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हिंदी कविता
मनुष्य जीवन पर कविताएँ नज़ीर अकबराबादी
Manushya Jeevan Par Kavitayen Nazeer Akbarabadi
Poem About Life in Hindi - Nazeer Akbarabadi
1. बचपन - नज़ीर अकबराबादी
क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।
दिल में किसी के हरगिज़ न शर्म न हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना ।।
माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।
जो कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते हैं ।।
बाबा की मूँछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें ।
क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।।
जो उनको दो सो खा लें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।।
भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।।
ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले ।
क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।
(सलोना =नमकीन, आलम=दुनिया)
2. बचपन के मज़े - नज़ीर अकबराबादी
क्या बक़्त था वह हम थे जब दूध के चटोरे।
हर आन आंचलों के मामूर थे कटोरे।
पांवों में काले टीके, हाथों में नीले डोरे।
या चांद सी हो सूरत, या सांवरे व गोरे॥
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥1॥
गुल की तरह से हर दम सीने पे फूलते थे।
पी-पी के दूध माँ का खुश होके फूलते थे॥
मां बाप उनकी खि़दमत सर पर कुबूलते थे।
हाथों में खेलते थे झूलों में झूलते थे॥
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥2॥
ने दोस्ती किसी से, ने दिल में उनके कीना।
जानें न बे क़रीना, ने समझें कुछ करीना॥
ने गर्मियों से बाक़िफ़, ने जानते पसीना।
छाती से माँ की लिपटे खुश उनको दूध पीना॥
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥3॥
जो देखे उनकी सूरत, ले प्यार से खिलावे।
हाथों उपर उछाले, और छेड़ कर हंसावे।
चूमे कभी दहन को, छाती कभी लगावे।
कोई चुस्नी मुंह में देवे कोई झुनझुना बजावे।
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥4॥
छोटा सा कोई कुर्ता उनका निकालता है।
या छोटी-छोटी टोपी सर पर संभालता है।
मां दूध है पिलाती, और बाप पालता है।
नाना गले लगावे, दादा उछालता है।
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥5॥
क्या उम्र है अज़ीज़ी और क्या यह वक़्त हैगा।
जब घुटनियों पे आये फिर और कुछ तमाशा।
पांवों चले तो वां से फिर और प्यार ठहरा।
सब ज़िंदगी का ख़त है उनको "नज़ीर" अहा हा।
क्या सैर देखते हैं यह तिफ़्ल शीर ख़ोरे॥6॥
(मामूर=भरे हुए,नियुक्त, तिफ़्ल शीर ख़ोरे=
दूध पीते बच्चे, कीना=द्वेष, करीना=ढंग,
शिष्टता, दहन=मुँह)
3. जवानी - नज़ीर अकबराबादी
बना है अपने आलम में वह कुछ आलम जवानी का।
कि उम्रे खिज्र से बेहतर है एक एक दम जवानी का॥
नहीं बूढ़ों की दाढ़ी पर मियां यह रंग बिस्मे का।
किया है उनके एक एक बाल ने मातम जवानी का॥
यह बूढ़े गो कि अपने मुंह से शेख़ी में नहीं कहते।
भरा है आह पर इन सबके दिल में ग़म जवानी का॥
यह पीराने जहां इस वास्ते रोते हैं अब हर दम।
कि क्या-क्या इनका हंगामा हुआ बरहम जवानी का॥
किसी की पीठ कुबड़ी को भला ख़ातिर में क्या लावे।
अकड़ में नौ जवानों के जो मारे दम जवानी का॥
शराबो गुलबदन साक़ी मजे़ ऐशोतरब हर दम।
बहारे जिन्दगी कहिये तो है मौसम जवानी का॥
”नज़ीर“ अब हम उड़ाते हैं मजे़ क्या-क्या अहा! हा! हा
बनाया है अजब अल्लाह ने आलम जवानी का॥
(बरहम=अस्त-व्यस्त, ऐशोतरब=आनन्द, हर्ष उल्लास)
4. जवानी के मज़े - नज़ीर अकबराबादी
क्या ऐश की रखती है सब आहंग जवानी।
करती है बहारों के तई दंग जवानी॥
हर आन पिलाती है मै और बंग जवानी।
करती है कहीं सुलह कहीं जंग जवानी॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥1॥
अल्लाह ने जवानी का यह आलम है बनाया।
जो हर कहीं आशिक, कहीं रुसवा, कहीं शैदा॥
फंदे में कहीं जी है, कहीं दिल है तड़पता।
मरते हैं, सिसकते हैं, बिलखते हैं, अहा! हा! ॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥2॥
ने मै का ना माजून के मंगवाने का कुछ ग़म।
ना दिल के लगाने का, न गुल खाने का कुछ ग़म॥
गाली का न, आंखों के लड़ाने का कुछ ग़म।
हंसने का, न छाती से लिपट जाने का कुछ ग़म॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥3॥
लड़ती है कहीं आंख, कहीं दस्त कहीं सैन।
झूठा है कहीं प्यार, किसी से है लगे नैन।
वादा कहीं, इक़रार कहीं, सैन कहीं, नैन।
नै जी को फ़राग़त है न आंखों के तई चैन।
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥4॥
उल्फ़त है कहीं, मेहरो मुहब्बत है, कहीं चाह।
करता है कोई चाह, कोई देख रहा राह॥
साक़ी है सुराही है, परीज़ाद हैं हमराह।
क्या ऐश हैं, क्या ऐश हैं, क्या ऐश हैं वल्लाह॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥5॥
चहरे पे अबानी का जो आकर है चढ़ा नूर।
रह जाती है परियां भी ग़रज़ उसके तईं घूर॥
छाती से लिपटती हैं कोई हुस्न की मग़रूर।
गोदी में पड़ी लोटे है चंचल सी कोई हूर॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥6॥
गर रात किसी पास रहे ऐश में ग़ल्तां।
और वां से किसी और के मिलने का हुआ ध्यां॥
घबरा के उठे जब तो गिरे पांव पर हर आं।
कहती है "हमें छोड़ के जाते हो किधर जां"॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥7॥
रस्ते में निकलते हैं तो होती हैं यह चाहें।
वह शोख़ कि हो बंद जिन्हें देख के राहें॥
खाँसे है कोई हंस के, कोई भरती है आहें।
पड़ती है हर एक जा से निगाहों पे निगाहें॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥8॥
तनते हैं अगर ऐंठ के चलते हैं अज़ब चाल।
जो पांव कहीं, राह कहीं, सैफ़ कहीं ढाल॥
खींचे हैं कहीं बाल, कहीं तोड़ लिया गाल।
चढ़ बैठे कहीं, हाथ कहीं मुंह को दिया डाल॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥9॥
जाते हैं तवायफ़ में तो वां होती है यह चाव।
कहती है कोई "इनके लिए पान बना लाव"॥
