नज़ीर अकबराबादी की ग़ज़लें (2) Ghazals (Part-2) in Hindi Nazeer

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Nazeer-Akbarabadi

नज़ीर अकबराबादी की ग़ज़लें (2)
Ghazals in Hindi Nazeer Akbarabadi (Part-2)

1. चाहत के अब इफ़शा-कुन-ए-असरार तो हम हैं - नज़ीर अकबराबादी

चाहत के अब इफ़शा-कुन-ए-असरार तो हम हैं
क्यूँ दिल से झगड़ते हो गुनहगार तो हम हैं

रू आईने को देते हो बर-अक्स हमारे
आईना रखो तालिब-ए-दीदार तो हम हैं

गुलशन में अजब जाते हो कर हुस्न की तज़ईन
इस जिंस-ए-दिल-आरा के ख़रीदार तो हम हैं

क्या कब्क को दिखलाते हो अंदाज़-ए-ख़िराम आह
हसरत-ज़दा-ए-शोख़ी-ए-रफ़्तार तो हम हैं

की चश्म सू-ए-नर्गिस-ए-बीमार तो फिर क्या
इस ऐन इनायत के सज़ा-वार तो हम हैं

दिल दे के दिल-आज़ार को क्या शिकवा-ए-बेदाद
गर सोचिए अपने लिए आज़ार तो हम हैं

जिस दिन से फँसे देखी न फिर शक्ल-ए-रिहाई
क्या कहिए नज़ीर ऐसे गिरफ़्तार तो हम हैं

2. चाह में उस की दिल ने हमारे नाम को छोड़ा नाम किया - नज़ीर अकबराबादी

चाह में उस की दिल ने हमारे नाम को छोड़ा नाम किया
शग़्ल में उस के शौक़ बढ़ा कर काम को छोड़ा काम किया

ज़ुल्फ़ दुपट्टा धानी मैं कर के पिन्हाँ मिरा दिल बाँध लिया
सैद न खावे क्यूँ-कर जल जब सब्ज़े में पिन्हाँ दाम किया

रम पर अपने आहू-ए-दिल को ग़र्रा निहायत था लेकिन
चंचल आहू-ए-चश्म ने उस को एक निगह में राम किया

समझे थे यूँ हम दिल को लगा कर पावेंगे याँ आराम बहुत
हैफ़ उसी फ़हमीद ने हम को क्या क्या बे-आराम किया

हम ने कहा जब नाज़-ए-बुताँ के तुम तो बहुत काम आए नज़ीर
सुन के कहा क्या आए जी हाँ कुछ बुत के मुआफ़िक़ काम किया

3. चितवन की कहूँ कि इशारात की गर्मी - नज़ीर अकबराबादी

चितवन की कहूँ कि इशारात की गर्मी
है नाम-ए-ख़ुदा उस में हर एक बात की गर्मी

रोने से मिरे उस को अरक़ आ गया यारो
सच है कि बुरी होती है बरसात की गर्मी

टुक फूल छुआ था सो नज़ाकत से कई बार
रह रह के दिखाई मुझे गुल-हात की गर्मी

खुलवाते ही बुंदों के बदन गर्म हो आया
शायद कि लगी उस को मिरे हात की गर्मी

गर्मी थी कहीं आह हम अफ़्सुर्दा-दिलों में
साक़ी की फ़क़त है ये इनायात की गर्मी

जलता हूँ मैं और शोले नहीं देते दिखाई
है इश्क़ में यारो ये तिलिस्मात की गर्मी

रहना है कोई दिन तो समझ जाइयो ऐ दिल
याँ फिर वही ठहरी है मुलाक़ात की गर्मी

आते ही जो तुम मेरे गले लग गए वल्लाह
उस वक़्त तो इस गर्मी ने सब मात की गर्मी

कहता है वो जिस दम कि चलो हम से न बोलो
इस बात में है और ही एक बात की गर्मी

सब पोच है ज़ाहिर की ये शोख़ी-ओ-शरारत
माशूक़ में जब तक कि न हो ज़ात की गर्मी

तुम ग़ुस्सा हो या क़हर हो आतिश हो ग़ज़ब हो
अब हम ने ये सब दिल पे मुसावात की गर्मी

या-हज़रत-ए-दिल तुम तो बड़े साहिब-ए-दिल थे
रखते थे बहुत अपने कमालात की गर्मी

एक ही निगह-ए-गर्म से बस हो गए तुम सर्द
अब कहिए कहाँ है वो करामात की गर्मी

यूँ गर्मी-ए-सोहबत तो बहुत होगी 'नज़ीर' आह
पर यार न भूलेगी मुझे रात की गर्मी

4. चितवन दुरुस्त सीन बजा बातें ठीक-ठीक - नज़ीर अकबराबादी

चितवन दुरुस्त सीन बजा बातें ठीक-ठीक
नाज़-ओ-अदा की उस में हैं सब बातें ठीक-ठीक

क्या दिल को अच्छी लगती हैं इन ख़ुश-क़दों की आह
ये प्यारी प्यारी बोलियाँ ये गातें ठीक-ठीक

मुँह में तमांचे छाती में घूँसा कमर में लात
क्या क्या हुईं ये मुझ पे इनायातें ठीक-ठीक

मौक़ा से बोसा मौक़ा से गाली भी हम को दी
की शोख़ ने ये दोनों मदारातें ठीक-ठीक

जब दोस्ती में क़ौल के पूरे हों दोनों शख़्स
होती हैं फिर तो क्या ही मुलाक़ातें ठीक-ठीक

जब बन पड़ी तो शैख़-जी शैख़ी न मारें क्या
हम से भी फिर तो होवें करामातें ठीक-ठीक

सच है ब-क़ौल-ए-हज़रत-ए-सय्यद 'नज़ीर' आह
बन आती हैं तो होती हैं सब बातें ठीक-ठीक

5. चितवन में शरारत है और सीन भी चंचल है - नज़ीर अकबराबादी

चितवन में शरारत है और सीन भी चंचल है
काफ़िर तिरी नज़रों में कुछ और ही छल-बल है

बाला भी चमकता है जुगनू भी दमकता है
बध्धी की लिपट तिस पर तावीज़ की हैकल है

गोरा वो गला नाज़ुक और पेट मिलाई सा
सीने की सफ़ाई भी ऐसी गोया मख़मल है

वो हुस्न के गुलशन में मग़रूर न हो क्यूँ-कर
बढ़ती हुई डाली है उठती हुई कोंपल है

अंगिया वो ग़ज़ब जिस को मलमल ही करे दिल भी
क्या जाने कि शबनम है ननसुख है कि मलमल है

ये दो जो नए फल हैं सीने पे तिरे ज़ालिम
टुक हाथ लगाने दे जीने का यही फल है

उभरा हुआ वो सीना और जोश भरा जोबन
एक नाज़ का दरिया है इक हुस्न का बादल है

क्या कीजे बयाँ यारो चंचल की रुखावट का
हर बात में दुर दुर है हर आन में चल-चल है

ये वक़्त है ख़ल्वत का ऐ जान न कर कल कल
काफ़िर तिरी कल कल से अब जी मिरा बेकल है

कल मैं ने कहा उस से क्या दिल में ये आया जो
कंघी है न चोटी है मिस्सी है न काजल है

मालूम हुआ हम से रूठे हो तुम ऐ जानी
उल्टा ही दुपट्टे का मुखड़े पे ये आँचल है

ये सुन के लगी कहने रूठी तो नहीं तुझ से
पर क्या कहूँ दो दिन से कुछ दिल मिरा बेकल है

