Hindi Kavita
हिंदी कविता
उर्वशी रामधारी सिंह 'दिनकर'
Urvashi Ramdhari Singh Dinkar
पात्र परिचय - रामधारी सिंह दिनकर
पुरुष - रामधारी सिंह दिनकर
पुरुरवा: वेदकालीन, प्रतिष्ठानपुर के विक्रमी ऐल राजा, नायक
महर्षि च्यवन: प्रसिद्द; भृगुवंशी, वेदकालीन महर्षि
कंचुकी:
सभासद:
प्रतिहारी:
प्रारब्ध आदि
आयु: पुरुरवा-उर्वशी का पुत्र
महामात्य: पुरुरवा के मुख्य सचिव
विश्व्मना: राज ज्योतिषी
नारी
नटी: शास्त्रीय पात्री, सूत्रधार की पत्नी
सहजन्या, रम्भा, मेनका, चित्रलेखा: अप्सराएं
औशीनरी: पुरुरवा पत्नी, प्रतिष्ठानपुर की महारानी
निपुणिका, मदनिका: औशिनरी की सखियाँ
उर्वशी: अप्सरा, नायिका
सुकन्या: च्यवन ऋषी की सहधर्मिणी
अपाला: उर्वशी की सेविका
प्रथम अंक - रामधारी सिंह दिनकर
प्रथम अंक आरम्भ
साधारणोंअयमुभ्यो: प्रणयः स्मरस्य,
तप्तें ताप्त्मयसा घटनाय योग्यम. विक्रमोर्वशीयम
राजा पुरुरवा की राजधानी, प्रतिष्ठानपुर के समीप एकांत
पुष्प कानन; शुक्ल पक्ष की रात; नटी और सूत्रधार चाँदनी
में प्रकृति की शोभा का पान कर रहे हैं।
सूत्रधार - रामधारी सिंह दिनकर
नीचे पृथ्वी पर वसंत की कुसुम-विभा छाई है,
ऊपर है चन्द्रमा द्वादशी का निर्मेघ गगन में।
खुली नीलिमा पर विकीर्ण तारे यों दीप रहे हैं,
चमक रहे हों नील चीर पर बूटे ज्यों चाँदी के;
या प्रशांत, निस्सीम जलधि में जैसे चरण-चरण पर
नील वारि को फोड़ ज्योति के द्वीप निकल आए हों
नटी
इन द्वीपों के बीच चन्द्रमा मंद-मंद चलता है,
मंद-मंद चलती है नीचे वायु श्रांत मधुवन की;
मद-विह्वल कामना प्रेम की, मानो, अलसाई-सी
कुसुम-कुसुम पर विरद मंद मधु गति में घूम रही हो
सूत्रधार
सारी देह समेत निबिड़ आलिंगन में भरने को
गगन खोल कर बाँह विसुध वसुधा पर झुका हुआ है
नटी
सुख की सुगम्भीर बेला, मादकता की धारा में
समाधिस्थ संसार अचेतन बह्ता-सा लगता है ।
सूत्रधार
स्वच्छ कौमुदी में प्रशांत जगती यों दमक रही है,
सत्य रूप तज कर जैसे हो समा गई दर्पन में ।
शांति, शांति सब ओर, मंजु, मानो, चन्द्रिका-मुकुर में
प्रकृति देख अपनी शोभा अपने को भूल गई हो ।
(ऊपर आकाश में रशनाओं और नूपुर की ध्वनि सुनाई देती है।
बहुत-सी अप्सराएं एक साथ नीचे उतर रही हैं) ।
नटी
शांति, शांति सब ओर, किंतु, यह कणन-कणन-स्वर कैसा?
अतल व्योम-उर में ये कैसे नूपुर झनक रहे हैं?
उगी कौन सी विभा? इन्दु की किरणें लगी लजाने;
ज्योत्सना पर यह कौन अपर ज्योत्सना छाई जाती है?
कलकल करती हुई सलिल सी गाती, धूम मचाती
अम्बर से ये कौन कनक प्रतिमायें उतर रही हैं?
उड़ी आ रही छूट कुसुम वल्लियाँ कल्प कानन से?
या देवों की वीणा की रागिनियाँ भटक गई हैं?
उतर रही ये नूतन पंक्तियाँ किसी कविता की
नई अर्चियों-सी समाधि के झिलमिल अँधियाले में?
या वसंत के सपनों की तस्वीरें घूम रही हैं
तारों-भरे गगन में फूलों-भरी धरा के भ्रम से?
सूत्रधार
लो, पृथ्वी पर आ पहुंची ये सुश्मायें अम्बर की
उतरे हों ज्यों गुच्छ गीत गाने वाले फूलों के ।
पद-निक्षेपों में बल खाती है भंगिमा लहर की,
सजल कंठ से गीत, हंसी से फूल झरे जाते हैं ।
तन पर भीगे हुए वसन है किरणों की जाली के,
पुश्परेण-भूशित सब के आनन यों दमक रहे हैं,
कुसुम बन गई हों जैसे चाँदनियाँ सिमट-सिमट कर ।
नटी
फूलों की सखियाँ है ये या विधु की प्रेयसियाँ हैं?
सूत्रधार
नहीं, चन्द्रिका नहीं, न तो कुसुमों की सहचरियाँ हैं,
ये जो शशधर के प्रकाश में फूलों पर उतरी हैं,
मनमोहिनी, अभुक्त प्रेम की जीवित प्रतिमाएं हैं
देवों की रण क्लांति मदिर नयनों से हरने वाली
स्वर्ग-लोक की अप्सरियाँ, कामना काम के मन की ।
नटी
पर,सुरपुर को छोड़ आज ये भू पर क्यों आई हैं?
सूत्रधार
यों ही, किरणों के तारों पर चढ़ी हुई, क्रीड़ा में,
इधर-उधर घूमते कभी भू पर भी आ जाती है ।
या, सम्भव है, कुछ कारण भी हो इनके आने का
क्योंकि मर्त्य तो अमर लोक को पूर्ण मान बैठा है,
पर, कह्ते है,स्वर्ग लोक भी सम्यक पूर्ण नहीं है ।
पृथ्वी पर है चाह प्रेम को स्पर्श-मुक्त करने की,
गगन रूप को बाँहो में भरने को अकुलाता है
गगन, भूमि, दोनों अभाव से पूरित हैं,दोनो के
अलग-अलग हैं प्रश्न और हैं अलग-अलग पीड़ायें ।
हम चाह्ते तोड़ कर बन्धन उड्ना मुक्त पवन में,
कभी-कभी देवता देह धरने को अकुलाते हैं ।
एक स्वाद है त्रिदिव लोक में, एक स्वाद वसुधा पर,
कौन श्रेश्ठ है, कौन हीन, यह कहना बड़ा कठिन है,
जो कामना खींच कर नर को सुरपुर ले जाती है,
वही खींच लाती है मिट्टी पर अम्बर वालों को ।
किन्तु, सुनें भी तो, ये परियाँ बातें क्या करती हैं?
(नटी और सूत्रधार वृक्ष की छाया में जाकर अदृश्य हो
जाते हैं। अप्सरायें पृथ्वी पर उतरती है तथा फूल, हरियाली
और झरनों के पास घूमकर गाती और आनन्द मनाती हैं)
परियों का समवेत गान - रामधारी सिंह दिनकर
फूलों की नाव बहाओ री,यह रात रुपहली आई ।
फूटी सुधा-सलिल की धारा
डूबा नभ का कूल किनारा
सजल चान्दनी की सुमन्द लहरों में तैर नहाओ री !
यह रात रुपहली आई ।
मही सुप्त, निश्चेत गगन है,
आलिंगन में मौन मगन है ।
ऐसे में नभ से अशंक अवनी पर आओ-आओ री !
यह रात रुपहली आई ।
मुदित चाँद की अलकें चूमो,
तारों की गलियों में घूमो,
झूलो गगन-हिन्डोले पर, किरणों के तार बढ़ाओ री !
यह रात रुपहली आई ।
सहजन्या
धुली चाँदनी में शोभा मिट्टी की भी जगती है,
कभी-कभी यह धरती भी कित्नी सुन्दर लगती है!
जी करता है यही रहें, हम फूलों में बस जायें!
रम्भा
दूर-दूर तक फैल रही दूबों की हरियाली है,
बिछी हुई इस हरियाली पर शबनम की जाली है ।
जी करता है, इन शीतल बून्दों में खूब नहायें ।
मेनका
आज शाम से ही हम तो भीतर से हरी-हरी हैं,
लगता है आकंठ गीत के जल से भरी-भरी हैं ।
जी करता है,फूलों को प्राणों का गीत सुनायें ।
समवेत गान
हम गीतों के प्राण सघन,
छूम छनन छन, छूम छनन ।
बजा व्योम वीणा के तार,
भरती हम नीली झंकार,
सिहर-सिहर उठता त्रिभुवन ।
छूम छनन छन, छूम छनन ।
सपनों की सुषमा रंगीन,
कलित कल्पना पर उड्डीन,
हम फिरती हैं भुवन-भुवन
छूम छनन छन, छूम छनन ।
हम अभुक्त आनन्द-हिलोर,
भिंगो भुमि-अम्बर के छोर,
बरसाती फिरती रस-कन ।
छूम छनन छन, छूम छनन ।
रम्भा
बिछा हुआ है जाल रश्मि का,मही मग्न सोती है,
अभी मृत्ति को देख कर स्वर्ग को भी ईर्ष्या होती है ।
मेनका
कौन भेद है, क्या अंतर है धरती और गगन में
उठता है यह प्रश्न कभी रम्भे! तेरे भी मन में
रम्भा
प्रश्न उठे या नहीं, किंतु, प्रत्यक्ष एक अंतर है ,
मर्त्यलोक मरने वाला है ,पर सुरलोक अमर है ।
अमित, स्निग्ध ,निर्धूम शिखा सी देवों की काया है ,
मर्त्यलोक की सुन्दरता तो क्षण भर की माया है ।
मेनका
पर, तुम भूल रही हो रम्भे! नश्वरता के वर को;
भू को जो आनन्द सुलभ है, नहीं प्राप्त अम्बर को ।
हम भी कितने विवश ! गन्ध पीकर ही रह जाते हैं,
स्वाद व्यंजनों का न कभी रसना से ले पाते हैं ।
हो जाते हैं तृप्त पान कर स्वर-माधुरी स्रवण से ।
रूप भोगते हैं मन से या तृष्णा भरे नयन से ।
पर, जब कोई ज्वार रुप को देख उमड़ आता है,
किसी अनिर्वचनीय क्षुधा में जीवन पड़ जाता है,
उस पीड़ा से बचने की तब राह नहीं मिलती है
उठती जो वेदना यहाँ, खुल कर न कभी खिलती है
किंतु, मर्त्य जीवन पर ऐसा कोई बन्ध नहीं है
रुके गन्ध तक, वहाँ प्रेम पर यह प्रतिबन्ध नहीं है
नर के वश की बात, देवता बने कि नर रह जाए,
रुके गन्ध पर या बढ़ कर फूलों को गले लगाए ।
पर, सुर बनें मनुज भी, वे यह स्वत्व न पा सकते हैं,
गन्धों की सीमा से आगे देव न जा सकते हैं ।
क्या है यह अमरत्व? समीरों-सा सौरभ पीना है,
मन में धूम समेट शांति से युग-युग तक जीना है ।
पर, सोचो तो, मर्त्य मनुज कितना मधु-रस पीता है!
दो दिन ही हो, पर, कैसे वह धधक-धधक जीता है!
इन ज्वलंत वेगों के आगे मलिन शांति सारी है
क्षण भर की उन्मद तरंग पर चिरता बलिहारी है ।
सहजन्या
साधु ! साधु ! मेनके ! तुम्हारा भी मन कहीं फंसा है ?
मिट्टी का मोहन कोई अंतर में आन बसा है?
तुम भी हो बन गई महीतल पर रुपसी किसी की?
किन्ही मर्त्य नयनों की रस-प्रतिमा, उर्वशी किसी की?
सखी उर्वशी-सी तुम भी लगती कुछ मदमाती हो
मर्त्यों की महिमा तुम भी तो उसी तरह गाती हो ।
रम्भा
अरी, ठीक, तूने सहजन्ये! अच्छी याद दिलाई ।
आज हमारे साथ यहाँ उर्वशी नहीं क्यों आई?
सहजन्या
वाह तुम्हें ही ज्ञात नहीं है कथा प्राण प्यारी की ?
तुम्हीं नहीं जानती प्रेम की व्यथा दिव्य नारी की ?
नहीं जानती हो कि एक दिन हम कुबेर के घर से
लौट रही थीं जब, इतने में एक दैत्य ऊपर से
टूटा लुब्ध श्येन सा हमको त्रास अपरिमित देकर
और तुरंत उड़ गया उर्वशी को बाहों में लेकर ।
रम्भा
बाहों में ले उड़ा ? अरी आगे की कथा सुनाओ ।
सहजन्या
यही कि हम रो उठीं, “दौड़ कर कोई हमें बचाओ”
रम्भा
तब क्या हुआ?
सहजन्या
पुकार हमारी सुनी एक राजा ने,
दौड़ पड़े वे सदय उर्वशी को अविलम्ब बचाने
और उन्हीं नरवीर नृपति के पौरुष से, भुजबल से
मुक्त हुई उर्वशी हमारी उस दिन काल-कवल से ।
रम्भा
ये राजा तो बड़े वीर हैं ।
सहजन्या
और परम सुन्दर भी ।
ऐसा मनोमुग्धकारी तो होता नहीं अमर भी
इसीलिये तो सखी उर्वशी, उषा नन्दनवन की
सुरपुर की कौमुदी, कलित कामना इन्द्र के मन की
सिद्ध विरागी की समाधि में राग जगाने वाली
देवों के शोणित में मधुमय आग लगाने वाली
रति की मूर्ति, रमा की प्रतिमा, तृषा विश्वमय नर की
विधु की प्राणेश्वरी, आरती-शिखा काम के कर की
जिसके चरणों पर चढ़ने को विकल व्यग्र जन-जन है
जिस सुषमा के मदिर ध्यान में मगन-मुग्ध त्रिभुवन है
पुरुष रत्न को देख न वह रह सकी आप अपने में
डूब गई सुर-पुर की शोभा मिट्टी के सपने में
प्रस्तुत हैं देवता जिसे सब कुछ देकर पाने को
स्वर्ग-कुसुम वह स्वयं विकल है वसुधा पर जाने को ।
रम्भा
सो क्या, अब उर्वशी उतर कर भू पर सदा रहेगी?
निरी मानवी बनकर मिट्टी की सब व्यथा सहेगी?
सहजन्या
सो जो हो, पर, प्राणों में उसके जो प्रीत जगी है
अंतर की प्रत्येक शिरा में ज्वाला जो सुलगी है
छोड़ेगी वह नहीं उर्वशी को अब देव निलय में
ले जायेगी खींच उसे उस नृप के बाहु-वलय में
रम्भा
ऐसा कठिन प्रेम होता है?
सहजन्या
इसमें क्या विस्मय है?
कहते है, धरती पर सब रोगों से कठिन प्रणय है
लगता है यह जिसे, उसे फिर नीन्द नहीं आती है
दिवस रुदन में, रात आह भरने में कट जाती है ।
मन खोया-खोया, आंखें कुछ भरी-भरी रहती हैं
भींगी पुतली में कोई तस्वीर खडी रह्ती है
सखी उर्वशी भी कुछ दिन से है खोई-खोई सी
तन से जगी, स्वप्न के कुंजों में मन से सोई-सी
खड़ी-खड़ी अनमनी तोड़ती हुई कुसुम-पंखुड़ियाँ
किसी ध्यान में पड़ी गँवा देती घड़ियों पर घड़ियाँ
दृग से झरते हुए अश्रु का ज्ञान नहीं होता है
आया-गया कौन, इसका कुछ ध्यान नहीं होता है
मुख सरोज मुस्कान बिना आभा-विहीन लगता है
भुवन-मोहिनी श्री का चन्द्रानन मलीन लगता है ।
सुनकर जिसकी झमक स्वर्ग की तन्द्रा फट जाती थी,
योगी की साधना, सिद्ध की नीन्द उचट जाती थी ।
वे नूपुर भी मौन पड़े हैं, निरानन्द सुरपुर है,
देव सभा में लहर लास्य की अब वह नहीं मधुर है ।
क्या होगा उर्वशी छोड़ जब हमें चली जायेगी?
रम्भा
स्वर्ग बनेगा मही, मही तब सुरपुर हो जायेगी ।
सहजन्ये! हम परियों का इतना भी रोना क्या?
किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?
हम भी हैं मानवी कि ज्यों ही प्रेम उगे रुक जायें?
मिला जहाँ भी दान हृदय का, वहीं मग्न झुक जायें
प्रेम मानवी की निधि है, अपनी तो वह क्रीड़ा है;
प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है
जनमी हम किसलिये? मोद सबके मन में भरने को
किसी एक को नहीं मुग्ध जीवन अर्पित करने को ।
सृष्टि हमारी नहीं संकुचित किसी एक आनन में,
किसी एक के लिये सुरभि हम नहीं संजोती तन में ।
कल-कल कर बह रहा मुक्त जो, कुलहीन वह जल हैं
किसी गेह का नहीं दीप जो ,हम वह द्युति कोमल हैं ।
रचना की वेदना जगा जग में उमंग भरती हैं,
कभी देवता ,कभी मनुज का आलिंगन करती हैं ।
पर यह परिरम्भण प्रकाश का, मन का रश्मि रमण है,
गन्धॉ के जग में दो प्राणों का निर्मुक्त रमण है ।
सच है कभी-कभी तन से भी मिलती रागमयी हम
कनक-रंग में नर को रंग देती अनुरागमयी हम;
देती मुक्त उड़ेल अधर-मधु ताप-तप्त अधरों में ,
सुख से देती छोड़ कनक-कलशों को उष्ण करों में;
पर यह तो रसमय विनोद है, भावों का खिलना है,
तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणों का मिलना है ।
रचना की वेदना जगाती, पर न स्वयं रचती हम
बन्ध कर कभी विविध पीड़ाओं में न कभी पचती हम ।
हम सागर आत्मजा सिन्धु-सी ही असीम उच्छल हैं
इच्छाओं की अमित तरंगो से झंकृत, चंचल हैं ।
हम तो हैं अप्सरा ,पवन में मुक्त विहरने वाली
गीत-नाद ,सौरभ-सुवास से सबको भरने वाली ।
अपना है आवास, न जानें, कितनों की चाहों में,
कैसे हम बन्ध रहें किसी भी नर की दो बाहों में?
और उर्वशी जहाँ वास करने पर आन तुली है,
उस धरती की व्यथा अभी तक उस पर नहीं खुली है।
सहजन्या
कौन व्यथा उर्वशी भला पाएगी भू पर जाकर?
सुख ही होगा उसे वहाँ प्रियतम को कंठ लगाकर ।
रम्भा
सो सुख तो होगा , परंतु, यह मही बड़ी कुत्सित है
जहाँ प्रेम की मादकता में भी यातना निहित है
नहीं पुष्प ही अलम, वहाँ फल भी जनना होता है
जो भी करती प्रेम,उसे माता बनना होता है ।
और मातृ-पद को पवित्र धरती ,यद्यपि, कहती है,
पर, माता बनकर नारी क्या क्लेश नहीं सहती है?
तन हो जाता शिथिल, दान में यौवन गल जाता है
ममता के रस में प्राणों का वेग पिघल जाता है ।
रुक जाती है राह स्वप्न-जग में आने-जाने की,
फूलों में उन्मुक्त घूमने की सौरभ पाने की ।
मेघों में कामना नहीं उन्मुक्त खेल करती है,
प्राणों में फिर नहीं इन्द्रधनुषी उमंग भरती है ।
रोग, शोक, संताप, जरा, सब आते ही रह्ते हैं,
पृथ्वी के प्राणी विषाद नित पाते ही रहते हैं ।
अच्छी है यह भूमि जहाँ बूढ़ी होती है नारी,
कण भर मधु का लोभ और इतनी विपत्तियाँ सारी?
सहजन्या
उफ! ऐसी है घृणित भूमि? तब तो उर्वशी हमारी ,
सचमुच ही, कर रही नरक में जाने की तैयारी ।
तू ने भी रम्भे! निर्घिन क्या बातें बतलाई हैं!
अब तो मुझे मही रौरव-सी पड़ती दिखलाई है ।
गर्भ-भार उर्वशी मानवी के समान ढोयेगी?
यह शोभा, यह गठन देह की, यह प्रकांति खोएगी?
जो अयोनिजा स्वयं, वही योनिज संतान जनेगी?
यह सुरम्य सौरभ की कोमल प्रतिमा जननि बनेगी?
किरण्मयी यह परी करेगी यह विरुपता धारण?
वह भी और नहीं कुछ, केवल एक प्रेम के कारण?
रम्भा
हाँ, अब परियाँ भी पूजेंगी प्रेम-देवता जी को,
और स्वर्ग की विभा करेगी नमस्कार धरती को ।
जहाँ प्रेम राक्षसी भूख से क्षण-क्षण अकुलाता है,
प्रथम ग्रास में ही यौवन की ज्योति निगल जाता है;
धर देता है भून रूप को दाहक आलिंगन से,
छवि को प्रभाहीन कर देता ताप-तप्त चुम्बन से,
पतझर का उपमान बना देता वाटिका हरी को,
और चूमता रहता फिर सुन्दरता की गठरी को ।
इसी देव की बाहों में झुलसेंगी अब परियाँ भी
यौवन को कर भस्म बनेंगी माता अप्सरियाँ भी ।
पुत्रवती होंगी, शिशु को गोदी में हलराएँगी
मदिर तान को छोड़ सांझ से ही लोरी गाएँगी ।
पह्नेंगी कंचुकी क्षीर से क्षण-क्षण गीली-गीली,
नेह लगाएँगी मनुष्य से, देह करेंगी ढीली ।
मेनका
पर, रम्भे! क्या कभी बात यह मन में आती है,
माँ बनते ही त्रिया कहाँ-से-कहाँ पहुंच जाती है?
गलती है हिमशिला, सत्य है, गठन देह की खोकर,
पर, हो जाती वह असीम कितनी पयस्विनी होकर?
युवा जननि को देख शांति कैसी मन में जगती है!
रूपमती भी सखी! मुझे तो वही त्रिया लगती है,
जो गोदी में लिये क्षीरमुख शिशु को सुला रही हो
अथवा खड़ी प्रसन्न पुत्र का पलना झुला रही हो
रम्भा
अरी, देख तो उधर, कौन यह गुन-गुन कर गाती है?
रँगी हुई बदली-सी उड़ती कौन चली आती है?
तुम्हें नहीं लगता क्या, जैसे इसे कहीं देखा है?
सह्जन्या
दुत पगली! यह तो अपनी ही सखी चित्रलेखा है ।
सब
अरी चित्रलेखे! हम सब हैं यहाँ कुसुम के वन में;
जल्दी आ, सब लोग चलें उड़ होकर साथ गगन में ।
भींग रही है वायु, रात अब बहुत अधिक गहराई ।
चित्रलेखा
रुको, रुको क्षण भर सहचरियों! आई, मै यह आई ।
खेल रही हो यहीं अभी तक तारों की छाया में?
स्वर्ग भूल ही गया तुम्हें भी मिट्टी की माया में?
सह्जन्या
तेज-तेज सांसे चलती हैं, धड़क रही छाती है,
चित्रे ! तू इस तरह कहाँ से थकी-थकी आती है?
चित्रलेखा
आज सांझ से सखी उर्वशी को न रंच भी कल थी
नृप पुरुरवा से मिलने को वह अत्यंत विकल थी
कहती थी,”यदि आज कांत का अंक नहीं पाउँगी,
तो शरीर को छोड-पवन में निश्चय मिल जाउँगी।”
“रोक चुकी तुम बहुत, अधिक अब और न रोक सकोगी
दिव में रखकर मुझे नहीं जीवित अवलोक सकोगी ।
भला चाह्ती हो मेरा तो वसुधा पर जाने दो
मेरे हित जो भी संचित हो भाग्य, मुझे पाने दो ।
नहीं दीखती कही शांति मुझको अब देव निलय में
बुला रहा मेरा सुख मुझ को प्रिय के बाहु-वलय में ।
स्वर्ग-स्वर्ग मत कहो ,स्वर्ग में सब सौभाग्य भरा है,
पर, इस महास्वर्ग में मेरे हित क्या आज धरा है?
स्वर्ग स्वप्न का जाल, सत्य का स्पर्श खोजती हूँ मैं,
नहीं कल्पना का सुख, जीवित हर्ष खोजती हूँ मैं ।
तृप्ति नहीं अब मुझे साँस भर-भर सौरभ पीने से
ऊब गई हूँ दबा कंठ, नीरव रह कर जीने से ।
लगता है, कोई शोणित में स्वर्ण तरी खेता है
रह-रह मुझे उठा अपनी बाहों में भर लेता है
कौन देवता है, जो यों छिप-छिप कर खेल रहा है,
प्राणों के रस की अरूप माधुरी उड़ेल रहा है?
जिस्का ध्यान प्राण में मेरे यह प्रमोद भरता है,
उससे बहुत निकट होकर जीने को जी करता है ।
यही चाह्ती हूँ कि गन्ध को तन हो ,उसे धरु मैं,
उड़ते हुए अदेह स्वप्न को बाहों में जकड़ुं मैं,
निराकार मन की उमंग को रुप कही दे पाऊँ,
फूटे तन की आग और मैं उसमें तैर नहाऊँ ।
कहती हूँ, इसलिये चित्रलेखे! मत देर लगाओ,
जैसे भी हो मुझे आज प्रिय के समीप पहुंचाओ.”
सह्जन्या
तो तुमने क्या किया?
चित्रलेखा
अरी, क्या और भला करती मैं?
कैसे नहीं सखी के दुःसंकल्पों से डरती मैं ?
आज सांझ को ही उसको फूलों से खूब सजाकर,
सुरपुर से बाहर ले आई ,सबकी आंख बचाकर,
उतर गई धीरे-धीरे चुपके ,फिर मर्त्य भुवन में,
और छोड़ आई हूँ उसको राजा के उपवन में
रम्भा
छोड़ दिया निःसंग उसे प्रियतम से बिना मिलाये?
चित्रलेखा
युक्ति ठीक है वही, समय जिसको उपयुक्त बताए ।
अभी वहाँ आई थी राजा से मिलने को रानी
हमें देख लेती वे तो फिर बढ़ती वृथा कहानी
नृप को पर है विदित, उर्वशी उपवन में आई है,
अतः मिलन की उत्कंठा उनके मन में छाई है ।
रानी ज्यों ही गई, प्रकट उर्वशी कुंज से होगी,
फिर तो मुक्त मिलेंगे निर्जन में विरहिणी-वियोगी ।
रम्भा
अरी, एक रानी भी है राजा को?
चित्रलेखा
तो क्या भय है?
एक घाट पर किस राजा का रहता बन्धा प्रणय है?
नया बोध श्रीमंत प्रेम का करते ही रहते हैं,
नित्य नई सुन्दरताओं पर मरते ही रहते हैं ।
सहधर्मिणी गेह में आती कुल-पोषण करने को,
पति को नहीं नित्य नूतन मादकता से भरने को ।
किंतु, पुरुष चाह्ता भींगना मधु के नए क्षणों से,
नित्य चूमना एक पुष्प अभिसिंचित ओस कणों से ।
जितने भी हों कुसुम, कौन उर्वशी-सदृश, पर, होगा?
उसे छोड अन्यत्र रमें, दृगहीन कौन नर होगा?
कुल की हो जो भी, रानी उर्वशी हृदय की होगी?
एक मात्र स्वामिनी नृपति के पूर्ण प्रणय की होगी ।
सहजन्या
तब तो अपर स्वर्ग में ही तू उसको धर आई है,
नन्दन वन को लूट ज्योति से भू को भर आई है ।
मेनका
अपर स्वर्ग तुम कहो, किंतु ,मेरे मन में संशय है ।
कौन जानता है, राजा का कितना तरल हृदय है?
सखी उर्वशी की पीड़ा, माना तुम जान चुकी हो ;
चित्रे !पर, क्या इसी भांति ,नृप को पह्चान चुकी हो?
तड़प रही उर्वशी स्वर्ग तज कर जिसको वरने को,
प्रस्तुत है वह भी क्या उसका आलिंगन करने को ?
दहक उठी जो आग चित्रलेखे ! अमर्त्य के मन में,
देखा कभी धुँआं भी उसका तूने मर्त्य भुवन में?
चित्रलेखा
धुँआं नहीं, ज्वाला देखी है, ताप उभयदिक सम है,
जो अमर्त्य की आग ,मर्त्य की जलन न उससे कम है ।
सुखामोद से उदासीन जैसे उर्वशी विकल है
उसी भांति दिन-रात कभी राजा को रंच न कल है ।
छिपकर सुना एक दिन कहते उन्हें स्वयं निज मन से,
”वृथा लौट आया उस दिन उज्ज्वल मेघों के वन से,
नीति-भीति, संकोच-शील का ध्यान न टुक लाना था,
मुझे स्रस्त उस सपने के पीछे-पीछे जाना था ।
एक मूर्ति में सिमट गई किस भांति सिद्धियाँ सारी?
कब था ज्ञात मुझे , इतनी सुन्दर होती है नारी?
लाल-लाल वे चरण कमल से, कुंकुम से, जावक से
तन की रक्तिम कांति शुद्ध ,ज्यों धुली हुई पावक से ।
जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई सी ।
आंखॉ में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई सी
तन प्रकांति मुकुलित अनंत ऊषाओं की लाली-सी,
नूतनता सम्पूर्ण जगत की संचित हरियाली सी ।
पग पड़ते ही फूट पड़े विद्रुम-प्रवाल धूलों से
जहाँ खड़ी हो, वहीं व्योम भर जाये श्वेत फूलों से ।
दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौन्दर्य, कला जिस्का सपना देखा करती है ।
नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है निखिल भुवन की;
रूप नहीं, निष्कलुष कल्पना है स्रष्टा के मन की”
फिर बोले- “जाने कब तक परितोष प्राण पायेंगे
अंतराग्नि में पड़े स्वप्न कब तक जलते जायेंगे?
जाने, कब कल्पना रूप धारण कर अंक भरेगी?
कल्पलता, जानें, आलिंगन से कब तपन हरेगी?
आह! कौन मन पर यों मढ़ सोने का तार रही है?
मेरे चारों ओर कौन चान्दनी पुकार रही है?
नक्षत्रों के बीज प्राण के नभ में बोने वाली !
ओ रसमयी वेदनाओं में मुझे डुबोने वाली !
स्वर्गलोक की सुधे ! अरी, ओ, आभा नन्दनवन की!
किस प्रकार तुझ तक पहुंचाऊँ पीड़ा मै निज मन की ?
स्यात अभी तप ही अपूर्ण है,न तो भेद अम्बर को
छुआ नहीं क्यों मेरी आहों ने तेरे अंतर को?