कोई कहती है "यां बैठो," कोई कहती है "वां आव"।
नाचे है कोई शोख़, बताती है कोई भाव॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥10॥
हंस हंस के कोई हुस्न की छल बल है दिखाती।
मिस्सी कोई सुरमा, कोई काज़ल है दिखाती॥
चितवन की लगावट, कोई चंचल है दिखाती।
कुर्ती, कोई अंगिया, कोई आंचल है दिखाती॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥11॥
कहती है कोई "रात मेरे पास न आये"।
कहती है कोई "हमको भी ख़ातिर में न लाये"।
कहती है कोई "किसने तुम्हें पान खिलाए"।
कहती है कोई "घर को जो जाये हमें खाए"।
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥12॥
आया है जो कोई हुस्न का बूटा या कोई झाड़।
जा शोख से झट लिपटे यह पंजों के तई झाड़।
अंगिया के तई चीर के कुर्ती को लिया फाड़।
इख़लास कहीं, प्यार कहीं, मार कहीं धाड़॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥13॥
क्या तुझ से "नज़ीर" अब मैं जवानी की कहूं बात।
इस पन में गुज़रती है अज़ब ऐश से औक़त॥
महबूब परीज़ाद चले आते हैं दिन रात।
सेरें हैं, बहारें, हैं, तबाजे़ है मदारात॥
इस ढब के मजे़ रखती है और ढंग जवानी।
आशिक़ को दिखाती है अज़ब रंग जवानी॥14॥
(आहंग=इरादा,वक़्त, मै=शराब, शैदा=मुग्ध,
आसक्त,पागल, माजून=कुटी हुई दवाओं का
अबलेह, फ़राग़त=फुर्सत, उल्फ़त=प्रेम, मेहरो=
मेहरबानी, साक़ी=शराब पिलाने वाली, परीज़ाद=
परी का पुत्र, हमराह=साथ, वल्लाह=ईश्वर की
शपथ, शोख़=चंचल, तवायफ़=वेश्या, पन=आयु,
उम्र, औक़त=समय)
5. बुढ़ापा - नज़ीर अकबराबादी
क्या क़हर है यारो जिसे आजाये बुढ़ापा।
और ऐश जवानी के तई खाये बुढ़ापा॥
इश्रत को मिला ख़ाक में ग़म लाये बुढ़ापा।
हर काम को हर बात को तरसाये बुढ़ापा॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥1॥
जो लोग ख़ुशामद से बिठाते थे घड़ी पहर।
छाती से लिपटते थे मुहब्बत की जता लहर॥
अब आके बुढ़ापे ने किया, हाय ये कुछ क़हर।
अब जिनके कने जाते हैं लगते हैं उन्हें ज़हर॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥2॥
आगे तो परीज़ाद यह रखते थे हमें घेर।
आते थे चले आप जो लगती थी ज़रा देर॥
सो आके बुढ़ापे ने किया हाय यह अन्धेर।
जो दौड़ के मिलते थे वह अब लेते हैं मुंह फेर॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥3॥
थे जब तलक अय्याम जवानी के हरे रूख।
महबूब वह मिलते थे न हो देख जिन्हें भूख॥
बैठें थे परिंद आन के जब तक था हरा रूख॥
अब क्या है जो पतझड़ हुआ, और जड़ हो गई सूख॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥4॥
आगे थे जहां गुलबदन और यूसुफे़ सानी।
देते थे हमें प्यार से छल्लों की निशानी॥
मर जायें तो अब मुंह में न डाले कोई पानी।
किस दुःख में हमें छोड़ गई ‘हाय जवानी’॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥5॥
याद आते हैं हमको जो जवानी के वो हंगाम।
और जाम दिल आराम, मजे़ ऐश और आराम॥
उन सब में जो देखो तो नहीं एक का अब नाम।
क्या हम पै सितम कर गई ये गर्दिशे-अय्याम॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥6॥
मज़लिस में जवानों की तो साग़र हैं छलकते।
चुहलें हैं बहारें हैं परीरू हैं झमकते॥
हम उनके तयीं दूर से हैं रश्क से तकते।
वह ऐशो तरब करते हैं हम सर हैं पटकते॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥7॥
अब पांव पड़ें उनके तो हरगिज़ न बुलावें।
जा बैठें तो एकदम में ख़फ़ा होके उठावें॥
इतना तो कहां अब, जो कोई जाम पिलावें।
गर जान निकलती हो तो पानी न चुआवें॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥8॥
जब ऐश के मेहमान थे, अब राम के हुए जैफ़।
अब खूने जिगर खाते हैं, जब पीते थे सौ कैफ़॥
जब ऐंठ के चलते थे सिपर बांध उठा सैफ़।
अब टेक के लाठी के तई चलते हैं सद हैफ़।
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥9॥
थे हम भी जवानी में बहुत इश्क़ के पूरे।
वह कौन से गुलरू थे जो हमने नहीं घूरे॥
अब आके बुढ़ापे ने किये ऐसे अधूरे।
पर झड़ गए, दुम उड़ गई, फिरते हैं लडूरे॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥10॥
क्या यारो, उलट हाय गया हमसे ज़माना।
जो शोख़ कि थे अपनी निगाहों के निशाना॥
छेड़े है कोई डाल के दादा का बहाना।
हंस कर कोई कहता है "कहां जाते हो नाना"॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥11॥
पूछें जिसे कहता है वह क्या पूछे है बुड्ढे?
आवें तो यह गुल हो कि कहां आवे है बुड्ढे?
बैठें तो यह हो धूम, कहां बैठे हैं बुड्ढे?
देखें जिसे कहता है, वह क्या देखे हैं बुड्ढे?
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥12॥
क्या यारो कहें गोकि बुढ़ापा है हमारा।
पर बूढ़े कहाने का नहीं तो भी सहारा॥
जब बूढ़ा हमें कहके जहां हाय! पुकारा।
काफ़िर ने कलेजे में गोया तीर सा मारा॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥13॥
खू़बां में अगर जावें तो होती है यह फकड़ी।
खीचें है कोई हाथ कोई पकड़े है लकड़ी॥
मूंछें कहीं बत्ती के लिए जाती हैं पकड़ी।
दाढ़ी को पकड़ खींच कोई झाड़े है मकड़ी॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥14॥
कहता है कोई छीन लो इस बुड्ढे की लाठी।
कहता है कोई शोख कि हां खींच लो डाढ़ी॥
इतनी किसी काफ़िर को समझ अब नहीं आती।
क्या बूढ़े जो होते हैं तो क्या उनके नहीं जी॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥15॥
एक वक़्त वह था हम भी मजे़ करते थे गिन-गिन।
महबूब परीज़ाद न रहते थे मिले बिन॥
एक वक़्त यह है हाय जो सब करते हैं अब घिन।
या एक वह अय्याम थे या एक हैं यह दिन॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥16॥
बूढ़ों में अगर जावें तो लगता नहीं वां दिल।
वां क्यों कि लगे, दिल तो है महबूबों का मायल॥
महबूबों में जावें हैं तो वह सब छेड़े हैं मिल-मिल।
क्या सख़्त मुसीबत है पड़ी आन के मुश्किल॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥17॥
पनघट को हमारी अगर असवारी गई है।
तो वां भी लगी साथ यही ख़्वारी गई है॥