जिस दिन ही 'नज़ीर' आ कर वो शोख़ मिले हम से
हथ-फेर हैं बोसे हैं दिन रात की मल-दल है

6. जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी - नज़ीर अकबराबादी

जब आँख उस सनम से लड़ी तब ख़बर पड़ी
ग़फ़लत की गर्द दिल से झड़ी तब ख़ैर पड़ी

पहले के जाम में न हुआ कुछ नशा तो आह
दिलबर ने दी तब उस से कड़ी तब ख़बर पड़ी

लाए थे हम तो उम्र पटा याँ लिखा वले
जब सियाही पर सफ़ेदी चड़ी तब ख़बर पड़ी

दाढ़ें लगीं उखड़ने को दंदाँ हुए शहीद
मज्लिस में चल-ब-चल ये पड़ी तब ख़बर पड़ी

बिन दाँत भी हँसे प जब आँखें चलीं तो आह!
जब लागी आँसूओं की झड़ी तब ख़बर पड़ी

शहतीर सा वो क़द था सो ख़म हो के झुक गया
गिरने लगी कड़ी पे कड़ी तब ख़बर पड़ी

नीचा दिखाया शेर ने तो भी ये समझे झूट
जब चाब ली गले की नड़ी तब ख़बर पड़ी

जब आए उस गढ़े में 'नज़ीर' और हज़ार मन
ऊपर से आ के ख़ाक पड़ी तब ख़बर पड़ी

7. जब उस का इधर हम गुज़र देखते हैं - नज़ीर अकबराबादी

जब उस का इधर हम गुज़र देखते हैं
तो कर दिल में क्या क्या हज़र देखते हैं

उधर तीर चलते हैं नाज़-ओ-अदा के
इधर अपना सीना सिपर देखते हैं

सितम है कन-अँखियों से गर ताक लीजे
ग़ज़ब है अगर आँख भर देखते हैं

न देखें तो ये हाल होता है दिल का
कि सौ सौ तड़प के असर देखते हैं

जो देखें तो ये जी में गुज़रे है ख़तरा
अभी सर उड़ेगा अगर देखते हैं

मगर इस तरह देखते हैं कि उस पर
ये साबित न हो जो उधर देखते हैं

छुपा कर दग़ा कर 'नज़ीर' उस सनम को
ग़रज़ हर तरह इक नज़र देखते हैं

8. जब उस की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में हम असीर हुए - नज़ीर अकबराबादी

जब उस की ज़ुल्फ़ के हल्क़े में हम असीर हुए
शिकन के आदी हुए ख़म के ख़ू-पज़ीर हुए

ख़दंग-वार जो ग़म्ज़े थे उस के छुटपन में
पर अब नज़र में जो आए तो रश्क-ए-तीर हुए

झिड़क दिया हमें कूचे में उस ने हर-दम देख
हम अपने दिल में कुछ उस दम ख़जिल कसीर हुए

जो गाह गाह अधर जाते हम तो रहती क़द्र
घड़ी घड़ी जो गए इस सबब हक़ीर हुए

निगह के लड़ते ही हँस कर कहा 'नज़ीर' उस ने
ये बातें छोड़ दो कुछ समझो अब तो पीर हुए

9. जब उस के ही मिलने से नाकाम आया - नज़ीर अकबराबादी

जब उस के ही मिलने से नाकाम आया
तो या-रब ये दिल मेरा किस काम आया

कभी उस तग़ाफ़ुल-मनुश की तरफ़ से
न क़ासिद न नामा न पैग़ाम आया

सद-अफ़्सोस दम अपना निकला है किस दम
कि जब घर से घर तक वो गुलफ़म आया

मुझे सुब्ह को क़त्ल कर वो मसीहा
जो घर अपने फ़र्ख़न्दा फ़र्जाम आया

किसी ने मिरी बात भी वाँ न पूछी
अगरचे हर इक ख़ास और आम आया

ग़रज़ फिर उसी को जो याद आई मेरी
तो घबरा के जिस दम हुई शाम आया

जलाया उठाया गले से लगाया
अज़ीज़ो फिर आख़िर वही काम आया

गई बेवफ़ाई 'नज़ीर' अब जहाँ से
वफ़ा-दारियों का भी हंगाम आया

10. जब मैं सुना कि यार का दिल मुझ से हट गया - नज़ीर अकबराबादी

जब मैं सुना कि यार का दिल मुझ से हट गया
सुनते ही इस के मेरा कलेजा उलट गया

फ़रहाद था तो शीरीं के ग़म में मुआ ग़रीब
लैला के ग़म में आन के मजनूँ भी लट गया

मैं इश्क़ का जला हूँ मिरा कुछ नहीं इलाज
वो पेड़ क्या हरा हो जो जड़ से उखड़ गया

इतना कोई कहे कि दिवाने पड़ा है क्या
जा देख अभी उधर कोई परियों का ग़ट गया

छीना था दिल को चश्म ने लेकिन मैं क्या करूँ
ऊपर ही ऊपर उस सफ़-ए-मिज़्गाँ में पट गया

क्या खेलता है नट की कला आँखों आँखों में
दिल साफ़ ले लिया है जो पूछा तो नट गया

आँखों में मेरी सुब्ह-ए-क़यामत गई झमक
सीने से उस परी के जो पर्दा उलट गया

सुन कर लगी ये कहने वो अय्यार-ए-नाज़नीं
"क्या बोलीं चल हमारा तो दिल तुझ से फट गया"

