पशु-पक्षियों पर कविताएं नज़ीर अकबराबादी Poems on Animals Birds Nazeer

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Nazeer-Akbarabadi

पशु-पक्षियों पर कविताएं नज़ीर अकबराबादी
Poems on Animals Birds Nazeer Akbarabadi

1. हंसनामा - नज़ीर अकबराबादी

दुनियां की जो उल्फ़त का हुआ उसको सहारा।
और उसने खु़शी को मेरी ख़ातिर में उतारा॥
देखी जो यह गफ़लत तो मेरा दिल यह पुकारा।
आया था किसी शहर से एक हंस बिचारा॥
एक पेड़ पै जंगल के हुआ उसका गुज़ारा॥1॥

चंडूल, अग़न, अबलके झप्पान बने ढैयर।
मीना व बये किलेकिले, बगले भी समनबर।
तोते भी कई तौर के, टुइयाँ कोई लहबर।
रहते थे बहुत जानवर उस पेड़ के ऊपर॥
उसने भी किसी शाख़ पै घर अपना संवारा॥2॥

बुलबुल ने किया उसकी मुहब्बत में खु़श आहंग।
और कोकिले कोयल ने भी उल्फ़त को लिया संग॥
खंजन में कुलंगों में भी चाहत की मची जंग॥
देखा जो तयूरों ने उसे हुस्न में खुश रंग॥
वह हंस लगा सबकी निगाहों में पियारा॥3॥

सीमुर्ग भी सौ दिल से हुए मिलने के शायक़।
गुढ़ पंख भी पंखों के हुए झलने के लायक़॥
सारस भी, हवासिल भी हुए उसके मुआफ़िक़।
बाज़ लगड़ व जर्रओ शाहीं हुए आशिक़॥
शिकरों ने भी शक्कर से किया उसका मुदारा॥4॥

कुछ सब्ज़को बड़नक्के व कुछ टनटनो बर्रे।
पिडंख़ी से लगा टोबड़ों कु़मरी व हरीवे॥
गुगाई बगेरी ब लटूरे व पपीहे।
कुछ लाल चिड़े पोदने पिद्दे ही न ग़श थे॥
पिदड़ी भी समझती थी उसे आंख का तारा॥5॥

चाहत के गिरफ्तार बटेरें लवें तीतर।
कुबकों के तदरुओं के भी चाहत में बंधे पर॥
हुदहुद भी हुए हित के बढ़ैया इधर उधर।
जाग़ो ज़ग़न व तूतिओ ताऊसो कबूतर॥
सब कर ने लगे उसकी मुहब्बत का इशारा॥7॥

शक्ल उसकी वहीं जी में खपी शामचिड़े के।
दी चाह जता फिर उसे झांपू ने भी झप से॥
हरियल भी हुए उसके बड़े चाहने वाले।
जितने ग़रज उस पेड़ पै रहते थे परिन्दे॥
उस हंस पर उन सबने दिलो जान को वारा॥8॥

ख़्वाहिश यह हुई सबकी कि हर दम उसे देखें।
और उसकी मुहब्बत से ज़रा मुंह को न फेरें॥
दिन रात उसे खु़श रक्खें नित सुख उसे देवें।
सोहबत जो हुई हंस की उन जानवरों में॥
यक चंद रहा खू़ब मुहब्बत का गुज़ारा॥8॥

सब होके खु़श उस की मये उल्फ़त लगे पीने।
और प्रीत से हर एक ने वहां भर लिए सीने॥
हर आन जताने लगे चाहत के क़रीने।
उस हंस को जब हो गये दो चार महीने॥
एक रोज़ वह यारों की तरफ़ देख पुकारा॥8॥

यां लुत्फ़ो करम तुमने किये हम पै हैं जो जो।
तुम सबकी यह खू़बी है कहां हमसे बयां हो॥
तक़सीर कोई हम से हुई होवे तो बख़्शो।
लो, यारो, हम अब जावेंगे कल अपने वतन को॥
अब तुमको मुबारक रहे यह पेड़ तुम्हारा॥9॥

अब तक तो बहुत हम रहे फु़र्सत से हम आग़ोश।
अब यादे वतन दिल की हमारे हुई हमदोश॥
जब हर्फ़ेजुदाई का परिन्दों ने किया गोश।
इस बात के सुनते ही जो हर इक के उड़े होश॥
सब बोले यह फुर्क़त तो नहीं हमको गवारा॥10॥