सुनते हैं कि कहती हुई पनिहारी गई है।
"लो देखो बुढ़ापे में यह मत मारी गई है॥"
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥18॥
पगड़ी हो अगर लाल गुलाबी तो यह आफ़त।
कहता है हर एक देख के क्या खू़ब है रंगत॥
ठट्ठे से कोई कहता है कर शक्ल पै रहमत।
लाहौल वला देखिए, बूढ़े की हिमाक़त॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥19॥
गर ब्याह में जावें तो यह ज़िल्लत है उठाना।
छूटते ही बने बाप निकाही का निशाना॥
रिंदों में अगर जावें तो मुश्किल है फिर आना।
अफ़सोस किसी जा नहीं बूढ़े का ठिकाना॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥20॥
है झांवली ताली का जनानों में जो चर्चा।
गर उनमें कभी जावें तो है यह सितम आता॥
दाढ़ी की जगत बोले कोई आंख को मटका।
ठट्ठे से कोई कहता है आ! आ! मेरे दादा॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥21॥
दरिया के तमाशे को अगर जावें तो यारो।
कहता है हर एक देख के "जाते हो कहां को?"॥
और हँस के शरारत से कोई पूछे है बदखो।
"क्यों खैर है, क्या खि़ज्र से मिलने को चले हो?"॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥22॥
गर आज को होते वह जवानी के जमाने।
कु़दरत थी जो यूं छेड़ते भडु़ए व जनाने।
मुश्किल अभी पड़ जाती उन्हें पीछे छुड़ाने।
एक दम में अभी लगते बोही हाय! मचाने॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥23॥
गर नाच में जावें तो यह हसरत है सताती।
जो नाचे है काफ़िर वह नहीं ध्यान में लाती॥
औरों की तरफ़ जावे तो आंखें है लड़ाती।
पर हमको तो काफ़िर वह अंगूठा है दिखाती॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥24॥
गर नायिका उनमें कोई बूढ़ी है कहाती।
अलबत्ता बुढ़ापे पै वह टुक रम है खाती॥
फ़ीकी सी पुरानी सी, लगावट है जताती।
पर क़हर है, वह हमको ज़रा खुश नहीं आती।
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥25॥
चकले के जो अन्दर की वह कहलाती हैं कस्बी।
गर उनमें कभी जावें तो होती है खराबी॥
मुंह देखते ही कहती हैं सब "आओ बड़े जी"॥
"क्या आए हो यां करने को पीरी व मुरीदी"॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥26॥
गर जावें तवायफ में तो लगती हैं सुनाने।
क्या आये हो हज़रत हमें कु़रआन पढ़ाने॥
हंस-हंस कोई पूछे है नमाज़ों के दुगाने।
ठट्ठे से कोई फेंके है तस्बीह के दाने॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥27॥
गो झुक के कमर पांव से सर आन लगा है।
पर दिल में तो खूबां का वही ध्यान लगा है॥
कहते हैं, जिसे हमको यह अरमान लगा है।
कहता है वह, क्या बूढ़े को शैतान लगा है॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥28॥
नक़लें कोई इन पोपले होठों की बनावे।
चलकर कोई कुबड़े की तरह क़द को झुकावे॥
दाढ़ी के कने उंगली को ला ला के नचावे।
यह ख़्वारी तो अल्लाह! किसी को न दिखावे॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥29॥
थे जैसे जवानी में किये धूम धड़क्के।
वैसे ही बुढ़ापे में छुटे आन के छक्के॥
सब उड़ गए काफ़िर वह नज़ारे वह झमक्के।
अब ऐश जवानों को है, और बूढ़ों को धक्के॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥30॥
गर हिर्स से दाढ़ी को खि़ज़ाब अपनी लगावें।
झुर्री जो पड़ी मुंह पे उन्हें कैसे मिटावें॥
गो मक्र से हंसने के तई दांत बंधावें।
गर्दन तो पड़ी हिलती है क्या ख़ाक छिपावें॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥31॥
आंखों से ये दीदार की लज़्ज़त नहीं छुटती।
और दिल से भी महबूब की उल्फ़त नहीं छुटती॥
सब छूट गया पर दीद की यह लत नहीं छुटती।
बूढ़े हुए पर हुस्न की चाहत नहीं छुटती॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥32॥
सुनते हो जवानो का यह सखु़न कहते हैं तुमसे।
करने हों जो कर लो वह मजे़ ऐशो तरब के॥
जावेगी जवानी तो फिर अफ़सोस करोगे।
तुम जैसे हो, वैसे तो कभी हम भी जवां थे॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥33॥
अब जितने हो माशूक यह सब याद रखो बात।
जो हो सो करो चाहने वालों की मुदारात॥
महबूबो ग़नीमत है जबानी की यह औक़ात।
जब बूढ़े हुए फिर तो हुए ढाक के दो पात॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥34॥
अब जिस से रहें साफ़ तो होता है वह गँदला।
अल्लाह न दिखलाए किसी को यह मलोला॥
इस चर्ख़सितमगार ने सीने में हसद ला।
क्या हमसे जवानी का लिया आह! यह बदला॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥35॥
थे जैसे जवानी में पिये जाम सुबू के।
वैसे ही बुढ़ापे में पिये घूंट लहू के॥
जब आके गले लगते थे महबूब भबूके।
अब कहिये तो बुढ़िया भी कोई मुंह पे न थूके॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥36॥
यह होंठ जो अब पोपले यारो हैं हमारे।
इन होठों ने बोसों के बड़े रंग है मारे॥
होते थे जवानी में तो परियों के गुज़ारे।
और अब तो चुड़ैल आन के एक लात न मारे॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥37॥
थे जैसे जवानी के चढ़े ज़ोर में सरशख़।
वैसे ही बुढ़ापे को पड़ी आन के अब पख॥
तकला हुआ तन सूख, रूई बाल रगें नख़।
हल्बा हुए, चर्ख़ा हुए, लप्सी हुए चमरख॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥38॥
महफ़िल में वह मस्ती से बिगड़ना नहीं भूले।
साक़ी से प्यालों पे झगड़ना नहीं भूले॥
हंस-हंस के परीज़ादों से लउ़ना नहीं भूले।
वह गालियां, वह बोसों पे अड़ना नहीं भूले॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥39॥
क्या दौर था सर दुखने का होता था जब अफ़सोस।
हर गुंचादहन देख के करता था हद अफ़सोस॥
अब मर भी अगर जावें तो होता है कद अफ़सोस।
अफ़सोस, सद अफ़सोस, सद अफ़सोस, सद अफ़सोस॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥40॥
जब जान के बूढ़ा हमें छेड़ें हैं यह दिलख़्वाह।
और छेड़ के मज़सिल से उठाते हैं ब इकराह॥
उस वक़्त तो हम यारो! दमे सर्द से भर आह।
रो-रो के यही कहते हैं अब क्यों मेरे अल्लाह!॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥41॥