जब मैं ने उस सनम से कहा क्या सबब है जान
इख़्लास हम से कम हुआ और प्यार घट गया

ऐसी वो भारी मुझ से हुई कौन सी ख़ता
जिस से ये दिल उदास हुआ जी उचट गया

आँखें तुम्हारी क्या फिरीं उस वक़्त मेरी जान
सच पूछिए तो मुझ से ज़माना उलट गया

उश्शाक़ जाँ-निसारों में मैं तो इमाम हूँ
ये कह के मैं जो उस के गले से लिपट गया

कितना ही उस ने तन को छुड़ाया झिड़क झिड़क
पर मैं भी क़ैंची बाँध के ऐसा चिमट गया

ये कश्मकश हुई कि गरेबाँ मिरा उधर
टुकड़े हुआ और उस का दुपट्टा भी फट गया

आख़िर इसी बहाने मिला यार से 'नज़ीर'
कपड़े बला से फट गए सौदा तो पट गया

11. जब हम-नशीं हमारा भी अहद-ए-शबाब था - नज़ीर अकबराबादी

जब हम-नशीं हमारा भी अहद-ए-शबाब था
क्या क्या नशात-ओ-ऐश से दिल कामयाब था

हैरत है उस की ज़ूद-रवी क्या कहें हम आह
नक़्श-ए-तिलिस्म था वो कोई या हुबाब था

था जब वो जल्वा-गर तो दिल-ओ-जाँ में दम-ब-दम
इशरत की हद न ऐश-ओ-तरब का हिसाब था

थे बाग़-ए-ज़िंदगी के उसी से ही आब-ओ-रंग
दीवान-ए-उम्र का भी वही इंतिख़ाब था

अपनी तो फ़हम में वही हंगाम ऐ 'नज़ीर'
मजमूआ-ए-हयात का लुब्ब-ए-लुबाब था

12. जाम न रख साक़िया शब है पड़ी और भी - नज़ीर अकबराबादी

जाम न रख साक़िया शब है पड़ी और भी
फिर जहाँ कट गए चार घड़ी और भी

पहले ही साग़र में थे हम तो पड़े लोटते
इतने में साक़ी ने दी उस से कड़ी और भी

पलकें तो छेदे थीं दिल मारे थी बर्छी-निगाह
अबरू ने उस पर से एक तेग़ जड़ी और भी

कुछ तपिश-ए-दिल थी कुछ सुनते ही फ़ुर्क़त का नाम
आग सी एक आग पर आन पड़ी और भी

मेरी शब-ए-वस्ल की सुब्ह चली आती है
रोक ले इस दम फ़लक एक घड़ी और भी

गरचे उभर आए हैं तन पे मिरे पर मियाँ
इतनी लगाईं जहाँ एक छड़ी और भी

क्या कहूँ उस शोख़ की वाह में ख़ूबी नज़ीर
सुनते ही इस बात के एक जड़ी और भी

13. जाल में ज़र के अगर मोती का दाना होगा - नज़ीर अकबराबादी

जाल में ज़र के अगर मोती का दाना होगा
वो न इस दाम में आवेगा जो दाना होगा

दाम-ए-ज़ुल्फ़ और जहाँ ख़ाल का दाना होगा
फँस ही जावेगा ग़रज़ कैसा ही दाना होगा

दिल को हम लाए थे मिज़्गाँ की सफ़ें दिखलाने
ये न समझे थे कि तीरों का निशाना होगा

आज देख इस ने मिरी चाह की चितवन यारो
मुँह से गो कुछ न कहा दिल में तो जाना होगा

भर नज़र देखेंगे उस अहद-शिकन की सूरत
देखिए कौन सा या-रब वो ज़माना होगा

ख़ूँ बहाने का मिरे हश्र में जब होगा बहा
देखें क्या उस घड़ी क़ातिल को बहाना होगा

वो भी कुछ ऐसी ही कह देगा कि जिस से उस को
बात की बात बहाने का बहाना होगा

तल्ख़ी-ए-मर्ग जिसे कहते हैं अफ़सोस अफ़सोस
एक दिन सब के तईं ज़हर ये खाना होगा

देख ले इस चमन-ए-दहर को दिल भर के 'नज़ीर'
फिर तिरा काहे को इस बाग़ में आना होगा

14. जिन दिनों हम को उस से था इख़्लास - नज़ीर अकबराबादी

जिन दिनों हम को उस से था इख़्लास
खुल रहा था वो जा-ब-जा इख़्लास

उस को भी हम से थी बहुत उल्फ़त
और हमें उस से था बड़ा इख़्लास

मिल के जब बैठते थे आपस में
था दिखाता अजब मज़ा इख़्लास

एक दिन हम में और 'नज़ीर' उस में
हो के ख़फ़्गी जो हो चुका इख़्लास

हम ये बोले किधर गई उल्फ़त
वो ये बोला किधर गया इख़्लास

15. जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो - नज़ीर अकबराबादी

जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो

जुदा जो हम को करे उस सनम के कूचे से
इलाही राह में ऐसा कोई रक़ीब न हो

इलाज क्या करें हुकमा तप-ए-जुदाई का
सिवाए वस्ल के इस का कोई तबीब न हो

'नज़ीर' अपना तो माशूक़ ख़ूबसूरत है
जो हुस्न उस में है ऐसा कोई अजीब न हो

16. जो आवे मुँह पे तिरे माहताब है क्या चीज़ - नज़ीर अकबराबादी

जो आवे मुँह पे तिरे माहताब है क्या चीज़
ग़रज़ ये माह तो क्या आफ़्ताब है क्या चीज़

ये पैरहन में है इस गोरे गोरे तन की झलक
कि जिस के सामने मोती की आब है क्या चीज़

भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़

तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से
नहीं ये जानतीं दुनिया में ख़्वाब है क्या चीज़

'नज़ीर' हज़रत-ए-दिल का न कुछ खुला अहवाल
मैं किस से पूछूँ ये नुदरत-मआब है क्या चीज़

जो सख़्त होवे तो ऐसा कि कोह आहन का
जो नर्म होवे तो बर्ग-ए-गुलाब है क्या चीज़

घड़ी में संग घड़ी मोम और घड़ी फ़ौलाद
ख़ुदा ही जाने ये आली-जनाब है क्या चीज़

17. जो कुछ है हुस्न में हर मह-लक़ा को ऐश-ओ-तरब - नज़ीर अकबराबादी

जो कुछ है हुस्न में हर मह-लक़ा को ऐश-ओ-तरब
वही है इश्क़ में हर मुब्तला को ऐश-ओ-तरब

अगरचे अह्ल-ए-नवा ख़ुश हैं हर तरह लेकिन
ज़ियादा उन से है हर बे-नवा को ऐश-ओ-तरब

वो मय-कदे में हलावत है रिंद-ए-मय-कश को
जो ख़ानक़ाह में है पारसा को ऐश-ओ-तरब

रखे है हर तन-ए-उर्यां बरहना-पाई वही
जो कुछ है साहिब-ए-अस्प-ओ-क़बा को ऐश-ओ-तरब

कमाल-ए-क़ुदरत-ए-हक़ है 'नज़ीर' क्या कहिए
जो शाह को है वही है गदा को ऐश-ओ-तरब

18. जो तुम ने पूछा तो हर्फ़-ए-उल्फ़त बर आया साहिब हमारे लब से - नज़ीर अकबराबादी

जो तुम ने पूछा तो हर्फ़-ए-उल्फ़त बर आया साहिब हमारे लब से
सो इस को सुन कर हुए ख़फ़ा तुम न कहते थे हम इसी सबब से

न देते हम तो कभी दिल अपना न होते हरगिज़ ख़राब-ओ-रुसवा
वले करें क्या कि तुम ने हम को दिखाईं झुमकीं अजब ही छब से

वो जअद-ए-मुश्कीं जो दिन को देखे तो याद उस की में शाम ही से
ये पेच-ओ-ताब आ के दिल से उलझे कि फिर सहर तक न सुलझे शब से

लगाई फ़ुंदुक़ जो हम ने उस की कलाई पकड़ी तो हँस के बोला
ये उँगली पहुँचे की याँ न ठहरी बस आप रहिए ज़रा अदब से

कहा था हम कुछ कहेंगे तुम से कहा तो ऐसा कि हम न समझे
समझते क्यूँ-कर कि उस ने लब से सुख़न निकाला कुछ ऐसे ढब से

हवस तो बोसे की है निहायत प कीजिए क्या कि बस नहीं है
जो दस्तरस हो तो मिस्ल-ए-साग़र लगावें लब को हम उन के लब से