बिन देखे तुम्हारे हमें कब चैन पड़ेंगे।
एक आन न देखेंगे तो दिल ग़म से भरेंगे॥
गर तुमने यह ठहराई तो क्या सुख से रहेंगे।
हम जितने हैं सब साथ तुम्हारे ही चलेंगे॥
यह दर्द तो अब हमसे न जावेगा सहारा॥11॥

फिर हंस ने यह बात कही उनसे कई बार।
कुछ बस नहीं, अब चलने की साअ़त से हैं नाचार॥
आंखें हुईं अश्कों से परिन्दों की गुहरबार।
उसमें जो शवे कूच की हुई सुबह नमूदार॥
पर अपना हवा पर वहीं उस हंस ने मारा॥12॥

वह हंस जब उस पेड़ से वां को चला नागाह।
मुंह फेर के इधर से वतन की जों ही ली राह॥
देखा जो उसे जाते हुए वां से तो कर आह।
सब साथ चले उस के वह हमराज हवा ख़्वाह॥
हर एक ने उड़ने के लिए पंख पसारा॥13॥

और हंस की उन सबको रफ़ाकत हुइ ग़ालिब।
जब वां से चला वह तो हुई बे बसी ग़ालिब॥
उल्फ़त थी जो फुर्क़त की वह सब पर हुई ग़ालिब।
दो कोस उड़े थे जो हुई माँदगी ग़ालिब॥
फिर पर में किसी के न रहा कुव्वतोयारा॥14॥

पर उनके हुए तर जों हीं दूरी की पड़ी ओस।
रोए कि रफ़क़त की करें क्यूं कि क़दमबोस॥
थक थक के लगे गिरने तो करने लगे अफ़सोस।
कोई तीन, कोई चार, कोई पांच उड़ा कोस॥
कोई आठ, कोई नौ, कोई दस कोस में हारा॥15॥

कुछ बन न सके उनसे रफ़ीक़ी के जो वां कार।
और इतने उड़े साथ कि कुछ होवे न इज़हार॥
जब देखी वह मुश्किल तो फिर आखि़र के तईं हार।
कोई यां रहा, कोई वां रहा, कोई होगया नाचार॥
कोई और उड़ा आगे जो था सब मैं करारा॥16॥

थी उसकी मुहव्वत की जो हर एक ने पी मै।
समझे थे बहुत दिल में वह उल्फ़त को बड़ी शै॥
जब हो गए बेबस तो फिर आखि़र यह हुई रै।
चीलें रहीं, कौए गिरे, और बाज़ भी थक गै॥
उस पहली ही मंजिल में किया सबने किनारा॥17॥

दुनिया की जो उल्फ़त है तो उसकी है यह कुछ राह।
जब शक्ल यह होवे तो भला क्यूंकि हो निर्वाह॥
नाचारी हो जिस जाँ में तो वां कीजिए क्या चाह।
सब रह गए जो साथ के साथी थे ‘नज़ीर’ आह॥
आखि़र के तईं हंस अकेला ही सिधारा॥18॥
(समनबर=सफे़द रंग के, सीमुर्ग=क़ाफ़ पर्वत पर
रहने वाला बड़ा पक्षी, मुदारा=सम्मान, जाग़ो=कौआ,
ज़ग़न=चील, ताऊस=मोर, इशारा=संकेत, सोहबत=
संगति, उल्फ़त=प्रेम मदिरा, क़रीने=ढंग, करम=
कृपा, तक़सीर=ख़ता,भूल, हमदोश=साथी,सहयोगी,
हर्फ़ेजुदाई=वियोग-शब्द, गोश=सुनना,कान, फुर्क़त=
वियोग, गुहरबार=मोती बरसाना,आँसू बहाना,
नमूदार=प्रकट, नागाह=अचानक, हमराज=मित्र,
रफ़ाकत=मित्रता, फुर्क़त=वियोग, माँदगी=थकान,
कुव्वतोयारा=शक्ति और हिम्मत, क़दमबोस=पद
स्पर्श, रफ़ीक़ी=मैत्री)

2. पोदने और गुढ़ पंख की लड़ाई - नज़ीर अकबराबादी

एक पोदने का हाल अ़जब सुनने में आया।
था घोंसला एक पेड़ उपर उसने बनाया॥
और पोदनी और बच्चों को था उसमें बिठाया।
क़द में तो वह था पोदना छोटा सा कहाया॥
पर दिल में वह गढ़ पंख से ठहरा था सवाया॥1॥

कौए को समझता था वह एक मक्खी का बच्चा।
और चील को गिनता था वह नाचीज़ पतिंगा॥
बगले को बच्चा कीड़े का और बुज़्जे़ को भुनगा।
लघड़ी को समझाता कि तू है क्या? अरी चल जा॥
हमने तेरे लग्घड़ को है चुटकी में उड़ाया॥2॥