पर, मै नहीं निराश, सृष्टि में व्याप्त एक ही मन है,
और शब्दगुण गगन रोकता रव का नहीं गमन है ।
निश्चय, विरहाकुल पुकार से कभी स्वर्ग डोलेगा;
और नीलिमापुंज हमारा मिलन मार्ग खोलेगा ।
मेरे अश्रु ओस बनकर कल्पद्रुम पर छाएँगे,
पारिजात वन के प्रसून आहों से कुम्हलाएँगे ।
मेरी मर्म पुकार् मोहिनी वृथा नहीं जायेगी,
आज न तो कल तुझे इन्द्रपुर में वह तड़पाएगी ।
और वही लाएगी नीचे तुझे उतार गगन से
या फिर देह छोड़ मै ही मिलने आऊंगा मन से.”
सह्जन्या
यह कराल वेदना पुरुष की ! मानव प्रणय-व्रती की !
चित्रलेखा
यही समुद्वेलन नर का शोभा है रूपमती की ।
सुन्दर थी उर्वशी ! आज वह और अधिक सुन्दर है ।
राका की जय तभी, लहर उठता जब रत्नाकर है ।
सह्जन्या
महाराज पर बीत रहा इतना कुछ? तब तो रानी
समझ गई होंगी, मन-ही-मन, सारी गूढ़ कहानी ।
चित्रलेखा
कैसे समझे नहीं ! प्रेम छिपता है कभी छिपाए?
कुल-वामा क्या करे, किंतु, जब यह विपत्ति आ जाए?
प्रिय की प्रीति हेतु रानी कोई व्रत साध रही है,
सुना, आजकल चन्द्र-देवता को आराध रही है ।
सह्जन्या
तब तो चन्द्रानना-चन्द्र में अच्छी होड़ पड़ी है ।
मेनका
यह भी है कुछ ध्यान, रात अब केवल चार घड़ी है ।
रम्भा
अच्छा, कोई तान उठाओ, उड़ो मुक्त अम्बर में,
भू को नभ के साथ मिलाए चलो गीत के स्वर में ।
समवेत गान
बरस रही मधु-धार गगन से, पी ले यह रस रे !
उमड़ रही जो विभा, उसे बढ़ बाहों में कस रे !
इस अनंत रसमय सागर का अतल और मधुमय है,
डूब, डूब, फेनिल तरंग पर मान नहीं बस रे !
दिन की जैसी कठिन धूप, वैसा ही तिमिर कुटिल है,
रच रे, रच झिलमिल प्रकाश, चाँदनियों में बस रे !
प्रथम अंक समाप्त
द्वितीय अंक आरम्भ
प्रियवचनशतोअपि योषितां दयितजनानुनयो रसादृते,
प्रविशति हृदयं न तद्विदां मणिरिव कृतिमरागयोजित:
-विक्रमोर्वशीयं
[प्रतिष्ठानपुर का राजभवन : पुरुरवा की महारानी औशीनरी अपनी दो सखियों के साथ]
औशीनरी
तो वे गये?
निपुणिका
गये ! उस दिन जब पति का पूजन करके
लौटीं, आप प्रमदवन से संतोष हृदय में भरके
लेकर यह विश्वास, रोहिणी और चन्द्रमा जैसे
हैं अनुरक्त, आपके प्रति भी महाराज अब वैसे
प्रेमासक्त रहेंगे, कोई भी न विषम क्षण होगा,
अन्य नारियों पर प्रभु का अनुरक्त नहीं मन होगा,
तभी भाग्य पर देवि ! आपके कुटिल नियति मुसकाई,
महाराज से मिलने को उर्वशी स्वर्ग से आई ।
औशीनरी
फिर क्या हुआ ?
निपुणिका
देवि, वह सब भी क्या अनुचरी कहेगी ?
औशीनरी
पगली ! कौन व्यथा है जिसको नारी नहीं सहेगी ?
कह्ती जा सब कथा, अग्नि की रेखा को चलने दे,
जलता है यदि हृदय अभागिन का,उसको जलने दे ।
सानुकूलता कितनी थी उस दिन स्वामी के स्वर में !
समझ नहीं पाती, कैसे वे बदल गए क्षण भर में !
ऐसी भी मोहिनी कौन-सी परियाँ कर सकती हैं,
पुरुषों की धीरता एक पल में यों हर सकती हैं !
छला अप्सरा ने स्वामी को छवि से या माया से?
प्रकटी जब उर्वशी चन्द्नी में द्रुम की छाया से,
लगा, सर्प के मुख से जैसे मणि बाहर निकली हो,
याकि स्वयं चाँदनी स्वर्ण-प्रतिमा में आन ढली हो;
उतरी हो धर देह स्वप्न की विभा प्रमद-उपवन की,
उदित हुई हो याकि समन्वित नारीश्री त्रिभुवन की ।
कुसुम-कलेवर में प्रदीप्त आभा ज्वालामय मन की,
चमक रही थी नग्न कांति वसनो से छन कर तन की ।
हिमकण-सिक्त-कुसुम-सम उज्जवल अंग-अंग झलमल था,
मानो, अभी-अभी जल से निकला उत्फुल्ल कमल था
किसी सान्द्र वन के समान नयनों की ज्योति हरी थी,
बड़ी-बड़ी पलकॉ के नीचे निद्रा भरी-भरी थी ।
अंग-अंग में लहर लास्य की राग जगानेवाली,
नर के सुप्त शांत शोणित में आग लगानेवाली ।
मदनिका
सुप्त, शांत कहती हो?
जलधारा को पाषाणों में हाँक रही जो शक्ति,
वही छिप कर नर के प्राणों में दौड़-दौड़
शोणित प्रवाह में लहरें उपजाती है,
और किसी दिन फूट प्रेम की धारा बन जाती है ।
पर, तुम कहो कथा आगे की, पूर्ण चन्द्र जब आया,
अचल रहा अथवा मर्यादा छोड़ सिन्धु लहराया ?
निपुणिका
सिन्धु अचल रहता तो हम क्यों रोते राजमहल में?
जलते क्यों इस भांति भाग्य के दारुण कोपानल में ?
महाराज ने देख उर्वशी को अधीर अकुलाकर,
बाँहों में भर लिया दौड़ गोदी में उसे उठाकर
समा गई उर-बीच अप्सरा सुख-सम्भार-नता-सी,
पर्वत के पंखों में सिमटी गिरिमल्लिका-लता-सी ।
और प्रेम-पीड़ित नृप बोले, “क्या उपचार करुँ मैं?
सुख की इस मादक तरंग को कहाँ समेट धरु मैं?
गहा चाहता सिन्धु प्राण का कौन अदृश्य किनारा?
छुआ चाहती किसे हृदय को फोड़ रक्त की धारा?
कौन सुरभि की दिव्य बेलि प्राणों में गमक उठी है?
नई तारिका कौन आज मूर्धा पर चमक उठी है?
किस पाटल के गन्ध-विकल दल उड़कर अनिल-लहर में
मन्द-मन्द तिर रहे आज प्राणों के मादक सर में?
सुगम्भीर सुख की समाधि यह भी कितनी निस्तल है?
डूबें प्राण जहाँ तक, रस-ही-रस है, जल-ही-जल है ।
प्राणों की मणि! अयि मनोज्ञ मोहिनी! दुरंत विरह में
नहीं झेलता रहा वेदनाएँ क्या-क्या दुस्सह मैं?
दिवा-रात्रि उन्निद पलों में तेरा ध्यान संजोकर
काट दिए आतप, वर्षा, हिमकाल सतत रो-रोकर ।
विदा समय तूने देखा था जिस मधुमत्त नयन से,
वह प्रतिमा, वह दृष्टि न भूली कभी एक क्षण मन से ।
धरते तेरा ध्यान चाँद्नी मन में छा जाती थी,
चुम्बन की कल्पना मन में सिहरन उपजाती थी ।
मेघों में सर्वत्र छिपी मेरा मन तू हरती थी,
और ओट लेकर विधु की संकेत मुझे करती थी ।
फूल-फूल में यही इन्दु-मुख आकर्षण उपजाकर,
छिप जाता सौ बार बिहँस इंगित से मुझे बुलाकर ।
रस की स्रोतस्विनी यही प्राणों में लहराती थी,
दाह-दग्ध सैकत को, पर, अभिसिक्त न कर पाती थी ।
किंतु, आज आषाढ, घनाली छाई मतवाली है,
मुझे घेरकर खड़ी हो गई नूतन हरियाली है ।
प्राणेश्वरी! मिलन-सुख को, नित होकर संग वरें हम,
मधुमय हरियाले निकुंज में आजीवन विचरें हम”
औशीनरी
आजीवन वे साथ रहेंगे? तो अब क्या करना है?
जीते जी यह मरण झेलने से अच्छा मरना है
निपुणिका
मरण श्रेष्ठ है, किंतु, आपको वह भी सुलभ नहीं है ।
जाते समय मंत्रियों से प्रभु ने यह बात कही है;
”एक वर्ष पर्यंत गन्धमादन पर हम विचरेंगे,
प्रत्यागत हो नैमिषेय नामक शुभ यज्ञ करेंगे.”
विचरें गिरि पर महाराज हो वशीभूत प्रीता के,
यज्ञ न होगा पूर्ण बिना कुलवनिता परिणिता के ।
औशीनरी
इसी धर्म के लिए आपको भुवनेश्वरी जीना है
हाय, मरण तक जेकर मुझको हालाहल पीना है
जाने, इस गणिका का मैने कब क्या अहित किया था,
कब, किस पूर्वजन्म में उसका क्या सुख छीन लिया था,
जिसके कारण भ्रमा हमारे महाजन की मति को,
छीन ले गई अधम पापिनी मुझसे मेरे पति को ।
ये प्रवंचिकाएँ, जानें, क्यों तरस नहीं खाती हैं,
निज विनोद के हित कुल-वामाओं को तड़पाती हैं ।
जाल फेंकती फिरती अपने रूप और यौवन का,
हँसी-हँसी में करती हैं आखेट नरों के मन का ।
किंतु, बाण इन व्याधिनियों के किसे कष्ट देते हैं?
पुरुषों को दे मोद प्राण वे वधुओं के लेते हैं
निपुणिका
पर, कैसी है कृपा भाग्य की इस गणिका के ऊपर!
बरस रहा है महाराज का सारा प्रेम उमड़कर ।
जिधर-जिधर उर्वशी घूमती, देव उधर चलते हैं
तनिक श्रांत यदि हुई व्यजन पल्लव-दल से झलते हैं ।
निखिल देह को गाढ़ दृष्टि के पय से मज्जित करके
अंग-अंग किसलय, पराग, फूलों से सज्जित करके,
फिर तुरंत कहते “ये भी तो ठीक नहीं जंचते हैं ‘’
भाँति-भाँति के विविध प्रसाधन बार-बार रचते हैं
और उर्वशी पीकर सब आनन्द मौन रहती है
अर्धचेत पुलकातिरेक में मन्द-मन्द बहती है
मदनिका इसमें क्या आश्चर्य?
प्रीति जब प्रथम-प्रथम जगती है,
दुर्लभ स्वप्न समान रम्य नारी नर को लगती है
कितनी गौरवमयी घड़ी वह भी नारी जीवन की
जब अजेय केसरी भूल सुध-बुध समस्त तन-मन की
पद पर रहता पड़ा, देखता अनिमिष नारी-मुख को,
क्षण-क्षण रोमाकुलित, भोगता गूढ़ अनिर्वच सुख को!
यही लग्न है वह जब नारी, जो चाहे, वह पा ले,
उडुओं की मेखला, कौमुदी का दुकूल मंगवा ले ।
रंगवा ले उंगलियाँ पदों की ऊषा के जावक से
सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से ।
तपोनिष्ठ नर का संचित ताप और ज्ञान ज्ञानी का,
मानशील का मान, गर्व गर्वीले, अभिमानी का,
सब चढ़ जाते भेंट, सहज ही प्रमदा के चरणों पर
कुछ भी बचा नहीं पाता नारी से, उद्वेलित नर ।
किन्तु, हाय, यह उद्वेलन भी कितना मायामय है !
उठता धधक सहज जिस आतुरता से पुरुष ह्रदय है,
उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में
रखा चाहती वह समेटकर सागर को बंधन में ।
औशीनरी
किन्तु बन्ध को तोड़ ज्वार नारी में जब जगता है
तब तक नर का प्रेम शिथिल, प्रशमित होने लगता है ।
पुरुष चूमता हमें, अर्ध-निद्रा में हमको पाकर,
पर, हो जाता विमिख प्रेम के जग में हमें जगाकर ।
और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला,
पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला ।
वही आंसुओं की माला अब मुझे पिरोनी होगी ।
निपुणिका
इसी भाँती क्या महाराज भी होंगे नहीं वियोगी ?
आप सद्र्श सन्नारी को यदि राजा ताज सकते हैं,
आँख मूंद स्वर्वेश्या को कब तक वे भज सकते हैं ?
औशीनरी
कौन कहे ? यह प्रेम ह्रदय की बहुत बड़ी उलझन है ।
जो अलभ्य, जो दूर,उसी को अधिक चाहता मन है ।
मदनिका
उस पर भी नर में प्रवृत्ति है क्षण-क्षण अकुलाने की,
नई-नई प्रतिमाओं का नित नया प्यार पाने की ।
वश में आई हुई वस्तु से इसको तोष नहीं है,
जीत लिया जिसको, उससे आगे संतोष नहीं है ।
नई सिद्धि-हित नित्य नया संघर्ष चाहता है नर,
नया स्वाद, नव जय, नित नूतन हर्ष चाहता है नर ।
करस्पर्श से दूर, स्वप्न झलमल नर को भाता है,
चहक कर जिसको पी न सका,वह जल नर को भाता है ।
ग्रीवा में झूलते कुसुम पर प्रीती नहीं जगती है,
जो पड़ पर चढ़ गयी, चांदनी फीकी वह लगती है
क्षण-क्षण प्रकटे, दुरे, छिपे फिर-फिर जो चुम्बन लेकर,
ले समेट जो निज को प्रिय के क्षुधित अंक में देकर;
जो सपने के सदृश बाहु में उड़ी-उड़ी आती हो
और लहर सी लौट तिमिर में ड़ूब-ड़ूब जाती हो,
प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में,
पुरुष बड़े सुख से रहता है उस प्रमदा के बस में ।
औशीनरी
गृहिणी जाती हार दाँव सम्पूर्ण समर्पण करके,
जयिनी रहती बनी अप्सरा ललक पुरुष में भर के
पर, क्या जाने ललक जगाना नर में गृहिणी नारी?
जीत गयी अप्सरा, सखी ! मैं रानी बनकर हारी ।
निपुणिका
इतना कुछ जानते हुए भी क्यों विपत्ति को आने
दिया, और पति को अपने हाथों से बाहर जाने?
महाराज भी क्या कोई दुर्बल नर साधारण हैं,
जिसका चित्त अप्सराएं कर सकती सहज हरण हैं?
कार्त्तिकेय-सम शूर, देवताओं के गुरु-सम ज्ञानी,
रावी-सम तेजवंत, सुरपति के सदृश प्रतापी, मानी;
घनाद-सदृश संग्रही, व्योमवत मुक्त, जल्द-निभ त्यागी,
कुसुम-सदृश मधुमय, मनोज्ञ , कुसुमायुध से अनुरागी ।
ऐसे नर के लिए न वामा क्या कुछ कर सकती है?
कौन वस्तु है जिसे नहीं चरणों पर धर सकती है?
औशीनरी
अरी, कौन है कृत्य जिसे मैं अब तक न कर सकी हूँ ?
कौन पुष्प है जिसे प्रणय-वेदी पर धर न सकी हूँ ?
प्रभु को दिया नहीं, ऐसा तो पास न कोई धन है ।
न्योछावर आराध्य-चरण पर सखि! तन, मन, जीवन है ।
तब भी तो भिक्षुणी-सदृश जोहा करती हूँ मुख को,
सड़ा हेरती रहती प्रिय की आँखों में निज सुख को ।
पर, वह मिलता नहीं, चमक, जाने क्यों खो गयी कहाँ पर !
जानें, प्रभु के मधुर प्रेम की श्री सो गयी कहाँ पर !
सब कुछ है उपलब्ध, एक सुख वही नहीं मिलता है,
जिससे नारी के अंतर का मान-पद्म खिलता है ।
वह सुख जो उन्मुक्त बरस पड़ता उस अवलोकन से,
देख रहा हो नारी को जब नर मधु-मत्त नयन से ।
वह अवलोकन, धूल वयस की जिससे छन जाती है,
प्रौढा पाकर जिसे कुमारी युवती बन जाती है ।
अति पवित्र निर्झरी क्षीरमय दृग की वह सुखकारी,
जिसमें कर अवगाह नई फिर हो उठती है नारी ।
मदनिका
जब तक यह रस-दृष्टि, तभी तक रसोद्रेक जीवन में,
आलिंगन में पुलक और सिहरन सजीव चुम्बन में ।
विरस दृष्टि जब हुई स्वाद चुम्बन का खो जाता है,
दारु-स्पर्श-वत सारहीन आलिंगन हो जाता है ।
वपु तो केवल ग्रन्थ मात्र है,क्या हो काय-मिलन से ?
तन पर जिसे प्रेम लिखता,कविता आती वह मन से ।
पर, नर के मन को सदैव वश में रखना दुष्कर है,
फूलों से यह मही पूर्ण है और चपल मधुकर है ।
पुरुष सदा आक्रांत विचरता मादक प्रणय-क्षुधा से,
जय से उसको तृप्ति नहीं,संतोष न कीर्ति-सुधा से ।
असफलता में उसे जननी का वक्ष याद आता है,
संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है ।
संघर्षों से श्रमित-श्रांत हो पुरुष खोजता विह्वल
सर धरकर सोने को, क्षण-भर, नारी का वक्षस्थल ।
आँखों में जब अश्रु उमड़ते, पुरुष चाहता चुम्बन,
और विपद में रमणी के अंगों का गाढ़ालिंगन ।
जलती हुई धूप में आती याद छांह की, जल की,
या निकुंज में राह देखती प्रमदा के अंचल की ।
और नरों में भी, जो जितना ही विक्रमी, प्रबल है,
उतना ही उद्दाम, वेगमय उसका दीप्त अनल है
प्रकृति-कोष से जो जितना हिएज लिए आता है,
वह उतना ही अनायास फूलों से कट जाता है ।
अगम, अगाध, वीर नर जो अप्रतिम तेज-बल-धारी,
बड़ी सहजता से जय करती उसे रूपसी नारी ।
तिमिराच्छन्न व्योम-वेधन में जो समर्थ होती है,
युवती के उज्जवल कपोल पर वही दृष्टि सोती है ।
जो बाँहें गिरी को उखाड़ आलिंगन में भरती हैं,
उरःपीड-परिरंभ-वेदना वही दान करती हैं ।
जितना ही जो जलधि रत्न-पूरित, विक्रांत, गम है,
उसकी बडवाग्नि उतनी ही अविश्रांत, दुर्दम है ।
बंधन को मानते वही, जो नद, नाले, सोते हैं,
किन्तु, महानद तो, स्वभाव से ही, प्रचंड होते हैं।
निपुणिका
इस प्रचंडता का जग में कोई उपचार नहीं है ?
औशीनरी
पति के सिवा योषिता का कोई आधार नहीं है ।
जब तक है यह दशा, नारियां व्यथा कहाँ खोयेंगी?
आंसू छिपा हँसेंगी, फिर हंसते-हँसते रोएंगी ।
[कंचुकी का प्रवेश]
कंचुकी
जय हो भट्टारिके ! मार्ग भट्टारक को दिखलाने
और उन्हें सक्षेम गंधमादन गिरि तक पहुंचाने
जो सैनिक थे गए,आज वे नगर लौट आए हैं,
और आपके लिए संदेशा यह प्रभु का लाए हैं ।
"पवन स्वास्थ्यदाई, शीतल, सुस्वादु यहाँ का जल है,
झीलों में, बस, जिधर देखिए, उत्पल-ही-उत्पल है ।
लम्बे-लम्बे चीड़ ग्रीव अम्बर की ओर उठाए,
एक चरण पर खड़े तपस्वी-से हैं ध्यान लगाए
दूर-दूर तक बिछे हुए फूलों के नंदन-वन हैं,
जहां देखिए, वहीं लता-तरुओं के कुञ्ज-भवन हैं ।
शिखरों पर हिमराशी और नीचे झरनों का पानी,
बीचों बीच प्रकृति सोई है ओढ़ निचोली धानी ।
बहुत मग्न अतिशय प्रसन्न हूँ मैं तो इस मधुवन में,
किन्तु यहाँ भी कसक रही है वही वेदना मन में ।
प्रतिष्ठानपुर में भू का स्वर्गीय तेज जगता है,
एक वंशधर बिना, किन्तु, सब कुछ सूना लगता है ।
पुत्र ! पुत्र ! अपने गृह में क्या दीपक नहीं जलेगा?
देवि ! दिव्य यह ऐल वंश क्या आगे नहीं चलेगा?
करती रहें प्रार्थना, त्रुटी हो नहीं धर्म-साधन में,
जहां रहूं, मैं भी रत हूँ ईश्वर के आराधन में."
निपुणिका
सुन लिया सन्देश आर्ये ?
औशीनरी
हाँ, अनोखी साधना है,
अप्सरा के संग रमना ईश की आराधना है !
पुत्र पाने के लिए बिहरा करें वे कुञ्ज-वन में,
और मैं आराधना करती रहूं सूने भवन में ।
कितना विलक्षण न्याय है !
कोई न पास उपाय है !
अवलम्ब है सबको, मगर, नारी बहुत असहाय है ।
दुःख-दर्द जतलाओ नहीं,
मन की व्यथा गाओ नहीं,
नारी ! उठे जो हूक मन में, जीभ पर लाओ नहीं ।
तब भी मरुत अनुकूल हों,
मुझको मिलें, जो शूल हों,
प्रियतम जहां भी हों, बिछे सर्वत्र पथ में फूल हों ।
द्वितीय अंक समाप्त
तृतीय अंक आरम्भ
पुरुरवः ! पुनरस्तं परेहि,
दुरापना वात इवाहमस्मि
-ऋग्वेद
हे पुरुरवा ! तुम अपने घर को लौट जाओ
मैं वायु के सामान दुष्प्राप्य हूँ
(गंधमादन पर्वत पर पुरुरवा और उर्वशी)
पुरुरवा
जब से हम-तुम मिले, न जानें, कितने अभिसारों में
रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है;
जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,
अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आई है ।
जब से हम-तुम मिले, रूप के अगम, फुल कानन में
अनिमिष मेरी दृष्टि किसी विस्मय में ड़ूब गयी है,
अर्थ नहीं सूझता मुझे अपनी ही विकल गिरा का;
शब्दों से बनाती हैं जो मूर्त्तियां, तुम्हारे दृग से ।
उठने वाले क्षीर-ज्वार में गल कर खो जाती हैं ।
खड़ा सिहरता रहता मैं आनंद-विकल उस तरु-सा
जिसकी डालों पर प्रसन्न गिलहरियाँ किलक रही हों,
या पत्तों में छिपी हुई कोयल कूजन करती हो ।
उर्वशी
जब से हम-तुम मिले, न जानें, क्या हो गया समय को,
लय होता जा रहा मरुदगति से अतीत-गह्वर में ।
किन्तु, हाय, जब तुम्हें देख मैं सुरपुर को लौटी थी,
यही काल अजगर-समान प्राणों पर बैठ गया था ।
उदित सूर्य नभ से जाने का नाम नहीं लेता था,
कल्प बिताये बिना न हटाती थीं वे काल-निशाएँ
कामद्रुम-तल पड़ी तड़पती रही तप्त फूलों पर;
पर, तुम आए नहीं कभी छिप कर भी सुधि लेने को ।
निष्ठुर बन निश्चिन्त भोगते बैठे रहे महल में
सुख प्रताप का, यश का, जय का, कलियों का, फूलों का ।
मिले, अंत में, तब, जब ललना की मर्याद गंवाकर
स्वर्ग-लोक को छोड़ भूमि पर स्वयं चली मैं आई ।
पुरुरवा
चिर कृतज्ञ हूँ इस कृपालुता के हित, किन्तु, मिलन का,
इसे छोड़कर और दूसरा कौन पथ संभव था ?
उस दिन दुष्ट दनुज के कर से तुम्हें विमोचित करके
और छोड़कर तुम्हें तुम्हारी सखियों के हाथों में
लौटा जब मैं राजभवन को, लगा, देह ही केवल
रथ में बैठी हुई किसी विध गृह तक पहुँच गयी है;
छूट गये हैं प्राण उन्हीं उज्जवल मेघों के वन में,
जहां मिली थी तुम क्षीरोदधि में लालिमा-लहर-सी ।
कई बार चाहा, सुरपति से जाकर स्वयं कहूँ मैं,
अब उर्वशी बिना यह जीवन दूबर हुआ जाता है,
बड़ी कृपा हो उसे आप यदि भू-तल पर आने दें
पर मन ने टोका, "क्षत्रिय भी भीख मांगते हैं क्या"?
और प्रेम क्या कभी प्राप्त होता है भिक्षाटन से ?
मिल भी गयी उर्वशी यदि तुमको इन्द्र की कृपा से ,
उसका ह्रदय-कपाट कौन तेरे निमित्त खोलेगा ?
बाहर सांकल नहीं जिसे तू खोल ह्रदय पा जाए,
इस मंदिर का द्वार सदा अन्तःपुर से खुलता है ।
"और कभी ये भी सोचा है, जिस सुगंध से छककर
विकल वायु बह रही मत्त होकर त्रिकाल-त्रिभुवन की,
उस दिगंत-व्यापिनी गंध की अव्यय, अमर शिखा को
मर्त्य प्राण की किस निकुंज-वीथी में बाँध धरेगा?"
इसीलिए, असहाय तड़पता बैठा रहा महल में
लेकर यह विश्वास, प्रीती यदि मेरी मृषा नहीं है,
मेरे मन का दाह व्योम के नीचे नहीं रुकेगा,
जलद-पुंज को भेद, पहुँचकर पारिजात के वन में
वह अवश्य ही कर देगा संतप्त तुम्हारे मन को ।
और प्रीती जागने पर तुम वैकुंठ-लोक को तजकर
किसी रात, निश्चय, भूतल पर स्वयं चली आओगी ।
उर्वशी
सो तो मैं आ गयी, किन्तु, यह वैसा ही आना है,
अयस्कांत ले खींच अयस को जैसे निज बाहों में ।
पर, इस आने में किंचित भी स्वाद कहाँ उस सुख का,
जो सुख मिलता उन मनस्विनी वामलोचनाओं को
जिन्हें प्रेम से उद्वेलित विक्रमा पुरुष बलशाली
रण से लाते जीत या कि बल-सहित हरण करते हैं ।
नदियाँ आती स्वयं, ध्यान सागर, पर, कब देता है?
बेला का सौभाग्य जिसे आलिंगन में भरने को
चिर-अतृप्त, उद्भ्रांत महोदधि लहराता रहता है ।
वही धनी जो मान्मयी प्रणयी के बाहु-वलय में
खिंची नहीं,विक्रम-तरंग पर चढ़ी हुई आती है ।
हरण किया क्यों नहीं, मांग लाने में यदि अपयश था?
पुरुरवा
अयशमूल दोनों विकर्म हैं,हरण हो कि भिक्षाटन
और हरण करता मैं किसका ? उस सौन्दर्य सुधा का
जो देवों की शान्ति, इन्द्र के दृग की शीतलता थी?
नहीं बढाया कभी हाथ पर के स्वाधीन मुकुट पर,
न तो किया संघर्ष कभी पर की वसुधा हरने को ।
तब भी प्रतिष्ठानपुर वंदित है सहस्र मुकुटों से,
और राज्य-सीमा दिन-दिन विस्तृत होती जाती है ।
इसी भांति, प्रत्येक सुयश, सुख, विजय, सिद्धि जीवन की
अनायास, स्वयमेव प्राप्त मुझको होती आई है ।
यह सब उनकी कृपा, सृष्टि जिनकी निगूढ़ रचना है।
झुके हुए हम धनुष मात्र हैं, तनी हुई ज्या पर से
किसी और की इच्छाओं के बाण चला करते हैं ।
मैं मनुष्य, कामना-वायु मेरे भीतर बहती है
कभी मंद गति से प्राणों में सिहरन-पुलक जगा कर;
कभी डालियों को मरोड़ झंझा की दारुण गति से
मन का दीपक बुझा, बनाकर तिमिराच्छन्न ह्रदय को ।
किन्तु पुरुष क्या कभी मानता है तम के शासन को?
फिर होता संघर्ष तिमिर में दीपक फिर जलाते हैं ।
रंगों की आकुल तरंग जब हमको कस लेती है,
हम केवल डूबते नहीं ऊपर भी उतराते हैं
पुण्डरीक के सदृश मृत्ति-जल ही जिसका जीवन है
पर, तब भी रहता अलिप्त जो सलिल और कर्दम से ।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है,
उसका किंचित स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है
उर्वशी
यह मैं क्या सुन रही ? देवताओं के जग से चल कर
फिर मैं क्या फंस गई किसी सुर के ही बाहू-वलय में ?
अन्धकार की मैं प्रतिमा हूँ? जब तक ह्रदय तुम्हारा
तिमिर-ग्रस्त है, तब तक ही मैं उस पर राज करुँगी?
और जलाओगे जिस दिन बुझे हुए दीपक को
मुझे त्याग दोगे प्रभात में रजनी की माला सी?
वह विद्युन्मय स्पर्श तिमिर है, पाकर जिसे त्वचा की
नींद टूट जाती,रोमों में दीपक बल उठते हैं ?
वह आलिंगन अन्धकार है, जिसमें बंध जाने पर
हम प्रकाश के महासिंधु में उतरने लगते हैं?
और कहोगे तिमिर-शूल उस चुम्बन को भी जिससे
जड़ता की ग्रंथियां निखिल तन-मन की खुल जाती हैं?
यह भी कैसी द्विधा? देवता गंधों के घेरे से
निकल नहीं मधुपूर्ण पुष्प का चुम्बन ले सकते हैं ।
और देह धर्मी नर फूलों के शरीर को तज कर
ललचाता है दूर गंध के नभ में उड़ जाने को
अनासक्ति तुम कहो, किन्तु, उस द्विधा-ग्रस्त मानव की
झांकी तुम में देख मुझे, जाने क्यों, भय लगता है
तन से मुझको कसे हुए अपने दृढ आलिंगन में,
मन से, किन्तु, विषण दूर तुम कहाँ चले जाते हो?
बरसा कर पियूष प्रेम का, आँखों से आँखों में
मुझे देखते हुए कहाँ तुम जाकर खो जाते हो?