किसी ने पूछा 'नज़ीर' को भी तुम्हारी महफ़िल में बार होगा
कहा कि होगा वो बोला कब से कहा कभू का कभी, न अब से

19. जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल - नज़ीर अकबराबादी

जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल ।
अगर न दीजै तो वूहीं क्या क्या जतावे ख़फ़्गी इताब अकड़-बल ।

जो इस बहाने से हाथ पकड़ें कि देख दिल की धड़क हमारे,
तो हाथ झप से छुडा ले कह कर मुझे नहीं है कुछ इस की अटकल ।

जो छुप के देखें तो ताड़ जावे वगर सरीहन तो देखो फुरती,
जि आते आते निगाह रुख़ तक छुपा ले मुँह को उलट के आँचल ।

करे जो व'अदा तो इस तरह का कि दिल को सुनते ही हो तसल्ली,
जो सोचिए फिर तो कैसा व'अदा फ़क़त बहाना फ़रेब और छल ।

न जुल में आवे न भिड़ के निकले न पास बैठे 'नज़ीर' इक दम,
बड़ा ही पुर-फ़न बड़ा ही स्याना बडा ही शोख़ और बड़ा ही चंचल ।

20. जो पूछा मैं ने याँ आना मिरा मंज़ूर रखिएगा - नज़ीर अकबराबादी

जो पूछा मैं ने याँ आना मिरा मंज़ूर रखिएगा
तो सुन कर यूँ कहा ये बात दिल से दूर रखिएगा

बहुत रोईं ये आँखें और पड़ी दिन रात रोती हैं
अब इन को चश्म भी कीजेगा या नासूर रखिएगा

जो पर्दा बज़्म में मुँह से उठाते हो तो ये कह दो
कि फिर याँ शम्अ के जलने का क्या मज़कूर रखिएगा

दिया दिल हम ने तुम को और तो अब क्या कहें लेकिन
ये वीराना तुम्हारा है उसे मामूर रखिएगा

नज़ीर अब तो दिल-ओ-जाँ से तुम्हारा हो चुका बंदा
मियाँ अपने ग़ुलामों में उसे मशहूर रखिएगा

21. ज़ाहिदो रौज़ा-ए-रिज़वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह - नज़ीर अकबराबादी

ज़ाहिदो रौज़ा-ए-रिज़वाँ से कहो इश्क़ अल्लाह
आशिक़ो कूचा-ए-जानाँ से कहो इश्क़ अल्लाह

जिस की आँखों ने किया बज़्म-ए-दो-आलम को ख़राब
कोई उस फ़ित्ना-ए-दौराँ से कहो इश्क़ अल्लाह

यारो देखो जो कहीं उस गुल-ए-ख़ंदाँ का जमाल
तो मिरे दीदा-ए-गिर्यां से कहो इश्क़ अल्लाह

हैं जो वो कुश्ता-ए-शमशीर निगाह-ए-क़ातिल
जा के उन गंज-ए-शहीदाँ से कहो इश्क़ अल्लाह

आह के साथ मिरे सीने से निकले है धुआँ
ऐ बुताँ मुझ दिल-ए-बिरयाँ से कहो इश्क़ अल्लाह

याद में उस के रुख़ ओ ज़ुल्फ़ की हर आन नज़ीर
रोज़-ओ-शब सुम्बुल-ओ-रैहाँ से कहो इश्क़ अल्लाह

22. झमक दिखाते ही उस दिल-रुबा ने लूट लिया - नज़ीर अकबराबादी

झमक दिखाते ही उस दिल-रुबा ने लूट लिया ।
हमें तो पहले ही उस की अदा ने लूट लिया ।

निगह के ठग की लगावट ने फ़न से कर ग़ाफ़िल
हँसी ने डाल दी फाँसी दुआ ने लूट लिया

वफ़ा जफ़ा ने ये की जंग-ए-ज़र-गरी हम से
वफ़ा ने बातों लगाया जफ़ा ने लूट लिया

लुटे हम उस की गली में तो यूँ पुकारे लोग,
कि इक फ़क़ीर को इक बादशा ने लूट लिया ।

अभी कहें तो किसी को न ए'तिबार आवे,
कि हम को राह में इक आश्ना ने लूट लिया ।

हज़ारों काफ़िले जिस शोख ने किए ग़ारत,
'नज़ीर' को भी उसी बेवफ़ा ने लूट लिया ।
(शरारे-हुस्न=सुंदरता की चिंगारी, सू=तरफ़,
रू-ब-रू=सामने, चश्म=आँख, किबलानुमा= वह
निशान जो काबे की दिशा दिखाने को बनाया
जाता है, बे-सतूं=पहाड़ का नाम)

23. तदबीर हमारे मिलने की जिस वक़्त कोई ठहराओगे तुम - नज़ीर अकबराबादी

तदबीर हमारे मिलने की जिस वक़्त कोई ठहराओगे तुम
हम और छुपेंगे यहाँ तक जी जो ख़ूब ही फिर घबराओगे तुम

बेज़ार करोगे दिल हम से या मिन्नत-ए-दर से रोकोगे
वो दिल तो हमारे बस में है किस तौर उसे समझाओगे तुम

गर जादू-मंतर सीखोगे तो सेहर हमारी नज़रों का
इस कूचे में बिठलावेंगे फिर कहिए क्यूँकर आओगे तुम

गर छुप कर देखने आओगे हम अपने बाला-ख़ाने के
सब पर्दे छोड़े रक्खेंगे फिर क्यूँकर देखने पाओगे तुम

गर जादू-मंतर सीखोगे तो सहर हमारी नज़रों का
तासीर को उस की खो देगा कुछ पेश नहीं ले जाओगे तुम

तस्वीर अगर मंगवाओगे तो देख हमारी सूरत को
हैरान मुसव्विर होवेगा फिर रंग कहो क्या लाओगे तुम

जो वक़्त 'नज़ीर' इन बातों की हम ख़ूब करेंगे हुश्यारी
जो हर्फ़ ज़बाँ पर लाओगे तुम फिर क्यूँकर दिखलाओगे तुम

24. तन पर उस के सीम फ़िदा और मुँह पर मह दीवाना है - नज़ीर अकबराबादी

तन पर उस के सीम फ़िदा और मुँह पर मह दीवाना है
सर से लय कर पाँव तलक इक मोती का सा दाना है

नाज़ नया अंदाज़ निराला चितवन आफ़त चाल ग़ज़ब
सीना उभरा साफ़ सितम और छब का क़हर यगाना है

बाँकी सज-धज आन अनूठी भोली सूरत शोख़-मिज़ाज
नज़रों में खुल खेल लगावट आँखों में शर्माना है

तन भी कुछ गदराया है और क़द भी बढ़ता आता है
कुछ कुछ हुस्न तो आया है और कुछ कुछ और भी आना है

जब ऐसा हुस्न क़यामत हो बेताब न हो दिल क्यूँकि 'नज़ीर'
जान पर अपनी खेलेंगे इक रोज़ ये हम ने जाना है