एक रोज़ वह सारस से लगा कहने उछल कर।
जिस पेड़ पै हम बैठे हैं हिलता है सरासर॥
सारस ने यह सुन पोदने से यूं कहा हंस कर।
क्या बात तुम ऐसे ही हो भारी व तनावर॥
हर पेड़ को है बोझ तुम्हारे ने हिलाया॥3॥

रहता था जिस पेड़ पै वह पेड़ था बरना।
आगे कहीं उस दश्त में एक अरनी व अरना॥
खु़श आया उन्हें वां जो हरी घास का चरना।
ठहराया उन्होंने उसी जंगल में उतरना॥
रहने लगे वह भी उन्हें सहरा जो वह भाया॥4॥

वां पोदनी और अरनी में बहनापा जो ठहरा।
दिन को वह लगी रहने खु़शी होके उसी जा॥
और रात को रहने लगी वह अरने कने जा।
खु़श होके लगी रहने हुआ प्यार जो गहरा॥
दोनों ने ग़रज़ खू़ब मुहब्बत को बढ़ाया॥5॥

एक रोज़ वह अरनी कहीं चरती हुई आई।
और आते ही उस पेड़ से पीठ अपनी खुजाई॥
वह पेड़ हिला पोदने ने धूम मचाई।
हो जावेगी इस बात से मर्दों में लड़ाई॥
इस तेरे खुजाने ने बहुत हमको सताया॥6॥

अरनी यह हंसी सुनके और अरने से कहा ज़ा।
अरना भी हंसा और कहा जा, ‘फिर तू खुजा आ’॥
और आई खुजाने को तो यूं पोदना बोला।
बदज़ात यह तेरी नहीं तक़सीर में समझा॥
शायद तेरे अरने ने तुझे है यह सिखाया॥7॥

कल इसकी सज़ा पावेगा अरना तेरा बदखू़।
जो सुबह लगी होने तो वह पोदना दिल जू॥
आया जहां ससोता था वह अरना पड़ा खु़श हो।
घर पैठ गया कान में बांध अपने परों को॥
फुर फुर और पर्दे में पंजों को गड़ाया॥8॥

अरना लगा टकराने को सर शोर मचाकर।
अरनी गिरी उस पोदनी के पांव पै जाकर॥
जब पोदनी ने उसके तरस हाल पै खाकर।
जल्दी से निकाला उसे आवाज सुनाकर॥
अरने को सिवा भागने के कुछ न बन आया॥9॥

भागा ग़रज ऐसा कि न फिर पीछे को देखा।
अरनी भी गई भागती साथ अरने के घबरा॥
उस भागने में दोनों ने फिर मुंह को न फेरा।
अरना तो "नज़ीर", अपने उधर ख़ौफ से भागा॥
यां घोंसले में पोदना फूला न समाया॥10॥
(तनावर=स्वस्थ,मोटे, तक़सीर=ख़ता,ग़लती)

3. कौवे और हिरन की दोस्ती - नज़ीर अकबराबादी

एक दस्त में सुना है एक खू़ब था हिरन।
बच्चा ही था अभी न हुआ था बड़ा हिरन॥
फिरता था चौकड़ी का दिखाता मज़ा हिरन।
देखा जो एक कौवे ने वह खु़शनुमा हिरन॥
दिल को निहायत उसके वह अच्छा लगा हिरन॥1॥

दो बातें करके कौवे ने उसका लगा लिया।
दम में हिरन भी कौवे की उल्फ़त में आ गया॥
कौवे हिरन में ठहरी जो गहरी मुहब्बत आ।
कौवा जिधर जिधर को खु़शी होके जाता था॥
फिरता था उसके साथ लगा जा बजा हिरन॥2॥

एक गीदड़ उस हिरन के कने आके नाबकार।
बोला हज़ार जान से मैं तुम पै हूं निसार॥
मुझको भी अपना जान गुलाम और दोस्तदार।
और दिल में यह कि कीजे किसी तौर से शिकार॥
उसकी दग़ाओमक्र से वाक़िफ़ न था हिरन॥3॥

गीदड़ यह कहके मक्र से जिस दम गया उधर।
कौवा हिरन से कहने लगा करके शीरो शर॥
यह सख़्त मक्र बाज़ है कर इस से तू हिज़र।
एक दिन दग़ा से तुझको यह पकड़ेगा फ़ितनागर॥
सुनकर यह बात कौवे की चुप हो रहा हिरन॥4॥