कभी-कभी लगता है, तुमसे जो कुछ भी कहती हूँ
आशय उसका नहीं, शब्द केवल मेरे सुनते हो
क्षण में प्रेम अगाध, सिन्धु हो जैसे आलोड़न में
और पुनः वह शान्ति, नहीं जब पत्ते भी हिलते हैं
अभी दृष्टि युग-युग के परिचय से उत्फुल्ल हरी सी
और अभी यह भाव, गोद में पड़ी हुई मैं जैसे
युवती नारी नहीं, प्रार्थना की कोई कविता हूँ ।
शमित-वह्नि सुर की शीतलता तो अज्ञात नहीं है;
पर, ज्वलंत नर पर किसका यह अंकुश लटक रहा है
छककर देता उसे नहीं पीने जो रस जीवन का,
न तो देवता-सदृश गंध-नभ में जीने देता है ।
पुरुरवा
कौन है अंकुश, इसे मैं भी नहीं पहचानता हूँ ।
पर, सरोवर के किनारे कंठ में जो जल रही है,
उस तृषा, उस वेदना को जानता हूँ ।
आग है कोई, नहीं जो शांत होती;
और खुलकर खेलने से भी निरंतर भागती है ।
रूप का रसमय निमंत्रण
या कि मेरे ही रुधिर की वह्नि
मुझको शान्ति से जीने न देती ।
हर घड़ी कहती, उठो,
इस चन्द्रमा को हाथ से धर कर निचोड़ो,
पान कर लो यह सुधा, मैं शांत हूँगी ।
अब नहीं आगे कभी उद्भ्रांत हूँगी ।
किन्तु रस के पात्र पर ज्यों ही लगाता हूँ अधर को,
घूँट या दो घूँट पीते ही
न जानें, किस अतल से नाद यह आता,
"अभी तक भी न समझा ?
दृष्टि का जो पेय है, वह रक्त का भोजन नहीं है ।
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं है."
टूट गिरती हैं उमंगें,
बाहुओं का पाश हो जाता शिथिल है ।
अप्रतिभ मैं फिर उसी दुर्गम जलधि में ड़ूब जाता,
फिर वही उद्विग्न चिंतन,
फिर वही पृच्छा चिरंतन ,
"रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं तो और क्या है?
स्नेह का सौन्दर्य को उपहार
रस-चुम्बन नहीं तो और क्या है?"
रक्त की उत्तम लहरों की परिधि के पार
कोई सत्य हो तो,
चाहता हूँ, भेद उसका जान लूँ ।
पथ हो सौन्दर्य की आराधना का व्योम में यदि
शून्य की उस रेख को पहचान लूँ ।
पर,जहां तक भी उड़ूँ, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है
मृत्ति महदाकाश में ठहरे कहाँ पर? शून्य है सब
और नीचे भी नहीं संतोष,
मिट्टी के ह्रदय से
दूर होता ही कभी अम्बर नहीं है ।
इस व्यथा को झेलता
आकाश की निस्सीमता में
घूमता फिरता विकल, विभ्रांत
पर, कुछ भी न पाता ।
प्रश्न को कढ़ता,
गगन की शून्यता में गूंजकर सब ओर
मेरे ही श्रवण में लौट आता.
और इतने में मही का गान फिर पड़ता सुनाई,
"हम वही जग हैं, जहां पर फूल खिलते हैं ।
दूब है शय्या हमारे देवता की,
पुष्प के वे कुञ्ज मंदिर हैं
जहां शीतल, हरित, एकांत मंडप में प्रकृति के
कंटकित युवती-युवक स्वच्छंद मिलते हैं."
"इन कपोलों की ललाई देखते हो?
और अधरों की हँसी यह कुंद-सी, जूही-कली-सी ?
गौर चम्पक-यष्टि-सी यह देह श्लथ पुष्पभरण से,
स्वर्ण की प्रतिमा कला के स्वप्न-सांचे में ढली-सी ?"
यह तुम्हारी कल्पना है,प्यार कर लो ।
रूपसी नारी प्रकृति का चित्र है सबसे मनोहर.
ओ गगनचारी! यहाँ मधुमास छाया है ।
भूमि पर उतारो,
कमल, कर्पूर, कुंकुम से, कुटज से
इस अतुल सौन्दर्य का श्रृंगार कर लो।"
गीत आता है मही से?
या कि मेरे ही रुधिर का राग
यह उठता गगन में ?
बुलबुलों-सी फूटने लगतीं मधुर स्मृतियाँ ह्रदय में;
याद आता है मदिर उल्लास में फूला हुआ वन
याद आते हैं तरंगित अंग के रोमांच, कम्पन;
स्वर्णवर्णा वल्लरी में फूल से खिलते हुए मुख,
याद आता है निशा के ज्वार में उन्माद का सुख ।
कामनाएं प्राण को हिलकोरती हैं ।
चुम्बनों के चिह्न जग पड़ते त्वचा में ।
फिर किसी का स्पर्श पाने को तृषा चीत्कार करती ।
मैं न रुक पाता कहीं,
फिर लौट आता हूँ पिपासित
शून्य से साकार सुषमा के भुवन में
युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा
जो कहीं रुकता नहीं,
बेचैन जा गिरता अकुंठित
तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में
चूमता हूँ दूब को, जल को, प्रसूनों, पल्लवों को,
वल्लरी को बांह भर उर से लगाता हूँ;
बालकों-सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह को छिपाकर
नींद की निस्तब्धता में डूब जाता हूँ ।
नींद जल का स्रोत है, छाया सघन है,
नींद श्यामल मेघ है, शीतल पवन है ।
किन्तु, जगकर देखता हूँ,
कामनाएं वर्तिका सी बल रही हैं
जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं
प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं ।
रात भर, मानो, उन्हें दीपक सदृश जलना पड़ा हो,
नींद में, मानो, किसी मरुदेश में चलना पड़ा हो ।
फिर क्षुधित कोई अतिथि आवाज देता
फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को,
कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है,
रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रुधिर में,
चेतना रस की लहर में डूब जाती है
और तब सहसा
न जानें , ध्यान खो जाता कहाँ पर ।
सत्य ही, रहता नहीं यह ज्ञान,
तुम कविता, कुसुम, या कामिनी हो
आरती की ज्योति को भुज में समेटे
मैं तुम्हारी ओर अपलक देखता एकांत मन से
रूप के उद्गम अगम का भेद गुनता हूँ ।
सांस में सौरभ, तुम्हारे वर्ण में गायन भरा है,
सींचता हूँ प्राण को इस गंध की भीनी लहर से,
और अंगों की विभा की वीचियों से एक होकर
मैं तुम्हारे रंग का संगीत सुनता हूँ
और फिर यह सोचने लगता, कहाँ ,किस लोक में हूँ ?
कौन है यह वन सघन हरियालियों का,
झूमते फूलों, लचकती डालियों को?
कौन है यह देश जिसकी स्वामिनी मुझको निरंतर
वारुणी की धार से नहला रही है ?
कौन है यह जग, समेटे अंक में ज्वालामुखी को
चांदनी चुमकार कर बहला रही है ?
कौमुदी के इस सुनहरे जाल का बल तोलता हूँ,
एक पल उड्डीन होने के लिए पर खोलता हूँ।
पर, प्रभंजन मत्त है इस भांति रस-आमोद में,
उड़ न सकता, लौट गिरता है कुसुम की गोद में ।
टूटता तोड़े नहीं यह किसलयों का दाम,
फूलों की लड़ी जो बांध गई, खुलती नहीं है ।
कामनाओं के झकोरे रोकते हैं राह मेरी,
खींच लेती है तृषा पीछे पकड़ कर बांह मेरी.
सिन्धु-सा उद्दाम, अपरम्पार मेरा बल कहाँ है?
गूँजता जिस शक्ति का सर्वत्र जयजयकार,
उस अटल संकल्प का संबल कहाँ है?
यह शिला-सा वक्ष, ये चट्टान-सी मेरी भुजाएं
सूर्य के आलोक से दीपित, समुन्नत भाल,
मेरे प्राण का सागर अगम, उत्ताल, उच्छल है ।
सामने टिकते नहीं वनराज, पर्वत डोलते हैं,
कांपता है कुण्डली मारे समय का व्याल,
मेरी बांह में मारुत, गरुड़, गजराज का बल है ।
मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं,
उर्वशी! अपने समय का सूर्य हूँ मैं ।
अंध तम के भाल पर पावक जलाता हूँ,
बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ
पर, न जानें, बात क्या है !
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बाँहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता ।
विद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से ।
मैं तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर धर शीश मरना चाहता हूँ ।
मैं तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ ।
कौन कहता है,
तुम्हें मैं छोड़कर आकाश में विचरण करूंगा ?
बाहुओं के इस वलय में गात्र की बंदी नहीं है,
वक्ष के इस तल्प पर सोती न केवल देह ,
मेरे व्यग्र, व्याकुल प्राण भी विश्राम पाते हैं ।
मर्त्य नर को देवता कहना मृषा है,
देवता शीतल, मनुज अंगार है ।
देवताओं की नदी में ताप की लहरें न उठतीं,
किन्तु, नर के रक्त में ज्वालामुखी हुंकारता है,
घूर्नियाँ चिंगारियों की नाचती हैं,
नाचते उड़कर दहन के खंड पत्तों-से हवा में,
मानवों का मन गले-पिघले अनल की धार है ।
चाहिए देवत्व,
पर, इस आग को धर दूँ कहाँ पर?
कामनाओं को विसर्जित व्योम में कर दूँ कहाँ पर?
वह्नि का बेचैन यह रसकोष, बोलो कौन लेगा ?
आग के बदले मुझे संतोष ,बोलो कौन देगा?
फिर दिशाए मौन, फिर उत्तर नहीं है
प्राण की चिर-संगिनी यह वह्नि,
इसको साथ लेकर
भूमि से आकाश तक चलते रहो ।
मर्त्य नर का भाग्य !
जब तक प्रेम की धारा न मिलती,
आप अपनी आग में जलते रहो ।
एक ही आशा, मरुस्थल की तपन में
ओ सजल कादम्बिनी! सर पर तुम्हारी छांह है ।
एक ही सुख है, उरस्थल से लगा हूँ,
ग्रीव के नीचे तुम्हारी बांह है ।
इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो,
गंध के इस लोक से बाहर न जाना चाहता हूँ ।
मैं तुम्हारे रक्त के कान में समाकर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ ।
उर्वशी
स्वर्णदी, सत्य ही, वह जिसमें उर्मियाँ नहीं, खर ताप नहीं
देवता, शेष जिसके मन में कामना, द्वन्द्व, परिताप नहीं
पर, ओ, जीवन के चटुल वेग! तू होता क्यों इतना कातर ?
तू पुरुष तभी तक, गरज रहा जब तक भीतर यह वैश्वानर ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सखा-मित्र त्रिभुवन तेरा,
चलता है भूतल छोड़ बादलों के ऊपर स्यन्दन तेरा ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक सिन्धु समादर करता है,
अपना मस्तक मणि-रत्न-कोष चरणों पर लाकर धरता है ।
पथ नहीं रोकते सिंह, राह देती है सघन अरण्यानी
तब तक ही शीष झुकाते हैं सामने प्रांशु पर्वत मानी ।
सुरपति तब तक ही सावधान रहते बढ़कर अपनाने को,
अप्सरा स्वर्ग से आती है अधरों का चुम्बन पाने को ।
जब तक यह पावक शेष, तभी तक भाव द्वन्द्व के जगते हैं,
बारी-बारी से मही, स्वर्ग दोनों ही सुन्दर लगते हैं
मरघट की आती याद तभी तक फुल्ल प्रसूनों के वन में
सूने श्मशान को देख चमेली-जूही फूलती हैं मन में
शय्या की याद तभी तक देवालय में तुझे सताती है,
औ’ शयन कक्ष में मूर्त्ति देवता की मन में फिर जाती है ।
किल्विष के मल का लेश नहीं, यह शिखा शुभ्र पावक केवल,
जो किए जा रहा तुझे दग्ध कर क्षण-क्षण और अधिक उज्ज्वल ।
जितना ही यह खर अनल-ज्वार शोणित में उमह उबलता है ।
उतना ही यौवन-अगुरु दीप्त कुछ और धधक कर जलता है ।
मैं इसी अगुरु की ताप-तप्त, मधुमयी गन्ध पीने आई,
निर्जीव स्वर्ग को छोड़ भूमि की ज्वाला में जीने आई
बुझ जाए मृत्ति का अनल, स्वर्गपुर का तू इतना ध्यान न कर
जो तुझे दीप्ति से सजती है, उस ज्वाला का अपमान न कर ।
तू नहीं जानता इसे, वस्तु जो इस ज्वाला में खिलती है,
सुर क्या सुरेश के आलिंगन में भी न कभी वह मिलती है ।
यह विकल, व्यग्र, विह्वल प्रहर्ष सुर की सुन्दरी कहां पाए ?
प्रज्वलित रक्त का मधुर स्पर्श नभ की अप्सरी कहां पाए ?
वे रक्तहीन,शुची, सौम्य पुरुष अम्बरपुर के शीतल, सुन्दर,
दें उन्हें किंतु क्या दान स्वप्न जिनके लोहित, संतप्त, प्रखर?
यह तो नर ही है, एक साथ जो शीतल और ज्वलित भी है,
मन्दिर में साधक-व्रती, पुष्प-वन में कन्दर्प ललित भी है ।
योगी अनंत, चिन्मय, अरुप को रूपायित करने वाला,
भोगी ज्वलंत, रमणी-मुख पर चुम्बन अधीर धरने वाला;
मन की असीमता में, निबद्ध नक्षत्र, पिन्ड, ग्रह, दिशाकाश,
तन में रसस्विनी की धारा, मिट्टी की मृदु, सोन्धी सुवास;
मानव मानव ही नहीं, अमृत-नन्दन यह लेख अमर भी है,
वह एक साथ जल-अनल, मृत्ति-महदम्बर, क्षर-अक्षर भी है ।
तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,
फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ अपने आलिंगन में भर ले ।
मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,
छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ ।
आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंत:सर में मज्जित करके,
हर लूंगी मन की तपन चान्दनी, फूलों से सज्जित करके ।
रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,
फूलों की छाँह-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी।
पुरुरवा
तुम मेरे बहुरंगे स्वप्न की मणि-कुट्टिम प्रतिमा हो,
नहीं मोहती हो केवल तन की प्रसन्न द्युति से ही,
पर, गति की भंगिमा-लहर से, स्वर से, किलकिंचित से,
और गूढ़ दर्शन-चिंतन से भरी उक्तियों से भी ।
किंतु, अनल की दाहक्ता यह दर्शन हर सकता है?
हर सकते हैं उसे मात्र ये दोनों नयन तुम्हारे,
जिनके शुचि, निस्सीम, नील-नभ में प्रवेश करते ही
मन के सारे द्विधा-द्वन्द्व, चिंता-भरम मिट जाते हैं ।
या प्रवाल-से अधर दीप्त, जिनका चुम्बन लेते ही
धुल जाती है श्रांति, प्राण के पाटल खिल पड्ते हैं
और उमड़ आसुरी शक्ति फिर तन में छा जाती है
किंतु, हाय री, लहर वह्नि की, जिसे रक्त कहते हैं;
किंतु, हाय री, अविच्छिन्न वेदना पुरुष के मन की ।
कर्पूरित, उन्मद, सुरम्य इसके रंगीन धुएँ में
जानें, कितनी पुष्पमुखी आकृतियाँ उतराती हैं
रंगों की यह घटा ! व्यग्र झंझा यह मादकता की!
चाहे जितनी उड़े बुद्धि पर राह नहीं पाती है ।
छिपता भी यदि पुरुष कभी क्षण-भर को निभृत निलय में
यही वह्नि फिर उसे खींच् मधुवन में ले आती है ।
अप्रतिहत यह अनल! दग्ध हो इसकी दाहकता से
कुंज-कुंज में जगे हुए कोकिल क्रन्दन करते हैं ।
घूणि चक्र, आंसू, पुकार, झंझा, प्रवेग, उद्वेलन,
करते रहते सभी रात भर दीर्ण-विदीर्ण तिमिर को,
और प्रात जब महा क्षुब्ध प्लावन पग फैलाता है,
जगती के प्रहरी-सेवित सब बन्ध टूट जाते हैं ।
दुर्निवार यह वह्नि, मुग्ध इसकी लौ के इंगित से
उठते हैं तूफान और संसार मरा करता है ।
उर्वशी
रक्त बुद्धि से अधिक बली है और अधिक ज्ञानी भी,
क्योंकि बुद्धि सोचती और शोणित अनुभव करता है ।
निरी बुद्धि की निर्मितियाँ निष्प्राण हुआ करती हैं;
चित्र और प्रतिमा, इनमें जो जीवन लहराता है,
वह सूझों से नहीं, पत्र-पाषाणों में आया है,
कलाकार के अंतर के हिलकोरे हुए रुधिर से ।
क्या विश्वास करे कोई कल्पनामयी इस धी का?
अमित वार देती यह छलना भेज तीर्थ-पथिकों को
उस मन्दिर की ओर, कहीं जिसका अस्तित्व नहीं है
पर,शोणित दौड़ता जिधर को,उस अभिप्रेत दिशा में,
निश्चय ही, कोई प्रसून यौवानोत्फुल्ल सौरभ से
विकल-व्यग्र मधुकर को रस-आमंत्रण भेज रहा है ।
या वासकसज्जा कोई फूलों के कुञ्ज-भवन में
पथ जोहती हुई, संकेतस्थल सूचित करने को
खड़ी समुत्सुक पद्म्राग्मानी-नूपुर बजा रही है ।
या कोई रूपसी उन्मना बैठी जाग रही है
प्रणय-सेज पर, क्षितिज-पास, विद्रुम की अरुणाई में
सिर की ओर चन्द्रमय मंगल-निद्राकलश सजा कर
श्रुतिपट पर उत्तप्त श्वास का स्पर्श और अधरों पर,
रसना की गुदगुदी, अदीपित निश के अन्धियाले में
रस-माती, भटकती ऊंगलियों का संचरण त्वचा पर;
इस निगूढ़ कूजन का आशय बुद्धि समझ सकती है?
उसे समझना रक्त, एक कम्पन जिसमें उठता है
किसी दूब की फुनगी से औचक छू जाने पर भी
बुद्धि बहुत करती बखान सागर-तट की सिकता का,
पर, तरंग-चुम्बित सैकत में कितनी कोमलता है,
इसे जानती केवल सिहरित त्वचा नग्न चरणों की ।
तुम निरुपते हो विराग जिसकी भीषिका सुनाकर,
मेरे लिये सत्य की वानी वही तप्त शोणित है ।
पढ़ो रक्त की भाषा को, विश्वास करो इस लिपि का;
यह भाषा, यह लिपि मानस को कभी न भरमायेगी,
छली बुद्धि की भांति,जिसे सुख-दुख से भरे भुवन में
पाप दीखता वहाँ जहाँ सुन्दरता हुलस रही है,
और पुष्प-चय वहाँ जहाँ कंकाल, कुलिश, कांटे हैं ।
पुरुरवा
द्वन्द्व शूलते जिसे, सत्य ही, वह जन अभी मनुज है
देवी वह जिसके मन में कोई संघर्ष नहीं है ।
तब भी, मनुज जन्म से है लोकोत्तर, दिव्य तुम्हीं-सा,
मटमैली, खर, चटुल धार निर्मल, प्रशांत उद्गम की
रक्त बुद्धि से अधिक बली है, अधिक समर्थ, तभी तो ।
निज उद्गम की ओर सहज हम लौट नहीं पाते हैं
पहुंच नहीं पाते उस अव्यय, एक, पूर्ण सविता तक,
खोए हुए अचेत माधवी किरणों के कलरव में
ये किरणें, ये फूल, किंतु, अप्रतिम सोपान नहीं हैं
उठना होगा बहुत दूर ऊपर इनके तारों पर,
स्यात, ऊर्ध्व उस अम्बर तक जिसकी ऊंचाई पर से
यह मृत्तिका-विहार दिव्य किरणों का हीन लगेगा ।
दाह मात्र ही नहीं, प्रेम होता है अमृत-शिखा भी,
नारी जब देखती पुरुष की इच्छा-भरे नयन को,
नहीं जगाती है केवल उद्वेलन, अनल रुधिर में,
मन में किसी कांत कवि को भी जन्म दिया करती है ।
नर समेट रखता बाहों में स्थूल देह नारी की,
शोभा की आभा-तरंग से कवि क्रीड़ा करता है ।
तन्मय हो सुनता मनुष्य जब स्वर कोकिल-कंठी का,
कवि हो रहता लीन रूप की उज्ज्वल झंकारों में ।
नर चाहता सदेह खींच रख लेना जिसे हृदय में
कवि नारी के उस स्वरूप का अतिक्रमण करता है ।
कवि, प्रेमी एक ही तत्व हैं, तन की सुन्दरता से
दोनों मुग्ध, देह से दोनों बहुत दूर जाते है,
उस अनंत में जो अमूर्त धागों से बान्ध रहा है
सभी दृश्य सुषमाओं को अविगत, अदृश्य सत्ता से ।
देह प्रेम की जन्म-भूमि है, पर, उसके विचरण की,
सारी लीला-भूमि नहीं सीमित है रुधिर-त्वचा तक ।
यह सीमा प्रसरित है मन के गहन, गुह्य लोकों में
जहाँ रूप की लिपि अरूप की छवि आंका करती है
और पुरुष प्रत्यक्ष विभासित नारी-मुखमन्डल में
किसी दिव्य,अव्यक्त कमल को नमस्कार करता है
जगता प्रेम प्रथम लोचन में, तब तरंग-निभ मन में,
प्रथम दीखती प्रिया एकदेही, फिर व्याप्त भुवन में,
पहले प्रेम स्पर्श होता है,तदनंतर चिंतन भी,
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है, तब वायव्य गगन भी ।
मुझमें जिस रहस्य चिंतक को तुमने जगा दिया है
उड़ा चाहता है वह भावुक निरभ्र अम्बर में
घेर रहा जो तुम्हें चतुर्दिक अपनी स्निग्ध विभा से,
समा रहीं जिसमें अलक्ष्य आभा-उर्मियाँ तुम्हारी ।
वह अम्बर जिसके जीवन का पावस उतर चुका है,
चमक रही है धुली हुई जिसमें नीलिमा शरद की ।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ, सत्य ही, चन्द्रमा सी तुम
तैर रही हो अपने ही शीतल प्रकाश-प्लावन से ,
किरण रूप में मुझे समाहित किये हुए अपने में ।
वह नभ, जहाँ गूढ़ छवि पर से अम्बर खिसक गया है,
परम कांति की आभा में सब विस्मित, चकित खड़े हैं,
अधर भूल कर तृषा और शोणित निज तीव्र क्षुधा को ।
वह निरभ्र आकाश, जहाँ की निर्विकल्प सुषमा में,
न तो पुरुष मैं पुरुष, न तुम नारी केवल नारी हो;
दोनों हैं प्रतिमान किसी एक ही मूलसत्ता के,
देह-बुद्धि से परे, नहीं जो नर अथवा नारी है ।
ऊपर जो द्युतिमान, मनोमय जीवन झलक रहा है,
उसे प्राप्त हम कर सकते हैं तन के अतिक्रमण से
तन का अतिक्रमण, यानी इन दो सुरम्य नयनों के
वातायन से झांक देखना उस अदृश्य जगती को
जहाँ मृत्ति की सीमा सूनेपन में बिला रही है
तन का अतिक्रमण,यानी मांसल आवरण हटाकर
आंखों से देखना वस्तुओं के वास्तविक हृदय को
और श्रवण करना कानों से आहट उन भावों की
जो खुल कर बोलते नहीं, गोपन इंगित करते हैं
जो कुछ भी हम जान सके हैं यहाँ देह या मन से
वह स्थिर नहीं, सभी अटकल-अनुमान-सदृश लगता है
अत:, किसी भी भांति आप अपनी सीमा लंघित कर्
अंतरस्थ उस दूर देश में हम सबको जाना है
जहाँ न उठते प्रश्न, न कोई शंका ही जगती है ।
तुम अशेष सुन्दर हो, पर, हो कोर मात्र ही केवल
उस विराट छवि की,जो, घन के नीचे अभी दबी है
अतिक्रमण इसलिये कि इन जलदॉ का पटल हटाकर
देख सकूँ , मधुकांतिमान सारा सौन्दर्य तुम्हारा ।
मध्यांतर में देह और आत्मा के जो खाई है
अनुल्लन्घ्य वह नहीं, प्रभा के पुल से संयोजित है
अतिक्रमण इसलिये, पार कर इस सुवर्ण सेतु को
उद्भासित हो सकें भूतरोत्तर जग की आभा से
सुनें अशब्दित वे विचार जिनमें सब ज्ञान भरा है
और चुनें गोपन भेदॉ को, जो समाधि-कानन में
कामद्रुम से, कुसुम सदृश, नीरव अशब्द झरते हैं
यह अति-क्रांति वियोग नहीं अलिंगित नर-नारी का
देह-धर्म से परे अंतरात्मा तक उठ जाना है
यह प्रदान उस आत्म-रूप का जिसे विमुग्ध नयन से
प्रक्षेपित करता है प्रेमी पुरुष प्रिया के मन में
मौन ग्रहण यह उन अपार शोभाशाली बिम्बों का,
जो नारी से निकल पुरुष के मन में समा रहे हैं
यह अति-क्रांति वियोग नहीं, शोणित के तप्त ज्वलन का
परिवर्तन है स्निग्ध, शांत दीपक की सौम्य शिखा में
निन्दा नहीं, प्रशस्ति प्रेम की, छलना नहीं,समर्पण
त्याग नहीं, संचय; उपत्यकाओं के कुसुम-द्रुमों को
ले जाना है यह समूल नगपति के तुंग शिखर पर
वहाँ जहाँ कैलाश-प्रांत में शिव प्रत्येक पुरुष है
और शक्तिदायिनी शिवा प्रत्येक प्रणयिनी नारी ।
पर, कैसा दुसाध्य पंथ, कितना उड्डयन कठिन है
पहले तो मधु-सिक्त भ्रमर के पंख नहीं खुलते हैं
और खुले भी तो उड़ान आधी ही रह जाती है ;
नीचे उसे खींच लेता है आकर्षण मधुवन का
देह प्रेम की जन्म-भूमि है इस शैशव स्थली की
ममता रखती रोक उसे अति दूर देश जाने से
बाधक है ये प्रेम आप ही अपनी उर्ध्व प्रगति का।
उर्वशी
अतिक्रमण सुख की तरंग, तन के उद्वेलित मधु का?
तुम तो जगा रहे मुझ में फिर उसी शीत महिमा को
जिसे टांग कर पारिजात-द्रुम की अकम्प टहनी में
मैं चपलोष्ण मानवी-सी भू पर जीने आई हूँ
पर, मैं बाधक नहीं, जहाँ भी रहो, भूमि या नभ में
वक्षस्थल पर इसी भांति मेरा कपोल रहने दो
कसे रहो, बस इसी भांति, उर-पीड़क आलिंगन में
और जलाते रहो अधर-पुट को कठोर चुम्बन से
किंतु आह! यों नहीं तनिक तो शिथिल करो बाहों को;
निष्पेषित मत करो, यदपि, इस मधु-निष्पेषण में भी
मर्मांतक है शांति और आनन्द एक दारुण है
तुम पर्वत मैं लता, तुम्हारी बलवत्तर बाँहों में
विह्वल, रस-आकुलित, क्षाम मैं मूर्छित हो जाऊँगी
ना, यों नहीं; अरे, देखो तो उधर, बड़ा कौतुक है,
नगपति के उत्तुंग, समुज्ज्वल, हिम-भूषित शृगों पर
कौन नई उज्जवलता की तूली सी फेर रहा है?
कुछ वृक्षो के हरित-मौलि पर, कुछ पत्तों से छनकर
छँह देख नीचे मृगांक की किरणें लेट गई हैं
ओढ़े धूप-छम्ह की जाली ,अपनी ही निर्मिति की ।
लगता है, निष्कम्प, मौन सारे वन-वृक्ष खड़े हों
पीताम्बर, उष्णीष बान्धकर छायातप-कुट्टिम पर ।
दमक रही कर्पूर धूलि दिग्बन्धुओं के आनन पर;
रजनी के अंगो पर कोई चन्दन लेप रहा है
यह अधित्यका दिन में तो कुछ इतनी बडी नहीं थी?
अब क्या हुआ कि यह अनंत सागर-समान लगती है?
कम कर दी दूरता कौमुदी ने भू और गगन की?
उठी हुई-सी मही, व्योम कुछ झुका हुआ लगता है
रसप्रसन्न मधुकांति चतुर्दिक ऐसे उमड़ रही है,
मानो, निखिल सृष्टि के प्राणों में कम्पन भरने को
एक साथ ही सभी बाण मनसिज ने छोड़ दिये हों ।
पुरुरवा
हाँ समस्त आकाश दीखता भरा शांत सुषमा से
चमक रहा चन्द्रमा शुद्ध, शीतल, निष्पाप हृदय-सा
विस्मृतियाँ निस्तल समाधि से बाहर निकल रही हैं
लगता है, चन्द्रिका आज सपने में घूम रही है ।
और गगन पर जो असंख्य आग्नेय जीव बैठे हैं
लगते हैं धुन्धले अरण्य में हीरों के कूपों-से ।
चन्द्रभूति-निर्मित हिमकण ये चमक रहे शाद्वल में?
या नभ के रन्ध्रों में सित पारावत बैठ गये हैं?
कल्प्द्रुम के कुसुम, या कि ये परियों की आंखें हैं?
उर्वशी
कल्पद्रुम के कुसुम नहीं ये, न तो नयन परियों के,
ये जो दीख रहे उजले-उजले से नील गगन में,
दीप्तिमान, सित, शुभ्र, श्मश्रुमय देवों के आनन हैं ।
शमित वह्नि ये शीत-प्राण पीते सौन्दर्य नयन से,
घ्राण मात्र लेते, न कुसुम का अंग कभी छूते हैं
पर, देखो तो, दिखा-दिखा दर्पण शशांक यह कैसे
सब के मन का भेद गुप्तचर-सा पढ़्ता जाता है,
(भेद शैल-द्रुम का, निकुंज में छिपी निर्झरी का भी.)
और सभी कैसे प्रसन्न अभ्यंतर खोल रहे हैं,
मानो चन्द्र-रूप धर प्राणों का पाहुन आया हो ।
ऐसी क्या मोहिनी चन्द्रमा के कर में होती है?
पुरुरवा
ऋक्षकल्प झिलमिल भावों का, चन्द्रलिंग स्वप्नों का
दिवस शत्रु, एकांत यामिनी धात्री है, माता है ।
आती जब शर्वरी, पोंछती नहीं विश्व के सिर से
केवल तपन-चिन्ह, केवल लांछन सफेद किरणों के;
श्रमहारी, निर्मोघ, शांतिमय अपने तिमिरांचल में
कोलाहल, कर्कश निनाद को भी समेट लेती है
तिमिर शांति का व्यूह, तिमिर अंतर्मन की आभा है,
दिन में अंतरस्थ भावों के बीज बिखर जाते हैं;
पर हम चुनकर उन्हें समंजस करते पुन: निशा में
जब आता है अन्धकार, धरणी अशब्द होती है ।
जो सपने दिन के प्रकाश में धूमिल हो जाते हैं
या अदृश्य अपने सोदर, संकोचशील उडुओं-से,
वही रात आने पर कैसे हमें घेर लेते हैं
ज्योतिर्मय, जाज्वल्यमान, आलोक-शिखाएँ बनकर!