25. क़िता-तने-मुर्दा को क्या तकल्लुफ़ से रखना - नज़ीर अकबराबादी

तने-मुर्दा को क्या तकल्लुफ़ से रखना
गया वह तो जिससे मुज़य्यन ये तन था

कई बार हमने ये देखा कि जिनका
मुशय्यन बदन था मुअत्तर कफ़न था

जो कब्रे-कुहन उनकी उखड़ी तो देखा
न अज़्बे-बदन था न तारे-कफ़न था

''नज़ीर'' आगे हमको हवस थी कफ़न की
जो सोचा तो नाहक का दीवानापन था

(मुज़य्यन=शोभित, मुशय्यन=शानदार,
कब्रे-कुहन=पुरानी कब्र, अज़्बे-बदन=
शरीर का अंग)

26. तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत - नज़ीर अकबराबादी

तिरी क़ुदरत की क़ुदरत कौन पा सकता है क्या क़ुदरत
तिरे आगे कोई क़ादिर कहा सकता है क्या क़ुदरत

तू वो यकता-ए-मुतलक़ है कि यकताई में अब तेरी
कोई शिर्क-ए-दुई का हर्फ़ ला सकता है क्या क़ुदरत

ज़मीं से आसमाँ तक तू ने जो जो रंग रंगे हैं
ये रंग-आमेज़ियाँ कोई दिखा सकता है क्या क़ुदरत

हज़ारों गुल हज़ारों गुल-बदन तू ने बना डाले
कोई मिट्टी से ऐसे गुल खिला सकता है क्या क़ुदरत

हुए हैं नूर से जिन के ज़मीन ओ आसमाँ पैदा
कोई ये चाँद ये सूरज बना सकता है क्या क़ुदरत

हवा के फ़र्क़ पर कोई बना कर अब्र का ख़ेमा
तनाबें तार-ए-बाराँ की लगा सकता है क्या क़ुदरत

जम ओ अस्कंदर ओ दारा ओ कैकाऊस ओ केख़ुसरौ
कोई इस ढब के दिल बादल बना सकता है क्या क़ुदरत

किया नमरूद ने गो किब्र से दावा ख़ुदाई का
कहीं उस का ये दावा पेश जा सकता है क्या क़ुदरत

निकाला तेरे इक पुश्ते ने कफ़शीं मार-ए-मग़्ज़ उस का
सिवा तेरे ख़ुदा कोई कहा सकता है क्या क़ुदरत

निकाले लकड़ियों से तू ने जिस जिस लुत्फ़ के मेवे
कोई पेड़ों में ये पेड़े लगा सकता है क्या क़ुदरत

तिरे ही ख़्वान-ए-नेमत से है सब की परवरिश वर्ना
कोई च्यूँटी से हाथी तक खिला सकता है क्या क़ुदरत

हमारी ज़िंदगानी को बग़ैर अज़ तेरी क़ुदरत के
कोई पानी को पानी कर बहा सकता है क्या क़ुदरत

तिरे हुस्न-ए-तजल्ली का जहाँ ज़र्रा झमक जावे
तो फिर मूसा कोई वाँ ताब ला सकता है क्या क़ुदरत

दम-ए-ईसा में वो तासीर थी तेरी ही क़ुदरत की
वगर्ना कोई मुर्दे को जिला सकता है क्या क़ुदरत

तू वो महबूब चंचल है कि बार-ए-नाज़ को तेरे
बग़ैर-अज़-मुस्तफ़ा कोई उठा सकता है क्या क़ुदरत

'नज़ीर' अब तब्अ पर जब तक न फ़ैज़ान-ए-इलाही हो
कोई ये लफ़्ज़ ये मज़मूँ बना सकता है क्या क़ुदरत

27. तिरे मरीज़ को ऐ जाँ शिफ़ा से क्या मतलब - नज़ीर अकबराबादी

तिरे मरीज़ को ऐ जाँ शिफ़ा से क्या मतलब
वो ख़ुश है दर्द में उस को दवा से क्या मतलब

फ़क़त जो ज़ात के हैं दिल से चाहने वाले
उन्हें करिश्मा-ओ-नाज़-ओ-अदा से क्या मतलब

निहाल-ए-ताज़ा रहें नामिया के मिन्नत-कश
दरख़्त-ए-ख़ुश्क को नश्व-ओ-नुमा से क्या मतलब

मुराद-ओ-मक़्सद-ओ-मतलब हैं सब हवस के साथ
हवस ही मर गई फिर मुद्दआ से क्या मतलब

मुझे वो पूछे तो उस का ही लुत्फ़ है वर्ना
वो बादशाह है उसे मुझ गदा से क्या मतलब

जो अपने यार के जौर-ओ-जफ़ा में हैं मसरूर
उन्हें फिर और के मेहर-ओ-वफ़ा से क्या मतलब

रज़ा-ए-दोस्त जिन्हें चाहिए बहर-सूरत
'नज़ीर' फिर उन्हें अपनी रज़ा से क्या मतलब

28. तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा - नज़ीर अकबराबादी

तुझे कुछ भी ख़ुदा का तर्स है ऐ संग-दिल तरसा
हमारा दिल बहुत तरसा अरे तरसा न अब तरसा

मैं उस पर मुब्तला वो ग़ैर मज़हब शोख़ अब तरसा
क़यामत है मुसलमाँ आशिक़ और माशूक़ है तरसा

फ़क़त तीर-ए-निगह से तो न दिल की आरज़ू निकली
तिरे क़ुर्बां लगा अब के कोई इस से भी बेहतर सा

न जाऊँ मैं तो उस के पास लेकिन क्या करूँ यारो
यकायक कुछ जिगर में आ के लग जाता है नश्तर सा

पुकारा दूर से दे कर सफ़ीर उस ने तो क्या मेरा
धड़क कर यक-ब-यक सीने में दिल लोटा कबूतर सा

हुआ बीमार तेरे इश्क़ में जो चर्ख़-ए-चारुम पर
मसीहा पढ़ रहा है कुछ बिछा कर अपना बिस्तर सा

नज़ीर इक दो गिले करने बहुत होते हैं ख़्वाहाँ से
चलो अब चुप रहो बस खोल बैठे तुम तो दफ़्तर सा

29. तुम्हारे हाथ से कल हम भी रो लिए साहिब - नज़ीर अकबराबादी

तुम्हारे हाथ से कल हम भी रो लिए साहिब
जिगर के दाग़ जो धोने थे धो लिए साहिब

ग़ुलाम आशिक़ ओ चाकर मुसाहिब ओ हमराज़
ग़रज़ जो था हमें होना सो हो लिए साहिब

क़रार-ओ-सब्र जो करने थे कर चुके बर्बाद
हवास-ओ-होश जो खोने थे खो लिए साहिब

हमारे वज़्न-ए-मोहब्बत में कुछ हो फ़र्क़ तो अब
फिर इम्तिहाँ की तराज़ू में तौलिए साहिब