गर होती जवानी तो अभी धूम यह मचती।
छाती से लिपट दम में कड़क डालते पसली॥
जब कुर्ती और अंगिया की उड़ा डालते धज्जी।
पर क्या करें यारो कि बुढ़ापे ने बुरी की।
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥42॥
वह जोश नहीं जिसके कोई ख़ौफ़ से दहले।
वह ज़ोम नहीं जिससे कोई बात को सह ले॥
जब फूस हुए हाथ थके पांव भी पहले।
फिर जिसके जो कुछ शौक़ में आवे वही कहले॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥43॥
करते थे जवानी में तो सब आपसे आ चाह।
और हुश्न दिखाते थे वह सब आन के दिलख़्वाह॥
यह क़हर बुढ़ापे ने किया आह "नज़ीर" आह।
अब कोई नहीं पूछता अल्लाह! ही अल्लाह!॥
सब चीज़ को होता है बुरा हाय! बुढ़ापा।
आशिक़ को तो अल्लाह! न दिखलाए बुढ़ापा॥44॥
(क़हर=दैवी प्रकोप, इश्रत=खुशी,आनन्द, कने=पास,
परीज़ाद=अप्सरा-पुत्र,माशूक, अय्याम=दिन, गुलबदन=
फूल जैसे कोमल शरीर वाले, यूसुफे़ सानी=हज़रत
यूसुफ जैसे सुन्दर, गर्दिशे-अय्याम=दिनों के फेर,
साग़र=शराब के प्याले, परीरू=सुन्दरियां, रश्क=किसी
की विशेषता से ईर्ष्या न करके स्वयं वैसा बनने का
भाव, ऐशो तरब=रास-रंग, जैफ़=मेहमान, कैफ़=नशा,
सिपर=ढाल, सैफ़=तलवार, सद हैफ़=सैकड़ों अफसोस,
गुलरू=फूल जैसे सुन्दर मुख वाले, घूरे=टकटकी
लगाकर देखना, गोकि=यद्यपि, खू़बां=सुन्दरियों,
माशूकों, फकड़ी=अनादर-पूर्ण मज़ाक, घिन=घृणा,
मायल=आसक्त, लाहौल वला=घृणासूचक वाक्य,
हिमाक़त=मूर्खता, ज़िल्लत=ख्वारी, निकाही=निकाह
वाली, रिंद=शराबी,रसिया, झांवली=आंख और भौं
का इशारा, जनानों=हिजड़ों में, बदखो=बुरे और
कड़ुवे स्वभाववाला, खि़ज्र=भूले भटकों को राह
बताने वाले,अमर पैगम्बर, चकले=व्यभिचारिणी
स्त्रियों या रंडियों का अड्डा, कस्बी=पेशेवर
बाज़ारी औरत, पीरी व मुरीदी=उस्तादी शागिर्दी,
नमाज़ों के दुगाने=शुकराने की नमाज़ की दो
रकअतें, तस्बीह=माला, गो=यद्यपि, हिर्स=लोभ,
लालच,इच्छा, मक्र=धोखा,चालाकी, दांत बंधाबे=
बनावटी दांत लगवालें, दीद=दीदार, ऐशो-तरब=
आनन्द,खुशी, मुदारात=आव-भगत,सम्मान,
औक़ात=वक्त, मलोला=दुःख, चर्ख़सितमगार=
आस्मान,होनी, हसद=जलन,ईर्ष्या, जाम=शराब
पीने के प्याले, सुबू=घड़ों, बोसों=चुम्बन,
सरशख़=मजबूत, गुंचादहन=फूल जैसे मुंह
वाला, दिलख़्वाह=मनमोहक, ब इकराह=घृणा
के साथ)
6. बुढ़ापे की तअल्लियाँ - नज़ीर अकबराबादी
जो नौजवां हैं उनके दिल में गुमान क्या है।
जो हम में कस है उनमें ताबो तुबान क्या है।
बूढ़ा अधेड़ अमका ढमका फलान क्या है।
हमसे जो हो मुक़ाबिल पट्ठे में जान क्या है।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥1॥
हर वक़्त दिल हमारा मुग्दर ही भानता है।
तीर अब तलक हमारा तूदे ही छानता है।
हर शोख़ गुल बदन से गहरी ही छानता है।
इस बात को हमारी अल्लाह ही जानता है।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥2॥
चाहें तो घूर डालें सौ खू़बरू को दम में।
और मेले छान मारें वह ज़ोर है क़दम में।
सीना फड़क रहा है खूबां के दर्दो ग़म में।
पट्ठों में वह कहां है जो गर्मियां हैं हम में।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥3॥
दुबले हुए हैं हम तो खूबां के दर्दो ग़म से।
और झुर्रियां पड़ी हैं उनके ग़मो अलम से।
मूछें सफे़द की हैं इस हिज्र के सितम से।
बूढ़ा हमें न जानो अल्लाह के करम से।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥4॥
कोई भी बाल तन पर मेरे नहीं है काला।
खूंबां के दर्दो ग़म का उन पर पड़ा है पाला।
आकर जवां मुक़ाबिल होवे कोई हमारा।
ख़ालिक से है यक़ीं यह दिखलाए वह भी पीछा।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥5॥
ऐ यार! सौ बरस की हुई अपनी उम्र आकर।
और झुर्रियां पड़ी हैं सारे बदन के ऊपर।
दिखलाते जिस घड़ी हैं मैदाँ में ज़ोर जाकर।
रुस्तम को भी समझते अपने नहीं बराबर।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥6॥
हम और जवान मिलकर दिल के तई लगावें।
और अपने-अपने गुल से मिलने की दिल में लावें।
जाकर उन्हो के घर पर जब ज़ोर आजमावें।
वह गर दिवाल कूदें हम कोठा फांदा जावें।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥7॥
जाते हैं रोज़ जितनी खूबां की बस्तियां हैं।
हर आन दीद बाजी और बुत परस्तियां हैं।
सौ सौ तरह की चुहलें जी में उकस्तियां हैं।
क्या जोश भर रहे हैं क्या ऐश मस्तियां हैं।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥8॥
दुनियां में ताक़त अपनी मशहूर इस क़दर है।
कूंचों में और मकां में देखो जिधर उधर है।
जंगल में हाथी चीता या कोई शेर नर है।
हर एक के दिल में अपना ही ख़ौफ और ख़तर है।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥9॥
करते हैं हम जो यारो! अब धूम और धड़क्के।
देखें जवां तो उनके छुट जायें दम में छक्के।
पीते हैं मै के प्याले, चलते हैं मार धक्के।
क्या क्या "नज़ीर" हम भी करते हैं अब झमक्के।
अब भी हमारे आगे यारो! जवान क्या है॥10॥
(कस=शक्ति, ताबो तुबान=शक्ति,सामर्थ्य, तूदे=
ढेर, शोख़=चंचल, गुल बदन=फूल जैसे मुख वाला,
वाली, घूर=टकटकी लगाकर देखना, खू़बरू=
सुन्दर,सुन्दरियां, पट्ठों=जवान,युवा, हिज्र=जुदाई,
पाला=हिमपात,तुषारपात, रुस्तम=ईरान का एक
प्राचीन योद्धा और प्रसिद्ध पहलवान, गुल=फूल,
प्रिय पात्र, हर आन=हर समय, दीद बाजी=नज़र
लड़ाना,ताक झांक करना, बुत परस्तियां=बुतों की
इबादत, माशूकों की इबादत,प्रिय पात्रों की पूजा,
उकस्तियां=पैदा होना,उकसना)
7. बुढ़ापे की आशिक़ी - नज़ीर अकबराबादी
क़ायम है जिस्म गो कि नहीं कस, ग़नीमत अस्त।
जीते तो हैं, अगरचे नहीं बस ग़नीमत अस्त।
सौ ऐश हमको गर न मिले दम ग़नीमत अस्त।
वक़्ते खि़जां चौगुल नबूद ख़स ग़नीमत अस्त।
"पीरी के दम ज़िइश्क ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाख़े कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥1॥"
करते हैं इस बुढ़ापे में खू़बां की हम तो चाह।
अहमक़ हैं खू़ब रू जो वह हंसते हैं हम पे आह।
और वह जो कुछ शऊर से रखते हैं दस्तगाह।
सो वह तो हमको देख यह कहते हैं वाह! वाह!