निशा योग-जागृति का क्षण है उदग्र प्रणय की
ऐकायनिक समाधि; काल के इसी गरुत के नीचे
भूमा के रस-पथिक समय का अतिक्रमण करते हैं
योगी बँधे अपार योग में, प्रणयी आलिंगन में ।
समतामयी उदार शीतलांचल जब फैलाती है,
जाते भूल नृपति मुकुटॉ को, बन्दी निज कड़ियों को;
जग भर की चेतना एक होकर अशब्द बहती है
किसी अनिर्वचनीय, सुखद माया के महावरण में ।
साम्राज्ञी विभ्राट, कभी जाते इसको देखा है
समारोह-प्रांगण में पहने हुए दुकूल तिमिर का
नक्षत्रों से खचित, कूल-कीलित झालरें विभा की
गूँथे हुए चिकुर में सुरभित दाम श्वेत फूलों के?
और सुना है वह अस्फुट मर्मर कौशेय वसन का
जो उठता मणिमय अलिन्द या नभ के प्राचीरों पर
मुक्ता-भर,लम्बित दुकूल के मन्द-मन्द घर्षण से,
राज्ञी जब गर्वित गति से ज्योतिर्विहार करती है?
निशा शांति का क्रोड़; किंतु, यह सुरभित स्फटिक-भवन में
तब भी, कोई गीत ज्योति से मिला हुआ चलता है
यह क्या है? कौमुदी या कि तारे गुन-गुन गाते है?
दृश्य श्रव्य बनकर अथवा श्रुतियों में समा रहा है?
बजती है रागिनी सुप्त सुन्दरता की साँसॉ की
या अपूर्व कविता चिर-विस्मृत किसी पुरातन कवि की
गूँज रही निस्तब्ध निशा में निकल काल-गह्वर से?
यह अगाध सुषमा, अनंतता की प्रशांत धारा में,
लगता है, निश्चेत कहीं हम बहे चले जाते हैं ।
उर्वशी
अतल, अनादि, अनंत, पूर्ण, बृंहित, अपार अम्बर में
सीमा खींचे कहाँ? निमिष, पल, दिवस, मास, संवत्सर
महाकाश में टंगे काल के लक्तक-से लगते हैं ।
प्रिय! उस पत्रक को समेट लो जिसमें समय सनातन
क्षण, मुहुर्त, संवत, शताब्दि की बून्दों में अंकित है ।
बहने दो निश्चेत शांति की इस अकूल धारा में,
देश-काल से परे, छूट कर अपने भी हाथों से ।
किस समाधि का शिखर चेतना जिस पर ठहर गई है?
उड़ता हुआ विशिख अम्बर में स्थिर-समान लगता है ।
पुरुरवा
रुको समय-सरिते! पल! अनुपल! काल-शकल! घटिकाओ!
इस प्रकार, आतुर उड़ान भर कहाँ तुम्हें जाना है?
कहीं समापन नहीं ऊर्ध्व-गामी जीवन की गति का,
काल-पयोनिधि का त्रिकाल में कोई कूल नहीं है
कहीं कुंडली मार कर बैठ जाओ नक्षत्र-निलय में
मत ले जाओ खींच निशा को आज सूर्य-वेदी पर ।
रुको पान करने दो शीतलता शतपत्र कमल की;
एक सघन क्षण में समेटने दो विस्तार समय का,
एक पुष्प में भर त्रिकाल की सुरभि सूंघ लेने दो ।
मिटा कौन? जो बीत गया, पीछे की ओर खड़ा है;
जनमा अब तक नहीं, अभी वह घन के अन्धियाले में
बैठा है सामने छन्न, पर, सब कुछ देख रहा है ।
जिस प्रकार नगराज जानता व्यथा विन्ध्य के उर की,
और हिमालय की गाथा विदित महासागर को,
वर्तमान, त्यों ही, अपने गृह में जो कुछ करता है,
भूत और भवितव्य, उभय उस रचना के साखी हैं ।
सिन्धु, विन्ध्य, हिमवान खड़े हैं दिगायाम में जैसे
एक साथ; त्यों काल-देवता के महान प्रांगण में
भूत, भविष्यत, वर्तमान, सब साथ-साथ ठहरे हैं
बातें करते हुए परस्पर गिरा-मुक्त भाषा में ।
कहाँ देश, हम नहीं व्योम में जिसके गूँज रहे हैं
कौन कल्प, हम नहीं तैरते हैं जिसके सागर में?
महाशून्य का उत्स हमारे मन का भी उद्गम है,
बहती है चेतना काल के आदि-मूल को छूकर ।
उर्वशी
हम त्रिलोकवासी, त्रिकालचर, एकाकार समय से
भूत, भविष्यत, वर्तमान, तीनों के एकार्णव में
तैर रहे सम्पृक्त सभी वीचियों, कणों, अणुओं से ।
समा रही धड़कनें उरों की अप्रतिहत त्रिभुवन में,
काल-रन्ध्र भर रहा हमारी सांसॉ के सौरभ से ।
अंतर्नभ का यह प्रसार! यह परिधि-भंग प्राणों का!
सुख की इस अपार महिमा को कहाँ समेट धरें हम?
पुरुरवा
महाशून्य के अंतर्गृह में, उस अद्वैत-भवन में
जहाँ पहुंच दिक्काल एक हैं, कोई भेद नहीं है ।
इस निरभ्र नीलांतरिक्ष की निर्झर मंजुषा में
सर्ग-प्रलय के पुराव्र्त्त जिसमें समग्र संचित हैं ।
दूरागत इस सतत-संचरण-मय समीर के कर में
कथा आदि की जिसे अंत की श्रुति तक ले जाना है
इस प्रदीप्त निश के अंचल में, जो आप्रलंय निरंतर,
इसी भांति, सुनती जायेगी कूजन गूढ़ प्रणय का ।
उस अदृश्य के पद पर, जिसकी दयासिक्त, मृदु स्मिति में,
हम दोनों घूमते और क्रीड़ा विहार करते हैं ।
जिसकी इच्छा का प्रसार भूतल, पाताल, गगन है,
दौड़ रहे नभ में अनंत कन्दुक जिसकी लीला के
अगणित सविता-सोम, अपरिमित ग्रह, उडु-मंडल बनकर;
नारी बन जो स्वयं पुरुष को उद्वेलित करता है
और बेधता पुरुष-कांति बन हृदय-पुष्प नारी का ।
निधि में जल, वन में हरीतिमा जिसका घनावरण है,
रक्त-मांस-विग्रह भंगुर ये उसी विभा के पट हैं ।
प्रणय-श्रृंग की निश्चेतनता में अधीर बाँहों के
आलिंगन में देह नहीं श्लथ, यही विभा बँधती है ।
और चूमते हम अचेत हो जब असंज्ञ अधरों को,
वह चुम्बन अदृश्य के चरणों पर भी चढ़ जाता है ।
देह मृत्ति, दैहिक प्रकाश की किरणें मृत्ति नहीं हैं,
अधर नष्ट होते, मिटती झंकार नहीं चुम्बन की;
यह अरूप आभा-तरंग अर्पित उसके चरणों पर,
निराकार जो जाग रहा है सारे आकारों में ।
उर्वशी
रोम-रोम में वृक्ष, तरंगित, फेनिल हरियाली पर
चढ़ी हुई आकाश-ओर मैं कहाँ उड़ी जाती हूँ?
पुरुरवा
देह डूबने चली अतल मन के अकूल सागर में
किरणें फेंक अरूप रूप को ऊपर खींच रहा है ।
उर्वशी
करते नहीं स्पर्श क्यों पगतल मृत्ति और प्रस्तर का?
सघन, उष्ण वह वायु कहाँ है? हम इस समय कहाँ हैं?
पुरुरवा
छूट गई धरती नीचे, आभा की झंकारों पर
चढ़े हुए हम देह छोड़ कर मन में पहुंच रहे हैं
उर्वशी
फूलों-सा सम्पूर्ण भुवन सिर पर इस तरह, उठाए
यह पर्वत का श्रृंग मुदित हमको क्यों हेर रहा है?
पुरुरवा
अयुत युगों से ये प्रसून यों ही खिलते आए हैं,
नित्य जोहते पंथ हमारे इसी महान मिलन का ।
जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,
नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर
तब प्रहर्ष की अति से यों ही प्रकृति काँप उठती है,
और फूल यों ही प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं ।
उर्वशी
जला जा रहा अर्थ सत्य का सपनों की ज्वाला में,
निराकार में आकारों की पृथ्वी डूब रही है ।
यह कैसी माधुरी? कौन स्वर लय में गूंज रहा है
त्वचा-जाल पर, रक्त-शिराओं में, अकूल अंतर में?
ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ री बेबसी गिरा की!
दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?
पुरुरवा
शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;
प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं
कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?
भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की ।
उर्वशी
कौन पुरुष तुम?
पुरुरवा
जो अनेक कल्पों के अंधियाले में
तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को
जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में,
पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर
एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी
उर्वशी
और कौन मैं?
पुरुरवा
ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता हूँ
इतना ही है ज्ञात, तुम्हारे आते ही अंतर का
द्वार स्वयं खुल गया और प्राणों का निभृत निकेतन्
अकस्मात, भर गया स्वरित रंगों के कोलाहल से ।
जब से तुम आई पृथ्वी कुछ अधिक मुदित लगती है;
शैल समझते हैं, उनके प्राणों में जो धारा है,
बहती है पहले से वह,कुछ अधिक रसवती होकर
जब से तुम आई धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,
दौड़ रही कुछ नई दीप्ति सी शीतल हरियाली में ।
सब हैं सुखी, एक नक्षत्रों को ऐसा लगता है
जैसे कोई वस्तु हाथ से उनके निकल गई हो ।
उर्वशी
और मिले जब प्रथम-प्रथम तुम, विद्युत चमक उठी थी
इन्द्रधनुष बनकर भविष्य के नीले अन्धियाले पर
तुम मेरे प्राणेश, ज्ञान-गुरु, सखा, मित्र, सह्चर हो;
जहाँ कहीं भी प्रणय सुप्त था शोणित के कण-कण में
तुमने उसको छेड़ मुझे मूर्छा से जगा दिया है ।
प्राणों में शीतल शुचिता सद्य:प्रस्फुटित कमल की;
लगता है ऋजु प्रभा हृदय में पुन: लौट आई है
भरी चुम्बनों की फुहार, कम्पित प्रमोद की अति से
जाग उठी हूँ मैं निद्रा से जगी हुई लतिका-सी
प्रथम-प्रथम ही सुना नाद उद्गम पर बजते जल का,
प्रथम-प्रथम ही आदि उषा की द्युति में भीग रही हूँ ।
तन की शिरा-शिरा में जो रागिनियाँ बन्द पड़ी थी
कौन तुम्हारे बिना उन्हें उन्मोचित कर सकता था?
कौन तुम्हारे बिना दिलाता यह विश्वास हृदय को,
अंतरिक्ष यह स्वयं भूमि है किसी अन्य जगती की,
सम्मुख जो झूमते वृक्ष,वे वृक्ष नहीं बादल हैं?
यह ज्योतिर्मय रूप? प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से
काट पुरुष-प्रतिमा विराट निज मन के आकारों की,
महाप्रान से भर उसको, फिर भू पर गिरा दिया है;
स्यात्, स्वर्ग की सुन्दरियों, परियों को ललचाने को,
स्यात्, दिखाने को, धरती जब महावीर जनती है,
असुरों से वह बली, सुरों से भी मनोज्ञ् होता है ।
उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलों-से!
ये न्वीन पाटल के दल आनन पर जब फिरते हैं,
रोम-कूप, जानें, भर जाते किन पीयुष कणों से!
और सिमटते ही कठोर बाँहों के आलिंगन में,
चटुल एक-पर-एक उष्ण उर्मियाँ तुम्हारे तन की
मुझमें कर संक्रमण प्राण उन्मत्त बना देती हैं
कुसुमायित पर्वत-समान तब लगी तुम्हारे तन से
मैं पुलकित-विह्वल, प्रसन्न-मूर्च्छित होने लगती हूँ
कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
पुरुरवा
हाय, तृषा फिर वही तरंगों में गाहन करने की!
वही लोभ चेतना-सिन्धु के अपर पार जाने का
झम्प मार तन की प्रतप्त, उफनाती हुई लहर में?
ठहर सकेगा कभी नहीं क्या प्रणय शून्य अम्बर पर?
विविध सुरों में छेड़ तुम्हारी तंत्री के तारों को,
बिठा-बिठा कर विविध भांति रंगों में, रेखाओं में,
कभी उष्ण उर-कम्प, कभी मानस के शीत मुकुर में,
बहुत पढ़ा मैने अनेक लोकों में तुम्हें जगाकर ।
पर, इन सब से खुलीं पूर्ण तुम? या जो देख रहा हूँ,
मायाविनि! वह बन्द मुकुल है, महासिन्धु का तट है?
कहाँ उच्च वह शिखर, काल का जिस पर अभी विलय था?
और कहाँ यह तृषा ग्राम्य नीचे आकर बहने की
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
भ्रांत स्वयं या जान-बूझकर मुझको भ्रमा रही हो?
उर्वशी
भ्रांति नहीं, अनुभूति; जिसे ईश्वर हम सब कहते हैं,
शत्रु प्रकृति का नहीं, न उसका प्रतियोगी, प्रतिबल है ।
किसने कहा तुम्हें, परमेश्वर और प्रकृति, ये दोनों
साथ नहीं रहते; जिसको भी ईश्वर तक जाना है,
उसे तोड़ लेने होंगे सारे सम्बन्ध प्रकृति से;
और प्रकृति के रस में जिसका अंतर रमा हुआ है,
उसे और जो मिले, किंतु, परमेश्वर नहीं मिलेगा?
किसने कहा तुम्हें, जो नारी नर को जान चुकी है,
उसके लिए अलभ्य ज्ञान हो गया परम सत्ता का;
और पुरुष जो आलिंगन में बाँध चुका रमणी को,
देश-काल को भेद गगन में उठने योग्य नहीं है?
ईश्वरीय जग भिन्न नहीं है इस गोचर जगती से;
इसी अपावन में अदृश्य वह पावन सना हुआ है
माया कह क्यों मृषा मेटते हो अस्तित्व प्रकृति का?
ये नदियाँ, ये फूल, वृक्ष ये और स्वयं हम-तुम भी
शून्य मंच पर सत्वशील, जीवित, साकार खड़े हैं ।
और यहाँ जो कुछ करते हैं उसकी गंध हवा में
उड़ते-उड़ते दूर जन्म-जन्मांतर तक जाती है ।
शिखरों में जो मौन, वही झरनों में गरज रहा है,
ऊपर जिसकी ज्योति, छिपा है वही गर्त्त के तम में ।
तब किस भय से भाग रहे नीचे की तिमिरपुरी से?
शिखरों पर का कौन लोभ ऊपर को खींच रहा है?
अन्धा हो जाता मनुष्य रवि की भी प्रखर प्रभा से
और किसी को अन्धियाले में भी सब कुछ दिखता है ।
मुक्ति खोजते हो? पर,यह तो कहो कि किस बंधन से?
ये प्रसून, यह पवन बन्ध है? या मैं बाँध रही हूँ?
अच्छा, खुल जाओ प्रसून से, पवन और मुझसे भी;
अब बोलो, मन पर जो बाकी कोई बन्ध नहीं है?
बन्ध नियम,संयम, निग्रह, शास्त्रों की आज्ञाओं का?
मोह मात्र ही नहीं सभी ऐसे विचार बन्धन हैं
जो सिखलाते हैं मनुष्य को, प्रकृति और पर्मेश्वर
दो हैं; जो भी प्रकृत हुआ, वह हुआ दूर ईश्वर से;
ईश्वर का जो हुआ, उसे फिर प्रकृति नहीं पायेगी ।
प्रकृति नहीं माया, माया है नाम भ्रमित उस धी का,
बीचोंबीच सर्प-सी जिसकी जिह्वा फटी हुई है;
एक जीभ से जो कहती कुछ सुख अर्जित करने को,
और दूसरी से बाकी का वर्णन सिखलाती है
मन की कृति यह द्वैत, प्रकृति में, सचमुच द्वैत नहीं है ।
जब तक प्रकृति विभक्त पड़ी है श्वेत-श्याम खण्डों में
विश्व तभी तक माया का मिथ्या प्रवाह लगता है
किंतु,शुभाशुभ भावों से मन के तटस्थ होते ही,
न तो दीखता भेद, न कोई शंका ही रहती है ।
राग-विराग दुष्ट दोनों, दोनों निसर्ग-द्रोही हैं ।
एक चेतना को अजुष्ट संकोचन सिखलाता है;
और दूसरा प्रिय, अभीष्ट सुख की अभिप्रेत दिशा में
कहता है बल-सहित भावना को प्रसरित होने को ।
दोनों विषम शांति-समता के दोनों ही बाधक हैं;
दोनों से निश्चिंत चेतना को अभंग बहने दो ।
करने दो सब कृत्य उसे निर्लिप्त सभी से होकर,
लोभ, भीति, संघर्ष और यम, नियम, सयंमों से भी ।
हम इच्छुक अकलुष प्रमोद के, पर, वह प्रमुद निरामय
विधि-निषेध-मय संघर्षों, यत्नों से साध्य नहीं है ।
आता है वह अनायास, जैसे फूटा करती हैं
डाली से टहनियाँ और पत्तियाँ स्वत: टहनी से,
या रहस्य-चिंतक के मन में स्वयं कौंध जाती है
जैसे किरण अदृश्य लोक की, भेद अगम सत्ता का ।
यह अकाम आनन्द भाग संतुष्ट-शांत उस जन का,
जिसके सम्मुख फलासक्तिमय कोई ध्येय नहीं है,
जो अविरत तन्मय निसर्ग से, एकाकार प्रकृति से,
बहता रहता मुदित, पूर्ण, निष्काम कर्म-धारा में,
संघर्षों में निरत, विरत, पर, उनके परिणामों से;
सदा मानते हुए, यहाँ जो कुछ है, मात्र क्रिया है;
हम निसर्ग के स्वयं कर्म हैं, कर्म स्वभाव हमारा,
कर्म स्वयं आनन्द, कर्म ही फल समस्त कर्मों का ।
जब हम कुछ भी नहीं खोजते निज से बाहर जाकर,
तब हम कर्मी नहीं, कर्म के रूप स्वयं होते हैं
करते हुए व्यक्त आंसू अथवा उल्लास प्रकृति का ।
यह अकाम आनन्द भाग उनका, जो नहीं सुखों को
आमंत्रण भेजते, न जगकर पथ जोहा करते हैं;
न तो बुद्धि जिनकी चिंताकुल यह सोचा करती है,
कैसे, क्या कुछ करें कि हो सुख पर अधिकार हमारा;
और न तो चेतना आकुलित इस भय से रहती है,
जानें, कौन दुख आ जाए कब, किस वातायन से;
विधि-निषेध से मुक्त, न तो पीड़ित सचेष्ट वर्जन से,
न तो प्राण को बल समेत, बरबस उस ओर लगाए
जिस दिशि से जीवन में सुख-धारा फूटा करती है ।
जब इन्द्रियाँ और मन ऐसी सहज, शांत मुद्रा में,
वातायन खोले, चिंता से रहित पड़े होते हैं,
तभी किरन निष्कलुष मोद की स्वयं उतर आती है
रवि की किरणों के समान, अम्बर से, खुले भवन में ।
विधि-निषेध हैं जहाँ, वहाँ पर कर्म अकर्म नहीं है;
विधि-निषेध कुछ नहीं, नियम हैं वे अर्जन-वर्जन के ।
और जहाँ अर्जन-वर्जन का गणित चला करता है,
कह सकते हो सजग-प्रहरियों की उस बड़ी सभा में,
एक जीव भी है, जिसके कर्मों का ध्येय नहीं है?
फलासक्ति से मुक्त क्रिया में जो उस भाँति निरत है,
जैसे बहता है समीर सर्वथा मुक्त ध्येयों से,
अथवा जैसे निरुद्देश्य ये फूल खिला करते हैं?
हो कोई तो कहो, उसे फल का यदि लोभ नहीं है,
तो फिर चाबुक मार स्वयं को वह क्यों हाँक रहा है?
समर प्रकृति से रोप, इन्द्रियों पर तलवार उठाये
चुका रहा है किस सुख का वह मोल देह-दंडन से?
और कौन सुख है जिसके लुट जाने की शंका से
सारी रात नीन्द से लड़ वह आकुल जाग रहा है?
और सुनोगे एक भेद? ये प्रहरी जिन घेरों पर
रात-रात भर धनु का गुण ताने घूमा करते हैं,
उन घेरों में रक्षणीय कोई भी सार नहीं है ।
कुछ भूखी रिक्तता चेतना की, कुछ फेन हवा के,
कुछ थोड़ी यह तृषा कि ऐसी कोई युक्ति निकालें,
जिससे मृत्यु-करों में भी पड़ने पर नहीं मरें हम;
किंतु, अधिक यह भाव, वैर है प्र्कृति और ईश्वर में,
अत: सिद्धि के लिये, प्रकृति से हमें दूर होना है ।
मूढ़ मनुज! यह भी न जानता, तू ही स्वयं प्रकृति है?
फिर अपने से आप भागकर कहाँ त्राण पाएगा?
सब है शून्य कहीं कोई निश्चित आकार नहीं है,
क्षण-क्षण सब कुछ बदल रहा है परिवर्तन के क्रम में
धूमयोनि ही नहीं, ठोस यह पर्वत भी छाया है,
यह भी कभी शून्य अम्बर था और अचेत अभी भी,
नए-नए आकारों में क्षण-क्षण यह समा रहा है;
स्यात् कभी मिल ही जाए, क्या पता, अनंत गगन में ।
यह परिवर्तन ही विनाश है? तो फिर नश्वरता से
भिन्न मुक्ति कुछ नहीं. किंतु, परिवर्तन नाश नहीं है ।
परिवर्तन-प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्राण-धारा है ।
मुक्त वही, जो सहज भावना से इसमें बहते हैं,
विधि-निषेध से परे, छूटकर सभी कामनाओ से,
किसी ध्येय के लिए नहीं केवल बहते रहने को;
क्योंकि और कुछ भी करना सम्भव या योग्य नहीं है ।
जानें, क्यों तैराक चतुर तब भी प्रशांत धारा में
चला-चलाकर हाथ-पाँव विक्षोभ व्यर्थ भरते हैं!
कौन सिद्धि है जो मिलती संतरण-दक्ष साधक को,
और नहीं मिलती अकाम जल में बहने वाले को?
जिसे खिजता फिरता है तू,वह अरूप, अनिकेतन
किसी व्योम पर कहीं देह धर बैठा नहीं मिलेगा ।
वह तो स्वयं रहा बह अपनी ही लीला-धारा में,
कर्दम कहीं, कहीं पंकज बन, कहीं स्वच्छ जल बनकर ।
उसे देखना हो तो आंखों को पहले समझा दे,
श्वेत-श्याम एक ही रंग की युगपत संज्ञाएँ हैं
और उसे छूना हो तो कह दे अपने हाथों से,
भेद उठा दें शूल-फूल का, कमल और कर्दम का ।
अर्थ खोजते हो जीवन का? लड़ी कार्य-कारण की
बहुत दूर तक बिछी हुई है पीछे अन्धियाले में
चलो जहाँ तक भी, अतीत-गह्वर में, चरण-चरण पर,
मात्र प्रतीक्षा-निरत प्रश्न मग में मिलते जाएंगे ।
और, अंत में अनाख्येय जो आदि भित्ति आती है,
परे झांकने को भी उसमें कहीं गवाक्ष नहीं है ।
वर्तमान की कुछ मत पूछो,एक बूंद वह जल है,
अभी हाथ आया, तुरंत फिर अभी बिखर जायेगा ।
पढ़ा जाए क्या अर्थ काल के इस उड़ते अक्षर का?
और भविष्यत के वन में ऐसा घनघोर तिमिर है,
नहीं सूझता पंथ बुद्धि के दीपों की आभा में
हार मान प्रज्ञा अपना सिर थाम बैठ जाती है ।
वृथा यत्न इस अतल शून्य का तलस्पर्श करने का
वृथा यत्न पढ़ने का कोई भेद उत्स पर जाकर ।
कहीं न कोई द्वार न तो वातायन कहीं खुले हैं,
हम हैं जहाँ, वहाँ जाने की कोई राह नहीं है ।
किंतु, अर्थ को छोड़ जभी शब्दॉ की ओर मुड़ोगे,
अकस्मात, यह शून्य ठोस रूपों से भर जाएगा ।
देखोगे, सुनसान नहीं यह तो पूरी बस्ती है
नक्षत्रों की, नील गगन की, शैलों, सरिताओं की,
लता-पत्र् की, हरियाली की, ऊषा की लाली की ।
सभी पूर्ण, सब सुखासीन, सब के सब लीन क्रिया में,
पूछे किससे? कौन, कहाँ से सृष्टि निकल आई है?
अच्छा है, ये पेड़, पुष्प इसके जिज्ञासु नहीं हैं,
हम हैं कौन, कहाँ से आए और कहाँ जाएंगे?
सच में, यह प्रत्यक्ष जगत कुछ उतना कठिन नहीं है,
जितना हो जाता दुरूह मन के भीतर जाने पर ।
वैचारिक जितना विषण्ण रहता दुरूहताओं से,
उतना खिन्न नहीं रहता है सहज मनुष्य प्रकृति का ।
द्वन्द्व रंच भर नहीं कहीं भी प्रकृति और ईश्वर में,
द्वन्द्वों का आभास द्वैतमय मानस की रचना है ।
यह आभास नहीं टिकता, जब मनुज जान लेता है
अप्रयास अनुभवन प्रकृति का, सहज रीति जीवन की;
क्योंकि प्रकृति औ पुरुष एक हैं, कोई भेद नहीं है ।
जो भी है अवसर निसर्ग के, ईश्वर के भी क्षण हैं
धर्म-साधना कहीं प्रकृति से भिन्न नहीं चलती है ।
दृश्य, अदृश्य एक हैं दोनों, प्रकृति और ईश्वर में
भेद गुणों का नहीं, भेद है मात्र दृष्टि का, मन का
और यहाँ यह काम-धर्म ही उज्जवल उदाहरण है ।
काम धर्म, काम ही पाप है, काम किसी मानव को
उच्च लोक से गिरा हीन पशु-जंतु बना देता है
और किसी मन में असीम सुषमा की तृषा जगाकर
पहुंचा देता उसे किरण-सेवित अति उच्च शिखर पर ।
यह विरोध क्या है? कैसे दो फल एक ही क्रिया के
एक अपर से, इस प्रकार, प्रतिकूल हुआ करते हैं?
सोचा है, यह प्रेम कहीं क्यों दानव बन जाता है,
और कहीं क्यों जाकर मिल जाता रहस्य-चिंतन से?
काम नहीं, इस वैपरीत्य का भी मन ही कारण है ।
मन जब हो आसक्त काम से लभ्य अनेक सुखों पर,
चिंतन में भी उन्हीं सुखों की स्मृति ढोये फिरता है,
विकल, व्यग्र, फिर-फिर, रस-मधु में अवगाहन करने को
स्नेहाकृष्ट नहीं, तो यत्नों से, छल से, बल से भी,
तभी काम से बलात्कार के पाप जन्म लेते हैं
तभी काम दुर्द्धर्ष, दानवी किल्विष बन जाता है ।
काम-कृत्य वे सभी दुष्ट हैं, जिनके सम्पादन में
मन-आत्माएँ नहीं, मात्र दो वपुस् मिला करते हैं;
या तन जहाँ विरुद्ध प्रकृति के विवश किया जाता है
सुख पाने को, क्षुधा नहीं केवल मन की लिप्सा से;
जहाँ नहीं मिलते नर-नारी उस सहजाकर्षण से
जैसे दो वीचियाँ अनामंत्रित आ मिल जाती हैं,
पर, सुवर्ण की लोलुपता में छिपे-छिपे तस्कर से
एक दूसरे का आकुल सन्धान किया करते हैं
तन का क्या अपराध? यंत्र वह तो सुकुमार प्रकृति का;
सीमित उसकी शक्ति और सीमित आवश्यकता है ।
यह तो मन ही है, निवास जिसमें समस्त विपदा का;
वही व्यग्र, व्याकुल असीम अपनी काल्पनिक क्षुधा से
हाँक-हाँक तन को उस जल को मलिन बना देता है,
बिम्बित होती किरण अगोचर की जिस स्वच्छ सलिल में
जिस पवित्र जल में समाधि के सहस्रार खिलते हैं
तन का काम अमृत, लेकिन, यह मन का काम गरल है ।
फलासक्ति दूषित कर देती ज्यों समस्त कर्मों को,
उसी भाँति, वह काम-कृत्य भी दूषित और मलिन है,
स्वत:स्फूर्त जो नहीं, ध्येय जिसका मानसिक क्षुधा का
स्प्रयास है शमन; जहाँ पर सुख खोजा जाता है
तन की प्रकृति नहीं, मन की माया से प्रेरित होकर
जहाँ जागकर स्वयं नहीं बहती चेतना उरों की,
मन की लिप्सा के अधीन उसको जगना पड़ता है;
या जब रसावेश की स्थिति में, किसी भाँति, जाने को
मन शरीर के यंत्रों को बरबस चालित करता है ।
किंतु, कभी क्या रसावेश में कोई जा सकता है,
बिना सहज एकाग्र वृत्ति के मात्र हाँक कर तन को?
माँस-पेशियाँ नहीं जानती आनन्दॉ के रस को,
उसे जानती स्नायु, भोगता उसे हमारा मन है,
इसीलिए निष्काम काम-सुख वह स्वर्गीय पुलक है,
सपने में भी नहीं स्वल्प जिस पर अधिकार किसी का ।
नहीं साध्य वह तन के आस्फालन या संकोचन से;
वह तो आता अनायास, जैसे बूँदें स्वाती की
आ गिरती हैं, अकस्मात, सीपी के खुले हृदय में ।
लिया-दिया वह नहीं, मात्र वह ग्रहण किया जाता है ।
और पुत्र-कामना कहो तो यद्यपि वह सुखकर है,
पर, निष्काम काम का, सचमुच वह भी ध्येय नहीं है ।
निरुद्देश्य, निष्काम काम-सुख की अचेत धारा में,
संतानें अज्ञात लोक से आकर खिल जाती हैं
वारि-वल्लरी में फूलों-सी, निराकार के गृह से
स्वयं निकल पड़ने वाली जीवन की प्रतिमाओं-सी
प्रकृति नित्य आनन्दमयी है, जब भी भूल स्वयं को
हम निसर्ग के किसी रूप(नारी, नर या फूलों) से
एकतान होकर खो जाते हैं समाधि-निस्तल में
खुल जाता है कमल, धार मधु की बहने लगती है,
दैहिक जग को छोड़ कहीं हम और पहुंच जाते हैं,
मानो मायावरण एक क्षण मन से उतर गया हो ।
क्या प्रतीक यह नहीं, काम-सुख गर्हित, ग्राम्य नहीं है?
