँगी
बाक़ी रही छदाम सो पानी भराऊँगी
फिर दिल में सोचती है कि क्या ख़ाक खाऊँगी
आख़िर चबीना उस का भुनाती है मुफ़्लिसी

जब मुफ़्लिसी से होवे कलावंत का दिल उदास
फिरता है ले तम्बूरे को हर घर के आस-पास
इक पाव सेर आने की दिल में लगा के आस
गोरी का वक़्त होवे तो गाता है वो बभास
याँ तक हवास उस के उड़ाती है मुफ़्लिसी

मुफ़्लिस बियाह बेटी का करता है बोल बोल
पैसा कहाँ जो जा के वो लावे जहेज़ मोल
जोरू का वो गला कि फूटा हो जैसे ढोल
घर की हलाल-ख़ोरी तलक करती है ढिढोल
हैबत तमाम उस की उठाती है मुफ़्लिसी

बेटे का बियाह हो तो न ब्याही न साथी है
न रौशनी न बाजे की आवाज़ आती है
माँ पीछे एक मैली चदर ओढ़े जाती है
बेटा बना है दूल्हा तो बावा बराती है
मुफ़्लिस की ये बरात चढ़ाती है मुफ़्लिसी

गर ब्याह कर चला है सहर को तो ये बला
शहदार नाना हीजड़ा और भाट मंड-चढ़ा
खींचे हुए उसे चले जाते हैं जा-ब-जा
वो आगे आगे लड़ता हुआ जाता है चला
और पीछे थपड़ियों को बजाती है मुफ़्लिसी

दरवाज़े पर ज़नाने बजाते हैं तालियाँ
और घर में बैठी डोमनी देती हैं गालियाँ
मालन गले की हार हो दौड़ी ले डालियाँ
सुक़्क़ा खड़ा सुनाता है बातें रज़ालियाँ
ये ख़्वारी ये ख़राबी दिखाती है मुफ़्लिसी

कोई शूम बे-हया कोई बोला निखट्टू है
बेटी ने जाना बाप तो मेरा निखट्टू है
बेटे पुकारते हैं कि बाबा निखट्टू है
बी-बी ये दिल मैं कहती है अच्छा निखट्टू है
आख़िर निखट्टू नाम धराती है मुफ़्लिसी

मुफ़्लिस का दर्द दिल में कोई ठानता नहीं
मुफ़्लिस की बात को भी कोई मानता नहीं
ज़ात और हसब-नसब को कोई जानता नहीं
सूरत भी उस की फिर कोई पहचानता नहीं
याँ तक नज़र से उस को गिराती है मुफ़्लिसी

जिस वक़्त मुफ़्लिसी से ये आ कर हुआ तबाह
फिर कोई इस के हाल प करता नहीं निगाह
दालीदरी कहे कोई ठहरा दे रू-सियाह
जो बातें उम्र भर न सुनी होवें उस ने आह
वो बातें उस को आ के सुनाती हैं मुफ़्लिसी

चूल्हा तवाना पानी के मटके में आबी है
पीने को कुछ न खाने को और ने रकाबी है
मुफ़्लिस के साथ सब के तईं बे-हिजाबी है
मुफ़्लिस की जोरू सच है कि याँ सब की भाबी है
इज़्ज़त सब उस के दिल की गंवाती है मुफ़्लिसी

कैसा ही आदमी हो पर अफ़्लास के तुफ़ैल
कोई गधा कहे उसे ठहरा दे कोई बैल
कपड़े फटे तमाम बढ़े बाल फैल फैल
मुँह ख़ुश्क दाँत ज़र्द बदन पर जमा है मैल
सब शक्ल क़ैदियों की बनाती है मुफ़्लिसी

हर आन दोस्तों की मोहब्बत घटाती है
जो आश्ना हैं उन की तो उल्फ़त घटाती है
अपने की मेहर ग़ैर की चाहत घटाती है
शर्म-ओ-हया ओ इज़्ज़त-ओ-हुर्मत घटाती है
हाँ नाख़ुन और बाल बढ़ाती है मुफ़्लिसी

जब मुफ़्लिसी हुई तो शराफ़त कहाँ रही
वो क़द्र ज़ात की वो नजाबत कहाँ रही
कपड़े फटे तो लोगों में इज़्ज़त कहाँ रही
ताज़ीम और तवाज़ो की बाबत कहाँ रही
मज्लिस की जूतियों पे बिड़ाती है मुफ़्लिसी

मुफ़्लिस किसी का लड़का जो ले प्यार से उठा
बाप उस का देखे हाथ का और पाँव का कड़ा
कहता है कोई जूती न लेवे कहीं चुरा
नट-खट उचक्का चोर दग़ाबाज़ गठ-कटा
सौ सौ तरह के ऐब लगाती है मुफ़्लिसी

रखती नहीं किसी की ये ग़ैरत की आन को
सब ख़ाक में मिलाती है हुर्मत की शान को
सौ मेहनतों में उस की खपाती है जान को
चोरी पे आ के डाले ही मुफ़्लिस के ध्यान को
आख़िर नदान भीक मंगाती है मुफ़्लिसी

दुनिया में ले के शाह से ऐ यार ता-फ़क़ीर
ख़ालिक़ न मुफ़्लिसी में किसी को करे असीर
अशराफ़ को बनाती है इक आन में फ़क़ीर
क्या क्या मैं मुफ़्लिसी की ख़राबी कहूँ नज़ीर
वो जाने जिस के दिल को जलाती है मुफ़्लिसी

(मुफ़्लिसी=गरीबी,दरिद्रता, अहले फ़ज्ल आलिमो
फ़ाजिल=दुनियां वालों पर रहम करने वाले,स्नातक,
ख़्वान=दस्तरख़्वान,कपड़ा जिस पर खाना खाते हैं,
उस्तुख़्वान=हड्डी, इन्सिराम=प्रबन्ध, शर्मो हया
नंगोनाम=लज्जा,गैरत, हमसाये=पड़ोसी, नक़्क़ाश=
चित्रकार, मुसब्विर=तस्वीर बनाने वाला, ख़ूबरू=
सुन्दर,रूपवान, दिर्हम=चांदी का छोटा सिक्का,
चवन्नी, कुलाहे जम=ईरान के बादशाह जमशेद
का ताज, दालिद्दरी=दरिद्र, बेहिज़ाबी=बेपर्दगी,
तुफैल=कारण, हुर्मत=प्रतिष्ठा,इज़्ज़त, अशराफ़=
शरीफ लोग, हक़ीर=तुच्छ,छोटा)


Tags:  नज़ीर अकबराबादी की गजलें,नजीर अकबराबादी के प्रकृति वर्णन की प्रमुख विशेषताओं को रेखांकित कीजिए,नज़ीर अकबराबादी का जीवन परिचय,कृष्ण उर्दू नज़्म में,ज़ीर अकबराबादी दीवाली,जाने माने शायरों की शायरी,नज़ीर का अर्थ हिंदी में,जब आदमी के हाल पे आती है मुफलिसी,



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