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥2॥
जिन दिलवरों से यारो हम अब दिल लगाते हैं।
वह सब तरस हमारे बुढ़ापे पे खाते हैं।
बोसा भी हमको देते हैं मै भी पिलाते हैं।
और राह मुंसिफ़ी से यह कहते भी जाते हैं।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥3॥
ने तन में अब है ज़ोर न चलते हैं दस्तो पा।
और झुकते झुकते सर से क़दम साथ आ लगा।
इस वक़्त में भी इश्क़ को रखते हैं जा बजा।
क्यों यारो, सच ही कहियो यह इंसाफ़ की है जा।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥4॥
रोए जो हम चमन में सहर बैठ कर ज़रा।
बुलबुल से पूछा गुल ने कि बूढ़ा यह क्यूं रोया।
उसने कहा कि इसका किसी से है दिल लगा।
जब गुल ने हमको देख के हंस कर यही कहा।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥5॥
ताकत बदन में कहिए तो अब नाम को नहीं।
होता है अब भी सैरो तमाशा अगर कहीं।
जाते हैं लाठी टेक के दिलशाद हम वहीं।
जो हमको देखता है वह कहता है आफ़रीं।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥6॥
कल मैकदे में हम जो गए बाक़दे दुता।
और पी शराब लोट गए शोरो गुल मचा।
उस दम हमारे देख बुढ़ापे का हौसला।
हंस-हंस के जब तो पीरेमुगां ने यही कहा।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥7॥
प्यारे तुम्हारे और तो आशिक़ हैं नौ जवां।
एक हम ही सबसे बूढ़े हैं और पीरे नातवां।
वह तो रहेंगे हम हैं कुछ ही दिन के मेहमां।
बस सबको छोड़ हमसे मिलो किसलिए कि ज़ां।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥8॥
जो हैं जवान उन्हों के तो उल्फ़त हैं कारोबार।
हम बूढ़े होके इश्क़ को रखते हैं बरक़रार।
मिलते हैं दिल लगाते हैं, फिरते हैं ख़्वारो-ज़ार।
जो हम से हो सके वह ग़नीमत है मेरे यार।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥9॥
दांतों का गरचे मुंह में हमारे नहीं निशां।
बोसे पे आन अड़ते हैं तो भी हर एक आं।
इन शोखियों का वक़्त हमारे भला कहां।
पर दिल में अपने हम भी यह कहते हैं मेरी जां।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥10॥
जिनको खु़दा ने दी है जवानी की दस्तगाह।
वह तो हमेशा दिल को लगावेंगे तुम से आह।
और हम कहां फिर आवेंगे करने तुम्हारी चाह।
बस तुम अब अपने दिल में इसी पर करो निगाह।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥11॥
गो तन तमाम कांपे है और हैं सफ़ेद बाल।
तो भी निबाहते हैं मुहब्बत की चाल ढाल।
प्यारे हमारे मिलने से लाओ न कुछ मलाल।
किस वास्ते करो तुम अब इस बात पर ख्याल।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥12॥
होते हैं उल्फ़तों से जवानी में सब असीर।
हम इश्क़ से बुढ़ापे में निकले हैं बन फ़क़ीर।
जो हमको देखता है अब इस हाल में "नज़ीर"।
पढ़ता है शाद होके यही बैठ दिल पज़ीर।
पीरी के दम जे़ इश्क़ ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाखे़ कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त॥13॥
(गो कि=यद्यपि, कस=शक्ति, ग़नीमत अस्त=
अच्छा है, वक़्ते खि़जां=पतझड़ के मौसम, चौगुल=
फूल, नबूद=नहीं है, ख़स=घास,
"पीरी के दम ज़िइश्क ज़िनद बस ग़नीमत अस्त।
अज़ शाख़े कोहना मेवए नौ रस ग़नीमत अस्त=
वृद्धावस्था में प्रेम प्रसंग पर्याप्त है, अच्छा है ठीक
उसी प्रकार जिस प्रकार जीर्ण अथवा पुरानी शाखा
पर सरस फल का उत्पन्न होना पर्याप्त एवं उत्तम
है, अहमक़=बुद्धू, खू़ब रू=रूपवान, दस्तगाह=योग्यता,
मुंसिफ़ी=न्याय,इंसाफ, दस्तो पा=हाथ-पांव, दिलशाद=
प्रसन्न,खुश, आफ़रीं=शाबाश, मैकदे=मदिरालय,
बाक़दे दुता=झुका हुआ शरीर, पीरेमुगां=धर्म-गुरू,
नातवां=कमज़ोर, बरक़रार=कायम, ख़्वारो-ज़ार=
बेइज्जत और कमजोर, असीर=कै़दी,बन्दी,
दिल पज़ीर=जो दिल को पसंद हो)
8. जवानी बुढ़ापे की लड़ाई - नज़ीर अकबराबादी
जहां में यारो खु़दा की भी क्या खु़दाई है।
कि हर किसी को तकब्बुर है, खु़दनुमाई है।
इधर जवानी बुढ़ापे पे चढ़ के आई है।
उधर बुढ़ापे की उस पर हुई चढ़ाई है।
अजब जवानी, बुढ़ापे की अब लड़ाई है॥1॥
जवानी अपनी जवानी में हो रही सरशार।
बुढ़ापा अपने बुढ़ापे में दम रहा है मार।
हुए हैं दोनों जो लड़ने के वास्ते तैयार।
इधर जवानी ने खींची है तैश से तलवार।
बुढ़ापे ने भी उधर लाठी एक उठाई है॥2॥
इधर है तीर का क़ामत उधर वह पीठ कमां।
उधर वह टेढ़ा बदन और इधर अकड़ के निशां।
जवानी कहती है बढ़ करके सुन बुढ़ापे मियां।
कि तेरी ख़ैर इसी में है, चल सरक इस आं।
वगरना तेरी अजल मेरे हाथ आई है॥3॥
मैं आज वह हूं कि रुस्तम को खड़खड़ा डालूं।
पहाड़ होवे तो एकदम में हिल हिला डालूं।
दरख़्त जड़ से उखाडूं ज़मीं हिला डालूं।
अभी कहे तो तेरी धज्जियां उड़ा डालूं।
कि मुझको ज़ोर की, कु़ब्बत की बादशाई है॥4॥
कहा बुढ़ापे ने गर तुझमें ज़ोर है बच्चा।
तो हां जी, देखें हमारे तू समने आजा।
अगरचे ज़ोर हमारे नहीं है तन में रहा।
मसूड़ों से ही तेरी हड्डियों को डालूं चबा।
न हम से लड़ कि इसी में तेरी भलाई है॥5॥