वह भी ले जाता मनुष्य को ऊपर मुक्ति-दिशा में
मन के माया-मोह-बन्ध को छुड़ा सहज पद्धति से
पर, खोजें क्यों मुक्ति? प्रकृति के हम प्रसन्न अवयव हैं;
जब तक शेष प्रकृति, तब तक हम भी बहते जाएँगे
लीलामय की सहज, शांत, आनन्दमयी धारा में।
पुरुरवा
कुसुम और कामिनी बहुत सुन्दर दोनों होते हैं
पर, तब भी नारियाँ श्रेष्ठ हैं कहीं कांत कुसुमों से,
क्योंकि पुष्प हैं मूक और रूपसी बोल सकती है ।
सुमन मूक सौन्दर्य और नारियाँ सवाक सुमन हैं ।
किंतु, कहीं यदि शब्द फूटने लगें सुमुख पुष्पों से,
और लगें करने प्रसून ये गहन-गूढ़ चिंतन भी,
सब की वही दशा होगी, जो मेरी अभी हुई है ।
यह प्रपात रसमयी बुद्धि का! यह हिलोर चिन्तन की!
तुम्हें ज्ञात है, मैं बहते-बहते इसकी धारा में
किन लोकों, किन गुह्य नभों में अभी घूम आया हूँ?
आदि-अंत कुछ नहीं सूझता, सचमुच ही, जीवन का;
ग्रंथि-जाल का किसी काल-गह्वर में छोर नहीं है ।
विधि-निषेध, सत्य ही स्यात्, जल पर की रेखाएं हैं
कोई लेख नहीं उगता भीतर के अगम सलिल पर ।
और ज्वार जो भी उठता ऊपर अवचेत-अतल से,
विधि-निषेध का उस पर कोई जोर नहीं चलता है ।
स्यात्, योग सायास उपेक्षा भर है इस स्वीकृति की,
हम निसर्ग के बन्द कपाटॉ को न खोल सकते हैं;
स्यात्, साधनाएं प्रयास हैं थकी हुई प्रज्ञा को
अन्वेषण में, किसी भांति भी, निरत किये रहने का ।
सत्य, स्यात्, केवल आत्मार्पण, केवल शरणागति है
उसके पद पर, जिसे प्रकृति तुम, मैं ईश्वर कहता हूँ ।
एक कर्म, अनुगमन मूक अविगत के संकेतों का,
एक धर्म, अनुभवन निरंतर उस सुषमा, उस छवि का
जो विकीर्ण सर्वत्र, केन्द्र बन तुम में झलक रही है ।
आह, रूप यह! उड़ूँ जहाँ भी, चारों ओर भुवन में
यही रूप हँसता, प्रसन्न इंगित करता मिलता है
सूर्य-चन्द्र में, नक्षत्रों-फूलों में, तृणों-द्रुमों में ।
और यही मुख बार-बार उग पुन: डूब जाता है
मन के अमित अगाध सिन्धु में ज्वालामयी लहर-सा
लगता है, मानो, निकलीं तुम बाहर नहीं जलधि से,
जन्मभूमि की शीतलता में अब भी खेल रही हो ।
देखा तुम्हें बहुत, पर, अब भी तो यह ज्ञात नहीं है,
प्रथम-प्रथम तुम खिलीं चीर टहनी किस कल्पलता की?
लिया कहाँ आकार निकलकर निराकार के गृह से?
उषा-सदृश प्रकटी थीं किन जलदॉ का पटल हटाकर?
कहते हैं, मैं स्वयं विश्व में आया बिना पिता के:
तो क्या तुम भी, उसी भांति, सचमुच उत्पन्न हुई थीं
माता बिना, मात्र नारायण ऋषि की कामेच्छा से,
तप:पूत नर के समस्त संचित तप की आभा-सी?
या समुद्र जब अंतराग़्नि से आकुल, तप्त, विकल था,
तुम प्रसून-सी स्वयं फूट निकलीं उस व्याकुलता से,
ज्यों अम्बुधि की अंतराग्नि से अन्य रत्न बनते है?
और सुरासुर के अभंग, युग-व्यापी आह्वानों से
दयाद्रवित हो, एक प्रात, निकलीं अप्रतिम शिखा-सी
अतल, वितल, पाताल, तलातल से ऊपर भूतल में,
जैसे उषा निकल सागर-तल से ऊपर आती है?
डूब गया होगा सारा आकाश कुतुक-विस्मय में,
चकित खडे होंगे सब जब यह प्रतिमा अरुण प्रभा की
आकर ठहर गई होगी कम्पित, सुनील लहरों पर,
धूम-तरंगों पर चढ़कर नाचती हुई ज्वाला-सी ।
कैसा दीप रहा होगा पावकमय रूप तुम्हारा
नील तरंगो में, झलमल फेनों के शुभ्र वसन में!
और चतुर्दिक तुम्हें घेर उद्ग्रीव भुजंगिनियों-सी
देख रही होंगी काली लहरें किस उत्सुकता से?
रुदन किया होगा कितना अम्बुधि ने तुम्हें गँवाकर!
मणि-मुक्ता-विद्रुम-प्रवाल से विरचे हुए भवन की
आभा उतर गई होगी, तुम से वियुक्त होते ही
शून्य हो गया होगा सारा हृदय महासागर का ।
और प्राप्त कर रक्त-मांस-मय इस अप्रतिम कुसुम को
कितना हर्ष-निनाद हुआ होगा देवों के जग में!
तुम अनंत सौन्दर्य, एक तन में बस जाने पर भी,
निखिल सृष्टि में फैल चतुर्दिक कैसे व्याप रही हो?
तुम अनंत कल्पना, अंक चाहे जिस भांति भरूँ मैं,
एक किरण तब भी बाहों से बाहर रह जाती है ।
ये लोचन, जो किसी अन्य जग के नभ के दर्पण हैं;
ये कपोल, जिसकी द्युति में तैरती किरण ऊषा की;
ये किसलय से अधर , नाचता जिन पर स्वयं मदन है,
रोती है कामना जहाँ पीड़ा पुकार करती है;
ये श्रुतियाँ जिनमें उडुओं के अश्रु-बिन्दु झरते हैं;
ये बाँहें, विधु के प्रकाश की दो नवीन किरणों सी;
और वक्ष के कुसुम-पुंज, सुरभित विश्राम-भवन ये,
जहाँ मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रांति दूर करते हैं ।
यह मुसकान, विभा जैसे दूरागत किसी किरण की;
ध्यान जगा देती मन में यह किसी असीम जगत् का
जिसे चाहता तो हूँ, पर, मैने न कभी देखा है ।
यह रहस्यमय रूप कहीं त्रिभुवन में और नहीं है,
सुर-किन्नर-गन्धर्व-लोक में अथवा मर्त्य-भुवन में ।
तुम कैसे, तब कहो, भला, उस भांति जनम सकती हो
जैसे जग में अन्य, अपर सौन्दर्य जन्म लेते हैं?
कहो, सत्य ही, तुम समुद्र के भीतर से निकली थीं?
या कि शून्य से प्रकट हो गई सहसा चीर गगन को?
अथवा जब अरूप सुषमा को रूपायित करने को
ऋषि सौन्दर्य-समाधि बान्ध, तन्मय छवि के चिंतन में,
बैठे थे निश्चेत, तभी नारी बन निकल पड़ी तुम
नारायण की महाकल्पना से, एकायन मन से?
उर्वशी
मैं मानवी नहीं, देवी हूँ; देवों के आनन पर
सदा एक झिलमिल रहस्य-आवरण पड़ा होता है ।
उसे हटाओ मत, प्रकाश के पूरा खुल जाने से,
जीवन में जो भी कवित्व है, शेष नहीं रहता है ।
स्पष्ट शब्द मत चुनो, चुनो उनको जो धुन्धियाले हैं;
ये धुँधले ही शब्द ऋचाओं में प्रवेश पाने पर
एक साथ जोड़ते अनिश्चित को निश्चित आशय से ।
और जहाँ भी मिलन देखते हो प्रकाश-छाया का,
वही निरापद बिन्दु मनुज-मन का आश्रय शीतल है ।
सघन कुंज, गोधुली, चाँदनी, ये यदि नहीं रहें तो
दिन की खुली धूप में कब तक जीवन चल सकता है?
द्वाभा का वरदान, सभी कुछ अर्धस्फुट, झिलमिल है,
स्वप्न स्वप्न से, हृदय हृदय से मिलकर सुख पाते हैं
यदि प्रकाश हो जाए और जो कुछ भी छिपा जहाँ है,
सब-के-सब हो जाएँ सामने खड़े नग्न रूपों में,
कौन सहेगा यह भीषण आघात भेद विघटन का?
इसीलिए कहती हूँ, अब तक जितना जान सके हो,
उतना ही है अलम; और आगे इससे जाने पर,
स्यात्, कुतुहल-शमन छोड़ कुछ हाथ नहीं आएगा ।
और करूँगी क्या कहकर मैं शमित कुतुहल को भी?
मैं अदेह कल्पना, मुझे तुम देह मान बैठे हो;
मैं अदृश्य, तुम दृश्य देख कर मुझको समझ रहे हो
सागर की आत्मजा, मानसिक तनया नारायण की ।
कब था ऐसा समय कि जब मेरा अस्तित्व नहीं था?
कब आएगा वह भविष्य कि जिस दिन मैं नहीं रहूँगी?
कौन पुरुष जिसकी समाधि में मेरी झलक नहीं है?
कौन त्रिया, मैं नहीं राजती हूँ जिसके यौवन में?
कौन लोक, कौधती नहीं मेरी ह्रादिनी जहाँ पर?
कौन मेघ, जिसको न सेज मैं अपनी बना चुकी हूँ?
कहूँ कौन सी बात और रहने दूँ कथा कहाँ की?
मेरा तो इतिहास प्रकृति की पूरी प्राण-कथा है,
उसी भांति निस्सीम, असीमित जैसे स्वयं प्रकृति है ।
पुरुरवा
सत्य मानकर कब समझा भिन्न तुम्हें सपने से?
नारी कहकर भी कब मैने कहा, मानुषी हो तुम?
अशरीरी कल्पना, देह धरने पर भी, आंखों से
रही झांकती सदा, सदा मुझको यह भान हुआ है,
बांहों में जिसको समेटकर उर से लगा रहा हूँ,
रक्त-मांस की मूर्त्ति नहीं,वह सपना है, छाया है ।
छिपा नहीं देवत्व, रंच भर भी, इस मर्त्य-वसन में
देह ग्रहण करने पर भी तुम रही अदेह विभा-सी ।
द्वाभा कहाँ? जहाँ भी ये युग चरण मंजु पड़ते हैं,
तुम्हे घेरकर खुली मुक्त आभा-सी छा जाती है;
और देखता हूँ मैं, जो अन्यत्र नहीं दिखता है ।
तब भी हो गो धूलि कहीं तो उसका पटल हटाकर
आज चाहता हूँ समग्र दर्शन मैं उस सपने का,
शेष आयु के लिए जिसे निज दीपक बना चुका हूँ
कौन सत्य ऐसा कराल है, जिसके अनावरण से
अग्नि प्रकट होगी, मेरे ये लोचन जल जाएंगे,
याकि अशनि-आघात घोर, मैं जिसको सह न सकूँगा?
कहो मुक्त सब कुछ, समक्ष यह प्रतिमा अगर खड़ी है,
मुझे भीति कुछ नहीं, प्रलय के भी वज्राघातों से
सह लूँगा अनिमेष देख्ते हुए तुम्हारे मुख को।
उर्वशी
पर, क्या बोलूँ? क्या कहूँ?
भ्रांति, यह देह-भाव ।
मैं मनोदेश की वायु व्यग्र, व्याकुल, चंचल;
अवचेत प्राण की प्रभा, चेतना के जल में
मैं रूप-रंग-रस-गन्ध-पूर्ण साकार कमल ।
मैं नहीं सिन्धु की सुता;
तलातल-अतल-वितल-पाताल छोड़,
नीले समुद्र को फोड़ शुभ्र, झलमल फेनांकुश में प्रदीप्त
नाचती उर्मियों के सिर पर
मैं नहीं महातल से निकली ।
मैं नहीं गगन की लता
तारकॉ में पुलकित फूलती हुई,
मैं नहीं व्योमपुर की बाला,
विधु की तनया, चन्द्रिका-संग,
पूर्णिमा-सिन्धु की परमोज्ज्वल आभा-तरंग,
मैं नहीं किरण के तारों पर झूलती हुई भू पर उतरी ।
मैं नाम-गोत्र से रहित पुष्प,
अम्बर में उड़ती हुई मुक्त आनन्द-शिखा
इतिवृत्तहीन,
सौन्दर्य चेतना की तरंग;
सुर-नर-किन्नर-गन्धर्व नहीं,
प्रिय मैं केवल अप्सरा
विश्वनर के अतृप्त इच्छा-सागर से समुद्भूत ।
कामना-तरंगों से अधीर
जब विश्वपुरुष का हृदय-सिन्धु
आलोड़ित, क्षुभित, मथित होकर,
अपनी समस्त बड़वाग्नि
कण्ठ में भरकर मुझे बुलाता है,
तब मैं अपूर्वयौवना
पुरुष के निभृत प्राणतल से उठकर
प्रसरित करती निर्वसन, शुभ्र, हेमाभ कांति
कल्पना लोक से उतर भूमि पर आती हूँ,
विजयिनी विश्वनर को अपने उत्तुंग वक्ष
पर सुला अमित कल्पों के अश्रु सुखाती हूँ ।
जन-जन के मन की मधुर वह्नि, प्रत्येक हृदय की उजियाली,
नारी की मैं कल्पना चरम, नर के मन में बसने वाली ।
विषधर के फण पर अमृतवर्त्ति ;
उद्धत, अदम्य, बर्बर बल पर
रूपांकुश, क्षीण मृणाल-तार ।
मेरे सम्मुख नत हो रहते गजराज मत्त;
केसरी, शरभ, शार्दूल भूल निज हिंस्र भाव
गृह-मृग-समान निर्विष, अहिंस्र बनकर जीते ।
मेरी भू-स्मिति को देख चकित, विस्मित, विभोर
शूरमा निमिष खोले अवाक रह जाते हैं;
श्लथ हो जाता स्वयमेव शिंजिनी का कसाव,
संस्रस्त करों से धनुष-बाण गिर जाते हैं ।
कामना-वह्नि की शिखा मुक्त मैं अनवरुद्ध,
मैं अप्रतिहत, मैं दुर्निवार;
मैं सदा घूमती फिरती हूँ
पवनान्दोलित वारिद-तरंग पर समासीन
नीहार-आवरण में अम्बर के आर-पार;
उड़ते मेघों को दौड़ बाहुओं में भरती,
स्वप्नों की प्रतिमाओं का आलिंगन करती ।
विस्तीर्ण सिन्धु के बीच शून्य, एकांत द्वीप,
यह मेरा उर ।
देवालय में देवता नहीं, केवल मैं हूँ ।
मेरी प्रतिमा को घेर उठ रही अगुरु-गन्ध,
बज रहा अर्चना में मेरी, मेरा नुपूर ।
मैं कला-चेतना का मधुमय, प्रच्छन्न स्त्रोत,
रेखाओं में अंकित कर अंगों के उभार
भंगिमा, तरंगित वर्तुलता, वीचियाँ, लहर,
तन की प्रकांति अंगों में लिये उतरती हूँ ।
पाषाणों के अनगढ़ अंगों को काट-छाँट
मैं ही निविडस्तननता, मुष्टिमध्यमा,
मदिरलोचना, कामलुलिता नारी
प्रस्तावरण कर भंग,
तोड़ तम को उन्मत्त उभरती हूँ ।
भू-नभ का सब संगीत नाद मेरे निस्सीम प्रणय का है,
सारी कविता जयगान एक मेरी त्रयलोक-विजय का है ।
प्रिय मुझे प्रखर कामना-कलित, संतप्त, व्यग्र, चंचल चुम्बन,
प्रिय मुझे रसोदधि में निमग्न उच्छल, हिल्लोल-निरत जीवन ।
तारों की झिलमिल छाया में फूलों की नाव बहाती हूँ,
मैं नैश प्रभा, सब के भीतर निश की कल्पना जगाती हूँ ।
मादन सुगन्ध पवमान-दलित सन्ध्या-तन से उठनेवाली,
नभ से अलिंगित कुमुद्वती चन्द्रिका-यामिनी मतवाली,
कबरी के फूलों का सुवास, आकुंचित अधरों का कम्पन,
परिरम्भ-वेदना से विभोर, कंटकित अंग, मधुमत्त नयन;
दो प्राणों से उठने वाली वे झंकृतियाँ गोपन, मधुमय,
जो अगुरु-धूम-सी हो जाती ऊपर उठ एक अपर में लय ।
दो दीपों की सम्मिलित ज्योति, वह एक शिखा जब जगती है,
मन के अगाध रत्नाकर में यह देह डूबने लगती है ।
दो हृदयों का वह मूक मिलन, तन शिथिल, स्रस्त अतिशय सुख से,
अलसित आंखें देखतीं न कोई शब्द निकलता है मुख से ।
कितनी पावन वह रस-समाधि! जब सेज स्वर्ग बन जाती है,
गोचर शरीर में विभा अगोचर सुख की झलक दिखाती है ।
देवता एक है शयित कहीं इस मदिर शांति की छाया में,
आरोहण के सोपान लगे हैं त्वचा, रुधिर में, काया में ।
परिरम्भ पाश में बँधे हुए उस अम्बर तक उठ जाओ रे!
देवता प्रेम का सोया है, चुम्बन से उसे जगाओ रे!
चिंतन की लहरों के समान सौन्दर्य-लहर में भी है बल,
सातों अम्बर तक उड़ता है रूपसी नारी का स्वर्णांचल ।
जिस मधुर भूमिका में जन को दर्शन-तरंग पहुंचाती है,
उस दिव्य लोक तक हमें प्रेम की नाव सहज ले जाती है ।
ओ शून्य पवन में मुझे देख चुम्बन अर्पित करने वालो !
सम्पूर्ण निशा मेरी छवि का उन्निद्र ध्यान धरने वालो!
मैं देश-काल से परे चिरंतन नारी हूँ ।
मै आत्मतंत्र यौवन की नित्य नवीन प्रभा,
रूपसी अमर मैं चिर-युवती सुकुमारी हूँ ।
तुम त्रिभुवन में अथवा त्रिकाल में जहाँ कहीं भी हो,
अंतर में धैर्य धरो ।
सरिता, समुद्र, गिरि, वन मेरे व्यवधान नहीं ।
मैं भूत, भविष्यत, वर्तमान की कृत्रिम बाधा से विमुक्त;
मैं विश्वप्रिया ।
तुम पंथ जोहते रहो,
अचानक किसी रात मैं आऊँगी ।
अधरों में अपने अधरों की मदिरा उड़ेल,
मैं तुम्हें वक्ष से लगा
युगों की संचित तपन मिटाऊँगी ।
पुरुरवा
आवेशित उद्गार यही मर्मों का उद्घाटन है?
हुआ स्रस्त कितना रहस्यमय अवगुंठन माया का?
पर, रहस्य हट जाने पर भी रहीं रहस्यमयी तुम;
मायावरण दूर कर देने पर भी तुम माया हो ।
अब भी तो तुम दीप रहीं निष्कलुष आदि ऊषा-सी,
शुभ्र वह्नि-सी जो अरणी से अभी-अभी फूटी हो;
युग-युग की प्रेयसी हेम-सी जिसकी शुभ्र त्वचा पर
कहीं काल के स्पर्श याकि ऊँगली का दाग नहीं है ।
एक कोमल स्पर्श कोमल गीतों से भरी हुई ऊँगली का,
तंत्री से नव निनद, नई झंकार उमड़ पड़ती है;
धरती हो ये अरुण पुष्प-से पद जिस किसी दिशा में,
जग उठते हैं नये पुंस कम्पित नव ईहाओं से ।
तुम त्रिकाल-सुन्दरी, अमर आभा अखंड त्रिभुवन की,
सभी युगों से, सभी दिशाओं से चल कर आई हो;
इसीलिए, तुम विविध जन्म-कुंजों में पुलक जगाकर
सभी दिशाओं, सभी युगों को पुन: लौट जाओगी ।
एक पुष्प में सभी पुष्प, सब किरणें एक किरण में
तुम सन्हित, एकत्र एक नारी में सब नारी हो ।
प्रति युग की परिचिता, रसाकर्षण प्रति मंवंतर का,
विश्व-प्रिया, सत्य ही, महारानी सब के सपनों की ।
पर, दिगंत-व्यापिनी चन्द्रिका मुक्त विहरनेवाली
व्योम छोड़कर सिमट गई जो मेरे भुज पाशों में;
रस की कादम्बिनी, विचरती हुई अनंत गगन में,
अकस्मात् आकर प्रसन्न जो मुझ पर बरस गई है,
सो केवल सन्योग मात्र है? या इस गूढ़ मिलन के
पीछे जन्म-जन्म की कोई लीला छिपी हुई है?
जहाँ-जहाँ तुम खिलीं स्यात् मैं ही मलयानिल बनकर
तुम्हें घेरता आया हूँ अपनी आकुल बाँहों में
जिसके भी सामने किया तुम ने कुंचित अधरों को,
लगता है, मैं ही सदैव वह चुम्बन-रसिक पुरुष था ।
मेरी ही थी तपन जिसे फूलों के कुंज-भवन में
जन्म-जन्म में तुम आलिंगन से हरती आई हो ।
कल-कल्प में सुला प्रणय-उद्वेलित वक्षोजों पर
अश्रु पोंछती आई हो मेरे ही आर्त्त दृगों का ।
जहाँ-जहाँ तुम रही, निष्पलक नयनों की आभा से
रहा सींचता मैं, आगे तुम जहाँ-जहाँ जाओगी,
साथ चलूँगा मैं सुगन्ध से खिंचे हुए मधुकर-सा
या कि राहु जैसे विधु के पीछे-पीछे चलता है ।
उर्वशी
चन्द्रमा चला, रजनी बीती हो गया प्रात;
पर्वत के नीचे से प्रकाश के आसन पर
आ रहा सूर्य फेंकते बाण अपने लोहित,
बिंध गया ज्योति से, वह देखो, अरुणाभ शिखर ।
हिम-स्नात, सिक्त वल्लरी-पुजारिन को देखो,
पति को फूलों का नया हार पहनाती है,
कुंजों में जनमा है कल कोई वृक्ष कहीं,
वन की प्रसन्न विहगावलि सोहर गाती है ।
कट गया वर्ष ऐसे जैसे दो निमिष गए
प्रिय! छोड़ गन्धमादन को अब जाना होगा,
इस भूमि-स्वर्ग के हरे-भरे, शीतल वन में
जानें, कब राजपुरी से फिर आना होगा!
कितना अपार सुख था, बैठे चट्टानों पर
हम साथ-साथ झरनों में पाँव भिगोते थे,
तरु-तले परस्पर बाँहों को उपधान बना
हम किस प्रकार निश्चिंत छाँह में सोते थे!
जाने से पहले चलो, आज जी खोल मिलें
निर्झरी, लता, फूलों की डाली-डाली से,
पी लें जी भर पर्वत पर का नीरव प्रकाश,
लें सींच हृदय झूमती हुई हरियाली से ।
तृतीय अंक समाप्त
चतुर्थ अंक आरम्भ
विस्मृताअभिनयं सर्वं यत्पुरातन-वेदितम्,
शशाप भरत: कोपात् वियोगात्तस्य भूतले
-पद्म्पुराण्
एष दीघायुरायुर्जात्मात्र एव
उर्वश्या किमपि निमित्तमवेक्ष्य
मम् हस्ते न्यासीकृत:
-विक्रमोर्वशीयम्
स्थान- महर्षि च्यवन का आश्रम्
[महर्षि की पत्नी सुकन्या उर्वशी के नवजात को
गोद में लिए खड़ी है. चित्रलेखा का प्रवेश]
सुकन्या
अच्छा, तू आ गई चित्रलेखे? निंदिया मुन्ने की,
अकस्मात्, तेरी आहट पाकर यों उचट गई है,
मानो, इसके मन में जो अम्बर का अंश छिपा है
जाग पड़ा हो सुनते ही पद-चाप स्वर्ग की भू पर ।
यह प्रसून छविमान मही-नभ के अद्भुत परिणय का,
जानें, पिता-सदृश रस लोभी होगा क्षार मही का
या देवता-समान मात्र गन्धों का प्रेमी होगा?
चित्रलेखा
मही और नभ दो हैं, ये सब कहने की बातें हैं
खोदो जितनी भूमि शून्यता मिलती ही जायेगी ।
और व्योम जो शून्य दीखता, उसके भी अंतर में
भाँति-भाँति के जलद-खंड घूमते; और पावस में
कभी-कभी रंगीन इन्द्रध्नुषी भी उग आती है ।
सुकन्या
और इन्द्रधनुषी के उगने पर विरक्त अम्बर की क्या होती
है दशा?
चित्रलेखा
तुम्हें ही इसका ज्ञान नहीं है?
योगीश्वर तज योग, तपस्वी तज निदाधमय तप को
रूपवती को देख मुग्ध इस भाँति दौड़ पड़ते हैं,
मानो, जो मधु-शिखा ध्यान में अचल नहीं होती थी,
ठहर गई हो वही सामने युवा कामिनी बनकर
भूल गई, जब किया स्पर्श तुमने ध्यानस्थ च्यवन का,
ऋषि समाधि से किस प्रकार व्याकुल-विलोल जागे थे?
सुकन्या
किंतु, चित्रलेखे! मुझको अपने महर्षि भर्त्ता पर
ग्लानि नहीं, निस्सीम गर्व है!
चित्रलेखा
यही गर्व मुझको भी
हो आता है अनायास उन तेजवंत पुरुषों पर,
बाधक नहीं तपोव्रत जिनके व्यग्र-उदग्र प्रणय का,
न तो प्रेम ही विघ्न डालता जिनके तपश्चरण में;
प्रणय-पाश में बँधे हुए भी जो निमग्न मानस से
उसी महासुख की चोटी पर चढ़े हुए रहते हैं,
जहाँ योग योगी को, कवि को कविता ले जाती है
और निरंजन की समाधि से उन्मीलित होने पर
जिनके दृग दूषते नहीं अंजनवाली आंखों को ।
तप का कर उत्सर्ग प्रेम पर तपोनिधान च्यवन ने
मात्र तुम्हे ही नहीं, जगत् भर की सीमंतिनियों को
अमिट, अपार, त्रिलोकजयी गौरव का दान दिया है ।
और पुन: यौवन धारण कर उन अमोघ द्रष्टा ने
दिखा दिया, इन्द्रिय-तर्पण में कोई दोष नहीं है ।
एक प्रेम वह, जो विधुसा ऊपर उठता जाता है
होकर बीचोंबीच किन्हीं दो ऐसे ताल-द्रुमों के
जिन वृक्षों ने कभी प्रणय-आलिंगन नहीं किया है ।
और दूसरा वह, पड़कर जिसके रस-आलोड़न में
दो मानस ही नहीं एक, दो तन भी हो जाते हैं
प्रथम प्रेम जितना पवित्र हो, पर, केवल आधा है;
मन हो एक, किंतु, इस लय से तन को क्या मिलता है?
केवल अंतर्दाह, मात्र वेदना, अतृप्ति ललक की;
दो निधि अंत:क्षुब्ध, किंतु संत्रस्त सदा इस भय से,
बाँध तोड़ते ही व्रत की विभा चली जाएगी;
अच्छा है, मन जले, किंतु तन पर तो दाग नहीं है ।
मृषा तर्क, मन मलिन हुआ तो तन में प्रभा कहाँ है?
तन-मन का यह भेद सुकन्ये! मुझे नहीं रुचता है ।
बलिहारी उस पूर्ण प्रेम की जिसकी क्षिप्र लहर में
केवल मन ही नहीं अंग संज्ञा भी खो जाती है ।
धन्य त्रिया वह जो बलिष्ठ नर की पिपासु बाँहों में
आंख मून्द रस-मग्न प्रणय-पीड़न असह्य सहती है,
जैसे बहता कुसुम तरंगित सागर की लहरों पर ।
धन्य पुरुष जो वर्ष-वर्ष निष्काम, उपोंषित रहकर
जथरानल को तीव्र, क्षुधा को दीपित कर लेते हैं ।
सतत भोगरत नर क्या जाने तीक्ष्ण स्वाद जीवन का?
उसे जानता वह, जिसने कुछ दिन उपवास किया हो!
सदा छाँह में पले, प्रेम यह भोग-निरत प्रेमी का;
पर, योगी का प्रेम धूप से छाया में आना है
सुकन्या
एकचारिणी मैं क्या जानूँ स्वाद विविध भोगों का?
मेरे तो आनन्द-धाम केवल महर्षि भर्त्ता हैं ।
योग-भोग का भेद अप्सरा की अबन्ध क्रीड़ा है;
गृहिणी के तो परमदेव आराध्य एक होते हैं,
जिससे मिलता भोग, योग भी वही हमें देता है ।
क्या कुछ मिला नहीं मुझको दयिता महर्षि की होकर?
शिखर-शिखर उड़ने में, जानें, कौन प्रमोद-लहर है!
किंतु, एक तरु से लग सारी आयु बिता देने में
जो प्रफुल्ल, धन, गहन शांति है, वह क्या कभी मिलेगी
नए-नए फूलों पर नित उड़ती फिरनेवाली को?
नहीं एक से अधिक प्राण नारी के भी होते हैं,
तो फिर वह पालती खिलाकर क्या विभिन्न पुरुषों को?
और पुरुष कैसे जी लेता पाए बिना हृदय को?
स्यात् मात्र छू भित्ति योषिता के शरीरमन्दिर की,
धनु, प्रसून, उन्नत तरंग की जहाँ चित्रकारी है ।
पर, ये चित्र अचिर; भौहों के धनुष सिकुड़ जाएँगे,
छूटेगी अरुणिमा कपोलों के प्रफुल्ल फूलों की ।
और वक्ष पर जो तरंग यौवन की लहराती है ।
पीछे समतल छोड़ जरा में जाकर खो जाएगी ।
तब फिर अंतिम शरण कहाँ उस हतभागी नारी को?
यौवन का भग्नावशेष वह तब फिर किसे रुचेगा?
यहाँ देव-मन्दिर में तब तक ही जन जाते हैं,
जब तक हरे-भरे, मृदु हैं पल्लव-प्रसून तोरण के
और भित्तियों के ऊपर सुन्दर, सुकुमार त्वचा है ।
टूट गया यदि हर्म्य, देवता का भी आशु मरण है ।
इसीलिए कहती हूँ, जब तक हरा-भरा उपवन है,
किसी एक के संग बाँध लो तार निखिल जीवन का;
न तो एक दिन वह होगा जब गलित, म्लान अंगों पर
क्षण भर को भी किसी पुरुष की दृष्टि नहीं विरमेगी;
बाहर होगा विजन निकेतन, भीतर प्राण तजेंगे
अंतर के देवता तृषित भीषण हाहाकारों में ।
चित्रलेखा
कौन लक्ष्य?