दिन दूसरे हिरन कने गीदड़ फिर आ गया।
कौवे को सोता देख यह बोला वह पुरदग़ा॥
मैं आज देख आया हूं, क्या खेत एक हरा।
तुम आओ उसको चरके तो हो शाद दिल मेरा॥
सुनते ही उसके साथ उछलता चला हिरन॥5॥

जिस खेत पर यह लेके गया उसको बदसगाल।
वां पहले देख आया था वह एक हिरन का जाल॥
ले पहुंचा जब हिरन के तईं खेत पर शृगाल।
जाते ही वां हिरन ने दिया मुंह को उसमें डाल॥
मुंह डालते ही जाल में वां फंस गया हिरन॥6॥

यह फड़फड़ता आ गया कौवा भी नागहां।
गीदड़ को दे के गाली हिरन से कहा कि हां॥
तड़पै मत इसमें वर्ना तू होवे गा नातवां।
कौवे की बात सुनते ही हिम्मत को बांध वां॥
जैसे गिरा पड़ा था वहीं फिर उठा हिरन॥7॥

गीदड़ लगा जब आने हिरन की तरफ़ झपट।
कौआ पुकारा मार तू सींग एक जो जावे हट॥
या एक खुरी तू ऐसी लगा पांव की झपट।
जावे जो उसके लगते ही गीदड़ का पेट फट॥
सुनकर खड़े हो सींग हिलाने लगा हिरन॥8॥

गीदड़ ने खू़ब कौए को दीं जल के गालियां।
सय्याद वां हुआ था किसी सिम्त को रवाँ॥
इसमें शिकारी आके हुआ दूर से अयां।
कौआ पुकारा लेट जा दम बंद करके हां॥
दम बंद करके अपना वहीं गिर पड़ा हिरन॥9॥

गीदड़ ने उसको देख के एक जाके झाड़ी ली।
सय्याद उस हिरन को पड़ा देख उस घड़ी॥
अफ़सोस करके दाम की रस्सी खोल दी।
कौआ पुकारा भाग, अरे वक़्त है यही॥
सुनते ही वां से चौकड़ी भर कर उड़ा हिरन॥10॥

सय्याद ने जो देखा हिरन उठ चला झपाक।
जल्दी से दौड़ा पीछे हिरन के वह सीना चाक॥
सोटे को फेंक मारा जो फ़र्ती से उसने ताक।
भागा हिरन लगा वों ही गीदड़ के आ खटाक॥
सर इसका फूटा और वह सलामत गया हिरन॥11॥

गीदड़ ने उस हिरन का जो चीता था वां बुरा।
पाई उसी से अपनी बदी की वहीं सजा॥
था यह तो नस्र मैंने इसे नज़्म में किया।
पहुंचा ‘नज़ीर’ जब वह खु़शी होके अपनी जा॥
कौवे के साथ फिर वह बहुत खु़श रहा हिरन॥12॥
(दस्त=जंगल, खु़शनुमा=सुन्दर, निहायत=अत्यधिक,
निसार=कुर्बान,न्यौछावर, दोस्तदार=मित्र,
दग़ाओमक्र=छल-कपट, हिज़र=उपेक्षा,भय,
फ़ितनागर=उपद्रवी, पुरदग़ा=धोखे बाज़, बदसगाल=
बुराई चाहने वाला, शृगाल=गीदड़, नातवां=अशक्त,
सय्याद=जाल बिछाने वाला,शिकारी,बहेलिया, दाम=
फंदा,जाल)

4. बया - नज़ीर अकबराबादी

अब हाथ पर मेरे जो नमूदार है बया।
ज़र्दी में अपने रंग की ज़रदार है बया।
खूबां के देखने का तलब गार है बया।
आशिक़ दिलों की गर्मीए बाजार है बया।
जितने बये हैं, सब में यह सरदार है बया॥1॥

जिस दिन से मेरे हाथ यह अय्यार है लगा।
क्या क्या परीरुखों की बहारें हैं दी दिखा।
कौड़ी कभी उठा, कभी मेंहदी उतार ला।
पेटी से उसकी यारो यह डोरा नहीं बंधा।
लड़कों की उल्फ़तों में गिरफ्तार है बया॥2॥

करने को दीद जब से लिया है यह हमने मोल।
फिरते हैं साथ तब से कई, दिलबरों के ग़ोल।
छल्ला, अंगूठी लाता है, हर दम गिरह से खोल।
पानी कुऐं से खींचे है, कर पोस्तों के डोल।
ऐसा हुनर में अपने नुमूदार है बया॥3॥