अगरचे तू है नया, हम पुराने हैं लेकिन।
नया है नौ ही दिन आखि़र पुराना है सौ दिन।
हज़ार गो कि तेरा ज़ोर पर चढ़ा है सिन।
पै हम न छोड़ें तेरे कान अब मड़ोड़े बिन।
कि तूने आके बहुत धूम यां मचाई है॥6॥
कहा जवानी ने तेरा तो अब है क्या अहवाल।
तू मेरे कान मड़ोड़े कहां यह तेरी मज़ाल।
न तेरे पास तमंचा न तीर, सेफ़ न ढाल।
अभी घड़ी में बिखरता फिरेगा एक एक बाल।
यह डाढ़ी तूने जो मुद्दत में अब बढ़ाई है॥7॥
कहा बुढ़ापे ने सुनकर कि तू अगर है पहाड़।
तो हम भी सूख के झड़बेरी के हुए हैं झाड़।
अभी कहे तो तेरे कपड़े लत्ते डालें फाड़।
ज़रा सी बात में एकदम के बीच लेवें उखाड़।
हर एक मूंछ यह तेरी जो ताव खाई है॥8॥
यह सुनके बोली जवानी कि चल, न कह तू बात।
अभी जो आन के मारूँ तेरी कमर में लात।
कहीं हो पांव, कहीं सर, कहीं पड़ा हो हात।
जिसे तू जीना समझता है, और ख़ुशी की बात।
वह तेरा जीना नहीं है वह बेहयाई है॥9॥
यह सुनके बोला बुढ़ापा कि तूने झूठ कहा।
जो पूछे सच तो हमीं को मज़ा है जीने का।
शराब हो जो पुरानी तो उड़ चले है नशा।
पुराने जब हुए चावल तो है उन्हीं में मज़ा।
क़दीम है यह मसल हमने क्या बनाई है॥10॥
तेरी तो ख़ल्क़ में है चार दिन की सबको चाह।
जहां तू हो चुकी फिर बस वहीं है हाल तबाह।
हमीं हैं वह कि करें हैं तमाम उम्र निबाह।
तू आप ही देख गिरेबां में डाल कर मुंह आह।
कि अब है किस में वफ़ा किस में बेवफ़ाई है॥11॥
जवानी जब तो यह बोली बुढ़ापे से सुनकर।
तेरी वफ़ा से मेरी बेवफ़ाई है बेहतर।
मैं जब तलक हूं, बहारें मजे़ हैं सरतासर।
जो सल्तनत हो घड़ी भर की तो भी है खु़श्तर।
मजे़ तो लूट लिये गो कि फिर गदाई है॥12॥
यह सुनके बोला बुढ़ापा वह सल्तनत है क्या।
कि जिसके साथ लगा हो ज़वाल का धड़का।
हमें मिली वह बुजुर्गी की मंजिलत इस जा।
कि जब तलक हैं रहेंगी हमारे साथ सदा।
खु़दा ने ऐसी हमें दौलत अब दिलाई है॥13॥
कहा जवानी ने चल झूटी अब न कर तकरार।
मेरे तो वास्ते ऐशो तरब है बाग़ो बहार।
शराब नाच मजे गुलबदन गले में हार।
तेरी ख़राबी यह देखी है हमने कितनी बार।
के तूने हर कहीं ज़िल्लत ही जाके पाई है॥14॥
मुझे खु़दा ने दिया है वह मर्तबा और शान।
जिधर को जाऊं उधर ऐश रंग फूल और पान।
उछल है, कूद है, लज़्ज़त, मजे, खुशी के ध्यान।
गले लिपटते हैं महबूब गुल बदन हर आन।
घड़ी-घड़ी की नई सैर ही उड़ाई है॥15॥
कहा बुढ़ापे ने चल झूठ इतना मत बोले।
फ़िदा तू जिनपे है वह मेरे पांव हैं पड़ते।
हमें कहें हैं वह "हज़रत" तुझे कहें हैं ‘अबे’।
हज़ारों बार पड़े तुझ पै लात और घूंसे।
भला बता तू कहीं हमने मार खाई है?॥16॥
तुझे कुचलते हैं वह ख़ूबरू जो लातों में।
हम उनको मार उतारे हैं दम की बातों में।
हम ऐश दिन को उड़ाते हैं और तू रातों में।
करें हैं इश्क़ को हमजिस तरह की घातों में।
तुझे कहां अभी इस बात में रसाई है॥17॥
कि जिनके वास्ते गलियों में फिरे हैं ख़्वार।
हम उनकी लूटें हैं ऐशो तरब के बीच बहार।
तुझे तलाशो तलब में कटे हैं लैलो-निहार।
हम अपनी टट्टी में बैठे ही खेलते हैं शिकार।
तू क्या वह जाने जो कुछ हमने घात पाई है॥18॥
बुढ़ापे ने कहा उस दम जवानी से "बाबा"।
मेरा तो वस्फ़ किताबों में है लिखा हर जा।
बुजुर्गी और मशीख़त बुढ़ापे में है सदा।
तेरी जो बात का मज़कूर है कहीं आया।
तो हर तरीक़ में ख़्वारी ही तुझ पै आई है॥19॥
जुंही जवानी ने ख़्वारी का मुंह से नाम दिया।
बुढ़ापा दौड़ जवानी से बूंही आ लिपटा।
मड़ोड़ी मूंछें इधर उसने दाढ़ी को खींचा।
लड़े जो दोनों बड़ा हर तरफ़ यह शोर मचा।
कि यारो दौड़ियो, फरयाद है दुहाई है॥20॥
खड़े थे लोग हज़ारों यह दोनों लड़ते थे।
घड़ी पछाड़ते थे और घड़ी पछड़ते थे।
जो बाजू छोड़ते थे तो कमर पकड़ते थे।
हर एक तरफ़ से नए घूंसे लात लड़ते थे।
तो सब यह कहते थे क्या इनके जी में आई है॥21॥
यह मार कूट का आपस में जब हुआ चरखा।
"नज़ीर" इसमें वहीं एक अधेड़ पन आया।
कुछ इसको रोका इधर और कुछ उसको समझाया॥
तुम अपने खु़श रहो यह अपने खु़श रहें हर जा॥
मिलाप ख़ूब है, लड़ने में क्या भलाई है॥22॥
(तकब्बुर=घमंड, खु़दनुमाई=आत्म-प्रदर्शन, सरशार=
मस्त, तैश=क्रोध, क़ामत=शरीर,लम्बा डील डौल,
कमां=धनुष की तरह टेढ़ी, वगरना=अन्यथा,नहीं
तो, अजल=मौत, कु़ब्बत=शक्ति, अगरचे=यद्यपि,
सिन=अवस्था,उम्र, झड़बेरी=जंगली बेर, क़दीम=
पुरानी, मसल=कहावत,लोकोक्ति, गिरेबां=कुर्त्ते
कमीज आदि का गला, सरतासर=आदि से अन्त
तक, खु़श्तर=बहुत अच्छी, गदाई=फ़क़ीरी, ज़वाल=
पतन,अवनति, मंजिलत=आदर,सत्कार, ऐशो तरब=
आनन्द,हर्षोल्लास, गुलबदन=फूल जैसे शरीर वाले,
ज़िल्लत=ख़्वारी,अपमान, ख़ूबरू=सुन्दर,रूपवान,
रसाई=पहुंच,प्रवेश, तलब=मांगना,चाहना, लैलो-निहार=
रात-दिन, वस्फ़=गुण,तारीफ़, मशीख़त=बुजुर्गी,
बड़प्पन, मज़कूर=जिक्र, बाजू=बांह)
9. मवाज़नए ज़ोरो कमज़ोरी - नज़ीर अकबराबादी
ज़ोर जब तक कि हमारे बदनो तन में रहा।
पच गई दम में, अगर कैसी ही असक़ल थी दवा।
खूंदे गुलज़ारो-चमन गुलशनो बाग़ो सहरा।
दौड़े हर सैर तमाशे में खु़शी से हरज़ा।