सुकन्या
जिसको भी समझो ।
चित्रलेखा
मैं तो तृषित नहीं हूँ,
न तो देवता ही व्याकुल मेरे प्रसन्न प्राणों के ।
दृष्टि जहाँ तक भी जाती है, मुझे यही दिखता है,
जब तक खिलते फूल, वायु लेकर सुगन्ध चलती है,
खिली रहूँगी मैं, शरीर में सौरभ यही रहेगा।
सुकन्या
सो, केवल इसलिए कि तुम अप्सरा, सिद्ध नारी हो ।
विगलित कभी कहाँ होता यौवन तुम अप्सरियों का?
पर, यौवन है मात्र क्षणिक छलना इस मर्त्य भुवन में,
ले उसका अवलम्ब मानवी कब तक जी सकती है?
अप्सरियाँ जो करें, किंतु, हम मर्त्य योषिताओं के
जीवन का आनन्द-कोष केवल मधु-पूर्ण हृदय है
हृदय नहीं त्यागता हमें यौवन के तज देने पर,
न तो जीर्णता के आने पर हृदय जीर्ण होता है
एक-दूसरे के उर में हम ऐसे बस जाते हैं,
दो प्रसून एक ही वृंत पर जैसे खिले हुए हों ।
फिर रह जाता भेद कहाँ पर शिशिर, घाम, पावस का?
एक संग हम युवा, संग ही संग वृद्ध होते हैं ।
मिलकर देते खेप अनुद्धतमन विभिन्न ऋतुओं को;
एक नाव पर चढ़े हुए हम उदधि पार करते हैं ।
अप्सरियाँ उद्विग्न भोगतीं रस जिस चिर यौवन का,
उससे कहीं महत् सुख है जो हमें प्राप्त होता है
निश्छल, शांत, विनम्र, प्रेमभरे उर के उत्सर्जन से ।
चित्रलेखा
सचमुच, यह सुख अप्रमेय है, मन ही नन्दि-निलय है
क्षन भर पाकर हृदय-दान जब उतना सुख मिलता है,
तब कितना मिलता होगा यह सुख उन दम्पतियों को
जो सदैव के लिए हृदय उत्सर्जित कर देते हैं ।
किंतु, सुकन्ये! डरी नहीं तू, जब तेरे स्पर्शन से
मुनिसत्तम खण्डित समाधि से कोपाकुल जागे थे?
क्रुद्ध तापसों से तो अप्सरियाँ भी डर जाती हैं ।
सुकन्या
डरी नहीं मैं? हाय चित्रलेखे! कौतुहल से ही
मैने तनिक पलक खींची थी ध्यानमग्न मुनिवर की ।
पर, नयनों के खुलते ही उद्भासित रन्ध्र-युगल से,
लगा, अग्नि ही स्वयं फूट कर कढ़े चले आते हों,
और नहीं कुछ एक ग्रास में मुझे लील जाने को ।
रंच-मात्र भी हिली नहीं, निष्कम्प, चेतनाहीना
खड़ी रही उस भयस्तंभ-पीड़िता, असंज्ञ मृगी-सी
जिसकी मृत्यु समक्ष खड़ी हो मृग-रिपु की आंखों में ।
पर, मैं जली नहीं तत्क्षण पावक ऋषि के नयनों का
परिणत होने लगा स्वयं शीतल मधु की ज्वाला में
मानो, प्रमुदित अनल-ज्वाल जावक में बदल रहा हो
नयन रक्त, पर, नहीं कोप से, आसव की लाली से ।
सहसा फूट पड़ी स्मिति की आभा ऋषि के आनन पर;
लौट गया मेरी ग्रीवा पर आकर हाथ प्रलय का
ज्यों ही हुई सचेत की लज्जा से सुगबुगा उठी मैं
पट सँभाल कर ख्गड़ी देखने लगी बंक लोचन से,
अब, जाने क्या भाव सुलगते हैं महर्षि के मुख पर ।
अनुद्विग्न हो उठे मुनीश्वर, बोले अमृत गिरा से
सौम्ये! हो कल्याण, कहाँ से इस वन में आई हो?
सुर-कुल की शुचि-प्रभा या कि मानव कुल की तनया हो?
कहाँ मिला यह रूप, देखते ही जिसको पावक की
दाहकता मिट गई, स्थाणु में पत्ते निकल रहे हैं?
“वरण करोगी मुझे? तुम्हारे लिए जरा को तज कर
शुभे! तपस्या के बल से यौवन मैं ग्रहण करूँगा
प्रौढ़ मेघ, पादप नवीन,मदकल, किशोर-कुंजर सा ।
डरो नहीं, यह तपोभंग च्युति नहीं,सिद्धि मेरी है ।
पहले भी जब हुआ पूर्ण कटु तप महर्षि कर्दम का,
स्वर्ग नहीं, ऋषि ने वर में नारी मनोज्ञ मांगी थी ।
सो तुम सम्मुख खड़ी तपस्या के फल की आभा-सी,
अब होगा क्या अपर स्वर्ग जिसका सन्धान करूँ मैं?
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?
”मणि-माणिक्य नहीं, तप केवल एक रत्न तापस का;
शुचिस्मिते! मैं वही रत्न तुमको अर्पित करता हूँ ।
हम-तुम मिलकर साथ रहेंगे जहाँ पर्णशाला में,
शुभे! स्वर्ग वरदान मांगने वहाँ स्वयं आएगा.”
चित्रलेखा
कीर्त्तिमान की कीर्त्ति, साधना भावुक तपोव्रती की
जो रसमय उद्वेग त्रिया के उर में भर सकती है,
वह उद्वेग भला जागेगा मणि, माणिक्य, मुकुट से?
धन्य वही जो विभव नहीं, यश को अर्पित होती है ।
सुकन्या
चित्रे! मैं भर गई, न जानें, किस अपार महिमा से?
प्रथम-प्रथम ही जाग उठा नारीत्व विभासित होकर ।
लगा, सूर्य में चमक रहा जो, वह प्रकाश मेरा है,
महाव्योम में भरे रत्न् मुझसे ही छिटक पड़े हैं,
नाच रहीं उर्मियाँ भंगिमा ले मेरे चरणों की,
दौड़ रही वन में, जो, वह मेरी ही हरियाली है ।
लौट गए थे हो निराश शत-शत युवराज जहाँ से,
वही द्वार खुल गया श्रवण कर यह प्रशस्ति तापस की,
“हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?’
हाय चित्रलेखे! प्रशस्तियाँ क्या-क्या नहीं सुनी थीं?
किसे नहीं मुख में दिखा था पूर्ण चन्द्र अम्बर का,
नयनों में वारुणी और सीपी की चमक त्वचा में?
पर, अदृश्य जो देव पड़े थे गहन, गूढ़ मन्दिर में,
उनका वन्दन-गान किसी ने कहाँ कभी गाया था?
लौट गए सब देख चमत्कृत शोणित, मांस, त्वचा को,
रंगों के प्राचीर, गन्ध के घेरों से टकराकर;
कोई भी तो नहीं त्वचा के परे पहुंच पाया था ।
सब को लगा मोहिनी-सी मुझमें कुछ भरी हुई है,
पर, यह सम्मोहन-तरंग आती है उमड़ जहाँ से,
भीतर के उस महासिन्धु तक किसकी दृष्टि गई थी?
देखा उसे महर्षि च्यवन ने और सुप्त महिमा को
जगा दिया आयास मुक्त, निश्छल प्रशस्ति यह गाकर,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?
लगा मुझे, सर्वत्र देह की पपरी टूट रही है,
निकल रहीं हैं त्वचा तोड़ कर दीपित नई त्वचाएं;
चला आ रहा फूट अतल से कुछ मधु की धारा-सा,
हरियाली से मैं प्रसन्न आकंठ भरी जाती हूँ ।
रही मूक की मूक, किंतु, अम्बर पर चढ़े हृदय ने
कहा, ‘गूढ़ द्रष्टा महर्षि ,तुम मृषा नहीं कहते हो;
परम सत्य की स्मिति उदार, मैं देवी, मैं नारी हूँ ।
रूप दीर्घ तप का प्रसाद है, विविध साधनाओं से
तातस, प्रग्यावान पुरुष जो सिद्धि लाभ करते हैं,
अनायास ही सुलभ शक्ति वह रूपमती नारी को
नारी का सौन्दर्य विश्व-विजयिनी, अमोघ प्रभा है
“सचमुच ही फूटते स्पर्श से पत्र अपत्र द्रुमों में,
धरती जहाँ चरण उसर में फूल निकल आते हैं ।
मैं अनंत की प्रभा, नहीं अनुचरी किरीत मुकुट की,
प्रणय-पुण्यशीला स्वतंत्र मैं केवल उसे वरुंगी,
जिसमें होगी ज्योति किसी दारुणतम तपश्चरण की ।
किंतु, हाय, तुम एक बार क्यों नहीं पुन: कहते हो,
हरि प्रसन्न यदि नहीं, सिद्धि बनकर तुम क्यों आई हो?
चित्रलेखा
उफ री! मादक घड़ी प्रेम के प्रथम-प्रथम परिचय की!
मर कर भी सखि! मधु-मुहुर्त यह कभी नहीं मरता है ।
जब चाहो, साकार देख लो उसे बन्द आंखों में ।
पर मैं क्यों, इस भांति, स्वयं कंटकित हुई जाती हूँ?
प्रथम प्रेम की स्मृति भी कितनी पुलकपूर्ण होती है!
च्यवन पूज्य सारी वसुधा के, पर, असंख्य ललनाएँ
उन्हें देख्ती हैं अपार श्रद्धा, असीम गौरव से ।
नारी को पर्याय बताकर तप:सिद्धि भूमा का,
सचमुच त्रिया जाति को ऋषि ने अद्भुत मान दिया है ।
सुकन्या
पूछो मत, वैसे तो, ऋषि की प्रकृति तनिक कोपन है;
मन की रचना में निविष्ट कुछ अधिक अंश पावक का ।
किंतु, नारियों पर, सचमुच, उनकी अपार श्रद्धा है,
और सहज उतनी ही वत्सलता निरीह शिशुओं पर ।
कहते हैं, शिशु को मत देखो अगम्भीर भावों से;
अभी नहीं ये दूर केन्द्र से परम गूढ़ सत्ता के;
जानें, क्या कुछ देख स्वप्न में भी हंसते रहते हैं!
स्यात्, भेद जो खुला नहीं अब तक रहस्य-ज्ञानी पर,
अनायास ही उसे देखते हैं ये सहज नयन से,
क्योंकि दृष्टि पर अभी ज्ञान का केंचुल नहीं चढ़ा है ।
“जिसके भी भीतर पवित्रता जीवित है शिशुता की,
उस अदोष नर के हाथों में कोई मैल नहीं है.”
जब उर्वशी यहाँ आई थी पुत्र प्रसव करने को
ऋषि ने देखा था उसको, क्या कहूँ कि किस ममता से?
और रात के समय कहा चिंतन-गम्भीर गिरा में
शुभे! त्रिया का जन्म ग्रहण करने में बड़ा सुयश है
चन्द्राहत कर विजय प्राप्त कर लेना वीर नरों पर
बड़ी शक्ति है; शुचिस्मिते! शूरता इसे कहता हूँ ।
”और नारियों में भी श्लथ, गर्भिणी, सत्वशीला को
देख मुझे सम्मानपूर्ण करुणा सी हो आती है ।
कितनी विवश, किंतु कितनी लोकोत्तर वह लगती है!
“देह-कांति पीतिमा-युक्त; गति नहीं पदों के वश में;
चल लेती है किसी भांति पीवर उस मेघाली-सी
जो समुद्र का जल पीकर मंथर डगमगा रही हो ।
आकृति ओंप-विहीन, किंतु, वह रहित नहीं भावों से;
फिर भी कोई रंग देर तक ठहर नहीं पाता है,
विवशा के वश में, मानो, अब ये उर्मियाँ नहीं हों ।
दृग हो जाते वक्र या कि बाहर मन के बन्धन से;
देख नहीं पाती, जैसे देखना चाहती है वह;
यही बेबसी मुख पर आकुलता बन छा जाती है.”
निस्सहाय, उदरस्थ भविष्यत के अधीन वह दीना
किस प्रकार रख सके भला अपने वश में अपने को?
जो चाहता भविष्य, वक्त्र पर वही भाव आते हैं ।
मानो, जो ले जन्म कभी तुतली वाणी बोलेगा,
लगा भेजने वह अजात तुतले संकेत अभी से ।
सत्त्ववती नारी अंकन-पट है भविष्य के कर का ।
कितनी सह यातना पालती त्रिया भविष्य जगत का?
कह सकता है कौन पूर्ण महिमा इस तपश्चरण की?”
और प्रसूता के समीप से जब महर्षि आए थे,
बोले थे, “उर्वशी अभी, देखा कैसी लगती थी,
पड़ी हुई निस्तब्ध शमित पीड़ा की शांत कुहू में?
तट पर लगी अचल नौका-सी जो अदृश्य में जाकर
दृश्य जगत के लिए सार्थ जीवन का ले आई हो,
और रिक्त होकर प्रभार से अब अशेष तन्द्रा में
याद कर रही हो धुन्धली बातें अदृश्य के तट की ।
बाँध रहा जो तंतु लोक को लोकोत्तर जगती से,
उसका अंतिम छोर, न जाने, कहाँ अदृश्य छिपा है ।
दृश्य छोर है, किंतु, यहाँ प्रत्यक्ष त्रिया के उर में!
नारी ही वह महासेतु, जिस पर अदृश्य से चलकर
नए मनुज, नव प्राण दृश्य जग में आते रहते हैं ।
नारी ही वह कोष्ठ, देव, दानव, मनुज से छिपकर
महाशून्य, चुपचाप जहाँ आकार ग्रहण करता है ।
सच पूछो तो, प्रजा-सृष्टि में क्या है भाग पुरुष का?
यह तो नारी ही है, जो सब यज्ञ पूर्ण करती है ।
सत्त्व-भार सहती असंग, संतति असंग जनती है;
और वही शिशु को ले जाती मन के उच्च निलय में,
जहाँ निरापद, सुखद कक्ष है शैशव के झूले का ।
शुभे! सदा शिशु के स्वरूप में ईश्वर ही आते हैं ।
महापुरुश की ही जननी प्रत्येक जननि होती है;
किंतु, भविष्यत को समेट अनुकूल बना लेने का
मिलता कहाँ सुयोग विश्व की सारी माताओं को?
तब भी, उनका श्रेय सुचरिते! अल्प नहीं, अद्भुत है.”
(उर्वशी का प्रवेश)
उर्वशी चित्रलेखा से:
अच्छा तो यह आप सखी के संग विराज रही हैं!
अब तो यहीं भेंट हो जाती है सब अप्सरियों से
च्यवन-कुटी है अथवा यह मघवा का मोद-भवन है?
चित्रलेखा
मोद-भवन हो भले सुकन्या का यह; पर अपना तो
राज-भवन है, जहाँ कल्पना और सत्य-संगम से
मनुजों का अगला शशांक-वंशी नरेश जनमा है ।
हम अप्सरा, किंतु, आर्या किस मानव की बेटी हैं?
उर्वशी
बेटी नहीं हुई तो क्या? अब माँ तो हूँ मानव की?
नहीं देखती, रत्नमयी को कैसा लाल दिया है?
चित्रलेखा
कौन कहे, जो तेज दमकता है इसके आनन पर,
प्राप्त हुआ हो इसे अंश वह जननी नहीं, जनक से?
उर्वशी
अरी देखती नहीं, लाल की नन्हीं-सी आंखों में
अब भी तो सुस्पष्ट स्वर्ग के सपने झलक रहे हैं?
टुकुर-टुकुर संतुष्ट भाव से कैसे ताक रहा है?
मानो, हो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी समर्थ देवों-सा!
सुकन्या
सखी! तुम्हारा लाल अभी से बहुत-बहुत नटखट है,
देख रही हूँ बड़े ध्यान से, जब से तुम आई हो,
तुम पर से इस महाधूर्त की दृष्टि नहीं हटती है ।
लो, छाती से लगा जुड़ाओ इसके तृषित हृदय को;
जो भी करूँ, दुष्ट मुझको अपनी माँ क्यो मानेगा?
उर्वशी
अरी! जुड़ाना क्या इसको? ला, दे, इस ह्दय-कुसुम को
लगा वक्ष से स्वयं प्राण तक शीतल हो जाती हूँ
(सुकन्या की गोद से बच्चे को लेकर हृदय से लगाती है)
आह! गर्भ में लिए इसे कल्पना-श्रृंग पर चढ़ कर
किस सुरम्य उत्तुंग स्वप्न को मैने नहीं छुआ था?
यही चहती थी समेट कर पी लूँ सूर्य-किरण को,
विधु की कोमल रश्मि, तारकॉ की पवित्र आभा को,
जिससे ये अपरूप, अमर ज्योतियाँ गर्भ में जाकर
समा जाएँ इसके शोणित में, हृदय और प्राणों में ।
यही सोचती थी त्रिलोक में जो भी शुभ, सुन्दर है,
बरस जाए सब एक साथ मेरे अंचल में आकर;
मैं समेट सबको रच दूँ मुसकान एक पतली-सी,
और किसी भी भांति उसे जड़ दूँ इसके अधरों पर!
सब का चाहा भला कि इसके मानस की रचना में
समावेश हो जाए दया का, सभी भली बातों का ।
विनय सुनाती रही अगोचर, निराकार, निर्गुण को,
भ्रूण-पिंड को परम देव छू दें अपनी महिमा से ।
वह सब होगा सत्य; लाल मेरा यह कभी उगेगा
पिता-सदृश ही अपर सूर्य बनकर अखंड भूतल में
और भरेगा पुण्यवान यह माता का गुण लेकर
उर-अंतर अनुरक्त प्रजा का शीतल हरियाली से ।
जब होगा यह भूप, प्रचुर धन-धान्यवती भू होगी,
रोग, शोक, परिताप,पाप वसुधा के घट जाएंगे;
सब होंगे सुखपूर्ण, जगत में सबकी आयु बढ़ेगी,
इसीलिए तो सखी! अभी से इसे आयु कहती हूँ ।
(बच्चे को बार-बार चुमकारती है)
कितनी मृदुल ऊर्मि प्राणों में अकथ, अपार सुखों की!
दुग्ध-धवल यह दृष्टि मनोरम कितनी अमृत-सरस है!
और स्पर्श में यह तरंग-सी क्या है सोम-सुधा की,
अंक लगाते ही आंखों की पलकें झुक जाती हैं!
हाय सुकन्ये! कल से मैं जानें, किस भांति जियूँगी!
सुकन्या
क्यों कल क्या होगा?
उर्वशी
कल से मुझ पर पहाड़ टूटेगा ।
यज्ञ पूर्ण होगा, विमुक्त होते ही आचारों से
कल, अवश्य ही, महाराज मेरा सन्धान करेंगे ।
और न क्षण भर कभी दूर होने देंगे आंखों से ।
हाय दयित जिसके निमित्त इतने अधीर व्याकुल हैं,
उनका वह वंशधर जन्म ले वन में छिपा पड़ा है ।
और विवशता यह तो देखो, मैं अभागिनी नारी
दिखा नहीं सकती सुत का मुख अपने ही स्वामी को
न तो पुत्र के लिए स्नेह स्वामी का तज सकती हूँ ।
भरत-शाप जितना भी कटु था, अब तक वह वर ही था;
उसका दाहक रूप सुकन्ये! अब आरम्भ हुआ है ।
सुकन्या
महा क्रूर-कर्मा कोविद; ये भरत बड़े दारुण हैं ।
यह भी क्या वे नहीं जानते, संतति के आने पर
पति-पत्नी का प्रणय और भी दृढ़तर हो जाता है?
बाला रहती बँधी मृदुल धागों से शिरिष-सुमन के,
किंतु,अंक में तनय, पयस के आते ही अंचल में,
वही शिरिष के तार रेशमी कड़ियाँ बन जाते है ।
और कौन है, जो तोड़े झटके से इस बन्धन को?
रेशम जितना ही कोमल उतना ही दृढ़ होता है ।
कौन भामिनी है, जो अंगज पुत्र और प्रियतम में
किसी एक को लेकर सुख से आयु बिता सकती है
कौन पुरन्ध्री तज सकती है पति के लिए तनय को?
कौन सती सुत के निमित्त स्वामी को त्याग सकेगी?
यह संघर्ष कराल! उर्वशी! बड़ा कठिन निर्णय है ।
पुत्र और पति नहीं,पुत्र या केवल पति पाओगी,
सो भी तब, जब छिपा सको निष्ठुर बन सदा तनय को,
और मिटा दो इसी छिपाने में भविष्य बेटे का ।
सखी! दुष्ट मुनि ने कितना यह भीषण शाप दिया है!
इससे तो था श्रेष्ठ भस्म कर देते तुम्हें जलाकर ।
चित्रलेखा
किंतु, जला दें तो सन्ध्या आने पर इन्द्र-सभा में
नाच-नाच कर कौन देवताओं की तपन हरेगी
काम-लोल कटि के कम्पन, भौहों के संचालन से?
सरल मानवी क्या जानो तुम कुटिल रूप देवों का?
भस्म-समूहों के भीतर चिनगियाँ अभी जीती हैं
सिद्ध हुए, पर सतत-चारिणी तरी मीन-केतन की
अब भी मन्द-मन्द चलती है श्रमित रक्त-धारा में ।
सहे मुक्त प्रहरण अनंग का, दर्प कहाँ वह तन में?
बिबुध पंचशर के बाणों को मानस पर लेते हैं ।
वश में नहीं सुरों के प्रशमन सहज, स्वच्छ पावक का,
ये भोगते पवित्र भोग औरों में वह्नि जगाकर!
कहते हैं, अप्सरा बचे यौवनहर प्रसव-व्यथा से;
और अप्सराएँ इस सुख से बचती भी रहती हैं ।
क्योकि कहीं बस गई भूमि पर वे माताएँ बनकर,
रसलोलुप् दृष्टियाँ सिद्ध, तेजोनिधान देवों की
लोटेंगी किनके कपोल, ग्रीवा, उर के तल्पों पर?
हम कुछ नहीं, रंजिकाएँ हैं मात्र अभुक्त मदन की ।
हाय, सुकन्ये! नियति-शाप से ग्रसित अप्सराओं की
कोई भी तो नहीं विषम वेदना समझ पाता है।
सुकन्या [उर्वशी से]
तो यह दारुण नियति-क्रीड़ कब तक चलता जाएगा?
कब तक तुम इस भांति नित्य छिपकर वन में आओगी
सुत को हृदय लगा, क्षण भर, मन शीतल कर लेने को?
और आयु, कुछ कह सकती हो, कब तक यहाँ रहेगा?
हे भगवान! उर्वशी पर यह कैसी विपद पड़ी है ।
उर्वशी
आने को तो, स्यात्, आज यह अंतिम ही आना है ।
कल से तो फिर लौट पड़ेगी वही सरणि जीवन की,
दिन भर रहना संग-संग प्रियतम के, जहाँ रहें वे,
और बिता देना समग्र रजनी उस प्रणय-कथा में
जिसका कहीं न आदि, न तो मध्यावसान होता है ।
तब भी, जानें, विरह आयु का कैसे झेल सकूँगी?
हाय पुत्र! तू क्यों आया था उसके बन्ध्य उदर में,
अभिशप्ता जो नहीं प्यार माँ का भी दे सकती है?
मैं निमित्त ही रही, सुकन्ये! इस अबोध बालक की
तुम्हे छोड़ कर निखिल लोक में और कौन माता है?
केवल भ्रूण-वहन, केवल प्रजनन मातृत्व नहीं है;
माता वही, पालती है जो शिशु को हृदय लगाकर ।
सखी! दयामयि देवि! शरण्ये! शुभे! स्वसे! कल्याणी!
मैं क्या कहूँ, वंश से बिछुड़ा कब तक आयु रहेगा
यहाँ धर्म की शरण तुम्हारे अंचल की छाया में?
किंतु, पिता-गृह तो, अवश्य ही उसे कभी जाना है
वह हो आज या कि कुछ दिन में या यौवन आने पर ।
अपना सुख तृणवत नगण्य है,उसे छोड़ सकती हूँ ।
किंतु, पुत्र का भाग्य भूमि पर रह कैसे फोड़ूँगी?
देना भेज, उचित जब समझो, मुझसे जनित तनय पर
जभी पड़ेगी दृष्टि दयित की, वज्र आन टूटेगा;
गरज उठेगा भरत-शाप मैं पराधीन पुतली-सी
खिंची हुई क्षिति छोड़ अचानक स्वर्ग चली जाऊँगी ।
छूट जाएँगे अकस्मात वे सुख, जिनके लालच में,
जब से आई यहाँ, कल्प-कानन को भूल गई हूँ ।
यह धरती, यह गगन, मृगों से भरी, हरी अट्वी यह,
ये प्रसून, ये वृक्ष स्वर्ग में बहुत याद आएँगे ।
झलमल-झलमल सरित्सलिल वह ऊषा की लाली से
शस्यों पर बिछली-बिछ्ली आभा वह रजत किरण की,
चहक-चहक उठना वह विहगों का निकुंज-पुंजों में,
स्वर्ग-वासिनी मैं, श्रद्धा से, नमस्कार करती हूँ
अविनश्वर, सौन्दर्यपूर्ण, नश्वर इस महा मही को ।
कितना सुख! कितना प्रमोद! कितनी आनन्द-लहर है!
कितना कम स्वर्गीय स्वयं सुरपुर है इस वसुधा से!
दिन में भी अंकस्थ किए मोहिनी प्रिया छाया को
ये पर्वत रसमग्न, अचल कितने प्रसन्न लगते हैं!
कितना हो उठता महान् यह गगन निशा आने पर,
जब उसके उर में विराट नक्षत्र-ज्वार आता है ।
हो उठती यामिनी गहन, तब उन निस्तब्ध क्षणों में,
कौन गान है, जिसे अचेतन अन्धकार गाता है?
आती है जब वायु स्पर्श-सुख-मयी सुदूर क्षितिज से,
कौन बात है, जिसे तृणों पर वह लिखती जाती है?
और गन्धमादन का वह अनमोल भुवन फूलों का!
मृग ही नहीं, विटप-तृण भी कितने सजीव लगते थे!
पत्र-पत्र को श्रवण बना अटवी कैसे सुनती थी
सूक्ष्म निनद, चुपचाप, हमारे चुम्बन, कल कूजन का!
झुक जाती थीं, किस प्रकार, डालियाँ हमें छूने को,
शैलराज, मानो, सपने में बाँहें बढ़ा रहा हो ।
किस प्रकार विचलित हो उठते थे प्रसून कुंजों के,
फेन-फेन होती वह उर्मिल हरियाली शिखरों की
ज्वार बाँध, किस भांति, बादलों को छूने उठती थी?
कैसे वे तटिनियाँ उछलती हुई सुढाल शिला पर
हमें देख चलने लगतीं थीं और अधिक इठला कर!
और हाय! वह एक निर्झरी पिघले हुए सुकृत-सी,
तीर-द्रुमों की छाया में कितनी भोली लगती थी!
लगता था, यह चली आ रही जिस पवित्र उद्गम से,
वहीं कहीं रहते होंगे नारायण कुटी बनाकर ।
आह! गन्धमादन का वह सुख और अंक प्रियतम का!
सखी! स्वर्ग में जो अलभ्य है, उस आनन्द मदिर का,
इसी सरस वसुधा पर मैने छक कर पान किया है ।
व्याप गई जो सुरभि घ्राण में, सुषमा चकित नयन में,
रोमांचक सनसनी स्पर्श-सुख की जो समा गई है
त्वचा-जाल, ग्रीवा, कपोल में, ऊँगली की पोरों में,
धो पाएगा उसे कभी क्या सलिल वियद-गंगा का?
पारिजात-तरु-तले ध्यान में जगी हुई खोजूँगी
उर:देश पर सुखद लक्ष्म प्रियतम के वक्षस्थल का,
रोमांचित सम्पूर्ण देह पर चिन्ह विगत चुम्बन के ।
और कभी क्या भूल सकूँगी उन सुरम्य रभसॉ को,
प्रिय का वह क्रीड़न अभंग मेरे समस्त अंगों से;
रस में देना बिता मदिर शर्वरी खुली पलको में
कभी लगाकर मुझे स्निग्ध अपने उच्छ्वसित हृदय से,
कभी बालकॉ-सा मेरे उर में मुख-देश छिपाकर?
तब फिर आलोड़न निगूढ़ दो प्राणों की ध्वनियों का;
उनकी वह बेकली विलय पाने की एक अपर में;
शोणित का वह ज्वलन, अस्थियों में वह चिंगारी-सी,
स्वयं विभासित हो उठना पुलकित सम्पूर्ण त्वचा का,
मानो, तन के अन्धकार की परतें टूट रही हों ।
और डूब जाना मन का निश्चल समाधि के सुख में,
किसी व्योम के अंतराल में, किसी महासागर में ।
सखि! पृथ्वी का प्रेम प्रभामय कितना दिव्य गहन है!
विसुध तैरते हुए स्वयं अपनी शोणित-धारा में,
क्या जाने, हम किस अदृश्य के बीच पहुंच जाते हैं!
यह प्रदीप्त आनन्द कहाँ सुरपुर की शीतलता में?
पारिजात-द्रुम के फूलों में कहाँ आग होती है?
यह तो यही मर्त्य जगती है, जहाँ स्पर्श के सुख से
अन्धकार में प्रभापूर्ण वातायन खुल पड़ते हैं ।
जल उठती है प्रणय-वह्नि वैसे ही शांत हृदय में,
ज्यों निद्रित पाषाण जाग कर हीरा बन जाता है ।
किंतु, हाय री, नश्वरता इन अतुल, अमेय सुखों की!
अमर बनाकर उन्हें भोगना मुझको भी दुष्कर है,
यद्यपि मैं निर्जर, अमर्त्य, शाश्वत, पीयूषमयी हूँ.
भरत-शाप, जानें, आकर कितना अदूर ठहरा है
घात लगाए हुए एक ही आकस्मिक झटके में,
पृथ्वी से मेरा सुखमय सम्बन्ध काट देने को!
जो भी करूँ सखी! पर, वह दिन आने ही वाला है,
छिन जाएगा जब समस्त सौभाग्य एक ही क्षण में ।
उड़ जाऊँगी छोड़ भूमि पर सुख समस्त भूतल का,
जैसे आत्मा देह छोड़ अम्बर में उड़ जाती है ।
हाय! अंत में मुझ अभागिनी शाप-ग्रस्त नारी को
न तो प्राणप्रिय पुत्र न तो प्रियतम मिलने वाले हैं ।
चित्रलेखा
भरत-शाप दुस्सह, दुरंत, कितना कटु, दुखदायी है!
क्षण-क्षण का यह त्रास सखी! कब तक सहती जाओगी
उस छागी-सी, सतत भीति-कम्पित जिसकी ग्रीवा पर
यम की जिन्ह्वा के समान खर-छुरिका झूल रही हो?