कुछ इंतिहा-ए-बुका हो तो और भी यक-चंद
सरिश्क-ए-चश्म से मोती को रोलिए साहिब

कल उस सनम ने कहा देख कर हमें ख़ामोश
कि अब तो आप भी टुक लब को खोलिए साहिब

ये सुन के मैं ने 'नज़ीर' उस से यूँ कहा हँस कर
जो कोई बोले तो अलबत्ता बोलिए साहिब

30. तू ही न सुने जब दिल-ए-नाशाद की फ़रियाद - नज़ीर अकबराबादी

तू ही न सुने जब दिल-ए-नाशाद की फ़रियाद
फिर किस से करें हम तिरी बे-दाद की फ़रियाद

तेशे की वो खट-खट का न था ग़लग़ला यारो
की ग़ौर तो वो थी दिल-ए-फ़रहाद की फ़रियाद

कल रात को उस शोख़ की जा कर पस-ए-दीवार
इक दर्द-ए-फ़राहम ने जो बुनियाद की फ़रियाद

सुनते ही कहा उस ने कि हाँ देखो तो उस जा
किस ने ये बिलकती हुई ईजाद की फ़रियाद

फ़रियाद 'नज़ीर' आगे ही उस के है बहुत ख़ूब
वाँ देखने का देखना फ़रियाद की फ़रियाद

31. तेरे भी मुँह की रौशनी रात गई थी मह से मिल - नज़ीर अकबराबादी

तेरे भी मुँह की रौशनी रात गई थी मह से मिल
ताब से ताब रुख़ से रुख़ नूर से नूर ज़िल से ज़िल

यूसुफ़-ए-मिस्र से मगर मिलते हैं सब तिरे निशाँ
ज़ुल्फ़ से ज़ुल्फ़ लब से लब चश्म से चश्म तिल से तिल

जितने हैं कुश्तगान-ए-इश्क़ उन के अज़ल से हैं मिले
अश्क से अश्क नम से नम ख़ून से ख़ून गिल से गिल

जब से मुआ है कोहकन करते हैं उस का ग़म सदा
कोह से कोह जू से जू संग से संग सिल से सिल

यार मिला जब ऐ 'नज़ीर' मेरे गले, तो मिल गए
जिस्म से जिस्म जाँ से जाँ रूह से रूह दिल से दिल

32. थी छोटी उस के मुखड़े पर कल ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल और तरह - नज़ीर अकबराबादी

थी छोटी उस के मुखड़े पर कल ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल और तरह
फिर देखा आज तो उस गुल के थे काकुल के बल और तरह

वो देख झिड़कता है हम को कर ग़ुस्सा हर दम और हमें
है चैन उसी के मिलने से ज़िन्हार नहीं कल और तरह

मालूम नहीं क्या बात कही ग़म्माज़ ने उस से जो हम से
थीं पहली बातें और नमत अब बोले है चंचल और तरह

दिल मुझ से उस के मिलने को कहता है तो उस के पास मुझे
जब ले पहुँचा था भेस बदल फिर अब के ले चल और तरह

है कितने दिनों से इश्क़ 'नज़ीर' उस यार का हम को जिस की हैं
सुब्ह और बिरन शाम और फबन आज और दुवश कल और तरह

33. थे आगे बहुत जैसे कि ख़ुश यार हमीं से - नज़ीर अकबराबादी

थे आगे बहुत जैसे कि ख़ुश यार हमीं से
ऐसे ही तुम अब रहते हो बेज़ार हमीं से

महफ़िल में जो देखा तो इधर तुम हो खफ़ा, और
साक़ी को भी है हुज्जतो-तकरार हमीं से

औरों से जो कहते हो कि हम उनसे हैं नाख़ुश
इसको तो फ़कत करना है इज़हार हमीं से

समझेगा जो रुतबे को ''नज़ीर'' अहले-वफ़ा के
तो मिलने लगेगा वो तरहदार हमीं से
(बेज़ार=नाराज़, अहले-वफ़ा=प्रेमी,
तरहदार=सुन्दर,प्रेमी)

34. दरिया ओ कोह ओ दश्त ओ हवा अर्ज़ और समा - नज़ीर अकबराबादी

दरिया ओ कोह ओ दश्त ओ हवा अर्ज़ और समा
देखा तो हर मकाँ में वही है रहा समा

है कौन सी वो चश्म नहीं जिस में उस का नूर
है कौन सा वो दिल कि नहीं जिस में उस की जा

क़ुमरी उसी की याद में कू-कू करे है यार
बुलबुल उसी के शौक़ में करती है चहचहा

मुफ़्लिस कहीं ग़रीब तवंगर कहीं ग़नी
आजिज़ कहीं नबल कहीं सुल्ताँ कहीं गदा

बहरूप सा बना के हर इक जा वो आन आन
किस किस तरह के रूप बदलता है वाह-वा

मुल्क-ए-रज़ा में कर के तवक्कुल की जिंस को
बैठें हैं सब इसी की दुकानें लगा लगा

सब का इसी दुकान से जारी है कारोबार
लेता है कोई हुस्न कोई दिल है बेचता

देखा जो ख़ूब ग़ौर से हम ने तो याँ 'नज़ीर'
बाज़ार-ए-मुस्तफ़ा है ख़रीदार है ख़ुदा

35. दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह - नज़ीर अकबराबादी

दामान-ओ-कनार अश्क से कब तर न हुए आह
दो चार भी आँसू मिरे गौहर न हुए आह

जैसे कि दिल उन लाला-अज़ारों के हैं संगीं
दिल चाहने वालों के भी पत्थर न हुए आह

कहते हैं कि निकला है वो अब सैर-ए-चमन को
क्या वक़्त है इस वक़्त मिरे पर न हुए आह

ख़ूबाँ के तो हम फ़िदवी ओ बंदा भी कहाये
लेकिन वो हमारे न हुए पर न हुए आह

क्या तफ़रक़ा है जब कि गए हम तो न था वो
और आया वो हम पास तो हम घर न हुए आह

क्या नक़्स है उस ग़ैरत-ए-ख़ुर्शीद के आगे
हम लाल तो कब होते हैं अख़गर न हुए आह

दरिया भी बहे मय के पर ऐ बादा-परस्ताँ
ये ख़ुश्क वो लब हैं कि कभी तर न हुए आह

देख उस को 'नज़ीर' अब मुझे आता है यही रश्क
क्यूँ हम भी उसी तरह के दिलबर न हुए आह

36. दिखाई जब तेरे मुखड़े ने आ झलक पै झलक - नज़ीर अकबराबादी

दिखाई जब तेरे मुखड़े ने आ झलक पै झलक ।
लगी न फिर मेरी उस रोज़ से पलक पै पलक ।

क़दम-क़दम पै मेरा जी पड़ा निकलता है,
गजब है यह तेरे रुख़सार की थलक पै थलक ।

गया जो नाला मेरा आज आसमाँ के क़रीब,
तो उसके ख़ौफ़ से थर्रा गए फलक पै फलक ।

प्याला उससे ज़्यादा तू भर के दे साक़ी,
कि तुझको आती है ख़ुश जाम की झलक पै झलक ।

’नज़ीर’ कह कि तू अब किसके ग़म में बैठा है,
कि आँसुओं की चली आती है ढलक पै ढलक ।।

(रुख़सार=गाल, नाला=रोना-धोना, फलक=आकाश)

37. दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब - नज़ीर अकबराबादी

दिया जो साक़ी ने साग़र-ए-मय दिखा के आन इक हमें लबालब
अगरचे मय-कश तो हम नए थे प लब पे रखते ही पी गए सब