ज़ोर की खू़बियां लाखों हैं कहूं मैं क्या क्या॥1॥
ऐशो इश्रत के मजे़ जितने कि जब ज़ोर में हैं।
खु़र्रमी खु़शदिलीयो ऐशो तरब ज़ोर में है।
लज़्ज़ते फ़रहते क्या कहिये अजब ज़ोर में हैं।
ज़िन्दगानी के मजे़ जितने हैं सब ज़ोर में हैं।
सच है यह बात कि है ज़ोर ही में ज़ोर मज़ा॥2॥
जब से कमज़ोर हुए तब से हुआ यह अहवाल।
सुस्तियो ज़ोफ़ो क़ाहत की चढ़ाई है कमाल।
हो गये सब वह उछल कूद के नक़्शे पामाल।
अब जो चाहें कि चलें फिर भी इसी तौर की चाल।
क़स्द करते हैं बहुत पर कहीं जाता है चला॥3॥
पानी पीते हैं तो बलग़म वह हुआ जाता है।
और दही चक्खे़ तो छींकों का मंढा छाता है।
पीवें शर्बत तो हवा ज़दगियां वह लाता है।
और जो कम खायें तो फिर जोफ़ से ग़श आता है।
पेट भर खावें तो फिर चाहिए चूरन को टका॥4॥
राह चलने में यह कुछ जोफ़ से होते हैं निढाल।
हर कदम आते हैं पा बोस को सौरंजो मलाल।
औरटुक तुंद हवा चलने लगी तो फ़िलहाल।
चलनी पड़ती है फिर उस वक़्त तो उस तौर की चाल।
जैसे कैफ़ी कोई चलता है बहुत पीके नशा॥5॥
ऊंची नीची जो ज़मीं आ गई रस्ते में कहीं।
उसकी यह शक्ल है क्या कहिये नक़ाहत के तईं।
यक बयक दोनों से गुज़रे तो यह ताक़त ही नहीं।
उतरें नीचे को तो गिर पड़ने के होते हैं क़रीं।
और जो ऊंचे पे रक्खें पांव दम आता है चढ़ा॥6॥
आवे गर जाड़े का मौसम तो ख़राबी यह हो।
पहने नौ सेर रुई की जो बनाकर दोतो।
तो भी हरगिज़ गुल गरमी की नहीं आती बो।
हो बदन सरद कि खूं इसमें हो ऐसा जिस को।
देखे गर बर्फ़ का थैला तो रहे सर को झुका॥7॥
और अयां होवे जो टुक आगे हवा गरमी की।
उसमें कुछ और ही होती है नक़ाहत सुस्ती।
मोम होते हैं जहां तन को ज़रा धूप लगी।
और पसीनों में यह सूरत है बदन की होती।
जैसे ग़व्वास समुन्दर में लगावे गोता॥8॥
जोफ़ के दाम में हैं अब तो कुछ इस तौर असीर।
जिसमें न ताक़ते तहरीर न ताबे तक़रीर।
ताब अफ़्सुर्द दिल वाज़र्द बदन सख़्त हकीर।
जो जो कमज़ोरियां करती हैं वह क्या कहिये "नज़ीर"?।
ऐसे बेबस हैं कि कुछ दम नहीं मारा जाता॥9॥
(असक़ल=भारी, गुलज़ारो-चमन=बाग़, सहरा=जंगल, हरज़ा=
हर जगह, खु़र्रमी=खु़शी, ऐशो तरब=आनन्द, फ़रहते=खुशियां,
ज़ोफ़ो=बुढ़ापा, क़ाहत=कमजोरी, पामाल=बरबाद, क़स्द=इरादा,
कैफ़ी=मतवाला,मत्त, नक़ाहत=कमज़ोरी, तईं=लिए, क़रीं=
समीप, दोतो=दोता,एक तरह की पोशाक, गुल गरमी=गर्मी
के फूल, अयां=प्रकट, ग़व्वास=गोताखोर, दाम=बन्धन, असीर=
कैदी,बंदी, तहरीर=लिखना, तक़रीर=बोलना, ताब=शक्ति,
अफ़्सुर्द=ठिठरा हुआ,नष्ट, वाज़र्द=सताया हुआ,पीड़ित, हकीर=
तुच्छ,बहुत छोटा)
10. लूली पीर (बूढ़ी वेश्या) - नज़ीर अकबराबादी
-- जो -- कोई हो जाती है बुढ़िया।
फिर जान कहलाने से यह शरमाती है बुढ़िया॥
हर काम में हर बात में शरमाती है बुढ़िया।
दिन रात इसी सोच में ग़म खाती है बुढ़िया॥
सर धुनती है, उकसाती है, घबराती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥1॥
जब पेट मलाई सा वह देता था दिखाई।
खाने को चली आती थी मिश्री व मलाई॥
और आके बुढ़ापे की हुई जबकि चढ़ाई।
सब उड़ गई काफ़िर, वह मलाई व मिठाई॥
इस ग़म से न पीती है, न कुछ खाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥2॥
वह हुस्न कहां जिस से कोई पास बिठावे।
छाती वह कहां जिसपे कोई हाथ चलावे॥
जब सूख गया मुंह तो झमक ख़ाक दिखावे।
आशिक़ तो जवां काहे को फिर नाज़ उठावे॥
बूढ़े को भी हरगिज़ नहीं खुश आती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥3॥
जब मुंह में न हो दांत तो मिस्सी मले क्या ख़ाक।
और सर के झड़े बाल तो कंधी करे क्या ख़ाक॥
पलकों में सफ़ेदी हो तो काजल लगे क्या ख़ाक।
जब नाक ही सूखी हो तो फिर नथ खुले क्या ख़ाक॥
इस ख़्वारी, ख़राबी में फिर आ जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥4॥
जब तक कि नई उम्र थी चढ़ती थी जवानी।
हर कोई यह कहता था ‘कहां जाती हौ जानी’॥
जब बूढ़ी हुई फिर लगीं कहलाने पुरानी।
ठहरी कहीं ‘खाला’ कहीं ‘दादी’ कहीं ‘नानी’॥
हैं नाम तो अच्छे यह कि शरमाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥5॥
बुढ़िया को बुढ़ापे में यह दुख होता है लेना।
नोची को किसी ढब की नसीहत हो जो देना॥
मुंह पीट वह हमसाये से कहती है कि भैना।
नाहक़ की लड़ाई है, न लेना है न देना॥
एक चार घड़ी से मुझे पुनवाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥6॥
टुक देखियो! यारो! यह बुढ़ापे की है ख़्वारी।
हमसाये के सुनते ही लगी दिल में कटारी॥
नोची की तरफ़दार हो घर में से पुकारी।
क्या बात हुई तुझ से वह कुछ मुझको बतारी॥
जिस बात पे दोपहर से टर्राती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥7॥
सह कहती है ‘भैना’ यह गुजरती नहीं ढड्डो।
और क़हर खु़दा से भी यह डरती नहीं ढड्डो॥
लब अपने ज़रा बंद यह करती नहीं ढड्डो॥
इस हाल को आखि़र को पहुंच जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥8॥
ऐसा जो मेरे पास लगे जायगी झांपो।
एक रोज़ मुझे घर से निकलवायेगी झांपो॥
सब खा चुकी मुझको भी यह अब खायेगी झांपो।