गर यह तमाशे पर कभी अपने उतर पड़े।
लड़के अमीरों के फिरें, इधर उधर पड़े।
पर मुझको यह यक़ीं है अगर टुक नज़र पड़े।
हाथी से बादशाह का भी लड़का उतर पड़े।
ऐसा हमारे पास यह तैयार है बया॥4॥

आगे हमारे पास था बच्चा गिलहरी का।
तोता बनेटी, और था बगला सधा हुआ।
उनको तो हाय चोर कोई ले गया चुरा।
अब इसका है हमारे तईं, यारो आसरा।
इस बेकसी में अब तो मददगार है बया॥5॥

गर यह हमारे पास न होता तो आ मियां।
पूछे था कौन हमसे ग़रीबों की बात यां।
इस दर्दों ग़म में हक़ के सिबा अब तो इस मकां।
अपना न कोई दोस्त, न मुश्फ़िक़ न मेहरबां।
गर है तो अब जहां में यही यार है बया॥6॥

लड़का जो कोई शोख़ हटीला हो अचपला।
फंसता न हो किसी से किसी जाल में जो आ।
यारो! यह वह बया है, दिया जिस घड़ी दिखा।
बस देखते ही आन में लट्टू हो आ मिला।
काफ़िर यह इस तरह का झमक दार है बया॥7॥

करता है आके बेंदी व टिकुली पे जब यह चोट।
बालों की लट दिखाओ तो लावे वहीं ख़सोट।
बूढ़ों का दिल तमाशे में होता है जिसके लोट।
लड़का तो एक दम में हो बस देख लोट पोट।
यह तो कहीं का ज़ोर तरह दार है बया॥8॥

जब मांगता है मुझ से बहुत होके बेक़रार।
कहता हूं उस से जब तो मैं, "ऐ! शोख़ गुलइज़ार।
यह क्या बया है, इसको न लो प्यारे ज़ीनहार।
गर साथ मेरे आओ तो दिखलाऊं तुमको यार।
इस से भी और एक मजे़दार है बया॥9॥

इस दम के बीच जब वह परीज़ाद लग चला।
फिर बूं ही कौड़ियों का दिया झाड़ उसे दिखा।
बोसे भी खू़ब ले लिये मतलब भी कर लिया।
और यूं कहा कि "जान न तुम मानना बुरा।
मेरी ख़ता नहीं यह गुनहगार है बया"॥10॥

यह सुनके मुझसे कहता है जब होके वह ख़फा।
"लो अब बया तो दो मुझे, होना था सो हुआ।
तब हाथ जोड़ उसको यह देता हूं मैं सुना।
तुमको तो ऐसे लाख मिलेंगे ऐ! दिल रुबा!।
मुझको तो मिलना फिर कहीं दुश्वार है बया"॥11॥

"ऐसे बये तो लाखों करूं तुम पे मैं निसार।
ले जाके इसको तुम कहीं डालोगे मुफ़्त मार।
और मुझ ग़रीब का तो इसी पर है रोज़गार।
हर दम इसी का इससे ही चलता है कारोबार।
सच पूछिये तो मेरा यह व्यौपार है बया"॥12॥

ऐसा बया है अब तो सज़ावार दिल पज़ीर।
लड़के जहां तलक हैं परी ज़ाद बेनज़ीर।
क्या शोख़, क्या शरीर, ग़रीब और क्या अमीर।
सब मिन्नतों से कहते हैं अकार मियां "नज़ीर"।
"एक दो घड़ी तो हमको यह दरकार है बया"॥13॥
(नमूदार=ज़ाहिर, परीरुखों=परियों जैसे शक्ल सूरत
वाली, दीद=दर्शन, मुश्फ़िक़=मित्र,दयालु, शोख़=
चंचल,चपल, गुलइज़ार=गुलाब जैसे सुकुमार और
सुन्दर गालों वाला, ज़ीनहार=कदापि,हरगिज,
दिल पज़ीरदिल को पसंद आने वाला, दरकार=
वांछित,अभिलषित)

5. गिलहरी का बच्चा - नज़ीर अकबराबादी

लिये फिरता है, यूं तो हर बशर बच्चा गिलहरी का।
हर एक उस्ताद के रहता है, घर बच्चा गिलहरी का।
व लेकिन है हमारा इस क़दर बच्चा गिलहरी का।
दिखा दें हम किसी लड़के को, गर बच्चा गिलहरी का।
तो दम में लोट जाये देख कर बच्च गिलहरी का॥1॥