चलते हैं देने को हम जिसे दिल वो हँस के ले ले बस अब हमें तो
यही है ख़्वाहिश यही तमन्ना यही है मक़्सद यही है मतलब

कभी जो आते हैं देखने हम तो आप तेवरी को हैं चढ़ाते
जो हर-दम आवें तो कीजे ख़फ़्गी मियाँ हम आते हैं ऐसे कब कब

न पी थी हम ने ये मय तो जब तक 'नज़ीर' हम में था दीन-ओ-ईमाँ
लगा लबों से वो जाम फिर तो कहाँ का दीन और कहाँ का मज़हब
38. दिल को चश्म-ए-यार ने जब जाम-ए-मय अपना दिया
दिल को चश्म-ए-यार ने जब जाम-ए-मय अपना दिया
उन से ख़ुश हो कर लिया और कह के बिस्मिल्लाह पिया

देख उस की जामा-ज़ेबी गुल ने अपना पैरहन
इस क़दर फाड़ा कि बुलबुल से नहीं जाता पिया

बे-क़रारी ने निगाह-ए-सीमबर फेरी इधर
की इनायत हम को उस सीमाब ने ये कीमिया

उस के कूचे में जिसे जा बैठने को मिल गई
मसनद-ए-ज़रबाफ़ पर ग़ालिब है उस का बोरिया

दिल छुपा बैठा तो उस ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल से 'नज़ीर'
ऐ असीर-ए-दाम-ए-ना-फ़हमी ये तू ने क्या किया

39. दिल को ले कर हम से अब जाँ भी तलब करते हैं आप - नज़ीर अकबराबादी

दिल को ले कर हम से अब जाँ भी तलब करते हैं आप
लीजिए हाज़िर है पर ये तो ग़ज़ब करते हैं आप

मोरिद-ए-तक़्सीर गर होते तो लाज़िम थी सज़ा
ये जफ़ा फिर कहिए हम पर किस सबब करते हैं आप

करते हो अबरू से कुश्ता रुख़ से देते हो जिला
हुस्न में एजाज़ क्या क्या रोज़-ओ-शब करते हैं आप

क़ैस से जो था किया दर-पर्दा लैला ने सुलूक
सो वही ऐ मेहरबाँ हम से भी अब करते हैं आप

बे-कली होती है हसरत से दिल-ए-सद-चाक को
अपनी ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं को शाना जब करते हैं आप

हम ने पूछा फिर भी उस की जाँ फिरी सब जिस्म में
नज़अ में दूरी से जिस को जाँ-ब-लब करते हैं आप

हँस के फ़रमाया 'नज़ीर' अपनी दुआ-ए-लुत्फ़ से
ये भी हो सकता है क्या इस का ओजब करते हैं आप

40. दिल ठहरा एक तबस्सुम पर कुछ और बहा ऐ जान नहीं - नज़ीर अकबराबादी

दिल ठहरा एक तबस्सुम पर कुछ और बहा ऐ जान नहीं
गर हँस दीजे और ले लीजे तो फ़ाएदा है नुक़सान नहीं

ये नाज़ है या इस्तिग़्ना है या तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है यारो
जो लाख कोई तड़पे सिसके फ़रियाद करे कुछ ध्यान नहीं

जब सुनता है अहवाल मिरा यूँ कहता है अय्यारी से
है कौन वो उस से हम को तो कुछ जान नहीं पहचान नहीं

कुछ बन नहीं आता क्या कीजे किस तौर से मिलिए ऐ हमदम
वो देख हमें रुक जाता है और हम को चैन इक आन नहीं

तर देख के मेरी आँखों को ये बात सुनाता है हँस कर
हैं कहते जिस को चाह मियाँ वो मुश्किल है आसान नहीं

दिल फँस कर उस की ज़ुल्फ़ों में तदबीर रिहाई की मत कर
कब छूटा उस के दाम से तू वो दाना है नादान नहीं

41. दिल यार की गली में कर आराम रह गया - नज़ीर अकबराबादी

दिल यार की गली में कर आराम रह गया
पाया जहाँ फ़क़ीर ने बिसराम रह गया

किस किस ने उस के इश्क़ में मारा न दम वले
सब चल बसे मगर वो दिल-आराम रह गया

जिस काम को जहाँ में तू आया था ऐ 'नज़ीर'
ख़ाना-ख़राब तुझ से वही काम रह गया

42. दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा - नज़ीर अकबराबादी

दिल हम ने जो चश्म-ए-बुत-ए-बेबाक से बाँधा
फिर नशा-ए-सहबा से न तिरयाक से बाँधा

उस ज़ुल्फ़ से जब रब्त हुआ जी को तो हम ने
शाने का तसव्वुर दिल-ए-सद-चाक से बाँधा

देखा न क़द-ए-सर्व को फिर हम ने चमन में
जिस दिन से दिल उस क़ामत-ए-चालाक से बाँधा

जो आहू-ए-दिल भा गया उस सद-फ़गन को
झप उस ने उसे काकुल-ए-पेचाक से बाँधा

और जो न पसंद आया उसे वो तो 'नज़ीर' आह
ने सैद किया उस को न फ़ितराक से बाँधा

43. दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके - नज़ीर अकबराबादी

दिल हर घड़ी कहता है यूँ जिस तौर से अब हो सके
उठ और सँभल घर से निकल और पास उस चंचल के चल

देखी जो उस महबूब की हम ने झलक है कल की कल
पाई हर इक तावीज़ में अपने दिल-ए-बेकल की कल

जब नाज़ से हँस कर कहा उस ने अरे चल क्या है तू
क्या क्या पसंद आई हैं उस नाज़नीं चंचल की चल

है वो कफ़-ए-पा नर्म-तर उस की कि वक़्त-ए-हम-सरी
डाले कफ़-ए-पा-ए-सनम नर्मी वहीं मख़मल की मल

हम हैं तुम्हारे मुब्तला मुद्दत से है ये आरज़ू
बैठो हमारे पास भी ऐ जाँ कभी इक पल की पल

है दम ग़नीमत ऐ 'नज़ीर' अब मय-कदे में बैठ कर
तू आज तो मय पी मियाँ फिर देख लीजो कल की कल

44. दुनिया है इक निगार-ए-फ़रीबंदा जल्वा-गर - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया है इक निगार-ए-फ़रीबंदा जल्वा-गर
उल्फ़त में इस की कुछ नहीं जुज़-कुल्फ़त-ओ-ज़रर

होता है आख़िर इस के गिरफ़्तार का ये हाल
जैसे मगस के शहद में भर जावें बाल-ओ-पर

सेहर-ओ-फ़ुसूँ वो रखती है बहर-ए-फ़रेब-ए-दिल
हैराँ हो सेहर-ए-सामरी भी जिस को देख कर

लेने को नक़्द-ए-उम्र के शीरीं है मिस्ल-ए-क़ंद
जब ले चुके तो होती है हंज़ल से तल्ख़-तर