वह कौन सा दिन होगा जो मर जायेगी झांपो॥
अब तो मुझे डायन सी नज़र आती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥9॥
नोची जो वफ़ादार कोई पास रही आ।
तो रोटी मिली वर्ना लगी कातने चरखा॥
जब कुबड़ी कमर हो गई और सर हुआ गाला।
मुंह सूख के चमरख़ हुआ और तन हुआ तकला॥
फिर रोटी को चरखे़ से कमा खाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥10॥
क्या वक़्त बुढ़ापे का बुरा होता है ‘वल्लाह’।
बेगाने तो क्या अपने को फिर होती नहीं चाह॥
इस ख़्वार ख़राबी से भी सह कर ग़मे जांकाह।
रुक-रुक के जवानी की मुसीबत में ‘नज़ीर’ आह॥
आखि़र को इसी सोच में मर जाती है बुढ़िया।
यह दर्द वही जाने जो हो जाती है बुढ़िया॥11॥
($=कुल्लियातों में $ चिह्न वाले स्थान
खाली हैं, नथ खुले क्या ख़ाक=तबायफ़ों में
यह रिवाज है कि जवान लड़की की नथ
किसी सम्पत्तिशाली प्रेमी द्वारा खुलवाई
जाती है। वह नथ खोलने की रस्म अदा
करने के बदले में लड़की को खूब धन
दौलत देता है, नोची=नवयुवती, पुनवाती=
गालियाँ सुनवाना)
11. सच्चे नफ़्श कुश (हीजड़े) - नज़ीर अकबराबादी
बेटा हुआ किसी के जो सुन पावें हीजड़े।
सुनते ही उसके घर में फिर आजावें हीजड़े॥
नाचें बजाके तालियां और गावें हीजड़े।
ले लेके बेल भाव भी बतलावें हीजड़े॥
उसके बड़े नसीब जहां जावें हीजड़े॥
ज़ाहिर में गरचे पेट के अपने मजूरे हैं।
पर दिल में अपने फ़क्र के गहने को घूरे हैं॥
$ $ न इनके पास न दोनों $ $ हैं।
ख़ासे लंगोट बंद खु़दा के यह पूरे हैं॥
बेटा दुआ से बाँझ के जनवावें हीजड़े॥
पूरे फ़कीर नफ़्स कुशी का करें है शग़ल।
इनमें भी बाजे़ रखते हैं कितने खु़दा के वस्ल॥
जो नफ़्स मारते हैं वह करते हैं उनकी नक़्ल।
सच पूछिये तो नफ़्स उन्होंने किया है कत्ल॥
क्या मर्दमी कि मर्द हैं कहलावें हीजड़े॥
यूं देखने में गरचे यह हल्के से माल हैं।
नाचे हैं नेग जोग का करते सवाल हैं॥
हमको तो पर उन्हों से अदब के ख़याल हैं।
अक्सर उन्हों के भेस में साहिब कमाल हैं॥
जो कुछ मुराद मांगो यह बर लावें हीजड़े॥
बातें भी उनकी साफ़ हैं मिलना भी साफ़ है।
सीना भी उनका आइना मुखड़ा भी साफ है॥
ज़ाहिर भी उनका साफ़ है जेवडा भी साफ़ है।
आगा भी उनका साफ़ है पीछा भी साफ़ है॥
जब ऐसे जिन्दा दिल हों तो कहलावें हीजड़े॥
चलते हैं अपने हाल में क्या क्या मटकती चाल।
कुछ ऊंची ऊंची चोलियां कुछ लम्बे लम्बे बाल॥
आता है उनको देख मुजर्रद के दिल को हाल।
$ $ को लात मारके एक दम में दे निकाल॥
वह मरदुआ कि जिसके तई भावें हीजड़े॥
यह जान छल्ले अब जो कहाते हैं खु़श सफ़ीर।
है दिल हमारा उनकी मुहब्बत में अब असीर॥
मुद्दत से हो रहा है इरादा यह दिल पज़ीर।
अल्लाह हमें भी देवे जो बेटा तो ऐ ”नज़ीर“॥
हम भी बुला के खू़ब से नचवावें हीजड़े॥
(नफ़्श कुश=इन्द्रिय-दमन, मुजर्रद=एकाकी,
अविवाहित, सफ़ीर=शुभ-संदेशक, असीर=कै़द)
12. समधिन-1 - नज़ीर अकबराबादी
करूं किस मुंह से ये यारो बयां मैं शान समधिन की।
लगी है अब तो मेरे दिल को प्यारी आन समधिन की॥
चमन में हुस्न के हों उसके रुख़ और जुल्फ़ पर कु़बाँ।
अगर देखें ज़रा सूरत गुले रेहान समधिन की॥
कमर नाजु़क मटकती चाल आंखें शोख़, तन गोरा।
नज़र चंचल, अदा अछपल, यह है पहचान समधिन की॥
सुनहरी ताश का लंहगा, रुपहली गोट की अंगिया।
चमकता हुस्न जोवन का, झमकती आन समधिन की।
मलाई सा शिकम, सीना मुसफ़्फ़ा, खु़शनुमा साके़ं।
सफ़ा जानू का आईना, मुलायम रान समधिन की॥
कहूं कुछ और भी आगे जो समधिन हुक्म फ़रमावें।
सिफ़त मंजूर है हमको तो अब हर आन समधिन की॥
बड़ा ऐहसान मानें हम तुम्हारा आज समधी जी।
मयस्सर हो अगर सोहबत हमें एक आन समधिन की॥
हमें एक दो घड़ी के वास्ते दूल्हा दिला दो तुम।
जो कुछ लंहगे के अन्दर चीज़ है पिनहान समधिन की॥
नज़ीर अब आफ़रीं है यार तेरी तब्अ को हर दम।
कही तारीफ़ तूने खू़ब आलीशान समधिन की॥
(गुले रेहान=एक सुगन्धित फूल, शिकम=पेट,
मुसफ़्फ़ा=स्वच्छ, खु़शनुमा साके़ं=पिंडलियाँ,
जानू=जाँघ, मयस्सर=उपलब्ध, पिनहान=गुप्त,
आफ़रीं=शाबाश, तब्अ=प्रकृति)
13. समधिन-2 - नज़ीर अकबराबादी
सरापा हुस्ने समधिन गोया गुलशन की क्यारी है।
परी भी अब तो बाजी हुस्न में समधिन से हारी है।
खिची कंघी, गुंथी चोटी, अभी पट्टी लगा काजल।
कमां अब्रू नज़र जादू निगह हर एक दुलारी है।
जबी माहताब, आंखें शोख़, शीरीं लब, गोहर दन्दा।
बदन मोती, दहन गुंचा, अदा हंसने की प्यारी है।
नया कमख़्वाब का लहंगा झमकते ताश की अंगिया।
कुचें तस्वीर सी जिन पर लगा गोटा किनारी है।
मुलायम पेट मख़मल सा कली सी नाफ़ की सूरत।
उठा सीना सफ़ा पेडू़ अजब जोवन की नारी है।
लटकती चाल मदमाती चले बिछुओं को झनकाती।
भरे जोवन में इतराती झमक अंगिया की दिखलाती।
कमर लहंगे से बल खाती लटक घूंघट की भारी है।
(सरापा=सिर से पैर तक का,शिखनख, कमां अब्रू=
भवें कमान की तरह, जबीं=ललाट, माहताब=चांद,
गोहर दन्दा=मोती जैसे दांत, नाफ़=नाभि, बिछुआ=
पैर की उंगलियों में पहने जाने वाला जेवर)
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