शिशु को किसी भांति पहुंचाकर प्रिय के राजभवन में
अच्छा है, तुम लौट चलो, आज ही रात, सुरपुर को ।
माना, नहीं उपाय शाप से कभी त्राण पाने का;
पर, उसके भय की प्रचण्डता से तो बच सकती हो ।
और अप्सरा संततियों का पालन कब करती है?
उर्वशी
यों बोलो मत सखी! भूमि के अपने अलग नियम हैं ।
सुख है जहाँ, वहीं दुख वातायन से झाँक रहा है ।
यहाँ जहाँ भी पूर्ण स्वरस है, वहीं निकट खाई में
दाँत पंजाती हुई घात में छिपी मृत्यु बैठी है
जो भी करता सुधापान , उसको रखना पड़ता है
एक हाथ रस के घट पर, दूसरा मरण-ग्रीवा पर ।
फिर मैं ही क्यों उसे छोड़ दूँ भीत अनागत भय से?
आयु रहेगा यहीं, दूसरी कोई राह नहीं है ।
सुकन्या
चित्रे! सखी उचित कहती है, इस निरीह पयमुख को
अभी भेजना नहीं निरापद होगा राजभवन में ।
रानी जितनी भी उदार, कुलपाली, दयामयी हों,
विमातृत्व का हम वामा विश्वास नहीं करती हैं ।
दो, उर्वशी! इसे मुझको दो, मैं इसको पालूँगी ।
(उर्वशी की गोद से आयु को ले लेती है और उसे
पुचकारते हुए बोलती जाती है)
यह आश्रम की ज्योति, इन्दु नन्हा इस पर्ण-कुटी का;
सखी! तुम्हारा लाल हमारी आंखों का तारा है ।
घुटनों के बल दौड़-दौड़ मेरा मुन्ना पकड़ेगा
कभी हरिण के कान, कभी डैने कपोत-केकी के ।
और खड़ा होकर चलते ही बड़ी रार रोपेगा
शशकॉ, गिलहरियों, प्लवंग-शिशुओं, कुरंग-छौनों से
फिर कुछ दिन में और तनिक बढ़कर प्रतिदिन जाएगा
होमधेनुओं को लेकर गोचर-अनुकूल विपिन में ।
और सांझ के समय चराकर उन्हें लौट आएगा
सिर पर छोटा बोझ लिए कुश, दर्भ और समिधा का ।
फिर पवित्र होकर, महर्षि के साथ यज्ञ-वेदी पर
बैठ हमारा लाल मंत्र पढ़-पढ़ कर हवन करेगा ।
हवन-धूम से आंखों में जब वाष्प उमड़ आएँगे
तब मैं दोनों नयन पोंछ दूँगी अपने अंचल से ।
शस्त्र-शास्त्र-निष्णात, अंग से बली, विभासित मन से
जब अपना यह आयु पूर्ण कैशोर प्राप्त कर लेगा,
पहुंचा दूँगी स्वयं इसे ले जाकर राज-भवन में ।
तब तक जा, पीयूष पान कर तू मृण्मयी मही का,
चिंता-रहित, अशंक, आयु को कोई त्रास नहीं है ।
उर्वशी
तो मैं चली ।
सुकन्या
कहाँ? बँधने को प्रिय के आलिंगन में?
उर्वशी
उस बन्धन में तो अब केवल तन ही बँधा करेगा;
प्राणों को तो यहीं तुम्हारे घर छोड़े जाती हूँ ।
“पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाओगी?”
सखी! सत्य ही, ये विकल्प दारुण, दुरंत, दुस्सह हैं ।
अब मत डाले भाग्य किसी को ऐसी कठिन विपद में ।
[उर्वशी और चित्रलेखा का प्रस्थान]
चतुर्थ अंक समाप्त
पंचम अंकपंचम
अंक आरम्भ
अहमपि तव सूनावद्य विन्यस्य राज्यम्
विचरित्मृग्यूथान्याश्रयिष्ये वनानि
-विक्रमोर्वशीयम्
क्रन्दंस देशदेशेषु बभ्राम नृपति: स्वयं।
-देवीभागवत
अवेत्य शापदोषं तं सोअथ गत्वा पुरुरवा
हरेराराधनं चक्रे ततो बदरिकाश्रमे
-कथासरित्सागर
स्थान-पुरुरवा का राजप्रसाद
[पुरुरवा, उर्वशी, महामात्य, राज-पंडित, राज-ज्योतिषी,
अन्य सभासद, परिचायक और परिचारिकाएँ यथास्थान
बैठे या खड़े । राजा की मुद्रा अत्यंत चिंताग्रस्त। आरम्भ
में, कई क्षणों तक, कोई कुछ नहीं बोलता]
महामात्य
देव क्षमा हो कुतुक, महामय के विशाल नयनों में,
देख रहा हूँ, आज नई चिंता कुछ घुमड़ रही है ।
महाराज जब से आए हैं, मूक, विषण्ण, अचल हैं
सुखदायक कल रोर रोक, निस्पन्द किए लहरों को
महासिन्धु क्यों, इस प्रकार, अपने में डूब गया है?
सभा सन्न है, कौन विपद हम पर आने वाली है?
पुरुरवा
कुशल करें अर्यमा, मरुद्गण उतर व्योम-मन्डल से
अभिषुत सोम ग्रहण करने को आते रहें भुवन में ।
वरुण रखें प्रज्वलित निरंतर आहवनीय अनल को,
रहे दृष्टि हम पर अभीष्ट-वर्षी अमोघ मघवा की
सभासदो! कल रात स्वप्न मैने विचित्र देखा है ।
सभी सभासद
स्वप्न!
पुरुरवा
स्वप्न ही कहो, यद्यपि मेरे मन की आंखों के
आगे, अब भी, सभी दृश्य वैसे ही घूम रहे हैं,
जैसे, सुप्ति और जागृति के धूमिल, द्वाभ क्षितिज पर
मैने उन्हें सत्य, चेतना, सुस्पष्ट, स्वच्छ देखा था ।
कितनी अद्भुत कथा! दृश्य वह मानव की छलना थी?
या जो मुद्रित पृष्ठ अभी आगे खुलने वाले हैं,
देख गया हूँ उन्हें रात निद्रित भविष्य में जा कर?
कौन कहे, जिसको देखा, वह सारहीन सपना था
या कि स्वप्न है वह जिसको अब जग कर देख रहा हूँ?
क्या जानें, जागरण स्वप्न है या कि स्वप्न जागृति है?
महामात्य
बड़ी विलक्षण बात! देव ने ऐसा क्या देखा है,
जिससे जागृति और स्वप्न की दूरी बिला रही है,
परछाईं पड़ रही अनागत की आगत के मुख पर,
मुँदी हुई पोथी भविष्य की उन्मीलित लगती है?
देव दया कर कहें स्पष्ट, दुश्चिंत्य स्वप्न वह क्या था?
अश्विद्वय की कृपा, विघ्न जो भी हों, टल जाएँगे ।
पुरुरवा
कौन विघ्न किसका? जो है, जो अब होने वाला है,
सब है बद्ध निगूढ, एक ऋत के शाश्वत धागे में;
कहो उसे प्रारब्ध, नियति या लीला सौम्य प्रकृति की ।
बीज गिरा जो यहाँ, वृक्ष बनकर अवश्य निकलेगा ।
किंतु, भीत मैं नहीं; गर्त के अतल, गहन गह्वर में
जाना हो तो उसी वीरता से प्रदीप्त जाऊँगा
जैसे ऊपर विविध व्योम-लोगों में घूम चुका हूँ ।
भीति नहीं यह मौन; मूकता में यह सोच रहा हूँ,
अबकी बार भविष्य कौन-सा वेष लिए आता है ।
महामात्य
महाराज का मन बलिष्ठ; संकल्प-शुद्ध अंतर है ।
जिसकी बाँहों के प्रसाद से सुर अचिंत रहते हैं,
उस अजेय के लिए कहाँ है भय द्यावा-पृथ्वी पर?
प्रभु अभीक ही रहें; किंतु, हे देव! स्वप्न वह क्या था,
जिसकी स्मृति अब तक निषण्ण है स्वामी के प्राणों में?
मन के अलस लेख सपने निद्रा की चित्र-पटी पर
जल की रेखा के समान बनते-बुझते रहते हैं ।
पुरुरवा
देखा, सारे प्रतिष्ठानपुर में कलकल छाया है,
लोग कहीं से एक नव्य वट-पादप ले आए हैं ।
और रोप कर उसे सामने, वहाँ बाह्य प्रांगण में
सीच रहे हैं बड़ी, प्रीति, चिंताकुल आतुरता से ।
मैं भी लिए क्षीरघट, देखा, उत्कंठित आया हूँ;
और खड़ा हूँ सींच दूध से उस नवीन बिरवे को ।
मेरी ओर, परंतु, किसी नागर की दृष्टि नहीं है,
मानो, मैं हूँ जीव नवागत अपर सौर मंडल का,
नगरवासियों की जिससे कोई पहचान नहीं हो ।
तब देखा, मैं चढ़ा हुआ मदकल, वरिष्ठ कुंजर पर
प्रतिष्ठानपुर से बाहर कानन में पहुंच गया हूँ ।
किंतु, उतर कर वहाँ देखता हूँ तो सब सूना है,
मुझे छोड़, चोरी से, मेरा गज भी निकल गया है ।
एकाकी, नि:संग भटकता हुआ विपिन निर्जन में
जा पहुँचा मैं वहाँ जहाँ पर वधूसरा बहती है,
च्यवनाश्रम के पास, पुलोमा की दृगम्बु-धारा-सी ।
उर्वशी
च्यवनाश्रम! हा! हंत! अपाले, मुझे घूँट भर जल दे ।
(अपाला घबरा कर पानी देती है।उर्वशी पानी पीती है।)
पुरुरवा
देवि! आप क्यों सहम उठीं? वह, सचमुच, च्यवनाश्रम था ।
ऋषि तरु पर से अपने सूखे वसन समेट रहे थे ।
घूम रहे थे कृष्णसार मृग अभय वीथि-कुंजों में;
श्रवण कर रहे थे मयूर तट पर से कान लगा कर
मेघमन्द्र डुग-डुग-ध्वनि जलधारा में घट भरने की ।
और, पास ही, एक दिव्य बालक प्रशांत बैठा था
प्रत्यंचा माँजते वीर-कर-शोभी किसी धनुष की
हाय, कहूँ क्या, वह कुमार कितना सुभव्य लगता था!
उर्वशी
दुर्विपाक! दुर्भाग्य! अपाले! तनिक और पानी दे ।
उमड़ प्राण से, कहीं कंठ में, ज्वाला अटक गई है ।
लगता है, आज ही प्रलय अम्बर से फूट पड़ेगा
(पानी पीती है)
पुरुरवा
देवि! स्वप्न से आप अकारण भीत हुए जाती हैं ।
मैं हूँ जहाँ, वहाँ कैसे विध्वंश पहुंच सकता है?
भूल गईं, स्यन्दन मेरा नभ में अबाध उड़ता है?
मैं तो केवल ऋषि-कुमार का तेज बखान रहा था ।
उरु-दंड परिपुष्ट, मध्य कृश, पृथुल, प्रलम्ब भुजाएँ,
व्क्षस्थल उन्नत, प्रशस्त कितना सुभव्य लगता था!
ऊषा विभासित उदय शैल की, मानो, स्वर्ण-शिला हो ।
उफ री, पय:शुभ्रता उन आयत, अलक्श्म नयनों की!
प्राण विकल हो उठे दौड़ कर उसे भेंट लेने को
पर, तत्क्षण सब बिला गया, जानें, किस शून्य तिमिर में!
न तो वहाँ अब ऋषि-कुमार था, न तो कुटीर च्यवन का ।
देखा जिधर, उधर डालों, टहनियों, पुष्पवृंतों पर
देवि! आपका यही कुसुम-आनन जगमगा रहा था
हँसता हुआ, प्रहृष्ट, सत्य ही, सद्य:स्फुटित कमल-सा ।
किंतु, हाय! दुर्भाग्य! जिधर भी बढ़ा स्पर्श करने को
डूब गया वह छली पुष्प पत्तों की हरियाली में ।
चकित, भीत, विस्मित, अधीर तब मैं निरस्त माया से,
अकस्मात उड़ गया छोड-अवनीतल ऊर्ध्व गगन में,
और तैरता रहा, न जानें, कब तक खंड-जलद-सा ।
जगा, अंत को, जब विभावरी पूरी बीत चुकी थी ।
वह बालक था कौन? कौन मुझको छलने आई थी ।
दिखा उर्वशी का प्रसन्न आनन डाली-डाली में।
महामात्य
महाश्चर्य!
एक सभासद
विस्मय अपार!
दूसरा सभासद
यह स्वप्न या कि कविता है
उज्जवलता में रमें, रूप-ध्यायी, रस-मग्न हृदय की?
और उड्डयन तो नैतिक उन्नति की ही महिमा है ।
जो हो, मैं मंगल की शुभ सूचना इसे कहता हूँ
तीसरा सभासद
शांति! ज्योतिषी विश्वमना गणना में लगे हुए हैं ।
सुनें, सिद्ध दैवज्ञ स्वप्न का फल क्या बतलाते हैं ।
विश्वमना
हाय, इसी दिन के निमित्त मैं जीवित बचा हुआ था?
महाराज! यदि कहूँ सत्य तो गिरा व्यर्थ होती है ।
मृषा कहूँ तो क्यों अब तक आदर पाता आया हूँ?
मुझ विमूढ़ को अत: देव मौन ही आज रहने दें;
क्योंकि दीखता है जो कुछ, उसका आधार नहीं है ।
पुरुरवा
किसका है आधार लुप्त? क्या है परिणाम गणित का?
यह प्रहेलिका और अधिक उत्कंठा उपजाती है ।
कहें आप संकोच छोड़ कर, जो कुछ भी कहना हो,
गणित मृषा हो भले, आपको मिथ्या कौन कहेगा?
विश्वमना
वरुण करें कल्याण! देव! तब सुनें, सत्य कहता हूँ ।
अमिट प्रवज्या-योग केन्द्र-गृह में जो पड़ा हुआ है,
वह आज ही सफल होगा, इसलिए की प्राण-दशा में
शनि ने किया प्रवेश, सूक्ष्म में मंगल पड़े हुए हैं ।
अन्य योग जो हैं, उनके अनुसार, आज सन्ध्या तक
आप प्रव्रजित हो जाएंगे अपने वीर तनय को
राज-पाट, धन-धाम सौंप, अपना किरीट पहना कर ।
पर विस्मय की बात! पुत्र वह अभी कहाँ जनमा है?
अच्छा है, पुत जाए कालिमा ही मेरे आनन पर;
लोग कहें, मर गई जीर्ण हो विद्या विश्वमना की ।
इस अनभ्र आपद् से तो अपकीर्ति कहीं सुखकर है ।
उर्वशी
आह! क्रूर अभिशाप! तुम्हारी ज्वाला बड़ी प्रबल है ।
अरी! जली, मैं जली, अपाले! और तनिक पानी दे ।
महाराज! मुझ हतभागी का कोई दोष नहीं है ।
(पानी पीती है। दाह अनुभूत होने का भाव)
पुरुरवा
किसका शाप? कहाँ की ज्वाला? कौन दोष? कल्याणी!
आप खिन्न हो निज को हतभागी क्यों कहती हैं?
कितना था आनन्द गन्धमादन के विजन विपिन में
छूट गई यदि पुरी, संग होकर हम वहीं चलेंगे ।
आप, न जानें, किस चिंता से चूर हुई जाती हैं!
कभी आपको छोड़ देह यह जीवित रह सकती है?
(प्रतीहारी का प्रवेश)
प्रतीहारी
जय हो महाराज! वन से तापसी एक आई हैं;
कहती हैं, स्वामिनी उर्वशी से उनको मिलना है!
नाम सुकन्या; एक ब्रह्मचारी भी साथ लगा है ।
पुरुरवा
सती सुकन्या! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की?
सादर लाओ उन्हें; स्वप्न अब फलित हुआ लगता है ।
पुण्योदय के बिना संत कब मिलते हैं राजा को?
(सुकन्या और आयु का प्रवेश)
पुरुरवा
इलापुत्र मैं पुरु पदों में नमस्कार करता हूँ ।
देवि! तपस्या तो महर्षिसत्तम की वर्धमती है?
आश्रम-वास अविघ्न, कुशल तो है अरण्य-गुरुकुल में?
सुकन्या
जय हो, सब है कुशल ।
उर्वशी! आज अचानक ऋषि ने
कहा, “आयु को पितृ-गेह आज ही गमन करना है!
अत:, आज ही, दिन रहते-रहते, पहुंचाना होगा,
जैसे भी हो, इस कुमार को निकट पिता-माता के” ।
सो, ले आई, अकस्मात ही, इसे; सुयोग नहीं था
पूर्व-सूचना का या इसको और रोक रखने का ।
सोलह वर्ष पूर्व तुमने जो न्यास मुझे सौंपा था,
उसे आज सक्षेम सखी! तुम को मैं लौटाती हूँ ।
बेटा! करो प्रणाम, यही हैं माँ, वे देव पिता हैं ।
[आयु पहले उर्वशी को, फिर पुरुरवा को प्रणाम
करता है। पुरुरवा उसे छाती से लगा लेता है।]
पुरुरवा
महाश्चर्य! अघट घटना! अद्भुत अपूर्व लीला है!
यह सब सत्य-यथार्थ या कि फिर सपना देख रहा हूँ?
पुत्र! देवि! मैं पुत्रवान हूँ? यह अपत्य मेरा है?
जनम चुका है मेरा भी त्राता पुं नाम नरक से?
अकस्मात हो उथा उदित यह संचित पुण्य कहाँ का?
अमृत-अभ्र कैसे अनभ्र ही मुझ पर बरस पड़ा है?
पुत्र! अरे मैं पुत्रवान हूँ, घोषित करो नगर में,
जो हो जहाँ, वहीं से मेरे निकट उसे आने दो ।
द्वार खोल दो कोष-भवन का, कह दो पौर जनों से
जितना भी चाहें, सुवर्ण आकर ले जा सकते हैं
ऐल वंश के महामंच पर नया सूर्य निकला है;
पुत्र-प्राप्ति का लग्न, आज अनुपम, अबाध उत्सव है ।
पुत्र! अरे कोई संभाल रखो मेरी संज्ञा को,
न तो हर्ष से अभी विकल-विक्षिप्त हुआ जाता हूँ ।
पुत्र! अरे, ओ अमृत-स्पर्श! आनन्द-कन्द नयनों के!
प्राणों के आलोक! हाय! तुम अब तक छिपे कहाँ थे?
ऐल वंश का दीप, देवि! यह कब उत्पन्न हुआ था?
और आपने छिपा रखा इसको क्यों निष्ठुरता से?
हाय! भोगने से मेरा कितना सुख छूट गया है!
उर्वशी
अब से सोलह वर्ष पूर्व, पुत्रेष्टि-यज्ञ पावन में
देव! आप यज्ञिय विशिष्ट जीवन जब बिता रहे थे,
च्यवनाश्रम की तपोभूमि में तभी आयु जनमा था
मुझमें स्थापित महाराज के तेजपुंज पावक से
किंतु, छिपा क्यों रखा पुत्र का मुख पुत्रेच्छु पिता से,
आह! समय अब नहीं देव! वह सब रहस्य कहने का ।
लगता है, कोई प्राणों को बेध लौह अंकुश से,
बरबस मुझे खींच इस जग से दूर लिए जाता है ।
पुरुरवा
अच्छा, जो है गुप्त, गुप्त ही उसे अभी रहने दें ।
आतुरता क्या हो रहस्य के उद्घाटित करने की,
जब रहस्य वपुमान सामने ही साकार खड़ा हो?
सभासदो! कल रात स्वप्न में इसी वीर-पुंगव को
प्रत्यंचा माँजते हुए मैने वन में देखा था ।
और बढ़ा ज्यों ही उदग्र मैं इसे अंक भरने को,
यही दुष्ट छल मुझे कहीं कुंजों मे समा गया था ।
किंतु, लाल! अब आलिंगन से कैसे भाग सकोगे?
यह प्रसुप्त का नहीं, जगे का सुदृढ़ बाहु-बन्धन है?
आयु
आयु तक रहा वियुक्त अंक से, यही क्लेश क्या कम है?
तात! आपकी छन्ह छोड़ मैं किस निमित्त भागूँगा?
जब से पाया जन्म, उपोषण रहा धर्म प्राणों का;
हृदय भूख से विकल, पिता! मैं बहुत-बहुत प्यासा हूँ,
यद्यपि सारी आयु तापसी माँ का प्यार पिया है।
पुरुरवा
रुला दिया तुमने तो मेरे चन्द्र! व्यथा यह कह कर ।
सुना देवि! यह लाल हमारा कितना तृषित रहा है
माँ के उर का क्षीर, पिता का स्नेह नहीं पाने से?
(उर्वशी अदृश्य हो चुकी है।)
महामात्य
महाराज! आश्चर्य! उर्वशी देवि यहाँ नहीं हैं?
कहाँ गई? थीं खड़ी अभी तो यहीं निकट स्वामी के?
पुरुरवा
क्यों, जाएँगी कहाँ विमुख हो इस आनन्द सघन से?
किंतु, अभी वे श्रांत-चित्त, कुछ थकी-थकी लगती थीं;
जाकर देखो, स्यात् प्रमद-उपवन में चली गई हों
शीतल, स्वच्छ, प्रसन्न वायु में तनिक घूम आने को ।
सुकन्या
वृथा यत्न; इस राज-भवन में अब उर्वशी नहीं है ।
चली गई वह वहाँ, जहाँ से भूतल पर आई थी
खिंची आपके महाप्रेम के आकुल आकर्षण में ।
भू वंचित हो गई आज उस चिर-नवीन सुषमा से ।
महाराज! उर्वशी मानवी नहीं, देव-बाला थी;
चक्षुराग जब हुआ आपसे , उस विलोल-हृदया ने,
किसी भाँति, कर दिया एक दिन कुपित महर्षि भरत को ।
और भरत ने ही उसको यह दारुण शाप दिया था,
“भूल गई निज कर्म, लीन जिसके स्वरूप-चिंतन में,
जा, तू बन प्रेयसी भूमि पर उसी मर्त्य मानव की ।
किंतु, न होंगे तुझे सुलभ सब सुख गृहस्थ नारी के,
पुत्र और पति नहीं, पुत्र या केवल पति पाएगी;
सो भी तब तक ही जिस क्षण तक नहीं देख पाएगा
अहंकारिणी! तेरा पति तुझसे उत्पन्न तनय को।”
वही शाप फल गया, उर्वशी चली गई सुरपुर को ।
महाराज! मैं तो इसके हित उद्यत ही आई थी!
क्योंकि ज्ञात था मुझे, आयु को जभी आप देखेंगे,
गरज उठेगा शाप, उर्वशी भू पर नहीं रहेगी ।
किंतु, आयु को कब तक हम वंचित कर रख सकते थे
जाति, गोत्र, सौभाग्य, वंश से, परिजन और पिता से?
हुआ वही, जो कुछ होना था, पश्चाताप वृथा है ।
अब दीजिए आयु को वह, जो कुछ वह माँग रहा है ।
महाराज! सत्य ही आयु का हृदय बहुत प्यासा है ।
(पुरुरवा आयु से अलग हो जाता है)
पुरुरवा
चली गई? सब शून्य हो गया? मैं वियुक्त, विरही हूँ?
देवों को मेरे निमित्त, बस, इतनी ही ममता थी!
लाओ मेरा धनुष, सजाओ गगन-जयी स्यन्दन को,
सखा नहीं, बन शत्रु स्वर्ग-पुर मुझे आज जाना है ।
और दिखाना है, दाहकता किसकी अधिक प्रबल है,
भरत-शाप की या पुरुरवा के प्रचंड बाणों की ।
कहाँ छिपा रखेंगे सुर मेरी प्रेयसी प्रिया को?
रत्नसानु की कनक-कन्दरा में? तो उस पर्वत को
स्वर्ण-धूलि बन वसुन्धरा पर आज बरस जाना है ।
छिन्न-भिन्न होकर मनुष्य के प्रलय-दीप्त बाणों से ।
दिव के वियल्लोक में छाए विपुल स्वर्ण-मेघों में?
तो मेघों के अंतराल होकर अरुद्ध शम्पा-सा
दौड़ेगा मेरा विमान कम्पित कर प्राण सुरों के;
और उलट कर एक-एक मायामय मेघ-पटल को
खोजूँगा, उर्वशी व्योम के भीतर कहाँ छिपी है ।
लाओ मेरा धनुष, यहीं से बाण साध अम्बर में
अभी देवताओं के वन में आग लगा देता हूँ ।
फेंक प्रखर, प्रज्वलित, वह्निमय विशिख दृप्त मघवा को
देता हूँ नैवेद्य मनुजता के विरुद्ध संगर का ।
और सिन्धु में कहीं उर्वशी को फिर छिपा दिया हो,
तो साजो विकराल सैन्य, हम आज महासागर को
मथ कर देंगे हिला, सिन्धु फिर पराभूत उगलेगा
वे सारे मणि-रत्न, बने होंगे जो भी उस दिन से,
जब देवों-असुरों ने इसको पहले-पहल मथा था ।
और उसी मंथन क्रम में बैठी तरंग-आसन पर
एक बार फिर पुन: उर्वशी निकलेगी सागर से
बिखराती मोहिनी उषा की प्रभा समस्त भुवन में,
जैसे वह पहले समुद्र के भीतर से निकली थी!
भूल गए देवता, झेल शत्रुता अमित असुरों की
कितनी बार उन्हें मैने रण में जय दिलवाई है ।
पर, इस बार ध्वंस बनकर जब मैं उन पर टूटूँगा,
आशा है,आप्रलय दाह विशिखों का स्मरण रहेगा;
और मान लेंगे यह भी, उर्वशी कहीं जनमी हो,
देवों की अप्सरा नहीं, वह मेरी प्राणप्रिया है ।
उठो, बजाओ पटह युद्ध के, कह दो पौर जनों से,
उनका प्रिय सम्राट स्वर्ग से वैर ठान निकला है;
साथ चलें, जिसको किंचित भी प्राण नहीं प्यारे हों ।
महामात्य्
महाराज हों शांत; कोप यह अनुचित नहीं, उचित है ।
तारा को लेकर पहले भी भीषण समर हुआ था
दो पक्षों मे बँटे, परस्पर कुपित सुरों-असुरों में ।
और सुरों के, उस रण में भी छक्के छूट गए थे ।
वह सब होगा पुन:, यही यदि रहा इष्ट स्वामी का ।
पर, यद्यपि, यह समर खड़ा होगा मानवों-सुरों में,
किंतु दनुज क्या इस अपूर्व अवसर से अलग रहेंगे?
मिल जाएँगे वे अवश्य आकर मनुष्य सेना में ।
सुरता के ध्वंसन से बढ़्कर उन्हें और क्या प्रिय है
और टिकेंगे किस बूते पर चरण देवताओं के
वहाँ, जहाँ नर-असुर साथ मिलकर उनसे जूझ रहे हों?
इस संगर में महाराज! जय तो अपनी निश्चित है;
मात्र सोचना है, देवों से वैर ठान लेने पर
पड़ न जाएँ हम कहीं दानवों की अपूत संगति में ।
नर का भूषण विजय नहीं, केवल चरित्र उज्जवल है
कहती हैं नीतियाँ, जिसे भी विजयी समझ रहे हो,
नापो उसे प्रथम उन सारे प्रकट, गुप्त यत्नों से,
विजय-प्राप्ति-क्रम में उसने जिनका उपयोग किया है ।
डाल न दे शत्रुता सुरों से हमें दनुज-बाँहों में,
महाराज! मैं, इसीलिए, देवों से घबराता हूँ ।
पुरुरवा
कायरता की बात ! तुम्हारे मन को सता रही है
भीति इन्द्र के निथुर वज्र की, देवों की माया की;
किंतु, उसे तुम छिपा रहे हो सचिव! ओढ़ ऊपर से
मिथ्या वसन दनुज-संगति-कल्पना-जन्य दूषण का ।
जब मनुष्य चीखता व्योम का हृदय दरक जाता है
सहम-सहम उठते सुरेन्द्र उसके तप की ज्वाला से ।
और कहीं हो क्रुद्ध मनुज कर दे आह्वान प्रलय का,
स्वर्ग, सत्य ही टूट गगन से भू पर आ जाएगा ।
क्यों लेंगे साहाय्य दनुज का? हम मनुष्य क्या कम हैं?
बजे युद्ध का पटह, सिद्ध हो द्रुत योजना समर की
यह अपमान असह्य, इसे सहने से श्रेष्ठ मरण है ।
[नेपथ्य से आवाज आती है]
“पीना होगा गरल, वेदना यह सहनी ही होगी ।
सावधान! देवों से लड़ने में कल्याण नहीं है ।
देव कौन हैं? शुद्ध, दग्धमल, श्रेष्ठ रूप मानव के;
तो अपने ही श्रेष्ठ रूप से मानव युद्ध करेगा
या उससे जो रूप अभी दानवी, दुष्ट, मलिन है?”
पुरुरवा
यह किसका स्वर? कौन यवनिकाओं में छिपा हुआ है?
जो भी होती घटित आज, अचरज की ही घटना है ।
बड़ी अनोखी बात! कौन हो तुम जो बोल रहे हो
इतने सूक्ष्म विचार? छिपे हो कहाँ, भूमि या नभ में
[नेपथ्य से आवाज]
मैं प्रारब्ध चन्द्रकुल का, संचित प्रताप तेरा हूँ
बोल रहा हूँ तेरे ही प्राणों के अगम,अतल से ।
अनुचित नहीं गर्व क्षणभंगुर वर्तमान की जय का
पर, अपने में डूब कभी यह भी तूने सोचा है,
तेरे वर्तमान मन पर जिनका भविष्य निर्भर है,
अनुत्पन्न उन शत-सहस्र मनुजों के मुखमंडल पर
कौन बिम्ब, क्या प्रभा, कौन छाया पड़ती जाती है?
जैसे तूने प्रणय-तूलिका और लौह-विशिखों से
ओजस्वी आख्यान आत्मजीवन का आज लिखा है,
वैसे ही कल चन्द्र-वंश वालों के विपुल-हृदय में
लौह और वासना समंवित होकर नृत्य करेंगे
अतुल पराक्रम के प्रकाश में भी यह नहीं छिपेगा
ताराहर विधु के विलास से ये मनुष्य जनमें हैं
चिंतन कर यह जान कि तेरे क्षण-क्षण की चिंता से
दूर-दूर तक के भविष्य का मनुज जन्म लेता है
उठा चरण यह सोच कि तेरे पद के निक्षेपों की
आगामी युग के कानों में ध्वनियाँ पहुंच रही हैं ।
और प्रेम! वह बना नहीं क्यों अश्रुधार करुणा की,
आराधन उन दिव्य देवता का, जो छिपे हुए हैं
रमणी के लावण्य, रमा-मुख के प्रकाश मंडल में?