जो उस से दिल लगाते हैं आख़िर हो मुन्फ़इल
मलते हैं अपने दस्त-ए-तअस्सुफ़ ब-यक दिगर

तू भी जो उस के पास लगावेगा दिल तो यार
उस नख़्ल से मिलेगा तुझे भी यही समर

मैं तुझ को उस के रब्त से करता न मनअ आह
लेकिन करूँ मैं क्या तुझे दरपेश है सफ़र

तू इस मसल को सोच ज़रा गर सफ़र-गज़ीं
करता है क़त्अ राह को बाँधे हुए कमर

गर दरमियान-ए-रह कोई मिल जाए बाग़ उसे
तू चलते चलते देखता जाता है इक नज़र

बस इस निगार-ख़ाने को तू भी इसी नमत
सैर-ए-मुसाफ़िराना कर और इस से दर-गुज़र

इस हर्फ़ को 'नज़ीर' के यूँ दिल में दे मकाँ
करता है जैसे नक़्श नगीं के जिगर में घर

45. दूर से आए थे साक़ी सुन के मयख़ाने को हम - नज़ीर अकबराबादी

दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम ।

मय भी है, मीना भी है, सागर भी है, साक़ी नहीं,
दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम ।

क्यों नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बेख़बर,
क्या तेरे आशिक हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम ।

हम को फँसना था क़फ़स में क्या गिला सैयाद से ।
बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम ।

ताक-ए-अब्रू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई.
अब तो पूजेंगे उसी काफ़िर के बुतख़ाने को हम ।

बाग में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल,
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम ।

क्या हुई तकसीर हम से तू बता दे ऐ ’नज़ीर’,
ताकि शादी-ए-मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम ।।

(मयख़ाने=शराबघर, पैमाना=शराब का जाम,
मीना=सुराही, सागर=शराब का प्याला, साक़ी=
शराब पिलाने वाला, कफ़स=पिंजरा, सैयाद=
शिकारी, आब=पानी, अब्रू=भौंह, सहरा=जंगल,
तकसीर=ग़लती, शादी-ए-मर्ग=मौत की ख़ुशी)

46. देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की - नज़ीर अकबराबादी

देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की
धान के भी खेत ने अब आन मानी आप की

क्या तअज्जुब है अगर देखे तो मुर्दा जी उठे
चैन नेफ़ा की ढलक पेड़ू पे आनी आप की

हम तो क्या हैं दिल फ़रिश्तों का भी काफ़िर छीन ले
टुक झलक दिखला के फिर अंगिया छुपानी आप की

आ पड़ी दो-सौ बरस के मुर्दा-ए-बे-जाँ में जान
जिस के ऊपर दो घड़ी हो मेहरबानी आप की

इक लिपट कुश्ती की हम से भी तो कर देखो ज़रा
हाँ भला हम भी तो जानें पहलवानी आप की

छल्ले ग़ैरों पास है वो ख़ातम-ए-ज़र ऐ निगार
है हमारे पास भी अब तक निशानी आप की

वक़्त तो जाता रहा पर बात बाक़ी रह गई
है ये झूटी दोस्ती अब हम ने जानी आप की

क्या अजब सूरत रक़ीब-ए-रू-सियह की देख कर
ख़ौफ़ से हालत हुई हो पानी पानी आप की

एक आलम कोहकन की तरह सर फोड़ेगा अब
गर इसी सूरत रही शीरीं-ज़बानी आप की

क्या हमें लगती है प्यारी जब वो कहती है 'नज़ीर'
है मियाँ कुछ इन दिनों ना-मेहरबानी आप की

47. देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का - नज़ीर अकबराबादी

देख ले जो आलम उस के हुस्न-ए-बाला-दस्त का
हौसला इतना कहाँ अपनी निगाह-ए-पस्त का

नीस्त रहते हम तो ये सैरें कहाँ से देखते
ये फ़क़त एहसान है उस ज़ात-ए-पाक-ए-मस्त का

बे-सदा आ कर लगा और हो गया सीने के पार
ये ख़दंग-ए-साफ़ था किस बे-निशाँ की शस्त का

बात कुछ कहता है और निकले है मुँह से कुछ 'नज़ीर'
ये नशा तुझ को हुआ किस की निगाह-ए-मस्त का

48. दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है - नज़ीर अकबराबादी

दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है
सब मुहय्या है जो इस हंगाम के शायाँ है शय

इस तरह हैं कूचा-ओ-बाज़ार पर नक़्श-ओ-निगार
हो अयाँ हुस्न-ए-निगारिसताँ की जिन से ख़ूब रे

गर्म-जोशी अपने बा-जाम-ए-चराग़ाँ लुत्फ़ से
क्या ही रौशन कर रही है हर तरफ़ रोग़न की मय

माइल-ए-सैर-ए-चराग़ाँ ख़ल्क़ हर जा दम-ब-दम
हासिल-ए-नज़्ज़ारा हुस्न-ए-शम्अ-रू याँ पय-ब-पय

आशिक़ाँ कहते हैं माशूक़ों से बा-इज्ज़-ओ-नियाज़
है अगर मंज़ूर कुछ लेना तो हाज़िर हैं रूपे

गर मुकर्रर अर्ज़ करते हैं तो कहते हैं वो शोख़
हम से लेते हो मियाँ तकरार-ए-हुज्जत ता-ब-कै

कहते हैं अहल-ए-क़िमार आपस में गर्म-ए-इख़्तिलात
हम तो डब में सौ रूपे रखते हैं तुम रखते हो के

जीत का पड़ता है जिस का दाँव वो कहता हूँ मैं
सू-ए-दस्त-ए-रास्त है मेरे कोई फ़र्ख़न्दा-पय

है दसहरे में भी यूँ गर फ़रहत-ओ-ज़ीनत 'नज़ीर'
पर दिवाली भी अजब पाकीज़ा-तर त्यौहार है

49. धुआँ कलेजे से मेरे निकला जला जो दिल बस कि रश्क खा कर - नज़ीर अकबराबादी

धुआँ कलेजे से मेरे निकला जला जो दिल बस कि रश्क खा कर
वो रश्क ये था कि ग़ैर से टुक हँसा था चंचल मिसी लगा कर

फ़क़त जो चितवन पे ग़ौर कीजे तो वो भी वो सेहर है कि जिस का
करिश्मा बंदा ग़ुलाम ग़म्ज़ा दग़ाएँ नौकर फ़रेब चाकर

ख़िराम की है वो तर्ज़ यारो कि जिस में निकलीं कई अदाएँ
क़दम जो रखना तो तन के रखना जो फिर उठाना तो डगमगा कर

लटक में बंदों की दिल जो आवे तो ख़ैर बंदे ही उस को ले लें
वगर्ना आवे तो फिर न छोड़े इधर से बाला झमक दिखा कर

बहाल क्या है जो दू-ब-दू हो नज़र से कोई नज़र लड़ावे
मगर किसी ने जो उस को देखा तो सौ ख़राबी से छुप-छुपा कर

सुने किसी के न दर्द-ए-दिल को वगर सुने तो झिड़क के उस को
ये साफ़ कह दे तू क्या बला है जो सर फिराता है नाहक़ आ कर

'नज़ीर' वो बुत है दुश्मन-ए-जाँ न मिलयो उस से तू देख हरगिज़
'गर मिला तो ख़ुदा है हाफ़िज़ बचे हैं हम भी ख़ुदा ख़ुदा कर


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