सफेदी में वह काली धारियां ऐसी रही हैं बन।
कि जैसे गाल पर लड़कों के छूटे जुल्फ़ की नागिन।
किनारीदार पट्टा, जिसमें घुंघरू कर रहे छन-छन।
गले में हंसली, पांवों में कड़े, और नाक में लटकन।
रहा है सरबसर गहने में भर, बच्चा गिलहरी का॥2॥

किसी सरदार के दिल में यह आया एक दिन यारो।
कि देखे घर बुलाकर इश्क़ बाज़ों के हुनर को वो।
कहा उसने कि हां इस ढब से उस्तादों को ले आओ।
सो नौकर उसका सब में ढूंढ़ चुनकर ले गया हमको।
न था हम पास उस दम कुछ मगर बच्चा गिलहरी का॥3॥

वह देखे तो बुरी सूरत, बुरा हाल और फटे कपड़े।
बढ़े दाढ़ी के बाल, और ज़र्द मुंह, आंखों में आंसू से।
बँधी मैली सी पगड़ी सर पे, और टुकड़े अंगरखे के।
वह कपड़े गो फटे थे पर हम अपने फ़न में थे पूरे।
लगा रखते थे ऐसे वक़्त पर बच्चा गिलहरी का॥4॥

जूं ही इतने में हमको इस बुरे अहवाल से देखा।
कहा उसने कि फँसता होगा इनसे किस तरह लड़का।
नज़र से उसकी मैंने जब तो वां इस बात को ताड़ा।
कमर को देख ढूंढ़ी जेब, पगड़ी को टटोला उस जा।
वहीं हमने निकाला ढूंढ कर बच्चा गिलहरी का॥5॥

कहीं बैठा था वां उसका बरस बारह का एक लड़का।
वह गोरा, गुदगुदा, बच्चा परी सा चांद का टुकड़ा।
जूं ही उसने वह बच्चा आह यारो एक नज़र देखा।
वहीं लट्टू हुआ बोला "यही लूंगा यही लूंगा"।
बिठा दो जल्द मेरे हाथ पर बच्चा गिलहरी का॥6॥

यह कहकर बेक़रारी से वह लड़का शौक़ में ग़श हो।
वहीं घबरा के आ पहुंचा जहां हम थे खड़े यारो।
लगा सौ मिन्नतें से मांगने वह, यह तो हमको दो।
वह बाप उसका पुकारा! "हां निकालो जल्दी से उसको।
ग़जब जादू का रखता है असर बच्चा गिलहरी का"॥7॥

पड़ी उल्फ़त है, जब से ऐ ‘नज़ीर’ इस शोख़ बच्चे की।
उड़ाई तब से सैरें हमने क्या-क्या, कुछ तमाशे की।
न ख़्वाहिश लाल की है, अब न पिदड़ी की, न पिद्दे की।
न उल्फ़त कुछ कबूतर की, न तोते की, न बगले की।
हमें काफ़ी है अब तो उम्र भर बच्चा गिलहरी का॥8॥
(बशर=मनुष्य, सरबसर=नितान्त,बिल्कुल, शोख़=चंचल)

6. अज़दहे का बच्चा - नज़ीर अकबराबादी

बेचे हैं अब तो कोई बुलबुल बये का बच्चा।
और बेचता है कोई तोते हरे का बच्चा।
मैना, बया, लटूरा और अबलके़ का बच्चा।
तीतर, बटेर, सारस, शकरे, लवे का बच्चा।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥1॥

खाते थे हमतो इससे आगे पुलाव क़लिया।
या रूखी सूखी रोटी या बाजरे का दलिया।
फिरते हैं सर पै रख कर चालीस मन की डलिया।
अब कोई आगरे में ऐसा नहीं है बलिया।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥2॥

जब बेचते थे यारो, हम अज़दहा पुराना।
सौ-सौ तरह का जब तो आता था हमको खाना।
अब गाहकी जो कम है, तो है यह दिल में ठाना।
एक बच्चा रोज़ लाना, और रोज़ बेच खाना।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥3॥

गाहक न कोई बोला, है यह बुरा ज़माना।
आज इसको सर पै रखकर सब शहर हमने छाना।
अब भी बिका तो बेहतर नहीं फिर पड़ेगा लाना।
है इससे ही हमारी नित रोटी का ठिकाना।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥4॥

है डर हम इसको रक्ख, या फेर कर ले जावें।
तो क्या हम आप खावें, और क्या इसे खिलावें।
कुछ बन नहीं है आता, यह दुख किसे सुनावें।
जी चाहता है अब तो यह शहर छोड़ जावें।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥5॥