बना नहीं क्यों वह अखंड आलोक-पुंज जीवन का,
जिसे लिए तू और व्योम में ऊपर उठ सकता था?
अरुण अधर, रक्तिम कपोल, कुसुमाघव घूर्ण दृगों में;
आमंत्रण कितना असह्य माया-मनोज्ञ प्रतिमा का!
ग्रीवा से आकटि समंत उद्वेलित शिखा मदन की,
आलोड़ित उज्जवल असीमता-सी सम्पूर्ण त्वचा में;
वक्ष प्रतीप कमल, जिन पर दो मूँगे जड़े हुए हैं;
त्रिवली किसी स्वर्ण-सरसी में उठती हुई लहर-सी
किंतु, नहीं श्लथ हुईं भुजाएँ किन विक्रमी नरों की
आलिंगन में इस मरीचिका को समेट रखने में?
पृथुल, निमंत्रण-मधुर, स्निग्ध, परिणत, विविक्त जघनों पर
आकर हुआ न ध्वस्त कौन हतविक्रम असृक-स्रवण से?
जिसने भी की प्रीति, वही अपने विदीर्ण प्राणों में
लिए चल रहा व्रण, शोणितमय तिलक प्रेम के कर का;
और चोट जिसकी जितनी ही अधिक, घाव गहरा है,
वह उतना ही कम अधीर है व्यथा-मुक्ति पाने को ।
नारी के भीतर असीम जो एक और नारी है,
सोचा है उसकी रक्षा पुरुषों में कौन करेगा?
वह, जो केवल पुरुष नहीं, है किंचित अधिक पुरुष से;
उर में जिसके सलिल-धार, निश्चल महीद्र प्राणों में,
कलियों की उँगलियाँ, मुट्ठियाँ हैं जिसकी पत्थर की ।
कह सकता है पुरू! कि तू पुरुषाधिक यही पुरुष है?
तो फिर भीतर देख, शिलोच्चय शिखर-शैल मानस का
अचल खड़ा है या प्रवाल-ताडन से डोल रहा है?
यह भी देख, भुजा कुसुमों का दाम कि वज्र-शिला है?
हाथों में फूल ही फूल हैं या कुछ चिंगारी भी?
विपद्व्याधिनी भी जीवन में तुझको कहीं मिली थी?
पूछा जब तूने भविष्य, उसने क्या बतलाया था?
त्रिया! हाय छलना मनोज्ञ वह! पुरुष मग्न हँसता है,
जब चाहिये उसे रो उठना कंठ फाड़, चिल्ला कर ।
पूछ रहा क्या भाग्य ज्योतिषी से, अंकविद, गणक से?
हृदय चीर कर देख प्राण की कुंजी वही पड़ी है ।
अंतर्मन को जगा पूछ, वह जो संकेत करेगा,
तुझे मिलेगी मन:शांति उपवेशित उसी दिशा में ।
बिना चुकाए मूल्य जगत में किसने सुख भोगा है?
तुझ पर भी है पुरू! शेष जो ऋण अपार जीवन का
भाग नहीं सकता तू उसको किसी प्रकार पचाकर ।
नहीं देखता, कौन तेरे नयन समक्ष खड़ा है?
पुरुरवा! यह और नहीं कोई, तेरा जीवन है ।
जो कुछ तूने किया प्राप्त अब तक इसके हाथों से,
देना होगा मूल्य आज गिन-गिन उन सभी क्षणों का ।
पर, कैसे? जा स्वर्ग उर्वशी को फिर ले आएगा?
अथवा अपने महाप्रेम के बलशाली पंखों पर
चढ़ असीम उड्डयन भरेगा मन के महागगन में,
जहाँ त्रिया कामिनी नहीं, छाया है परम विभा की,
जहाँ प्रेम कामना नहीं, प्रार्थना निदिध्यासन है?
खोज रहा अवलम्ब? किंतु, बाहर इस ज्वलित द्विधा का
कोई उत्तर नहीं। पुन: मैं वही बात कहता हूँ,
हृदय चीर कर देख, वहीं पर कुंजी कहीं पड़ी है।
पुरुरवा
देख क्रिया। मंत्रियो! एक क्षण का भी समय नहीं है;
पुरोहित करें स्वस्ति-वाचन शुभ राज-तिलक का ।
विश्वमना का फलादेश चरितार्थ हुआ जाता है ।
मृषा बन्ध विक्रम-विलास का, मृषा मोह-माया का;
इन दैहिक सिद्धियों, कीर्तियों के कंचनावरण में,
भीतर ही भीतर विषण्ण मैं कितना रिक्त रहा हूँ!
अंतर्तम के रूदन, अभावों की अव्यक्त गिरा को
कितनी बार श्रवण करके भी मैने नहीं सुना है!
पर, अब और नहीं, अवहेला अधिक नहीं इस स्वर की,
ठहरो आवाहन अनंत के, मूक निनद प्राणों के!
पंख खोल कर अभी तुम्हारे साथ हुआ जाता हूँ
दिन-भर लुटा प्रकाश, विभावसु भी प्रदोष आने पर
सारी रश्मि समेट शैल के पार उतर जाते हैं
बैठ किसी एकांत, प्रांत, निर्जन कन्दरा, दरी में
अपना अंतर्गगन रात में उद्भासित करने को
तो मैं ही क्यों रहूँ सदा ततता मध्याह्न गगन में?
नए सूर्य को क्षितिज छोड़ ऊपर नभ में आने दो ।
पहुँच गया मेरा मुहुर्त, किरणें समेट अम्बर से
चक्रवाल के पार विजन में कहीं उतर जाने का ।
यह लो अपने घूर्णिमान सिर पर से इसे हटाकर
ऐल-वंश का मुकुट आयु के मस्तक पर धरता हूँ ।
लो, पूरा हो गया राज्य-अभिषेक! कृपा पूषण की ।
ऐल-वंश-अवतंस नए सम्राट आयु की जय हो
महाराज! मैं भार-मुक्त अब कानन को जाता हूँ ।
भाग्य-दोष सध सका नहीं मुझसे कर्त्तव्य पिता का;
अब तो केवल प्रजा-धर्म् है, सो, उसको पालूँगा,
जहाँ रहूँगा, वहीं महाभृत का अभ्युदय मनाकर ।
यती नि:स्व क्या दे सकता है सिवा एक आशिष के?
सभासदो! कालज्ञ आप, सब के सब कर्म-निपुण हैं,
क्या करना पटु को निदेश समयोचित कर्त्तव्यों का?
प्रजा-जनों से मात्र हमारा आशीर्वाद कहेंगे ।
जय हो, चन्द्र-वंश अब तक जितना सुरम्य, सुखकर था,
उसी भाँति वह सुखद रहे आगे भी प्रजा-जनों को ।
[एक ओर से पुरुरवा का निष्क्रमण: दूसरी ओर से
महारानी औशीनरी का प्रवेश]
औशीनरी
चले गए?
सभी सभासद
जय हो अनुकम्पामयी राजमाता की ।
औशीनरी
हाँ, मैं अभी राज महिषी थी, चाहे जहाँ कहीं भी
इस प्रकाश से दूर भाग्य ने मुझे फेंक रखा था ।
किंतु, नियति की बात! सत्य ही, अभी राजमाता हूँ ।
आ बेटा! लूँ जुड़ा प्राण छाती से तुझे लगाकर ।
[आयु को हृदय से लगाती है]
कितना भव्य स्वरूप! नयन, नासिका, ललाट, चिबुक में
महाराज की आकृतियों का पूरा बिम्ब पड़ा है ।
हाय, पालती कितने सुख, कितनी उमंग, आशा से,
मिला मुझे होता यदि मेरा तनय कहीं बचपन में ।
पर, तब भी क्या बात? मनस्वी जिन महान पुरुषों को
नई कीर्ति की ध्वजा गाड़नी है उत्तुंग शिखर पर,
बहुधा उन्हें भाग्य गढ़ता है तपा-तपा पावक में,
पाषाणों पर सुला, सिंह-जननी का क्षीर पिला कर
सो तू पला गोद में जिनकी सीमंतिनी-शिखा वे,
और नहीं कोई जाया हैं तपोनिधान च्यवन की;
तप:सिंह की प्रिया, सत्य ही, केहरिणी सतियो में
पुत्र! अकारण नहीं भाग्य ने तुझे वहाँ भेजा था ।
हाय, हमारा लाल चकित कितना निस्तब्ध खड़ा है!
और कौन है, जो विस्मित, निस्तब्ध न रह जाएगा
इस अकांड राज्याभिषेक, उस वट के विस्थापन से
जिसकी छाया हेतु दूर से वह चल कर आया हो?
कितना विषम शोक! पहले तो जनमा वन-कानन में;
जब महार्घ थी, मिली नहीं तब शीतल गोद पिता की ।
और स्वयं आया समीप, तब सहसा चले गए वे
राजपाट, सर्वस्व सौंप, केवल वात्सल्य चुराकर ।
नीरवता रवपूर्न, मौन तेरा, सब भाँति, मुखर है;
बेटा! तेरी मनोव्यथा यह किस पर प्रकट नहीं है?
पर, अब कौन विकल्प? सामने शेष एक ही पथ है
मस्तकस्थ इस राजमुकुट का भार वहन करने का ।
उदित हुआ सौभाग्य आयु! तेरा अपार संकट में
किंतु, छोड़ कर तुझे, विपद में हमें कौन तारेगा?
मलिन रहा यदि तू, किसके मुख पर मुस्कान खिलेगी?
तू उबरा यदि नहीं, महाप्लावन से कौन बचेगा?
पिता गए वन, किंतु, अरे, माता तो यहीं खड़ी है
बेटा! अब भी तो अनाथ नरनाथ नहीं ऐलों का ।
तुझे प्यास वात्सल्य-सुधा की, मैं भी उसी अमृत से
बिना लुटाए कोष हाय! आजीवन भरी रही हूँ ।
फला न कोई शस्य, प्रकृति से जो भी अमृत मिला था,
लहर मारता रहा टहनियो में, सूनी डालों में ।
किंतु, प्राप्त कर तुझे आज, बस, यही भान होता है,
शस्य-भार से मेरी सब डालियाँ झुकी जाती हों ।
हाय पुत्र! मैं भी जीवन भर बहुत-बहुत प्यासी थी
शीतल जल का पात्र अधर से पहले पहल लगा है ।
तप्त बना मत इसे वीरमणिअ! द्विधा, ग्लानि,चिंता से ।
नहीं देखता, मैं विपन्नता में किस भाँति खड़ी हूँ,
गँवा शतऋतु-सम प्रतापशाली, महान भर्त्ता को,
अंतर से उच्छलित वेदना का विस्फोट दबाकर?
और हाय, तब भी, मैं केवल त्रिया, भीरु नारी हूँ;
रुदन छोड़ विधि ने सिरजा क्या और भाग्य नारी का?
पर, किशोर होने पर भी बेटा! तू वीर नृपति है ।
नृपति नहीं टूटते कभी भी निजी विपत्ति-व्यथा से;
अपनी पीड़ा भूल यंत्रणा औरों की हरते हैं ।
हँसते हैं, जब किरण हास्य की हो सबके अधरों पर,
रोते हैं, जब प्रजा-जनों के नयन सिक्त होते हैं
अपनी पीड़ा कहाँ,उसे अपना आनन्द कहाँ है,
जिस पर चढ़ा किरीट, भार दुर्वह् समाज-शासन का?
किंतु, हाय, हो गया यहाँ यह सब क्या एक निमिष में?
महामात्य
घटित हुआ सब, इस प्रकार्, मानो, अदृश्य के कर में
नाच रही हो पराधीन यह सभा दारु-पुतली-सी
सब की बुद्धि समेट, सभी को अपना पाठ सिखा कर
यह नाटक दुखांत भाग्य ने स्वयं यहाँ खेला है ।
कौन जानता था, अनभ्र ही अशनि आज टूटेगी?
मिला कहाँ आभास देवि! हमको आसन्न विपद का?
कुछ तो भाग्य-अधीन और कुछ महाराज के भय से
हम स्तम्भित रह गए; गिरा खोलें-खोलें, तब तक तो
राज-मुकुट नृप से कुमार के सिर पर पहुंच चुका था ।
सब कुछ हुआ, मरुत जैसे अम्बर में दौड़ रहे हों,
जैसे कोई आग शुष्क कानन को जला रही हो;
सब कुछ हुआ, देवि! जैसे हम मनुज नहीं, पत्थर हों,
जैसे स्वयं अभाग्य हमें आगे को हाँक रहा हो
चले गए सम्राट छोड़ हमको अपार विस्मय में,
कह पाए हम कहाँ देवि! जो कुछ हमको कहना था?
औशीनरी
कौन सका कह व्यथा? नहीं देखा, समग्र जीवन में
जो कुछ हुआ देख उसको मैं कितनी मौन रही हूँ
कोलाहल के बीच मूकता की अकम्प रेखा-सी?
वाणी का वर्चस्व रजत है, किंतु, मौन कंचन है ।
पर, क्या मिला, अंत में जाकर, मुझको इस कंचन से?
उतरा सब इतिहास, जहाँ निर्घोष, निनद, कलकल था;
चले गए उस मूक नीड़ की छाया सभी बचाकर
घटनाओं से दूर जहाँ मैं अचल, शांत बैठी थी ।
महाराज कितने उदार, कितने मृदु, भाव-प्रवण थे!
मुझ अभागिनी को उनने कितना सम्मान दिया था!
पर, चलने के समय कृपा अपनी क्यों भूल गए वे?
रहा नहीं क्यों ध्यान, दानवाक्र्ति इस बड़े भवन में
कहीं उपेक्षित शांत एक वह भी धूमिल कोना है,
कभी भूल कर भी जातीं घटनाएं नहीं जहाँ पर,
न तो जहाँ इतिहासों की पदचाप सुनी जाती है;
जहाँ प्रनय नीरव, अकम्प, कामना, स्निग्ध, शीतल है,
अभिलाषाएँ नहीं व्यग्र अपनी ही ज्वालाओं से;
जहाँ नहीं चरणों के नीचे अरुण सेज मूँगों की,
न तो तरंगों में ऊपर नागिनियाँ लहराती हैं;
जहाँ नहीं बसती कृशानु सुशमा कपोल, अधरों की,
न तो छिटकती हैं रह-रह कर चिंगारियाँ त्वचा से;
स्थापित जहाँ शुभेच्छु, समर्पित हृदय विनम्र त्रिया का,
उद्वेगों से अधिक स्वाद है जहाँ शांति, संयम में;
एक पात्र में जहाँ क्शीर, मधुरस दोनों संचित हैं,
छिपे हुए हैं जहाँ सूर्य-शशधर एक ही हृदय में;
जहाँ भामिनी नहीं मात्र प्रेयसी विमुग्ध पुरुष की,
अमृत-दायिनी, बल-विधायिनी माता भी होती है ।
भूल गए क्यों दयित, हाय, उस नीरव, निभृत निलय में
बैठी है कोई अखंड व्रतमयी समाराधन में,
अश्रुमुखी माँगती एक ही भीख त्रिलोक-भरन से,
कण्-भर भी मत अकल्याण् हो प्रभो! कभी स्वामी का ।
जो भी हो आपदा, मुझे दो,। मैं प्रसन्न सह लूँगी,
देव! किंतु मत चुभे तुच्छतम कंटक भी प्रियतम को
किंतु, हाय, हो गई मृषा साधना सकल जीवन की;
मैं बैठी ही रही ध्यान में जोड़े हुए करों को;
चले गए देवता बिना ही कहे बात इतनी भी,
हतभागी! उठ, जाग, देख, मैं मन्दिर से जाता हूँ ।
याग-यज्ञ, व्रत-अनुष्ठान में, किसी धर्म-साधन में
मुझे बुलाए बिना नहीं प्रियतम प्रवृत होते थे ।
तो यह अंतिम व्रत कठोर कैसे सन्यास सधेगा
किए शून्य वामांक, त्याग मुझ सन्यासिनी प्रिया को?
और त्यागना ही था तो जाते-जाते प्रियतम ने
ले लेने दी नहीं धूलि क्यों अंतिम बार पदों की?
मुझे बुलाए बिना अचानक कैसे चले गए वे?
अकस्मात ही मैं कैसे मर गई कांत के मन में?
शुभे! गाँस यह सदा हृदय-तल में सालती रहेगी,
मेरा ही सर्वस्व हाय, मुझसे यों बिछुड गया है,
मानो, उस पर मुझ अभागिनी का अधिकार नहीं हो।
सुकन्या
देवि! यही है नियम;पाश जो क्षणिक, क्षाम, दुर्बल हैं,
वैराग्योन्मुख पुरुष नहीं उन बन्धों से डरता है ।
जन्म-जन्म की जहाँ, किंतु, श्रृखला अभंग पड़ी है,
यती निकल भागता उधर से आंखें सदा चुराकर ।
परामर्श क्यों करे मुक्तिकामी अपने बन्धन से?
गृहिणी की यदि सुने, गेह से कौन निकल सकता है?
विस्मय की क्या बात? यहाँ जो हुआ, वही होना था ।
अचरज नहीं, आपसे मिलकर नृप यदि नहीं गए हैं ।
औशीनरी
पतिव्रते! पर, हाय,चोट यह कितनी तिग्म, विषम है/
कैसी अवमानना1 प्रतारण कितना तीव्र गरल-सा
मैं अवध्य, निर्दोष, विचारा यह क्यों नहीं दयित ने?
छला किसी ने और वज्र आ गिरा किसी के सिर पर
गँवा दिया सर्वस्व हाय, मैने छिप कर छाया में,
अस्वीकृत कर खुली धूप में आंख खोल चलने से ।
देवि! प्रेम के जिस तट पर अप्सरा स्नान करती है,
गई नहीं क्यों मैं तरंग-आकुल उस रसित पुलिन पर?
पछताती हूँ हाय, रक्त आवरण फाड़ व्रीड़ा का
व्यंजित होने दिया नहीं क्यों मैने उस प्रमदा को
जो केवल अप्सरा नहीं, मुझमें भी छिपी हुई थी?
बसी नहीं क्यों कुसुम-दान बन उन विशाल बाँहों में?
लगी फिरी क्यों नहीं पुष्प-सज्र बन उदग्र ग्रीवा से?
बेध रहे थे उठा शरासन जब से वक्ष तिमिर का,
बनी न क्यों शिंजिनी, हाय, तब मैं उस महाधनुष की?
गई नहीं क्यों संग-संग मैं धरणी और गगन में
जहाँ-जहाँ प्रिय को महान घटनाएं बुला रही थीं?
अंकित थे कर रहे प्राणपति जब आख्यान विजय का
पर्ण-पर्ण पर, लहर-लहर् में, उन्नत शिखर-शिखर पर,
समा गई क्यों नहीं, हाय, तब मैं जीवंत प्रभा-सी
बाणों के फलकों, कृशानु की लोहित रेखाओं में?
जीत गई वे जो लहरों पर मचल-मचल चलती थीं,
उड़ सकती थीं खुली धूप में, मेघों भरे गगन में
हारी मैं इसलिए कि मेरे व्रीड़ा-विकल दृगों में
खुली धूप की प्रभा,किरण कोलाहल की गड़ती थी ।
देखा ही कुछ नहीं, कहाँ, क्या महिमा बरस रही है
अंतर की छाया-निवास से बाहर कभी निकल कर
हाय, भाग्य ने मुझे खींच इस त्रपा-त्रस्त छाया से
फेंक दिया क्यों नहीं धूप में, उस उन्मुक्त भुवन में ।
जहाँ तरंगाकुल समुद्र जीवन का लहराता है
और पुरुष हो रणारूढ, विशिखों के निक्षेपन से-
पूर्व, पास में खड़ी प्रिया का मुख निहार लेता है?
हाय, सती मैं ही कदर्य, दोषी, अनुदार, कृपण हूँ,
केवल शुभकामना, मंगलैषा से क्या होता है?
मैं ही दे न पाई भावमय वह आहार पुरुष को
जिसकी उन्हें अपार क्षुधा, उतनी आवश्यकता थी ।
मुझे भ्रांति थी, जो कुछ था मेरा, सब चढ़ा चुकी हूँ;
शेष नहीं अब कोई भी पूजा-प्रसून डाली में;
किंतु, हाय, प्रियतम को जिसकी सबसे अधिक तृषा थी,
अब लगता है चूक गई मैं वही सुरभि देने से ।
रही समेटे अलंकार क्यों लज्जामयी विधु-सी?
बिखर पड़ी क्यों नहीं कुट्टमित, चकित, ललित,लीला में?
बरस गई क्यों नहीं घेर सारा अस्तित्व दयित का
मैं प्रसन्न,उद्दाम, तरंगित, मदिर मेघ-माला-सी?
हार गई मैं हाय! अनुत्तम, अपर ऋद्धि जीवन की
प्राणों के प्रार्थना-भवन में बैठी ध्यान लगाकर ।
सुकन्या
देवि! आपकी व्यथा, सत्य ही, अति दुरंत, दुस्सह है;
आजीवन यह गाँस हृदय से, सचमुच नहीं कढ़ेगी ।
पर, इस ग्लानि,प्रदाह, आत्म-पीड़न से अब क्या होगा?
उन्मूलित वाटिका नहीं फिर से बसने वाली है ।
उसे देख कर जिएँ, नया पादप जो आन मिला है ।
जितना भी सिर धुनें शोक से प्रियतम की विच्युति पर,
किंतु, सुचरिते! यह अचिंत्य विस्मय की बात नहीं है ।
पुरुष नहीं विक्रांत, भीम, दुर्जय, कराल होता है,
जहाँ सामने तथ्य खड़े हों, अरि हों, चट्टानें हों ।
पर, जब कभी युद्ध ठन जाता इसी अजेय पुरुष का
अपने ही मन की तरंग, अपनी ही किसी तृषा से
उससे बढ़कर और कौन कायर जग में होता है?
कर लेता है आत्म-घात, क्या कथा यतीत्व-ग्रहण की?
पर के फेंके हुए पाश से पुरुष नहीं डरता है,
वह, अवश्य ही, काट फेंकता उसे बाहु के बल से ।
पर, फँस जाता जभी वीर अपनी निर्मित उलझन में,
निकल भागने की उसको तब राह नहीं मिलती है ।
इसीलिए दायित्व गहन,दुस्तर गृहस्थ नारी का ।
क्षण-क्षण सजग, अनिन्द्र-दृष्टि देखना उसे होता है,
अभी कहाँ है व्यथा, समर में लौटे हुए पुरुष को
कहाँ लगी है प्यास, पाँव में काँटे कहाँ चुभे हैं?
बुरा किया यदि शुभे! आपने देखा नहीं नृपति के
कहाँ घाव थे, कहाँ जलन थी, कहाँ मर्म-पीड़ा थी?
यह भी नियम विचित्र प्रकृति का, जो समर्थ, उद्भट है,
दौड़ रहा ऊपर पयोधि के खुले हुए प्रांगण में;
और त्रिया जो अबल, मात्र आंसू, केवल करुणा है,
वही बैठ सम्पूर्ण सृष्टि के महा मूल निस्तल में
छिगुनी पर धारे समुद्र को ऊंचा किए हुए है ।
इसीलिए इतिहास, तुच्छ अनुचर प्रकाश, हलचल का,
किसी त्रिया की कथा नहीं तब तक अंकित करता है,
छाँह छोड़ जब तक आकर वह वरवर्णिनी प्रभा में
बैठ नहीं जाती नरत्व ले नर के सिंहासन पर
या जब तक मोहिनी फेंक मदनायित नयन-शरों की
किसी पुरुष को ले जग में विक्षोभ नहीं भरती है ।
देवि! ग्लानि क्या। हम इतिहासों में यदि प्रथित नहीं हैं
अपनी सहज भूमि नारी की धूप नहीं, छाया है
इतिहासों की सकल दृष्टि केन्द्रित, बस एक क्रिया पर ।
किंतु, नारियाँ क्रिया नहीं, प्रेरणा, पीति, करुणा हैं;
उद्गम-स्थली अदृश्य ,जहाँ से सभी कर्म उठते हैं ।
लिखता है इतिहास कथा उस जनाकीर्ण जीवन की;
जहाँ सूर्य का प्रखर ताप है, भीषण कोलाहल है
पर, फैला है जहाँ चान्द्र साम्राज्य मूक नारी का;
वह प्रदेश एकांत, बोलता केवल संकेतों में ।
अंवेषी इतिहास शूरता का, संघर्ष-सुयश का;
किंतु, हाय, शूरता नारियों की नीरव होती है;
वह सशब्द आघात नहीं, ममता है, कष्ट-सहन है ।
सदा दौड़ता ही रहता इतिहास व्यग्र इस भय से,
छूट न जाए कहीं संग भागते हुए अवसर का;
किंतु, अचंचल त्रिया बैठ अपने गम्भीर प्राणों में
अनुद्विग्न, अनधीर काल का पथ देखा करती है ।
पर, तब भी हम छिन्न नहीं इतिहासों की धारा से
कौन नहीं जानता पुरुष जब थकता कभी समर में,
किस मुख का कर ध्यान, याद कर किसके स्निग्ध-दृगों को
क्लांति छोड़ वह पुन: नए पुलकों से भर जाता है?
और कौन प्रति प्रात हाँक नर को बाहर करती है
नई उर्मि, नूतन उमंग-आशा से उसे सजा कर
लड़ने को जा वहाँ, जहाँ जीवन-रण छिड़ा हुआ है,
करने को निज अंशदान इतिहासों के प्रणयन में?
और सांझ के समय पुरुष जब आता लौट समर से,
दिन भर का इतिहास कौन उसके मुख से सुनती है
कभी मन्द स्मिति-सहित, कभी आंखों से अश्रु बहाकर?
नारी क्रिया नहीं, वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है ।
इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,
हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है ।
हाय, स्वप्न! जानें, भविष्य भू का वह कब आयेगा,
जब धरती पर निनद नहीं, नीरवता राज करेगी;
दिन भर कर संघर्ष पुरुष जो भी इतिहास रचेगा,
बन जाएगा काव्य, सांझ होते ही, भवन-भवन में!
अभी चंड मध्याह्न, सूर्य की ज्वाला बहुत प्रखर है;
दिवस लग्न अनुकूल वह्नि के,पौरुष-पूर्ण गुणों के ।
जब आएगी रात, स्यात, तब शांत, अशब्द क्षणों में
मही सिक्त होगी नरेश्वरी की शीतल महिमा से ।
और देवि! जिन दिव्य गुणों को मानवता कहते हैं
उस्के भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है ।
जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है,
उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के ।
कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था;
इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की ।
और नारियों को विरचा उसने कुछ इस कौशल से,
हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर ।
किंतु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का,
हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी,
कोलाहल, कर्कश, निनाद में भी जो श्रवण करेगा
कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;
और बिना ही कहे समझ लेगा, आँखों-आँखों में,
मूक व्यथा की कसक, आँसुओं की निस्तब्ध गिरा को ।
औशीनरी
कितना मधुर स्वप्न! कैसी कल्पना चान्द्र महिमा की!
नारी का स्वर्णिम भविष्य! जानें, वह अभी कहाँ है!
हम तो चलीं भोग उसको, जो सुख-दुख हमें बदा था,
मिलें अधिक उज्जवल, उदार युग आगे की ललना को
आयु
माँ! हताश मत हो, भविष्य वह चाहे कहीं छिपा हो,
मैं आया हूँ अग्रदूत बन उसी स्वर्ण-जीवन का ।
पिया दूध ही नहीं, जननि! मैं करुणामयी त्रिया के
क्षीरोज्जवल कल्पनालोक में पल कर बड़ा हुआ हूँ ।
जो कुछ मिला मातृ-ममता से, माँके सजल हृदय से,
पिता नहीं, मैने जीवन में माताएं देखी हैं ।
दिया एक ने जन्म, दूसरी माँ ने लगा हृदय से
पाल-पोस कर बड़ा किया आँखों का अमृत पिलाकर;
अब मैं होकर युवा खोजते हुए यहाँ आया हूँ
राज-मुकुट को नहीं, तीसरी माँ के ही चरणों को ।
माँ! मैं पीछे नृप किशोर, पहले तेरा बेटा हूँ ।
[आयु औशीनरी के चरणों पर गिरता है। औशीनरी
उसे उठाकर हृदय से लगाती है और अपने आसूँ पोंछती है।]
सुकन्या
बरस गया पीयूष; देवि! यह भी है धर्म त्रिया का
अटक गई हो तरी मनुज की किसी घाट-अवघट में,
तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;
और लुप्त हो जाए पुन: आतप,प्रकाश, हलचल से ।
सो वह चलने लगी;
आइए, वापस लौट चलें हम,
मैं अपने घर, देवि! आप अपने प्रार्थना-भवन में ।
त्यागमयी हम कभी नहीं रुकती हैं अधिक समय तक ।
इतिहासों की आग बुझाकर भी उनके पृष्ठों में।
पंचम अंक समाप्त
खंडकाव्य "उर्वशी" समाप्त
परिशिष्ट - रामधारी सिंह दिनकर
तृतीय अंक
मणिकुट्टिम=अंग्रेजी शब्द, मोजेक के अर्थ में प्रयुक्त
ऋक्षकल्प=नक्षत्र-कल्प
चन्द्रलिंग=जिसका लक्षण या सूचक चन्द्रमा हो ।
बृंहित=बढ़ा हुआ, उस अर्थ में जिसमें आकाश सतत वर्धनशील है।
चतुर्थ अंक
“और अप्सरा संततियों का पालन कब करती है?”
पुराणों में निम्नलिखित कथाएँ देखिए--
शुकदेवजी का जन्म धृताची से, मत्स्यगन्धा का जन्म
उपरिचर और अन्द्रिका से, प्रमद्वरा का जन्म विश्वावसु
मुनि और मेनका से। राजा आग्नीध्र और पूर्वचिति,
मुनीश्वर कंडु और प्रमलोचा तथा मेनका और विश्वामित्र
की कथाएँ भी। गंगा ने भी अपने आठ पुत्रों में से
किसी का पालन नहीं किया। हाँ मेनका एक ऐसी
अप्सरा अवश्य है, जिसके भीतर मातृत्व कुछ अधिक
सजीव था। दुष्यंत के यहाँ से शकुंतला जब निकाल
दी गई, तब सहसा मेनका आकर उसे उठा ले गई,
ऐसा साक्ष्य कालिदास की कल्पना देती है।
पंचम अंक
अर्यमा=सूर्य अभिषुत
सोम=पीसा हुआ सोम
आहवनीय=हवन के उपयुक्त
अश्विद्वय=दोनों अश्विनी कुमार
निषण्ण=उपविष्ट
वधूसरा=च्यवन की माता का नाम पुलोमा था।
दैत्य द्वारा पीड़ित होने पर वधूसरा उसके
आसुओं से निकली थी। च्यवन की पहली
पत्नी का नाम आरुषी था। जब प्रसव-काल
में उसका देहांत हो गया, च्यवन तपस्या
में चले गएऔर तपस्या के आसन से उठकर
दुबारा उन्होने प्रेम किया ।