सौ मन गेहूं का हर दिन खाने को कहां से आवे।
और सौ पखाल पानी कब तक कोई पिलावे।
जब रात हो तो हर दम, यह ख़ौफ जी में आवे।
शायद इसे चुरा कर, कोई चोर ले न जावे।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥6॥

रोज़ी के अबतो ऐसे घर-घर में हैं कसाले।
हाथी व घोड़े अपने देते हैं लोग ढाले।
जब तंग होवे रोजी, कौन अज़दहे को पाले।
इसकी भी और हमारी यारो ख़बर खु़दा ले।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥7॥

नौ दस हज़ार तक तो छूने इसे न देंगे।
इतने रुपे तो इसके एक परके हम न लेंगे।
सत्तर हज़ार तक भी सौदा नहीं करेंगे।
अस्सी हज़ार देगा तो हम भी दे चुकेंगे।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥8॥

सब उठ गए जहां से वह थे जो लोग जसिया।
वह रह गए हैं जिनके घर में नहीं है हंसिया।
इस बात को तो उम्दा हो भोग का बिलसिया।
जो अज़दहे को पाले ऐसा है कौन रसिया।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥9॥

आगे तो घर बघर थे अक्सर तमामदाता।
सीमुर्ग़ पालते थे करने को नाम दाता।
अपने तो कोई हरगिज़ आया न काम दाता।
सच है "नज़ीर" आखि़र अजगर के राम दाता।
सब बेचते हैं आकर, चीते, खरे का बच्चा।
हम बेचते हैं यारो लो अज़दहे का बच्चा॥10॥
(अबलके़=मैना की जाति का एक काला पक्षी
जिसके पर स्याह और पेट सफे़द होता है,
क़लिया=कलीय, भुना हुआ गोश्त, पखाल=
पानी भरने की चमड़े की बड़ी मशक़ जिसमें
दो हिस्से होते हैं और जिसे भर कर जानवर
की पीठ पर डाल कर ले जाते हैं, जसिया=
खुशनसीब, सीमुर्ग़=काफ़ पहाड़ में रहने वाला
एक बहुत बड़ा पक्षी)

7. रीछ का बच्चा - नज़ीर अकबराबादी

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा।
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा ।
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा ।
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा ।
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा ।।1।।

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा।
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा ।
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला ।
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा ।
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा ।।2।।

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर।
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर।
कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर।
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र।
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा ।।3।।

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल।
मुक़्क़ैश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल।
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल।
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल ।
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा ।।4।।

एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें ।
एक तरफ़ को थीं, पीरों जवानों की कतारें।
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें ।
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें ।
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा ।।5।।

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर ।
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर ।
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है ‘क़लन्दर’।
हाँ छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगल के अन्दर।
जिस दिन से ख़ुदा ने यह दिया, रीछ का बच्चा"।।6।।

मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया ।
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया ।
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया ।
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया ।
जो सबकी निगाहों में खपा "रीछ का बच्चा"।।7।।

फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह ।
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"।
हर चार तरफ़ सेती कहीं पीरो जवां "वाह"।
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"।
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा ।।8।।

इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद ।
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद ।
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद।
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’।
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"।।9।।

जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया।
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया।
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया।
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया।
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा ।।10।।

जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा।
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा।
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा।
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा।
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा ।।11।।

यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर।
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर।
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर।
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर।
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"।।12।।

कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा।
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"।
यह सहर किया तुमने तो नागाह "अहा हा"।
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"।
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछा का बच्चा ।।13।।

जिस दिन से "नज़ीर" अपने तो दिलशाद यही हैं ।
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद यही हैं ।
सब कहते हैं वह साहिबे ईजाद यही हैं ।
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं ।
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा ।।14।।
(सरापा=आपादमस्तक, दुर=मोती, पुरज़र=जड़ाऊ,
मुक़्क़ैश=सोने-चाँदी का काम की हुई, पीरों=बूढ़ों,
अम्बोह=भीड़, क़लन्दर=फ़क़ीर,मदारी, शाद=ख़ुश,
सहर=जादू, नागाह=अचानक, इरशाद=आज्ञा,
ईजाद=आविष्कारक)

8. चूहों का अचार - नज़ीर अकबराबादी

फिर गर्म हुआ आन के बाज़ार चूहों का।
हमने भी किया खोमचा तय्यार चूहों का।
सर पांव कुचल कूट के दो चार चूहों का।
जल्दी से कचूमर सा किया मार चूहों का॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥1॥

आगे थे कई अब तो हमीं एक हैं चूहे मार।
मुद्दत से हमारा है इस आचार का व्यौपार॥
गलियों में हमें ढूंढ़ते फिरते हैं ख़रीदार।
बरसे हैं पड़ी कौड़ी, रूपे पैसों की बौछार॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥2॥

सूखे जिसे तरकारी से तलने के हों दरकार।
तो सूखे भी खूंटी पे लटकते हैं कई हार॥
कुछ तेल के कुछ पानी के कुछ चटनी है तय्यार।
किस तरह की लज़्ज़त है तू चख देख मेरे यार॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥3॥

दीमक की मिर्च लाल सड़ी लीकों की राई।
दुम टांग नली खोपरी नस नस है सड़ाई॥
और जिस पे सड़ी मोरी की कीचड़ है मिलाई।
जब ऐसी बनी ज़ोर मजे़दार खटाई॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥4॥

कुछ केंचुए कुछ बिच्दू हैं, कुछ नाग हैं काले।
भूने हुए च्यूंटे भी कई सेर हैं डाले॥
कुछ टुकड़ियां कुछ मक्खियां कुछ मकड़ी के जाले।
और उनके सिवा कितने मसाले हैं जो डाले॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥5॥

कुछ इसमें अकेले न चूहे सेर पड़े हैं।
घूंस और छछूंदर के कई ढेर पड़े हैं॥
जूं पिस्सू मच्छर और कई सेर पड़े हैं।
और खाट के खटमल भी सवा सेर पड़े हैं।
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥6॥

अव्वल तो चूहे छांटे हुए क़द के बड़े हैं।
और सेर सवा सेर के मेंढ़क भी पड़े हैं॥
चख देख मेरे यार यह अब कैसे कड़े हैं।
चालीस बरस गुज़रे हैं जब ऐसे सड़े हैं॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥7॥

चिमगादड़ अबाबील की टांटे भी पड़ी हैं।
उल्लू के पर और गिद्ध की बीटें भी पड़ी हैं॥
गोबर की डली बीट की खातें भी पड़ी हैं।
सर कौवों के और चील की आंतें भी पड़ी हैं॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥8॥

चूहों का जुदा चूहों की मूछों का जुदा है।
दुम का वह जुदा कान का आंखों का जुदा है॥
लोटे में सड़ी खाल का बालों का जुदा है।
प्याली में निरी सूत सी आंतों का जुदा है॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥9॥

खाबे जो इस आचार की एक मूंछ की झुंडी।
खुल जावे सब उसके वह दिलो जान की घुंडी॥
आती है चली मुल्कों से हुंडी पे जो हुंडी।
जो सर है चूहे का सो मजे़ में है वह मुंडी॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥10॥

गर पांच रूपे होवें तो एक छिपकली ले लो।
और एक अशरफ़ी को छछूंदर सड़ी ले लो॥
मत घूंस के तईं देख के तरसाओ जी ले लो।
ले लो अजी ले लो, अजी ले लो अजी ले लो॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥11॥

जब दांत तले खोपरी भरती है चराके।
खुल जाते हैं लज़्ज़त के दिलों बीच भभाके॥
चखते ही जुबां भरती है इस ढब के तड़ाके।
शबरात में जिस तरह से छुटते हैं पटाके॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥12॥

लाता है कोई चिकने घड़े और कोई कोरे।
प्याला कोई थाली कोई पीतल के कटोरे॥
क्या लेंगे अब उसको कि जो मुफ़्लिस हैं छछोरे।
खावेंगे वही जोकि हैं दौलत के चटोरे॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥13॥

पाचन के ऊपर अब तो यह चूरन का चचा है।
जो खावे तो फिर पेट का पत्थर भी पचा है॥
तुरशी में खटाई में यह अब ऐसा रचा है।
जो आम का बाबा है तो लीमू का चचा है॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥14॥

आगे जो बनाया तो बिका तीस रुपे सेर।
और गहकी गये ले इसे पचीस रुपे सेर॥
जाड़ों में यह बिकता रहा बत्तीस रुपे सेर।
और होलियों में बिता है चालीस रुपे सेर॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥15॥

रोज़ी तो हमारी यह उतारी है खु़दा ने।
दिन रात पड़े हमको यह आचार बनाने॥
और पेट के भी वास्ते दो पैसे कमाने।
लज़्ज़त को "नज़ीर" इसकी जो खावे वही जाने॥
क्या ज़ोर मजे़दार है आचार चूहों का॥16॥

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